विचार / लेख
-सनियारा खान
1928 में यंग इंडिया में महात्मा गांधी ने लिखा था कि ईश्वर कभी भी हिंदुस्तान को पश्चिम के औद्योगिकरण को अपनाने की मानसिकता न दे। बड़े बड़े पश्चिमी देशों ने उन्नति के नाम पर प्रकृति को इस तरह दोहा है कि आज उन देशों में प्रकृति का प्रकोप दिखने भी लगा है। फिर एशिया के विकासशील देशों में भी ये प्रवृत्ति शुरू हो गई। हम भी उन्नति के नाम पर प्रकृति से छेड़छाड़ करने लग गए।
एक बच्चा जब जन्म लेता है, उसमें कोई लालच नहीं रहता है और न ही कोई हवस। लेकिन वह जब बड़ा होने लगता है तब औरों को देख-देखकर वह भी ज़्यादा पाने की लालच करना सीख जाता है। उसके बाद ‘मुझे और ज्यादा चाहिए’ वाली मानसिकता उसमें पनपने लगती है। बड़े होकर हम धन और क्षमता की लालच में एक विशाल चक्रव्यूह में फंसते जाते हैं। अंत तक इसी चक्रव्यूह में ही फंसे रह जाते हैं। ये लालच ही है जो हमें आवश्यकता से बहुत आगे तक धकेलती है। इसीलिए गांधीजी ने ये भी कहा था कि समाज में सभी लोगों की आवश्यकताएं पूरी होनी चाहिए।
ये धरती सभी की लालच के लिए नहीं बल्कि सभी की आवश्यकता की पूर्ति के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध कराती है। लेकिन चंद लोग लालच में डूबकर औरों के हिस्से की आवश्यकता को भी छीनकर अपने हिस्से में कर लेते हैं। आवश्यकता हमें सुकून से जीने देती है। लेकिन लालच हमारा सुकून छीन लेती है। जब हम लालची हो जाते हैं तब हिंसा और स्वार्थ भी हमारे अंदर आसानी से दाखिल हो जाता हैं। शहर तो शहर, हमारे गांव भी लालच के आंधी तूफान में बहने लगते हैं। क्यों हम हमारी सादगी भरी प्राचीन संस्कृति को भूलकर औरों का देखादेखी सारी कु संस्कृतियों को अपना कर सर्वनाश की राह पर चल पड़े हैं?
शायद इसीलिए ये कहा जाता है कि हमारी ही अपनी भूलों के कारण हमें कोरोना का सामना करना पड़ा। वैश्विक महामारी पर शोध करने वाली इको हेल्थ एलायंस नामक एक संस्था की प्रमुख पीटर दसजाक ने कहा भी कि कोरोना के लिए हम लोग सिर्फ चीन को ही दोष नहीं दे सकते हैं। धरती में जो जैव विविधता है, उसे मानव जाति निरंतर नुकसान पहुंचा रहे हैं। ये भी महामारी का एक कारण हो सकता है और बहुत बड़ा कारण हो सकता है ।
कोरोना को हमारे लिए अंतिम मुश्किल मानना गलत होगा। आने वाले दिनों में और भी बड़ी-बड़ी मुश्किलें हम पर आफत बनकर टूट सकती हैं! कम से कम अब तो हमें अपनी आदतें सुधारने के लिए कदम उठाना चाहिए! अभी के दिनों में, हम में से ज्यादातर लोग चीजों को खरीदकर जमा करना पसंद करते हैं। इस आदत को बदलकर हमें जिनके पास कुछ नहीं है,उनकी मदद करना चाहिए।
