विचार / लेख

-हेमंत कुमार झा
सरकारी नौकरियों में पेंशन खत्म होने का प्रावधान यूं ही नहीं आया। इसके पीछे देशी विदेशी बीमा कंपनियों का अथक परिश्रम था। आज जब 2025 के नए बजट में भारतीय बीमा क्षेत्र में शत प्रतिशत विदेशी निवेश को स्वीकृति मिल गई तो बहुराष्ट्रीय बीमा कंपनियों के सतत ‘परिश्रम’ को भी अंतिम मुकाम मिल गया।
वह 1990 के दशक का अंतिम दौर था। भारत में आर्थिक उदारीकरण अपने दूसरे चक्र में प्रवेश कर चुका था। विदेशी निवेश के लिए भारतीय नीति नियंता पलक पांवड़े बिछाए इस देश उस देश की यात्रा के दौरान कंपनियों को आमंत्रित कर रहे थे। उसी प्रक्रिया में बीमा क्षेत्र में भी देशी विदेशी निवेश को आकर्षित करने के भी प्रयास हो रहे थे।
तब के दौर में बीमा क्षेत्र में एलआईसी और कुछेक अन्य सरकारी कंपनियों का ही बोलबाला था। निजी निवेश के लिए द्वार तो खोले जा चुके थे लेकिन कृपा थी कि कहीं अटकी पड़ी थी।
निजी बीमा कंपनियों की सरकार से शिकायत थी कि भारत में गरीबी इतनी है कि आम लोग तो बीमा खरीदने से रहे। मिडिल क्लास, जो बीमा का खरीदार था या हो सकता था, उसका बड़ा हिस्सा केंद्र और राज्य सरकार के साथ ही पब्लिक सेक्टर की नौकरियों में था और रिटायरमेंट के बाद पेंशन की सुविधा से लैस था। वह भी ऐसा पेंशन, जिसमें हर छह महीने के बाद महंगाई भत्ते की किस्त जुड़ जाती थी और हर दस वर्ष बाद पेंशन की मूल राशि का पुनरीक्षण कर उसमें अच्छी खासी बढ़ोतरी कर दी जाती थी।
बीमा का बाजार सिर्फ जीवन बीमा जैसी पॉलिसियों से नहीं बढ़ सकता था। उसके लिए जरूरी था कि लोग पेंशन प्लान जैसी योजनाओं में भारी मात्रा में निवेश करें। यह निवेश एकमुश्त बड़ी राशि जमा कर भी हो सकता था, किस्तों में जमा कर भी हो सकता था।
लेकिन सरकारी और पब्लिक सेक्टर के करोड़ों कर्मियों का तो बुढ़ापा या भविष्य, जो भी कहें, रिटायरमेंट उपरांत सरकारी पेंशन के कारण सुरक्षित था। वे जीवन बीमा तो ले रहे थे लेकिन पेंशन प्लान आदि में उनके निवेश का कोई मतलब नहीं था।
सरकार ने प्रथम चक्र में भारतीय बीमा क्षेत्र में 26 प्रतिशत विदेशी निवेश को स्वीकृति दी। यानी कोई बहुराष्ट्रीय बीमा कंपनी किसी भारतीय कंपनी के साथ भागीदारी कर भारत के बीमा बाजार में उतर सकता था। कंपनी में भारतीय पूंजी 74 प्रतिशत, विदेशी पूंजी 26 प्रतिशत।
लेकिन, रंग चोखा नहीं आ रहा था। कंपनियों को असल लाभ तो पेंशन प्लान जैसी योजनाओं से मिलना था जिनमें कोई एक मुश्त बहुत बड़ी राशि कंपनी को सौंप देता है या फिर पच्चीस तीस वर्षों तक अपने पेंशन फंड में निर्धारित राशि जमा करता रहता है, करता रहता है। ताकि, बुढ़ापे में उसे हर महीने एक निर्धारित राशि मिलते रहने की गारंटी रहें।
देशी विदेशी बीमा कंपनियों ने भारतीय नीति नियंताओं पर दबाव बनाना शुरू कर दिया कि सरकारी और पब्लिक सेक्टर की नौकरियों में पेंशन का प्रावधान खत्म कर दिया जाए तो भारत के बीमा बाजार में रौनक आ सकती है।
