विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार के सिर पर एक चपत लगा दी है। उसने नए संसद भवन के निर्माण पर फिलहाल रोक लगा दी है। 10 दिसंबर को उसके लिए आयोजित भूमि-पूजन को उसने नहीं रोका है लेकिन नए संसद के निर्माण के लिए कई भवनों को गिराने, पेड़ों को हटाने और सारे क्षेत्रीय नक्शे को बदलने पर रोक लगा दी है।
10 दिसंबर को इस महत्वाकांक्षी योजना को अमल में लाने के लिए प्रधानमंत्री भूमि-पूजन कर रहे हैं। इस पूरे निर्माण-कार्य पर लगभग 20 हजार करोड़ रु. खर्च होंगे और इसे अगले दो साल में पूरा करने का विचार है। नए संसद भवन के दोनों सदनों में लगभग 1500 सदस्यों के बैठने की व्यवस्था होगी। अभी इस क्षेत्र में 39 मंत्रालय सिर्फ 17 भवनों में चल रहे हैं।
नए निर्माण-कार्य में ऐसे दस विशाल भवन बनाए जाएंगे, जिनमें 51 मंत्रालय एक साथ चल सकेंगे। अभी सरकार को किराए के कुछ भवन लेने पड़ते हैं। उन पर एक हजार करोड़ रु. सालाना खर्च होता है। अंग्रेज के बनाए ये सभी भवन अब 100 बरस पुराने पड़ गए हैं। नए भव्य भवनों को बनाने का संकल्प मोदी सरकार ने अभी जरुरतों को ध्यान में रखते हुए लिया है लेकिन इस संकल्प के खिलाफ लगभग 1200 आपत्तियां उठाई गई हैं। सर्वोच्च न्यायालय सहित कई अदालतों में विभिन्न लोगों ने याचिकाएं दायर की हैं।उनमें कई आरोप है, जैसे पेड़ गिराने की अनुमति पर्यावरण-नियमों के विरुद्ध दी गई है और जमीन के इस्तेमाल की इज़ाजत गलत तरीके से ली गई है। सरकार ने यह इजाजत देने में अपने ही कई नियमों का उल्लंघन किया है। सर्वोच्च न्यायालय इस बात पर नाराज हुआ कि उसने सरकार से इन सब आपत्तियों पर सफाई मांगी लेकिन वह दिए बिना उसने 10 दिसंबर को भूमि-पूजन की घोषणा कर दी।
इस भूमि-पूजन पर भी हमारे कई सेक्युलरिस्ट नेताओं ने आपत्ति की है। उनका कहना है कि क्या यह हिंदू मंदिर है ? यह भारत-भवन है। इसमें सभी धर्मों से शुभारंभ होना चाहिए। अदालत के वर्तमान रवैए से यह शंका पैदा होती है कि शायद इसकी अनुमति न मिले। अभी तो उसका तेवर यही है लेकिन सामान्य-बोध कहता है कि सरकार के इस संकल्प पर अदालत का फैसला आखिरकार भारी नहीं पड़ेगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
गिरीश मालवीय
भारत के सबसे पुराने बैंकों में से एक लक्ष्मी विलास बैंक (LVB) को एक विदेशी बैंक ष्ठक्चस् (‘डेवलपमेंट बैंक ऑफ सिंगापुर’) में विलय कर दिए जाने का मामला बेहद संगीन है !
अगर आपने स्कैम 1992 हर्षद मेहता देखी हो जो कि अब तक की सबसे बेहतरीन वेबसीरीज में से एक है। तो आपने उसमें हर्षद मेहता के अलावा एक विदेशी बैंक ‘सिटी बैंक’ के द्वारा किए जा रहे घोटालों को भी देखा होगा। कहते हैं जो पकड़ा गया वो चोर और जो बच गया वो सयाना होता है, तो हर्षद मेहता तो पकड़ा गए लेकिन जो सिटी बैंक जैसी विदेशी संस्थाएं जो उस वक्त देश के स्टॉक मार्केट को लगातार अस्थिर कर रही थी वह सिर्फ चेतावनी देकर और कुछ प्रतिबंधात्मक आदेश लगाकर छोड़ दी गई।
क्या आप जानते है कि पीयूष गुप्ता जो इस वक्त DBS बैंक के CEO हैं उन्होंने अपने करियर की शुरूआत वर्ष 1982 में सिटीबैंक के साथ ही की थी। 2009 में DBS के साथ जुडऩे से पहले पीयूष गुप्ता सिटी बैंक के दक्षिण पूर्व एशिया पैसेफिक के मुख्य कार्यकारी अधिकारी थे।
लक्ष्मी विलास बैंक का मर्जर DBS में करने को लेकर स्वदेशी जागरण मंच के अश्विनी महाजन ने भी बहुत महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं। अफसोस की बात यह है कि इस खबर को हिंदी मीडिया ने बिल्कुल तरजीह नहीं दी है। अपने 60 पन्नों के लेटर में अश्विनी महाजन ने RBI से पूछा है कि RBI की पॉलिसी में पारदर्शिता कहां है ? लक्ष्मी विलास जैसे बैंक को विदेशी बैंक में क्यों मिलाया जा रहा है?
क्या यह RBI और भारत सरकार की नई नीति है? यदि ऐसा है, तो इस पर बहस की जानी चाहिए और इसके निहितार्थ की राष्ट्रीय हित में पूरी तरह से जांच की जानी चाहिए!
डीबीएस द्वारा जो 2,500 करोड़ रुपये लक्ष्मी विलास में लगाने की बात की जा रही है वो पैसा डीबीएस इंडिया में आ रहा है, न कि परेशान लक्ष्मी विलास बैंक में।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि DBS को एक तरह से मुफ्त में लक्ष्मी विलास बैंक सौप दिया गया है दरअसल डीबीएस अधिग्रहण के लिए कोई कीमत नहीं चुका रहा है और इसके साथ ही इस विदेशी बैंक की पहुंच लक्ष्मी विलास में जमा भारतीय जमाकर्ताओं के 20,000 करोड़ रुपये पर भी हो गई है।
आपने इसे एक तरह से फ्री में सौंप दिया है। क्या होगा अगर यह विदेशी बैंक डीबीएस लक्ष्मी विलास बैंक को भविष्य में किसी अन्य विदेशी संस्था या अन्य किसी वित्तीय संस्था को बेच दे?
आखिरकार LVB के मामले में RBI का आंकलन का आधार क्या है?
-ध्रुव गुप्त
भारत सरकार द्वारा पूंजीपतियों के हित में लाए गए काले कृषि कानूनों के विरुद्ध ज़ारी किसान आंदोलन का आज तेरहवां दिन है। इस सर्द मौसम में दिल्ली पहुंचने वाले हर मार्ग पर खुले आकाश के नीचे पड़े हजारों किसानों ने अपनी मांगों के समर्थन में आज भारत बंद का आह्वान किया है। आईए, हम अपने अन्नदाताओं का साथ दें! आज के दिन राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त की एक हृदयभेदी कविता ‘किसान’ की याद दिलाना चाहता हूं। कविता बहुत पुरानी है, लेकिन किसानों की स्थिति आज भी बहुत अलग नहीं है।
हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है
हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ
आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में
बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा
देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे
घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा
तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं
बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है
तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते
सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है
मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रमुख अरब देशों के साथ भारत के संबंध जितने घनिष्ट आजकल हो रहे हैं, उतने वे पहले कभी नहीं हुए। यह ठीक है कि गुट-निरपेक्ष आंदोलन के जमाने में नेहरु, नासिर, अक्रूमा के नारे लगाए जाते थे और भारत व मिस्र के संबंध काफी दोस्ताना थे लेकिन आजकल सउदी अरब और संयुक्त अरब अमारात- जैसे देशों के साथ भारत के आर्थिक और सामरिक संबंध इतने बढ़ रहे हैं कि जिसकी वजह से पाकिस्तान-जैसे देशों की चिंता बढऩी स्वाभाविक है। ईरान को भी बुरा लग सकता है, क्योंकि शिया ईरान और सुन्नी देशों में तलवारे खिंची हुई हैं।
लेकिन संतोष का विषय है कि ईरान से भी भारत के संबंध मधुर हैं और भारत को अमेरिका ने ईरान पर लगे प्रतिबंधों से छूट दे रखी है। इन इस्लामी देशों से नरेंद्र मोदी सरकार की घनिष्टता भारत के कट्टरपंथी मुसलमानों के लिए पहेली बनी हुई है।
सउदी अरब और संयुक्त अरब अमारात, दोनों ने मोदी को अपने सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान प्रदान किए हैं और कश्मीर व आतंकवाद के सवालों पर पाकिस्तान को अंगूठा दिखा दिया है। पिछले छह वर्षों में भाजपा सरकार ने इन दोनों देशों से ही नहीं, बहरीन, कुवैत, कतार, ओमान जैसे अन्य इस्लामी देशों के साथ भी अपने संबंध को नई ऊंचाइयां प्रदान की है।इस समय इन देशों में हमारे लगभग 1 करोड़ भारतीय नागरिक कार्यरत हैं और वे लगभग 50 बिलियन डालर बचाकर हर साल भारत भेजते हैं। भारत का व्यापारिक लेन-देन अमेरिका और चीन के बाद सबसे ज्यादा यूएई और सउदी अरब के साथ ही है। आजकल हमारे सेनापति मनोज नर्वणे इन देशों की चार-दिवसीय यात्रा पर गए हुए हैं। खाड़ी के इन प्रमुख देशों में हमारे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री भी जाते रहे हैं।
ये अरब देश औपचारिक रुप से हमारे पड़ौसी देश नहीं हैं। इनकी भौगोलिक सीमाएं हमारी सीमाओं को हालांकि स्पर्श नहीं करती हैं लेकिन इन देशों के साथ सदियों से भारत का संबंध इतना घनिष्ट रहा है कि इन्हें हम अपना पड़ौसी देश मानकर इनके साथ वैसा ही व्यवहार करें तो दोनों पक्षों का लाभ ही लाभ है। इनमें से कुछ देशों में कई बार जाने और इनके जन-साधारण और नेताओं से निकट संपर्क के अवसर मुझे मिले हैं।
मेरा सोचना यह है कि इन देशों को भी मिलाकर यदि जन-दक्षेस या ‘पीपल्स सार्क’ जैसा कोई गैर-सरकारी संगठन खड़ा किया जा सके तो सिर्फ एक करोड़ नहीं, दस करोड़ भारतीयों को नए रोजगार मिल सकते हैं। सारे पड़ौसी देशों की गरीबी भी दूर हो सकती है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. राजू पाण्डेय
यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स (यूडीएचआर) को उसका निर्णायक और अंतिम स्वरूप देने में महिलाओं की भूमिका प्राय: अचर्चित रही है जबकि वास्तविकता यह है कि बिना महिलाओं के योगदान एवं हस्तक्षेप के मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा सर्वसमावेशी नहीं बन पाती बल्कि इसके एकांगी होकर पुरुषों के अधिकारों की सार्वभौम घोषणा बन जाने का खतरा था। इस घोषणा को तैयार करने में महिलाओं के योगदान को तो कम महत्व दिया ही जाता है किंतु इसके निष्पादन में भारतीय उपमहाद्वीप की महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को तो बिल्कुल उपेक्षित कर दिया गया है।
एलेनोर रोसवैल्ट (1884-1962) 1933 से 1945 तक संयुक्त राज्य अमेरिका की प्रथम महिला रहीं। उनकी असाधारण योग्यताओं को देखते हुए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी एस ट्रूमैन ने उन्हें दिसंबर 1945 में यूनाइटेड नेशन्स की जनरल असेंबली में बतौर प्रतिनिधि नियुक्त किया। अप्रैल 1946 में एलेनोर रोसवैल्ट को कमीशन ऑन ह्यूमन राइट्स का पहला चेयरपर्सन बनाया गया। उन्होंने मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा के ड्राफ्ट निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 28 सितंबर 1948 के अपने एक उद्बोधन में उन्होंने यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स को विश्व के प्रत्येक मनुष्य के अंतरराष्ट्रीय मैग्नाकार्टा की संज्ञा दी। वह समय पूर्व और पश्चिम के बढ़ते तनावों का था किंतु एलेनोर रोसवैल्ट की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता उन्हें सभी पक्षों के लिए स्वीकार्य बनाती थी, यही कारण था कि मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा मूर्तरूप ले सकी और इसे 10 दिसंबर 1948 को एकमत से अंगीकार किया गया, केवल सोवियत ब्लॉक के छह देश तथा सऊदी अरब और दक्षिण अफ्रीका मतदान के दौरान अनुपस्थित रहे। एलेनोर रोसवैल्ट को मरणोपरांत 1968 में संयुक्त राष्ट्र शांति पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया।
डेनमार्क की बोडिल गरट्रूड बेगट्रप(1903-1987) एक जानी मानी राजनयिक थीं और महिलाओं के अधिकारों के लिए निरंतर संघर्षरत रहा करती थीं। वे 1947 में संयुक्त राष्ट्र के कमीशन ऑन द स्टेटस ऑफ वीमेन की प्रमुख बनीं। वे यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स में कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं के समावेश हेतु जानी जाती हैं। उन्हीं के प्रयासों से मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा में ‘सभी’ अथवा ‘प्रत्येक’ को मानव अधिकारों के धारक के रूप में स्वीकारा गया अन्यथा इसके पहले ‘ऑल मेन’ का प्रयोग किया गया था। उनके विचार अपने समय से बहुत आगे थे। उन्होंने शिक्षा के अधिकार संबंधी अनुच्छेद 26 में अल्पसंख्यकों के अधिकारों को समाविष्ट करने का प्रस्ताव दिया किंतु वह विवादित होने के कारण स्वीकार नहीं किया जा सका। यही कारण है यूडीएचआर में अल्पसंख्यक अधिकारों का पृथक उल्लेख नहीं है, हां, यह सभी के लिए समान अधिकारों की गारंटी अवश्य करता है।
फ्रांस की मेरी हेलेन लीफाशो(1904-1964) संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सभा के उद्घाटन सत्र में सम्मिलित होने वाले फ्रांसीसी प्रतिनिधिमंडल की एकमात्र महिला सदस्य थीं। उन्हें यूनाइटेड नेशंस कमीशन ऑन द स्टेटस ऑफ वीमेन के 15 संस्थापक सदस्यों में से एक होने का गौरव प्राप्त है। वे 1948 में इसकी चेयरपर्सन बनीं। उन्हें दूसरे अनुच्छेद में ‘लिंग के आधार पर भेदभाव’ न किए जाने के स्पष्ट उल्लेख हेतु श्रेय दिया जाता है। उनके प्रयासों दूसरे अनुच्छेद का अंतिम रूप निम्नानुसार निर्धारित हुआ-इस घोषणा में उल्लिखित सभी अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी प्रकार के भेदभाव (यथा नस्ल,रंग, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीतिक या वैचारिक भिन्नता,राष्ट्रीयता या सामाजिक उद्गम, संपत्ति, जन्म या अन्य दशा पर आधारित भेदभाव) के पात्र रहेगा।
बेलारशियन सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक की एवदोकिया यूरोलोवा (1902-1985)ने 1947 में यूनाइटेड नेशंस कमीशन ऑन द स्टेटस ऑफ वीमेन में रैपोर्टर के रूप में अपनी भूमिका सम्यक रूप से निभाई। उन्होंने मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में महिलाओं हेतु समान वेतन के प्रावधान के लिए जबरदस्त प्रयास किया। यह उन्हीं के प्रयासों का परिणाम था कि हम आज अनुच्छेद 23 को उसके वर्तमान स्वरूप में देखते हैं-‘प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के समान कार्य हेतु समान वेतन का अधिकार है।’ किंतु एवदोकिया यूरोलोवा ने इस घोषणापत्र के निर्माण में एक अन्य महत्वपूर्ण योगदान दिया था जिसकी चर्चा कम ही होती है। उन्होंने पोलैंड की कालिनोस्का तथा यूनियन ऑफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक की पोपोवा के साथ मिलकर गैर स्वशासित इलाकों के लोगों के मानवाधिकारों के अनुच्छेद 2 में समावेश हेतु संघर्ष किया। इस विषय पर तब कम ही लोगों का ध्यान गया था।
मिनर्वा बर्नार्डिनो(1907-1998) महिलाओं के अधिकारों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निरंतर प्रयास करती रहीं। वे 1950 में संयुक्त राष्ट्र संघ में डोमिनिकन रिपब्लिक की प्रतिनिधि नियुक्त हुईं। वे उन चार महिलाओं में थीं जिन्होंने 1945 में सान फ्रांसिस्को में संयुक्त राष्ट्र के चार्टर पर हस्ताक्षर किए थे। वे इस चार्टर में महिलाओं के अधिकारों को सम्मिलित कराने तथा लैंगिक आधार पर भेदभाव न करने जैसे विषयों को समाविष्ट कराने में कामयाब रहीं। इस कार्य में ब्राज़ील की बर्था लुट्ज़ और उरुग्वे की इसाबेल डी विडाल ने उनकी बड़ी मदद की। वे 1953 में यूनाइटेड नेशंस कमीशन ऑन द स्टेटस ऑफ वीमेन की अध्यक्ष भी रहीं। उन्होंने यूडीएचआर की प्रस्तावना में ‘स्त्री और पुरुषों की समानता’ को शामिल करने हेतु बड़ी मजबूती से अपना पक्ष रखा।
अब चर्चा भारतीय उपमहाद्वीप की उन महिलाओं की जिन्होंने यूडीएचआर के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हंसा जीवराज मेहता(1897-1995) ने महात्मा गाँधी से प्रभावित होकर स्वाधीनता आंदोलन में बढ़ चढ़ कर भागीदारी की और विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार समेत अन्य गतिविधियों में सम्मिलित रहीं। वे 1932 में अपने पति के साथ जेल भी गईं। स्वतंत्रता के बाद वे संविधान सभा की सदस्य चुनीं गईं। संविधान सभा में कुल 15 महिलाओं को प्रतिनिधित्व मिला था। वे मौलिक अधिकारों के निर्धारण संबंधी समिति की सदस्य भी रहीं।
हंसा मेहता ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में देश के प्रतिनिधि के रूप में 1947-48 में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्हें यूडीएचआर के आर्टिकल 1 में एक महत्वपूर्ण भाषागत सुधार हेतु जाना जाता है। पहले इसमें ‘ऑल मेन आर बॉर्न फ्री एंड इच्ल’ लिखा गया था जिससे एलेनोर रोसवैल्ट भी सहमत थीं किंतु हंसा मेहता ने अपने प्रखर तर्कों से इसे संशोधित करने हेतु बाध्य कर दिया, इसे बदल कर ‘ऑल ह्यूमन बीइंग्स आर बॉर्न फ्री एंड इच्ल’ किया गया। कालांतर में 1950 में हंसा मेहता संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग की वाईस चेयरमैन बनीं।
बेगम शाइस्ता सुहरावर्दी इकरामुल्लाह(1915-2000) जानी मानी पाकिस्तानी राजनेत्री, राजनयिक और लेखिका थीं। उन्हें लंदन विश्विद्यालय से पीएच डी की उपाधि प्राप्त करने वाली प्रथम मुस्लिम महिला होने का गौरव प्राप्त है। वे संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सभा की सामाजिक-सांस्कृतिक तथा मानवीय विषयों की तीसरी समिति में प्रतिनिधि थीं। इस समिति ने यूडीएचआर के मसौदे पर चर्चा करने के लिए 1948 में 81 बैठकें की थीं। उन्हें यूडीएचआर में आर्टिकल 16 को सम्मिलित कराने का श्रेय दिया जाता है जो विवाह के संबंध में महिलाओं को बराबरी के अधिकार प्रदान करता है। उनका मानना था कि अनुच्छेद 16 बाल विवाहों और दबावपूर्वक होने वाले विवाहों की रोकथाम में सहायक सिद्ध होगा। उन्होंने मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में महिलाओं को स्वतंत्रता, समानता और चयन के अधिकार दिलाने के लिए प्रयास किया।
लक्ष्मी एन मेनन(1899-1994) ने स्वाधीनता संग्राम सेनानी एवं राजनेत्री के रूप में ख्याति अर्जित की। वे राज्यसभा की 1952,1954 और 1960 में सदस्य चुनी गईं। वे नेहरूजी और शास्त्री जी के मंत्रिमंडल में विदेश राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) रहीं और देश की विदेश नीति के निर्माण में उनकी अग्रणी भूमिका रही। उन्होंने केरल में इसरो की स्थापना में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके जीवन का उत्तरार्ध लेखन एवं समाज सेवा को समर्पित रहा। इंग्लैंड में पढ़ाई करते समय लक्ष्मी को 1927 में मॉस्को जाने का अवसर मिला जहाँ वे सोवियत संघ की दसवीं वर्षगाँठ के अवसर पर आयोजित समारोह में एक छात्र प्रतिनिधि मंडल की सदस्या के रूप में सम्मिलित हुईं। यहाँ उनकी मुलाकात जवाहरलाल नेहरू से हुई। उनसे प्रभावित होकर वे राजनीति में आ गईं। उन्हें 1948 एवं 1950 में संयुक्त राष्ट्र हेतु भारतीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में नामित किया गया। उन्हें संयुक्त राष्ट्र की कमेटी ऑन स्टेटस ऑफ वीमेन का सदस्य भी बनाया गया। उन्होंने इस बात की आवश्यकता बताई कि संपूर्ण यूडीएचआर में स्थान स्थान पर इस बात पर बल दिया जाना चाहिए कि लैंगिक आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। उन्होंने भी प्रस्तावना में इच्ल राइट्स फॉर मेन एंड वीमेन के उल्लेख की पुरजोर वकालत की। लक्ष्मी मेनन ने उस मानसिकता को सिरे से खारिज कर दिया जो औपनिवेशिक शासन के अधीन रहने वाले देशों के नागरिकों को किसी भी तरह के मानव अधिकार देने का विरोध करती थी। उन्होंने मानव अधिकारों की सार्वभौमिकता पर बल दिया। उन्होंने कहा कि यदि महिलाओं और उपनिवेशों में रहने वाले लोगों का मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा में पृथक से उल्लेख नहीं किया जाएगा तो इन्हें ‘एवरीवन’ की परिधि से बाहर मान लिया जाएगा।
इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स को सच्चे अर्थों में यूनिवर्सल बनाने में महिलाओं की अविस्मरणीय भूमिका रही। मानव अधिकार केवल कागजों में सिमटे शुष्क आदर्श बनकर रह जाते यदि उन्हें महिलाओं की संवेदनशील जीवन दृष्टि का स्पर्श नहीं मिलता। जैसा एलेनोर रोसवैल्ट ने कहा- ‘आखिरकार सार्वभौमिक मानवाधिकारों की शुरुआत कहाँ से हुई? यह शुरुआत हुई छोटी जगहों से, घर के पास वाली छोटी जगहें- इतनी नजदीक और इतनी छोटी कि यह किसी भी नक्शे में दिखाई नहीं देंगी। यदि यह अधिकार उन घर के नजदीक वाली छोटी जगहों के लिए उपयोगी और अर्थपूर्ण नहीं हैं तो फिर इनका महत्व शायद किसी भी स्थान के लिए नहीं होगा। घरों के नजदीक इन मानव अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस नागरिक प्रयत्नों के अभाव में विराट विश्व में मानवाधिकारों के विकास की कल्पना करना भी व्यर्थ है।’
आज जब हम एक बलात्कारी, परपीडक़, हिंसक, धर्म संचालित पितृसत्तात्मक समाज एवं शासन व्यवस्था बनने की ओर अग्रसर हैं जहाँ देश के अनेक राज्यों में लिंगानुपात चिंताजनक रूप से कम है और अनेक राज्यों में नारियों की जीवन साथी चुनने की क्षमता पर संदेह किया जा रहा है तब मानव अधिकारों की इस सार्वभौमिक घोषणा को रूपाकार देने वाली इन महिलाओं से प्रेरित होने की आवश्यकता है तभी हम इन कठिन परिस्थितियों का मुकाबला कर सकेंगे।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
तसलीम खान-
सरकार की नीयत तो हालांकि उसी वक्त साफ हो गई थी जब उसने अपने ही देश के अन्नदाता के लिए दिल्ली दरबार के दरवाजों पर पहरे बैठा दिए। सरकार के कानों तक अपनी बात पहुंचाने आए किसानों के साथ दुश्मनों जैसा बरताव किया गया, उनके रास्ते में खाइयां खोदी गईं, कंटीले तार बिछाए गए, आंसू गैस के गोले फेंके और जल तोपों से हमले किए। लेकिन जमीन का सीना चीरकर देश का पेट पालने वाले कहां डरने वाले थे। उन्होंने हाथ नहीं उठाया, पलटकर हमला नहीं किया, कहा सिर्फ इतना कि हमारी इतनी बात तो सुन लोग कि हमारे ही बारे में बनाए गए कानून में हमारी राय क्यों नहीं लगी गई? हमारी फसलों की कीमत तय करने का अधिकार क्यों बड़े-बड़े कार्पोरेट को दिया जा रहा है? हमारे साथ कोई धोखाधड़ी हो जाए तो हमसे अदालत जाने का संवैधानिक अधिकार क्यों छीना जा रहा है?
लेकिन अपने ही इको चैम्बर में बैठी केंद्र की मोदी सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी। नतीजा क्या हुआ, दिल्ली की घेराबंदी कर किसान ने ऐलान कर दिया कि अब आर-पार की बात होगी।
लेकिन यह सब अचानक नहीं हुआ...
दिल्ली के विज्ञान भवन में अब अगर मोदी सरकार किसानों से बात कर रही है और किसान वही मुद्दे उठा रहे हैं जो विपक्ष ने इन कानूनों को संसद में पेश करते हुए उठाए थे, और सरकार ने तानाशाही करते हुए उन्हें अनदेखा कर दिया था, तो इसके लिए मोदी सरकार खुद ही तो जिम्मेदार है।
विपक्ष ने सरकार से यही आग्रह किया था इन कृषि बिलों को जल्दबादी में पास न किया जाए, बल्कि संसदीय समिति के पास भेज दिया जाए ताकि इसके नफे-नुकसान पर चर्चा हो और इसकी खामियों को दूर कर खूबियों को देश के सामने रखा जा सके। विपक्ष ने एमएसपी, एपीएमसी यानी मंडी व्यवस्था, कांट्रेक्ट फार्मिंग यानी ठेके पर खेती और उसके विवाद निवारण की प्रक्रिया आदि पर सवाल उठाए थे। किसान भी तो आज यही मुद्दे सरकार के सामने उठा रहे हैं।
और हां ध्यान रहे इन मुद्दों को सिर्फ विपक्षी दलों ने ही नहीं बल्कि सरकार के समर्थक माने जाने वाले बीजेडी और एआईएडीएमके ने भी संसद में उठाया था। लेकिन बहुमत के अहंकार में डूबी मोदी सरकार के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने 17 सितंबर को लेकसभा में कहा, “मैं किसानों से अपील करूंगा कि वे राजनीतिक दृष्टि से किए गए किसी भी दुष्प्रचार से प्रभावित न हों...”
अगर सिलसिलेवार देखें कि इन कानूनों को लेकर संसद में किस दल ने क्या कहा तो आइने की तरह साफ हो जाएगा कि खामी इन कानूनों में है, मोदी सरकार की दृष्टि में है न कि विपक्ष के नजरिए या किसानों की मांगों में।
लोकसभा में जब सरकार ने कृषि कानून पेश किए तो इस पर चर्चा की शुरुआत में लुधियाना से कांग्रेस सांसद रवनीत सिंह ने कहा था, “अगर आप पंजाब के किसानों को मुसीबत में डालेंगे, तो ध्यान रखना पूरा देश इसका खामियाजा भुगतेगा, अगर आप किसानों पर त्याचार करेंगे तो देश कैसे काम करेगा। पंजाब और हरियाणा से हमारे देस के जवान भी आते हैं, इसका असर हो सकता है...”
वहीं चर्चा के अंत में लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने कहा था, “आप कह रहे हैं कि इससे किसानों को फायदा होगा। आप दिखा दीजिए कि कौन सा किसान इससे खुश है। हरियाणा और पंजाब के किसान नाराज हैं, वहां अशांति बढ़ रही है...”
इसी कानून पर राज्यसभा में 20 सितंबर को अकाली दल सांसद नरेश गुजराल का बयान था, “पंजाब के किसानों को कमजोर मत समझना मंत्री जी, मेरी सिर्फ एक दरख्वास्त है, पंजाब और हरियाणा में जो चिंगारी उठी है उसे आग मत बनने दीजिए...वरना देश के इतिहास में लिखा जाएगा कि लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई...”
पूर्व प्रधानमंत्री और जेडीएस नेता एच डी देवेगौड़ा का भी यही कहना था, “किसानों का एक डर यह भी है कि इन कानूनों से एमएसपी खत्म हो जाएगी, इससे वे प्राइवेट प्लेयर के रहमोकरम पर आश्रित हो जाएंगे...और जिस तरह जल्दबाजी में इन कानूनों को लाया जा रहा है इससे किसानों का शक गहरा गया है...” वहीं एआईएडीएमके नेता एस आर बालासुब्रहमण्यम ने कहा था कि कानून एमएसपी पर खामोश है जो कि किसानों के अस्तित्व का बड़ा आधार है। सरकार को एमएसपी को इस कानून का अभिन्न अंग बनाना चाहिए।
कांग्रेस के प्रताप सिंह बाजवा का भी तर्क था कि, “कृषि और मंडी संविधान के सातवें अनुच्छेद के मुताबिक राज्यों का विषय है, लेकिन इन कानूनों में राज्यों को बाहर कर संघीय ढांचे से छेड़छाड़ की जा रही है, हम नहीं चाहते कि कृषि मंडियों और एमएसपी को छेड़ा जाए।” डीएमके सांसद के शनमुगसुंदरम ने भी एमएसपी का मुद्दा उठाया था को शिवसेना के अरविंद सावंत ने कहा था कि ऐसा प्रावधान किया जाना चाहिए कि कोई भी एमएसपी से कम पर फसल न खरीद सके ताकि किसान का नुकसान न हो।
इसके अलावा टीडीपी के राम मोहन नायडू और सीपीए के बिनॉय बिस्वास ने भी एमएसपी का मुद्दा उठाया था। सीपीआई ने कहा था कि अगर कृषि मंत्री एमएसपी को इस कानून में शामिल कर लेत हैं तो यकीन मानिए कि आपकी नीतियों केविरोध के बावजूद हम इस कानून का समर्थन करें। लेकिन इन सबके जवाब में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंग तोमर ने सिर्फ इतना कहा था कि, “एमएसपी आधारित खरीद पहले भी होती रही है और आगे भी होती रहेगी।”
इसी तरह विवाद की स्थिति में किसानों की परेशानियों को उजागर करते हुए टीडीपी ने कहा था कि, “आखिर विवाद की स्थिति में किसान को अदालत जाने की इजाजत क्यों नहीं है...यह तो पक्षपात हुआ...ऐसे में सरकार को एक एग्रीकल्चर ट्रिब्यूनल बनाने पर विचार करना चाहिए...”
इस कानून में विवादों के निपटारे की खामियों को उजागर करते हुए कांग्रेस के एस ज्योतिमनी ने तर्क दिया था, “कानून कहता है कि विवाद की स्थिति में किसान कंसीलिएशन बोर्ड के पास जाएगा, वहां 30 दिन तक कुछ नहीं हुआ तो एसडीएम के पास जाएगा और वहां भी कुछ नहीं हुआ तो डीएम के पास जाएगा..इस प्रक्रिया से गरीब किसान की तो जान निकल जाएगी...और फिर उसके सामने तो बड़े-बडे कार्पोरेट के महंगे वकीलों की फौज होगी..और फिर इस सारी मानसिक प्रताड़ना के बाद भी उसे इंसाफ मिलेगा इसकी क्या गारंटी है...”
लेकिन नरेंद्र सिंह तोमर ने इतना कहकर पल्ला झाड़ लिया कि विवादों के निपटारने समुचित व्यवस्था कानून में की गई है।
सवाल है कि आखिर वह कौन सी हड़बड़ी थी कि सरकार इन कानूनों की खामियों को सुनने तक को तैयार नहीं थी। और राज्यसभा में जिस तरह संसदीय परंपराओं और संवैधानिक व्यवस्था की धज्जियां उड़ाते हुए इन कानूनों को पास कराया गया वह स्वतंत्र भारत के संसदीय इतिहास का काला अध्याय बन चुका है। (navjivan)
मृणाल पाण्डे-
अब अंतरधार्मिक विवाह केवल समाजशास्त्रियों या परिवारों के लिए महत्त्व का विषय नहीं, राज्य सरकारों ने भी इसमें सीधी दखलंदाजी का मन बना लिया है। उत्तर प्रदेश सरकार इस बारे में अध्यादेश ले आई और दो दिनों के अंदर ही एक मामला दर्ज भी कर लिया गया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जैसे ही लव जिहाद के खिलाफ बिगुल फूंका, इसकी गूंज विंध्य के उस पार तक सुनाई दी जब कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा ने यह कहा कि उनके राज्य में लव जिहाद के नाम पर होने वाले धर्मांतरण पर रोक लगाई जाएगी।
‘लव जिहाद’ के नए विभाजनकारी प्रयोग की यात्रा दरअसल 2016 में शुरू हुई जब केरल की एक हिंदू लड़की, अकिला अशोकन ने अपने मुस्लिम प्रेमी से विवाह करने के लिए इस्लाम धर्म अपना लिया और हिजाब पहनना शुरू कर दिया। इस्लाम अपनाने के बाद उसका नाम हदिया हो गया। हदिया के घर वाले इस विवाह के सख्त खिलाफ थे और उसके पिता अशोकन इस मामले को अदालत में ले गए कि उनकी वयस्क बेटी को इस्लामवादियों की नापाक साजिश के तहत गुमराह किया गया। उनके वकील ने दावा किया कि मुस्लिम लड़के जान- बूझकर हिंदू नाम रखकरअपनी पहचान छिपाकर हिंदू लड़कियों को फांस रहे हैं ताकि उनका धर्मांतरण करके मुसलमानों का तादाद बढ़ाई जा सके। यह अदालती लड़ाई दो साल तक चली और इस दौरान भाजपा ने पिता की तरफदारी करते हुए इसे हिंदुओं के खिलाफ ‘लव जिहाद’ करार दिया। कहा कि मौलवियों और उनके समर्थकों के समूह चोरी-छिपे यह सब कर रहे हैं। तब केंद्र में भाजपा की सरकार से पुरजोर तरीके से यह बात उठी कि हदिया को उसके मां-बाप को सौंपा जाए और उसे वापस हिंदू धर्म में शामिल किया जाए। हालांकि हदिया ने मजबूती से अपना पक्ष रखा और अंततः सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि इस्लामी कानून के तहत की गई हदिया की शादी पूरी तरह वैध थी।
अदालती फैसले से इस प्रकरण का तो पटाक्षेप हो गया लेकिन शब्द ‘लव जिहाद’ चल निकला। इससे पहले तक ऐसे विवाह को कट्टर हिंदुत्व के झंडाबरदार मुस्लिम युवकों द्वारा हिंदू लड़कियों को फांसे जाने की घटना के तौर पर बताते थे लेकिन अब वे इसे आपराधिक साजिश करार देने लगे जिसके लिए दुनिया भर के मुस्लिम संगठन पैसे मुहैया कराते हैं ताकि हिंदू लड़कियों का धर्मांतरण करके इस्लाम न मानने वालों में जेहाद का संदेश फैलाया जा सके। यहां तक कि फिल्मों और विज्ञापनों में भी मुस्लिम पुरुष के साथ हिंदू महिला की जोड़ी पर भगवा ब्रिगेड हंगामा खड़ा करने लगा। फिल्म पद्मावती की बात हो या फिर तनिश्क के विज्ञापन की जिसमें एक मुस्लिम सास अपनी हिंदू बहू की गोद भराई कर रही होती है, संकीर्ण हिंदूवादियों की भीड़ सड़कों पर उतरआती है, टीवी कैमरों के सामने लाठी-डंडे और यहां तक कि तलवारें तक लहराती है। सड़कों पर उतरे लोग गला फाड़कर हिंदू भावनाओं को कथित तौर पर जान-बूझकर आहत किए जाने के खिलाफ नारे लगाते हैं। आसपास खड़े तमाशबीनों की पिटाई करते हैं और आपत्तिजनक दृश्य दिखाने के लिए सिनेमा हॉल-शोरूम को जबरन बंद कराते हैं, उन्हें माफी मांगने को मजबूर करते हैं।
अभी यह सब चल ही रहा था कि केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किशन रेड्डी ने एक तारांकित सवाल के जवाब में संसद को जानकारी दी कि एनआईए ने दो अंतरधार्मिक विवाहों की जांच की और उसे इनमें किसी भी तरह की धोखाधड़ी या जबरन धर्मांतरण का कोई सबूत नहीं मिला। उन्होंने साफ किया कि शब्द “लव जिहाद” मौजूदा कानूनों के तहत परिभाषित नहीं है। विभिन्न अन्य उच्च न्यायालयों ने भी हदिया के विवाह पर केरल उच्च न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा है जिसमें संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत प्रावधानों का हवाला दिया गया है जो नागरिकों को सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता के दायरे में रहते हुए अपनी मर्जी के धर्म को मानने और उसके मुताबिक आचरण की आजादी देता है।
दुनिया भर में महिलाओं को यौनाचार की वस्तु के तौर पर देखा जाता है और यह महिलाओं के साथ इस प्रवृत्ति का वैसा ही रिश्ता है जैसा मछली का जल से। लव जिहाद की अवधारणा उसी अजीब और कड़वी मनोवृत्ति को स्थापित करती है जो महिलाओं की यौनचारिता को यौन रिश्तों की पुरुष प्रधान व्यवस्था में ही कैद रखना चाहती हैं। रिश्तेदारों, न्यायविदों या शासकों के रूप में पुरुष विवाह और परस्पर रिश्तों की पूरी पटकथा लिखता है जो अंततःअन्य पुरुषों की ही तरफदारी करती है। पुरुष के इस्तेमाल की यौन-वस्तु होने का भाव जब लड़की की सामाजिक छवि की बुनियाद हो जाता है तो पुरुष प्रभुत्व वाली व्यवस्था के लिए लड़की के यौनाचार को नियंत्रित करना बेहद अहम हो जाता है ताकि उसकी प्रजनन क्षमता को उसी पितृ सत्तात्मक व्यवस्था में सीमित रखा जा सके जिसकी वह हिस्सा होती है। हर संस्कृति में ऐसा ही होता है और इसी का नतीजा है कि हर समाज में अंतरधार्मिक विवाहों से लेकर बलात्कार, अनाचार और विवाहेत्तर संबंधों जैसे सभी तरह के यौनाचार में पुरुष की तुलना में महिला के लिए कहीं सख्त सजा का प्रावधान है। इस तरह से परिभाषित यौनचारिता की बुनियाद इस बात पर टिकी होती है कि उनकी स्थापित पुरुष प्रभुत्व वाली व्यवस्था किसी आचरण की इजाजत देती है या नहीं।
कुल के लिए घातक होने का तर्क
अंतरधार्मिक विवाहों पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून की मांग करने वाले पुरुष मानते हैं कि महिलाओं का अपने शरीर का नियंत्रण पाना उनकी सत्ता के लिए गंभीर खतरा है। उनके लिए महिलाएं उनकी जागीर हैं और ऐसी मशीन जिनका इस्तेमाल खास तौर पर पुरुष-परिभाषित विशिष्ट समुदायों के भीतर ज्यादा से ज्यादा नस्लीय रूप से ‘शुद्ध’ लड़कों और जितना संभव हो कम लड़कियों को जन्म देने के लिए किया जा सके। ऐसी प्रतिगामी सोच महिलाओं को समुदाय की बेड़ियों को तोड़ने से रोकती है क्योंकि उसके मुताबिक ऐसा करना कुल के लिए घातक होता है।
जहां तक कानूनी व्यवस्था का सवाल है, महिलाओं का अनुभव तो यही कहता है कि यह पुरुषों की ओर झुका हुआ है। इसकी वाजिब वजह भी है। इस व्यवस्था को मुख्यतः पुरुषों ने बनाया, उन्होंने ही इसे परिभाषित किया और वही इससे जुड़े विवादों पर फैसला सुनाते हैं। न्याय मिलने में देरी होती है, सुनवाई ऐसे खिंचती है जैसे कभी खत्म ही न होने वाली हो, अदालत के बाहर मामले को निपटा लेने का भारी दबाव बनाया जाता है। महिला और उसके बच्चे के लिए मुआवजा-गुजारे का पैसा वगैरह अटका रहता है और इस दौरान उसे कलंक की तरह देखा जाता है। इसके बावजूद कि अलग-अलग धर्मों के दो वयस्कों के बीच रजामंदी से विवाह को पूर्ण कानूनी वैधता प्राप्त है, हदिया को अपने विवाह को मान्य घोषित करने वाला फैसला पाने में दो साल लग गए।
हाल के समय में दो राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जिस तरह अंतरधार्मिक विवाह पर रोक लगाने के कानून बनाने के बयान दिए हैं, उससे साफ है कि एक उदार लोकतांत्रिक देश के तौर पर भारत खुद को जितना भी तटस्थ, उन्नत, उदार और लिंग-भेद से मुक्त बता दे लेकिन महिलाओं पर पुरुष नियंत्रण को बदलने को वह हरगिज तैयार नहीं।
इसलिए अंतरधार्मिक विवाहों पर प्रतिबंध की मांग दरअसल हमारे मिश्रित समाज पर पुरुषवादी सत्ता की निगरानी का परिचायक है जिसमें बताया जाता है कि बहुसंख्यक समुदाय की संरचना इतनी भेद्य है कि इसकी महिलाओं से दोस्ती और फिर विवाह करने की मंशा के साथ अल्पसंख्यक समुदाय का कोई पुरुष उसमें घुसपैठ कर सकता है। कानून के लिहाज से भारतीय महिलाओं के लिए लैंगिक समानता को सार्थक बनाने के लिए हदिया मामले के साथ शुरू हुए टकराव के इस दौर में कानूनी रोक की मांग के पीछे के वास्तविक मुद्दों की पहचान करनी चाहिए और फिर उनका सभी समुदायों की महिलाओं के दृष्टिकोण के जरिये प्रतिकार करना चाहिए। (navjivan)
कोविड-19 महामारी के दौर में सोने के दाम आसमान छूने लगे. अचानक सोने की क़ीमत में उछाल आया.
पिछले साल ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सोने के उत्पादन में एक प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है. सोने के उत्पादन में आई ये पिछले एक दशक की सबसे बड़ी गिरावट है.
कुछ जानकारों का तर्क है कि खदानों से सोना निकालने की सीमा अब पूरी हो चुकी है. जब तक सोने की खदानों से खनन पूरी तरह से बंद नहीं किया जाएगा, सोने का उत्पादन गिरता रहेगा.
सोने के ऊंचे दाम होने की वजह भी यही है कि अमेज़न के जंगलों में सोने की खदानों में बड़े पैमाने पर अवैध खनन का काम हुआ है.
सोने की क़ीमत में उछाल भले ही आ गया हो, लेकिन इसकी मांग में कोई कमी नहीं आई है. CFR इक्विटी रिसर्च के एक्सपर्ट जानकार मैट मिलर का कहना है कि सोने की जितनी मांग इन दिनों है, उससे ज़्यादा पहले कभी नहीं थी.
मिलर के मुताबिक़ दुनिया में पाए जाने वाले कुल सोने का लगभग आधा हिस्सा जूलरी बनाने में इस्तेमाल होता है.
इसमें वो हिस्सा शामिल नहीं है, जो ज़मीन में दफ़न है. बाक़ी बचे आधे सोने में से एक चौथाई केंद्रीय बैंकों से नियंत्रित किया जाता है जबकि बाक़ी का सोना निवेशकों या निजी कंपनियों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है.

