क्रिकेट खिलाड़ी, राजनेता, और कॉमेडियन नवजोत सिंह सिद्धू ने अभी एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा था कि उनकी पत्नी नवजोत कौर का कैंसर एक खास घरेलू डाईट से ठीक हुआ है। उन्होंने कहा था कि शक्कर, और दूध के सामानों से परहेज करने, और हल्दी और नीम के सेवन से उनकी पत्नी के कैंसर ठीक होने में कामयाबी मिली। सिद्धू ने कहा था कि नवजोत स्टेज-4 के कैंसर से जूझ रही थी, डॉक्टरों ने उनके बचने की उम्मीद सिर्फ पांच फीसदी बताई थी, लेकिन हल्दी, नीम का पानी, सेव का सिरका, और नींबू पानी के नियमित सेवन से, शक्कर और कार्बोहाइडे्रट से सख्त परहेज, और इंटरमिटेंट फॉस्टिंग की मदद से वे सिर्फ 40 दिनों में अस्पताल से डिस्चार्ज हो गईं।
इस पर देश के एक सबसे बड़े कैंसर अस्पताल टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल के डायरेक्टर ने कहा है कि ऐसे दावों के पीछे कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। टाटा मेमोरियल के मौजूदा और भूतपूर्व 262 कैंसर विशेषज्ञों ने दस्तखत किया हुआ एक बयान जारी किया हुआ है कि इस तरह हल्दी और नीम वगैरह से कैंसर ठीक होने का कोई वैज्ञानिक अध्ययन नहीं है, और इन डॉक्टरों ने कैंसर मरीजों से अपील की है कि ऐसी गंभीर बीमारी के मामले में वे ऐसे अप्रमाणित उपचार पर बिल्कुल भरोसा न करें। टाटा मेमोरियल के डायरेक्टर डॉ.सी.एस. प्रमेश ने डॉक्टरों का बयान एक्स पर पोस्ट करते हुए सिद्धू के वीडियो को भी पोस्ट किया है, और लिखा है- ऐसी बातें सुनकर किसी को मूर्ख नहीं बनना चाहिए, इस तरह के दावे गैरवैज्ञानिक, और निराधार होते हैं, नवजोत कौर की सर्जरी और कीमोथैरेपी हुई थी, यही कारण है कि आज उन्हें कैंसर से मुक्ति मिली है, इसमें हल्दी, नीम, या किसी भी गैरचिकित्सकीय चीज के मददगार होने का दावा गैरवैज्ञानिक है।
किसी एक व्यक्ति के ऐसे बयान और दावे पर सैकड़ों विशेषज्ञों के ऐसे खंडन की पहले की कभी कोई याद नहीं पड़ती। हाल के बरसों में अपने आपको स्वामी और योगी कहने वाला रामदेव नाम का एक भगवाधारी कारोबारी आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के खिलाफ अंतहीन नाजायज बकवास करते रहा, और उसे सुप्रीम कोर्ट में माफी मांगनी पड़ी, और माफी के ईश्तहार छपवाने पड़े। लेकिन तब तक कोरोना काल के प्रभावित हिन्दुस्तानी लोगों में से करोड़ों लोग इस कारोबारी के झांसे में आकर अपनी सेहत बर्बाद कर चुके रहे होंगे। अब हर किसी मामले में तो लोग सुप्रीम कोर्ट जा नहीं सकते, और अदालत हर किसी को कटघरे में ला नहीं सकती। इसलिए सिद्धू जैसे मशहूर इंसान के इस तरह के नाजायज दावे का भांडाफोड़ करने के लिए डॉक्टरों ने सामने आकर ठीक ही किया है। इस देश के 262 कैंसर विशेषज्ञ अगर एक साथ ऐसा बयान जारी करते हैं, तो देश के आम लोगों को नीमहकीमी सुझाने वाले लोगों की असलियत समझना चाहिए।
दरअसल सोशल मीडिया पर हर किसी को लिखने की जिस किस्म की आजादी हासिल है, उसके चलते हुए बहुत से लोग बेसिर पैर के इलाज सुझाने लगते हैं। सोशल मीडिया पर किसी को भी किसी वैज्ञानिक स्रोत को देने की मजबूरी नहीं रहती है, और यह बात सिर्फ हिन्दुस्तान में नहीं, पश्चिम के पढ़े-लिखे और वैज्ञानिक रूप से विकसित देशों में भी धड़ल्ले से चलती है। नवजोत सिंह सिद्धू ने तो जो बात कही है वह घरेलू नुस्खों की बात है, लेकिन रामदेव जैसे लोगों ने कोरोना को रोकने के दावे के साथ अपनी कंपनी की बनाई हुई जिन दवाईयों का बाजार खड़ा किया, वह तो और भयानक था। फिर केन्द्र सरकार का हाथ रामदेव की पीठ पर था, और रामदेव की दवा लाँच करने के लिए केन्द्र सरकार के मंत्री मौजूद थे, और सरकार के बड़े-बड़े लोगों ने इस बेबुनियाद दवा को बढ़ावा देने का काम किया था। अगर सुप्रीम कोर्ट की दखल नहीं आई होती, तो अब तक रामदेव और भी बहुत सी बीमारियों को ठीक करने का दावा करते रहता, और देश की जनता का भरोसा ऐलोपैथी जैसी आधुनिक चिकित्सा से खत्म करता रहता।
लोगों को लिखने और बोलने की आजादी का ऐसा बेजा इस्तेमाल नहीं करना चाहिए कि वे सोशल मीडिया पर बड़ी-बड़ी बीमारियों को ठीक करने के सरल और आसान इलाज के दावे करते रहें। कुछ लोग तो इससे भी आगे बढक़र अपने घर पर तैयार की हुई किसी तरह की तथाकथित दवाई बांटने में लगे रहते हैं, और यह मानकर चलते हैं कि वे समाजसेवा कर रहे हैं। ऐसे उत्साह, और ऐसी अवैज्ञानिक सनक पर कानूनी रोक भी लगनी चाहिए। देश में जगह-जगह किसी खास दिन पर अस्थमा ठीक करने के लिए कई लोग तरह-तरह की दवाई बांटते हैं, और इन दवाईयों में क्या है इसे एक रहस्य की तरह रखते हैं, उसकी कोई जानकारी किसी को नहीं देते, और लाईलाज लगती बीमारियों के ठीक हो जाने की उम्मीद के साथ अस्थमा के मरीज इन जगहों पर पहुंचते रहते हैं। देश में ऐलोपैथी के डॉक्टरों के ही ऐसे संगठन हैं जो कि अवैज्ञानिक दावों पर सवाल खड़े करते हैं, और ऐसे ही संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में रामदेव को उजागर किया था, और माफी छपवाने पर मजबूर किया था। हमारा ख्याल है कि सेहत से जुड़े हुए अवैज्ञानिक दावों के खिलाफ न सिर्फ डॉक्टरों को, बल्कि वैज्ञानिक चेतना रखने वाले नागरिकों को भी सरकार और अदालत तक जाना चाहिए। देश में शिक्षा की कमी है, वैज्ञानिक चेतना की कमी है, और इलाज की भी कमी है। ऐसे में न सिर्फ गरीब और बेबस लोग, बल्कि किसी भी तरह के सनसनीखेज दावों पर आसानी से भरोसा कर लेने वाले कमअक्ल लोग भी सोशल मीडिया पर सुझाए गए इलाज पर अमल करने लगते हैं। नतीजा यह होता है कि कैंसर जैसी गंभीर बीमारी के इलाज में देर होती है, और वह बीमारी फैलते हुए जानलेवा हो जाती है। कायदे से तो केन्द्र और राज्य सरकारों की यह जिम्मेदारी है कि वे अवैज्ञानिक चिकित्सकीय दावे करने वाले लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करें, लेकिन चूंकि ऐसे लोगों के इर्द-गिर्द भीड़ जुटी रहती हैं, और तमाम भीड़ वोटरों की रहती है, इसलिए सत्ता चलाने वाले नेता ऐसे लोगों पर कार्रवाई नहीं करते हैं। हमारा ख्याल है कि समाज के जो लोग अपने आपको जिम्मेदार मानते हैं, उन लोगों को भी इलाज के नाम पर बकवास फैलाने से बचना चाहिए। सिद्धू जैसे लोगों को भी चिकित्सा विज्ञान की तरफ से आए इतने बड़े खंडन के बाद अब अक्ल आनी चाहिए, लेकिन लोकतंत्र में ऐसा कोई कानून भी नहीं है जो लोगों को अक्ल के इस्तेमाल पर मजबूर कर सके।
दो राज्यों में विधानसभा के चुनाव के नतीजे, और कई राज्यों में बिखरे हुए विधानसभा उपचुनावों के नतीजे भाजपा के लिए बड़ी खुशी लेकर आए हैं। महाराष्ट्र में भाजपा, शिंदे सेना, और अजीत पवार का गठबंधन भारी बढ़ोत्तरी के साथ सत्तारूढ़ गठबंधन बना रहेगा। एनडीए गठबंधन को 38 सीटें अधिक मिल रही हैं, जो कि कांग्रेस-उद्धव-शरद पवार गठबंधन की 19 सीटों, और अन्य की 19 सीटों की कीमत पर हासिल हो रही हैं। महाराष्ट्र में भाजपा शिंदे-सेना से दोगुने से अधिक सीटें पाते दिख रही है, और इसका जाहिर मतलब यह है कि वहां अगला मुख्यमंत्री भाजपा का ही रहेगा। लगे हाथों महाराष्ट्र के नतीजों का एक शुरूआती विश्लेषण करें, तो दो कुनबों के बंटवारे में कुनबों के मुखिया नुकसान में रहे, शरद पवार और उद्धव ठाकरे अपनी पार्टी के बचे-खुचे हिस्से के साथ बहुत सी सीटें विभाजित हिस्से के हाथों गंवा चुके हैं, फिर भी दिलचस्प बात यह है कि अभी दोपहर की लीड के मुताबिक महाराष्ट्र में सबसे बड़ा नुकसान कांग्रेस का हुआ है जिसने पिछली बार के मुकाबले 26 सीटें खोई हैं, और भाजपा ने महाराष्ट्र में 22 सीटें अधिक पाई हैं। इस तरह पूरे देश में कांग्रेस और भाजपा को आमने-सामने रखकर तुलना करने की जो आम बात है, वह महाराष्ट्र में साफ दिख रही है। दूसरी तरफ कांग्रेस के साथ गठबंधन में उद्धव ठाकरे और शरद पवार की सीटें दोपहर 12 बजे मामूली बढ़ते दिख रही हैं।
महाराष्ट्र की सत्ता जिस गठबंधन के हाथ थी उसी के हाथ बनी हुई है। दूसरी तरफ झारखंड को देखें तो वहां इंडिया-गठबंधन की सरकार जारी रहने के आसार दिख रहे हैं। वहां इसके 51 सीटों पर बढ़त के आंकड़े आ रहे हैं, और इस पल एनडीए 22 सीटों पर पीछे है। कुल 81 सीटों की विधानसभा में यह रूख झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस गठबंधन की सत्ता जारी रहने का रूख दिखा रहा है। दोनों ही राज्य जिन गठबंधनों के हाथ थे, उन्हीं गठबंधनों के हाथ रहते हुए दिख रहे हैं। दूसरी बात यह कि भाजपा की सीटें इन दोनों ही राज्यों में बढ़ रही हैं। दोनों ही राज्यों में इन दोनों गठबंधनों से परे की सीटें कम होते दिख रही हैं, और वे गठबंधनों में जा रही हैं। मतलब साफ है कि गठबंधनों के बाहर स्वतंत्र रूप से लडऩे वाली छोटी पार्टियां इस बार मतदाताओं ने किनारे कर दी हैं, और दो ध्रुवों के बीच चुनाव हुआ है। दो छोटी-छोटी और बातें चर्चा के लायक हैं, झारखंड में लालू की पार्टी आरजेडी छह सीटों पर लड़ी थी, और वह पांच पर जीतते दिख रही है। दूसरी तरफ बंगाल के उपचुनावों में सभी छह सीटें सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस जीत रही है। मतलब यह कि कम से कम इन तीन राज्यों में वोटर सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन के साथ है।
दोनों ही राज्यों में विधानसभा के चुनाव बहुत किस्म की अदालती कार्रवाई के साये में हुए हैं। केन्द्रीय जांच एजेंसियां लगातार चुनिंदा लोगों को निशाना बनाते हुए लगी हुई थीं, और महाराष्ट्र और झारखंड दोनों जगह एनडीए विरोधी नेता जेल भी आते-जाते रहे हैं। खासकर महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी में जिस तरह से विभाजन हुआ उसने राज्य की राजनीति को छिन्न-भिन्न कर दिया, और केन्द्र और राज्य दोनों जगह सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन मजबूत होता चले गया। चुनावी नतीजे पहली नजर में मतदाताओं का यह रूख भी बताते हैं कि उसने एक स्थिर सरकार बनाने के लिए महाराष्ट्र में एनडीए को वोट दिया है क्योंकि एनडीए से परे किसी गठबंधन की सरकार महाराष्ट्र में स्थिर और स्थाई नहीं रह पाती।
महाराष्ट्र में एनडीए छलांग लगाकर आगे बढ़ा है, और विपक्षी राज वाले झारखंड में भी उसकी लीड अभी पिछली बार से अधिक सीटों पर दिख रही है। भाजपा इन चुनावों में सबसे बड़ी विजेता बनकर सामने आई है। दोनों ही राज्यों में एनडीए के भीतर कमल छाप की सीटें भी बढऩे का रूझान है। कांग्रेस के लिए राहत की एक छोटी सी बात यह हो सकती है कि विधानसभा चुनावों से परे केरल के वायनाड में हुए लोकसभा उपचुनाव में राहुल की खाली की हुई सीट पर प्रियंका तीन लाख से अधिक वोटों की लीड से आगे हैं, और यहां पर सीपीआई को डेढ़ लाख वोट, और भाजपा को 84 हजार वोट अब तक मिले हैं। गांधी परिवार के लिए यह एक निजी खुशी और राहत की बात है कि उत्तर भारत में अपनी कुछ जड़ें खो चुका यह परिवार दक्षिण के एकदम किनारे के केरल में अभी लाखों वोट से जीत रहा है। कांग्रेस के लिए यह भी एक फायदे की बात होगी कि लोकसभा में भाई उत्तर भारत की तरफ से खड़ा होगा, तो बहन दक्षिण भारत की तरफ से। इससे कांग्रेस की उत्तर, दक्षिण दोनों तरफ मौजूदगी बनी रहेगी, और हो सकता है कि शायद मजबूत भी हो।
वोट बढऩे और सीट बढऩे से परे ये चुनाव यथास्थिति को जारी रखने वाले दिखते हैं। दोनों राज्यों में मौजूदा सरकारें जारी रहेंगी, केरल की लोकसभा सीट गांधी परिवार में बनी रहेगी, बंगाल की सीटें टीएमसी के पास बनी रहेंगी, और छत्तीसगढ़ के अकेले विधानसभा उपचुनाव में भी भाजपा की सीट भाजपा के पास आ चुकी है। कर्नाटक में भी सभी तीन उपचुनावों में सत्तारूढ़ कांग्रेस की जीत हुई है। यूपी में भी आधा दर्जन सीटें सत्तारूढ़ बीजेपी को मिली हैं। आने वाले दिनों में अलग-अलग प्रदेशों के राजनीतिक विश्लेषण से यह बात साफ होगी कि बारीक मुद्दे क्या रहे। लेकिन अभी हम आसमान पर उड़ते पंछी की नजरों से देश के नक्शे को एक नजर देख रहे हैं, तो यह भाजपा-एनडीए की बढ़ोत्तरी, और काफी हद तक यथास्थिति जारी रहने की नौबत है। दोनों ही पक्षों के पास खुशी मनाने को कुछ-कुछ है, और कुछ-कुछ गम गलत करने को भी है। शाम को बैठने वाले इन दोनों ही गठबंधनों के लोगों के मूड और मर्जी पर यह निर्भर करेगा कि वे खुशी मनाएंगे, या गम गलत करेंगे, वैसे मतदाता ने दोनों ही बातों के लिए गुंजाइश छोड़ी है।
भारत की कारोबारी दुनिया में गजब का भूचाल आया हुआ है। जब देश में कोई भी एक कारोबारी इतना बड़ा हो जाता है कि उसके अकेले के धंधों से देश की अर्थव्यवस्था तय होने लगती है, जो इतने अलग-अलग किस्म के धंधों में इतना बड़ा बन चुका रहता है कि उसका कोई मुकाबला नहीं रहता, और जिसे बचाने के लिए कारोबार से जुड़ी संवैधानिक और नियामक संस्थाएं एक पैर पर खड़ी रहती हैं, तो उसकी गिरफ्तारी के लिए अमरीका में वारंट निकल जाना इस देश में भूचाल तो ला ही देता है। फिर अडानी की साख हिन्दुस्तान में कुछ इस किस्म की है कि वह मोदी सरकार की सबसे पसंदीदा, और सबसे चहेती कंपनी है, इसलिए अगर वह अमरीका में धोखाधड़ी और जालसाजी, और दूसरे देश में सरकार को रिश्वत देने वाली अमरीका में रजिस्टर्ड कंपनी है, तो यह भी भारत सरकार की साख पर आंच आने की बात है क्योंकि विपक्ष तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, और अडानी के संबंधों को लेकर बरसों से हमलावर चले ही आ रहा है। देश में ऐसा भी माहौल है कि केन्द्र सरकार इस कंपनी पर बेतहाशा मेहरबान है, और यह कंपनी सरकार में जो चाहे करवा सकती है।
अब अगर हम अमरीकी अदालत में पेश इस ताजा मामले को देखें जिसमें वहां के न्याय विभाग ने गौतम अडानी, उनके भतीजे, और आधा दर्जन दीगर लोगों के खिलाफ जालसाजी, धोखाधड़ी, और रिश्वत देने का मुकदमा चलाना शुरू किया है, और इन तमाम लोगों के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट भी निकल गए हैं, तो यह हिन्दुस्तान के लिए बहुत फिक्र की बात है। जब किसी एक कारोबारी का आकार इतना दानवाकार हो चुका है, तो फिर उसके जेल जाने के खतरे से देश के बैंक, बाकी वित्तीय संस्थान, शेयर बाजार, और बहुत सी सरकारें हिलने की नौबत आ गई है। केन्द्र की मोदी सरकार से परे देश के दर्जन भर राज्यों में अडानी का राज्य सरकारों से भी कारोबार है, और भारत में सरकारी लोगों को 22 सौ करोड़ रूपए की रिश्वत देने की जो चार्जशीट अमरीकी अदालत में पेश की गई है, उसमें भारत के आन्ध्र, ओडिशा, छत्तीसगढ़, और तमिलनाडु की सरकारों, और सरकारी लोगों पर भी आंच आ रही है। कहने के लिए अब कुछ प्रदेशों के नेता यह कह रहे हैं कि उन्होंने केन्द्र सरकार की एक कंपनी से समझौते किए थे, और सीधे अडानी से समझौता नहीं किया था। लेकिन यह कुछ उसी तरह का मामला है कि छत्तीसगढ़ के हसदेव में कोयला खदान की लीज तो राजस्थान सरकार को अपने बिजलीघर के मिली है, लेकिन उसे खोदने, और कोयला पहुंचाने का काम राजस्थान की तरफ से अडानी को दिया गया है। और अब अडानी हसदेव में जो कुछ कर रहा है, वह यह तकनीकी आड़़ ले सकता है कि खदान की लीज तो राजस्थान सरकार की है, वह तो वहां सिर्फ मजदूरी कर रहा है, सिर्फ पेड़ों पर कुल्हाड़ी चला रहा है, राजस्थान सरकार के लिए।
पहली नजर में अडानी पर जो तोहमतें लगी हैं वे यह हैं कि चार साल से अडानी भारत में रिश्वत देकर सोलर प्रोजेक्ट के लिए समझौते कर रहा था, और अमरीकी पूंजी बाजार में उसने इन सोलर प्रोजेक्ट का हवाला देकर, मोटी कमाई का भरोसा दिलाकर 24 हजार करोड़ रूपए जुटाए थे, जो पूरी तरह धोखाधड़ी, और जालसाजी से किया गया काम बताया जा रहा है। अमरीकी न्याय विभाग ने अदालत में कहा है कि पूंजी बाजार में अडानी ने अपने खिलाफ चल रही जांच और कानूनी कार्रवाई को पूरी तरह से छुपा लिया था, और एक झूठी तस्वीर पेश करके इतना पैसा इकट्ठा किया। अमरीकी जांच एजेंसी एफबीआई ने गौतम अडानी के भतीजे सागर अडानी की जांच में यह पाया कि अमरीकी निवेशकों और वित्तीय संस्थानों को झूठी जानकारी दी गई। इस जांच में अडानी के इलेक्ट्रॉनिक उपकरण भी जब्त किए जा चुके थे। 2020 से 2023 के बीच इन सभी आरोपियों के बीच घूसखोरी की चर्चा वाले ई-मेल आए-गए, और इन लोगों ने मिलकर भी इस पर चर्चा की। जांच एजेंसी ने अदालत को बताया है कि गौतम अडानी और उनके बड़े अधिकारियों ने 2022 में दिल्ली में घूस की साजिश रचने के लिए बैठक भी की थी।
लेकिन अमरीका में जांच एजेंसियों ने, और वहां के पूंजी बाजार के नियामक आयोग ने अडानी को जिस धोखाधड़ी और जालसाजी का आरोपी ठहराया है, वह बड़ा गंभीर मामला है। अमरीका का कानून वहां की सरकार को यह अधिकार और जिम्मेदारी देता है कि वहां कारोबार करने वाली कंपनी अगर दुनिया के किसी भी देश में रिश्वत देती है, तो उस पर अमरीका में मुकदमा चलाया जा सकता है। यह बड़ा अजीब नौबत है कि भारत में केन्द्र सरकार और आधा दर्जन राज्य सरकारों के लोगों को रिश्वत देने की तोहमत लगी है, उसके सुबूत अदालत में पेश कर दिए गए हैं, अमरीका में मुकदमा चल रहा है, वहां गिरफ्तारी वारंट निकला है, लेकिन भारत में देश या किसी प्रदेश की सरकारों के माथों पर कोई बल नहीं पड़ा है। अमरीका का यह मामला अडानी के लिए इसलिए खतरनाक है कि जिन धाराओं में खुलासे से सुबूत पेश किए गए हैं, उनमें अडानी चाचा-भतीजे के अलावा उनकी कंपनी के आधा दर्जन और लोगों को पांच साल तक की सजा मुमकिन है। इसके साथ-साथ यह भी है कि भारत और अमरीका के बीच प्रत्यर्पण संधि की नौबत और जरूरत उस वक्त आ सकती है जब इन लोगों को भारत में रहते हुए ही अमरीका में सजा हो जाए। कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि भारत सरकार ने अपनी पूरी ताकत लगाकर अमरीकी राष्ट्रपति के एक विशेषाधिकार का अनुरोध किया है जिसके तहत वे किसी भी मुजरिम की सजा माफ कर सकते हैं। अब सवाल यह उठता है कि क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जाते हुए अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन से उनके बचे हुए हफ्तों में ऐसी कोई अपील कर सकते हैं, और क्या अमरीकी कानून में किसी मुकदमे में मुजरिम साबित होने के पहले भी राष्ट्रपति माफी दे सकते हैं? और क्या अगले राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप अपने कार्यकाल में भारत सरकार की ऐसी किसी संभावित अपील पर भारत से बहुत बड़ा मोलभाव किए बिना ऐसी कोई माफी दे सकते हैं? लेकिन ये तमाम बातें आगे की हैं, फिलहाल तो ऐसा लगता है कि अडानी भारत में रहकर अमरीका में दिग्गज वकीलों के मार्फत अदालती मुकदमा लड़ेंगे।