प्रकृति के कोप से अगर हम बचना चाहते हैं तो हम में से हर एक को दया और इंसानियत के ज़रिए पूरे विश्व को स्वस्थ करने की कोशिश करना होगा। घृणा, द्वेष और आत्ममुग्धता से हमें कुछ हासिल नहीं होगा। आज जो ये सारा विश्व प्राकृतिक आपदा और इंसानी आपदा से युद्ध कर रहा है, ये सब हमारी ही नकारात्मक गतिविधियों की देन हैं। हम जो खुदगर्ज जिंदगी जी रहे हैं, इसी के चलते मां बाप के मरते समय बच्चे पास नहीं होते... अपनों के अंतिम संस्कार में जाने कितने लोग हिस्सा ले नहीं पाते और तो और खुदगर्जी ने रिश्तों में भी दरार ला दिया है। किसी के लिए किसी के पास समय नहीं है। सिर्फ और सिर्फ कमाना और आगे बढ़ते जाना ही जीवन का स्वरूप हो गया है। इसी को अभी सभ्यता माना जा रहा है, भले ही इस सभ्यता के लिए हम बहुत बड़ी कीमत चुका रहे हैं! बहुत कम लोग समय रहते ये समझ पाते हैं कि ये सिर्फ कीमत ही नहीं, हमारे लिए सजा भी है।
शायद करोना के समय में हम सब को गृह बंदी बनाकर प्रकृति ने हमें यही समझाने की कोशिश की है कि हमारी अंतहीन लालच कई लोगों को भूखा रखती है। अब तो आत्ममंथन होना चाहिए कि बहुत सी चीजों के बगैर भी हम जी सकते हैं और उन चीजों को उन लोगों के लिए छोड़ देना चाहिए जिन्हें सच में उन चीजों की जरूरत है। इस तरह नहीं सोचेंगे तो हम लालच के पीछे दौड़-दौडक़र थक जायेंगे और अपने साथ साथ इस पृथ्वी को भी बीमार कर देंगे। कम से कम संसाधनों के साथ भी हम कैसे जी सकते हैं इसी बात को लेकर नेटफ्लिक्स में एक डॉक्यूमेंट्री मूवी भी आई थी- The Minimalists: Less Is Now अर्थात न्यूनतमवादी जीवनशैली को अपनाना।
इस मूवी में यही कहा गया है कि गैरजरूरी सामानों के भीड़ में फंसकर हम भूल जाते हैं कि जिंदगी जीने के लिए बहुत कम चीजों की हमें जरूरत होती है। लेकिन हम जैसे नासमझ और लालची इंसान इस धरा को पूरी तरह निचोड़ लेने की कोशिश करते करते ही प्रथम महायुद्ध, द्वितीय महायुद्ध, प्लेग, स्पेनिश फ्लू, इबोला, स्वाइन फ्लू और करोना को अपने घर तक बुला लिया है! करोना के बाद अब और भी कई नई नई बीमारियां इंसानों को डरा रही हैं। अगर हमने सही रास्ता नहीं अपनाया तो हमारी बर्बादी निश्चित है। प्रकृति के रोष से बचना है तो हमें अपने अहंकारी कदमों को रोकना ही होगा। युद्ध काल के विनाश को हम टीवी और सिनेमा के परदे पर देखते रहते हैं। शीत अंचल में बर्फ गलने से कैसे वहां के जीव जन्तु मर रहे हैं इस बारे में भी हम पढ़ते हैं और देखते हैं। इंसानी कचरों से आज हिमालय को भी डस्टबिन बनना पड़ रहा है। तो कब तक ये सब चलता रहेगा? हर शुरुवात का अंत तय होता है। इतना सब होने के बाद भी हम अगर सचेत नहीं होंगे तो शायद दूसरे ग्रह के प्राणी एक दिन टीवी में हमें देखेंगे और किस्से कहानियों में हमारे बारे में पढ़ेंगे। अन्त में रेचल कार्सन की लिखी हुई एक बात को हम सभी को समझने की जरूरत है।
....हम सब कुदरत के साथ इंसानों के रिश्तों को जितनी साफ नजर से देखना सीखेंगे, कुदरत के साथ अपने टकराव को उतना ही कम कर पाएंगे...सच्चाई तो यह है कि हम लोगों को हर कदम में ये बात याद रखना चाहिए कि हम पृथ्वी पर अतिथि बनकर आए हैं और हमें अतिथि की तरह ही जीना चाहिए।