सोना - भरोसेमंद संपत्ति
मिलर का कहना है कि कोविड-19 की वजह से पूरे विश्व का आर्थिक तंत्र चरमरा गया है. अमेरिकी डॉलर से लेकर रुपया तक कमज़ोर हुआ है.
लगभग सभी देशों के सरकारी ख़जाने का बड़ा हिस्सा महामारी नियंत्रण पर ख़र्च हो रहा है. करंसी की छपाई के लिए भारी रक़म उधार ली जा रही है.
जानकारों का कहना है कि इसी वजह से करंसी का मूल्य ज़्यादा अस्थिर हो गया है. वहीं दूसरी ओर निवेशक सोने को भरोसेमंद संपत्ति मानते हैं.
कोरोना महामारी ने सोने के खनन कार्य को भी प्रभावित किया है. निकट भविष्य में इसकी आपूर्ति बढ़ने की संभावना भी नहीं है.
मिलर का कहना है कि सोने की मांग अभी इसी तरह बढ़ती रहेगी और बाज़ार में अभी जो सोना आ रहा है वो ज़्यादातर रिसाइकिल किया हुआ है.
मिलर तो यहां तक कहते हैं कि आने वाले समय में रिसाइकिल सोना, सोने के सिक्के यहां तक कि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के सर्किट बोर्ड में इस्तेमाल होने वाला सोना भी भविष्य में इस धातु का एक महत्वपूर्ण स्रोत बन जाएगा.
एक रिसर्च से पता चलता है कि पिछले 20 वर्षों में सोने की जितनी आपूर्ति हुई है, उसका 30 फ़ीसद हिस्सा रिसाइकिलिंग से ही आया है.

खनन का विरोध
सोने की रिसाइकिलिंग में कुछ ज़हरीले रसायनों का इस्तेमाल होता है, जो पर्यावरण के लिए घातक हैं. फिर भी ये सोने के खनन की प्रक्रिया से कम ही घातक है.
जर्मनी की गोल्ड रिफ़ाइनरी की हालिया रिसर्च बताती है कि एक किलो सोना रिसाइकल करने में 53 किलो या उसके आसपास कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है.
जबकि खान से इतना ही सोना निकालने में 16 टन या उसके बराबर कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है.
सोने के खनन से पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. इसलिए दुनिया भर में जहां कहीं भी सोने की खाने हैं, वहां के स्थानीय लोग इसके खनन का विरोध करते हैं.
इस विरोध की वजह से भी सोने के उत्पादन में भारी कमी आ रही है. मिसाल के लिए चिली में पास्कुआ-लामा खदान में खनन का काम इसलिए रोक दिया गया कि वहां के स्थानीय पर्यावरण संरक्षक कार्यकर्ता विरोध करने लगे थे.
इसी तरह उत्तरी आयरलैंड के देश टाइरोन में लोग सड़कों पर उतर आए. इस इलाक़े में सोने की खदानें हैं. कई कंपनियां यहां प्रोजेक्ट शुरू करना चाहती हैं. लेकिन, स्थानीय कार्यकर्ता इसका लगातार विरोध कर रहे हैं.
उनका कहना है कि खनन से इलाक़े को जो नुक़सान होगा, उसकी भरपाई स्थानीय लोगों को करनी पड़ेगी.
हालांकि इस इलाक़े में पिछले तीस साल से लोग रोज़गार की कमी से जूझ रहे हैं. कंपनी ने उन्हें रोज़गार के साथ अन्य सुविधाएं देने का वादा किया है, फिर लोग राज़ी नहीं हैं.
खदानों वाली जगह पर बदली ज़िंदगी
लेकिन एक सच ये भी है कि जहां सोने की खदानें स्थापित हो गई हैं वहां के लोगों की ज़िंदगी बदल गई है.
अमेरिका के नेवाडा सूबे की गोल्ड माइन दुनिया की सबसे बड़ी सोने की खदान है. यहां से हर साल लगभग 100 टन से ज़्यादा सोना निकाला जाता है.
इस इलाक़े के आसपास के लोगों को न सिर्फ़ इन खदानों की वजह से नौकरी मिली है, बल्कि उनका रहन सहन भी बेहतर हुआ है.
सोने की खदान से सिर्फ़ सोना ही नहीं निकलता, बल्कि इसके साथ अन्य क़ीमती धातुएं जैसे तांबा और सीसा भी निकलते हैं.
उत्तरी आयरलैंड के क्यूरेघिनाल्ट खदान से सोना निकालने में खुद आयरलैंड के सियासी हालात भी काफ़ी हद तक रोड़ा बने रहे हैं. देश में फैले आतंक और हिंसा के चलते भी यहां काम करना काफ़ी मुश्किल था.
क्यूरेघिनाल्ट, ब्रिटेन में पाई गई अब तक की सबसे बड़ी सोने की खदान है.