भारत में राहुल गांधी पिछले कई बरस से अडानी और मोदी के रिश्तों को लेकर असाधारण स्तर के हमलावर बने हुए हैं। अब कांग्रेस पार्टी ने इस पर अडानी की गिरफ्तारी भी मांगी है, और संयुक्त संसदीय समिति की जांच भी। यह केन्द्र सरकार से इतने करीबी रिश्तों वाली, देश के इतने अधिक राज्यों में कारोबार करने वाली, और ऐसी दानवाकार कंपनी है, कि इसकी और कोई मिसाल नहीं हो सकती थी। यह तो अच्छा है कि यह मामला अमरीकी जांच एजेंसियां जांच रही हैं, और अमरीकी अदालत में यह चल रहा है। क्योंकि भारत में ऐसा कुछ भी मुमकिन नहीं था। देखना यह है कि अमरीका में पहली नजर में इस कंपनी के किए हुए जो जुर्म सरीखे काम दिख रहे हैं, वे अगर वहां जुर्म साबित होते हैं, तो फिर अमरीकी एजेंसियों के जुटाए गए सुबूतों पर भारत सरकार, और इसकी प्रदेश सरकारें क्या करेंगी? हमारा तो यह मानना है कि भारत सरकार को तुरंत ही अमरीका सरकार को लिखकर इस मामले के अधिक से अधिक सुबूत मांगने चाहिए क्योंकि भारत सरकार ने संविधान की शपथ ली है, और अगर उसकी जानकारी में यह बात आ रही है कि भारत की किसी कंपनी ने भारत की सरकारों को 22 सौ करोड़ रूपए रिश्वत दी है, तो मोदी सरकार को तुरंत ही इस पर जांच करनी ही चाहिए, संविधान की शपथ सरकार पर यह जिम्मेदारी डालती है कि वह इसे अनदेखा न करे। अडानी का अमरीकी अदालत में जो होना है सो हो, लेकिन भारत ने अगर अमरीका से तुरंत सुबूत नहीं मांगे, और उन सुबूतों पर इस देश में अगर कोई कानूनी कार्रवाई बनती है, उसे शुरू नहीं किया, तो भारत सरकार खुद शक के बादलों तले रहेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिमाचल हाईकोर्ट से एक ऐसा फैसला निकलकर आया है जिसे पहली नजर में कोई सरकार के कामकाज में दखल करार दे सकते हैं, लेकिन यह पूरे देश पर लागू होने वाला मामला दिखता है। वहां हाईकोर्ट ने राज्य के पर्यटन विकास निगम के लगातार घाटा दे रहे 18 होटलों को बंद करने का फैसला दिया है। उन्होंने इसके लिए 25 नवंबर की तारीख दे दी है, और कहा है कि निगम के एमडी इसके लिए व्यक्तिगत रूप से जवाबदेह रहेंगे। हालांकि राज्य सरकार की तरफ से मुख्यमंत्री ने कहा है कि वे इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगे, लेकिन जज की जुबान में, इन सफेद हाथियों, के घाटे को सरकार कैसे निपटाएगी इस बारे में कुछ नहीं कहा गया है। सरकारी वकील ने कहा है कि यह फैसला बड़ा रूटीन है, और इसकी खबर इसलिए बन रही है क्योंकि अदालत ने इन होटलों की नीलामी का जिक्र किया है। ये तमाम होटलें बड़ी खास जगहों पर बनाई गई हैं, फिर भी घाटे में चल रही हैं। अदालत ने कहा कि इन सफेद हाथियों के रखरखाव पर जनता का पैसा बर्बाद नहीं करना चाहिए।
अब सार्वजनिक संपत्तियों के निजीकरण का मामला हमेशा से विवादों में घिरा हुआ रहा है। आज मोदी सरकार पूरे देश में अधिक से अधिक सार्वजनिक उपक्रमों को बेचते चल रही है। इनमें एयर इंडिया सरीखे पुराने संस्थान भी हैं जो हजारों करोड़ के घाटे में चल रहे थे, और जिनका घाटा सरकार पूरा करते चल रही थी। अभी जब टाटा ने इसे खरीदा तो एयर इंडिया पर 61 हजार करोड़ रूपए की देनदारी थी, और उसे मोदी सरकार ने ही चुकता किया। दिलचस्प बात यह है कि टाटा की ही 1932 में शुरू की हुई एयर इंडिया के 49 फीसदी शेयर भारत सरकार ने आजादी के तुरंत बाद 1948 में ले लिए थे, और 1953 में एक कानून बनाकर और भी शेयर ले लिए। बाद में यह पूरी तरह से सरकारी एयरलाईंस हो गई, और घाटे में डूबती चली गई। जब देश में दूसरी निजी एयरलाईंस को इजाजत दी गई, तो एयर इंडिया का भविष्य खत्म हो गया। अब मोदी सरकार ने इसे बेचा तो एक बार फिर टाटा इसे लेकर घाटे से उबारने की कोशिश कर रहा है।
अब हम हिमाचल के फैसले के आसपास की दूसरी मिसाल देखें तो छत्तीसगढ़ में भी राज्य बनने के बाद प्रदेश भर में कई टूरिस्ट मोटल बनाए गए, और वे तकरीबन सारे के सारे घाटे में चलते रहे। कुछ जगहों पर तो हालत यह रही कि नेताओं ने अपने विधानसभा क्षेत्र में कुछ काम दिखाने के लिए ऐसी जगहों पर ये मोटल बनवाए जहां पर्यटकों के जाने का कोई काम ही नहीं था। नतीजा यह निकला कि उन्हें चलाने के लिए जिस तरह के किराए पर देना पड़ा, वैसा किराया देकर निर्माण कंपनियों ने ऐसे मोटल को अपना गोदाम बना लिया, और वहां मजदूर ठहरा लिए। सरकारी कारोबार की ऐसी बदहाली देखकर लगता है कि सरकार को कारोबार करना नहीं चाहिए, बल्कि कारोबार पर नियंत्रण करना चाहिए। डॉ.रमन सिंह के मुख्यमंत्री रहते हुए केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह छत्तीसगढ़ आए थे, और मुख्यमंत्री निवास पर संपादकों के साथ खाने पर उनकी चर्चा हुई थी। उन्होंने छत्तीसगढ़ के पहले के एक सरकारी उपक्रम बालको के बारे में पूछे गए सवाल पर कहा था कि उनकी पार्टी घाटा झेलकर सरकारी कारोबार चलाना नहीं चाहती, इसलिए अटलजी के प्रधानमंत्री रहते हुए बालको का विनिवेश किया गया था। उन्होंने बालको के बिक्री के दिन के शेयर का दाम और इस चर्चा के दिन का शेयर का दाम बताया था, और कहा था कि सरकार ने करीब आधी हिस्सेदारी बेचकर मोटी कमाई पाना शुरू कर दिया है, और बालको की कमाई पर सरकार को टैक्स भी मिलता है। उन्होंने गुजरात के एक-एक बस स्टैंड पर निजी भागीदारी से बनाए गए बड़े-बड़े मॉल का जिक्र भी किया था कि जहां दूसरे प्रदेशों में बस स्टैंड गंदी जगह रहती है, गुजरात के बस स्टैंड पर लोग पिकनिक मनाने जाते हैं।
अब निजीकरण के साथ जुड़ी हुई कई दूसरी बातों को भी समझना जरूरी है कि सरकारी या सार्वजनिक संपत्ति निजी कारोबारियों को किस दाम पर, और किन शर्तों पर दी जा रही है। खानदानी सोने के गहने कहीं चांदी के दाम पर तो चुनिंदा कारोबारियों को नहीं बेच दिए जा रहे हैं? अगर पूरी पारदर्शिता के साथ सार्वजनिक उपक्रम बेचे जाते हैं, और निजी कारोबारी उन्हें बेहतर तरीके से चलाते हैं, सरकार को हिस्सेदारी या टैक्स भी मिलता है, तो निजीकरण को महज सरकारी नौकरियों को बनाए रखने के लिए रोकना ठीक नहीं है। कई कारोबार ऐसे रहते हैं जो सरकारी अमले के मिजाज से ही मेल नहीं खाते, जिनमें होटल या रेस्त्रां चलाना भी है। और जहां कहीं सरकारी संस्थान जनता के पैसों से घाटा पूरा कर रहे हैं, उन्हें लीज पर देने, या बेच देने के बारे में इसलिए सोचना चाहिए कि सरकारी नालायकी का दाम करदाता क्यों चुकाएं? एयर इंडिया के मामले में देश ने यह देखा हुआ है कि किस तरह बिना तली वाले एक अंधेरे कुएं में सरकार अपनी मदद डालती जा रही थी, और घाटा कभी पटने का नाम ही नहीं ले रहा था।
दूसरी तरफ कुछ ऐसे मामले हैं जहां पर सरकार की मौजूदगी हट जाने से बाजार बुरी तरह शोषण पर उतर जाता है। जिन राज्यों में सरकारी बसें बंद हो गई हैं, वहां पर निजी बसें सिर्फ प्रमुख रास्तों पर चलती हैं, और मनमानी वसूली करती हैं। छत्तीसगढ़ जैसे कुछ राज्य हैं जहां अब फिर से सरकारी बसें शुरू करने की मांग उठ रही है। भारत में मोबाइल-इंटरनेट कंपनियों ने शुरूआती रियायत के बाद जिस अंदाज में ग्राहकों से उगाही चालू की, उससे भी अब दसियों लाख ग्राहक सरकारी कंपनी बीएसएनएल की तरफ लौट रहे हैं। इसलिए सरकारी धंधों का सौ फीसदी निजीकरण भी ठीक नहीं है, और हर कारोबार को देख-समझकर चलाना, बेचना, या बंद करना चाहिए। हम हिमाचल हाईकोर्ट के फैसले को आज की इस चर्चा की शुरूआत के लिए एक मुद्दा मानकर आगे बढ़े हैं, लेकिन हर प्रदेश को अपने सरकारी कारोबार के बारे में सोचना-विचारना चाहिए कि वे घाटे में न चलें, और उनकी फायदे की संभावनाएं अछूती न रह जाएं। आज अमरीका में अगले राष्ट्रपति बनने जा रहे डोनल्ड ट्रम्प ने जिस तरह सरकारी अमले की नालायकी और निकम्मेपन को घटाने के लिए एक छंटनीमास्टर कारोबारी एलन मस्क को जिम्मा दिया है, उसी तरह भारत की देश-प्रदेश की सरकारों को अपनी-अपनी चर्बी छांटने का काम करना चाहिए।
अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अपने कार्यकाल के बचे कुल दो महीनों में एक बड़ा रणनीतिक फैसला लिया, और यूक्रेन को इस बात की अनुमति दी कि वह अमरीका की दी हुई मिसाइलों से रूस के भीतर हमले कर सकता है। लंबी दूरी वाली इन मिसाइलों का इस्तेमाल रूस के खिलाफ शुरू भी हो गया है, और रूस में राष्ट्रपति पुतिन से परे के कुछ सत्तारूढ़ नेताओं ने इसे तीसरे विश्व युद्ध की तरफ एक कदम बढ़ाना करार दिया है। अब तक अमरीका और योरप के देश यूक्रेन को जो फौजी मदद कर रहे हैं, उनमें हथियारों के इस्तेमाल पर उन्होंने कुछ किस्म के प्रतिबंध भी लगाए हुए हैं ताकि रूस उसे उस पर हमला न मान सके, और नाटो देशों से मिले हथियार मोटेतौर पर यूक्रेन अपनी ही खोई हुई जमीन पर काबिज रूसी फौजों पर इस्तेमाल कर पा रहा था। रूसी राष्ट्रपति वोलोदीमीर जेलेंस्की लगातार पश्चिम के देशों और नाटों सदस्यों पर लगे हुए थे कि उन्हें रूस की सरहद के भीतर हथियारों के इस्तेमाल की छूट मिले क्योंकि रूसी फौजी विमानतलों से यूक्रेन पर लगातार हमलावर विमान आते हैं। लेकिन फौजी तनाव न बढ़े यह सोचकर अब तक अमरीका और नाटो की तरफ से यूक्रेन को उनके दिए हथियारों के सीमित इस्तेमाल की ही शर्त लगाई हुई थी। अमरीकी राष्ट्रपति ने इस तस्वीर को एकदम से बदल दिया है।
इस तस्वीर के कई पहलू हैं। यूक्रेन और नाटो के पास आज से कुल 60 दिन है अमरीका के नए राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प के काम संभालने को। और ट्रम्प इस बात को दर्जनों बार बोल चुके हैं कि वे यूक्रेन की ऐसी मदद जारी नहीं रखने वाले हैं, और न ही वे नाटो के बाकी सदस्य देशों के मुकाबले अमरीका का अधिक फौजी खर्च करने वाले हैं। ट्रम्प ने यह भी कई बार कहा है कि वे यूक्रेन की जंग एक दिन में खत्म करवा देंगे। अब एक दिन में जंग को खत्म करने का काम या तो रूसी राष्ट्रपति कर सकते हैं, या यूक्रेन के राष्ट्रपति, दूसरे पक्ष की शर्तों को मानकर। इसके अलावा ऐसा कोई जाहिर जरिया नहीं दिखता कि अमरीकी राष्ट्रपति इसे एक दिन में रूकवा सकें। फिर भी हम इसे महज बातचीत का एक अंदाज मानते हैं कि ट्रम्प ने चुनाव अभियान के दौरान लापरवाही से इस तरह का बयान दिया होगा। लेकिन आज के अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन आखिरी हफ्तों में यह जो बहुत बड़ा फैसला कर गए हैं, उसके खतरों को भी समझने की जरूरत है। आज सुबह ही रूस के कुछ फौजी विश्लेषकों ने यह कहा है कि कल ही यूक्रेन ने अमरीकी इजाजत मिलते ही लंबी दूरी की मिसाइलों से रूस के भीतर हमला किया है, और इन अमरीकी मिसाइलों से ऐसा हमला अमरीकी मदद के बिना नहीं किया जा सकता था। इन विश्लेषकों का यह भी कहना है कि अमरीका एक किस्म से यूक्रेन की जंग में शामिल हो गया है, और अमरीकी फौजियों ने इस मिसाइल हमले में मदद भी की होगी, और अमरीकी उपग्रहों से मिली जानकारी भी इसमें इस्तेमाल हुई होगी। रूस ने अभी-अभी, यूक्रेन को मिली अमरीकी इजाजत के बाद, अपनी परमाणु नीति में यह बदलाव किया है कि अगर उसके साथ युद्ध में शामिल किसी देश की मदद अगर कोई परमाणु-हथियार शक्ति संपन्न देश करेगा, तो उसे रूस पर परमाणु शक्ति का सीधा हमला माना जाएगा, और ऐसे में रूस परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कर सकेगा। इस पर राष्ट्रपति पुतिन ने अभी दस्तखत किए हैं, और खुद नाटो के भीतर अमरीकी राष्ट्रपति के फैसले पर सवाल उठ रहे हैं। जर्मनी ने इस अमरीकी फैसले पर कहा है कि वे यूक्रेन को रूस के भीतर हमला करने वाली लंबी दूरी की मिसाइलें देने के हिमायती नहीं है क्योंकि इससे कोई समाधान नहीं होगा, बल्कि समस्या बढ़ेगी।
अब अमरीकी राष्ट्रपति के इस ताजा फैसले को इस हिसाब से भी समझने की जरूरत है कि अमरीका चाहे नाटो (नार्थ एटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन) का सदस्य है, और यूक्रेन को मदद देने में सबसे आगे है, लेकिन अगर कोई नौबत रूसी परमाणु हथियारों तक पहुंचती है, और तीसरे विश्व युद्ध का खतरा मंडराता है, तो अमरीका नाटो के अधिकतर यूरोपीय सदस्यों के बाहर के इक्का-दुक्का देशों में से है, और रूसी हमले की सीमा से दूर भी है। इसलिए तकरीबन तमाम यूरोपीय देशों वाले नाटो की अपनी हिफाजत अमरीका की हिफाजत से कुछ अलग भी है। और अमरीका में यह अपने आपमें एक बहुत बड़े फेरबदल का दौर है जिसमें कुछ हफ्तों के भीतर देश की विदेश नीति, और फौजी रणनीति दोनों में जमीन आसमान का फर्क आ सकता है। इसलिए आज बिदाई की बेला में पहुंचे हुए राष्ट्रपति बाइडन के दूरगामी नतीजों वाले ऐसे फैसले को लेकर योरप में बेचैनी बढ़ रही है। खुद ट्रम्प के सलाहकार और सहयोगी इस फैसले के खिलाफ बोल रहे हैं, और ऐसा लगता है कि काम संभालते ही ट्रम्प पहला फैसला यूक्रेन से हाथ खींचने का ले सकते हैं। और शायद यही एक वजह है कि मौजूदा राष्ट्रपति बाइडन इन दो महीनों में रूस के खिलाफ यूक्रेन को एक बेहतर और मजबूत नौबत में पहुंचा देना चाहते हैं।
यह बात हर देश की अपनी लोकतांत्रिक और संसदीय परंपराओं पर निर्भर करती है कि जाती हुई सरकार कितने दूर तक के फैसले ले। हमारा अपना सोचना यह है कि जब अगली निर्वाचित सरकार अपनी नीति-रणनीति साफ कर चुकी है, तो उसे काम सौंपने के दो महीने पहले ऐसा फैसला लेना जायज नहीं है जिसका असर आने वाले बरसों तक रहेगा। रूसी राष्ट्रपति पुतिन ट्रम्प का कार्यकाल शुरू होने पर राहत की सांस लेंगे क्योंकि यूक्रेन को अमरीकी मदद तकरीबन बंद हो सकती है। उस हालत में रूसी फौजें यूक्रेन की जितनी जमीन पर कब्जा कर चुकी हैं, वह कब्जा जारी रख सकती हैं। शायद ऐसे ही कब्जे को अगले दो महीने में छुड़ाने के हिसाब से बाइडन यूक्रेन की मदद कर रहे हैं।
ट्रम्प के आते ही अमरीका के योरप के साथ रिश्ते एक बार फिर कसौटी पर चढ़ेंगे, और ट्रम्प की ‘अमेरिका फर्स्ट’ की नीति परवान चढ़ेगी। आज भी योरप के नेताओं में यह फिक्र चल ही रही है कि क्या अमरीका योरप में बने सामानों पर कोई टैरिफ लगा सकता है? जब योरप के देश अपने खुद के पेट पर लात पडऩे की आशंका से जूझ रहे हों, तो अमरीका के साथ उनके रिश्ते कैसे रहेंगे, और अमरीका की यूक्रेन-नीति का नाटो कितना समर्थन या विरोध कर सकेगा, ऐसी कई बातें अभी परेशानी और दुविधा खड़ी कर रही हैं। अमरीकी व्हाइट हाऊस में सत्ता का यह हस्तांतरण बिना हिंसा के तो होने जा रहा है, लेकिन नीतियों के भूचाल के बिना नहीं। आने वाले कुछ महीने जाती हुई सरकार के जायज या नाजायज दीर्घकालीन फैसलों को देखने के रहेंगे, और अगली सरकार की नीतियों, और उन पर अमल की रफ्तार दोनों को बारीकी से देखने के भी रहेंगे। आगे-आगे देखें, होता है क्या।
देश के बहुत से राज्यों में भर्ती घोटाला सामने आते रहता है। कभी किसी राज्य में, तो कभी किसी और में। अब ताजा मामला छत्तीसगढ़ के बहुचर्चित पीएससी घोटाले का है जिसमें डिप्टी कलेक्टर से आईएएस बने, और फिर पिछली भूपेश बघेल सरकार के बनाए हुए पीएससी चेयरमैन को अब सीबीआई ने गिरफ्तार किया है। टामन सिंह सोनवानी ने अपने पूरे कुनबे को पीएससी के रास्ते राज्य शासन की सबसे बड़ी नौकरियों पर चुन लिया था, लेकिन बात यहीं तक सीमित नहीं थी। इससे आगे बढक़र सोनवानी ने प्रदेश के एक बड़े उद्योगपति एस.के.गोयल से भी अपने किसी एनजीओ के लिए सीएसआर मद से करीब आधा करोड़ ले लिया था, और एवज में गोयल के बेटा-बहू को भी डिप्टी कलेक्टर बना दिया था। सोनवानी के राज में पीएससी ने जिस बेशर्मी से उस वक्त की सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के नेताओं के कुनबों को नौकरी दी, और कुछ अफसरों के बच्चों को भी, वह देखने के बाद लगता है कि प्रदेश के लाखों बेरोजगार आखिर किस भरोसे और उम्मीद से पीएससी का इम्तिहान दे रहे थे, अगर उनके हक की कुर्सियों पर पूरी तरह भ्रष्टाचार से ही लोगों को छांटना था।
छत्तीसगढ़ को ऐसा लगता है कि अविभाजित मध्यप्रदेश से ही नौकरियों और दाखिलों में भ्रष्टाचार की परंपरा विरासत में मिली है। यहां राज्य बनने के बाद से ही पीएससी का घोटाला होते आ रहा है, और 20 बरस पुराने घोटाले पर भी हाईकोर्ट में सब कुछ साबित हो जाने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट में बरसों से कोई फैसला नहीं हुआ है, और शायद गलत चुने गए लोगों के रिटायर हो जाने, और हक खो बैठे बेरोजगारों के मर जाने के बाद अदालत में उनकी बारी आएगी। देश भर में दाखिला इम्तिहानों, और नौकरी के इस सिलसिले में भ्रष्टाचार पनपने की एक बड़ी वजह यह भी है कि पहले तो हर किस्म की सत्ता ऐसे कमाऊ जुर्म में शामिल हो जाती है, और फिर मुजरिमों को बचाने के लिए एक बार फिर नेता, अफसर, जज, कारोबारी सभी जुट जाते हैं, क्योंकि जब कद्दू कटा था, तो सबमें बंटा था। ऐसे देश-प्रदेश में होनहार और काबिल बेरोजगार की कोई गुंजाइश कहां बचती है? और जब कभी भी दाखिला या नौकरी का एक भ्रष्टाचार सामने आता है, गरीब प्रतिभाशाली नौजवानों का हौसला पस्त हो जाता है। उनके सामने उम्मीद की वह चर्चित और तथाकथित किरण नहीं रह जाती जिसे गिनाते हुए बहुत सारी सूक्तियां बनती हैं।
सीबीआई ने इस मामले की गहरी जांच करके जुर्म की पहेली के टुकड़ों को जोडक़र तस्वीर बना ली है, और इसके पहले का कभी का याद नहीं पड़ता कि रिश्वत देने वाले इतने बड़े कारोबारी को भी इस तरह गिरफ्तार किया गया हो। यह बात भी हैरान करती है कि करोड़पति कारखानेदार भी अगर अपने बेटे-बहू को डिप्टी कलेक्टर बनवाने पर उतारू हैं, और उसके लिए सीएसआर मद से एक किस्म की रिश्वत देते हैं, तो इन ओहदों से आगे उन्हें किस तरह कमाई की उम्मीद है? अब अगर 25-50 लाख रूपए लेकर एक-एक डिप्टी कलेक्टर बनाए जा रहे हैं, तो गरीब बेरोजगारों के होनहार रहने पर भी उनके मां-बाप किडनी बेचकर भी ऐसी रकम नहीं जुटा सकते। कुछ प्रदेशों में दाखिला इम्तिहानों के पर्चे आऊट करने के पेशेवर गिरोह साल भर जुटे रहते हैं, और अभी कुछ जगहों पर ऐसा करने वालों के लिए उम्रकैद का भी प्रावधान किया गया है। छत्तीसगढ़ को भी यह सोचना चाहिए कि दाखिले और नौकरी के इम्तिहानों में भ्रष्टाचार साबित हो जाने पर सजा कितनी कड़ी होनी चाहिए, और रिश्वत लेने वालों के साथ-साथ देने वालों के लिए भी कड़ी कैद का इंतजाम किया जाना चाहिए। देश के कानून से परे प्रदेशों को अपने स्तर पर नए कानून बनाने की छूट भी है, और छत्तीसगढ़ को इस पर सोचना चाहिए।
प्रदेश में पिछली सरकार चलाने वाली कांग्रेस पार्टी को इस बात पर भी जवाब देना चाहिए कि उसके नेताओं के बच्चे राज्य सेवा के सबसे बड़े ओहदों पर किस तरह पहुंच गए। यह नहीं हो सकता कि कांग्रेस सरकार ऐसे परले दर्जे के मुजरिमों को संवैधानिक कुर्सियों पर बिठाए, और वहां का ऐसा व्यापक संगठित भ्रष्टाचार सत्तारूढ़ पार्टी की भागीदारी से चलता रहे, और अब तमाम सुबूत सामने आने के बाद भी कांग्रेस सन्यास भाव से बैठी रहे। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी दसियों लाख बेरोजगार नौजवानों और छात्रों के प्रति जवाबदेह है कि उसके मनोनीत लोगों ने, उसकी निगरानी में, उसकी पार्टी के लोगों को कुछ ओहदे देकर बाकी जुर्म के लिए प्रोटेक्शन कैसे खरीद लिया था। जो लोग भी गरीब और होनहार लोगों का हक मारकर बेइंसाफी भरा ऐसा भ्रष्टाचार करते हैं, उन्हें उम्रकैद भी मिलनी चाहिए, और उनके कुनबे की तमाम अनुपातहीन सम्पत्ति जब्त करके कुर्क करनी चाहिए, और उससे लाइब्रेरी बना देनी चाहिए।
आज बीती पीढ़ी के बहुत से लोगों को नई टेक्नॉलॉजी की बात यह समझ ही नहीं आ रही है कि अब मोबाइल फोन, कम्प्यूटर, फोन की लोकेशन, बैंकों के लेन-देन की बातें इतनी जगह दर्ज होती हैं कि जुर्म का छूट पाना बड़ा मुश्किल रहता है। फिर एक हैरानी इस बात की भी होती है कि जिन लोगों को लाखों रूपए महीने की सरकारी नौकरी मिलती है, तमाम सहूलियतों वाला संवैधानिक ओहदा मिलता है, जिनकी मोटी पेंशन का इंतजाम रहता है, उनकी लार टपकना भी बंद क्यों नहीं होता। देश की अदालतों को भी इस बारे में सोचना चाहिए कि दाखिला और नौकरी के मामलों में फैसला इतनी देर से न आए कि वह इंसाफ ही न रह जाए। छत्तीसगढ़ के एक पुराने पीएससी घोटाले में 20 बरस बाद भी देश की आखिरी अदालत का फैसला न आना यह बताता है कि भ्रष्टाचार को लंबे वक्त तक बचाकर रखना भी मुमकिन है, और भ्रष्टाचार के शिकार लोगों को इंसाफ, हो सकता है कि उनकी जिंदगी रहने तक न मिल पाए। यह इंसाफ भी कोई इंसाफ है लल्लू?