फिर क्या था, अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग दिन रात टीवी पर, अखबारों में चीखने चिल्लाने लगा कि पेंशन के मद में देश की बड़ी राशि चली जाती है और इस पर पुनर्विचार करना आज की बड़ी जरूरत है। फिर, एक दिन बाबू यशवंत सिन्हा बतौर वित्त मंत्री, भारत सरकार संसद में जार जार रोते देखे गए कि सरकार अब पेंशन का बोझ उठाने में सक्षम नहीं हो पा रही है। वे इस बात से बहुत दुखी थे कि लोग अब बहुत दिनों तक जीवित रहते हैं और नियमित पेंशन पाने वाले लोग तो और भी अधिक जीते हैं। इस कारण पेंशन की राशि का ‘बोझ’ और अधिक बढ़ता जा रहा है।
फिर, एक दिन सरकार ने घोषणा कर दी कि अब सरकारी और पब्लिक सेक्टर में रिटायरमेंट के बाद पेंशन खत्म और इसकी जगह ‘नेशनल पेंशन स्कीम’ लाई जाएगी। नेशनल पेंशन स्कीम, जिसे आम बोलचाल की भाषा में सरकारी कर्मी न्यू पेंशन स्कीम कहते हैं, ओल्ड पेंशन स्कीम की तुलना में निहायत ही दरिद्र और अति भ्रामक योजना थी। लेकिन, जब सरकार बहादुर ने तय कर लिया तो कर लिया। तब सरकार भाजपा की थी और इस कदम को कांग्रेस का भी समर्थन था। बाकियों की क्या बिसात थी जो या तो सिर्फ अपने बेटे पोते की राजनीति में रमे थे या जातियों की ठेकेदारी में लगे थे। ओल्ड पेंशन स्कीम खत्म तो खत्म। अब एनपीएस का जमाना था।
बीमा बाजार में रौनक आने लगी। बहुराष्ट्रीय बीमा कंपनियों के चरण रज से भारतीय भूमि धन्य होने लगी। देशी और विदेशी कंपनियों के गठजोड़ से जन्मी अजीबोगरीब नामों वाली दर्जनों बीमा कंपनियों से बीमा बाजार गुलजार होने लगा।
बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने बाजार के विस्तार के लिए आक्रामक और योजनाबद्ध रणनीतियों के लिए जानी जाती हैं। अचानक से हमारे गांवों कस्बों में बीमा एजेंटों की बाढ़ सी आ गई। हर तीसरे चौथे घर का कोई न कोई बेरोजगार युवक किसी इंश्योरेंस कंपनी का एजेंट बन कर लोगों को बीमा की परिभाषा और उसके लाभ पढ़ाने लगा। एक से एक प्लान, एक से एक प्रलोभन। जब तक भारतीय नियामक एजेंसियां जागरूक होती और कुछ जरूरी कदम उठाती, यूलिप नामक एक प्लान से इन कंपनियों ने भारतीयों को अच्छा खासा लूटा और क्या खूब लूटा।
इधर, जैसे जैसे समय बीतने लगा एनपीएस का खोखलापन सामने आने लगा। 2004 से यह शुरू हुआ और 2014 तक आते आते इस योजना से जुड़े इक्के-दुक्के सरकारी लोग रिटायर भी होने लगे। एनपीएस में उन्हें मिलने वाली राशि इतनी कम थी कि न्यूज अखबारों में भी छपा।
एनपीएस में निवेश का एक बड़ा हिस्सा बाजार के हवाले कर देने की योजना ने इसे और अधिक असुरक्षित बना दिया था।
अब सरकारी और पब्लिक सेक्टर कर्मी चौंके। वे अपने बुढ़ापे के लिए अपनी जवानी की गाढ़ी कमाई से और अधिक राशि वैकल्पिक योजनाओं में निवेश करने के लिए विवश होने लगे। अब बीमा के बाजार में और अधिक सरगर्मी आ गई। कंपनियों की पौ बारह होने का माहौल बन चुका था।
तब तक अपने मोदी जी आ चुके थे और छा चुके थे। 2014 के मई में वे आए और दिसंबर, 2014 में उनकी सरकार ने बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 49 प्रतिशत कर दी। विदेशी निवेश संबंधी नियमों को भी अधिक ‘उदार’ बनाया गया ताकि बीमा का बाजार अधिक से अधिक बढ़ सके।