खदान के आसपास करीब 20 हज़ार लोगों की आबादी है. ये इलाका क़ुदरती ख़ूबसूरती से भरपूर है.
आसपास घने जंगल और खेत हैं. यहां काम करने वाली कंपनी लोगों को हर तरह से मनाने की कोशिश कर रही है.
कंपनी ने एक खुले गड्ढे वाली शैली की परियोजना के बजाय एक भूमिगत खदान का निर्माण और विदेशों में इस्तेमाल होने वाली तकनीक के सहारे छड़ें निकालने की योजना भी बनाई है.
कंपनी ने लोगों से यहां तक कहा कि पानी का 30 फ़ीसद हिस्सा कम इस्तेमाल किया जाएगा.
कार्बन उत्सर्जन भी 25 फ़ीसद तक नियंत्रित करके इसे यूरोप की पहली कार्बन न्यूट्रल माइन बनाया जाएगा.
लेकिन लोग किसी भी सूरत में राज़ी नहीं हैं. थक हार कर कंपनी ने 2019 में प्रोजेक्ट ही बंद कर दिया. (bbc)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन त्रूदो, ब्रिटेन के 36 सांसदों और संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंतोनियो गुतरोस ने भारत में चल रहे किसान-आंदोलन से सहानुभूति व्यक्त की है। उन्होंने यही कहा है कि उन्हें शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने देना चाहिए और उनकी कठिनाइयों को सरकार द्वारा दूर किया जाना चाहिए। इस पर हमारे कुछ सरकारी और भाजपा-प्रवक्ता भडक़ उठे हैं। वे इन लोगों से कह रहे हैं कि आप लोग हमारे अंदरुनी मामलों में टांग क्यों अड़ा रहे हैं ?
उनका यह सवाल रस्मी तौर पर एक दम ठीक है। वह इसलिए भी ठीक है कि भारत सरकार के मंत्रिगण किसान नेताओं के साथ बहुत नम्रता और संयम से बात कर रहे हैं और बातचीत से ही इस समस्या का समाधान निकालना चाहते हैं।
असली सवाल यह है कि इसके बावजूद ये विदेशी लोग भारत सरकार को ऐसा उपदेश क्यों दे रहे हैं? शायद इसका कारण यह रहा हो कि पिछले हफ्ते जब यह आंदोलन शुरु हुआ तो हरियाणा और दिल्ली की केंद्र सरकार ने किसानों के साथ कई ज्यादतियां की थीं लेकिन विदेशी लोगों को फिर भी क्या अधिकार है, हमारे आंतंरिक मामलों में टांग अड़ाने का? इसका एक बड़ा कारण यह भी हो सकता है कि कनाडा और ब्रिटेन में हमारे किसानों के रिश्तेदार बड़े-बड़े पदों पर विराजमान हैं। उन्होंने अपने रिश्तेदारों को अपनी करुण-कथा बढ़ा-चढ़ाकर सुनाई होगी। उन रिश्तेदारों ने उन देशों के शीर्ष नेताओं को प्रेरित किया होगा कि वे उनके रिश्तेदारों के पक्ष में बोलें। तो उन्होंने बोल दिया। उनके ऐसे बोले पर हमारी सरकार और भाजपा प्रवक्ता का इतना चिढ़ जाना मुझे जरुरी नहीं लगता।
हालांकि उनका यह तमाचा त्रूदो पर सही बैठा है कि विश्व-व्यापार संगठन में जो त्रूदो सरकार किसानों को समर्थन मूल्य देने का डटकर विरोध कर रही है, वह किस मुंह से भारत सरकार पर उपदेश झाड़ रही है ?
भारत के विदेश मंत्री जयशंकर द्वारा कनाडा द्वारा आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय संवाद का भी बहिष्कार कर दिया गया है। उन्होंने ऐसा ही अमेरिकी सांसद प्रमिला जयपाल के एक बयान पर आपत्ति दिखाने के लिए किया था। उन्हें अपने गुस्से पर काबू करना चाहिए, वरना ये छोटी-छोटी लेकिन उग्र प्रतिक्रियाएं हमारी विदेश नीति के लिए हानिकर सिद्ध हो सकती हैं। आधुनिक दुनिया बहुत छोटी हो गई है। विभिन्न देशों के राष्ट्रहितों ने अंतरराष्ट्रीय स्वरुप ले लिया है। इसीलिए देशों के आतंरिक मामलों में विदेशी हस्तक्षेप अपने आप हो जाता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
समीरात्मज मिश्र-
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाक़ों के किसान इस मौसम में बहुत व्यस्त रहते हैं. गन्ने की कटाई-छिलाई के साथ-साथ गेहूं बोने का भी यही मौसम है.
आमतौर पर इस वक़्त किसान खेतों में डटे रहते हैं लेकिन इस समय उनके खेतों में सन्नाटा है या फिर कुछ मज़दूर और घर की औरतें ही खेतों में काम करती मिलेंगी.
मेरठ, बाग़पत, मुज़फ़्फ़रनगर, शामली, सहारनपुर जैसे ज़िलों के तमाम किसान दिल्ली सीमा पर नए कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे प्रदर्शन में हिस्सा लेने गए हुए हैं.
शामली ज़िले में बाबरी थाने के हाथीकरौंदा गांव के रहने वाले राजवीर ट्रैक्टर पर गन्ने लादकर जा रहे थे. उनके साथ ट्रैक्टर पर कुछ और लोग भी बैठे थे. पीछे दो महिलाएं भी बैठी थीं.
हमसे बात करने के लिए राजवीर ट्रैक्टर से नीचे उतरे. मैंने सवाल किया, "आप लोग प्रदर्शन में नहीं गए?"
उन्होंने बिना किसी देरी के कड़क आवाज़ में जवाब दिया, "गए थे जी. तीन तारीख़ वाली मीटिंग में हम थे. अभी हमारे भाई हैं वहां पे. सरकार नहीं मानी हमारी बात और आंदोलन आगे चला तो हम फिर जाएंगे."

घर से लोग बारी-बारी जा रहे
राजवीर के साथ खड़े एक अन्य बुज़ुर्ग ईश्वर बोल पड़े, "घर में पशु भी हैं. उन्हें कौन देखेगा? इसीलिए हर घर से लोग बारी-बारी से वहां जा रहे हैं."
राजवीर सिंह के पास क़रीब तीस बीघे की खेती है और ज़्यादातर पर वो गन्ना बोते हैं. गन्ने के अलावा कुछ दूसरी फ़सलें भी बो लेते हैं. बताते हैं कि जीवन ठीक से चल रहा है लेकिन नए क़ानून से हमारा बहुत नुक़सान होगा.
नुक़सान के सवाल पर कहते हैं, "क़ानून जो बनाया है सरकार ने, वो पक्का नहीं बनाया है. एसएमपी (यहाँ के किसान एमएसपी को यही कहते हैं) जो है ये पक्की कर दी जाए तब सही रहेगा. सरकार तो आती-जाती रहेगी लेकिन क़ानून पक्का रहेगा तो उसे कोई छेड़ नहीं पाएगा. सरकार क्यों नहीं कर रही है? इसका मतलब उसकी नीयत में कोई खोट है. खेती का तो इस समय बहुत नुक़सान हो रहा है, फिर भी किसान डटे हैं. क्या करें? अभी तो एक सीज़न की फ़सल बर्बाद होवैगी, क़ानून तो किसानों का भविष्य ही चौपट कर बैठेगा."

खेती का नुक़सान
नए कृषि क़ानून के ख़िलाफ़ किसान इस समय दिल्ली सीमा पर डटे हैं. पश्चिमी यूपी के कई ज़िलों से बड़ी संख्या में किसान दिल्ली बार्डर पर पहुंचे हैं और जगह-जगह सड़कों पर धरना प्रदर्शन चल रहा है.
कई दौर की वार्ता के बाद भी कोई हल न निकलने के कारण किसानों को लग रहा है कि आंदोलन लंबा खिंच सकता है. इसके लिए किसान इस रणनीति पर काम कर रहे हैं कि बारी-बारी से कुछ लोग वहां से आ रहे हैं और दूसरे लोग यहां से जा रहे हैं.
साथ में राशन-पानी की आपूर्ति भी क़ायदे से हो जाती है. पश्चिमी यूपी के इन इलाक़ों की दिल्ली से दूरी भी ज़्यादा नहीं है.
यह ज़रूर है कि पुरुष सदस्यों के आंदोलन में जाने के कारण खेती को नुक़सान हो रहा है क्योंकि ज़्यादातर किसान अपनी खेती ख़ुद ही करते हैं. बड़े किसानों के यहां मज़दूर भी काम करते हैं लेकिन छोटे किसानों के यहां घर के ही सभी सदस्य मिलकर खेती करते हैं.
किसानों के आंदोलन में शामिल होने के चलते अभी उनके घर की महिलाओं ने खेती और फ़सलों की देख-रेख का ज़िम्मा सँभाल रखा है.
इन सभी ज़िलों में खेतों में गन्ने की खड़ी फ़सल दिखेगी जहां कुछ हिस्सों में गन्ने की कटाई हुई है लेकिन उसके बाद से कटाई बंद है.
कुछ जुते खेत सूख रहे हैं लेकिन अभी उनमें गेहूं नहीं बोया जा सका है. कुछ खेतों में बुवाई हो चुकी है लेकिन ऐसे खेत कम ही हैं.
शामली ज़िले में हाईवे के किनारे स्थित बुटराड़ा गांव में दो मज़दूर गन्ने की छिलाई करने के बाद खेत में ही खाना खा रहे थे. ये दोनों मध्य प्रदेश के सीधी ज़िले के रहने वाले हैं और हर साल आठ-नौ महीने यहीं आकर गन्ने की कटाई-छिलाई करते हैं.
उन्हीं में से एक छविलाल ने बताया, "घर के लोग भी छिलाई करते थे लेकिन अभी हम दोनों ही काम कर रहे हैं. घर के लोग कहीं गए हुए हैं और खेत के मालिक पास के खेत में स्प्रे कर रहे हैं."
छविलाल को यह नहीं पता था कि घर के और लोग कहां गए हुए हैं.
मुज़फ़्फरनगर के सिसौली में दोपहर के वक़्त एक खेत में कुछ महिलाएं और लड़कियां खेत में काम करती मिलीं. बातचीत को तैयार हो गईं लेकिन तस्वीर नहीं खिंचाना चाहती थीं.
नीता चौधरी मेरठ विश्वविद्यालय से बीए दूसरे साल की छात्रा हैं. लॉकडाउन के बाद से ही कॉलेज बंद है तो घर पर ही पढ़ाई हो रही है.
नीता कहने लगीं, "पापा और भाई गांव के दूसरे लोगों के साथ धरने पर गए हैं इसलिए हम लोग खेत में आकर अपना काम कर रहे हैं. पहले भी करते रहे हैं लेकिन अब पूरी ज़िम्मेदारी हमारे ऊपर ही है. पता नहीं उन लोगों को वहां कितने दिन रहना पड़े. हम लोग अकेले नहीं हैं बल्कि सभी घरों की महिलाएं ही इस समय यह ज़िम्मेदारी निभा रही हैं. नहीं करेंगे तो खड़ी फ़सल ख़राब हो जाएगी. इसी के भरोसे अगले साल का पूरा ख़र्च चलता है."
आख़िरी वाक्य में नीता के चेहरे पर मुस्कान उभर आई थी लेकिन सरकार के रवैये को लेकर ग़ुस्सा भी था.
बोलीं, "हमारे यहां तो कहा जाता है कि जाट बड़े ज़िद्दी होते हैं लेकिन हमें तो लग रहा है इस सरकार से ज़्यादा ज़िद्दी कोई नहीं है. कोई बात ही सुनने को राज़ी नहीं है."
कुछ और लोगों से बातचीत में पता चला कि सिर्फ़ पुरुष ही नहीं बल्कि सिसौली क्षेत्र से कई महिलाएं भी धरने में गई हैं. तमाम लोगों के यहां शादी-विवाह भी है, बावजूद इसके लोग आंदोलन को समर्थन दे रहे हैं और वहां पहुंच रहे हैं.
शामली ज़िले में बनत गांव की एक महिला घूंघट के अंदर से ही हँसते हुए बताती हैं, "मेरा तीस साल का बेटा सूरज भी एक हफ़्ते से दिल्ली गया हुआ है. उसका छह साल का बेटा पूछता है कि पापा कहां गए हैं? रोज़ शाम को मोबाइल में फ़ोटो देखते हुए हम लोग सूरज से बात करते हैं. बच्चा उसे देखकर उसे ख़ुश हो जाता है. सूरज मोबाइल में हमें यह भी दिखाता है कि कितने लोग वहां जमा हुए हैं और कैसे लोग खाने-पीने का इंतज़ाम कर रहे हैं."

किसान सब समझ रहा है
शामली ज़िले में बाबरी थाने के बंतीखेड़ा गांव में जगबीर सिंह के घर पर बैठे कुछ लोग किसान आंदोलन के बारे में ही बातें कर रहे थे. बीच में हुक्का रखा हुआ था.
सभी लोग बारी-बारी से उसका आनंद ले रहे थे. हमें पत्रकार जान कर बुज़ुर्ग जगबीर सिंह मुस्कराए और ख़ुद ही सवाल कर बैठे- "सरकार म्हारी बात मानैगी कि नहीं?"
जगबीर सिंह के सवाल का जवाब वहां मौजूद युवा किसान वीर सिंह देते हैं जो ख़ुद तीन दिन धरने में शामिल होने के बाद गांव आए थे और अगले दिन राशन-पानी लेकर फिर से वहीं जाने को तैयार थे.
वीर सिंह कहते हैं, "मानैगी जी....मानैगी. नहीं मानौगी तो जाएगी कहां. देश भर का किसान डटा है वहां. ये तो रेल बंद है, ना तो और किसान इकट्ठा हो जाता. देर-सबेर सरकार की समझ में आएगा ही कि वो किसानों का नुक़सान करने जा रही है और इन्हीं किसानों ने उसकी सरकार बनवाई है."
नए क़ानून में किसानों की आशंकाओं को वीर सिंह कुछ इस तरह बताते हैं, "आज किसान अनपढ़ नहीं है. सब समझ रहा है. किसान को इस बात का डर है कि उसे सौ साल पहले की स्थिति में पहुंचा दिया जाएगा और अंबानी-अडानी जैसे लोगों के हवाले सारी ज़मीन हो जाएगी. वो अपने हिसाब से किसानों को बताएंगे कि भाई एमएसपी इतनी है, तुम्हारा अनाज ख़राब है, इस पर बिकेगा नहीं. मजबूरी में किसान औने-पौने दाम पर उसे बेचेगा. वो लोग अपनी मनमर्ज़ी से किसानों से खेती कराएंगे, जो चाहेंगे, उसी की खेती किसान करेगा. किसान को सबसे ज़्यादा डर इसी बात का है."

किसानों के साथ बातचीत में शामली के वरिष्ठ पत्रकार शरद मलिक भी हमारे साथ थे.
शरद मलिक बताते हैं, "क़ानून को लेकर नाराज़गी यहां के किसानें में भी थी लेकिन शुरू में ये लोग धरना-प्रदर्शन में नहीं गए. जब देखा कि हरियाणा-पंजाब के किसान डटे हुए हैं तो ये लोग भी पहुंचने लगे. दरअसल, ये पूरी बेल्ट बीजेपी समर्थक किसानों की है. इनसे बीजेपी और ख़ासकर प्रधानमंत्री मोदी के विरोध में आप एक शब्द भी नहीं सुन सकते हैं लेकिन यह मामला चूंकि सीधे इनके नफ़े-नुकसान से जुड़ा है तो अब खुलकर विरोध में आ गए हैं."
शरद मलिक की बातों की पुष्टि किसानों से बातचीत में भी हो जाती है. किसानों का सरकार से कोई विरोध नहीं है.
उनका विश्वास है कि सरकार को किसी ने भ्रमित किया होगा, अन्यथा इस तरह का क़ानून मोदी सरकार ला ही नहीं सकती थी.
बंतीखेड़ा के रहने वाले कृष्णपाल सिंह तो अब भी सरकार के समर्थन में हैं, बस सरकार थोड़ा सा सुधार कर ले.
कहते हैं, "बिल तो ठीक है जो पास करे हैं. बस डर ये है कि एमएसपी कहीं ख़त्म न कर दें. यही लिखित में दे दें तो धरना तो कल ख़त्म हो जाए." (bbc)
गांधी और आंबेडकर के संबंध कैसे थे? इस सवाल पर लंबी बहसें होती रही हैं और काफ़ी कुछ कहा-सुना जा चुका है.
ख़ुद बाबा साहब आंबेडकर ने तो गांधी को इसलिए कठघरे में खड़ा किया था कि जब आप 'भंगी' नहीं हैं तो हमारी बात कैसे कर सकते हैं?
जवाब में गांधी ने इतना ही कहा कि इस पर तो मेरा कोई बस है नहीं लेकिन अगर 'भंगियों' के लिए काम करने का एकमात्र आधार यही है कि कोई जन्म से 'भंगी' है या नहीं तो मैं चाहूंगा कि मेरा अगला जन्म 'भंगी' के घर में हो.
साल 1955 में डॉक्टर आंबेडकर ने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में महात्मा गांधी के साथ अपने संबंधों और मतभेदों पर लंबी बात की थी.
बीबीसी आर्काइव से पेश इस ऐतिहासिक इंटरव्यू के कुछ अंश.
आंबेडकर: मैं 1929 में पहली बार गांधी से मिला था, एक मित्र के माध्यम से, एक कॉमन दोस्त थे, जिन्होंने गांधी को मुझसे मिलने को कहा. गांधी ने मुझे ख़त लिखा कि वो मुझसे मिलना चाहते हैं. इसलिए मैं उनके पास गया और उनसे मिला, ये गोलमेज़ सम्मेलन में भाग लेने के लिए जाने से ठीक पहले की बात है.
फिर वह दूसरे दौर के गोलमेज़ सम्मेलन में आए, पहले दौर के सम्मेलन के लिए नहीं आए थे. उस दौरान वो वहां पांच-छह महीने रुके. उसी दौरान मैंने उनसे मुलाक़ात की और दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में भी उनसे मुलाक़ात हुई. पूना समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद भी उन्होंने मुझसे मिलने को कहा. लिहाज़ा मैं उनसे मिलने के लिए गया.
वो जेल में थे. यही वो वक़्त था जब मैंने गांधी से मुलाक़ात की. लेकिन मैं हमेशा कहता रहा हूं कि तब मैं एक प्रतिद्वंद्वी की हैसियत से गांधी से मिला. मुझे लगता है कि मैं उन्हें अन्य लोगों की तुलना में बेहतर जानता हूं, क्योंकि उन्होंने मेरे सामने अपनी असलियत उजागर कर दी. मैं उस शख़्स के दिल में झांक सकता था.
आमतौर पर भक्तों के रूप में उनके पास जाने पर कुछ नहीं दिखता, सिवाय बाहरी आवरण के, जो उन्होंने महात्मा के रूप में ओढ़ रखा था. लेकिन मैंने उन्हें एक इंसान की हैसियत से देखा, उनके अंदर के नंगे आदमी को देखा, लिहाज़ा मैं कह सकता हूं कि जो लोग उनसे जुड़े थे, मैं उनके मुक़ाबले बेहतर समझता हूं.

पहली तस्वीर में मुम्बई के अपने निवास स्थान 'राजगृह' पर डॉक्टर आंबेडकर और उनका परिवार. बाईं ओर से- उनके पुत्र यशवंत, आंबेडकर, पत्नी रमाबाई आंबेडकर, भाभी लक्ष्मी बाई, भतीजा मुकुंदराव और उनका प्यारा कुत्ता टॉबी. 'राजगृह' में आंबेडकर फरवरी, 1934 में रहने के लिए आए थे. फ़ोटो साभारः दीक्षाभूमि, नागपुर और लोकवांग्मय प्रकाशन
सवाल: आपने जो भी देखा, उसके बारे में संक्षेप में क्या कहेंगे?
आंबेडकर: ख़ैर, शुरू में मुझे यही कहना होगा कि मुझे आश्चर्य होता है जब बाहरी दुनिया और विशेषकर पश्चिमी दुनिया के लोग गांधी में दिलचस्पी रखते हैं. मैं समझ नहीं पा रहा हूं. वो भारत के इतिहास में एक प्रकरण था, वो कभी एक युग-निर्माता नहीं थे.
गांधी पहले से ही इस देश के लोगों के ज़ेहन से ग़ायब हो चुके हैं. उनकी याद इसी कारण आती है कि कांग्रेस पार्टी उनके जन्मदिन या उनके जीवन से जुड़े किसी अन्य दिन सालाना छुट्टी देती है. हर साल सप्ताह में सात दिनों तक एक उत्सव मनाया जाता है. स्वाभाविक रूप से लोगों की स्मृति को पुनर्जीवित किया जाता है.
लेकिन मुझे लगता है कि अगर ये कृत्रिम सांस नहीं दी जाती तो गांधी को लोग काफ़ी पहले भुला चुके होते.

औरंगाबाद में महाविद्यालय की इमारत के शिलान्यास के बाद आंबेडकर डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद को वेरुल की गुफाएं दिखाने ले गए. तस्वीर एक सितम्बर, 1951 की है. फ़ोटो साभारः दीक्षाभूमि, नागपुर और लोकवांग्मय प्रकाशन
सवाल: क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि उन्होंने मूलभूत बदलाव किए?
आंबेडकरः नहीं, कभी नहीं. बल्कि, वो हर समय दोहरी भूमिका निभाते थे. उन्होंने युवा भारत के सामने दो अख़बार निकाले. पहला 'हरिजन' अंग्रेज़ी में, और गुजरात में उन्होंने एक और अख़बार निकाला जिसे आप 'दीनबंधु' या इसी प्रकार का कुछ कहते हैं.
यदि आप इन दोनों अख़बारों को पढ़ते हैं तो आप पाएंगे कि गांधी ने किस प्रकार लोगों को धोखा दिया. अंग्रेज़ी समाचार पत्र में उन्होंने ख़ुद को जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता का विरोधी और ख़ुद को लोकतांत्रिक बताया. लेकिन अगर आप गुजराती पत्रिका को पढ़ते हैं तो आप उन्हें अधिक रूढ़िवादी व्यक्ति के रूप में देखेंगे.
वो जाति व्यवस्था, वर्णाश्रम धर्म या सभी रूढ़िवादी सिद्धांतों के समर्थक थे, जिन्होंने भारत को हर काल में नीचे रखा है. दरअसल किसी को गांधी के 'हरिजन' में दिए गए बयान और गुजराती अख़बार में दिए उनके बयानों का तुलनात्मक अध्ययन करके उनकी जीवनी लिखनी चाहिए. गुजराती पेपर के सात खंड हैं.
पश्चिमी दुनिया सिर्फ़ अंग्रेज़ी पेपर पढ़ती है, जहां गांधी लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले पश्चिमी लोगों के सम्मान में ख़ुद को बनाए रखने के लिए लोकतांत्रिक आदर्शों की वकालत कर रहे थे. लेकिन आपको ये भी देखना होगा कि उन्होंने वास्तव में अपने स्थानीय पेपर में लोगों से क्या बात की थी.
ऐसा लगता है कि किसी ने इसका कोई संदर्भ नहीं लिया है. उनकी जितनी भी जीवनियां लिखी गई हैं, वो उनके 'हरिजन' और 'युवा भारत' पर आधारित हैं, और गांधी के गुजराती लेखन के आधार पर नहीं.

तस्वीर नेपाल की राजधानी काठमांडू में 20 नवम्बर 1956 को आयोजित 'बौद्ध भ्रातृ संघ' की चौथी परिषद में आंबेडकर ने नेपाल नरेश महेंद्र और महास्थविर चंद्रमणि की उपस्थिति में अपना प्रख्यात भाषण 'बुद्ध और कार्ल मार्क्स' दिया. फ़ोटो साभारः दीक्षाभूमि, नागपुर और लोकवांग्मय प्रकाशन
सवाल: फिर जाति संरचना में हरिजन को भगवान के रूप में प्रस्तुत करने के पीछे उनका असली इरादा क्या था?
आंबेडकर: वो सिर्फ़ ऐसा चाहते थे. अनुसूचित जाते के बारे में दो चीज़ें हैं. हम अस्पृश्यता समाप्त करना चाहते हैं. लेकिन साथ ही हम ये भी चाहते हैं कि हमें समान अवसर दिया जाना चाहिए ताकि हम अन्य वर्गों के स्तर तक पहुंच सकें. अस्पृश्यता को बिलकुल धो देना कोई अवधारणा नहीं है.
हम पिछले 2000 वर्षों से अस्पृश्यता को ढो रहे हैं. किसी ने इसके बारे में चिंता नहीं की है. हां, कुछ कमियां हैं जो बहुत हानिकारक हैं. उदाहरण के लिए लोग पानी नहीं ले सकते हैं, लोगों के पास खेती करने और अपनी आजीविका कमाने के लिए भूमि नहीं हो सकती है.
लेकिन उससे भी महत्त्वपूर्ण अन्य चीज़ें हैं, अर्थात देश में उनकी स्थिति एक समान होनी चाहिए और उनके पास उच्च पदस्थ होने के अवसर भी होने चाहिए, ताकि न केवल उनकी गरिमा बढ़े, बल्कि वो रणनीतिक स्थितियों में रहते हुए अपने लोगों की रक्षा कर सकें. गांधी इस विचार के बिलकुल विरुद्ध थे, बिलकुल ख़िलाफ़.

मुम्बई प्रदेश शेड्यूल कास्ट्स फेडरेशन और समाजवादी पार्टी की ओर से बोरीबंदर रेलवे स्टेशन पर आयोजित उनके स्वागत कार्यक्रम का एक हंसमुख पल. रायबहादुर सीके बोले के बैठने की जगह न होने के कारण आंबेडकर ने उन्हें अपनी गोद में बिठा लिया. उनके साथ में माई आंबेडकर. फ़ोटो साभारः दीक्षाभूमि, नागपुर और लोकवांग्मय प्रकाशन
सवाल: वो (गांधी) मंदिर में प्रवेश होने जैसे मुद्दों से संतुष्ट थे.
आंबेडकरः वो मंदिर में प्रवेश का अधिकार देना चाहते थे. अब हिंदू मंदिरों की कोई परवाह नहीं करता. अस्पृश्य इस बात को अच्छी तरह समझ चुके हैं कि मंदिर जाने का कोई परिणाम नहीं है. वो अस्पृश्य ही बने रहेंगे, चाहे वो मंदिर जाएं अथवा नहीं. उदाहरण के लिए लोग अछूतों को रेलवे में यात्रा करने की इजाज़त नहीं देते.
अब उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि रेलवे उनके लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं करने जा रही. वो ट्रेन में एक साथ यात्रा करते हैं. जब भी रेल में हिंदू और अस्पृश्य साथ यात्रा करते हैं तो वो अपनी पुरानी भूमिका में होते हैं.