हिन्दुस्तान में शादियों पर खर्च सामाजिक प्रतिष्ठा पाने का एक बड़ा जरिया रहता है। देश के एक सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी ने अभी कुछ महीने पहले अपने बेटे की शादी में कई देशों और कई प्रदेशों में बिखरा हुआ ऐसा समारोह किया कि दुनिया देखती रह गई। दुनिया के सबसे मशहूर गायकों को बुलाने के लिए असंभव सी लगती रकम दी गई, और सौ-दो सौ करोड़ रूपए तो दो-तीन गायकों पर ही खर्च होने की खबरें छपी थीं। यह भी छपा था कि इटली के जिस शहर में इस शादी का एक अंतरराष्ट्रीय जलसा किया गया था, वहां पर दिन भर शहर का बाजार सिर्फ इन्हीं मेहमानों के लिए खुला था, और उस शहर के बाशिंदों का, पर्यटकों का उस दिन सडक़ों पर निकलना बंद था। किस तरह की सोच ऐसा मजा ले सकती है, यह हमारी छोटी सी समझ से परे है। खैर, फिलहाल आज का मुद्दा यह है कि हिन्दुस्तान में अलग-अलग कई समाजों के लोग अपने समाज के गरीब और मध्यमवर्गीय लोगों की फिक्र करते हुए फिजूलखर्ची के खिलाफ सामाजिक प्रतिबंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं। कल एक अखबार में खबर थी कि किस तरह भारत में शादी के पहले के समारोहों और रिवाजों पर होने वाले खर्च शादी के मुख्य समारोह के खर्च से अधिक हो चुके हैं। आज की एक खबर है कि जैन समाज के कुछ लोग छत्तीसगढ़ में बिना दिखावे के, सादगी की शादी के लिए नियम-कायदे बना रहे हैं, जिससे फिजूलखर्ची रूकेगी। हालांकि अलग-अलग समाज में सादगी के अलग-अलग पैमाने रहते हैं, और जैन समाज में मुख्य भोज में अधिकतम 35 व्यंजन रखने की सीमा रखी गई है, जो कि मध्यमवर्गीय लोगों की पहुंच से दुगुनी तो होगी ही। ऐसा लगता है कि आज इस समाज में इससे भी अधिक संख्या में खानपान रखने का माहौल होगा। लेकिन बहुत सी जातियों में, बहुत से शहरों में सुधार की बात सोची जा रही है, और हो सकता है कि कम या अधिक हद तक इस पर अमल भी हो रहा हो।
शादियों पर फिजूलखर्ची इस हिसाब हिंसक है कि किसी भी समाज में संपन्न तबके के समारोहों और रिवाजों की नकल विपन्न तबके पर अपने आप लद जाती है। हर किसी को अपने से अधिक संपन्न लोगों की बराबरी का खर्च करना पड़ता है, वरना समाज उन्हें नीची नजरों से देखता है। यह देखादेखी परिवार पर बहुत भारी पड़ती है, और अगर परिवार में बेटियां अधिक हों तो मां-बाप की पूरी जिंदगी इन्हीं की शादी के इंतजाम में झुलस जाती है। हालत यह रहती है कि लडक़ी की शादी पर होने वाले खर्च को उन्हें संपत्ति में हिस्सा देने के बराबर मान लिया जाता है, जबकि इस खर्च के बाद इससे उस लडक़ी की न आत्मनिर्भरता बढ़ती है, न उसे कोई बचत होती है। बहुत से परिवारों में लड़कियों को इसी वजह से पराया सामान मान लिया जाता है, और उनकी पढ़ाई या उनके इलाज में भी कई बार कटौती की जाती है। मध्यमवर्गीय परिवारों पर उच्च वर्ग की बराबरी करने का जो दबाव रहता है, उसके चलते हुए परिवार कर्ज लेकर भी महंगी शादी करते हैं, और इस खर्च को जुटाने के लिए जिंदगी के दूसरे कई जरूरी काम छोड़ देते हैं। इन्हीं सब वजहों से हर समाज में एक सुधार आना ही चाहिए जो कि पूरी तरह से गैरजरूरी, और अनुत्पादक फिजूलखर्ची को घटा सके, और समाज के गरीबों को भी सिर उठाकर जीने का मौका दे सके।
जहां तक देश की अर्थव्यवस्था की बात है, तो उसमें शादियों पर होने वाली फिजूलखर्ची उतनी फिजूल भी नहीं रहती क्योंकि उससे सैकड़ों या हजारों लोगों का रोजगार चलता है। शादियों में किस-किस तरह के कारोबार, और काम करने वाले लोगों की कमाई होती है, वह फेहरिस्त सबको मालूम है, इसलिए हम उसे यहां गिनाना नहीं चाहते। लेकिन जिस परिवार पर शादी का बोझ पड़ता है, उस परिवार की दिक्कतों को गिनाना जरूर चाहते हैं कि उनके गहने बिक जाते हैं, उन पर कर्ज चढ़ जाता है, और परिवार में मुसीबत के वक्त के लिए रखी गई थोड़ी-बहुत बचत भी पूरी तरह खत्म हो जाती है। जिंदगी में शादियों पर खर्च का अनुपातहीन तरीके से इतना अधिक होना किसी भी जाति के भीतर एक हिंसक दिखावे के अलावा कुछ नहीं है, जिसकी सबसे बुरी मार कमजोर लोगों पर पड़ती है। इसलिए कुछ लोगों के कारोबार पर पडऩे वाले तात्कालिक असर को अनदेखा करके भी एक समाज सुधार की बड़ी जरूरत है ताकि लोग अपने पैसों का उत्पादक इस्तेमाल करें, और कर्ज में डूबने से बचें।
इस मामले में सरकार भी एक मदद कर सकती है। हर शहर में चारों तरफ सरकार ऐसे सामूहिक विवाह केन्द्र बना सकती है जो कि सिर्फ सामूहिक विवाहों के लिए मुफ्त दिए जाएं। आज बहुत से प्रदेशों में राज्य सरकारें भी सरकारी अनुदान से सामूहिक विवाह करवाती हैं, लेकिन इनसे परे निजी इंतजाम से होने वाले विवाह इनसे सैकड़ों गुना अधिक हैं। सरकार को ऐसे बड़े-बड़े सामूहिक विवाह केन्द्र बनाने चाहिए जिन्हें अलग-अलग समाजों के लोग ले सकें, और वहां पर अपने समाज के सामूहिक विवाह बहुत कम खर्च में करवा सकें। देश में कई ऐसी भी मिसालें हैं जिनमें बहुत बड़े-बड़े धन्नासेठ लोगों ने अपने बच्चों की शादियां ऐसे ही सामूहिक विवाहों में करवाईं जिससे समाज के बाकी लोग भी उत्साह से अपने बच्चों को लेकर इनमें शामिल हुए। जब किसी समाज के संपन्न लोग कोई मिसाल कायम करते हैं तो वह उनसे नीचे की संपन्नता वाले लोगों के काम आती है। अब अगर मुकेश अंबानी ने अपने बेटे की शादी के साथ मुम्बई या गुजरात में दस हजार और शादियों का जिम्मा उठाकर सबकी एक बराबर, एक साथ शादी करवाई होती, तो वह एक अलग मिसाल कायम हो सकती थी। लेकिन लोकतंत्र में हर किसी को अपनी मर्जी से फिजूलखर्ची की आजादी है, और समाज प्रमुख और संपन्न लोगों से उम्मीद करने के अलावा क्या कर सकता है।
लगे हाथों यह भी देखने की जरूरत है कि सरकार शादियों या दूसरे निजी जलसों की फिजूलखर्ची किस तरह रोक सकती है। 2017 की एक रिपोर्ट हमारे सामने है जिसमें सांसद रंजीत रंजन ने संसद में एक निजी विधेयक पेश किया था जिसमें शादियों पर अधिकतम पांच लाख खर्च की सीमा तय करने की बात थी, और कहा गया था कि अगर इस सीमा से अधिक पैसे खर्च किए जाते हैं, तो उस पर 10 फीसदी टैक्स लिया जाए, जो कि गरीब लड़कियों की शादियों पर खर्च किया जाए। उनका कहना था कि वे खुद 6 बहनों में से एक हैं, और उन्होंंने अपने माता-पिता के चेहरों पर परेशानी देखी हुई है। कहने के लिए अलग-अलग कुछ राज्यों में, और केन्द्र सरकार की तरफ से भी खाने की बर्बादी रोकने के लिए अतिथि नियंत्रण कानून बने हुए हैं, लेकिन इस पर अमल तो कहीं भी होते नहीं दिखता है। एक मामूली सा सर्च पहले ही पन्ने पर बता देता है कि किस तरह उत्तरप्रदेश, असम, दिल्ली, मेघालय, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, गुजरात जैसे राज्यों की एक अंतहीन लिस्ट है जहां नाम के लिए ऐसा कानून लागू है, लेकिन इस पर अमल तो कहीं भी होते नहीं दिखता है। सामाजिक सुधार के लिए सरकारी कानून, उन पर अमल की जितनी जरूरत है, उतनी ही जरूरत हर समाज के भीतर से सुधार आने की भी है। इस सुधार की एक अच्छी मिसाल भिलाई के एक उद्योगपति परिवार के भीतर की है जहां एक वक्त बुजुर्ग पति-पत्नी ने संकल्प लिया हुआ था कि वे एक सीमा से अधिक मेहमानों वाली दावत में नहीं जाएंगे, और इसी संकल्प के चलते वे अपने पोते की शादी की दावत में भी नहीं गए थे। समाज में ऐसा तय करने वाले लोग भी बढ़ें, तो उससे भी सुधार आ सकता है।
गुजरात की खबर है कि दो साल पहले वहां मोरबी में हुए एक पुल हादसे में 135 मौतों के मुख्य आरोपी, उद्योगपति जयसुख पटेल को जमानत मिलने पर उनके समाज ने अभी लड्डुओं से तौला, और उन्हें हजारों लोगों में बांटा गया। पुल हादसे में मारे गए लोगों के परिवारों का कहना है कि यह उनके जख्मों पर नमक रगडऩे जैसा है। लड्डुओं से तौलने के लिए एक भव्य समारोह किया गया था जिसमें खूब साज-सज्जा की गई थी। यह पहला मौका नहीं है कि किसी जुर्म से घिरे हुए व्यक्ति का सम्मान किया गया हो। इसी गुजरात में जब बिल्किस बानो के सामूहिक बलात्कार, और उसके परिवार के कत्ल के 11 मुजरिमों को सजा के बीच माफी देकर छोड़ा गया, तो उनका भी माला पहनाकर स्वागत किया गया था। बाद में गुजरात और केन्द्र सरकार की मंजूरी से हुई इस रिहाई का विरोध हुआ, और आखिर में जाकर सुप्रीम कोर्ट ने इसे नाजायज और असंवैधानिक पाया, और इन तमाम 11 लोगों को फिर से जेल भेजा गया। इस बीच इनका स्वागत, अभिनंदन चलते रहा। ऐसे और भी मामले हैं जिनमें बलात्कार या साम्प्रदायिक कत्ल के आरोपियों के छूटने पर उनका सार्वजनिक स्वागत-अभिनंदन हुआ। एक मामले में तो एक मुस्लिम की भीड़त्या के 11 मुजरिमों को जमानत मिली तो वे केन्द्रीय मंत्री जयंत सिन्हा के बंगले पर पहुंचे और वहां जयंत ने मालाएं पहनाकर उनका स्वागत किया। पूरे देश में जगह-जगह साम्प्रदायिक हत्याओं, और बलात्कार के आरोपियों का उसी तरह औपचारिक और सार्वजनिक अभिनंदन होता है जैसा कि नाथूराम गोडसे का होता है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या भारत में सार्वजनिक जीवन के मूल्यों का अंत पूरी तरह से हो चुका है? क्या साम्प्रदायिकता ने, साम्प्रदायिक नफरत ने हजारों बरस के सभ्यता के विकास को मटियामेट कर दिया है? क्या जातिवादी या साम्प्रदायिक नफरत हर किस्म की हिंसा और जुर्म को जायज ठहराने लगी है? और इसका अंत क्या होगा? एक वक्त तो ऐसा लगता था कि किसी परिवार के लोग रेप या कत्ल जैसे जुर्म में शामिल साबित हो जाएंगे, तो उस परिवार से लोग रोटी-बेटी का रिश्ता रखने से कतराएंगे। लेकिन आज तो हालत यह है कि गाय बचाने के नाम पर लोग अगर दूसरे धर्म के लोगों को, या खुद अपने ही धर्म की नीची समझी जाने वाली जाति के लोगों को मार डालते हैं, तो भी उनका गौसेवक के रूप में सार्वजनिक सम्मान होता है। और इन्हीं गौसेवकों की वैचारिक-बिरादरी जिस सावरकर को अपना आदर्श मानती है, उस सावरकर ने गाय को महज एक जानवर करार दिया था, और गाय की उत्पादकता खत्म हो जाने के बाद उसे खा जाने की वकालत की थी। लेकिन आज जाति, धर्म, और गौप्रेम, ये तमाम बातें चुनावी राजनीति का सबसे धारदार हथियार बन चुकी हैं, और इस नाते इनका इस्तेमाल बढ़ते चल रहा है, और इन मुद्दों से जुड़े हुए फतवे बंटेंगे तो कटेंगे की शक्ल में हवा में तैर रहे हैं, यूनियन कार्बाइड के कारखाने से निकली जहरीली मिक गैस से भी अधिक जहरीले बनकर।
ऐसा लगता है कि न सिर्फ हिन्दुस्तानी लोगों, बल्कि अमरीका, और योरप के कई अधिक सभ्य, अधिक लोकतांत्रिक दिखते देशों में भी सभ्यता की जड़ों के आसपास से मिट्टी तेजी से हटती जा रही है, और कहीं इटली, तो कहीं फ्रांस, और कहीं ट्रम्प के अमरीका में अलोकतांत्रिक, साम्प्रदायिक, नस्लभेदी, और कट्टरपंथी ताकतें कामयाबी पा रही हैं। जाहिर तौर पर जो लोग एक विकसित सभ्यता के दुश्मन हैं, उनका बोलबाला कई जगहों पर दिख रहा है। ऐसा शायद इसलिए भी हो रहा है कि विकसित सभ्यता के मुताबिक काम करना ताकतवर तबके को कई चीजों का याद करने, और अधिकार बांटने की जिम्मेदारी देता है, और कमजोर तबकों का साथ देने को मजबूर भी करता है। इतना त्याग शायद बहुत से लोगों को अब मंजूर नहीं है। खुद हिन्दुस्तान के भीतर हम देखते हैं कि जाति-आधारित आरक्षण का भी लोग विरोध करते हैं, किसी अल्पसंख्यक को किसी योजना के तहत प्राथमिकता या फायदा मिलने का सिलसिला तो खत्म ही कर दिया गया है, और गरीबों को मिलने वाली कुछ मामूली रियायतों, या राहतों को भी लोग नाजायज मानने लगे हैं। सभ्यता का हजारों बरस का विकास लोगों में सामाजिक समानता, और सामाजिक न्याय की विकसित हो चुकी भावना को भी कायम नहीं रहने दे रहा है। ऐसा लग रहा है कि हजारों बरसों में जो सीखा था वह कुछ दशकों में गंवा दिया गया है।
एक दूसरी बात भी हैरान करती है कि चुनिंदा किस्म के साम्प्रदायिक और जातिवादी मुजरिमों का सम्मान करना उनकी बिरादरी के कुछ नेताओं के लिए तो काम का हो सकता है कि उससे उस धर्म या जाति का ध्रुवीकरण होगा, लेकिन इस तरह सम्मान करवाने वाले लोग भी इसके खतरे नहीं समझते। अगर बिल्किस बानो के बलात्कारियों का ऐसा सार्वजनिक सम्मान नहीं हुआ होता, तो शायद सुप्रीम कोर्ट भी इतनी कड़ाई से उन्हें वापिस जेल नहीं भेजता। लेकिन किसी भी जिम्मेदार और सरोकारी इंसान को हिंसा का सम्मान प्रभावित करता ही है, और लोग ऐसी गैरजिम्मेदार हरकत के खिलाफ बोलने के लिए, फैसला देने के लिए बेबस हो जाते हैं।
जो समाज या जो संगठन अपने मुजरिमों को लेकर गर्व और गौरव से भर जाते हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि उनके कुएं से बाहर दुनिया बहुत बड़ी है, और वह दुनिया ऐसे अभिनंदनों को हिकारत से देखती है। दुनिया का इतिहास भी यह अच्छी तरह दर्ज करते चलता है कि किन लोगों ने हिटलर का सम्मान किया था, कौन लोग गोडसे का सम्मान करते हैं, और किन लोगों ने गाय बचाने के फर्जी नारे के साथ बेकसूर मुस्लिमों को घेरकर मारा था, और फिर भी उनके समर्थकों ने उन्हें सम्मान के लायक पाया था। चुनावों के पांच-पांच बरस के दौर तो आते-जाते रहते हैं, इतिहास में कलंक अच्छी तरह दर्ज होते हैं, बड़े-बड़े हर्फों में। जो तबके हत्यारों और बलात्कारियों को अपने समुदाय के हीरो मानते हैं, वे इतिहास में जीरो के भी नीचे दर्ज होते हैं।
अमरीकी राष्ट्रपति बनने जा रहे डोनल्ड ट्रम्प ने जब सरकारी फिजूलखर्ची और बर्बादी को घटाने के लिए अलग से एक अभियान शुरू करने की घोषणा की, और अपने दो समर्थक कारोबारियों, एलन मस्क, और विवेक रामास्वामी को इसके लिए छांटा, तो हम व्यक्तियों से परे इस अभियान की तारीफ कर चुके हैं कि सरकार को अपनी चर्बी छांटनी ही चाहिए। ट्रम्प का जनवरी के तीसरे हफ्ते से सत्ता संभालने का कार्यक्रम तय है, और इसके लिए उन्होंने अलग-अलग विभागों के लिए अलग-अलग नाम घोषित करना जारी भी रखा है। इसमें ताजा नाम रॉबर्ट एफ केनेडी जूनियर का है जो कि एक भूतपूर्व अमरीकी राष्ट्रपति के भतीजे भी हैं, और स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों पर जो लगातार सनसनीखेज और विवादास्पद बयान देने के लिए बदनाम भी हैं। इस नाम की उम्मीद पहले से की जा रही थी क्योंकि केनेडी ने राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी से अपना नाम वापिस लेकर ट्रम्प का साथ दिया था, और अब ट्रम्प ने उन्हें स्वास्थ्य मंत्री मनोनीत किया है। केनेडी के खिलाफ सबसे भयानक बात यह है कि कोरोना के पूरे दौर में उन्होंने वैक्सीन को एक कारोबारी साजिश बताया था, और उसका जमकर विरोध किया था।
केनेडी के बारे में कई तरह की बातें पहले से मीडिया में तैर रही हैं, जो बताती हैं कि वे किस तरह फास्टफूड के खिलाफ हैं जो कि अमरीका में खानपान का एक बड़ा हिस्सा है। अमरीकी बाजार अंधाधुंध घी-तेल, नमक-शक्कर, फेट और मैदे वाले, रासायनिक मसालों वाले खानपान से पटे हुए हैं, और पेशे से वकील केनेडी लगातार इसके खिलाफ अभियान चलाते आए हैं। अमरीका की फास्टफूड कंपनियां पूरी दुनिया में सेहत बर्बाद करने वाला खानपान बेचने के लिए बदनाम हैं, और उन्हें भी आने वाले वक्त में खुद अमरीका के भीतर सरकारी प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है। यही वजह है कि केनेडी के नाम की घोषणा होते ही कुछ बड़ी अमरीकी खानपान-कंपनियों के शेयरों के दाम गिर गए। इसके साथ-साथ वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों के शेयर भी गिर गए क्योंकि रॉबर्ट केनेडी लगातार साजिशों की कहानियों को बढ़ावा देते आए हैं कि कोरोना जैसी वैक्सीन के चलते बच्चों में ऑटिज्म जैसे बीमारियां पैदा हुई हैं। वे सार्वजनिक रूप से बार-बार कोरोना-टीकों के खिलाफ अभियान चलाते रहे हैं, यह एक अलग बात है कि उनके कोई भी आरोप किसी भी कोने से सही साबित नहीं हुए। अमरीका के बहुत से जानकार और समझदार लोग इस बात को लेकर विचलित हैं कि ऐसी कहानियों पर भरोसा रखने वाले को स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया है। ट्रम्प ने उनके नाम की घोषणा करते हुए जो बात कही वह केनेडी में ट्रम्प का भरोसा बताती है। उन्होंने कहा कि स्वास्थ्य के मामले में वे जो काम कर सकते हैं, उसे और कोई भी नहीं कर सकता। चुनाव अभियान के दौरान भी ट्रम्प ने कहा था कि वे राष्ट्रपति बनने पर केनेडी को स्वास्थ्य, खानपान, और दवाओं के मामले में जंगली अंदाज में मनमाना काम करने देंगे। और ट्रम्प के नारे, मेक अमेरिका ग्रेट अगेन, की तर्ज पर केनेडी ने यह नारा उछाला है, मेक अमेरिका हेल्दी अगेन।
केनेडी पेशे से पर्यावरण मामलों के वकील हैं। वकालत के पेशे की वजह से उनकी कानून की समझ अच्छी है, और दवा और खानपान के कारोबार को लेकर उनके बड़े मजबूत पूर्वाग्रह हैं। हम अभी उनके पूर्वाग्रहों के गुण-दोष, या उनके सही-गलत होने पर चर्चा नहीं कर रहें, लेकिन यह बात समझने की जरूरत है कि किसी भी नेता या अफसर को कोई जिम्मा देते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि उस मामले में उसके कोई मजबूत पूर्वाग्रह तो नहीं है। ऐसा होने पर वे अपनी विभागीय जिम्मेदारियों के खुले दिमाग से नहीं निभा पाते। अभी केनेडी की जिस सोच को हम सुन रहे हैं, उसमें से खानपान कारोबार को लेकर उनके पूर्वाग्रह को हम सही मानते हैं कि अमरीका स्थित बड़े-बड़े खानपान ब्राँड पूरी दुनिया की सेहत चौपट कर रहे हैं। अमरीका में मोटापा एक बड़ा खतरा बन गया है, और 2017-18 के आंकड़े बताते हैं कि वहां बालिगों में 42 फीसदी से अधिक लोग मोटापे के शिकार हैं जिनमें बहुत अधिक मोटापे वाले लोग भी हैं। करीब 10 फीसदी लोग बहुत बुरे मोटापे के शिकार हैं। ऐसे में अगर अगला स्वास्थ्य मंत्री निहायत गैरजरूरी फास्टफूड कंपनियों के खिलाफ नीतियां और नियम बनाने की बात करता है, तो ऐसी बात तो हर देश में होनी चाहिए। लेकिन दूसरी तरफ जब ऐसा व्यक्ति कोरोना और दूसरे सभी किस्म की वैक्सीन के खिलाफ अभियान चलाता है, तो यह समझने की जरूरत है कि क्या तरह-तरह की वैक्सीन के बिना कोई भी विकसित देश स्वस्थ रह सकता है?