2018-19 तक आते आते एनपीएस का ढोल फटने लगा जब अखबारों में खबरें छपने लगी कि 70 हजार के अंतिम वेतन पर रिटायर सरकारी बाबू को मात्र 37 सौ पेंशन फिक्स हुआ। बाकी तमाम बाबुओं की पेशानी पर बल पडऩे लगे ऐसी खबरों को देख-सुनकर और वे लपक लपक कर आजीवन फलां प्लान, सुनिधि ढिकाना प्लान की ओर मुखातिब होने लगे। बाजार और गुलजार हुआ।
प्राइवेट कम्पनियों के विस्तार और पब्लिक सेक्टर के निजीकरण ने प्राइवेट क्षेत्र के कर्मियों की संख्या में खासी बढ़ोतरी की जिनके लिए एनपीएस का विकल्प तो खुला था लेकिन उसके लचरपन के उजागर होने के बाद वे कर्मी भी बीमा कंपनियों के पेंशन प्लान आदि में निवेश कर अपने बुढ़ापे को सुरक्षित करने की दिशा में आगे बढऩे लगे।
अब रास्ता बुहारा जा चुका था। विदेशी पूंजी उसी रास्ते चल कर पवित्र भारत भूमि में मुनाफे का संगम नहाने आने वाली थी तो रास्ता बुहारना वाजिब ही था। मोदी सर ने और दरियादिली दिखाई और 2021 में बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा 49 से बढ़ाकर 74 कर दी गई।
इस बीच इन कंपनियों के मुनाफे के खेल भी सामने आते रहे जिन्हें मुख्यधारा के मीडिया ने जानबूझकर अधिक तवज्जो नहीं दी। फसल बीमा जैसी योजनाओं में तो जम कर लूट मची और करोड़ों किसान ठगे से रह गए जब उनकी क्षति का दस प्रतिशत तक भी उन्हें नहीं मिला।
लेकिन, तब तक भारत के ग्रामीण और शहरी क्षेत्र के मिडिल क्लास का बड़ा हिस्सा राष्ट्रवाद और धर्मवाद के झोंकों में झूलने लगा था और कंपनियों की लूट जैसे ‘गैर जरूरी’ मुद्दों पर विमर्श का कोई खास स्कोप नहीं रह गया था। कुछ सिरफिरे किस्म के बुद्धिजीवी अक्सर सोशल मीडिया मंच पर या अन्य मंचों पर ऐसे सवाल उठाते जरूर रहे लेकिन उन्हें ‘अप्रासंगिक हो चुकी विचारधाराओं’ पर अरण्यरोदन करने वाला करार दे कर खारिज कर देने के सुनियोजित और सुसंगठित अभियान सफल होते रहे।
अब, जब भारत का बीमा बाजार कामकाजी वर्ग के निवेश से लबालब होने को है और फिजूल के मुद्दों के सामने आर्थिक प्रश्नों को बौना बना देने का प्रचलन लोकप्रिय हो चुका है तो अंतिम स्ट्रोक भी लगा ही दिया गया है। अब भारत के बीमा क्षेत्र में में विदेशी कंपनियों के निवेश की सीमा समाप्त कर दी गई है और कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी अब शत-प्रतिशत निवेश के साथ भारतीय बाजार में बेरोकटोक आ सकती है।
झांसा देने और मुनाफा कमाने के कंपनियों के हुनर की तो दुनिया दीवानी रही है। अब यह हुनर भारत भी देखेगा और दीवाना होगा। इस बीच सरकार ने एनपीएस के विकल्प के रूप में यूपीएस नामक एक पेंशन प्लान की घोषणा की है जिसके नख शिख का विवेचन करने में सरकारी बाबू लोग लगे हुए हैं। लेकिन, नीति नियंताओं का जो अंतिम लक्ष्य था वह हासिल हो चुका है और शत-प्रतिशत विदेशी निवेश के साथ भारत का बीमा बाजार लाइट बत्तियों से रोशन हो रहा है।