क़ानून मंत्री डॉक्टर आंबेडकर हिन्दू कोड बिल पर संसद में चर्चा करते हुए. फ़ोटो साभारः दीक्षाभूमि, नागपुर और लोकवांग्मय प्रकाशन
सवालः तो क्या आप कहना चाहते हैं कि गांधी रूढ़िवादी हिंदू थे?
आंबेडकरः हां, वो बिलकुल रूढ़िवादी हिन्दू थे. वो कभी एक सुधारक नहीं थे. उनकी ऐसी कोई सोच नहीं थी, वो अस्पृश्यता के बारे में सिर्फ़ इसलिए बात करते थे कि अस्पृश्यों को कांग्रेस के साथ जोड़ सकें. ये एक बात थी. दूसरी बात, वो चाहते थे कि अस्पृश्य स्वराज की उनकी अवधारणा का विरोध न करें.
मुझे नहीं लगता कि इससे अधिक उन्होंने अस्पृश्यों के उत्थान के बारे में कुछ सोचा.
सवाल: क्या आपको लगता है कि गांधी के बिना राजनीतिक आज़ादी मिल सकती थी?
आंबेडकरः जी हां. मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं. ये धीरे-धीरे हो सकता था. लेकिन व्यक्तिगत रूप से मुझे लगता है कि अगर स्वराज भारत में धीरे-धीरे आता तो ये लोगों के लिए फ़ायदेमंद होता. विकृतियों से ग्रस्त हर समुदाय या लोगों का हर समूह स्वयं को मज़बूत करने में सक्षम होता, अगर ब्रिटिश सरकार से सत्ता हस्तांतरण धीरे-धीरे होता.
आज हर चीज़ एक बाढ़ के समान आ गई है. लोग इसके लिए तैयार नहीं थे. मुझे अक्सर लगता है कि इंग्लैंड में लेबर पार्टी सबसे वाहियात पार्टी है.

आंबेडकर की मुम्बई की कान्हेरी गुफाओं की सैर. तस्वीर 1952-53 की है. फ़ोटो साभारः दीक्षाभूमि, नागपुर और लोकवांग्मय प्रकाशन
सवाल: क्या गांधी में धीरज नहीं था, या कांग्रेस पार्टी में?
आंबेडकरः मुझे नहीं मालूम कि अचानक एटली आज़ादी देने के लिए तैयार क्यों हो गए. ये एक गोपनीय विषय है, जो मुझे लगता है, कि एटली किसी दिन अपनी जीवनी में दुनिया के सामने लाएंगे. वो उस मुक़ाम तक कैसे पहुंचे. किसी ने अचानक इस बदलाव के बारे में नहीं सोचा था. किसी ने उम्मीद नहीं की थी.
ये मुझे अपने आकलन से लगता है. मुझे लगता है कि लेबर पार्टी ने दो कारणों से ये फ़ैसला किया. पहला है सुभाष चन्द्र बोस की राष्ट्रीय सेना. इस देश पर राज कर रहे ब्रिटिश को पूरा भरोसा था कि देश को चाहे कुछ भी हो जाए और राजनीतिज्ञ चाहे कुछ भी कर लें, लेकिन इस मिट्टी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता नहीं बदलेंगे.
इस सोच के साथ वो अपना प्रशासन चला रहे थे. उस सोच को बुरी तरह धक्का पहुंचा, जब उन्हें पता चला कि सैनिक एक पार्टी या बटालियन बना रहे हैं, जो ब्रिटिश को उखाड़ फेंकेगी. मुझे लगता है कि ऐसे में ब्रिटिश इस नतीजे पर पहुंचे, कि अगर उन्हें भारत पर शासन करना है तो इसका इकलौता आधार ब्रिटिश सेना से संचालन हो सकता है.
1857 की बात करें, जब भारतीय सैनिकों ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया था. उन्होंने पाया कि ब्रिटिश के लिए ये संभव नहीं होगा कि वो भारत में लगातार इतनी यूरोपीय सेना मुहैया कराते रहें, जिसके ज़रिये शासन किया जा सके.
दूसरी बात, जो मुझे लगती है, हालांकि मेरे पास ऐसा सबूत नहीं है, लेकिन मैं सोचता हूं कि ब्रिटिश सैनिक सेना को फ़ौरन समाप्त करना चाहते थे, ताकि वो नागरिक पेशे अपना सकें.
आप जानते हैं कि सेना को धीरे-धीरे कम करने के पीछे कितनी नाराज़गी थी?
क्योंकि जिन्हें सेना से नहीं निकाला गया था, वो सोचते थे, कि जिन लोगों को सेना से निकाल दिया गया है, वो उनका नागरिक पेशा हथिया रहे हैं और उनके साथ कितनी नाइंसाफ़ी हो रही है. लिहाज़ा भारत पर शासन करने के लिए पर्याप्त ब्रिटिश सेना रखना उनके लिए मुमकिन नहीं था.
तीसरी बात, मुझे लगता है कि इसके अलावा उन्होंने सोचा कि भारत से उन्हें सिर्फ़ वाणिज्य चाहिए था और सिविल सर्वेंट की पगार या सेना की आमदनी नहीं. ये तुच्छ चीज़ें थीं.
व्यापार और वाणिज्य के रूप में इनका बलिदान करने में कोई हर्जा नहीं था. भारत आज़ाद हो जाए या उसकी स्थिति स्वीकृत डोमेन या उससे कमतर हो.
लेकिन व्यापार और वाणिज्य बना रहना चाहिए. मैं इसके बारे में सुनिश्चित नहीं हूं, लेकिन मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है, लेबर पार्टी की मंशा यही रही होगी.

औरंगाबाद की एक कोर्ट में आंबेडकर. औरंगाबाद बार एसोसिएशन ने उनको आमंत्रित किया था. तस्वीर की तारीख 28 जुलाई, 1950. फ़ोटो साभारः दीक्षाभूमि, नागपुर और लोकवांग्मय प्रकाशन
सवाल: पूना समझौते की बात करते हैं. आप उस समझौते में शामिल थे. क्या आपको याद है कि उस दौरान गांधी से आपकी क्या बातचीत हुई?
आंबेडकर: (हल्के स्वर में) हां... मैं ये बात अच्छी तरह जानता था. ब्रिटिश सरकार ने मैकडोनल्ड के दिए मूल प्रस्ताव में मेरा सुझाव मान लिया था. मैंने कहा था कि हम एक समान निर्वाचित प्रतिनिधि चाहते हैं, ताकि हिन्दुओं और अनुसूचित जातियों के बीच दरार बनी रहे.
हमें लगता है कि अगर आप एक समान निर्वाचन प्रतिनिधि उपलब्ध कराते हैं तो हम समाहित हो जाएंगे और अनुसूचित जाति के नामित वास्तव में हिन्दुओं के ग़ुलाम बन जाएंगे, आज़ाद नहीं रहेंगे. अब मैंने रामसे मैकडोनल्ड से कहा, कि वो इसी विषय को आगे बढ़ाना चाहते हैं, हमें अलग निर्वाचन प्रतिनिधि और आम चुनाव में अलग मत दें.
ताकि गांधी ये नहीं कह सकें कि हम चुनाव के मामले में अलग हैं. पहले मेरी सोच यही थी, कि पहले पांच वर्ष हम हिन्दुओं से अलग रहें, जिसमें कोई व्यवहार, कोई संवाद न हो. ये सामाजिक और आध्यात्मिक क़दम होता. आप एक आम मतदाता में भागीदारी के चक्र में क्या देख सकते हैं?
इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए आप जिस अलगाववाद के बारे में सोचते हैं, वो सदियों से बढ़ी है. ये सोचना मूर्खता है कि यदि दो लोगों के एक साथ मतदान केन्द्रों पर मतदान करने से उनके दिल बदल जाएंगे. ऐसा कुछ भी नहीं है. ये गांधी का पागलपन है. ख़ैर, इसे अलग रखा जाना चाहिए.
इस तरह की व्यवस्था में अस्पृश्यों से मतदान कराते हैं, तो आप उन्हें उसी अनुपात की अपनी आबादी का प्रतिनिधित्व करने देते हैं, ताकि मतदान पर बल मिले और प्रतिनिधि पर नहीं. ताकि गांधी और अन्य लोग शिकायत न कर सकें. रामसे मैकडोनाल्ड ने इसे स्वीकार कर लिया. ये वास्तव में मेरा सुझाव था. मैंने नेपल्स से उन्हें पत्र लिखा था.
मैं चाहता था कि वो यही करें, ताकि कोई समस्या न हो. उन्होंने यही किया, हमें अलग से निर्वाचन क्षेत्र और आम चुनाव में मतदान का अधिकार दिया. लेकिन गांधी नहीं चाहते थे कि हम अपने वास्तविक प्रतिनिधियों को भेजें. लिहाज़ा वो समझौते में अलग निर्वाचन क्षेत्र को नहीं जोड़ना चाहते थे और अनशन पर चले गए. फिर ये मेरे ऊपर आ गया.
ब्रिटिश सरकार ने कहा कि अगर आप समझौता नहीं मानना चाहते तो हमें कोई ऐतराज़ नहीं है. लेकिन हम समझौता स्वयं समाप्त करना चाहते थे. हमने समझौता छोड़ दिया. हमने हर वो चीज़ छोड़ दी, जो सर्वश्रेष्ठ थी.
आपको रामसे मैकडोनल्ड का पत्र पढ़ना चाहिए, जिसमें स्पष्ट लिखा है कि हमने अलगाववाद को बढ़ावा देने जैसा कुछ भी नहीं किया है. बल्कि हम एक समान निर्वाचन के ज़रिये दोनों गुटों को एक मंच पर लाकर इस खाई को भरना चाहते हैं. लेकिन गांधी का विरोध इस बात पर था कि हमें आज़ादी के साथ प्रतिनिधित्व न मिले.
लिहाज़ा उन्होंने खुलकर विरोध किया कि हमें कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिलना चाहिए. गोलमेज़ सम्मेलन में उनका यही रुख़ था. उन्होंने कहा कि वो सिर्फ़ हिन्दू, मुस्लिम और सिख समुदाय को जानते हैं. संविधान में सिर्फ़ इन्हीं तीन समुदायों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए.
लेकिन इसाई, एंग्लो-इंडियन्स, अनुसूचित जाति के लिए संविधान में कोई जगह नहीं. उनके मुताबिक़ इन लोगों को आम लोगों के साथ मिश्र कर देना चाहिए. मैं जानता हूं कि उनके सभी दोस्त इस सोच को मूर्खता बता रहे थे. इस विषय पर उनके दोस्तों ने ही उनका विरोध किया.
अगर सिख और मुसलमानों को विशेष प्रतिनिधित्व दिया जाता है, जो राजनीतिक और आर्थिक रूप से हज़ारों गुना बेहतर स्थिति में हैं, तो अनुसूचित जाति और ईसाइयों को कैसे छोड़ा जा सकता है?
उनका यही कहना था कि आपलोग हमारी समस्या नहीं समझते. वो, बस, यही कहते थे.
इस मुद्दे पर उनके गहरे मित्र अलेक्जेन्ड्रिया का उनसे खासा झगड़ा हुआ, जैसा उन्होंने मुझे बताया. एक फ्रेंच महिला, जो उनकी अनुयायी थी, मैं उसका नाम भूल गया. उसने भी गांधी से जमकर झगड़ा किया, कि हम इस सोच को समझ नहीं पा रहे. या तो आप कहें कि हम किसी को कुछ नहीं देंगे और एक सामान्य प्रक्रिया होनी चाहिए.
हम इस बात को समझ सकते हैं कि आप इसमें लोकतांत्रिक प्रक्रिया देखते हैं. लेकिन ये कहना कि मुसलमानों और सिखों को प्रतिनिधित्व देना और अनुसूचित जातियों को नहीं, अजीब लगता है. वो कोई जवाब नहीं दे पाए. कोई जवाब नहीं. हमने ये उपाय सुझाया था.
शुरू में उन्होंने भी इसे स्वीकार नहीं किया, जब उन्होंने ख़त में लिखा; रामसे मैकडोनल्ड ने कहा कि अनुसूचित जातियों के पास कुछ भी नहीं है, कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. फिर उनके दोस्तों ने ही कहा कि वो ज़रूरत से ज़्यादा कर रहे हैं, और इसमें कोई उन्हें समर्थन नहीं देगा.
फिर मालवीय और अन्य लोग मेरे पास आए और कहा, कि क्या आप इस समस्या के समाधान में हमारी मदद नहीं कर सकते? मैंने कहा कि हमने ब्रिटिश शासन से जो पाया है, उसकी बलि चढ़ाकर आपकी मदद नहीं करना चाहते.

अपने शिक्षण संस्थान के विद्यार्थियों का राजनैतिक ज्ञान परिपक्व हो, इस सिलसिले में आंबेडकर ने मुम्बई के सिद्धार्थ महाविद्यालय की 'विद्यार्थी संसद' में 11 जून, 1950 को हिन्दू कोड बिल के समर्थन में भाषण दिया. फ़ोटो साभारः दीक्षाभूमि, नागपुर और लोकवांग्मय प्रकाशन
सवाल: और आप अपने विचार पर टिके रहे.
आंबेडकर: (हल्के स्वर में) जैसा मैंने कहा कि मैंने दूसरा विकल्प सुझाया था. विकल्प ये था कि हम अलग इलेक्टोरेट छोड़ने को तैयार नहीं थे. लेकिन इसके लिए तैयार थे कि आप कुछ भी परिवर्तन कर सकते हैं. अंतिम चुनाव में खड़े होने वाले अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों को पहले प्राथमिक चुनाव में अनुसूचित जाति के सदस्य ही चुनते.
उन्हें चार लोगों को चुनना चाहिए. फिर उन चार लोगों को आम चुनाव में खड़ा होना चाहिए. हमारे पास सर्वश्रेष्ठ आना चाहिए, ताकि हम कुछ भरोसा दे सकें कि आप अपने उम्मीदवार को वापस न लें. ऐसे में हम उन लोगों को चुन सकेंगे, जो संसद में हमारी आवाज़ बन सकें. ये प्रस्ताव गांधी को स्वीकार करना था, तो उन्होंने किया.
हमें इस प्रस्ताव का सिर्फ़ एक चुनाव में फ़ायदा मिला, 1937 के चुनाव में. फेडरेशन ने चुनाव में बहुमत हासिल किया. गांधी के एक भी उम्मीदवार को जीत नहीं मिली.

अखिल भारतीय दलित फेडरेशन का चुनावी घोषणा पत्र, 1946. फ़ोटो साभारः दीक्षाभूमि, नागपुर और लोकवांग्मय प्रकाशन
सवालः तो क्या उन्होंने अपनी ओर से भारी मोल-तोल किया?
आंबेडकरः बिलकुल उन्होंने तोल-मोल किया. मैंने कुछ नहीं कहा. मैं आपकी ज़िंदगी बचाने को तैयार हूं, बशर्ते आप अड़ियल मत बनें. लेकिन मैं अपने लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ करके आपकी ज़िंदगी बचाने नहीं जा रहा. आप देख सकते हैं कि इसके लिए मैंने कितना परिश्रम किया. मैं इस बात को अच्छी तरह जानता हूं.
मैं आपकी सनक के लिए अपने लोगों के हितों का बलिदान नहीं करने जा रहा हूं. ये सिर्फ़ उनकी सनक थी. ये कैसे हो सकता है कि जिस सामान्य चुनाव से स्थितियां बदलने की बात की जा रही है, वो स्थितियां न बदल पाए?