कुछ बहुत थोड़े से तकनीकी मामलों के विभागों को छोड़ दें, तो बाकी जगहों पर उसी क्षेत्र के जानकार लोगों को लाने से अक्सर नुकसान होता है। मुद्दों को लेकर, व्यक्तियों को लेकर, नियम और नीतियों को लेकर लोगों की पहले से जमी-जमाई सोच उनके दिमाग को कुंद कर देती है, और वे अपने जानकार और विशेषज्ञ सहयोगियों की बात भी सुनना नहीं चाहते। लोगों को हमेशा कुछ सीखने को तैयार रहना चाहिए, असहमति को सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए, और अपनी पथरीली हो चुकी सोच को किनारे रखकर काम करना चाहिए। ऐसा आसान नहीं होता है, क्योंकि उनके दिल-दिमाग की स्लेट पट्टी पर पहले से बहुत कुछ लिखा हुआ रहता है, और स्लेट साफ करना और नए सिरे से सीखना हर किसी के लिए मुमकिन नहीं रहता है।
ट्रम्प की बहुत सारी दूसरी पसंद भी ऐसी ही सामने आ रही हैं जो कि विदेश नीति के मामले में, देश में अप्रवासियों के मामले में गहरे पूर्वाग्रहों से लदे हुए लोग हैं। एक तो ट्रम्प खुद कमअक्ल, नफरतजीवी, और सनकी तानाशाह हैं, और फिर उनके मंत्री परले दर्जे के पूर्वाग्रहों से लदे हुए कट्टर सोच वाले लोग हैं। अमरीका की कामयाबी देश के भीतर एक खुले दिल-दिमाग से काम करने पर टिकी हुई है। ट्रम्प के इस दूसरे कार्यकाल में उनकी और उनके साथियों की सनक की वजह से यह कामयाबी सबसे पहले प्रभावित होगी, ऐसा लगता है।
एक आदिवासी ग्राम पंचायत की युवती सरपंच को हटाने पर आमादा अफसरों पर खफा होते हुए सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ सरकार को इस सरपंच को एक लाख रूपए हर्जाना देने कहा है, और उसे बाकी पूरे कार्यकाल के लिए दुबारा सरपंच बनाया है। ग्राम पंचायत में चल रहे निर्माण कार्यों में देरी की शिकायत करते हुए अधिकारियों ने इस सरपंच को बर्खास्त कर दिया था, और छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने बर्खास्तगी को सही ठहराया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर बड़ा कड़ा रूख अख्तियार किया है, और सरकार को जमकर फटकार लगाई है। अदालत ने यह भी कहा है कि बाबू से अफसर बना दिए गए लोगों ने एक निर्वाचित महिला सरपंच को परेशान किया, और मुकदमेबाजी में जबर्दस्ती उलझाकर रखा। सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिव को कहा है कि इस सरपंच को परेशान करने के जिम्मेदार अधिकारी और कर्मचारी मालूम करने के लिए जांच करे, और चाहे तो एक लाख का जुर्माना इनसे वसूले, लेकिन अभी से चार सप्ताह के भीतर इस सरपंच को सरकार एक लाख रूपए हर्जाना दे।
जशपुर से सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे इस मामले में सजबहार की 27 बरस की सोनम लकरा 2020 में चुनाव लडक़र सरपंच बनीं। ग्राम पंचायत में कई निर्माण कार्य शुरू किए गए, और जनपद पंचायत के सीईओ ने इन्हें तीन महीने में पूरे करने का नोटिस जारी किया। सरपंच पर निर्माण कार्य में देरी का आरोप लगाया, और सरपंच के स्पष्टीकरण के बाद उन्हें जनवरी 2024 में सरपंच के पद से हटा दिया गया। तारीखों से जाहिर है कि बर्खास्तगी की पूरी कार्रवाई पिछली भूपेश सरकार के दौरान हो गई थी, और प्रदेश की मौजूदा विष्णु देव साय सरकार के आते ही जिले के एसडीएम के स्तर पर यह आदेश जारी हुआ। सरपंच की बर्खास्तगी का आदेश एसडीएम के स्तर पर होता है, और कार्रवाई की पूरी फाईल इसके भी नीचे, बीडीओ के स्तर पर ही तय हो जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह बात कही है कि कुछ क्लर्क जिन्हें पंचायत सीईओ के रूप में पदोन्नत किया गया है, वे चाहते हैं कि सरपंच उनके सामने भीख का कटोरा लेकर आएं। अदालत ने सरकारी वकील पर भी नाराजगी जाहिर की। सरपंच सोनम लकरा ने उन्हें मिले नोटिस के जवाब में यह स्पष्ट किया था कि दिसंबर 2022 में मंजूर काम उन्हें ग्राम पंचायत सचिव से मार्च 2023 में मिला, और उसके बाद गिने-चुने महीनों में उसे पूरा करना मुमकिन ही नहीं था, लेकिन उनका स्पष्टीकरण छोटे-छोटे अधिकारियों ने खारिज कर दिया, और उन्हें बर्खास्तगी की कार्रवाई कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने इतना कड़ा रूख दिखाया है कि अपने फैसले में लिखा है कि यह एक निर्वाचित सरपंच को हटाने के लिए अधिकारियों की बददिमागी बताता है। अदालत ने कहा कि छत्तीसगढ़ के एक दूर के इलाके में अपनी गांव की सेवा करने के लिए एक नौजवान महिला चुनाव लडक़र सरपंच बनती है, और उसकी मदद करने के बजाय पूरी तरह से नाजायज कुतर्क देकर उसे ही हटा दिया गया है। उसकी मानसिक प्रताडऩा करने के लिए जिम्मेदार सरकार की भी जजों ने जमकर खिंचाई की है।
अब जमीनी हकीकत अगर देखें तो अविभाजित मध्यप्रदेश के समय से मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में आदिवासी विकासखंडों में पंचायतों को आदिम जाति कल्याण विभाग के मातहत रखा गया है। पंचायतों के लिए एक-एक पैसा पंचायत विभाग से आता है, लेकिन इस विभाग का कोई भी नियंत्रण न तो निर्वाचित लोगों पर रहता, और न ही पंचायत के स्थानीय अधिकारियों पर, जो कि आदिम जाति विभाग के तहत काम करते हैं। नतीजा यह होता है कि बजट देने के लिए जिम्मेदार विभाग के प्रति पंचायत के निर्वाचित लोगों, या उन्हें नियंत्रित करने वाले आदिम जाति कल्याण विभाग के स्थानीय अधिकारियों की कोई जवाबदेही नहीं होती। छत्तीसगढ़ में 146 विकासखंड हैं, जिनमें से 85 विकासखंड आदिवासी इलाके हैं, और यहां पंचायतों का सारा काम आदिम जाति विभाग के तहत होता है। जशपुर का यह मामला ऐसा ही मामला है जिसमें सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ा कि बाबुओं से अधिकारी बना दिए गए लोग निर्वाचित सरपंच को प्रताडि़त कर रहे थे। आदिम जाति कल्याण विभाग में हालत यह है कि पंचायतों को काबू करने वाले पदों पर यह विभाग कहीं किसी बाबू को बिठा देता है, तो कहीं किसी शिक्षक को। और उन्हें सरपंचों के खिलाफ की जा रही कार्रवाई के लिए नियमों की भी ठीक से जानकारी नहीं रहती है, और अदालत तक जाने पर उनकी कार्रवाई बड़ी ही कमजोर साबित होती है जिसकी कोई कानूनी बुनियाद नहीं रहती।
राज्य में बड़े अफसरों और बड़े नेताओं के बीच यह बात बड़ी आम रहती है कि सरपंच भ्रष्ट रहते हैं, और अब 50 लाख तक के निर्माण कार्य सरपंचों के माध्यम से होते हैं। इस बारे में कुछ दूसरे जानकार लोगों का यह मानना है कि पंचायती राज व्यवस्था से न सिर्फ अधिकारों का विकेन्द्रीकरण हुआ है, बल्कि भ्रष्टाचार का भी विकेन्द्रीकरण हुआ है। आज अगर सरपंचों में से कुछ, अधिक, या अधिकतर भ्रष्ट हैं, तो जब तक पंचायतों के फैसले बड़े हाथों में रहते थे, तो उनमें से भी अधिकतर भ्रष्ट रहते थे। सरकारी निर्माण कार्य सरपंचों के हाथ आने के बाद पहली बार भ्रष्टाचार के शिकार हुए हों, ऐसा भी नहीं है। सरकार के सभी विभाग चाहे पंचायत स्तर की बात करें, या राज्य सरकार के स्तर की बात करें, भ्रष्टाचार सभी जगह एक बराबर रहता है। जब अधिकारों को ऊपर कुछ हाथों में समेट दिया जाता है, तो भ्रष्टाचार भी वहीं सिमट जाता है, और स्थानीय छोटे निर्वाचित लोगों तक अधिकार जाते हैं, तो भ्रष्टाचार का अधिकार भी वहां तक चले जाता है। इसलिए सरपंचों के स्तर पर भ्रष्टाचार अधिक होने का तर्क अधिक दमदार नहीं है। हमने बहुत से विभागों में प्रदेश स्तर पर होने वाली खरीदी में एकमुश्त, आला दर्जे का भ्रष्टाचार देखा है।
दरअसल अफसरों और बाबुओं की स्थाई व्यवस्था इस बात को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पाती है कि कल तक फुटपाथ पर पैदल चलने वाले लोग अब सरपंच, या जिला पंचायत के निर्वाचित पदाधिकारी बन गए हैं, और अधिकारों के साथ-साथ कमाई की ताकत भी अफसरी हाथों से निकलकर निर्वाचित हाथों तक चली गई है। भ्रष्टाचार को रोकना एक अलग मुद्दा है, और उसके लिए कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन ऐसे कितने सरपंच होंगे जो कि जशपुर के एक गांव से निकलकर हाईकोर्ट में एक गलत शिकस्त पाकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचें, और वहां से अपनी बर्खास्तगी खत्म करवाएं, और मुआवजा पाएं। इस एक मामले को राज्य सरकार के पंचायत, आदिम जाति कल्याण विभाग, और जिला कलेक्टरों को गंभीरता से देखना चाहिए, और इसे एक सरपंच का मामला मानकर नहीं चलना चाहिए, बल्कि पूरे प्रदेश में लोकतांत्रिक नजरिए से पंचायती व्यवस्था को देखना चाहिए, और उसका सम्मान करना चाहिए।
छत्तीसगढ़ में शराब के ग्राहकों के लिए सरकार ने एक मोबाइल ऐप लाँच किया है। मनपसंद नाम के इस एप्लीकेशन से ग्राहकों को अलग-अलग शराब दुकानों में किस ब्राँड की कौन सी शराब उपलब्ध है इसकी खबर भी लगेगी, और उसका दाम भी पता लग जाएगा। इस मोबाइल ऐप से लोग शिकायत भी कर सकेंगे कि कहां कौन सा ब्राँड नहीं मिल रहा है। इसके साथ-साथ ग्राहकों की मांग के मुताबिक ब्राँड मुहैया कराने पर भी सरकार ने समाधान निकालने की बात कही है। अभी कुछ दिन पहले ही छत्तीसगढ़ में गिने-चुने शराबखानों के अलावा बहुत से और रेस्त्रां को भी शराब पिलाने की छूट देना तय किया गया है। इन सब बातों को लेकर कुछ लोग सरकार का मजाक उड़ा सकते हैं, लेकिन यह समझने की जरूरत है कि शराब जिंदगी की एक हकीकत है, और छत्तीसगढ़ की आबादी का तीन चौथाई हिस्सा शराब पीता है। ऐसे में सरकार के इस पूरी तरह नियंत्रण वाले कारोबार को जुर्म की तरह पेश करना सही नहीं है, और इसीलिए ग्राहकों को सहूलियत देने में कोई बुराई नहीं है।
अविभाजित मध्यप्रदेश के समय से छत्तीसगढ़ शराब के मामले में पूरी तरह सरकारी नियंत्रण से जकड़ा हुआ रहा है, और हमेशा से ही इस विभाग को अंधाधुंध भ्रष्टाचार के हिसाब से चलाया जाता रहा है। हालत यह है कि अभी पिछले पांच बरस छत्तीसगढ़ में लोगों को पसंद आने वाले ब्राँड सरकार दुकानों में रखती ही नहीं थी, और घटिया ब्राँड लोगों को मजबूरी में खरीदने पड़ते थे। सरकार ने शराब का पूरा कारोबार अपने कब्जे में ले लिया था, और अगर ईडी की बात पर भरोसा करें तो भूपेश बघेल सरकार के पांच साल इस राज्य में शराब कारोबार सत्ता के पसंदीदा और चुनिंदा लोग माफिया के अंदाज में चला रहे थे, और वह प्रदेश का एक सबसे बड़ा जुर्म भी था। इस धंधे को एक गिरोह ऐसे चला रहा था कि शराबखाने भी उसके कब्जे में थे, और अरबपति कारखानेदार टेलीफोन पर भी किससे बात करें, किससे न करें, यह हुक्म भी सत्ता का यह गिरोह ही देता था। अब अगर राज्य सरकार शराब कारोबार को ग्राहकों की सहूलियत के हिसाब से ढाल रही है, तो यह टैक्स देने वाले शराबियों को एक जायज हक देने की बात है। सरकार को टैक्स उतना ही मिलता है, लेकिन सरकार अगर एक माफिया के अंदाज में कारखानेदारों से उगाही करती है, तो उसका नतीजा शराबियों को महंगी, घटिया, और नापसंद शराब की शक्ल में चुकाना पड़ता है।
हमारा तो यह मानना है कि जो कारोबार सरकार और कानून के कागजों में जुर्म नहीं है, उसे कारोबार की तरह चलने देना चाहिए। किसी भी दूसरे सामान के मामले में लोग अपनी मर्जी का ब्राँड खरीदते हैं, और बाजार का कारोबार ग्राहक की इसी आजादी से आगे बढ़ता है। किसी भी राज्य में शराब के कारोबार में हजारों करोड़ सालाना टैक्स देने वाले ग्राहकों को घटिया शराब पिलाने से उनका कुछ भला नहीं होता, यह जरूर होता है कि सत्तारूढ़ लोगों को कुछ सौ करोड़ रूपए मिल सकते हैं। अब अगर छत्तीसगढ़ सरकार लोगों के लिए शराबखाने और शराब आसान कर रही है, तो इससे लोगों का पीना नहीं बढ़ेगा, सरकार का टैक्स नहीं घटेगा, लेकिन शराब के ग्राहकों को भी इंसान जैसा बर्ताव मिलेगा। आज हालत यह है कि गिने-चुने शराबखाने भी आबकारी विभाग के नियमों में ऐसे बंधे हुए हैं कि वे ग्राहकों की मर्जी और पसंद की शराब नहीं परोस सकते। जिस तरह कल ही हमने ट्रम्प की अगली सरकार में सरकारीकरण कम करने, सरकार का चंगुल ढीला करने की तैयारी की तारीफ की है, उसी तरह छत्तीसगढ़ में भी शराब का मोबाइल ऐप, या उसकी घर पहुंच सेवा, या उसकी दुकानों को बेहतर बनाना, शराबखानों की मौजूदगी बढ़ाना, इन सबको हम बेहतर तरीका मानते हैं। लोग दुकानों में धक्का-मुक्की करके, लंबा वक्त बर्बाद करके, रेट से अधिक पैसा देकर शराब लें, और फिर किसी तालाब के किनारे या बगीचे में बैठकर गैरकानूनी तरीके से उसे पिएं, इससे अच्छा यह है कि शहर में शराबखाने चार-छह गुना बढ़ जाएं, और वहां लोग अपनी भुगतान की ताकत के मुताबिक खा-पी सकें। जो लोगों का कानूनी हक है, और सरकार के नियंत्रण का कारोबार है, उसे किसी पाप या जुर्म की तरह चलाना जायज बात नहीं है।
आबकारी विभाग हमेशा से एक बदनाम विभाग रहा है। छत्तीसगढ़ में पहली बार एक बहुत अच्छी साख वाली काबिल और ईमानदार महिला आईएएस इसकी सचिव है, और खुद मुख्यमंत्री इसके विभागीय मंत्री भी हैं। यह मौका इस विभाग को सुधारने का है, और टैक्स देकर शराब पीने वाले लोगों को एक जायज और कानूनी हक देने का है। शराबखाने बढऩे से लोगों का पीना नहीं बढ़ेगा, लेकिन लोगों का सार्वजनिक जगहों पर हंगामा करना कम जरूर होगा। आज शहर के अधिकतर बगीचों में शाम के बाद महिलाओं का घूमना आसान नहीं रहता है क्योंकि वहां लोग बैठकर शराब पीते रहते हैं। देश के जिन प्रदेशों में शराब को जुर्म जैसा न बताकर एक नुकसान वाली जरूरत की तरह बताया जाता है, और उसके कारोबार को नियमों के आल-जाल से निकाला जाता है, वहां पर शराब से जुड़ा भ्रष्टाचार कम होता है। महाराष्ट्र जैसे राज्यों में कोई भी व्यक्ति एक निर्धारित फीस जमा करके शराबखाना खोल सकते हैं, और मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ जैसे बहुत से राज्यों में इसे पूरी तरह राजनीतिक मेहरबानी का काम बनाकर रखा गया है। अब अगर मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय की अगुवाई में आबकारी विभाग चीजों को आसान करने जा रहा है, तो यह किसी भी तरह से शराब के धंधे को बढ़ावा देने की बात नहीं है, यह ग्राहक को उसका हक देने की बात है, और टैक्स देने वाले को एक निहायत-नाजायज अपराधबोध से मुक्त करने की बात भी है। देखना है कि आने वाले बरसों में छत्तीसगढ़ में सरकार की शराब से जुड़ी हुई बहुत सी नीतियां कैसी साबित होती हैं, चूंकि मुख्यमंत्री खुद ही विभागीय मंत्री हैं, इसलिए सरकार की साख भी आबकारी नीतियों और उसके अमल से जुड़ी रहेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका के अगले राष्ट्रपति चुने गए डोनल्ड ट्रम्प ने काम संभालने के दो महीने पहले से अपनी सरकार का ढांचा बनाना शुरू कर दिया है। वे एक-एक करके मंत्री तय करते जा रहे हैं, और अब उन्होंने सरकार में एक बड़ी जिम्मेदारी के काम के लिए दुनिया के सबसे दौलतमंद कारोबारी एलन मस्क और एक दूसरे कारोबारी विवेक रामास्वामी का नाम तय किया है। ये दोनों सरकार के कामकाज की उत्पादकता बढ़ाने, सरकारीकरण को घटाने, नियमों के जाल को काटने, और कई एजेंसियों के कामकाज देखते हुए उन्हें फिर नए सिरे से बनाने का काम करेंगे। ये सरकार के बाहर रहेंगे, लेकिन सरकारी कामकाज की एक बड़ी जिम्मेदारी पूरी करेंगे। इन दोनों के बारे में यह बताना जरूरी है कि टेस्ला नाम की दुनिया की सबसे बड़ी बैटरी कार कंपनी, और ट्विटर के मालिक एलन मस्क ने अभी हुए चुनाव में ट्रम्प पर अरबों का खर्च भी किया था, और ट्रम्प के प्रचार में खुद हिस्सा भी लिया था। दूसरी तरफ विवेक रामास्वामी ट्रम्प की ही पार्टी रिपब्लिकन पार्टी के नेता हैं, और इस बार राष्ट्रपति पद के लिए पार्टी के उम्मीदवार का नाम तय होने के वक्त वे भी दावेदारों में से एक थे। उनके नाम से ही यह जाहिर है कि वे दक्षिण भारतीय भारतवंशी हैं, और अमरीका में कारोबारी तो हैं ही।
अमरीका के बारे में यह समझना जरूरी है कि वहां राष्ट्रपति चुन लिए जाने के बाद वे बहुत हद तक अपनी निजी मर्जी से, और कुछ हद तक पार्टी के दानदाताओं का ख्याल रखते हुए सरकार के मंत्री तय करते हैं, और दूसरे महत्वपूर्ण ओहदों पर लोगों को नियुक्त करते हैं। पहले से इस बात की अटकलें लग रही थीं कि ट्रम्प प्रशासन में एलन मस्क की महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी। अब उन्हें सरकार के इफिसिएंसी (कार्यकुशलता या दक्षता) विभाग का जिम्मा दिया जा रहा है, तो इसके पीछे मस्क का यह इतिहास भी है कि वे अपनी कंपनियों में बेदर्दी से छंटनी करने के लिए जाने जाते हैं, और कर्मचारियों की संख्या तेजी से घटाते हैं। ट्विटर खरीदने के बाद उन्होंने यही किया था, और ट्रम्प के चुनाव अभियान के दौरान भी यह अंदाज लगाया जा रहा था कि वे ट्रम्प के जीतने पर सरकार की चर्बी छांटने में मदद करेंगे।
अमरीका के इस घरेलू मामले पर लिखने का हमारा कोई इरादा नहीं है, लेकिन हम अमरीका के इस पूरे एक विभाग को देखते हुए यह जरूर सोचते हैं कि भारत में केन्द्र, और राज्य सरकारों की चर्बी छांटने, उनकी कार्यकुशलता बढ़ाने, उन्हें जनता का मददगार बनाने, और सरकारी खर्च को घटाने के लिए क्या किया जाना चाहिए? किफायत कोई बुरी बात नहीं होती, खासकर ऐसे देश में जहां पर 80 करोड़ गरीब जनता के बारे में खुद सरकार यह मानती है कि वह अपना अनाज खरीदकर खाने लायक हालत में नहीं हैं। ऐसे देश में जनता के हक का सरकारी बजट अगर खुद सरकार के ऊपर, और उसकी फिजूलखर्ची से अनुपातहीन तरीके से बर्बाद होता है, तो उसका मतलब यही है कि जनता के लिए अधिक जरूरी बहुत से काम नहीं हो पाएंगे। आज हर प्रदेश में स्थानीय म्युनिसिपल से लेकर सरकारी विभागों तक हाल यह है कि वे बहुत जरूरी सेवाओं पर भी खर्च नहीं कर पा रहे, बिजली का बिल नहीं पटा पा रहे। और भारत में अधिक से अधिक नौकरियां देना एक राजनीतिक-चुनावी मुद्दा है, इसलिए इसके खतरे को बारीकी से समझने की जरूरत भी है। सरकारें अधिक से अधिक नौकरियां पैदा करने को एक लुभावना और लोकप्रिय काम मानकर चलती हैं, और इस बात को एक उपलब्धि की तरह बताया जाता है कि उसने कितने बेरोजगारों को नौकरियां दी हैं। लेकिन अगर कोई सरकार से पूछे कि उसके अमले की उत्पादकता कितनी है, वे दिन में कितने घंटे काम करते हैं, काम की उत्कृष्टता क्या है, अपनी जिम्मेदारी को लेकर उनकी जवाबदेही क्या है, उनकी टेबिलों पर फाईलें औसतन कितने महीने जमी रहती हैं, और हर विभाग में गैरजरूरी जानकारी मांगने का सिलसिला क्यों है, तो ये सवाल बहुत लुभावने और लोकप्रिय नहीं रहेंगे। भारत में आमतौर पर यह मान लिया जाता है कि सरकारी नौकरी में अधिक काम नहीं करना पड़ता, ऊपरी कमाई बहुत रहती है, और एक बार सरकारी नौकरी लग गई तो वह जिंदगी भर की गारंटी रहती है। आज हालत यह है कि हिन्दुस्तान के हर सरकारी दफ्तर में गैरजरूरी कागजों को मांगने की लंबी-लंबी लिस्ट रहती हैं, ताकि उसमें छूट देने के लिए रिश्वत ली जा सके। कोई जमीन खरीदे, तो रजिस्ट्री ऑफिस उसकी एक कॉपी तहसील और पटवारी को भेजती है, लेकिन नए मालिक के नाम पर उसे चढ़वाने के लिए नए मालिक को महीनों का वक्त लगता है, और हजारों की रिश्वत देनी पड़ती है। दूसरी तरफ अमरीका जैसे देश में किसी भी सरकारी फॉर्म को भरने में औसतन कितना वक्त लगेगा, यह उस फॉर्म पर ही छपा रहता है, और किस-किस जानकारी को मांगे बिना काम चल सकता है, इसकी कोशिश लगातार की जाती है। हिन्दुस्तान में सरकारी कामकाज का तरीका इसका ठीक उल्टा है। यहां विश्वविद्यालय में परीक्षा का फॉर्म भरते हुए उसी विश्वविद्यालय में पहले से जमा कागजों को एक बार फिर जमा करना पड़ता है, और ऐसा ही हाल हर शहर विभाग, हर निगम और मंडल में रहता है। अभी तो हालत यह है कि सरकारें लोगों से इतनी अधिक गैरजरूरी जानकारी मांगती हैं कि उनकी गोपनीयता निभा पाना उनके ही बस में नहीं रहता, और सरकारों पर डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन एक्ट की शर्तों को निभा पाना भी मुमकिन नहीं रहता है। लेकिन 2023 के बने हुए इस एक्ट के तहत अभी तक किसी सरकार को सजा नहीं हुई है, इसलिए सरकारें धड़ल्ले से गैरजरूरी जानकारी मांगती रहती हैं।
अमरीका में ट्रम्प दो बड़े काबिल कारोबारियों को सरकार की चर्बी छांटने का जिम्मा दे रहे हैं। यह बात समझने की जरूरत है कि भारत में बहुत सी सरकारों का अपने खुद पर खर्च इतना अधिक है कि वहां प्रदेश के विकास के लिए रकम बचती भी नहीं है, और अगर केन्द्र सरकार से रकम न मिले, तो राज्य चल ही न पाए। सरकार को छोटा करने, सरकारी नियंत्रण घटाने, और बहुत कड़ाई से किफायत लागू करने की जरूरत भारत में केन्द्र सरकार से लेकर पंचायत तक है। भ्रष्टाचार से होने वाली बर्बादी तो है ही, सरकार की उत्पादकता शर्मनाक स्तर तक कम है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपने निजी दोस्त डोनल्ड ट्रम्प की इस पहल को समझना चाहिए, और भारत में भी इसे लागू करना चाहिए। सरकार की उत्पादकता का स्तर जमीन पर औंधे मुंह पड़े रहे, और राजनीतिक दल अधिक नौकरियां देने पर फख्र करते रहें, यह बहुत खराब नौबत है। देश में आर्थिक नीतियां, और स्वरोजगार के अवसर ऐसे रहने चाहिए कि उनसे लोगों को काम मिले, न कि सरकारी कुर्सी तोडऩे के लिए। भारत के हर सरकारी काम में जितनी गैरजरूरी जानकारी ली जाती है, गैरजरूरी कागज मांगे जाते हैं, वह सिलसिला भी खत्म करना चाहिए।
दीवाली पर फटाखों पर रोक कुछ लोगों को अधिक विचलित करती है कि यह रोक सिर्फ हिन्दू त्यौहारों पर क्यों आती है, और बाकी धर्मों के त्यौहारों पर यह रोक क्यों नहीं लगती? कायदे से तो इसका जवाब सवाल पूछने वालों को मालूम रहता है कि और किसी धर्म की इतनी आबादी नहीं है, और किसी धर्म में उनके आराध्य भगवान राम के अयोध्या लौटने की खुशी नहीं मनाई जाती, इस तरह रौशनी नहीं की जाती, इस तरह फटाखे नहीं फोड़े जाते। इसके साथ-साथ जो निर्विवाद रूप से धर्मनिरपेक्ष उपकरण हैं, वे बताते हैं कि किस तरह दीवाली की एक रात ही फटाखों के कारण प्रदूषण कितना बढ़ता है, हवा कितनी जहरीली होती है। और बिना उपकरणों के नंगी आंखों से भी यह देखा जा सकता है कि भारत में और किसी त्यौहार पर न ऐसी रौशनी होती, और न ऐसी आतिशबाजी। इसलिए अगर रोक की कोई जरूरत है, तो वह धर्म के बारे में सोचे बिना ऐसी रात को ही है, जिस रात देश में प्रदूषण सबसे अधिक बढ़ता है। फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने कल इस मामले की सुनवाई करते हुए दिल्ली में दीवाली पर फटाखों पर लगाई गई रोक को लागू न करने के लिए पुलिस को फटकारा है, और कहा है कि अदालती आदेश पर अमल का महज दिखावा किया गया। अदालत ने कहा है कि दिल्ली और आसपास के इलाके में साल भर फटाखों पर रोक लगाने के लिए 15 दिन में योजना बनाकर अदालत में पेश की जाए। अब अदालत ने साल भर का कह दिया है, तो कई ऐसे कलेजों को ठंडक पहुंचेगी जो दूसरे धर्मों में न फोड़े जाने वाले फटाखों पर भी रोक लगाने की हसरत रखते थे। किसी लोकतंत्र में इससे अधिक शर्मनाक और क्या बात होगी कि देश की सबसे बड़ी अदालत बेबस बकरी की तरह मिमियाती रह जाती है कि केन्द्र सरकार की मातहत दिल्ली पुलिस उसके इतने बड़े व्यापक जनहित के आदेश पर भी महज दिखावे के लिए अमल करती है।
लेकिन यह बात सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के साथ नहीं है, अलग-अलग बहुत से राज्यों में वहां की सरकारें, और खासकर वहां के पुलिस-प्रशासन किसी धार्मिक आयोजन की अराजकता पर रोक लगाने से कतराते रहते हैं। छत्तीसगढ़ में ही धार्मिक डीजे पर रोक लगाने की कोशिश करते हुए छत्तीसगढ़ का हाईकोर्ट बूढ़ा हो चला है, लेकिन जिस तरह किसी परिवार में गैरजरूरी मान लिए गए बुजुर्ग के बड़बड़ाने को अनसुना करते हुए नई पीढ़ी अपना काम करती रहती है, उसी तरह छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की कड़ी बातें भी शासन-प्रशासन के उससे भी कड़े कान के पर्दे अनसुनी करते रहते हैं। नतीजा यह होता है कि हाईकोर्ट को हिसाब लगाने के लिए केलकुलेटर का इस्तेमाल करना पड़ेगा कि उसने राज्य के मुख्य सचिव, डीजीपी, और जिले के अफसरों से कुल कितने बार हलफनामे मांगे हैं कि वे कड़ाई और ईमानदारी से इस हिंसक शोरगुल को रोकेंगे।
यह देखकर बड़ी हैरानी होती है कि जनता के हित में खुद होकर शासन-प्रशासन को भीड़ की जिस हिंसक अराजकता को रोकना चाहिए, उसे रोकने के लिए देश की सबसे बड़ी अदालतों को लाठी लेकर पीछे लगना पड़ता है, और उनकी फटकार से भी नेताओं-अफसरों के माथे पर शिकन नहीं आती। यह एक अलग बात है कि शोरगुल से आम जनता के माथों के भीतर की नसें फट जाती हैं, वे मर जाते हैं, कहीं छोटे बच्चे, तो कहीं और बीमार मर जाते हैं। उसके बाद भी धर्मान्ध संगठन लगे रहते हैं कि वे तो डीजे बजाएंगे ही, और लोगों का जीना हराम करेंगे ही। बेबस बड़ी अदालतें देश में धर्म के नाम पर ऐसा हिंसक प्रदर्शन रोकने में नाकामयाब हैं जिस प्रदर्शन का कोई धार्मिक इतिहास नहीं है। जिस वक्त भारत में आज प्रचलित कोई भी धर्म गढ़े गए थे, हजारों बरस पहले के उस वक्त न लाउडस्पीकर थे, न फटाखे थे, और न ही दूर-दूर तक लोगों की नजरों को अंधा करने वाले लाईट ही थे। भारत में लोगों की जागरूकता ऐसी बदहाल है कि धार्मिक जुलूसों में दूर-दूर तक चकाचौंध करने वाली रौशनी फेंकी जाती है, जिससे कि आंखें खराब होती हैं, लेकिन इसे रोकने की कोई पहल नहीं की जाती। नतीजा यह होता है कि बाजार में किराए पर लाईट और साउंड मुहैया कराने वाले लोग चीन से किस्म-किस्म के सामान बुलाकर उनका चलन बढ़ाते रहते हैं क्योंकि शासन-प्रशासन को किसी भी भीड़ के औजारों और हथियारों पर रोक लगाना जहमत लगता है।
हम बहुत सारे अदालती मामलों में यह राय देते हैं कि अगर व्यापक जनजीवन से जुड़े हुए मुद्दों पर अदालत को नजर रखनी है, तो उसे कुछ जांच कमिश्नर नियुक्त करने चाहिए जो कि जमीनी हकीकत पर नजर रखकर तथ्य और सुबूत इकट्ठा करके अदालत के सामने रखे। जरूरत हो तो ऐसे व्यापक महत्व और व्यापक अमल के मामलों में अदालत को किसी वरिष्ठ, सरोकारी, और जिम्मेदार वकील को न्यायमित्र भी नियुक्त करना चाहिए। ऐसी मदद के बिना अदालत सरकार से लडऩे-भिडऩे के इस काम को महज जनहित याचिकाकर्ता, और जजों के सहारे नहीं कर पाएगी। अदालतें वैसे भी तरह-तरह के बोझ से लदी हुई हैं, और सरकारों को अदालती फैसले, और देश के कानून लागू करने के लिए जज रात-दिन कब तक लाठी चलाएँगे?
आज धर्मों के बीच हिंसक और अराजक प्रदर्शन का मुकाबला बढ़ते-बढ़ते यहां तक पहुंच गया है कि लोग अपने परिवार के फेंफड़ों को भी दांव पर लगाकर गुंडागर्दी के अपने हक को साबित करने में लगे रहते हैं। जहरीले-बारूदी प्रदर्शन से उनकी अगली पीढ़ी चाहे अस्थमा की शिकार हो जाए, या उसे कोई और गंभीर बीमारी हो जाए, लोगों को अपने धर्म की दादागिरी साबित करना अधिक जरूरी लगता है। ऐसे मूढ़ समाज को जब सरकारी हिफाजत हासिल रहती है, तब सुप्रीम कोर्ट के जजों के लिए भी यह आसान नहीं रहता कि इस राष्ट्रीय सामूहिक खुदकुशी को रोक सके। शासन-प्रशासन जनता के इस आत्मघाती धार्मिक-सार्वजनिक प्रदर्शन को संरक्षण देते हुए ऐसे जुलूसों के साथ-साथ परेड करते दिखते हैं, और ऐसा लगता है कि अब धर्म-केन्द्रित होती चल रही भारतीय चुनावी-राजनीति में सहज समझ लाना किसी अदालत के बस का भी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट की जोर की फटकार भी सुनकर जब दिल्ली पुलिस के कुत्ते भी जगह से न हिलें, तो फिर इस बेअसर अदालत से इस लोकतंत्र के अमन-पसंद लोग अधिक उम्मीद भी नहीं कर सकते। पैसेवाले लोग सबसे प्रदूषण के वक्त दिल्ली छोडक़र दूसरे शहरों में जाने लगे हैं, अब राज्यों की राजधानियों में भी धार्मिक शोरगुल के दिनों में पैसेवाले लोग शहर से बाहर कुछ दिन जाकर रह सकते हैं। और जहां तक आम जनता का सवाल है, तो उसे ईश्वर और सरकार दोनों ने गुठली की तरह बनाकर रखा है, और उसकी नियति यही सब झेलना है, और यह मार बढ़ती चल रही है।
छत्तीसगढ़ में अब आए दिन किसी न किसी शहर-कस्बे में किसी ईसाई परिवार में चल रही प्रार्थना सभा पर हिन्दू संगठनों का हमला हो रहा है, इसे धर्मांतरण करार देते हुए प्रार्थना सभा को बंद करवाया जाता है, लोगों को भगाया जाता है, कहीं-कहीं उन्हें पीटा भी जा रहा है, और खबर मिलते ही पुलिस भी आकर प्रार्थना सभा में शामिल लोगों को गिरफ्तार भी कर रही है। यह सिलसिला बढ़ते चल रहा है। प्रदेश में जबरिया, या लालच देकर, झांसा देकर धर्म परिवर्तन कराना, 1968 के एक कानून के तहत अपराध है, और इस पर एक बरस तक की कैद, और पांच हजार रूपए तक के जुर्माने का भी प्रावधान है। देश के अलग-अलग कुछ राज्यों ने धर्मांतरण के खिलाफ कड़े कानून बनाए हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ में अभी कुछ महीने पहले की ऐसी एक कोशिश विधानसभा में कामयाब नहीं हो पाई है। आज पुलिस शायद हिन्दू संगठनों के विरोध को शांत करने के लिए ईसाई प्रार्थना सभाओं पर शांति भंग होने की आशंका जैसे मामूली जुर्म दर्ज करती है, लोगों को हिरासत में लेती है, या गिरफ्तार करती है। सवाल यह है कि किन लोगों ने शांति भंग की है, और किन पर यह जुर्म दर्ज होना चाहिए?
अब धर्मांतरण के खिलाफ लागू कानून की कुछ बुनियादी शर्तें देखें तो उसमें या तो जबरिया, या लालच देकर, या झांसा देकर धर्म-परिवर्तन करवाने की शर्तें हैं। सवाल यह उठता है कि किसी ईसाई परिवार में अगर लोग इकट्ठा होकर धार्मिक प्रार्थना करते हैं, तो उसमें ऊपर की इन शर्तों में से कौन सी शर्त लागू होती है? पुलिस जगह-जगह प्रार्थना सभा में शामिल लोगों को गिरफ्तार कर रही है, इसमें जुर्म क्या बनता है? और अगर किसी घर में किसी धर्म की प्रार्थना चल रही है, तो बलपूर्वक उसे रोकना, उसके खिलाफ प्रदर्शन करना, उसमें शामिल लोगों को पीटना, धमकाना, तोडफ़ोड़ करना, ये तमाम बातें जुर्म बनती हैं, या प्रार्थना? धर्मांतरण एक औपचारिक कानूनी कार्रवाई है, जिसके लिए कलेक्टर को 60 दिन पहले अर्जी देनी होती है, उसके बिना धर्मांतरण को कोई कानूनी दर्जा नहीं मिलता, बल्कि उसे धर्मांतरण कहा भी नहीं जा सकता। ऐसे में किसी दूसरे धर्म के संगठनों को इस राज्य में यह हक कैसे दिया जा रहा है कि वे किसी घर-परिवार के सामने भीड़ इकट्ठा करके अपने धर्म के नारे लगाएं, लोगों को वहां से निकालने के लिए धमकियां दें, और ईसाई प्रार्थना करने वालों को पीटें? क्या यह सुप्रीम कोर्ट के हेट-स्पीच केस के तहत दिए गए बार-बार के हुक्मों की परिभाषा में नफरती काम नहीं है? साम्प्रदायिक तनाव का काम नहीं है? तो ऐसे में कार्रवाई होनी किस पर चाहिए? कानून अपने हाथ में लेकर, और पैरों तले कुचलकर, किसी परिवार या धार्मिक समुदाय पर हमला करने वालों पर, या प्रार्थना करने वालों पर?
एक दूसरा दिलचस्प पहलू यह है कि भाजपा और हिन्दू संगठनों के एक प्रमुख नेता छत्तीसगढ़ में ईसाई बने हुए आदिवासियों को हिन्दू धर्म में वापिस लाने का ऑपरेशन घरवापिसी नाम का कार्यक्रम घोषित रूप से, और समारोह पूर्वक चलाते हैं। अब सवाल यह उठता है कि जो लोग ईसाई बन चुके थे, वे अब जब हिन्दू बन रहे हैं, तब वह धर्मांतरण नहीं हो रहा? तो ऐसे धर्मांतरण को महज ऑपरेशन घरवापिसी कह देने से वह धर्मांतरण की कानूनी औपचारिकताओं से मुक्त हो जाता है? यह पूरा सिलसिला सरकारी अफसरों, और खासकर पुलिस के एक धर्म के लिए काम करने का दिखता है। जगह-जगह ईसाई प्रार्थनाओं पर हमले होते हैं, और उन्हीं धर्मालुओं को गिरफ्तार किया जा रहा है, उनके पादरी गिरफ्तार हो रहे हैं। प्रार्थना के लिए किसी समुदाय के एकजुट लोगों को धर्मांतरण का आयोजन कहने का मतलब तो यह हो जाएगा कि जब इसी प्रदेश में एक-एक बड़े हिन्दू आयोजन के लिए दसियों हजार लोग इकट्ठा होते हैं, और वहां पर चमत्कारी बाबा लोग हिन्दू धर्म की चमत्कारी बातें कहते हैं, बीमार लोगों को ठीक करने की बातें कहते हैं, शिवलिंग की पूजा से बिना पढ़े हुए इम्तिहान में पास होने का दावा करते हैं, तो फिर क्या वे हिन्दू धर्म की तरफ लोगों को प्रभावित नहीं करते? बीमार को ठीक कर देने का वायदा करना, बिना पढ़े बच्चों को इम्तिहान पास करा देने का दावा करना, क्या इसे लुभावना-लालच नहीं कहा जा सकता? और ऐसे आयोजन में पूरी की पूरी सत्ता जुट जाती है, जो अफसर ईसाई प्रार्थना सभाओं पर कहर बनकर टूट पड़ते हैं, वे इन आयोजनों में प्रवचनकर्ताओं और चमत्कारी बाबाओं के पांवों की धूल पाने के लिए वर्दी के जूते उतारकर दंडवत हो जाते हैं। इसे क्या कहा जाए?
धर्मांतरण अगर जबरिया, धोखे से, या लालच देकर हो रहा है, तो उस पर कार्रवाई करने के लिए एक अलग प्रक्रिया है, और अदालत यह तय करेगी कि जिन पर तोहमत लगाई गई है, उन्होंने जुर्म किया है या नहीं। अदालत का यह काम किसी एक धर्म के हमलावर संगठनों को कैसे दिया जा सकता है, जो कि भीड़ और लाठियों की ताकत का राज कायम करने में लगे हुए हैं? अगर भीड़ किसी प्रार्थना को धर्मांतरण साबित करने की हकदार है, तो फिर अदालतों की जरूरत क्या है? लोकतंत्र में किसी एक धर्म पर सत्ता की मेहरबानी लोकतंत्र की ही साख खत्म कर देती है। लोगों को यह भी समझना चाहिए कि देश में करोड़ों दलित हिन्दू धर्म छोडक़र बौद्ध बनने पर क्यों मजबूर हुए थे? क्यों हिन्दुओं की जाति व्यवस्था इतनी हिंसक और बेइंसाफ थी कि लोगों ने उसे दुत्कारकर बौद्ध बनना बेहतर समझा। आज छत्तीसगढ़ में कुछ जातियों में अंतरजातीय विवाह पर लोगों को जिस रफ्तार से जात बाहर किया जाता है, उनका समाज के किसी परिवार के निजी कार्यक्रम में भी आना-जाना बंद करवा दिया जाता है, वे लोग अपने मां-बाप के घर भी नहीं जा सकते, ऐसे बहिष्कृत और तिरस्कृत लोग आखिर जाएं तो जाएं कहां? हिन्दू धर्म की किसी जाति के भीतर के होने के बावजूद उससे बहिष्कार झेलते हुए ऐसे लोग भी छत्तीसगढ़ में ईसाई बन रहे हैं। किसी समय दलित और आदिवासी ईसाई बने थे, और आज छत्तीसगढ़ में ओबीसी के बहुत से लोग ईसाई बन रहे हैं। जो हिन्दू समाज आज ‘न बंटने’ का नारा लगा रहा है, वह अपने भीतर ही कितने किस्म से लोगों को बांट चुका है, बांट रहा है, यह देखना भी भयानक है। जब सामाजिक बहिष्कार की बंदूक की नोंक पर किसी मां-बाप को मजबूर किया जाता है कि वे परिवार की शादी में भी उन बच्चों को न बुलाएं जिन्हें कि जात बाहर कर दिया गया है, तो ऐसा धर्म, और ऐसी जाति व्यवस्था सम्मान खो बैठती है। अगर हिन्दू संगठनों को धर्मांतरण रोकना है, तो सबसे पहले हिन्दू समाज के भीतर की ऐसी नाजायज और गैरकानूनी हिंसा रोकनी होगी, दलितों और आदिवासियों का अपमान और तिरस्कार बंद करना होगा, हिन्दू समाज के बहुसंख्यक तबके के खानपान पर एक बहुत छोटे सवर्ण तबके के खानपान की शर्तों को थोपना बंद करना होगा। आज तीन चौथाई से अधिक मांसाहारी आबादी वाले हिन्दू समाज में एक चौथाई से बहुत कम शाकाहारियों की शर्तें लादी जा रही हैं। और समाज में इन मुद्दों पर कोई सुधार भी नहीं हो रहा है, कट्टरता का नवजागरण हिन्दू समाज को भीतर ही खानपान से लेकर पहरावे तक, और शादी-ब्याह से लेकर दूसरे कई किस्म के मामलों में टुकड़ों में बांट रहा है। इन सब मुद्दों पर सोचने के बजाय कानून को पांवों तले कुचलकर ईसाईयों पर हमला बहुसंख्यक तबके की ताकत की बेजा इस्तेमाल छोड़ कुछ नहीं है। पता नहीं पिछले 5-6 बरस में ऐसे सैकड़ों हमलों के बाद भी राज्य का हाईकोर्ट हर सुबह महज उत्सुकता से अखबारों में ऐसी और घटनाएं पढ़ते रहता है। पढक़र वह क्या करता है, यह अब तक दिखा तो नहीं है।
छत्तीसगढ़ के एक स्कूल में 10वीं के छात्रों ने एक मोबाइल ऐप से अपनी सहपाठी छात्राओं और स्कूल की शिक्षिकाओं की तस्वीरों को अश्लील बनाया, और उसे एक इंस्टाग्राम ग्रुप में अपलोड कर दिया। जब यह मामला उजागर हुआ तो ऐसा करने वाले सात छात्र पकड़े गए, उन्हें बाल न्यायालय में पेश किया गया, और इस जुर्म की सजा सात बरस कम होने से उन्हें तुरंत जमानत मिल गई, और अब स्कूल इन छात्रों को वहां से निकालने की सोच रहा है। इससे बिल्कुल ही अलग एक दूसरी खबर यह है कि बहुत कम उम्र के कुछ बच्चों को गाडिय़ां चलाते पकडऩे पर पुलिस ने उन पर बड़ा जुर्माना लगाकर छोड़ दिया है जबकि ऐसे मामलों में गाड़ी के मालिक या ऐसे नाबालिग बच्चों के मां-बाप को भी सजा का प्रावधान है। देश भर में जगह-जगह कहीं कत्ल, तो कहीं बलात्कार के मामलों में नाबालिग पकड़ा रहे हैं। कानून अब तक नाबालिगों को सजा देने के खिलाफ है, और उन्हें अधिक से अधिक कुछ अरसे के लिए बाल सुधारगृह भेजा जाता है, और वहां से वे छूटकर घर चले जाते हैं। लोगों को याद होगा कि देश के सबसे चर्चित निर्भया बलात्कार कांड के गैंगरेप के आरोपियों में एक नाबालिग भी था, और कहा जाता है कि उसी ने बलात्कार के अलावा सबसे अधिक हिंसा की थी। अभी सुप्रीम कोर्ट तक यह मामला चल ही रहा है कि क्या रेप और मर्डर जैसे जुर्म में शामिल होने वाले नाबालिगों के लिए उम्र सीमा घटाकर उन्हें सजा दी जाए?