चक्रवर्ती सी राजगोपालाचारी के भारत के प्रथम गवर्नर जनरल बनने के उपलक्ष्य में सरदार पटेल द्वारा जून 1948 में आयोजित किए गए भोज समारोह में प्रधानमंत्री नेहरू के साथ आंबेडकर और केन्द्रीय मंत्रीमंडल के अन्य सदस्य. फ़ोटो साभारः दीक्षाभूमि, नागपुर और लोकवांग्मय प्रकाशन
सवालः तो इसपर उन्होंने क्या कहा?
आंबेडकरः ओह. वो कुछ भी नहीं कह सके. उन्हें अनुसूचित जाति को लेकर भारी डर था... कि वो सिख और मुस्लिम की तरह आज़ाद निकाय बन जाएंगे और हिन्दुओं को इन तीन समुदायों के समूह से लड़ना पड़ेगा. ये उनके दिमाग़ में था और वो हिन्दुओं को दोस्तों के बिना छोड़ना नहीं चाहते थे.
सवालः तो शायद ही उन्होंने... उन्होंने पूरी तरह राजनीतिज्ञ की तरह काम किया.
आंबेडकरः राजनीतिज्ञ की तरह. वो कभी महात्मा नहीं थे. मैं उन्हें महात्मा कहने से इनकार करता हूं. मैंने अपनी ज़िंदगी में उन्हें कभी महात्मा नहीं कहा. वो इस पद के लायक़ कभी नहीं थे, नैतिकता के लिहाज़ से भी.(https://www.bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हैदराबाद की नगर-निगम के चुनाव और उसके परिणामों की राष्ट्रीय स्तर पर विवेचना हो रही है लेकिन मुझे इस स्थानीय बिल में से एक अंतरराष्ट्रीय सांप निकलता दिखाई पड़ रहा है। यह स्थानीय नहीं, अंतरराष्ट्रीय चुनाव साबित हो सकता है। यह एक भारत को कई भारत बनानेवाली घटना बन सकता है। मोहम्मद अली जिन्ना ने तो सिर्फ एक पाकिस्तान खड़ा किया था लेकिन अब भारत में दर्जनों पाकिस्तान उठ खड़े हो सकते हैं। भाजपा के नेता खुशी मना रहे हैं कि उन्होंने अ.ओवैसी की मुस्लिम एकता पार्टी के मुकाबले ज्यादा सीटें जीत ली हैं। पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार की जीत 12 गुनी हो गई है। 4 से 48 हो गई है। भाजपा इस प्रचंड विजय पर अपना सीना फुलाए, यह स्वाभाविक है। इसे वह पूर्ण दक्षिण-विजय का शुभारंभ मान रही है। इस अपूर्व विजय का श्रेय सभी भाजपा नेता अपने महान नेता नरेंद्र मोदी को दे रहे हैं। इसके अलावा वे किसी को दे भी नहीं सकते। लेकिन इसका श्रेय मैं ओवैसी को भी देता हूं। मोदी और ओवैसी ने हैदराबाद के मतदाताओं के बीच हिंदू-मुसलमान की दीवार खड़ी कर दी है। ओवैसी की पार्टी ने सिद्ध किया है कि वह भाजपा से भी अधिक मजबूत है। उसने पिछली बार 60 सीटें लड़ी थीं और 44 सीटें जीती थीं। इस बार उसने 51 सीटें लड़ीं और फिर भी वह 44 सीटें जीतीं जबकि भाजपा ने 149 सीटें लड़ीं थी। ओवैसी की पार्टी सिर्फ 6 सीटें हारी जबकि भाजपा 101 सीटें हार गई। दूसरे शब्दों में हैदराबाद का चुनाव का असली महाविजेता ओवैसी है। ओवैसी ने बिहार के चुनाव में भी अपना जल्वा दिखा दिया था। बिहार और हैदराबाद में कांग्रेस का सफाया किस बात का सूचक है ? क्या इस बात का नहीं कि सारे मुस्लिम वोट अब ओवैसी-पार्टी की तरफ खिंचे चले जा रहे हैं ? क्या ओवैसी की पार्टी जिन्ना, लियाकत अली और खलीकुज्जमान की मुस्लिम लीग नहीं बनती जा रही है ? मुस्लिम लीग ने भी 1906 में पैदा होने के वक्त भारत-विभाजन की मांग नहीं की थी। जिन्ना के जमाने में वह भारत के अंदर ही मुसलमानों के लिए जगह-जगह स्वायत्त इलाके मांगने लगी थी। ऐसे मुस्लिम-बहुल इलाके 1947 में तो थे। जैसे पंजाबी, सिंधी, बलूच, पठान और बंगाली। वे पाकिस्तान बन गए। अलग हो गए। अब किस इलाके को आप अलग करेंगे? 25-30 साल बाद क्या देश के अंदर ही दर्जनों मुस्लिम भारतों की मांग खड़ी नहीं हो जाएगी? देश के इन दर्जनों टुकड़ों की घंटियां मुझे आज हैदराबाद से सुनाई पड़ रही हैं।
अप्रत्याशित विजय के शंखनाद में भाजपा के नेताओं को ये वीभत्स घंटियां चाहे सुनाई न पड़ें लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा समस्त राष्ट्रवादी और राष्ट्रप्रेमी चिंतकों के लिए यह चिंता का विषय है। इस चिंता को लव-जिहाद और नागरिकता संशोधन जैसे अपरिपक्व कानूनों ने ज्यादा गहरा कर दिया है। भारत को यदि हमें सबल और अटूट बनाए रखना है तो उसे सांप्रदायिकता से मुक्त रखना पड़ेगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अजीत साही
मैं वेजिटेरियन हूँ। अंडा भी नहीं खाता हूँ। अंडे वाला केक तक नहीं खाता हूँ। पिछले करीब बारह सालों से मैं मुसलमानों के बीच खासा उठ-बैठ रहा हूँ। जब इंडिया में था तो देश भर में कई मुस्लिम संगठनों ने मुझे दर्जनों बार तकरीर के लिए बुलाया। बंगाल, केरल, बिहार, झारखंड, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, यूपी, मध्यप्रदेश, राजस्थान और यहाँ तक कि गोवा में भी भाषण दिया है। खाड़ी के देशों में प्रवासी भारतीय मुसलमानों के निमंत्रण पर भी कई बार गया।
पिछले पाँच सालों से अमेरिका में बसे भारतीय मुसलमानों ने भी अलग-अलग शहरों में मेरा भाषण रखा। इसके अलावा इंग्लैंड और साउथ अफ्रीका में भी मुस्लिम संगठनों का मेहमान रहा हूँ। इतने सालों में एक बार छोडक़र ऐसा कभी नहीं हुआ कि ऐसे मौकै पर मेरे लिए वेजिटेरियन खाना न रहा हो। लगभग सभी जगह मुझे छोडक़र कोई दूसरा वेजिटेरियन नहीं होता है। सौ-दो-सौ लोगों का खाना आर्डर पर बना हुआ होता है लेकिन मेरे लिए अलग से वेजिटेरियन खाना तैयार मिलता है। मुझे बहुत बाद में पता चला कि हर लोकेशन पर किसी एक की पहले से जिम्मेदारी मुकर्रर होती है कि मेरे लिए वेजिटेरियन खाने का इंतजाम करें।
भारत के बाहर कई बार तो मुसलमान बहनें अपने घर से मेरे लिए वेजिटेरियन खाना पका कर लाती हैं और उनके शौहर मुझे बताते हैं कि आप बिंदास खाइए क्योंकि आज हमने घर पर नॉनवेज बनाया ही नहीं इसलिए मांस के छू जाने का सवाल नहीं उठता। मुझे शर्मा कर उन्हें बताना पड़ता है कि मैं छुआछूत नहीं करता हूँ और मांस खऱीद के भी लाता हूँ और अपने परिवार के लिए पकाता भी हूँ, बस खाता नहीं हूँ। और हर जगह मेरे लिए खाना इतना ले आते हैं कि दस लोग खा लें। आगे चल कर मैंने पहले से कहना शुरू कर दिया कि, भईया, एक आदमी का ही खाना लाना वरना खाना बेकार जाता है। जब कभी तकरीर के बाद भोज नहीं होता है तो मेजबान संगठन के छह-सात लोग रेस्तराँ का प्रोग्राम बना के तैयार रहते हैं। दस में नौ बार वो मुझे वेजिटेरियन रेस्तराँ में ले जाते हैं।
मुझे कहना पड़ता है कि, देखिए, मुझे मांसाहार से परहेज है मांसाहारी से नहीं। इस पर या तो मुसलमान भाई-बहन हंस के कहते हैं कि, अरे, अजित भाई, हम तो रोज़ मांस खाते ही हैं, आज आपके बहाने वेजिटेरियन का मजा लेना चाहते हैं। या ये कहते हैं कि, अरे, ऐसा नहीं है कि हम हर समय मांस खाते हैं। इन बारह सालों में आज तक एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि किसी मुसलमान भाई या बहन ने मेरे वेजिटेरियन होने का मज़ाक़ बनाया हो या नीचा दिखाया हो। या ये बोला हो कि अगर मांस नहीं खाते हो तो प्रोटीन कहाँ से मिलता है फिर? अभी पिछले महीने यहाँ अमेरिका में छह-सात दोस्तों ने, जो कि सभी मुसलमान हैं, एक पिकनिक का प्रोग्राम रखा। सबकी पत्नियाँ और बच्चे साथ थे। सब लोग घर से एक-एक डिश पका कर लाए। हमें कुछ भी लाने से मना कर दिया। जब हम वहाँ पहुँचे तो देखा कि उन्होंने मुझ अकेले के लिए वेजिटेरियन बिरयानी, पनीर की सब्ज़ी, मिक्स्ड वेजिटेबल और दाल बनाई थी। पुरु की बर्थडे तभी बीती थी तो सब लोग उसके लिए सरप्राइज गिफ़्ट्स लेकर आए थे। और पुरु से केक की जगह रसमलाई कटवाई ये कहकर कि केक लाते तो उसमें अंडा होने की वजह से अजित भाई नहीं खाते।
हिंदू दोस्तों के साथ मेरा अनुभव थोड़ा अलग है। अपने परिवार वाले तो बहुत खयाल रखते हैं। लेकिन जब कभी दूसरे और लोगों के साथ बाहर खाता हूँ तो ये बताने से कतराता हूँ कि मैं वेजिटेरियन हूँ। वजह ये है कि मांसाहारी हिंदू मेरे वेजिटेरियन होने का अक्सर मज़ाक़ उड़ाने लगते हैं। कई बार ये भी अनुभव हुआ है कि हिंदू दोस्त ने छह-सात दोस्तों को घर पर बुलाया और इसका ख्याल ही नहीं रखा कि कोई वेजिटेरियन भी हो सकता है। या खय़ाल रखा भी तो उनको यही ठीक लगा कि बाक़ी सब को तो तीन प्रकार के मटन-चिकन और कबाब खिलाना लाजमी है, बस इस वेजिटेरियन को एक सब्ज़ी दे देंगे और एक दाल रख देंगे तो बहुत होगा, क्योंकि अब एक आदमी के लिए क्या सर खपाएँ। पचासों हिंदू मुझे कह चुके हैं कि वेजिटेरियन क्यों हो? मीट क्यों नहीं खाते? ये क्या ड्रामा है? अब शुरू कर दो। मांस न खाना बेवकूफी है। वगैरह वगैरह।
राकेश दीवान
‘नीति आयोग’ के कृषि विशेषज्ञ रमेश कुमार ने लघु और सीमान्त किसानों को लेकर एक अध्ययन किया है जिसकी अनुशंसाओं में अनेक बेहद महत्वपूर्ण हैं और उन पर विचार करना जरूरी है। आज देशभर का किसान कृषि संबंधी कानूनों को लेकर सडक़ों पर उतरा है, लेकिन क्या उसका संघर्ष देश के तीन-चौथाई से अधिक किसानों की बात भी सुन रहा है? क्या वे भी उनके संघर्ष में शामिल हैं? क्या खेती का मौजूदा मॉडल किसान को आज सरीखी गफलतों में फिर नहीं फांसेगा? यह मौका है जब हम अपनी खेती का खाका बदलने की शुरुआत कर सकते हैं। यदि यह नहीं हुआ, तो किसानों की यह लडाई भी आधी-अधूरी ही रह जाएगी।
नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार ने हड़बड़ी में कृषि संबंधी तीन कानूनों को पारित कर और कुछ भले ही किया, ना किया हो, देश में आजादी के बाद के सबसे बड़े किसान आंदोलन की अलख जरूर जगा दी है। ऐसा पहली बार हुआ है कि देशभर के किसान 20 और 22 सितम्बर को संसद में ध्वनिमत से पारित तीन कृषि बिलों के विरोध में लामबंद हुए हैं।
‘कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक- 2020,’ ‘कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन, कृषि सेवा पर करार विधेयक-2020’ और ‘आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक-2020’ के विरोध ने ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) को कानूनी रूप देने से लगाकर ‘संविदा खेती’ तक कई सवाल खड़े कर दिए हैं। लेकिन क्या सरकार को अपने ही फैसलों को वापस लेने को मजबूर करने भर से कृषि के संकटों से निजात मिल सकेगी? क्या खेती के मौजूदा तौर-तरीके वापस इसी संकट में नहीं ले जाएंगे? मसलन-क्या विवादास्पद तीनों कानूनों को वापस लेने से देशभर में किसान आत्महत्याओं पर रोक लग जाएगी?
किसानी की बदहाली की कहानी आजादी के पहले तब से ही शुरू हो गई थी जब खेती के ‘अतिरिक्त उत्पादन’ से उद्योगों को पाला-पोसा गया था। साठ का दशक आते-आते सभी के गले यह बात उतार दी गई थी कि अपनी भुखमरी के लिए अपने बेपानी-खेत और उनमें कम-से-कमतर होता उत्पादन जिम्मेदार हैं। भुखमरी की इस बदहाली पर पक्का ठप्पा लगाने की खातिर अमरीका से ‘पब्लिक लॉ-480’ (पीएल-480) के तहत ‘कांस’-(जिसे ‘कांग्रेस घास’ के नाम से प्रसिद्धि मिली थी)-युक्त गेहूं मंगवाया गया। अमरीका का यह कानून डॉलर की बजाए भारतीय रुपयों में भुगतान करने की छूट देता था। भुखमरी के संकट के इसी दौर में विशालकाय भाखरा-नंगल की योजना बनी जिससे आधुनिक संकर गेहूं, धान आदि की पैदावार बढ सके। आयातित अनाज पर निर्भरता और ‘नए भारत के तीर्थ’ के दर्जे के बांध की पृष्ठभूमि में साठ के दशक में कृषि के वैश्विक ज्ञाता नार्मन बोरलाग की सीख-सलाहों पर ‘हरित क्रांति’ को खडा किया गया। अनाज उत्पादन के नाम पर गेहूं, धान उगाने वाली यह ‘हरित क्रांति’ भारी लागत के बदले भारी पैदावार को बढ़ावा देती थी।
विडम्बना यह थी कि ना तो भुखमरी और ना ही सिंचाई और उत्पादन में कोई कमी थी जिसके लिए दुनियाभर से कर्जों और अनुदानों के बल पर विशालकाय सिंचाई परियोजनाएं और आधुनिक तकनीक क्रियान्वित की जाएं। आजादी के शुरुआती सालों में भुखमरी की वजहों पर अमत्र्य सेन सरीखे ख्यात अर्थशास्त्रियों ने लिखा है कि उन दिनों की भुखमरी की वजहें अनाज की कमी की बजाए योजनागत राजनीति की गफलतें थीं। बंगाल के भीषण अकाल पर तो अब साफ उजागर हो गया है कि इसकी वजहें तत्?कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विन्स्ट्न चर्चिल की अमानवीय, कूटनीतिक चालें थीं। ठीक इसी तरह ‘मंथन अध्ययन केन्द्र’ के श्रीपाद धर्माधिकारी, स्वाती शेषाद्री, रेहमत मंसूरी और मुकेश जाट का भाखरा-नंगल परियोजना का अध्ययन बताता है कि वहां उस जमाने में सिंचाई और उसके चलते होने वाले उत्पादन में ऐसी कोई कमी नहीं थी जिसकी वजह से उन्हें बढ़ाने की जरूरत हो।
पचास और साठ के दशकों के इन कृषि सुधारों ने ‘हरित क्रांति’ के क्षेत्रों में अव्वल तो उत्पादन में खासी बढ़ोत्तरी की। बढ़े उत्पादनों के कारण उनकी कीमतों पर नियंत्रण रखने की खातिर ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) की अवधारणा अस्तित्व में आई। दूसरे, आधुनिक कही जाने वाली इस खेती में लागत-निवेश बढ़ गया जिसके चलते किसानों को कर्जों की चपेट में फंसना पड़ा। तीसरे, ‘हरित क्रांति’ ने सीमित नस्लों के अनाजों को प्राथमिकता दी। पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी-उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश जैसे ‘हरित क्रांति’ के इलाकों में तो केवल गेहूं, धान और कभी-कभार मक्का पैदा की गईं। तरह-तरह के रासायनिक खाद-दवाओं-कीटनाशकों से लदी-फंदी भारी लागत वाली इस आधुनिक खेती ने एक तरफ तो जरूरत से ज्यादा उत्पादन दिया और दूसरी तरफ, किसानों को उनकी फसलों के वाजिब दाम नहीं मिलने दिए। नतीजे में एक तरफ, लाखों टन अनाज खुले मैदानों में सडता रहा और दूसरी तरफ, किसान अपनी फसलों, खासकर फलों-सब्जियों-दूध आदि को खुले आम सडकों पर फैंकने लगे। इसी तरह एक तरफ, भंडारण के आभाव में करीब दस फीसदी उत्?पादन कीट-पतिंगों और चूहों को होम होने लगा और दूसरी तरफ, खरीदने की क्षमता नहीं होने के कारण देशभर में तीखी भुखमरी बढ़ी।
किसान और किसानी की इस बदहाली में नीति-निर्माताओं और सत्ताधारियों की उन मान्यताओं ने और रंग चढ़ाया जिनके मुताबिक किसानों की बदहाली कम उत्पादन, बाजारों से दूरी और कृषि-क्षेत्र पर अधिक दबाव के कारण हो रही है। नतीजे में सरकारी स्तर पर इसी तर्ज की योजनाएं बनी और क्रियान्वित की गईं। बेंगन, सरसों सरीखी फसलों के भरपूर उत्पादन के बावजूद उनका उत्पादन बढ़ाने के लिए ‘बीज संवर्धन’ (जीनेटिकली मॉडाफाइड) तकनीक से तैयार बीजों को परोसा गया। साल-दर-साल कृषि-क्षेत्र और बोनी बढाकर उत्पादन में गैर-जरूरी इजाफा किया गया। किसानी से कोसों दूर बैठे व्यापारियों, बिचौलियों को बाजार बढ़ाने-फैलाने और मुनाफा कमाने की खुली छूट दी गई। इस गोरखधंधे में बात यहां तक आ गई कि कृषि-क्षेत्र का दबाव कम करने की खातिर बड़े पैमाने पर खेतिहर आबादी को उद्योगों के हवाले किया जाने लगा। सन् 1996 में विश्वबैंक ने इन नीतियों की तस्दीक की और फिर 2005 में रिमॉइंडर भेजकर गांवों को शहरों में हकालने की चेतावनी दी। कांग्रेस, भाजपा सरकारों के सभी वित्तमंत्रियों को गांवों और ग्रामीण आबादी की लगातार होती कमी और शहरी ‘मलिन’ बस्तियों की बढ़ती आबादी ने खुश किया।
जाहिर है, इन और ऐसी ही अनेक गफलतों को सुलझाने की खातिर इन नीतियों, योजनाओं पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। मसलन-आंदोलनरत किसानों को उन 94 फीसदी लघु और सीमांत किसानों को भी अपनी लड़ाई से जोडना होगा जिन्हें ‘शांताकुमार समिति’ के अनुसार ‘एमएसपी’ और मंडी से कोई लेना-देना नहीं होता। ‘नीति आयोग’ के कृषि विशेषज्ञ रमेश कुमार ने लघु और सीमान्त किसानों को लेकर एक अध्ययन किया है जिसकी अनुशंसाओं में अनेक बेहद महत्वपूर्ण हैं और उन पर विचार करना जरूरी है। आज देशभर का किसान कृषि संबंधी कानूनों को लेकर सडक़ों पर उतरा है, लेकिन क्या उसका संघर्ष देश के तीन-चौथाई से अधिक किसानों की बात भी सुन रहा है? क्या वे भी उनके संघर्ष में शामिल हैं? क्या खेती का मौजूदा मॉडल किसान को आज सरीखी गफलतों में फिर नहीं फांसेगा? यह मौका है जब हम अपनी खेती का खाका बदलने की शुरुआत कर सकते हैं। यदि यह नहीं हुआ, तो किसानों की यह लडाई भी आधी-अधूरी ही रह जाएगी।
-श्रुति मेनन
कृषि क़ानून के ख़िलाफ़ किसानों का प्रदर्शन जारी है. पंजाब समेत कई रज्यों के किसान इन क़ानूनों का विरोध कर रहे हैं. अन्य राज्यों से लगने वाली राजधानी दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर किसान एक सप्ताह से अधिक वक़्त से डटे हुए हैं.
कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे किसानों का मानना है कि ये नया क़ानून उनके हित में नहीं है और इससे उनकी आजीविका पर बुरा असर पड़ेगा.
एक ओर जहां किसानों का दावा है कि यह प्रदर्शन पूरी तरह शांतिपूर्वक संचालित हैं वहीं सोशल मीडिया पर कई पार्टियों और लोगों द्वारा प्रदर्शन से जुड़ी कई तरह की ग़लत सूचनाएं भी शेयर की जा रही हैं.
भ्रम पैदा करने वाले कुछ ऐसे ही ग़लत दावों की बीबीसी ने पड़ताल की है.
कमला हैरिस ने सार्वजनिक तौर पर किसानों के प्रदर्शन का समर्थन नहीं किया

सोशल मीडिया पर एक फ़र्जी पोस्ट का स्क्रीनशॉट वायरल हो रहा है. जो अमरीका की नव-निर्वाचित उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस से जुड़ा हुआ है.
फ़ेसबुक पर शेयर हो रहे इस फ़ेक स्क्रीनशॉट के मुताबिक़, कमला हैरिस ने भारत में चल रहे किसानों के प्रदर्शन को अपना समर्थन दिया है.
इस फ़र्जी स्क्रीन शॉट में लिखा है, "नए क़ानून का विरोध कर रहे किसानों का भारत सरकार जिस तरह से दमन कर रही है उसे देखकर हम आश्चर्यचकित हैं. इस नए क़ानून से उनकी आजीविका ख़तरे में पड़ जाएगी. भारत सरकार को वाटर कैनन और आंसू गैस के इस्तेमाल के बजाय किसानों के साथ खुलकर बात करनी चाहिए."
लेकिन फ़ेसबुक ने इस पोस्ट पर गड़बड़ी के तहत वॉर्निंग दी है. कमला हैरिस किसानों के प्रदर्शन को लेकर किसी तरह की टिप्पणी नहीं की है. ना ही उन्होंने अपने पर्सनल अकाउंट पर कोई टिप्पणी की है और ना ही किसी दूसरे अकाउंट पर.
जब बीबीसी ने उनकी मीडिया टीम से इस बारे में जानकारी मांगी तो उन्होंने हमें बताया कि, यह फ़ेक है.
कनाडा के एक सांसद जैक हैरिस ने 27 नवंबर को भारत में विरोध प्रदर्शन कर रहे किसानों का समर्थन करते हुए ट्वीट किया था. यह ट्वीट हूबहू वैसा ही है जो कमला हैरिस के ट्वीट के तौर पर शेयर किया जा रहा है और जिसे कमला हैरस की मीडिया टीम ने फ़ेक बताया है.
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने किसानों के विरोध प्रदर्शन पर पुलिस की ओर की गई कार्रवाई पर सार्वजनिक रूप से चिंता व्यक्त की थी. कनाडा में भारतीय मूल की एक बड़ी आबादी रहती है.
ट्रूडो की टिप्पणी पर भारत सरकार ने नाराज़गी ज़ाहिर की थी और कहा था कि उन्हें पूरे मामले की जानकारी नहीं.
पुरानी तस्वीर को लेकर हुआ विवाद

भारतीय सोशल मीडिया पर एक ट्वीट शेयर किया जा रहा है जिसमें कुछ सिख भारत प्रशासित कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के विरोध में प्रदर्शन कर रहे हैं. तस्वीर के साथ दावा किया गया है कि ये बीते दस दिनों से जारी किसान प्रदर्शनों से जुड़ी तस्वीर है.
इस ट्वीट को अब तक 3,000 बार री-ट्वीट किया गया है जबकि इसे 11,000 से अधिक लाइक्स मिले हैं. इसे प्रीति गांधी ने भी री-ट्वीट किया है जो सत्ताधारी बीजेपी की महिला शाखा की सोशल मीडिया प्रमुख हैं.
इस पोस्ट पर जो कॉमेन्ट्स किए गए हैं उनमें दावा किया गया है कि किसानों के विरोध प्रदर्शनों का इस्तेमाल निहित स्वार्थ वाले ऐसे समूह कर रहे हैं जिसका एजेंडा कश्मीर विवाद को हवा देना है या फिर पंजाब में सिखों के लिए अलग देश की मांग करना है.
बीबीसी ने इस तस्वीर के बारे में पड़ताल की और पाया कि दरअसल, ये तस्वीर साल 2019 के अगस्त महीने में पंजाब की राजनीतिक पार्टी शिरोमणी अकाली दल ने अपने फ़ेसबुक पन्ने पर साझा की थी.
ये तस्वीर बीते साल उस वक्त पोस्ट की गई थी जब भारत सरकार ने जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को हटाने का फ़ैसला किया था. उस वक्त शिरोमणी अकाली दल समेत कुछ राजनीतिक पार्टियों ने सरकार के इस फ़ैसले का विरोध किया था.
तो, ये तस्वीर किसी तरह से मौजूदा किसान आंदोलन से जुड़ी नहीं है.
फर्क़ बताना मुश्किल
ऐसा नहीं है कि केवल बीजेपी नेता ही किसान आंदोलन से जुड़ी भ्रामक तस्वीरें शेयर कर रहे हैं.
कांग्रेस की युवा वाहिनी से जुड़े लोगों के सोशल मीडिया अकाउंट और वरिष्ठ विपक्षी कांग्रेस नेताओं ने भी साल 2018 की तस्वीर को किसान आंदोलन की तस्वीर कह कर शेयर किया है.
अक्तूबर 2018 की इस तस्वीर में सड़कों पर लगे बैरिकेड्स देखे जा सकते हैं. तस्वीर में यहां बड़ी संख्या में लोग जमा हैं और पुलिस भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पानी क बौछारें कर रही है. इस तस्वीर को देख कर लगता है कि ये विरोध प्रदर्शन की तस्वीर है.
इस तरह की एक तस्वीर के साथ लिखे पोस्ट में कहा गया है कि सरकार किसानों के साथ ऐसे बर्ताव कर रही है जैसे वो "आतंकवादी" हों.