अभी हम उम्र सीमा घटाने के बारे में तो अधिक बोलना नहीं चाहते क्योंकि अदालत में हर तरह की सोच रखने वाले जानकार लोगों के बीच इस पर बहस बाकी ही है, और बहुत सी विशेषज्ञ राय अभी सामने आ सकती हैं। लेकिन जो दूसरी चीज हमें सूझ रही है वह मां-बाप, परिवार, और पारिवारिक संपत्ति को सजा देने की है। पहले भी हम यह बात लिखते आए हैं कि जब ऊंचे ओहदों पर बैठे हुए, या पैसों की ताकत रखने वाले, या किसी और वजह से अधिक ताकतवर लोग जब किसी भी तरह से कमजोर लोगों पर कोई जुल्म करते हैं, तो उस पर अलग सजा का प्रावधान होना चाहिए। सामाजिक रूप से जो जातियां कमजोर मानी जाती हैं, या किसी धर्म के लोगों की हालत कमजोर रहती है, तो उनके खिलाफ जुर्म करने वाले ताकतवर लोगों को अतिरिक्त सजा मिलनी चाहिए। इसके साथ-साथ हम यह बात भी सुझाते आए हैं कि संपन्न मुजरिमों पर ऐसे आर्थिक दंड भी लगने चाहिए जिससे उनके जुर्म के शिकार लोगों को सीधे आर्थिक मदद मिल सके, और अगर वे जरूरतमंद न हो, तो भी ऐसा जुर्माना लगाकर उसका इस्तेमाल समाज के व्यापक हित में किया जाना चाहिए। कानून की नजर में कैद तो एक बराबर होनी चाहिए, लेकिन जुर्माना मुजरिम की आर्थिक क्षमता के हिसाब से अतिरिक्त लगना चाहिए। बलात्कार के मामलों में तो हमने दो कदम आगे जाकर यह भी सुझाया था कि जुर्म साबित हो जाने पर अगर बलात्कारी संपन्न है, और बलात्कार की शिकार लडक़ी या महिला अगर गरीब है, तो बलात्कारी की संपत्ति का एक हिस्सा उसे मिलना चाहिए, ठीक उतना ही जितना कि बलात्कारी के वारिसों को मिलने वाला है। ऐसी सजा ताकतवर मुजरिमों को जुर्म से परे रहने की बात सुझा सकती है क्योंकि पारिवारिक संपत्ति का एक हिस्सा अगर अदालत के रास्ते जुर्म की शिकार को देना होगा, तो मुजरिम का परिवार उसे कभी माफ नहीं कर पाएगा, और यह जेल की सजा के अलावा जिंदगी भर की पारिवारिक सजा भी होगी।
आज स्कूली छात्रों के इस ताजा जुर्म के सिलसिले में हम इस चर्चा को इसलिए छेड़ रहे हैं कि संपन्न परिवारों के बच्चों की बददिमागी उनके परिवार की आर्थिक संपन्नता से, या मां-बाप के राजनीतिक या शासकीय ओहदे की वजह से भी आती है। उन्हें जो गाडिय़ां दौड़ाने मिलती हैं, जो क्रेडिट या डेबिट कार्ड मिलते हैं, उन्हें जिस तरह की महंगी जीवन-शैली परिवार की तरफ से दी जाती है, वह सब कुछ उन्हें बददिमागी की ताकत देते हैं। ऐसी ताकत देने वाले परिवार को उस वक्त भी जुर्माने के लायक माना जाना चाहिए जब उम्र कम होने से जुर्म करने वाले को कोई सजा देना मुमकिन न हो। सामाजिक न्याय तो यही हो सकता है कि समाज में जिन लोगों को अलग-अलग कई तरह की सजा दी जा सकती है, वह दी जाए। कम उम्र के नाबालिग लोग अगर कोई गंभीर जुर्म करते हैं तो यह माना जाना चाहिए कि उसके लिए संपन्न मां-बाप भी कुछ या अधिक हक तक जिम्मेदार रहते हैं, और उन पर जुर्माना लगाकर जुर्म के शिकार, या समाज का भला किया जाना चाहिए।
इन दिनों नाबालिग किशोरों के किए हुए जुर्म न सिर्फ संख्या में लगातार बढ़ रहे हैं, बल्कि वे अधिक गंभीर किस्म के जुर्म भी होते जा रहे हैं। कम उम्र के नाबालिगों में नशे के मामले भी लगातार बढ़ रहे हैं, और उससे भी आगे-पीछे अधिक जुर्म, और और गंभीर जुर्म बढऩा तय हैं। इन सबको देखते हुए भारत में कानून में सुधार की जरूरत है, ताकि संपन्नता की सहूलियतें मुहैया कराने वाले परिवार को भी जुर्म की सजा में आर्थिक रूप से भागीदार बनाया जा सके। इंसाफ ऐसा नहीं हो सकता जो कि अंधा हो। और अब तो भारत में इंसाफ की देवी की प्रतिमा की आंखों पर बंधी पट्टी हटा भी दी गई है। इसलिए जुर्म को तौलने, और सजा को सामाजिक न्यायसंगत बनाने के लिए कानून में फेरबदल जरूरी है ताकि दौलत या ओहदे की ताकत के दम पर, उसके अहंकार में जुर्म बढ़ते न चले जाएं, और भारत की जांच व्यवस्था, और न्याय व्यवस्था तो गरीब के खिलाफ काम करने वाली है ही, इसमें ताकतवर को सजा की संभावना बिल्कुल ही कम रहती है।
जिस ताजा मामले में स्कूली छात्रों ने सहपाठी छात्राओं और शिक्षिकाओं की अश्लील तस्वीर बनाई है, इस बददिमागी के पीछे भी किसी न किसी ताकत का योगदान भी दिखता है। हमारा यह मानना है कि किसी भी जिम्मेदार सरकार को अपने राज्य में हो रहे जुर्म, या सडक़ हादसों जैसे मामलों का लगातार अध्ययन करना चाहिए ताकि उनसे कोई निष्कर्ष निकालकर अगर उनमें कमी लाने की गुंजाइश हो, तो वह किया जा सके। अभी संवैधानिक व्यवस्था की हमें ठीक से जानकारी नहीं है, लेकिन शायद यह राज्यों के अधिकार क्षेत्र की बात होगी अगर वे अपने राज्य में संपन्न परिवारों के नाबालिगों के जुर्म पर जुर्माना लगाने का कानून बनाएं। किसी न किसी राज्य को ऐसी शुरूआत भी करनी चाहिए। अभी हमने इस बारे में देश के एक प्रमुख वकील से भी राय ली, और उन्होंने भी यह माना है कि संसद के बनाए कानून के खिलाफ राज्य कानून नहीं बना सकते, लेकिन उस कानून में मुकर्रर सजा में इजाफा तो कर ही सकते हैं। हम अभी मां-बाप को किसी कैद सुनाने की बात नहीं कह रहे, लेकिन उनकी संपन्नता को एक सजा जरूर मिलनी चाहिए।
पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने अभी वहां सडक़ हादसों पर अदालत की तरफ से ही 2017 में शुरू की गई, और अभी तक जारी सुनवाई के दौरान कल यह साफ किया कि पगड़ी पहनने वाले सिक्खों के अलावा दुपहियों पर चलने वाले किसी और को हेलमेट से छूट नहीं है। सिक्ख परिवारों की महिलाओं को भी हेलमेट लगाना जरूरी है, अगर वे पगड़ी नहीं पहनती हैं। और दुपहियों पर चार बरस से अधिक उम्र के बच्चों के लिए भी हेलमेट जरूरी है। अदालत ने सरकार से पूछा है कि बिना हेलमेट दुपहियों पर बैठीं, या उन्हें चला रहीं महिलाओं के कितने चालान किए गए, ये आंकड़े बताए जाएं। इस सिलसिले में अदालत ने इस बात पर केन्द्र सरकार और चंडीगढ़ प्रशासन की जमकर खिंचाई भी की कि ट्रैफिक नियमों के बारे में जब चंडीगढ़ ने केन्द्र से सिक्ख महिलाओं के बारे में अलग से मार्गदर्शन मांगा तो केन्द्र सरकार ने सिक्ख महिलाओं को भी हेलमेट से छूट देने की बात सुझाई। हाईकोर्ट ने केन्द्र के इस जवाब पर हैरानी जाहिर की कि जब कोई महिला पगड़ी नहीं लगा रही है तो उसे सिर्फ सिक्ख धर्म की होने के कारण हेलमेट से छूट क्यों दी गई?
हमारे अखबार में, वेबसाइट पर, और यूट्यूब चैनल पर हम लगातार हेलमेट को बढ़ावा देने का अभियान चलाते रहते हैं। सडक़ सुरक्षा के नियमों में हेलमेट अनिवार्य होने के बावजूद जब हमारे प्रदेश की सरकार इसे लागू नहीं करती, तो हम बड़ी कड़ी जुबान में आलोचना करते आए हैं। हमारी बुनियादी सोच और कानून की बहुत मामूली समझ यह सुझाती है कि राज्य सरकार किसी सोचे-समझे फैसले की तरह जनता को हेलमेट की अनिवार्यता से रियायत नहीं दे सकती। सरकार को जनकल्याणकारी होना चाहिए, और वह कानून को लागू न करने का फैसला नहीं ले सकती। खासकर ऐसे वक्त जब इस प्रदेश में ऐसा एक भी दिन नहीं गुजरता जब दुपहिया सवार लोग सडक़ हादसों में मारे न जाते हों। जिस तरह पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट सडक़ सुरक्षा को लेकर 2017 से लगातार सुनवाई कर रहा है, और हर पहलू पर राज्य सरकारों, केन्द्र प्रशासित चंडीगढ़, और केन्द्र सरकार से जवाब-तलब कर रहा है, उसी तरह बाकी प्रदेशों में भी जहां सरकारें सडक़ सुरक्षा के नियम लागू नहीं कर रही हैं, वहां हाईकोर्ट को दखल देना चाहिए। अदालत की भूमिका सिर्फ कानून टूटने के बाद सामने नहीं आती, बल्कि कानून को अगर सोच-समझकर किनारे धर दिया गया है, तो भी अदालत का दखल बनता है। हम छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट को देखते हैं, तो वह प्रदेश में पहले से मौजूद कोलाहल अधिनियम पर अमल न होने पर लगातार सरकार को कटघरे में रखे हुए हैं क्योंकि धार्मिक डीजे लोगों का जीना हराम किए हुए हैं। सडक़ सुरक्षा के मामले में भी इस हाईकोर्ट ने सरकार को कटघरे में खड़ा कर रखा है क्योंकि पूरे प्रदेश में जानवरों का सडक़ों पर कब्जा है, और इस वजह से जो सडक़ हादसे होते हैं उसमें जानवर बड़ी संख्या में मरते हैं, और कई मामलों में इंसान भी। इन दो मामलों के अलावा छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने कभी किसी सरकारी अस्पताल की बदहाली पर सरकार को हुक्म देकर वहां एक बड़े आईएएस अफसर को इंचार्ज बनवाया है, तो कभी सरकारी स्कूलों में शिक्षक न होने और दूसरी दिक्कतों को लेकर सरकार को अदालत में खड़ा किया है। जब हम हाईकोर्ट के इस रूख से सहमति जताते हुए लिखते या बोलते हैं, तो सरकार में पूरी जिंदगी नौकरी करने वाले कुछ लोग याद दिलाते हैं कि यह अदालत का अपने दायरे से बाहर जाकर काम करना है।
सरकार और अदालत के बीच के रिश्तों की बुनियाद को समझते हुए भी हमारा साथ-साथ यह भी मानना है कि जहां कहीं सरकार अपनी बुनियादी जिम्मेदारी पूरी नहीं करती है, वहां अदालत पर दखल देने की जिम्मेदारी बन जाती है। सीट बेल्ट, या हेलमेट लगाने को अनिवार्य करना सरकार की बुनियादी जिम्मेदारी है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि कोई भी गाड़ी चलाने वाले अगर मोबाइल पर बात करते हैं, तो उसे रोकना, या नशे में गाड़ी चलाने वालों को रोकना, ओवरलोड गाडिय़ों को रोकना, या मालवाहक गाडिय़ों में इंसानों का ढोना रोकना। ये तमाम चीजें किसी भी जिम्मेदार और जनकल्याण सरकार की बुनियादी जिम्मेदारी इसलिए भी है कि ऐसे ही नियमों को तोड़ते हुए लोगों का मिजाज अराजकता का बनता है, और फिर वे आगे जाकर अधिक नियमों को तोड़ते हैं, गंभीर किस्म के जुर्म करते हैं। समाज में जुर्म की शुरूआत बहुत सारे मामलों में ट्रैफिक-जुर्म से चालू होती है, और फिर वह अधिक संगीन जुर्म की तरफ बढ़ जाती है।
ट्रैफिक को लेकर किसी भी सरकार को यह बात अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि सडक़ें लोगों के घर के भीतर की जगह नहीं है जहां पर कि नियम तोडऩे से सिर्फ उनके घर का नुकसान होगा। सडक़ों पर नियम तोडऩे से बाकी जिंदगियां भी खतरे में पड़ती हैं, इसलिए भी जब सरकारें वोटरों की नाराजगी से बचने के लिए लोगों को अराजकता की छूट देती हैं, तो अदालत की जिम्मेदारी शुरू हो जाती है। अगर सरकार ही नियम लागू करने से मुंह चुराती है, तो फिर हाईकोर्ट ही सरकार को आईना दिखा सकते हैं, और मजबूर कर सकते हैं कि वे जनहित के कानूनों को लागू न करने की अपनी खुद की मनमानी और अराजकता को खत्म करें।
किसी भी राज्य सरकार को हमारी यही सलाह है कि सडक़ हादसों में मरने वाले लोगों के आंकड़ों को ही सब कुछ न मानें। हर मौत के पीछे बहुत से ऐसे जख्मी लोग रहते हैं जो पूरी जिंदगी अपने परिवार पर बोझ बन जाते हैं, और सरकारी इलाज-खर्च में भी बढ़ोत्तरी करते हैं। ऐसे लोगों की उत्पादकता भी समाज से चली जाती है। अभी कुछ महीने पहले ही प्रदेश के गृहमंत्री के अपने ही इलाके कबीरधाम जिले में मजदूरों से ओवरलोड एक मालवाहक गाड़ी पलटी थी जिसमें डेढ़ दर्जन से अधिक गरीब आदिवासी मारे गए थे। लेकिन उसके बाद भी पूरे प्रदेश में ऐसे हादसे जारी हैं, मुसाफिर गाडिय़ों की कमी बताते हुए मालवाहक गाडिय़ों में गरीब मजदूरों, या तीर्थयात्रियों को थोक में ढोना जारी है, और ऐसी गाडिय़ां पलटने पर इंसानों की जानवरों से भी बुरी मौत होती हैं। यह नौबत बदलनी चाहिए। अगर सरकार कुछ, या कई वजहों से सडक़ सुरक्षा लागू करना नहीं चाहती हैं, तो हमारा ख्याल है कि उसे इसकी आजादी नहीं दी जा सकती। ऐसे हर राज्य के हाईकोर्ट को चाहिए कि वह खुद होकर ऐसी सुनवाई शुरू करे, और कानून की सरकारी अनदेखी के मामलों को दर्ज करने के लिए जरूरत पडऩे पर वह कोर्ट-कमिश्नर भी नियुक्त करे, जरूरत रहे तो अपनी मदद के लिए अच्छी साख वाले किसी वकील को न्यायमित्र भी बनाए, और जनता की जिंदगी बचाने के लिए ऐसे मामलों पर लगातार सुनवाई करे, और सरकार को ट्रैफिक नियम, और सडक़ सुरक्षा के बाकी इंतजामों के लिए मजबूर करे। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में सडक़ों पर से जानवरों को हटाने के लिए एक मामला लगातार चल रहा है, मोटर व्हीकल एक्ट को लागू करवाने वाला पहलू उसी मामले में जोड़ा जा सकता है। जहां लोगों की जिंदगियां शामिल हों, वहां पर कार्रवाई न करने का हक सरकार को नहीं दिया जा सकता।
दक्षिण भारत से एक अच्छी खबर है, जो कि गिनती में बहुत कम आती हैं, कि अमरीकी कंपनी एप्पल आईफोन बनाने के अपने भारतीय कारखानों में काम करने वाली महिलाओं के लिए बड़ी संख्या में हॉस्टल और रिहायशी सहूलियत बनाने जा रही है। एप्पल के लिए फोन बनाने वाली दूसरी कंपनियों के साथ मिलकर उसने यह योजना बनाई है, और आज इसी बारे में बिजनेस स्टैंडर्ड में छपे एक समाचार से यह भी पता लगता है कि चीन और वियतनाम में महिलाओं को रिहायशी सहूलियत देने के बड़े अच्छे नतीजे निकले हैं, सुविधा और सुरक्षा की वजह से उनकी दक्षता और उत्पादकता भी बढ़ी है। अभी जो जानकारी सामने आई है उसके मुताबिक इस वित्तीय वर्ष में कंपनी दो लाख से अधिक कामगार बढ़ाने वाली है जिनमें से 70 फीसदी महिलाएं हो सकती हैं। और अभी ही तमिलनाडु और कर्नाटक में आईफोन बनाने वाले कारखानों में दसियों हजार कामगार हैं, जिनमें बड़ा अनुपात महिलाओं का है। इनमें से एक कंपनी के 41 हजार कामगारों में से 35 हजार महिलाएं हैं।
यह भारत के लिए एक बड़ी कामयाबी की बात है कि महिलाओं को इतनी बड़ी संख्या में सुरक्षित और ठीकठाक मेहनताने वाला काम मिल रहा है। और दुनिया में टेक्नॉलॉजी से जुड़ी चीजें बनना जारी रहेगा, एप्पल जैसी एक सबसे कामयाब कंपनी ने भारत को अपना एक मैन्युफेक्चरिंग ठिकाना बना लिया है, तो यहां उसका विस्तार भी होते चलेगा। इससे भारत को टैक्स के रास्ते भी बड़ी कमाई होगी, और भारतीय कामगारों को लाखों की संख्या में अच्छा रोजगार मिल रहा है, और इससे भी बड़ी बात यह कि रोजगारों का सबसे बड़ा अनुपात महिलाओं को जा रहा है। देश में गुजरात में तो पिछले दस बरस में बड़ी संख्या में उद्योग गए हैं, और यह समझ पड़ता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का अपने गृहराज्य के प्रति लगाव उन्हें अमरीका से लेकर चीन तक के राष्ट्रपतियों को गुजरात ले जाने के बहाने देता है। लेकिन दक्षिण भारत के राज्यों में ऑटोमोबाइल कंपनियों से लेकर एप्पल तक का वहां जो दाखिला हो रहा है, उससे हिन्दुस्तान के बाकी राज्यों को भी यह सीखने की जरूरत है कि वहां सरकारों के बर्ताव से परे कामगारों की तकनीकी दक्षता की वजह से ये कंपनियां वहां जा रही हैं। अंग्रेजी भाषा के मामूली ज्ञान के साथ-साथ तकनीकी क्षमता से लैस कामगार एप्पल जैसी कंपनी के लिए जरूरी हैं, और शायद इसीलिए इस कंपनी ने दक्षिण के दो राज्यों को पसंद किया है। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम बार-बार अपने अखबार के इसी कॉलम में तमाम राज्यों के लिए लिखते हैं कि उन्हें अपनी जनता को मजदूरी से अधिक के लिए भी तैयार करना चाहिए। तमिलनाडु और कर्नाटक में जिस तरह लाखों कामगारों को इस एक कंपनी के एक प्रोडक्ट के लिए अच्छा काम मिला है, उससे भी देश के बाकी राज्यों को सबक लेना चाहिए।
अब हम इस खबर के एक दूसरे पहलू पर आना चाहते हैं। भारत में कामगारों में महिलाओं का अनुपात अभी 37 फीसदी था, जो कि एक बरस में अब 41 फीसदी तक पहुंचा है। भारत सरकार के ये आंकड़े यह भी साबित करते हैं कि महिलाओं को मौके मिलें तो वे बराबरी से काम कर सकती हैं। हम इसी वक्त के चीन के आंकड़े अगर देखें तो वे 60 फीसदी से अधिक हैं। यानी भारत के मुकाबले चीन में महिलाओं की भागीदारी डेढ़ गुना है। और इससे जाहिर है कि दुनिया भर की कंपनियों के मैन्युफेक्चरिंग ठिकाने के लिए चीन को पहली पसंद क्यों माना जाता है, और इससे ही यह भी जाहिर होता है कि चीन को अधिक आबादी की जरूरत क्यों पड़ रही है। हिन्दुस्तान के शहरों में महिलाओं के रहने की कोई सुरक्षित और संगठित जगह नहीं रहती है। कई शहरों में सरकार ने इसके लिए पहल की है लेकिन कल्पनाशीलता की कमी से कामकाजी महिलाओं के हॉस्टल शहरों के बाहर बना दिए गए हैं। इसलिए दक्षिण भारत में एप्पल के इस प्रयोग से सीखने की जरूरत है जिसमें कि वह चीन और वियतनाम में पहले ही कामयाब हो चुका है। इस देश में महिलाओं के काम के अवसर बढ़ाने के साथ-साथ उनके सुरक्षित और सुविधाजनक रहने के इंतजाम भी करने चाहिए, तभी देश में उनकी उत्पादकता का पूरा फायदा मिल सकेगा।
हम दक्षिण भारत के एक राज्य आन्ध्र के मुख्यमंत्री के एक ताजा बयान को दोहराना चाहते हैं। चन्द्रबाबू नायडू ने यह कहा है कि लोग अधिक बच्चे पैदा करें क्योंकि वहां के लोग काम करने बाहर चले जा रहे हैं, और आबादी बुजुर्ग होती जा रही है। जब आबादी को भाषा और हुनर दोनों से लैस किया जाता है, और उन्हें देसी-विदेशी कंपनियों के साथ, और माहौल में काम करने लायक तैयार किया जाता है, तभी किसी राज्य के कामगार शानदार कामकाज के लिए बाहर जाते हैं। आज अमरीका में कदम-कदम पर दक्षिण भारतीय लोग काम करते दिखते हैं। भारत के कई राज्यों को इन तमाम चीजों से सबक लेने की जरूरत है, और हर राज्य को यह सोचना चाहिए कि दुनिया भर की कंपनियां किन पैमानों पर किसी राज्य को अपने कारखाने के लिए छांटती हैं। छत्तीसगढ़, झारखंड, और ओडिशा जैसे राज्यों का अधिकतर औद्योगीकरण इन राज्यों के खनिजों की वजह से है, किसी और वजह से नहीं। इन राज्यों को खनिज-आधारित उद्योगों से संतुष्ट होकर नहीं बैठ जाना चाहिए क्योंकि उनमें प्रदूषण बहुत अधिक होता है, और लोगों को मजदूरी किस्म का काम ही अधिक मिलता है। अगले कुछ बरस में कर्नाटक और तमिलनाडु में एप्पल के प्रोडक्ट बनाने में ही पांच-दस लाख कामगार लगेंगे, और ये सब लोग खनिज-आधारित कारखानों के कामगारों से कई गुना अधिक कमाई वाले रहेंगे।
भारत अपने आपमें एक यूरोपीय महासंघ सरीखा है और जिस तरह योरप के देश आपस में मुकाबला करते हैं, उसी तरह भारत के राज्य भी पूंजीनिवेश पाने के लिए, बुनियादी ढांचे के लिए एक-दूसरे से मुकाबला करते हैं। हर राज्य सरकार के पास यह सहूलियत रहती है कि वह देश में मौजूद बहुत सी सलाहकार कंपनियों से रिपोर्ट बनवा सके कि अधिक कामयाब राज्यों में क्या खूबियां हैं, और उनके राज्य में क्या खामियां हैं। महज अपने राज्य के भीतर थोड़ी-बहुत रोजगार खड़े करने की कोशिश किसी भी तरह से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आने का मुकाबला नहीं कर सकती। हर राज्य को चौकन्ना होकर अपने से अधिक कामयाब से लगातार सीखना चाहिए। हर राज्य को अपने तमाम शहरों में कामकाजी महिलाओं के लिए हॉस्टल तेजी से बनाने चाहिए जो कि कर्मचारियों के साथ-साथ क्षमता रहने पर छात्राओं के भी काम आ सकें।
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तरप्रदेश सरकार पर इस बात को लेकर भारी नाराजगी जाहिर की है कि उसने बिना नोटिस सडक़ किनारे के एक घर को गिरा दिया। मनोज टिबरेवाल नाम के इस आदमी के घरतले सडक़ किनारे के कुल 3.7 मीटर से कम की जगह पर कब्जा था, लेकिन इसके लिए पूरे घर को बुलडोजर से गिरा दिया गया, और इस आदमी ने जब सुप्रीम कोर्ट को चिट्ठी लिखी तो अदालत ने, चीफ जस्टिस डी.वाई.चन्द्रचूड़ ने इसे खुद होकर एक केस की तरह दर्ज किया, और उसकी सुनवाई शुरू की। इस पर यूपी सरकार को इस मकान मालिक को 25 लाख रूपए मुआवजा देने का हुक्म देते हुए अदालत ने इस बात को दोहराया कि तोडफ़ोड़ के बारे में सुप्रीम कोर्ट से देश भर में जो आदेश पहले जारी किए गए थे, उनका सभी राज्य सख्ती से पालन करें। यह मामला 2019 में सडक़ चौड़ीकरण के लिए किनारे के कब्जों और निर्माणों को हटाने का था। यह मामला उत्तरप्रदेश से शुरू बुलडोजर जस्टिस किस्म का नहीं था जो कि 2017 में योगी सरकार ने शुरू किया, और जिसका निशाना मोटेतौर पर वे मुस्लिम लोग थे जो सरकार को किसी वजह से पसंद नहीं थे। इस बुलडोजर जस्टिस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक अलग मामला चल ही रहा है, जिसे लेकर जजों ने पूरे देश के लिए दिशा-निर्देश बनाने का काम शुरू किया है। 2017 से यूपी में शुरू किए गए बुलडोजरी-इंसाफ को बाद में मध्यप्रदेश जैसे दूसरे भाजपा-राज्यों ने भी अपना लिया, और किसी भी तरह के जुर्म में किसी का नाम आने पर उस आरोपी के घर-दुकान सबको गिरा देने के लिए कोई पुराने नोटिस ढूंढकर निकाल लिए जाते हैं, और दो-चार दिन के आखिरी नोटिस के बाद छांट-छांटकर उन चुनिंदा ढांचों को गिरा दिया जाता है। जाहिर तौर पर यह उस इलाके के बाकी अवैध निर्माणों से परे का मामला रहता है, और कई जगहों पर तो सरकार की नजरें तिरछी होते ही अधिकारी जनता के एक तबके की फरमाईश पर बुलडोजर लेकर पहुंच जाते हैं, और किसी आरोपी के परिवार के और लोगों के नाम से बने हुए निर्माण भी गिरा देते हैं। हम बरसों से इसके खिलाफ लिखते चले आ रहे हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अभी कुछ महीने पहले से ही इस मामले की सुनवाई शुरू की है, और यह पाया है कि यह राजनीतिक और अफसरी मनमानी के अलावा और कुछ नहीं है। अदालत ने यह साफ किया है कि किसी व्यक्ति पर आरोप लगने से, या उसे सजा हो जाने से भी उसके परिवार के किसी निर्माण को अलग से छांटकर गिरा देने का अधिकार किसी सरकार को नहीं मिल जाता। लेकिन जिन हजारों मकान-दुकान को यूपी-एमपी सरकारों ने साम्प्रदायिक आधार पर अंधाधुंध गिराया, उनमें से किसी को मुआवजा सुप्रीम कोर्ट ने दिलवाया हो ऐसा याद नहीं पड़ता। बल्कि हाल ही में जब कुछ जनसंगठन सुप्रीम कोर्ट पहुंचे, और अदालत से कहा कि उसके साफ-साफ हुक्म के बाद भी कुछ राज्य सरकारें बुलडोजर से इसी तरह की तोडफ़ोड़ जारी रखे हुए है, तो अदालत ने इन संगठनों की अपील सुनने से मना कर दिया, और कहा कि जो प्रभावित परिवार हैं वे सामने आएंगे, तो अदालत उन्हें सुनेगी।
सुप्रीम कोर्ट का रूख बड़ी निराशा पैदा करता है, और कुछ रहस्यमय भी लगता है। जिन सैकड़ों या हजारों घर-दुकान को अफसरों ने रातोंरात गिरा दिया, और जिनमें से अधिकतर मुस्लिमों के थे, उनमें से किसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह हर्जाना दिलवाया हो, ऐसा याद नहीं पड़ता है, जबकि उन मामलों में सरकारों का एक साम्प्रदायिक नजरिया भी खुलकर सामने आया है। अब सडक़ चौड़ीकरण के एक मामले में मनोज टिबरेवाल नाम के एक व्यक्ति के मकान को पूरा गिरा देने पर सुप्रीम कोर्ट ने यह मुआवजा देने का आदेश दिया है। 2017 से जो सिलसिला लगातार सुर्खियों में बना हुआ था, और देश के हर अखबार, हर टीवी चैनल पर मुस्लिमों के नामों सहित रातोंरात उनके परिवारों के निर्माण गिरा देने के नजारे बने हुए थे। सुप्रीम कोर्ट किस तरह उन मामलों पर सोया हुआ था, यह समझने में हमें कुछ दिक्कत हो रही है। सुप्रीम कोर्ट के मामलों को कवर करने वाली एक वेबसाईट, सुप्रीमकोर्ट ऑब्जर्वर की एक रिपोर्ट बताती है कि 2022 से अब तक देश में डेढ़ लाख से अधिक मकानों को बुलडोजरों से गिरा दिया गया है, जिनमें 7 लाख 38 हजार लोग बेघर हो गए हैं। इनमें से बहुत से मामलों में सिर्फ एक बात लागू होती थी कि निर्माण से परे के किसी विवाद में इन परिवारों के किसी का नाम जुड़ जाना। आरोपियों के नाम की, या उनके परिवार की प्रॉपर्टी को कोई पुराना नोटिस ढूंढकर गिरा देने का सिलसिला चले आ रहा था। 2022 से अलग-अलग कई हाईकोर्ट में ऐसे मामले चल रहे थे, और कुछ अदालतों ने तो मनमानी बुलडोजरी-इंसाफ के खिलाफ आदेश देते हुए मुआवजा देने को भी कहा था। सुप्रीम कोर्ट ने अभी इसी बरस सितंबर के महीने से इसकी सुनवाई चालू की, और जज सारे मामलों को सुनकर हक्का-बक्का रह गए। वह सुप्रीम कोर्ट की एक अलग बेंच है जिसमें दूसरे दो जज हैं, और अभी कल के इस ताजा आदेश में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश वाली तीन जजों की बेंच ने मुआवजे का आदेश दिया है।
हम अदालती जटिलताओं में एक सीमा से अधिक घुसना नहीं चाहते, और एक सामान्य समझबूझ के व्यक्ति की तरह यह सवाल सामने रख रहे हैं कि जस्टिस चन्द्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच ने इस नए मामले पर मुआवजे का जो फैसला दिया है, उस तरह का अदालती फैसला पहले के दूसरे हजारों मामले में क्यों नहीं दिए गए? और तो और सुप्रीम कोर्ट की मौजूदा बेंच ने सितंबर से चल रही एक व्यापक सुनवाई के तहत दिए गए आदेशों की कई राज्यों में अनदेखी की शिकायतों को भी सुनने से इंकार कर दिया कि प्रभावित पक्ष खुद आएं। जो बेघर हो गए हैं, बेरोजगार हो गए हैं, जिनके सिर पर छत नहीं रह गई, उनकी क्षमता क्या इतनी हो सकती है कि वे खुद सुप्रीम कोर्ट पहुंच सकें? और अगर अदालत की अवमानना के ऐसे मामले कोई जनसंगठन उठाते हैं, तो अदालत को उन्हें क्यों नहीं सुनना चाहिए?