हालांकि हाल के दिनों में पुलिस ने वाटर कैनन और आंसू गैस का इस्तेमाल किया है.
लेकिन जो तस्वीरें सोशल मीडिया पर तैरती हुई आपकी नज़रों से गुज़रीं वो सभी इसी प्रोटेस्ट की नहीं हैं. इसमें से कुछ तस्वीरें किसी दूसरे विरोध की हैं. जो शायद एक या दो साल पुरानी हैं और उनकी जगह भी अलग है.
रिवर्स इमेज सर्च से पता चलता है कि उनमें से कुछ तस्वीरें उत्तर प्रदेश के किसानों के विरोध प्रदर्शन की हैं. साल 2018 में उत्तर प्रदेश के किसानों ने कर्ज़माफ़ी और कर्ज़ के भुगतान के लिए दिल्ली में मार्च किया था.
उत्तर प्रदेश के इन किसानों को राजधानी दिल्ली के पूर्व में उत्तर प्रदेश-दिल्ली के बॉर्डर के पास रोक दिया गया था. जबकि मौजूदा प्रदर्शन राजधानी दिल्ली के उत्तर में पंजाब-हरियाणा सीमा पर हो रहा है. हालांकि प्रदर्शन कर रहे कुछ किसान दिल्ली के बुराड़ी मैदान में भी मौजूद हैं.(https://www.bbc.com/hindi)
-डॉ राजू पाण्डेय
अंतत: उत्तरप्रदेश सरकार ने इस बात की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति कर ही ली कि वह बहुसंख्य हिंदू युवतियों को नासमझ, अपने हित-अनहित का निर्धारण कर सकने में असमर्थ तथा स्वविवेक से कोई भी सही निर्णय लेने हेतु अक्षम मानती है। उत्तरप्रदेश सरकार ने गैर कानूनी धर्मांतरण विधेयक 2020 को मंजूरी दे दी है। कानून वैसे तो धर्मांतरण से संबंधित है किंतु वर्तमान संदर्भ में यह कथित लव जिहाद को रोकने के सरकारी प्रयत्नों के एक भाग के रूप में देखा जा रहा है।
हमारा समाज स्त्री के लिए बहुत सम्मानजनक अभिव्यक्तियों का प्रयोग करता है। हम उन्हें गृह लक्ष्मी कहते हैं। उन्हें देवी की संज्ञा देते हैं और पूजा के योग्य मानते हैं। हम उन्हें हमारी संस्कृति की रक्षक और पोषक कहते हैं। किंतु जब कोई स्त्री अपने जीवन का सबसे अहम फैसला-जीवन साथी चुनने का निर्णय- अपनी पसंद और अपने विवेक के अनुसार लेती है तो वह हमें स्वीकार्य नहीं होता। स्त्रियां तभी तक पूजनीय होती हैं जब तक वे पितृसत्ता द्वारा अपने लिए निर्धारित कर्तव्यों का पालन करती हैं और पुरुष प्रधान समाज द्वारा निर्धारित कसौटियों पर खरी उतरती हैं। जैसे ही वे अपनी अस्मिता की तलाश करने लगती हैं और अपने मौलिक तथा अद्वितीय होने का प्रमाण देने लगती हैं, उन्हें अनुशासित, दंडित और प्रताडि़त करने का उपक्रम प्रारंभ हो जाता है। यह पितृसत्ता की युगों से चली आ रही जांची-परखी और कारगर रणनीति है। पुरुष अपनी सुविधानुसार नारी को कभी दुर्गा और रणचंडी के रूप में चित्रित करता है तो कभी उसे अबला तथा कोमलांगी बताकर उसकी सुरक्षा के लिए चिंतित होने का अभिनय करने लगता है। घर की माताओं-बहनों और बहू बेटियों की रक्षा का स्वघोषित उत्तरदायित्व पुरुष स्वयं पर ले लेता है किंतु यह सुरक्षा नारी को तभी तक उपलब्ध होती है जब तक वह पुरुष द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखाओं के भीतर रहती है। इन लक्ष्मण रेखाओं से बाहर निकल कर स्वतंत्रता की तलाश करने की नारी की कोशिश उच्छृंखलता मानी जाती है और इसके लिए उसे दंडित किया जाता है। यह सुरक्षा के बहाने नारी पर वर्चस्व स्थापित करने की चेष्टा है। पुरुष नारी को अपने अधीन रखने के लिए उसे कुल और परिवार के सम्मान की संज्ञा देता है किंतु जब नारी सामाजिक मान-सम्मान एवं गौरव की पुरुषवादी परिभाषा से संगति नहीं बैठा पाती तथा अपनी पसंद का जीवन साथी चुन लेती है तो उसकी हत्या कर दी जाती है जिसके लिए आजकल ऑनर किलिंग शब्द बहुत ज्यादा प्रयुक्त होता है। पुरुष ने नारी का जमकर दोहन किया है। नारी को आजादी देने के नाम पर उससे नौकरी, मजदूरी और व्यवसाय कराए जाते हैं किंतु उसे पारिवारिक दायित्वों से कभी मुक्त नहीं किया जाता। परिवार की आर्थिक मजबूती के लिए घर से बाहर निकलने वाली नारी पर चारित्रिक लांछन लगाए जाते हैं और काम से थककर लौटने के बाद उसे घरेलू कार्य ठीक से न कर पाने के लिए ताने सुनने पड़ते हैं।
योगी सरकार संभवत: यह संदेश देना चाहती है कि जो नारी देश में वित्त,रक्षा और विदेश मंत्रालयों का दायित्व संभाल सकती है, अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बैंकों में मुख्य कार्यकारी अधिकारी के पद पर आसीन हो सकती है, वायु यान उड़ा सकती है, अंतरिक्ष कार्यक्रम का हिस्सा बन सकती है, सेना का सक्रिय अंग बन सकती है, कोविड काल में अपने प्राणों की परवाह न करते हुए मानव सेवा कर सकती है, देश के दूसरे भागों में रोजगार की तलाश में भटकने वाले प्रवासी श्रमिक पतियों का घर-परिवार और खेत संभाल सकती है, वह नारी अपने जीवन साथी के उचित चयन और अपने धार्मिक जीवन के संबंध में सही निर्णय नहीं ले सकती? योगी सरकार के फैसले पर पितृसत्तात्मक धार्मिक विमर्श का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। सरकार किसी रूढि़वादी पिता या भाई की भांति आचरण करती दिखती है जो बेटी या बहिन की स्वतंत्रता छीनने की अपनी अनुचित प्रवृत्ति को अपने स्नेह की अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है।
अंतरराष्ट्रीय कानूनी प्रावधान अंतर धार्मिक विवाह के संबंध में बहुत उदार हैं और महिलाओं के जीवन साथी के चयन के अधिकार का पूर्ण सम्मान करते हैं। यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स के आर्टिकल 16 के अनुसार विवाह के संदर्भ में महिलाओं के साथ किसी भी प्रकार के भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में प्रयास किए जाने चाहिए। वयस्क स्त्री पुरुष नस्ल, राष्ट्रीयता और धर्म की सीमाओं से परे विवाह कर परिवार का निर्माण कर सकते हैं। लगभग ऐसी ही भावना इंटरनेशनल कोवेनेंट ऑन सिविल एंड पॉलिटिकल राइट्स, 1966 के आर्टिकल 23 में व्यक्त की गई है।
गैर कानूनी धर्मांतरण विधेयक अपनी शब्दावली और संरचना में अनुचित धर्मांतरण रोकने हेतु एक कानूनी प्रावधान की भांति दिखाई देता है किंतु यह ऐसी मानसिकता रखने वाले शासकों द्वारा लागू किया जाने वाला है जिनका यह दृढ़ विश्वास है कि मुस्लिम युवक छल-कपटपूर्वक हिन्दू युवतियों को बहला फुसलाकर उनसे विवाह कर लेते हैं, विवाह के लिए इन युवतियों को धर्म परिवर्तन करना पड़ता है, विवाह के बाद इन युवतियों का जीवन नर्क बन जाता है और सबसे बढक़र ऐसी घटनाएं अपवाद स्वरूप घटित नहीं हो रही हैं बल्कि मुस्लिम समुदाय एक सोची समझी रणनीति के तहत अपनी जनसंख्या बढ़ाकर हिंदुओं को अल्पसंख्यक बनाने हेतु यह सब कर रहा है ताकि भारत को इस्लामिक राज्य बनाया जा सके। सरकार की इन पूर्व धारणाओं के कारण लगभग सभी को पता है कि इस कानून का प्रयोग किस समुदाय पर किस उद्देश्य से किया जाना है। विवाह के संदर्भ में सरकार अघोषित रूप से यह कहती प्रतीत होती है कि वह अंतर धार्मिक प्रेम विवाह के विरुद्ध है, वह इसे संदेह की दृष्टि से देखती है और इसे हतोत्साहित करना चाहती है। बावजूद सरकार की चेतावनी के यदि कोई युवती इस राह पर आगे बढऩा चाहती है तो वह कानूनी औपचारिकताएं पूर्ण करे जिनका भाव किसी ऐसी अंडरटेकिंग की भांति है जिसमें कहा गया हो कि मैं अपनी जिम्मेदारी पर अंतर धार्मिक प्रेम विवाह कर रही हूँ और इसके परिणामों हेतु मैं स्वयं जिम्मेदार रहूंगी।
जनसंख्या संबंधी प्रत्येक आंकलन हमें एक ही निष्कर्ष की ओर ले जाता है वह यह है कि भारत में मुस्लिम आबादी हिन्दू आबादी से अधिक हो जाएगी ऐसी कोई आशंका दूर दूर तक नहीं है। चाहे वे देश में समय समय पर हुई जनगणना के आंकड़े हों या नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के तथ्य हों सबके द्वारा यह बड़ी आसानी से यह समझा जा सकता है कि हिन्दू इस देश में बहुसंख्यक ही रहेंगे। यहाँ तक कि प्यू इंटरनेशनल की जिस द फ्यूचर ऑफ वल्र्ड रिलिजन्स (2015) शीर्षक रिपोर्ट का हवाला हिन्दू कट्टरपंथियों द्वारा दिया जाता है उसके अनुसार भी वर्ष 2050 में देश की कुल आबादी में मुस्लिम जनसंख्या 18.2 प्रतिशत(2010 में 14 प्रतिशत) और हिन्दू जनसंख्या 77(2010 में 80 प्रतिशत) प्रतिशत रहेगी। हिंदुओं और मुसलमानों दोनों की टोटल फर्टिलिटी रेट में गिरावट आ रही है। मुसलमानों की टोटल फर्टिलिटी रेट 2001 में 4.1 थी जो 2010 में 3.2 हो गई और 2050 तक इसके 2.1 होने का अनुमान है। हिंदुओं की टोटल फर्टिलिटी रेट 2010 में 2.5 थी जो 2050 में रिप्लेसमेंट लेवल(2.1) से नीचे पहुँचकर 1.9 रह जाएगी। प्यू की रिपोर्ट बताती है कि विश्व की आबादी की तुलना में हिन्दू जनसंख्या युवा है और इसकी जीवन प्रत्याशा अधिक है इसलिए टीएफआर के रिप्लेसमेंट लेवल के नीचे जाने के बावजूद हिंदुओं की जनसंख्या 2050 तक बढ़ती रहेगी। बहुविवाह के संदर्भ में बौद्ध 3.4 जीवन साथियों के साथ सबसे आगे थे, मुसलमान 2.5 और हिन्दू 1.7 जीवन साथियों के साथ क्रमश: दूसरे और तीसरे क्रम पर थे। (नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 3,2006)। एक से अधिक पत्नियां होने का धर्म से कोई संबंध नहीं पाया गया। जिनकी पहली पत्नी से कोई संतान नहीं थी, जिनकी पहली पत्नी अधिक वय की थी या अशिक्षित थी उन्होंने दूसरे विवाह किए, भले ही वे किसी भी धर्म के थे। देश के पूर्वी भागों में बहुविवाह की दर 2.11 जीवन साथी, उत्तर पूर्व में 3.20 जीवन साथी और दक्षिणी भागों में 3.02 जीवन साथी है। अनुसूचित जाति और जनजाति के सदस्यों में बहुविवाह के प्रकरण अधिक पाए गए।(एनएफएचएस-3, प्रिंसटन यूनिवर्सिटी का अध्ययन)। इंडिया स्पेंड का 2016 का एक अध्ययन बताता है कि देश में फर्टिलिटी रेट आर्थिक-सामाजिक विकास, शिक्षा के स्तर और स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता पर निर्भर करती है न कि धर्म पर।
केरल हाई कोर्ट ने 2009 के अपने फैसले में बताया था कि पिछले 4 वर्षों में केरल में प्रेम संबंधों के बाद धर्मांतरण के 3000 से 4 हजार मामले सामने आए थे। केरल सरकार ने केरल विधानसभा में कहा था कि 2006 से 2012 के मध्य धर्मांतरण के 2667 मामले हुए। अर्थात केरल में प्रतिवर्ष होने वाले लगभग पौने तीन लाख विवाहों में यदि अधिकतम 1000 विवाह भी मुस्लिम लडक़े और हिन्दू लडक़ी के बीच हुए हों तब भी यह कुल विवाहों का .36 प्रतिशत ही बैठता है। यही स्थिति कमोबेश उन अन्य प्रांतों की है जो लव जिहाद को लेकर चर्चा में हैं। देश में प्रतिवर्ष लगभग 36000 अंतर धार्मिक विवाह होते हैं। जबकि देश में होने वाली शादियों की वार्षिक संख्या एक करोड़ के आसपास है।
लव जिहाद शब्द जरूर नया है किंतु मुस्लिम युवकों द्वारा धोखे से अथवा बलात हिन्दू युवतियों का धर्म परिवर्तन कराने के बाद उनसे विवाह करना और अनेक संतानें पैदा कर जनसंख्यात्मक वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास करना एक ऐसा विषय रहा है जिस पर कट्टर हिंदुत्व के हिमायती बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों से ही चर्चा करते रहे हैं। यू एन मुखर्जी और आर्य समाज से संबंधित स्वामी श्रद्धानंद ने इस विषय पर बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में अनेक लेख लिखे थे। इनसे भी पहले लेखराम ने 1892 में जबरिया धर्मांतरण पर विस्तृत रूप से लिखा था। आज का घर वापसी अभियान तब शुद्धि अभियान के रूप में चला करता था। श्री विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय इतिहासतिल सहा सोनेरी पाने’ के सद्गुण विकृति नामक अध्याय के ‘लाखों हिन्दू स्त्रियों का अपहरण एवं भ्रष्टीकरण’ उपशीर्षक में लिखा है-‘मुसलमानों के धार्मिक आक्रमणों के भयंकर संकटों का एक और उपांग है। वह है मुसलमानों द्वारा हिन्दू स्त्रियों का अपहरण कर उन्हें मुसलमान बनाकर हिंदुओं के संख्याबल को क्षीण करना, इस कारण मुसलमानों की संख्या में वृद्धि होती गई। उनकी यह राक्षसी श्रद्धा थी कि यह तो इस्लाम की धर्माज्ञा है। उनके इस काम विकार को तृप्त करने वाली अंध श्रद्धा के कारण उनकी जनसंख्या जिस तीव्र गति से बढऩे लगी उसी तेजी से हिंदुओं का जनबल कम होता गया।
यह एक सुनियोजित और भयंकर कृत्य है। उस धार्मिक पागलपन में भी एक सूत्र था क्योंकि मुसलमानों का यह धार्मिक पागलपन वास्तव में पागलपन नहीं था, अपितु एक अटल सृष्टि क्रम का अनुकरण कर अराष्ट्रीय संख्याबल बढ़ाने की एक पद्धति थी। उस काल के परस्त्री मातृवत के धर्मघातक धर्म सूत्र के कारण मुस्लिम स्त्रियों द्वारा लाखों हिन्दू स्त्रियों को त्रस्त किए जाने के बाद भी उन्हें दंड नहीं दिया जा सका। हिंदुओं द्वारा मुस्लिम स्त्रियों के सतीत्व संरक्षण के इस कार्य ने इस संबंध में एक प्रभावी ढाल का कार्य किया।’ इन पंक्तियों में सावरकर मुसलमानों को आदतन बलात्कारी और धर्म परिवर्तन के लिए जिम्मेदार बताते हैं। वे मुस्लिम स्त्रियों के साथ जैसे को तैसा की रणनीति अपनाने की वकालत करते नजर आते हैं- अर्थात बलात्कार और फिर धर्म परिवर्तन।
जब देश की जनता का व्यवहार विवाह और संतानोत्पत्ति के विषय में धर्म द्वारा निर्धारित नहीं होता तो फिर हिन्दू कट्टरपंथी किस आधार पर मुसलमानों पर विवाह के लिए जबरन धर्म परिवर्तन को बढ़ावा देने का आरोप लगाते हैं? किस आधार पर वे दावा करते हैं कि मुसलमानों ने अपनी जनसंख्या बढ़ाने के लिए लव जिहाद की रणनीति अपनाई है? क्या इन आरोपों के पीछे मुसलमानों की धार्मिक मान्यताएं जिम्मेदार हैं यद्यपि आम हिंदुओं की भांति आम मुसलमान भी इन धार्मिक मान्यताओं से पूर्णत: संचालित नहीं होता।
यह जानना रोचक होगा कि मुसलमानों का रूढि़वादी तबका अंतर धार्मिक विवाह के संदर्भ में अपनी धारणाओं का निर्माण किस प्रकार करता है एवं किन नियमों से संचालित होता है? कुरान के अनुसार-और मुशरिक (बहुदेववादी) स्त्रियों से विवाह न करो जब तक कि वे ईमान न लाएँ। एक ईमानदार बांदी (दासी), मुशरिक स्त्री से कहीं उत्तम है; चाहे वह तुम्हें कितनी ही अच्छी क्यों न लगे। और न (ईमानवाली स्त्रियाँ) मुशरिक पुरुषों से विवाह करो, जब तक कि वे ईमान न लाएँ। एक ईमानवाला गुलाम आजाद मुशरिक से कहीं उत्तम है, चाहे वह तुम्हें कितना ही अच्छा क्यों न लगे। ऐसे लोग आग (जहन्नुम) की ओर बुलाते है और अल्लाह अपनी अनुज्ञा से जन्नत और क्षमा की ओर बुलाता है। और वह अपनी आयतें लोगों के सामने खोल-खोलकर बयान करता है, ताकि वे चेतें। (अल-बकऱा: 221) इस सूरा का अर्थ यह है कि चाहे वे इस्लाम को मानने वाले पुरुष हों या स्त्रियां उन्हें बहुदेववादी अथवा मूर्तिपूजक स्त्री-पुरुषों से तब तक विवाह नहीं करना चाहिए जब तक कि वे इस्लाम को अंगीकार न कर लें। अर्थात अंतर धार्मिक विवाह तभी स्वीकार्य है जब अन्य बहुदेववादी धर्म वाला पार्टनर धर्म परिवर्तन कर इस्लाम ग्रहण कर ले। तब दास प्रथा प्रचलन में थी संभवत: इसीलिए मुशरिक स्त्री-पुरुषों की तुलना में इस्लाम पर विश्वास करने वाले दास-दासियों को बेहतर बताया गया है। डॉ. अस्मा लमराबेट और अन्य अनेक इस्लामिक स्कॉलर्स ने इस सूरा की व्याख्या करते हुए यह रेखांकित किया है कि यह सूरा स्त्रियों और पुरुषों दोनों के लिए एक समान निर्देश देती है-बहुदेववादी साथी के साथ विवाह का निषेध। इस्लाम के अनेक जानकारों के अनुसार यह निर्देश तत्कालीन परिस्थितियों से संगति रखते हैं जब बहुदेववादियों तथा इस्लाम के अनुयायियों के बीच खूनी संघर्ष चल रहा था। इस्लामिक स्कॉलर्स का एक समूह यह बताने का प्रयास करता है कि बहुदेववादी गलत ढंग से कमाई गई दौलत और अनैतिक जीवन शैली का प्रतिनिधित्व करते थे जबकि इस्लाम के अनुयायी न्याय और समानता के प्रतिनिधि थे। कुछ विद्वान इस्लाम पर विश्वास करने वाले दास-दासियों को सुंदर,संपन्न और आकर्षक बहुदेववादी स्त्री पुरुषों से बेहतर बताने में प्रगतिशीलता के दर्शन करते हैं। अनेक विद्वान बहुदेववादियों को मूर्तिपूजकों के रूप में परिभाषित करते हैं। इस बात को लेकर भी मतभेद हैं कि विश्वास करने वाले स्त्री पुरुषों से क्या आशय है? क्या इसका आशय यह है कि इस्लाम के अनुयायी स्त्री- पुरुष केवल अपने धर्म के अंदर ही विवाह कर सकते हैं? व्याख्याकारों का एक बड़ा समुदाय इस बात पर एकमत है कि मुस्लिम पुरुष ईसाई और यहूदी स्त्रियों के साथ विवाह कर सकते हैं क्योंकि वे अहल ए किताब (पीपुल ऑफ द बुक) के अंतर्गत आती हैं। यह व्याख्याकार कुरान की निम्नांकित सूरा को उद्धृत करते हैं - आज तुम्हारे लिए अच्छी स्वच्छ चीज़ें हलाल कर दी गई और जिन्हें किताब दी गई उनका भोजन भी तुम्हारे लिए हलाल है और तुम्हारा भोजन उनके लिए हलाल है और शरीफ़ और स्वतंत्र ईमानवाली स्त्रियाँ भी जो तुमसे पहले के किताबवालों में से हो, जबकि तुम उनका हक़ (मेहर) देकर उन्हें निकाह में लाओ। न तो यह काम स्वछन्द कामतृप्ति के लिए हो और न चोरी-छिपे याराना करने को। (अल-माइदा: 5)। व्याख्याकार इस बात पर भी एकमत हैं कि मुस्लिम स्त्रियां ईसाई या यहूदी पुरुषों से विवाह नहीं कर सकतीं यद्यपि इस विषय में कुरान में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं है। अल-बकऱा की 221 वीं सूरा जहाँ स्त्री और पुरुषों के लिए समान नियमों का उल्लेख करती है वहीं आने वाली सदियों में की गई व्याख्याएं पुरुषों को अन्य एकेश्वरवादी धर्मों की स्त्रियों के साथ विवाह की स्वतंत्रता देती हैं किंतु स्त्रियों के लिए इस प्रकार का विवाह प्रतिबंधित है। इस्लाम के जानकार पुरुषों को मिलने वाले इस विशेषाधिकार के लिए कुरान में आधार तलाशते हैं-‘पति पत्नियों के संरक्षक और निगराँ है, क्योंकि अल्लाह ने उनमें से कुछ को कुछ के मुक़ाबले में आगे रखा है, और इसलिए भी कि पतियों ने अपने माल खर्च किए है, तो नेक पत्नियाँ तो आज्ञापालन करने वाली होती हैं और गुप्त बातों की रक्षा करती हैं, क्योंकि अल्लाह ने उनकी रक्षा की है। और जो पत्नियां ऐसी हों जिनकी सरकशी का तुम्हें भय हो, उन्हें समझाओ और बिस्तरों में उन्हें अकेली छोड़ दो और (अति आवश्यक हो तो) उन्हें मारो भी। फिर यदि वे तुम्हारी बात मानने लगे, तो उनके विरुद्ध कोई रास्ता न ढूँढो। अल्लाह सबसे उच्च, सबसे बड़ा है।? (अन-निसा-34)। विद्वानों के अनुसार पति परिवार का मुखिया होने के नाते अपना हुक्म चलाता है लेकिन कोई गैर मुसलमान पति मुस्लिम स्त्री पर हुकूमत करे यह असंभव और अस्वीकार्य है। दूसरे कमजोर और आसानी से बहकाई जा सकने वाली स्त्रियां परधर्मी पुरुषों के साथ रहकर इस्लाम के पालन में कठिनाई का अनुभव कर सकती हैं और इस्लाम को छोडऩे का विचार भी मन में ला सकती हैं जो अस्वीकार्य और दंडनीय है। शरिया कानून के अनुसार यदि कोई मुसलमान पुरुष किसी यहूदी या ईसाई स्त्री से विवाह करता है तो वह स्त्री अपने धर्म का पालन जारी रख सकती है किंतु उनकी संतानों को इस्लाम ग्रहण करना ही होगा। इस्लामिक कानून के अनुसार यदि मुस्लिम पुरुष बहुदेववादी या मूर्तिपूजक स्त्री से विवाह करना चाहता है तो उस स्त्री को अपना धर्म त्याग कर इस्लाम ग्रहण करना ही होगा।
अनेक आधुनिक विद्वानों के अनुसार कुरान के सभी कथनों और आदेशों को सार्वभौमिक महत्व का मानना उचित नहीं है। ब्रिटिश पाकिस्तानी मूल के जियाउद्दीन सरदार अपनी चर्चित पुस्तक रीडिंग द कुरान (2011) में लिखते हैं कि कुरान की आयतें बहुत पहले अवतरित हुई थीं और इनमें कुछ ऐसी हैं जिनका महत्व उसी काल के लिए था जिसमें इनका अवतरण हुआ था। जियाउद्दीन के अनुसार कुरान कानून की पुस्तक नहीं है बल्कि यह उन सिद्धांतों का संग्रह है जिनके आधार पर कानून बनाए जा सकते हैं। हमें कानूनी आवश्यकताओं और नैतिक नियमों के अंतर को समझना होगा। कुरान के नियम केवल यह बताते हैं कि कोई धार्मिक-नैतिक सिद्धांत पैगंबर मोहम्मद साहब के जीवन काल में सातवीं शताब्दी के अरब की तत्कालीन परिस्थितियों में किस प्रकार क्रियान्वित किया गया था। आज जब परिस्थितियां और संदर्भ पूरी तरह बदल चुके हैं तब उस समय बनाए गए नियम कानून उस मूल सिद्धांत को अभिव्यक्त नहीं कर सकते जिस पर ये आधारित हैं।
इस्लाम को आधुनिक जीवन शैली के अनुकूल बनाने के इच्छुक चिंतक और विचारक अपने स्तर पर प्रयास कर रहे हैं किंतु जब प्यू इंटरनेशनल की 2013 की द वर्ल्डस मुस्लिम्स- रिलिजन, पॉलिटिक्स एंड सोसाइटी शीर्षक रिपोर्ट बताती है कि इक्का-दुक्का अपवादों को छोडक़र लगभग प्रत्येक देश के अधिकांश मुसलमान यह विश्वास करते हैं कि इस्लाम ही एकमात्र सच्चा धर्म है जो मनुष्य को सद्गति प्रदान कर सकता है और यह उनका धार्मिक कर्त्तव्य है कि वे दूसरों को इस्लाम का अनुयायी बनाएं तब हिन्दू कट्टरपंथियों के तर्कों को अंतरराष्ट्रीय समर्थन मिलता दिखता है। हममें से बहुत से लोग यह विश्वास करते हैं कि वैश्विक स्तर पर मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है, उनके विरुद्ध तर्कहीन भय और घृणा का वातावरण बनाया जा रहा है। इस्लामोफोबिया पर हमारे विश्वास के तार्किक आधार भी हैं। किंतु क्या जायज आपत्तियों को भी इस्लामोफोबिया कहकर इस्लाम के आधुनिकीकरण का प्रयास बंद कर देना चाहिए और आम मुसलमानों को और अधिक रूढि़बद्ध होने के लिए प्रेरित करना चाहिए? यह मुस्लिम विद्वानों के लिए चिंतन और आत्ममंथन का विषय हो सकता है। मुस्लिम धर्म गुरुओं और नेताओं पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे उत्तरप्रदेश के गैर कानूनी धर्मांतरण विधेयक 2020 का विरोध केवल इस कारण कर रहे हैं क्योंकि वे इस देश में अल्पसंख्यक हैं, अन्यथा यह कानून धार्मिक शुद्धता और वर्चस्व बनाए रखने की उनकी सोच से एकदम संगत है और यदि वे इस देश में बहुसंख्यक होते तो और अधिक सख़्ती से ऐसे कानूनों को लागू करते। क्या आम मुसलमान अपने आचरण से इन आरोपों को गलत सिद्ध करने का इच्छुक है?
कुल मिलाकर यह आसानी से समझा जा सकता है कि चाहे हिन्दू धर्म हो या इस्लाम दोनों पर पितृसत्ता की छाप है और इनमें जीवन साथी के चयन के विषय में नारी को कोई विशेष स्वतंत्रता उपलब्ध नहीं है। नारी के लिए संबोधन जो भी हों धार्मिक विमर्श उन्हें पुरुष के अधीन रखने हेतु ही गढ़ा गया है। स्वर्ग की अप्सराओं और जन्नत की हूरों को गढऩे वाला धार्मिक विमर्श नारियों के साथ किस प्रकार न्याय कर सकता है? हिन्दू कट्टरपंथी देश की सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था को धर्म के द्वारा संचालित करना चाहते हैं। रूढि़वादी मुसलमानों में भी अपने धार्मिक कानूनों के प्रति गहरी आस्था है और वे केवल अपने ही धर्म को सम्पूर्ण और सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। आज जब हमारा लोकतंत्र तीन चौथाई सदी पुराना होने जा रहा है तब हम अपने समाज को धर्म संचालित बंद तंत्र में बदल रहे हैं। हम यह मान रहे हैं कि वे अल्प बुद्धि, कमजोर नारियां ही हैं जो हमारी धार्मिक शुद्धता को खतरे में डाल सकती हैं। कुछ भयभीत कट्टरपंथी अपने धर्म की शुद्धता बचाए रखने के लिए नारियों पर पाबंदियां लगा रहे हैं। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में यह घटनाएं तब हो रही हैं जब विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र में कमला हैरिस उप राष्ट्रपति निर्वाचित हुई हैं और नव निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन सत्ता के संचालन सूत्र महिलाओं को सौंपने की बात कर रहे हैं। खतरा जितना नारियों पर है उससे कहीं अधिक लोकतंत्र पर है। अनंत अमर आख्यानों की रचना का स्रोत वह पवित्र प्रेम भी खतरे में है जो नस्ल, जाति, धर्म, रंग, राष्ट्र और उम्र के बंधनों को मानने से इंकार करता है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यदि भारत में जनसंख्या की रफ्तार जो आजकल है, वह बनी रही तो कुछ ही वर्षों में वह चीन को मात कर देगा। इस समय चीन से सिर्फ तीन-चार करोड़ लोग ही हमारे यहां कम हैं। भारत की आबादी इस वक्त एक अरब 40 करोड़ के आस-पास है। चीन ने यदि कई वर्षों तक हर परिवार पर एक बच्चे का प्रतिबंध नहीं लगाया होता तो आज चीन की आबादी शायद दो अरब तक पहुंच जाती। अब से 60-70 साल पहले हर चीनी परिवार में प्राय: पांच-छह बच्चे हुआ करते थे। भारत से भी ज्यादा दरिद्रता चीन में थी लेकिन चीन ने आबादी की बढ़त पर सख्ती की, उसके कारण उसकी अर्थ व्यवस्था में भी काफी सुधार हुआ। लेकिन आश्चर्य है कि भारत की सरकारें इस मुद्दे पर खर्राटे खींच रही हैं।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस मुद्दे पर थोड़ी सजगत दिखाई थी और नसबंदी अभियान शुरु किया था लेकिन संजय गांधी के अति उत्साह और कुछ ज्यादतियों के कारण वह हाशिए में चला गया। आपात्काल ने उसे और भी बदनाम कर दिया। इस वक्त दुनिया में जनसंख्या की बाढ़ जिन देशों में सबसे ज्यादा है, उनमें भारत अग्रणी है। यह एकदम सही समय है, जबकि हम आबादी को बढऩे से रोकें।
यदि भाजपा सरकार इस दिशा में ठोस कदम उठाएगी तो उसका विरोध करने की हिम्मत किसी में नहीं होगी। तो वह क्या-क्या करे? पहला, जब वह लोगों को कोरोना का टीका लगाए तो मुफ्त में नसबंदी का भी एलान करे। वह अनिवार्य न हो। हां, कुछ प्रोत्साहन दिए जा सकते हैं। जिनके एक या दो बच्चे हों, वे स्वेच्छा से टीका लगवाएं। दूसरा, ‘दो हम और हमारे दो’ का नारा घर-घर में गुंजा दिया जाए। इसे कानूनी रुप भी दिया जाए। जो दो से ज्यादा बच्चे पैदा करें, उन्हें सरकारी नौकरियों, संसद और विधानसभा की उम्मीदवारी और कई शासकीय सुविधाओं से वंचित किया जाए।
मेरा यह सुझाव कठोर और निर्दयतापूर्ण तो लगता है लेकिन इससे देश का इतना भला होगा कि जो प्रधानमंत्री इसे लागू करेगा, उसका दशकों तक भारत की जनता आभार मानेगी। इस नियम को लागू करने का विरोध वे जातिवादी और सांप्रदायिक लोग जरुर करेंगे, जो योग्यता—बल और चरित्र-बल की बजाय संख्या-बल के आधार पर ही अपनी राजनीति चलाते हैं लेकिन व्यापक जन-समर्थन के आगे उनकी बोलती बंद हो जाएगी। तीसरा, भारत सरकार यह लक्ष्य बनाए कि दक्षिण और मध्य एशिया के 17 देशों में महासंघ खड़ा करके अगले पांच वर्षों में 10 करोड़ भारतीयों को वहां वह रोजगार दिलवाए। देखिए, फिर भारत महासंपन्न और सबल बनता है या नहीं ?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अभय शर्मा
तमिलनाडु सरकार ने ऑनलाइन गेम्स खेलने और खिलाने पर प्रतिबंध लगा दिया है। बीते शुक्रवार को यहां के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित ने इस आशय का एक अध्यादेश जारी किया। राजभवन ने अध्यादेश की जानकारी देते हुए बताया कि ऑनलाइन गेम्स की वजह से खास कर युवाओं के साथ धोखा-धड़ी होती है। कई लोग तो पैसा गंवाने के बाद आत्महत्या तक कर लेते हैं, इसलिए कोई ठोस कदम उठाना जरूरी था। पिछले कुछ महीनों के दौरान दक्षिण भारत में ऑनलाइन गेम्स में पैसे गंवाने के चलते आत्महत्या की कई घटनाएं सामने आई हैं। बीते महीने कोयंबटूर में एक शख्स के आत्महत्या करने के बाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के पलानीस्वामी ने कहा था कि वह इन पर प्रतिबंध लगाने पर विचार कर रही है और इस मामले में जल्द ही कोई निर्णय लिया जाएगा।
कानूनी मामलों की जानकारी देने वाली वेबसाइट लाइव लॉ के मुताबिक बीते हफ्ते तमिलनाडु सरकार ने राज्यपाल को एक प्रस्ताव भेजा था। इसमें कहा गया था कि राज्य सरकार अध्यादेश के जरिये ऑनलाइन गेमिंग से जुड़े तीन कानूनों में संशोधन करना चाहती है। इसके बाद जारी किए गए अध्यादेश में कहा गया है कि इसका मकसद कंप्यूटर या किसी अन्य इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस के उपयोग से साइबर स्पेस में बेटिंग (सट्टेबाजी) या जुआ खेलने पर प्रतिबंध लगाना है। तमिलनाडु में अब जिन लोगों को इस तरह के गेम खेलते हुए पाया जाएगा, उन्हें पांच हजार रुपये के जुर्माने और छह महीने तक के कारावास की सजा दी जा सकती है। जिन लोगों के पास गेमिंग हाउस हैं या जो इस तरह के गेम्स का आयोजन करते हैं, ऐसे लोगों के लिए दस हजार रुपये के जुर्माने और दो साल तक के कारावास का प्रावधान है। नए कानून में जुआ और सट्टेबाजी से जुड़े ऑनलाइन गेमिंग ऐप्स के मालिकों को भी दंडित करने का प्रावधान है। यह पैसों के उन सभी इलेक्ट्रॉनिक लेन-देन पर भी प्रतिबंध लगाता है जो सट्टेबाजी या गेमिंग ऐप्स में प्राइज मनी बांटने के लिए किए जाते हैं।
तमिलनाडु से पहले आंध्र प्रदेश और तेलंगाना भी अपने यहां इस तरह के ऐप्स और वेबसाइटों पर प्रतिबंध लगा चुके हैं। बीते हफ्ते कर्नाटक सरकार ने भी युवाओं पर गलत प्रभाव पडऩे और आत्महत्या की घटनाओं के चलते, जल्द ही ऑनलाइन गेम्स के खिलाफ कदम उठाने की बात कही है। कई राज्यों के हाईकोर्ट में भी इस तरह के गेम्स के खिलाफ याचिकाएं दायर की गयी हैं। हाल ही में दिल्ली, तेलंगाना और गुजरात हाईकोर्ट ने राज्य सरकरों से जुआ और सट्टेबाजी को बढ़ावा देने वाले ऑनलाइन गेम्स के खिलाफ कदम उठाने का आदेश दिया है।
भारत के कई राज्यों में ऑनलाइन गेम्स को बैन करने की मांग तब से उठी है, जब से क्रिकेट से जुड़े कुछ ऑनलाइन गेमिंग टूर्नामेंट ऐप्स प्रचलित हुए हैं। ये ऐप्स लोगों से करोंड़ों रुपए तक जीतने लेने का दावा करते हैं। इस समय पूर्व भारतीय कप्तान और बीसीसीआई अध्यक्ष सौरव गांगुली, महेंद्र सिंह धोनी, विराट कोहली और सचिन तेंदुलकर जैसे चर्चित चेहरे इन ऐप्स के ब्रांड एम्बेस्डर हैं। बीते मार्च में देश भर में लगे लॉकडाउन के दौरान इन ऐप्स के यूजर्स की संख्या भारी बढ़ोत्तरी हुई जिससे इन्हें बड़ा आर्थिक लाभ मिला है। इसमें कितना पैसा है इसका अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि ऑनलाइन स्पोर्ट्स गेमिंग ऐप ड्रीम11 आईपीएल का मुख्य प्रायोजक है। उसने टाटा और बाइजू जैसी दिग्गज कंपनियों को पछाड़ते हुए 222 करोड़ रुपए में यह अधिकार हासिल किया है। इसी तरह स्पोर्ट्स गेमिंग ऐप ‘मोबाइल प्रीमियर लीग’ (एमपीएल) अरबों रुपए की बोली लगाकर भारतीय क्रिकेट टीम की किट का मुख्य प्रायोजक बन गया गया है। ‘माई इलेवन सर्किल’ नाम का एक अन्य एप श्रीलंका प्रीमियर लीग का मुख्य प्रायोजक है। इस समय महेंद्र सिंह धोनी ड्रीम11, विराट कोहली एमपीएल और सौरव गांगुली ‘माई इलेवन सर्किल’ के ब्रांड एम्बेस्डर हैं।
सेलिब्रिटीज के इन चर्चित गेमिंग ऐप्स के एड करने के खिलाफ मद्रास हाईकोर्ट में कई जनहित याचिकाएं भी दायर की गयी हैं। एक याचिका में कोर्ट से विराट कोहली को तुरंत गिरफ्तार किये जाने तक की मांग की गयी है। इसमें कहा गया है कि कोहली और कई अन्य सेलिब्रिटी युवाओं को ऑनलाइन गेमिंग ऐप्स से जुडऩे के लिए प्रेरित कर रहे हैं। इन ऐप्स पर बड़ा इनाम और बोनस देने का वादा करके लोगों को सीधे-सीधे जुए की लत लगाई जा रही है, जो गैर कानूनी है क्योंकि देश में जुआ खेलने पर प्रतिबंध है।
बीते हफ्ते ऐसी ही एक याचिका पर सुनवाई करते हुए मद्रास हाईकोर्ट की मदुरई बेंच ने भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली, सौरव गांगुली, अभिनेता प्रकाश राज और अभिनेत्री तमन्ना भाटिया सहित कई अन्य सेलिब्रिटी को नोटिस जारी किये हैं। कोर्ट ने इस बारे में कानूनी राय भी मांगी है कि क्या सेलिब्रिटीज़ को ऐसे ब्रांड का समर्थन करने के लिए दोषी ठहराया जा सकता है जिनमें पैसों का ऑनलाइन लेन-देन किया जाता है। (satyagrah.scroll.in)
-पुष्य मित्र
आजकल भाजपा और संघ से जुड़े लोगों ने देश के महापुरुषों को याद करने का एक नया तरीका विकसित किया है। वे उस महापुरुष की उपलब्धियों के बारे में नहीं बोलते, बल्कि यह बताते हैं कि नेहरू ने या कांग्रेस ने उन्हें कैसे कमतर बनाकर रखा। चाहे राजेंद्र प्रसाद की बात हो, पटेल की बात हो या सुभाषचंद्र बोस की बात हो। ये उनकी उपलब्धियों की चर्चा कम करते हैं।
मतलब यह कि हर बार वे सिर्फ नेहरू को ही याद करते हैं, इन महापुरुषों को नहीं। ये नहीं बताते कि चम्पारण सत्याग्रह से लेकर संविधान निर्माण तक राजेंद्र बाबू की क्या भूमिका रही। पटेल ने कैसे किसानों के हित की लड़ाईयां लड़ी। सुभाष बाबू ने कैसे देश के बाहर आज़ाद हिन्द फौज जैसी सेना को विस्तार दिया। इनके लिए ये तमाम महापुरुष सिर्फ इसलिये महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि कभी नेहरू से इनका कोई विवाद था। ये अभी भी इनके कंधे पर बंदूक रखकर नेहरू और कांग्रेस पर गोलियां चलाने के बहाने ढूंढते हैं। बाकी ये महापुरुष इनके लिए किसी और मतलब के नहीं हैं।
अगर मतलब होता तो इन्होंने राजेंद्र बाबू की जयंती पर मेधा दिवस मनाने की घोषणा कर दी होती। उनकी पोती तारा सिन्हा लंबे समय से इस बात की मांग कर रही हैं। उन्होंने केन्द्र सरकार से भी मांग की थी कि देश के पहले राष्ट्रपति के नाम पर एक दिवस तो हो ही सकता है। मगर केन्द्र सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने इन्हें यह कह कर टरका दिया कि 2034 में जब राजेंद्र प्रसाद की 150वीं जयंती मनाई जायेगी, तब इस सवाल पर विचार करेंगे। बताईये, यही है इनका सम्मान।
सच तो यह है कि कोई भी व्यक्ति गुण और दोष दोनों से बनता है। अवगुण नेहरू में भी थे तो राजेंद्र बाबू में भी। चम्पारण सत्याग्रह और किसान महासभा का इतिहास पढ़ते हुए ऐसे कई तथ्य सामने आये जो राजेंद्र बाबू की छवि धूमिल करने वाले थे। मगर जब उनके व्यक्तित्व पर समेकित रूप से देखते हैं तो उनका सकारात्मक पक्ष का पलड़ा भारी दिखता है। नेहरू और राजेंद्र प्रसाद में विचार का झगड़ा था, इसमें कोई बुराई नहीं। ये दोनों कभी देश की जनता के हित के खिलाफ नहीं हुए। राजेंद्र बाबू ने बिहार के किसानों के लिए कई बड़े काम किये।
अगर आप सचमुच राजेंद्र बाबू को याद करना चाहते हैं तो उस युवा वकील को याद कीजिये जिसने गांधी के प्रभाव में एक झटके में अपनी जबरदस्त वकालत की प्रक्टिस को छोडक़र सादगी भरे जीवन को अपना लिया और देश के लिए खुद को समर्पित कर दिया। अगर आप उन्हें इस बात के लिए याद करते हैं कि उनकी नेहरू से क्या अदावत थी तो आप उनका सम्मान कम अपमान अधिक कर रहे हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
शिक्षा मंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक ने आज घोषणा की है कि उनका मंत्रालय उच्च शिक्षा में भारतीय भाषा के माध्यम को लाने की कोशिश करेगा। बच्चों की शिक्षा भारतीय भाषाओं या मातृभाषाओं के माध्यम से हो, यह तो नई शिक्षा-नीति में कहा गया है और कोठारी आयोग की रपट में भी इस नीति पर जोर दिया गया था।
1967 में इंदिरा सरकार के शिक्षा मंत्रियों डा. त्रिगुण सेन, श्री भागवत झा आजाद और प्रो. शेरसिंह तथा बाद में डा. मुरली मनोहर जोशी ने भी शिक्षा में भारतीय भाषाओं को बढ़ाने की भरपूर कोशिश की थी लेकिन हमारी सरकारें, चाहे वे भाजपा या कांग्रेस या जनता दल की हों, शिक्षा का भारतीय भाषाकरण करने में विफल क्यों रही हैं ? इसलिए विफल रही हैं कि उन्हें बाल तो सिर पर उगाने थे लेकिन वे मालिश पांव पर करती रहीं।
पांव पर मालिश याने बच्चों को मातृभाषा के माध्यम से पढ़ाना तो अच्छा है लेकिन वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते हैं, अंग्रेजी की गुलामी करने लगते हैं। उन्हें देखकर समझदार और समर्थ लोग पांव की मालिश भी बंद कर देते हैं। वे अपने बच्चों को भी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाते हैं। यदि हम देश में शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान का माध्यम स्वदेशी भाषाओं को बनाना चाहते हैं तो सबसे पहले उच्च-शिक्षा और पीएच.डी. के शोध-कार्यों को अपनी भाषाओं में करने को प्राथमिकता देनी चाहिए।
यदि हमारी सरकारें ऐसी हिम्मत करें तो करोड़ों लोग अपने बच्चों को जानलेवा और जेबकाटू अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में क्यों पढ़ाएंगे ? तब सरकारी नौकरियों से भी अंग्रेजी की अनिवार्यता हटानी पड़ेगी। यह बात मैं पिछले साठ साल से कहता आ रहा हूं लेकिन निशंक-जैसे शिक्षा मंत्री के मुंह से यह बात पहली बार सुनी है। 2011 में मेरे कहने पर भोपाल में अटलबिहारी वाजपेयी हिंदी वि.वि. इसी उद्देश्य के लिए बनवाया गया था लेकिन अब भी वह घुटनों के बल रेंग रहा है।
अब से 55 साल पहले मैंने इंडियन स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ में जब अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोधग्रंथ हिंदी में लिखने की मांग की थी तो मुझे ‘स्कूल’ से निकाल बाहर किया गया था। देश की सभी पार्टियों के नेताओं ने, द्रमुक के अलावा, मेरा समर्थन किया था। संसद का काम-काज कई बार ठप्प हुआ लेकिन अंततोगत्वा मेरी विजय हुई लेकिन असली मुद्दा आज भी जहां का तहां खड़ा है, क्योंकि हमारी सभी सरकारें और शिक्षाशास्त्री अंग्रेजी की गुलामी में जुटे हुए हैं।
शायद डा. निशंक कुछ कर गुजरें। वे पढ़े-लिखे विद्वान व्यक्ति हैं। यदि वे अंग्रेजी की बपौती को खत्म करके अंग्रेजी समेत 5-7 विदेशी भाषाओं को देश में प्रचलित करें तो हमारा विदेश-व्यापार और राजनय कुलांचे भरने लगेगा और भारत दुनिया की एक सबल और संपन्न महाशक्ति हमारे देखते-देखते बन जाएगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-गिरीश मालवीय
किसानों का आंदोलन दिल्ली में पूरे शबाब पर है और उधर योगी आदित्यनाथ ने मुंबई में अडानी ग्रुप की खेती-किसानी से जुड़ी कम्पनी अडानी एग्री फ्रेश लिमिटेड के एमडी से मुलाकात की है। यह बड़ी महत्वपूर्ण मुलाकात है
वैसे आप देखिए कि कमाल की टाइमिंग है। कुछ दिनों पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कटाई के बाद के प्रबंधन और फार्म एसेट्स की देखभाल के लिए कृषि-उद्यमिता, स्टार्टअप्स, और ऐसी ही एग्री फ्रेश, एग्री लॉजिस्टिक कंपनियों के लिए कृषि इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड के तहत 1 लाख करोड़ रुपये की फाइनेंसिंग सुविधा देने की बात की है और योगीजी अडानी एग्री कंपनी के एमडी से मिल रहे हैं।
मोदीजी के इस 1 लाख करोड़ के फंड की सबसे खास बात है ये है कि ब्याज पर 3 फीसदी की सब्सिडी मिलेगी। वहीं 2 करोड़ रुपये तक की क्रेडिट गारंटी भी दी जाएगी। एक लाख करोड़ रु. का लोन 4 सालों में दिया जाएगा। इस साल 10000 करोड़ रु. और अगले 3 सालों में 30-30 हजार करोड़ रु. बतौर लोन दिए जाएंगे। इस फाइनेंसिंग फैसिलिटी के तहत लोन चुकाने में मोरेटोरियम की भी सुविधा मिलेगी। अधिकतम मोरेटोरियम अवधि 2 साल और न्यूनतम 6 महीने होगी। यानी अडानी-अ3बानी को सस्ती दरों पर कÞषि क्षेत्र में लोन देने की पूरी तैयारी है
दरअसल अडानी-अंबानी जैसे बड़े कारपोरेट अपने विदेशी सहयोगियों के साथ मिलकर पंजाब की ही नहीं बल्कि पूरे देश की खेती को कंट्रोल करना चाहते है उसके लिए जितने फंड की जरूरत है वो मोदी जी बैंकों के माध्यम से दबाव डालकर उपलब्ध करवा रहे हैं।
अडानी-अंबानी जैसे कारपोरेट को कृषि क्षेत्र में लोन देने का यह सिलसिला कोई आज का नहीं है बल्कि बहुत पुराना है। रिजर्व बैंक के मुताबिक नरेंद्र मोदी की सरकार में सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने साल 2016 में कुल 615 खातों में कुल 58 हजार 561 करोड़ रुपये का एग्रीकल्चर लोन ट्रांसफर किया! यानी औसतन हरेक खाताधारक को लगभग 95 करोड़ रुपये का कृषि लोन मिला है। ऐसे में स्पष्ट है कि ये लोन किसी किसान के खाते में तो नहीं जमा किया गया होगा।
आरबीआई के आंकड़े बताते हैं कि कृषि लोन का एक भारी हिस्सा मोटे लोन के रूप में कुछ चुनिंदा लोगों को दिया जा रहा है। ये चुनिंदा लोग मोदीजी के मित्र उद्योगपति हैं।
कृषि विशेषज्ञ बताते हैं कि किसानों के नाम पर यह लोन बड़े कारपोरेट की एग्री-बिजनेस कंपनियों को दिया जा रहा है।
दरअसल आरबीआई ने देश में कुछ आर्थिक क्षेत्रों को उच्च प्राथमिकता देने और उनके विकास के लिए बैंकों को ये निर्देश जारी किया था कि वे अपने कुल लोन का एक निश्चित हिस्सा कृषि, रूस्रूश्व आदि क्षेत्रों में दे इसे प्रायोरिटी सेक्टर लेंडिंग कहते हैं। इसके तहत बैंकों को अपने पूरे लोन का 18 प्रतिशत हिस्सा कृषि के लिए देना होता है, लेकिन यह लोन जो छोटे सीमांत किसानों को दिया जाना चाहिए था वह दिया जाता अडानी अम्बानी महिंद्रा टाटा जैसे बड़े कारपोरेट को।
किसान संगठन रायतू स्वराज्य वेदिका के संस्थापक किरन कुमार विसा कहते हैं कि ‘कई एग्री-बिजनेस करने वाली बड़ी कंपनियां कृषि ऋण की श्रेणी के तहत लोन ले रही हैं। रिलायंस फ्रेश जैसी कंपनियां एग्री-बिजनेस कंपनी के दायरे में आती हैं। ये सभी कृषि उत्पाद खरीदने-बेचने का काम करती हैं और गोदाम बनाने या इससे जुड़ी अन्य चीजों के निर्माण के लिए कृषि ऋण श्रेणी के तहत लोन लेती हैं।’
कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा कहते हंै कि किसानों के नाम पर लोन देने की घोषणा करके सस्ते दर पर बड़ी-बड़ी कंपनियों को लोन दिया जा रहा है। ये किसानों की समस्या हल करने का दिखावा है ‘ये कहां के किसान हैं कि जिन्हें 100 करोड़ के लोन दिए जा रहे हैं। ये सारा दिखावा है। किसान के नाम पर क्यों इंडस्ट्री को लोन दिया जा रहा है?’
जब यही लोन माफ कर दिया जाता है तो कहा जाता है कि हमने किसानों का लोन माफ कर दिया, बहुत सालों से धीरे-धीरे करके इन एग्री बिजनेस कंपनियों की फंडिंग कर इन्हें मजबूत बनाया जा रहा है और आने वाले कुछ सालों में कांट्रेक्ट फार्मिंग ओर अपने लॉजिस्टिक सपोर्ट के कारण अडानी-अंबानी की ये कंपनियां पूरे देश की कृषि को अपने प्रभाव में ले लेगी और किसान अपने ही खेत में मजदूर बनकर रह जाएगा।
-द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
कुछ फिल्म ऐसी होती हैं जो जनमानस में गहरी पैठ बनाती हैं, उनमें से एक है ‘गाइड’. सन 1965 में बनी यह फिल्म प्रदर्शन की शुरुआत में पिटने लगी, फिर धीरे से उठने लगी और खूब चली, अब तक चल रही है।
आर.के.नारायण की लिखी, साहित्य अकादमी से पुरस्कृत (1960), कहानी ‘द गाइड’ को कुछ उलटफेर के साथ ‘गाइड’ के नाम से इस फिल्म को नवकेतन इंटरनेशनल के बैनर तले बनाया गया, निर्देशक थे विजय आनंद. राजू गाइड और रोजी के इर्द-गिर्द घूमती इस कहानी पर फिल्म बनाने का निर्णय अत्यंत साहसिक था क्योंकि इसकी कहानी का स्वाद उस समय की सामाजिक सोच के अनुरूप नहीं था।
कहानी जबरदस्त थी, रोजी नाम की लडक़ी जिसकी पति से नहीं पटती। वह अपने पति को किसी अन्य स्त्री के साथ रंगरेलियां करते देख कर राजू गाइड से प्रेम करने लगती हैं। राजू का परिवार रोजी को स्वीकार नहीं करता क्योंकि रोजी एक वेश्या की बेटी थी। घर से विद्रोह करके राजू अपनी रोजी के साथ अलग रहने लगता हैं। राजू रोजी को नृत्यांगना बनने के लिए प्रोत्साहित करता है और उसकी नृत्य प्रतिभा को समाज के समक्ष प्रस्तुत करके स्थापित करता है. वह लोकप्रिय होकर ‘स्टार’ बन जाती है। इस बीच राजू को जुए और नशे की लत लग जाती है। एक दिन अचानक रोजी का पूर्व पति रोजी से मिलने के लिए आता है, राजू को डर था कि रोजी कहीं उसे छोडक़र चली न जाए इसलिए वह उसे मिलने नहीं देता और झूठ बोलकर एक जालसाजी कर बैठता है। रोजी और राजू के संबंधों में खटास आ जाती है। जालसाजी के अपराध में उसे दो वर्ष की सजा हो जाती है। जेल से रिहाई होने के बाद राजू अभाव और अकेलेपन के कारण अनाश्रित इधर-उधर भटकते रहता है। एक दिन वह एक गाँव के मंदिर के अहाते में सो जाता है और अगली सुबह एक साधु ठंड से ठिठुरते हुए राजू के ऊपर पीला वस्त्र ओढ़ा देता है। गाँव वाले राजू को भी साधु समझने लगते हैं। एक ग्रामीण की पारिवारिक समस्या का समाधान कर देने के कारण उसकी लोकप्रियता बढ़ जाती है। उसी समय गाँव में अवर्षा के कारण अकाल की नौबत आ जाती है। गाँव वाले राजू को वर्षा के लिए उपवास करने का आग्रह करते हैं। राजू उनका मन रखने के लिए मजबूरन उपवास करता है और उनके विश्वास की रक्षा करते-करते अपने प्राण त्याग देता है।
एक विवाहित स्त्री की दुनियावी आजादी का साहसिक चित्रण उस समय भारतीय जनमानस के गले उतरना असंभव था लेकिन विजय आनन्द के कसे हुए निर्देशन, वहीदा रहमान के अभूतपूर्व अभिनय व नृत्य, फली मिस्त्री की मनभावन फोटोग्राफी, शैलेन्द्र के हृदयस्पर्शी गीत तथा सचिनदेव बर्मन के संगीत ने ऐसी कलाकृति को साकार कर दिया जो सिनेमा के परदे से लोगों के दिल में उतरकर आज भी प्रकाशित है.
इस फिल्म की कहानी के एक दृश्य में नायिका को अपना गुस्सा, दु:ख और आजादी की चाहत व्यक्त करनी थी. इसे दिखाने के लिए कुछ नया करने का विचार विजय आनंद के दिमाग में आया. तय यह हुआ कि एक सर्पिणी-नृत्य के माध्यम से नायिका के मनोभावों को अंकित किया जाए. सपेरों की बस्ती का सेट लगाया गया जहाँ वहीदा रहमान को नृत्य करके नायिका के भावों को व्यक्त करना था। केवल नृत्य, नृत्य के साथ संगीत लेकिन कोई शब्द नहीं। बेक-ग्राउंड संगीत रचने की जि़म्मेदारी बर्मन दादा पर थी। संगीत में ‘इफेक्ट’ पैदा करने के लिए सामान्य साजों के अतिरिक्त बहुत कुछ जोड़ा गया, जैसे, ताल में प्रभाव के लिए तबला, ढोलक, ढोल, चेंदा और ढपली का अलग-अलग मूड के अनुसार उपयोग किया गया। अतिरिक्त प्रभाव उत्पन्न करने के लिए घुँघरू, झांझरी, कब्बस और रेजो-रेजो की मदद ली. सितार, बेन्जो, मेंडोलिन और क्ले-वायलिन आदि वाद्य-यन्त्रों का सहारा लेकर सर्पिणी नृत्य का पार्श्व संगीत तैयार किया गया. सचिन दा ने वहीदा से कहा, ‘देखो, इस कम्पोजीशन में शब्द नहीं हैं, केवल म्यूजिक है. अब मौका है तुम्हें अपना हुनर दिखाने का।’ सचिनदेव बर्मन खुश थे लेकिन सोच रहे थे कि क्या यह दर्शकों को पसंद आएगा?
शूटिंग चालू हुई तब वे भी वहां वहीदा की प्रस्तुति देखने के लिए खुद मौजूद थे। वहीदा रहमान काली और लाल रंग की साड़ी पहनकर आई, साथ में सह-नर्तकियां भी ग्रामीण वेशभूषा में आकर खड़ी हो गई। वहीदा विश्वास भरी मुस्कुराहट के साथ सेट पर खड़ी होकर बेक-ग्राउंड-म्यूजिक को ध्यान से सुनने लगी। अचानक उसके चेहरे की रंगत और शरीर की भाषा बदलने लगी। क्रोध, मायूसी और निर्भीकता का भाव उभरने लगे। कई शाट्स के बाद नृत्य निर्देशक हीरालाल और सोहनलाल के मार्गदर्शन में नृत्य का फिल्मांकन संपन्न हुआ। उस प्रस्तुति में वह वहीदा ‘रोजी’ बन गई थी।
सचिन दा ने खुश होकर कहा, ‘वहीदा, मैंने सोचा नहीं था कि ऐसा होगा। मुझे तो बहुत डर लग रहा था मगर लगता है तुम्हारा गुस्सा, तुम्हारा दु:ख, सब कुछ उसमें निकल आया।’ उस वर्ष के ‘फिल्म फेयर अवार्ड्स’ में फिल्म गाइड को सात श्रेणियों में पुरस्कार मिले जिनमें से एक था, सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री, वहीदा रहमान।
यह तय करना मुश्किल है कि फिल्म ‘गाइड’ का कौन सा पक्ष अधिक मज़बूत है। ‘गाइड’ को क्लासिक फिल्म का दर्जा देने के अनेक कारण हैं। क्लासिक की हैसियत उसे नसीब होती है जिस फिल्म का हर पहलू नायाब हो। कहानी से लेकर संगीत तक, सब लाजवाब था। देवआनंद ने इस फिल्म को तसल्ली से बनाया, हर दृश्य की कल्पना को वास्तविकता से जोडऩे की भरपूर कोशिश की. एक प्रयोगवादी कहानी के उतार-चढ़ाव को गीत-संगीत के साथ सजाकर लोकप्रिय फिल्म की शक्ल में पेश करना निर्देशक विजय आनन्द के लिए नि:संदेह चुनौतीपूर्ण रहा होगा। अदायगी की चर्चा करें तो वहीदा के अलावा गाइड के रोल में देवआनंद और रोजी के पति के रूप में किशोर साहू ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया, वहीँ पर अनवर हुसैन ने राजू के मित्र की छोटी सी भूमिका में पूरा मज़मा लूट लिया।
फिल्म समीक्षक प्रह्लाद अग्रवाल की मान्यता है, ‘देवआनंद इस बात को मानने के लिए कभी तैयार नहीं हो सकते की ‘गाइड’ उनसे पहले विजयआनंद की फिल्म है, और, जो शैलेन्द्र ने कथा के फलसफे को करिश्माई गीतों में अवाम के दिलों में गंगा-जमुनी रसधारा की तरह न उतार दिया होता तो देवआनंद की अदाकारी किसी काम न आती।’
विजयआनंद का निर्देशन व संवाद, फली मिस्त्री की नयनाभिराम फोटोग्राफी और शैलेन्द्र द्वारा लिखे व सचिनदेव बर्मन द्वारा संगीतबद्ध दस सुमधुर गीतों ने इस फिल्म को एक क्लासिक फिल्म का दर्जा दे दिया।
एक और सच्ची घटना है, ‘गाइड’ के लिए शैलेन्द्र लिखित गीत ‘मोसे छल किए जाए, सैंया बेईमान...’ का संगीत तैयार किया जा रहा था. प्रेक्टिस के दौरान सचिनदा के नियमित तबलावादक मारुतीराव कीर उस समय उपस्थित नहीं थे इसलिए संतूरवादक पंडित शिवकुमार शर्मा ने तबला सम्हाल लिया। दादा ने शिवकुमार का तबलावादन सुनकर आदेश दिया, ‘इस गाने का रिकार्डिंग में तबला तुम बजाएगा।’
शिवकुमार शर्मा ने कहा, ‘दादा, मैंने तबला बजाना छोड़ दिया है, मैं तो केवल संतूर बजाता हूँ।’ ‘वो सब ठीक है पर इस बार तुम ही बजाएगा।’ दादा ने अंतिम फैसला सुनाया।
‘मोसे छल किए जाए, सैंया बेईमान।’ को आपने कई बार सुना होगा। लताजी की शिकायत भरी मीठी आवाज का असर ऐसा है कि इस गीत के संगीत पर ध्यान ही नहीं जाता। एक बार आप इस गीत को फिर से सुनिए और तबले की थाप पर अपना ध्यान केन्द्रित करिएगा, ताल के कितने रंग है, इस गीत में! तबले की थाप को सुनो तो ऐसा लगता है जैसे आकाश में कोई पतंग लहरा रही हो, बल खा रही हो और गर्वोन्मत्त होकर आसमान को भेद रही हो। यह संतूरवादक पंडित शिवकुमार शर्मा का तबलावादन था।
सात ‘फिल्म फेयर अवार्ड’ हासिल करने वाली इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ संगीत का पुरस्कार न मिलना आश्चर्यजनक है जबकि बालीवुड की सर्वश्रेष्ठ पार्श्व संगीत की सूची में ‘गाइड’ का ग्यारहवें स्थान पर प्रतिष्ठित है.।
‘गाइड’ जैसी फिल्म का निर्माण हिंदी सिनेमा के लिए अभूतपूर्व प्रयास था। सिनेमा तो कल्पना को वास्तविकता में परावर्तित करने का कलात्मक विधा है। ‘गाइड’ का हर फ्रेम दर्शक को इस तरह बांधता है जैसे दर्शक स्वयं कहानी का हिस्सा हो. इसे ही तो नाट्यशास्त्र के प्रवर्तक भरत मुनि कहते हैं, ‘दर्शक का कथा से तादात्म्यीकरण।’
-द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
छत्तीसगढ़ की राजधानी में स्थापित प्रशासन अकादमी में बुलाया जाता है मुझे प्रदेश के अधिकारियों को प्रशिक्षण देने के लिए।
कुछ समय पूर्व एक समूह के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम में जाने का संयोग हुआ। भोजन अवकाश के बाद मैं ‘गेस्ट रूम’ में बैठा कार्यक्रम के पुन: आरंभ की प्रतीक्षा कर रहा था। बगल के आरामदेह सोफा में एक सज्जन और बैठे हुए थे। परिचय हुआ, नाम-पता की पूछताछ हुई, आपस में ‘जय राम जी’ की हुई।
वे सज्जन कृषि विभाग में ज्वाइंट डायरेक्टर के पद पर कार्यरत थे। मैंने उनसे पूछा, ‘आप कृषि में हैं, सरकार की योजनाओं से कृषकों की स्थिति में क्या अंतर आया है?’
‘सुधार हो रहा है लेकिन जितना प्रयास किया जा रहा है, उस हिसाब से प्रगति नहीं है।’ उन्होने बताया।
‘क्यों? क्या परेशानी है?’
‘सरकार की योजनाएँ व्यावहारिक नहीं होती।’
‘क्या मतलब?’
‘आपको एक उदाहरण बताता हूँ। केंद्र सरकार ने घर-घर में टायलेट बनाना सुनिश्चित किया। टायलेट बन गये लेकिन उनका उपयोग नहीं हो रहा है क्योंकि पानी की व्यवस्था नहीं है। अधिकतर गावों में पीने के लिए पानी बड़ी मुश्किल से मिलता है, टायलेट के लिए उतना ढेर सारा पानी कहाँ से आएगा?’
‘तो क्या करना चाहिए था?’
‘पहले घर-घर में पानी का इंतज़ाम करना था, उसके बाद टायलेट बनवाने की योजना लागू करनी थी।’
‘जब इस योजना की रूपरेखा बन रही थी, तब यह बात योजनाकारों को नहीं सूझी ?’
‘सर, वहाँ एक से एक जानकार हैं, सलाहकार समिति में, लेकिन किसी की हिम्मत नहीं है कि कुछ कह सके।’
‘आप क्या बता रहे हैं? फिर सलाहकार करते क्या हैं?’
‘यस सर....यस सर।’
‘मतलब?’
‘पीएम ने सेक्रेटरी को कुछ कहा, जवाब है, ‘यस सर’; केंद्र ने मुख्यमंत्री को कहा, ‘यस सर’; मुख्यमंत्री ने अपने सेक्रेटरी को कहा, ‘यस सर’; सेक्रेटरी ने हमसे कहा; यस सर’, हमने फील्ड अफसर को कहा, ‘यस सर’। कोई भी अपने बॉस को कोई सलाह नहीं देता, कोई प्रतिरोध नहीं कर सकता।’
‘क्या अड़चन है, सुझाव देने में?’
‘किसी ने यदि हिम्मत की, कुछ कहा, तो सबके पास एक ही जवाब है, ‘ऊपर से आदेश है’, इसका एक मतलब है कि ‘जो कहा जा रहा है, चुपचाप करो और अपना मुंह बंद रखो, ज्यादा चूँ-चपड़ किए तो बस्तर जाने के लिए बिस्तर तैयार कर लो।’ उन्होने बताया।
इतने में खबर आ गई, ‘सर, चलिए ‘पोस्ट लंच सेशन’ करना है।’ उनसे बात अधूरी रह गई।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कल आशा बंधी थी कि किसान-आंदोलन का कोई सर्वसमावेशी हल निकल आएगा। कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने किसानों की बात रख ली और तुरंत उन्हें बात करने के लिए बुला लिया। यह भी अच्छा हुआ कि सरकार ने सारे किसानों के बुराड़ी मैदान में इक_े होने के आग्रह को छोड़ दिया लेकिन किसानों ने दिल्ली पहुंचने के लोकप्रिय परंपरागत रास्तों पर धरने दे दिए हैं। दिल्ली की जनता को फल और सब्जियां मिलना मुहाल हो रहा है और सैकड़ों ट्रक सीमा के नाकों पर खड़े हुए हैं। इससे किसानों को भी नुकसान हो रहा है। व्यापारी भी परेशान हैं। यह तब है जबकि दिल्ली की जनता ने किसानों के लिए अपनी तिजोरियां खोल दी हैं और केजरीवाल-प्रशासन भी उनकी सुविधाओं का ध्यान रख रहा है।
यदि ये धरने और प्रदर्शन लंबे खिंच गए तो किसानों के प्रति आम जनता में आक्रोश पैदा हो सकता है, खासकर पंजाब और हरियाणा के किसानों के लिए, जो अन्य भारतीय किसानों के मुकाबले काफी ठीक-ठाक हैं। कृषि मंत्री तोमर का यह प्रस्ताव व्यावहारिक है कि पांच किसान नेताओं की कमेटी बनाई जाए, जो सरकार के साथ बैठकर इस समस्या का हल निकाले लेकिन वार्ता में शामिल तीन-चार दर्जन किसान नेता इस बात से सहमत नहीं हैं। जाहिर है कि इस आंदोलन के कोई सर्वमान्य नेता नहीं हैं।पता नहीं, अब आगे बात कैसे चलेगी? सरकार तो 100 नेताओं के साथ एक साथ बात कर सकती है लेकिन वहां अपनी-अपनी ढपली और अपने-अपने राग से सब परेशान हो जाएंगे। जहां तक तीनों कृषि-कानूनों को वापस लेने की बात है, यह शुद्ध अतिवाद है, दादागीरी है। सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाले इन नव-नेताओं के आगे सरकार आत्म-समर्पण क्यों करे? यदि वे अहिंसक प्रदर्शन करते हैं तो जरूर करें लेकिन यदि वे हिंसा पर उतारु हो गए तो सरकार को मजबूरन सख्त कार्रवाई करनी होगी।
इसका अर्थ यह नहीं कि सरकार अपनी अकड़ पर अड़ी रहे। उसने ये कानून बनाने के पहले न तो किसान-संगठनों से बात की और न ही संसदीय समिति में इन पर बहस करवाई। इसलिए जो भी सुझाव आते हैं, उन पर वह अच्छी तरह से सोच-विचार करे। न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रुप दे देने से मूल समस्या हल हो सकती है लेकिन उससे कम या ज्यादा दर पर माल बेचने की छूट जरुरी होनी चाहिए। उस पर सजा या जुर्माने का प्रावधान अनुचित होगा। मंडियों की संख्या बढ़ाना और उनकी व्यवस्था को अधिक किसान-हितकारी बनाना भी उतना ही जरुरी है। (नया इंडिया की अनुमति से)
दिल्ली, 2 दिसंबर | जली के तारों के झुंड से ढकी हुई एक तंग गली के तीन मंज़िला मकान की छत पर खड़ी एक महिला हमारा इंतज़ार कर रही थीं.
34 साल की राधा रानी ने इसी साल अगस्त महीने से दूसरी मंज़िल पर एक छोटा घर किराए पर ले रखा है जहाँ उनके दो बच्चे भी साथ रह रहे हैं.
उन्होंने बताया, "लॉकडाउन ख़त्म होने के दो महीने बाद ही मुझे ब्रेस्ट कैंसर होने का पता चला. हम जम्मू में थे जहाँ डॉक्टर ने दिल्ली आकर पहले सर्जरी और फिर इलाज कराने की सलाह दी."
राधा रानी के पति नौकरी करते हैं और इन दिनों श्रीनगर में तैनात हैं. दिल्ली में किराए का मकान लेकर इलाज कराने के अलावा कोई चारा नहीं था. लेकिन मुश्किलें और भी थीं.
उन्होंने कहा, "रिश्तेदारों ने कहा दिल्ली में ट्रीटमेंट नहीं लेना है, कोरोना फैला हुआ है. लेकिन हमको ट्रीटमेंट लेना था हम आ गए. सर्जरी के बाद मेरी कीमोथेरेपी शुरू होनी थी लेकिन उसके पहले कोविड टेस्ट में मेरा पॉज़िटिव आ गया. इसके चलते हमारी थेरेपी एक महीना आगे बढ़ानी पड़ी."
कोरोना वायरस और ब्रेस्ट कैंसर
इस साल के जनवरी महीने में भारत में कोरोना वायरस ने दस्तक दी थी जिसके चलते 24 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की थी.
एक तरफ़ जहाँ अस्पतालों और स्वास्थ्य कर्मियों का लगभग पूरा ध्यान इस वैश्विक महामारी की रोकथाम में लगा वहीं दूसरी तरफ़ नागरिकों को संक्रमण से बचे रहने की हिदायतें दी गईं.
इस प्रक्रिया में दूसरी जानलेवा बीमारियों का इलाज करा रहे लोगों पर ख़ासा असर पड़ा और अनुमान है कि कैंसर, ख़ासतौर से ब्रेस्ट कैंसर से जुड़े क़रीब 40% ऑपरेशन टल गए.
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ साल 2018 के दौरान भारत में ब्रेस्ट कैंसर से क़रीब 87,000 मौतें हुईं थीं. जबकि महिलाओं को होने वाले कैंसर में से 28% मामले ब्रेस्ट कैंसर के ही थे. बढ़ते आँकड़ों के बीच कोरोना आ पहुँचा.

दिल्ली के मनिपाल अस्पताल में सर्जिकल ओंकोलोजी प्रमुख और ब्रेस्ट कैंसर विशेषज्ञ डॉक्टर वेदांत काबरा कहते हैं, "भारत में अमेरिका, इंग्लैंड या कनाडा जैसे उन्नत देशों की तरह कोई सरकारी स्क्रीनिंग प्रोग्राम नहीं है इस वजह से 60-70% ब्रेस्ट कैंसर के मरीज़ हमारे पास तीसरी-चौथी स्टेज में आते हैं."
उन्होंने बताया, "कोविड आने से जिनको जानकारी नहीं थी वो तो वैसे ही बैठे हुए थे लेकिन जिन्हें जानकारी थी वो भी ब्रेस्ट कैंसर या उनके लक्षणों के बारे में कोविड की वजह से इतने ज़्यादा डर गए थे कि लक्षणों के बावजूद अस्पताल नहीं आ रहे थे."
ब्रिटेन की ब्रेस्ट कैंसर नाउ नामक चैरिटी संस्था के मुताबिक़ कोविड-19 महामारी के दौरान क़रीब दस लाख ब्रितानी महिलाओं को अपनी सालाना ब्रेस्ट कैंसर स्क्रीनिंग जाँच छोड़नी पड़ी और अमेरिका और यूरोप से भी ऐसी ख़बरें आती रही हैं.
भारत में ब्रेस्ट कैंसर की स्थिति और ख़तरनाक हो सकती है क्योंकि पहले से ही महिलाओं में इसका प्रतिशत सबसे ज़्यादा है और जानकारों का मानना है कि अगले दस सालों में ब्रेस्ट कैंसर हर दूसरे कैंसर को पीछे छोड़ सकता है.