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ का यह शायद आखिरी हफ्ता चल रहा है, और जाते-जाते उन्होंने 2017 से देश में चल रहे बुलडोजरी-इंसाफ पर पहली बार कोई आदेश दिया है, और यह आदेश भी बेइंसाफी के शिकार अल्पसंख्यक समुदाय के किसी मामले में नहीं है, और सडक़ किनारे कुछ अवैध कब्जे वाले एक हिन्दू-पत्रकार की याचिका पर है। हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के जजों की नीयत एकदम ही पाक-साफ हो, लेकिन 2017 से देश में चल रहे बुलडोजरी-इंसाफ पर अपने पूरे कार्यकाल में मुख्य न्यायाधीश ने अब तक पूरे देश के लिए कोई फैसला क्यों नहीं दिया था? क्यों राज्य सरकारों का हौसला अभी भी सुप्रीम कोर्ट की एक दूसरी बेंच के साफ-साफ आदेश के खिलाफ जाकर बुलडोजरी-तोडफ़ोड़ करने का जारी है? ऐसे कई सवाल परेशान करते हैं। जस्टिस चन्द्रचूड़ को अपने आराध्य के सामने बैठकर इस बारे में मार्गदर्शन पाना चाहिए कि अपनी भावी किसी आत्मकथा में वे अपनी बुलडोजर से भी विकराल अनदेखी के बारे में कितना लंबा चैप्टर लिखें? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के एक जिले अंबिकापुर में कलेक्टर के जनदर्शन में पहुंचे लोगों में से एक नौजवान ने तब सबको हक्का-बक्का कर दिया जब उसने कलेक्टर से ब्याज पर साढ़े 8 हजार रूपए एक महीने के लिए मांगे। उसने कहा कि पटवारी ने नक्शा दुरूस्त कराने के लिए 10 हजार रूपए मांगे हैं, जिसमें से ढाई हजार रूपए वह दे चुका है, और अब वह साढ़े 8 हजार रूपए और मांग रहा है। अब कलेक्टर इस पर जो भी कार्रवाई करे, सच तो यह है कि जिन लोगों का पटवारी दफ्तर से लेकर तहसील दफ्तर तक कोई वास्ता पड़ता है, या इसके बाद एसडीएम के राजस्व न्यायालय में जाना पड़ता है, उन सभी का तजुर्बा इसी के आसपास रहता है। हर पटवारी अपने हलके के बाजार भाव, और वहां पर रिकॉर्ड की जटिलता को देखते हुए अपने निजी दफ्तर में निजी कर्मचारियों को तनख्वाह पर रखता है, और यहीं से भ्रष्टाचार का सिलसिला शुरू होता है। लोगों को याद होगा कि एक वक्त पुलिस थानों में शिकायत लिखने के लिए कागज भी नहीं रहता था, और हर शिकायतकर्ता से एक दस्ता कागज बुलवा लिया जाता था, ठीक उसी तरह जिस तरह कि किसी अस्पताल के ऑपरेशन थियेटर में हर ऑपरेशन में लगने वाले कुछ इंजेक्शन की बड़ी बोतलें हर किसी से मंगवा ली जाती हैं, और फिर एक-एक बोतल कई मरीजों के काम आती हैं, बाकी बच जाती हैं। लेकिन पटवारी की बात पर लौटें तो पटवारी, तहसीलदार, और आमतौर पर एसडीएम के दफ्तरोंं में बिना लेन-देन कोई काम हमने तो कहीं सुना भी नहीं है। बहुत से लोग जो तहसीलदार, और एसडीएम के राजस्व न्यायालय में वकीलों के मार्फत अर्जी लगाते हैं, उनकी तरफ से वकील ही लेन-देन का काम करते हैं, और वे उसे वकील की फीस, और ऑफिस का खर्च, दोनों मिलाजुला मानकर चलते हैं। हमारा ख्याल है कि किसी सत्तारूढ़ पार्टी की जीत-हार में सरकार की जो दो बातें सबसे अधिक मायने रखती हैं, उनमें पटवारी से एसडीएम तक के राजस्व मामले, और किसी भी दर्जे के सरकारी अस्पताल में पहुंचने वाले मरीजों के मामले, इन्हीं दो के तजुर्बे से सत्तारूढ़ पार्टी पर सबसे अधिक असर पड़ता है। प्रदेश में सरकारी इलाज का हाल एकदम बर्बाद चल रहा है, और तहसील सहित उसके ऊपर-नीचे काम कैसा चल रहा है इसे देखने के लिए तहसीलदारों के संगठन के वे बयान याद रखने चाहिए जिनमें उन्होंने अपने तबादलों के लिए राजस्व मंत्री टंकराम वर्मा पर उगाही के आरोप लगाए थे। यह भी याद रखना चाहिए कि तहसीलदारों के तबादलों की लंबी-चौड़ी लिस्ट पूरी की पूरी हाईकोर्ट ने खारिज कर दी थी क्योंकि वे तबादले गलत तरीके से किए गए थे। सरकार को अपने इन दोनों नाजुक विभागों पर अधिक ध्यान देना चाहिए क्योंकि एक विभाग ने अभी गरीब आदिवासियों की आंखें थोक में बर्बाद करके अपना हाल साबित कर दिया है, और दूसरे विभाग का हाल टंकराम वर्मा पर लगे आरोपों से लेकर तो अभी अंबिकापुर कलेक्टर से मांगे गए कर्ज तक हर जगह साबित हो रहा है।
हमको याद है कि छत्तीसगढ़ की पहली सरकार के मुख्य सचिव रहे अरूण कुमार इस बात के लिए जाने जाते थे कि अपनी पूरी नौकरी में किसी पद पर उन्होंने कोई काम नहीं किया था, और जब वे तबादले पर दूसरी जगह जाते थे तो पीछे फाइलों का अंबार छोड़ जाते थे। लेकिन उनके रिटायर होने के बाद उन्हें तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने प्रशासनिक सुधार आयोग का अध्यक्ष जैसा कुछ बनाकर आगे और मुफ्तखोरी का मौका दिया था। जिन अफसरों ने अपनी पूरी नौकरी में अपने मातहत अमलों में कोई सुधार नहीं किया, उनसे रिटायर होने के बाद चमत्कार की उम्मीद करना किसी बैगा-गुनिया से इलाज कराने जैसी बात है। लेकिन पिछले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भी कॉलेज के दिनों के अपने गुरू रहे विवेक ढांड का सम्मान करने के लिए उनके रिटायर हो जाने के बाद एक नवाचार आयोग बनाकर उन्हें उसमें अध्यक्ष बना दिया था। यह तो आईटी और ईडी की जांच, और हाईकोर्ट में चल रहे हजार करोड़ के भ्रष्टाचार के एक मामले की मेहरबानी से विवेक ढांड कुछ करने की हालत में नहीं थे, और चुनाव के बाद भूपेश की सरकार ही नहीं रही, इसलिए नवाचार आयोग भी नहीं रहा। सरकारें प्रशासनिक सुधार के लिए घिसे-पिटे चिड़ी के दुक्कों का ऐसा इस्तेमाल करती हैं, मानो वे तुरूप के इक्के हों। और ऐसे में नतीजा तो क्या निकलना है यह साफ रहता है।
सरकार में भला ऐसे कौन हैं जिन्हें पटवारी और तहसील-एसडीएम तक की पूरी तरह से संगठित भ्रष्ट-व्यवस्था की जानकारी न हो। तहसील के अहाते में मौजूद जानवरों से भी पूछने पर वे अलग-अलग किस्म के काम का अलग-अलग रेट बता सकते हैं, लेकिन बड़े अफसर और मंत्री इससे ऐसे अनजान बने रहते हैं कि मानो भ्रष्टाचार की यह पूरी बातचीत फ्रेंच भाषा में चलती है जिसे वे नहीं समझते। सांसद, विधायक, या मंत्री-मुख्यमंत्री बनने तक अधिकतर लोग एक लंबे राजनीतिक जीवन से गुजरते हैं, और उनके पास भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकायतें लेकर आने वाले लोग सारे ही वक्त बने रहते हैं। ऐसे में वे अनजान मासूम तो रहते नहीं। जिस तरह आरटीओ दफ्तरों में निजी कर्मचारी काम पर लगाए जाते हैं, उसी तरह तहसील और पटवारी दफ्तर में भी निजी कर्मचारी काम करते हैं क्योंकि काम के लायक पर्याप्त अमला यहां रहता नहीं है, और निजी अमले को तनख्वाह देने की भरपूर गुंजाइश यहां के भ्रष्टाचार में ठीक उसी तरह निकलती है, जिस तरह आरटीओ के चेकपोस्ट पर निजी लठैत रखे जाते हैं ताकि कैमरों में रिकॉर्ड होने पर, या किसी एजेंसी के छापे में पकड़ में आने पर ये लोग अनजाने साबित किए जा सकें।
राज्य सरकार को राजस्व विभाग के कामकाज को दो घटनाओं से बारीकी से समझना चाहिए, इसकी लंबी-चौड़ी तबादला लिस्ट को हाईकोर्ट ने किस कदर गलत मानकर पूरा का पूरा रद्द कर दिया था। दूसरी बात इस भ्रष्ट विभाग में पहली बार तहसीलदारों ने मंत्री पर उगाही का आरोप खुलकर लगाया था। यह अलग बात है कि सरकार ने अपनी साख बचाने के लिए तहसीलदार संघ के ऐसे अफसर को सस्पेंड कर दिया, लेकिन उससे विभाग के आम भ्रष्टाचार की सच्चाई नहीं मिट जाती है। राज्य की भाजपा सरकार को आए अभी साल भर भी नहीं हुआ है, और अगर अभी से कोशिश की जाए तो इस विभाग के दफ्तरों में भ्रष्टाचार कुछ घटाया जा सकता है, और काम को समय पर करवाया जा सकता है। ऐसे दो सुधार होने पर ही सत्तारूढ़ पार्टी की अगले चुनाव में जीतने की संभावना बढ़ सकती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सन् 2000 में बने तीन नए राज्यों में से अकेला छत्तीसगढ़ लगातार राजनीतिक स्थिरता के साथ आगे बढ़ते चल रहा है। उस वक्त साथ बने दो राज्यों में से एक, उत्तराखंड की संभावनाएं एक पहाड़ी राज्य होने की वजह से बड़ी सीमित थीं। लेकिन झारखंड छत्तीसगढ़ की तरह का ही एक खनिज राज्य था, आदिवासी बहुल भी था, नक्सल प्रभावित भी था, लेकिन राजनीतिक अस्थिरता के चलते वह लगातार परेशानियों और समस्याओं से घिरा रहा। दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ में हर सरकार ने, हर मुख्यमंत्री ने अपना कार्यकाल पूरा किया, किसी भी तरह की राजनीतिक अस्थिरता नहीं रही, और राज्य ने विकास की संभावनाओं को कुछ हद तक हासिल भी किया। अब जब राज्य निर्माण का 25वां साल शुरू हो रहा है, तो इसे चलाने वाले लोगों को एक गंभीर आत्ममंथन भी करना चाहिए, और एक नई कल्पनाशीलता भी दिखानी चाहिए।
छत्तीसगढ़ खनिजों से भरपूर राज्य होने के नाते लोहा, कोयला, और सीमेंट से बहुत बड़ी कमाई करता है। इन खनिजों से चलने वाले कारखाने राज्य को बहुत बड़ी रायल्टी और टैक्स देते हैं। लेकिन राज्य की बड़ी कमाई खदानों और कारखानों तक सीमित रह जाती है। छत्तीसगढ़ की पहचान देश में धान के कटोरे की शक्ल में हमेशा से बनी हुई है, लेकिन धान के खेत जितना धन उगाते हैं, उससे बहुत अधिक धन राज्य सरकार से ले लेते हैं। धान खरीदी पर सब्सिडी इतनी अधिक है कि खदानों से निकली दौलत का एक बड़ा हिस्सा धान-किसानों तक सीधे चले जाता है, और इनसे खरीदा गया धान बाजार इसलिए पा रहा है कि केंद्र सरकार की गरीबों को बिना भुगतान राशन देने की योजना चल रही है, और उसके लिए छत्तीसगढ़ का पूरा चावल ले लिया जा रहा है। अगर यह कल्पना करें कि केंद्र सरकार एक दशक पहले की तरह छत्तीसगढ़ में उत्पादित चावल का कुछ हिस्सा ही खरीदने लगे, तो छत्तीसगढ़ के पास इतने चावल को खपाने का कोई बाजार भी नहीं रहेगा। इसलिए छत्तीसगढ़ में किसान और खेतिहर मजदूर की धान से जुड़ी संपन्नता को केंद्र की राज्य से सौ फीसदी खरीदी, और राज्य की किसानों को अभूतपूर्व और ऐतिहासिक सब्सिडी पर टिकी हुई है। यह खुले बाजार की अर्थव्यवस्था से आई हुई संपन्नता नहीं है, इसलिए इसे छत्तीसगढ़ की कृषि अर्थव्यवस्था की कमाई मानना गलत होगा। यह जरूर है कि प्रदेश की आधी से अधिक कृषि-आधारित आबादी केंद्र और राज्य की चावल और धान नीतियों की वजह से, इन नीतियों के चलने तक संपन्नता का सुख पा रही है। लेकिन राज्य सरकार को अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के तहत इस स्थिति का बारीक विश्लेषण करना चाहिए, और धान की अर्थव्यवस्था का एक बेहतर विकल्प भी सोचना चाहिए।
अब हम खनिजों से आती कमाई को देखें, तो इसके इस्तेमाल के बावजूद राज्य की नौजवान पीढ़ी को बाकी देश और पूरी दुनिया में जाकर काम करने लायक बनाने का कोई काम इस राज्य में हो नहीं पाया है। सरकार के सारे प्रशिक्षण केंद्र मिलकर भी लोगों को केंद्र और राज्य सरकार की नौकरियों के लायक ही बना पा रहे हैं। पूरे छत्तीसगढ़ में राज्य की इस चौथाई सदी में भी कामकाजी लोगों और नौजवानों की क्षमता और दक्षता में ऐसा कोई वैल्यू एडिशन नहीं हो पाया है कि वे दूसरी जगहों पर जाकर काम कर सकें, खुद की जिंदगी बेहतर बना सकें, और गृह राज्य की अर्थव्यवस्था में योगदान दे सकें। पूरा दक्षिण भारत, महाराष्ट्र, पंजाब, और कुछ हद तक गुजरात भी अपने लोगों को बाकी देशों में जाने लायक बना पाते हैं, और वहां कामकाज करके लोग अपने घर कमाई भेजते हैं जिससे कि उनके भारत के राज्य संपन्न होते हैं। अभी पिछले ही पखवाड़े आंध्र के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ने लोगों से अपील की है कि वे अधिक बच्चे पैदा करें क्योंकि राज्य के नौजवान और कामगार बाकी देश और पूरी दुनिया में काम करने चले गए हैं, और आंध्र के बहुत से गांव-कस्बों में सिर्फ बूढ़ी आबादी रह गई है। जब कोई राज्य अपने लोगोंं को इस काबिल बनाते हैं कि वे अंतरराष्ट्रीय मोर्चों पर काम करने लायक हो सकें, तब उनमें इतना गर्व करने का हक रहता है कि वे अधिक बच्चे पैदा करें। छत्तीसगढ़ का हमारा जो अंदाज है वह इस प्रदेश के बाहर जाने वाले लोगों को र्ईंट-भट्ठों पर काम करते देखने का है, या कहीं सडक़ निर्माण और कहीं ईमारत निर्माण में मजदूरी करने का। इस प्रदेश की अब तक की पिछली पांच सरकारों ने मिलकर भी छत्तिसगढिय़ा की क्षमता को बाहर मजदूरी करने से अधिक कुछ बनाया हो, वह हमें याद नहीं पड़ता। बस बीच-बीच में, हर महीने-दो-महीने में ऐसी खबरें आती हैं कि दूसरे प्रदेशों में बंधुआ बनाए गए छत्तीसगढ़ी मजदूरों को छुड़वाने के लिए इस राज्य से पुलिस और श्रम विभाग के लोग जाते हैं, और छुड़ाकर लाते हैं।
दरअसल खदान और धान के बीच में संतुष्ट होकर बैठ गए इस प्रदेश ने अपने इंसानों की क्षमता को टटोलने की जहमत उठाना भी बंद कर दिया है। राज्य में मजदूरी मिलने को ही बेरोजगारी से मुक्ति मान लिया गया है, लेकिन क्या कोई राज्य अपने लोगों को महज मजदूर के दर्जे तक पहुंचाकर गर्व पा सकता है? बेरोजगारी के अभिशाप से मुक्त हो जाने को काफी मान लेना बहुत ही तंगनजरिए की बात होगी, राज्य और उसके लोगों की महत्वाकांक्षाएं बहुत अधिक होनी चाहिए। छत्तीसगढ़ की सरहद से लगे हुए आंध्र और तेलंगाना के हर गांव-कस्बे के सैकड़ों और हजारों लोग अगर पश्चिमी देशों में खासी मोटी कमाई करते हैं, तो कुछ किलोमीटर दूर का छत्तीसगढ़ी ईंट-भट्ठों पर ठेका-मजदूरी करने के लायक ही क्यों होना चाहिए?