भारत में कैंसर रिसर्च से शुरुआत से जुड़े रहे और गंगाराम, अपोलो और आरटेमिस जैसे अस्पतालों में ओंकोलॉजी विभाग की कमान संभाल चुके डॉक्टर राकेश चोपड़ा कहते हैं कि 2019 की तुलना में इस साल आधे से भी कम कैंसर ऑपरेशन हुए और इसमें ब्रेस्ट कैंसर मामलों की तादाद बहुत है."
उन्होंने कहा, "कैंसर के मरीज़ों की इम्यूनिटी यानी शरीर के किसी भी संक्रमण से लड़ने की क्षमता दूसरों के मुक़ाबले बहुत कम होती है. इस डर के अलावा अगर ब्रेस्ट कैंसर के लिहाज़ से देखें तो आज भी ज़्यादातर ग्रामीण इलाक़ों या छोटे शहरों में महिलाएं, ख़ासतौर से शादी-शुदा, अपने बीमारियों से ज़्यादा अपने परिवार-बच्चों पर ध्यान देती हैं. ऊपर से कोरोना वायरस का डर बना रहा है जिससे हालात ख़राब होते चले गए."

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में रहने वाली अनुपमा (नाम बदला हुआ) दो साल पहले अपनी सास का इलाज कराने शहर के संजय गांधी पीजीआई अस्पताल जाया करती थीं.
बात-बात में एक दिन उन्होंने अपनी सास की महिला रोग विशेषज्ञ डॉक्टर से कहा कि पिछले चार महीनों में उनका वज़न ख़ुद-ब-ख़ुद साढ़े चार किलो कम हुआ है.
डॉक्टर ने तुरंत उनकी जाँच की और शरीर के कई हिस्सों में छोटी-छोटी गठिया मिलने के बाद उसी शाम उनकी मैमोग्राफ़ी कराई तो उन्हें स्टेज-3 का ब्रेस्ट कैंसर निकला.
स्तन हटाने की सर्जरी के बाद उन्हें कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी दी गई लेकिन इसी साल फ़रवरी में हुए स्कैन में दोबारा कैंसर सेल्स दिखे.
इस बार उनका इलाज दिल्ली में शुरू हुआ लेकिन इसी बीच लॉकडाउन की घोषणा हुई और इलाज रोकना पड़ा.
अनुपमा ने बताया, "जून के पहले हफ़्ते में दिल्ली के राजीव गांधी कैंसर इंस्टीट्यूट आने पर पता चला कि कैंसर अब फेफड़ों तक फैल चुका था. हालांकि कुछ कैंसर मरीज़ों का इलाज लॉकडाउन में होता रहा लेकिन शायद हम ही लोग ज़्यादा डर गए थे. अब पता नहीं क्या होगा?".
दिल्ली के इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल में ब्रेस्ट कैंसर विशेषज्ञ डॉक्टर आर सरीन के मुताबिक़, "लॉकडाउन के पहले तक हर महीने क़रीब 200 ब्रेस्ट कैंसर मरीज़ हमारे यहाँ इलाज के बाद के फ़ॉलोअप में आते थे लेकिन अब इसमें 70% तक की गिरावट दिखी है."

भारत में कोरोना वायरस फैलने के शुरुआती दिनों में मरीज़ों के नाम-पते सार्वजनिक करने के दौरान ब्रेस्ट कैंसर जैसी आम होती बीमारी को भी बड़ा झटका लगा. ज़ाहिर है इसमें जागरूकता की ख़ासी ज़रूरत है जिस पर पिछले कई सालों से काम तो जारी है लेकिन असर अभी भी कम दिखा है.
पश्चिमी दिल्ली में रहने वाली शमीम ख़ान ने एक कैंसर सपोर्ट ग्रुप की शुरुआत की जिस दौरान उनके अपने परिवार में इस बीमारी ने दस्तक दी थी.
शमीम बताती हैं, "ब्रेस्ट कैंसर हो या कैंसर, भारत में आज भी इस पर पर्दा रखा जाता है. एक तो हममें झिझक बहुत है, शर्म बहुत है, हम डॉक्टरों को नहीं बताते, अपने घरों में भी नहीं बताते कि ब्रेस्ट कैंसर हुआ है. जब होता है तो हम इधर-उधर, हक़ीम-वकीम के पास जाते हैं. यानी जागरूकता की कमी है."
लिमफ़ोमा सपोर्ट ग्रुप की सह-संस्थापक शमीम के मुताबिक़, "मैं झुग्गी-झोपड़ी वाली बस्तियों में काम करती हूँ और आज भी औरतें कहती हैं हम अपने ब्रेस्ट को कैसे दिखाएँ, कैसे बताएँ कि उसमें से ब्लीडिंग हो रही है या बदलाव हो रहे हैं."

उम्मीद की किरण
ब्रिटेन की जानी मानी पत्रिका 'द लैंसेट' के मुताबिक़ भारत में हर साल कैंसर के क़रीब दस लाख नए मामले सामने आते हैं और कोरोना काल में इनपर गहरा असर पड़ेगा.
लेकिन अस्पतालों और विशेषज्ञों ने इसी दौरान कैंसर ट्रीटमेंट में भी कुछ सफल प्रयोग किए हैं.
डॉक्टर वेदांत काबरा के अनुसार, "भारतीय महिलाओं में ब्रेस्ट और सरवाइकल कैंसर सबसे ज़्यादा हैं और विशेषज्ञों ने कोरोना वायरस को देखते हुए इलाज में ज़रूरी बदलाव किए. मरीज़ों के अस्पताल आने में कमी लाने से लेकर थेरेपी देने की संख्या के अलावा उन्हें ये भरोसा दिलाया गया कि सर्जरी कराना सुरक्षित है, उससे बचने में नुकसान ज़्यादा है."
डॉक्टर राकेश चोपड़ा के मुताबिक़, "कोरोना के दौर में ही कैंसर विशेषज्ञों का एक बड़ा ग्रुप बनाया गया, ख़ासतौर से उन मरीज़ों के लिए जो दूर-दराज़ से दिल्ली या मुंबई या बड़े शहर इलाज कराने के लिए आते थे. भले ही उनके यहाँ सुविधाओं का स्तर बड़े शहरों जैसा नहीं है लेकिन हम लोग वहाँ के स्थानीय चिकित्सकों से लगातार बात करते हुए ये कोशिश करते हैं कि इलाज में बाधा न आए."

भारत सरकार की आयुष्मान स्वास्थ्य परियोजना के तहत साल 2020 की शुरुआत तक, क़रीब 70 लाख महिलाओं की ब्रेस्ट कैंसर और 30 लाख की सर्वाइकल कैंसर स्क्रीनिंग या जाँच हो चुकी है.
लगभग सभी कैंसर विशेषज्ञों का मत है कि इसे अब कई गुना तेज़ी से बढ़ाने की ज़रूरत है.
वैसे भारत सरकार ने इस बात को भी शुरू से ही साफ़ कह रखा है कि मरीज़ों की आवाजाही या इलाज पर लॉकडाउन या उसके बाद में किसी क़िस्म की पाबंदी नहीं लगाई जाएगी लेकिन जानकारों का मानना है कि सरकार को भी कोरोना से एक सीख लेने की ज़रूरत है.
डॉक्टर राकेश चोपड़ा कहते हैं, "सरकार ने जैसे मास्क पहनने और सोशल डिस्टेंसिंग की कैम्पेन पूरे देश में चलाई उससे जागरूकता रातों-रात बढ़ी और कामयाब साबित हुई. ब्रेस्ट कैंसर जैसी बीमारी के बारे में अगर इसका 50% भी दोहरा लेंगे, तभी ब्रेस्ट कैंसर की आने वाली सुनामी से बचा जा सकेगा."(www.bbc.com/hindi)