हमारा मानना है कि कुदरत की दी हुई खनिज संपदा, खेतों की फसल, और जंगलों के वनोपज से ऊपर जाकर इंसानों की क्षमता को भी छत्तीसगढ़ को देखना चाहिए। इस राज्य को अपनी अर्थव्यवस्था के परंपरागत और जमे-जमाए ढांचे के बाहर निकलकर वैश्विक संभावनाओं को तलाशना चाहिए, वरना यह कुदरत की मेहरबानियों के आगे खुद कुछ नहीं कर पाएगा। आज भी इस बात को समझने की जरूरत है कि इस धरती के कोयले से बनने वाली बिजली, और यहां के लौह अयस्क से बनने वाले फौलाद के आगे के कारखाने इस प्रदेश में बड़े सीमित हैं। यहां बनने वाले बिजली और लोहे को कच्चे माल की तरह इस्तेमाल करके जब दूसरे प्रदेशों में असली कमाई के कारखाने चल सकते हैं, तो यहां क्यों नहीं चल सकते? यह प्रदेश बिल्कुल बुनियादी कच्चा माल बनाकर ही कब तक संतुष्ट रहेगा? राज्य सरकार को यह भी देखना चाहिए कि उसकी बिजली, और उसके लोहे में कैसा-कैसा मूल्य-संवर्धन किया जा सकता है, जिससे कि कमाई कई गुना बढ़ सके।
यह राज्य 25वें साल में दाखिल हुआ है, और यह वक्त अगली चौथाई सदी के बारे में सोचने का है। सरकार को अपने नियमित ढांचे से परे भी ऐसे दूरदृष्टि वाले लोगों से राय लेनी चाहिए जो कि चुनावी-सीमाओं के बंदी न हों। इस राज्य को अंतरराष्ट्रीय मुकाबले की तरफ बढऩे की महत्वाकांक्षा रखनी चाहिए, और यह कोशिश करनी चाहिए कि 2050 में छत्तिसगढिय़ा हक के साथ अपने-आपको सबले बढिय़ा कह सके। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
चुनाव के वक्त आसमान पर हेलीकॉप्टर मंडराते हैं, और जमीन पर बाबा। और अगर बाबा अधिक शोहरत वाले होते हैं, उनका डंका-मंका कुछ अधिक होता है, तो वे हेलीकॉप्टर से भी मंडराते हैं, और जमीन पर भी। इन दिनों छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश में धीरेन्द्र शास्त्री नाम के एक नौजवान बाबा लगातार खबरों में बने हुए हैं। वे लोगों के मन की बात पढ़ लेने, उनका इतिहास और भविष्य बता देने की वजह से आकर्षण का केन्द्र रहते हैं, और वे हिन्दुत्व की राजनीति के झंडाबरदार भी हैं, और इस नाते वे भाजपा नेताओं के अधिक करीब रहते हैं। दूसरी तरफ ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद किसी चमत्कार का काम नहीं करते, लेकिन वे धर्म से परे भी देश के राजनीतिक मामलों पर भी धार्मिक नजरिए की टिप्पणी करने की वजह से खबरों में रहते हैं, लेकिन रामलला की प्रतिमा के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में चूंकि किसी शंकराचार्य को नहीं बुलाया गया था, और अकेले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही वहां आकर्षण का केन्द्र थे, इसलिए शंकराचार्यों का आज का असर कुछ घटा हुआ है। यह तो वक्त-वक्त की बात है कि सनातन-हिन्दू धर्म के तहत शंकराचार्यों की जो व्यवस्था सबसे ऊपर है, वह देश के राजा की हेठी के चलते अब हाशिए पर है। और किसी वक्त कांग्रेस की सरकार के रहते हुए रावतपुरा सरकार नाम के एक बाबा का डंका-मंका इतना चलता था कि सरकारी अफसर और उनका पूरा अमला बाबा की खिदमत में लगे रहता था। अब अलग पार्टी या अलग सत्ता के पसंदीदा बाबा फैशन में हैं, और रावतपुरा सरकार को किनारे धकेलकर बागेश्वर सरकार शोहरत की नदी के बीच चल रहे हैं।
यह तो बाजार व्यवस्था का एक हिस्सा है कि कभी किसी कपड़े या रंग का चलन रहता है, और कभी किसी और का। धर्म से अधिक बड़ा बाजार कोई नहीं, और ईश्वर की धारणा या बाबाओं पर अंधविश्वास से बड़ा कोई प्रोडक्ट बाजार में नहीं है। ऐसे में राजनीतिक दल उन बाबाओं को अधिक पसंद करते हैं जो उनकी राजनीति को सुहाने वाली बातें करें। अब जैसे कम से कम दो शंकराचार्य राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के वक्त से लगातार मोदी के खिलाफ कभी नाम लेकर, तो कभी बिना नाम लिए कुछ न कुछ कहते हैं, तो वे कांग्रेस की आंखों का तारा हैं। दूसरी तरफ लोकसभा के आम चुनाव के वक्त कमजोर पड़ती भाजपा उम्मीदवार सरोज पांडेय के पक्ष में हवा चलाने के लिए इसी बागेश्वर सरकार नाम के नौजवान बाबा को उस संसदीय क्षेत्र में ले जाकर कार्यक्रम करवाया गया था। बाबाओं को अपना राजनीतिक इस्तेमाल बड़ा सुहाता है क्योंकि जब बलात्कारी आसाराम के चरणों पर नरेन्द्र मोदी से लेकर दिग्विजय सिंह तक सभी बिछे रहते थे, तो उससे आसाराम को इतनी ताकत मिलती थी कि उसने नाबालिग से बलात्कार को अपना राजकीय और अलौकिक, दोनों किस्म का हक मान लिया था। इन दिनों सत्ता की नजरों में वे ही बाबा ऊपर चढ़ते हैं जिनके प्रवचन में, या जिनके आश्रम में अधिक भीड़ जुटती है। चुनाव से परे भी राजनीति का चलन यही रहता है कि बलात्कारी बाबा राम-रहीम सरीखों को जेल से पैरोल पर बाहर निकालकर उसके अंधभक्तों को राजनीति और चुनाव में प्रभावित किया जाए। चुनावी भीड़ को जुटाने के लिए उत्तर भारत के कुछ हिन्दीभाषी इलाकों में बित्ते भर के कपड़े पहनी हुई डांसरों को भी भाषण के पहले तक मंच पर पेश कर दिया जाता है ताकि भीड़ बंधी रहे। कुछ ऐसा ही राजनीतिक इस्तेमाल बाबाओं का भी होता है, और आज सुबह छत्तीसगढ़ के अखबारों की यह सुर्खी है कि बागेश्वर सरकार ने भाजपा विधानसभा उपचुनाव उम्मीदवार को जीत का आशीर्वाद दिया। यह अलग बात है कि डांसर और बाबा को एक साथ पेश नहीं किया जाता है, क्योंकि एक कोई पौराणिक कहानी विश्वामित्र का तप भंग करने वाली मेनका की कोशिश बताती है। इसलिए समझदार नेता इन दोनों ताकतों का अलग-अलग इस्तेमाल करते हैं।
अब कल का दिन ऐसा था जब शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद भी छत्तीसगढ़ में थे, और धीरेन्द्र शास्त्री भी, जो कि बागेश्वर सरकार कहलाते हैं। शंकराचार्य गाय को राष्ट्रमाता का दर्जा दिलवाने के लिए भारत भ्रमण कर रहे हैं, और छत्तीसगढ़ के कांग्रेसियों को उन्होंने बताया भी कि वे महाराष्ट्र में ऐसा करवाकर आए हैं। और उन्होंने छत्तीसगढ़ के नेता प्रतिपक्ष डॉ. चरणदास महंत सहित दूसरे नेताओं से यह वायदा भी ले लिया है कि भाजपा पूरे देश में गाय को राष्ट्रमाता का दर्जा देने का विधेयक लाएगी तो कांग्रेस उसका समर्थन करेगी। शंकराचार्य का हिन्दुत्व दूसरे धर्म के लोगों के खिलाफ नहीं है, और यह कट्टरता और धर्मान्धता से कुछ दूर चलने वाला हिन्दुत्व हैं, और वे किसी चमत्कार की आड़ लेकर शोहरत नहीं जुटाते। कल ही बागेश्वर धाम कहे जाने वाले धीरेन्द्र शास्त्री ने एक से बढक़र एक भडक़ाऊ बयान दिए हैं। उन्होंने मुस्लिम शब्द का इस्तेमाल किए बिना मुस्लिमों की तरफ इशारा करते हुए यह कहा कि कुंभ के मेले में गैरहिन्दुओं को दुकान नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि जिनका राम से काम नहीं, उनका राम के काम से क्यों कोई काम होना चाहिए। दूसरी तरफ इसी मौके का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने इन दिनों हवा में चल रहे हिन्दुत्व के एक सबसे हमलावर फतवे, बंटोगे तो कटोगे का भी समर्थन किया। और यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के उछाले इस फतवे को एकदम सही कहा। उन्होंने हिन्दू राष्ट्र की मांग की, और कहा कि वे उसके लिए यात्रा कर रहे हैं। इन दिनों शंकराचार्य के मुकाबले धीरेन्द्र शास्त्री का बोलबाला सैकड़ों गुना अधिक चल रहा है, और वे भाजपावादी हिन्दुत्व का झंडा लेकर भी चलते हैं, इसलिए भाजपा की सत्ता उनका उसी तरह स्वागत भी करती है, कर रही है।
भारत के बहुत बड़े हिस्से में राजनीति में धर्म को इस तरह घोट दिया गया है, जिस तरह ठंडाई बनाते हुए गुलकंद, खसखस, और बादाम को घोट दिया जाता है। और हिन्दू धर्म अगर अपने अस्तित्व के सबसे संगठित और ताकतवर, शंकराचार्य तक सीमित रहता, तो भी समझ पड़ता। आज चूंकि शंकराचार्यों का नजरिया भाजपा के माकूल नहीं है, इसलिए भाजपा को धार्मिक ढांचे में बहुत नीचे के, लेकिन शोहरत के पैमाने पर बहुत ऊपर के बाबाओं को लेकर चलना पड़ रहा है। कुल मिलाकर जनता को यह भी सोचना चाहिए कि सभी तरह के धार्मिक नेता मिलकर भी, और सरकार को साथ मिलाकर भी जनता का क्या भला कर सकते हैं, उसकी दिक्कतों को कहां दूर कर सकते हैं? जब तक जनता मूढ़ की तरह चमत्कार और धार्मिक फतवों में उलझी रहेगी, राजनीतिक दलों, और नेताओं को चुनावों में वोटरों को भेड़ों के रेवड़ की तरह हांककर किसी भी तरफ ले जाने की सहूलियत हासिल रहेगी। धर्म जिस राजनीतिक मकसद से बनाया गया था, आज जब न कबीले के सरदार रह गए हैं, न कोई राजा रह गए हैं, तब भी धर्म प्रजा को एक झांसे में उलझाकर रखने के काम आ ही रहा है। धर्म किसी भी सामाजिक सुधार के खिलाफ कट्टर और रूढि़वादी सत्ता को बचाने के लिए एक बड़े काबिल और मेहनती चौकीदार की तरह ड्यूटी पर तैनात है। लोगों को इस बात को समझने के लिए अपनी अंधश्रद्धा को कुछ देर किनारे करना पड़ेगा, तब जाकर वे उस झांसे को समझ पाएंगे जिसके कि वे शिकार हैं।
कहानी कुछ फिल्मी है, और भारतीय समाज के कई अलग-अलग पहलुओं को बताती है। उत्तरप्रदेश में एक परिवार में बेटे का किसी से प्रेमसंबंध था, जो कि मां को पसंद नहीं था। मां ने बेटे की कहीं और शादी करवा दी ताकि सुंदर बहू के आने से बेटा पटरी पर आ जाएगा, लेकिन बहू आई तो पता लगा कि उसका भी किसी और से संबंध है। शादी के बाद भी बेटा-बहू दोनों बाहर दीगर लोगों से अपने रिश्ते बनाए चल रहे थे। मां के दिमाग में यह बात बैठी हुई थी कि यह बात समाज में फैलेगी तो वह कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाएगी। उसने अपने भाई को यह जिम्मा दिया कि वह बेटा-बहू दोनों को खत्म करवा दे ताकि सामाजिक बदनामी का खतरा ही खत्म हो जाए। भाई ने एक भाड़े के हत्यारे का जुगाड़ किया, और फिर कई किस्म के मौके तलाशे, आखिर में एक तीर्थयात्रा से लौटते हुए राजस्थान में अपनी कार में उसने इस भाड़े के मददगार की मौजूदगी में खुद भांजे और उसकी बीवी को गोलियां मार दी। पुलिस ने सीसीटीवी कैमरों की रिकॉर्डिंग से इन दोनों की मौजूदगी की रिकॉर्डिंग हासिल कर ली, और गिरफ्तारी के बाद जब पूरी बात खुली, मां, मामा, और भाड़े का मददगार जब गिरफ्तार हुए, तब भी मां को मलाल सिर्फ यही था कि यह भांडाफोड़ हो गया, वरना उसे बेटे-बहू का कत्ल करवाने का कोई मलाल नहीं था।
हिन्दुस्तान का एक बड़ा हिस्सा स्थाई रूप से एक मानसिक तनाव में जीता है। सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग। इस कत्ल से परे बहुत से ऐसे कत्ल होते हैं जिनमें ऑनरकिलिंग के नाम पर अपने परिवार के ऑनर (सम्मान) की रक्षा के लिए लोग मर्जी से शादी करने वाले अपने बच्चों का कत्ल करवा देते हैं। आमतौर पर पारिवारिक सम्मान की यह फिक्र बेटी को लेकर होती है जिसे परिवार अपनी संपत्ति मानकर चलता है, और इस संपत्ति को कन्यादान के रास्ते ठीक से ठिकाने न लगा पाने की नाकामयाबी की वजह से नाराज परिवार समाज के यह सामने यह साबित करना चाहता है कि बेटी ने परिवार की ‘इज्जत’ का ख्याल नहीं रखा, तो उन्होंने बेटी को उसके प्रेमी या पति के साथ मरवा डाला। लोगों को अपनी आल-औलाद की जिंदगी की फिक्र नहीं रहती, उनकी मर्जी, खुशी, और उनकी सुखी जिंदगी की परवाह नहीं रहती, लोग महज यह सोचते हैं कि समाज में अपनी इज्जत कैसे बनाए रखी जाए, फिर चाहे इसके लिए उन्हें पूरी जिंदगी जेल में ही क्यों न काटनी पड़े। यह बड़ी अजीब बात है कि बच्चे मर्जी से शादी कर लें तो यह परिवार का अपमान है, और अगर वे मार दिए जाएं, तो उसमें परिवार का सम्मान है। यह बात सिर्फ हिन्दुस्तान के हिन्दुओं तक सीमित नहीं है, ब्रिटेन में बसे हुए पाकिस्तानी मां-बाप भी वहां पर अपनी ऐसी बेकाबू समझी जाने वाली संतानों की ऑनरकिलिंग के मामलों में सजा पाए हुए हैं।
ऐसा लगता है कि समाज का ढांचा मजबूत होने के पहले जब लोग व्यक्ति के रूप में अधिक आजादी रखते थे, और वे समाज नाम की एक बड़ी मशीन का छोटा पुर्जा नहीं बने थे, तब समाज के हिंसक नियमों का सम्मान कम था, और व्यक्ति के रूप में लोगों की आजादी अधिक थी। जैसे-जैसे धर्म और जाति के आधार पर समाज व्यवस्था अधिक फौलादी होती चली गई, वैसे-वैसे व्यक्ति का महत्व घटते चले गया, और सामाजिक ढांचे के प्रति अपने को अधिक जवाबदेह मानने वाले परिवार अपने सदस्यों के खिलाफ हिंसक हो जाने की हद तक जाकर भी मोहब्बत के खिलाफ होने लगे। जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ा, नौजवान पीढ़ी संयुक्त परिवारों से बाहर निकलकर पढऩे के लिए, या काम करने के लिए शहरों तक जाने लगीं, लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई भी अधिक होने लगी, वे आर्थिक आत्मनिर्भर होने लगीं, काम करने लगीं, वैसे-वैसे उनके परिवार के गांव-कस्बों की फौलादी पकड़ कुछ कमजोर होने लगी। भारत में यह रफ्तार बड़ी धीमी है, लेकिन सामाजिक बदलाव का यह सिलसिला जारी है। और जैसे-जैसे लोग अपने गांव-कस्बे से दूर होने लगे, वैसे-वैसे वे अपने समाज के रीति-रिवाजों के चंगुल से बाहर भी निकलने लगे। बदलाव की यह रफ्तार धीमी है, और नई पीढ़ी के बीच बढ़ती उनकी निजी महत्वाकांक्षाएं, और अपने अधिकारों का उनका अहसास तेज रफ्तार है। इन दोनों के बीच कोई मेल नहीं बैठ रहा है, और नतीजा इस तरह के कत्ल में भी सामने आता है, और प्रेमीजोड़ों की खुदकुशी में भी। सामाजिक दबाव में मां-बाप की हालत ऐसी हो जाती है कि बड़ी हसरतों से पाए हुए, और मेहनत से बड़े किए हुए बच्चों का कत्ल करते, या करवाते हुए उन्हें समाज के भीतर मुंह दिखाने लायक बने रहने की हसरत अधिक रहती है।
भारतीय समाज में यह हिंसक व्यवस्था कमजोर हो रही है, और कानून कहीं-कहीं इसे कमजोर करने में मददगार भी हो रहा है, लेकिन जब राजनीति, पुलिस, और अदालतों तक एक धर्म और जाति की व्यवस्था हावी रहती है, तो फिर प्रेमीजोड़ों को कहीं से हिफाजत नहीं मिल पाती। और साथ न जी पाने के मलाल में साथ मर जाने को वे आखिरी रास्ता मानकर जान दे देते हैं। तकरीबन हर दिन कहीं न कहीं से प्रेमीजोड़ों की ऐसी खुदकुशी की खबर आती है, और पता नहीं उनके परिवार अपनी शहंशाह अकबर दर्जे की जिद के साथ अपने बच्चों की लाशें सीने पर रखे हुए आगे किस तरह जी पाते होंगे। इस बात को अच्छी तरह समझने की जरूरत है कि समाज व्यवस्था हमेशा से ही एक बहुत ही पाखंडी, दकियानूसी, और विरोधाभासों या विसंगतियों से भरी हुई रहती है। वह अपने सबसे ताकतवर लोगों की हर अराजकता को मंजूर कर लेती है, और कमजोर लोगों को कुचलते चलती हैं।
छत्तीसगढ़ जैसे राज्य को यह भी समझना चाहिए कि यहां जात बाहर प्रेमविवाह करने पर समाज से निकाल दिए जाने वाले लोगों की गिनती खतरे की सीमा तक बढ़ चुकी है। इस राज्य की जिस जाति की सबसे मजबूत पंचायतों में रिकॉर्ड संख्या में सामाजिक बहिष्कार किए हैं, उसी जाति के लोगों का धर्म परिवर्तन आज सबसे अधिक हो रहा है। अभी तक यह बात इस शक्ल में दो और दो जोडक़र चार की तरह सामने नहीं रखी गई है, लेकिन हमें जो कतरा-कतरा जानकारी मिली है वह सुझाती है कि जिस जाति में जात बाहर करना जितना अधिक है, वहां पर लोगों का दूसरे धर्म में जाना उतना अधिक है। ऐसा लगता है कि लोगों को लगता होगा कि इस धर्म और जाति में रहने से जिंदगी भर अपने मां-बाप के परिवार से भी अगर रिश्ता नहीं रह जाना है, तो फिर इस धर्म में ही क्यों रहना? जातियों के नेताओं, राजनेताओं, और धार्मिक नेताओं को इस बारे में सोचना चाहिए कि क्या वे अपनी ही नई पीढ़ी को जात बाहर करने की ताकत का हिंसक इस्तेमाल करते हुए उसे धर्म से बाहर का रास्ता नहीं दिखा रहे हैं? वैसे भी जिस जाति और धर्म के लोग अपने लोगों के बहिष्कार में अधिक सक्रिय रहते हैं, वे लोग अगली पीढ़ी को खोने का खतरा भी झेलते चलते हैं। कोई भी जात, धरम, समाज, या गांव-कस्बा अपने सदस्यों के साथ हिंसा करते हुए उनका सम्मान तो बिल्कुल ही नहीं पा सकते, देश के कानून के तहत कत्ल पर उम्रकैद या फांसी जरूर पा सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैय्या ने एक नवंबर को कर्नाटक राज्य के स्थापना दिवस समारोह में यह घोषणा की कि राज्य में बनने वाले हर सामान पर लेबल में अब कन्नड़ में भी सूचना रहेगी। अभी तक वहां अंग्रेजी में ही लेबल का चलन था, और सरकार के इस नए आदेश के बाद अंग्रेजी न जानने वाले कन्नड़भाषियों को भी सारी जानकारी समझ आ सकेगी। उन्होंने इस मौके पर कन्नड़ भाषा के गौरव के लिए कुछ और बातें भी कहीं। उन्होंने भाषा के दो हजार बरस से अधिक पुराने इतिहास पर गर्व करने का आव्हान किया, और कहा कि बातचीत में भी कन्नड़ भाषा का उपयोग करना चाहिए। उन्होंने कहा कि हमें गैरकन्नड़ लोगों को कन्नड़ सिखाने की कोशिश करनी चाहिए। सीएम ने कहा कि वे अन्य भाषाओं को सीखने का विरोध नहीं करते, लेकिन यह कन्नड़ भाषा की कीमत पर नहीं होना चाहिए।
लोगों को याद होगा कि दक्षिण के कुछ राज्यों में भाषा विवाद का बड़ा लंबा इतिहास है। जब कभी उत्तर भारत की लीडरशिप वाली केन्द्र सरकार दक्षिण भारत या खासकर तमिलनाडु को हिन्दी भाषा को लेकर किसी भी तरह परेशान करती है, तो वहां इसका जमकर विरोध होता है। हिन्दी अपने वर्तमान रूप में दक्षिण की कई भाषाओं के मुकाबले नई भाषा है, और दक्षिण के तमाम राज्य अपनी क्षेत्रीय भाषाओं, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम को इतना समृद्ध बना चुके हैं कि उनकी स्कूल-कॉलेज की अधिकतर पढ़ाई अगर वे चाहें तो अपनी क्षेत्रीय भाषा में कर सकते हैं। ऐसा ही हाल महाराष्ट्र, बंगाल, और कुछ दूसरे अहिन्दीभाषी प्रदेशों का भी है जिन्होंने अपनी भाषा की किताबों को इतना समृद्ध और संपन्न बना दिया है कि वे हिन्दी के बिना अपना पूरा ही काम चला लेते हैं, और जरूरत के मुताबिक अंग्रेजी का इस्तेमाल इस हद तक करते हैं कि यहां के नौजवान बाकी दुनिया में भी जाकर काम करने लायक हो जाते हैं। यही वजह है कि अपनी क्षेत्रीय भाषा, और अंग्रेजी से परे उन्हें हिन्दी की जरूरत नहीं रहती है, और जब कभी केन्द्र सरकार की कोशिशों से हिन्दी थोपी जाती है तो इन राज्यों में बड़ा विरोध होता है।
लेकिन अभी सवाल यह उठता है कि कर्नाटक में राज्य सरकार को अचानक यह क्यों सूझा? इसके पीछे की वजह समझने के लिए हमें भारत के प्रदेशों, पूरे देश, और बाकी दुनिया के इतिहास को समझने की जरूरत है जिनमें जगह-जगह पर राजनीतिक ताकतें किसी तात्कालिक समस्या से जूझने के लिए धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा, और कुछ अन्य किस्म के भावनात्मक मुद्दों का झंडा उठा लेती हैं। कुछ संगठन या नेता अपने अस्तित्व को बचाने के लिए, या कि किसी चुनाव को जीतने के लिए, या पार्टी के भीतर प्रतिद्वंद्वी से निपटने के लिए राष्ट्रवाद या स्थानीय संस्कृति, या धर्म के खतरे में होने जैसा नारा लगाने लगते हैं। कुछ नेता या संगठन ऐसी किसी समस्या से परे अपना समर्थन बढ़ाने के लिए भी ऐसा करते हैं। लोगों का मानना है कि इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू भ्रष्टाचार के जितने मामलों से घिरे हुए हैं, और उनका राजनीतिक कॅरियर जिस गहरे खतरे में है, उसे देखते हुए उन्हें आज देश का ध्यान फिलीस्तीन, लेबनान, और ईरान की तरफ भटकाना जरूरी लग रहा है क्योंकि जब देश को जंग में झोंक दिया जाता है, तो जनता शासक के साथ खड़ी हो जाती है, और शासक पर मंडराते खतरे के बादल कुछ वक्त के लिए छंट जाते हैं। अब कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्धारमैय्या पर भ्रष्टाचार के कुछ मामले चल रहे हैं जिनमें जाहिर तौर पर राज्यपाल की मंजूरी तो मिल ही जानी थी, हाईकोर्ट ने भी राज्यपाल के फैसले को जायज ठहरा दिया है। इस मामले में दम कितना है यह तो आगे जाकर अदालत में साबित होगा, लेकिन वे तब तक के लिए एक राजनीतिक विवाद में तो घिर ही गए हैं। फिर अभी उनके जो उपमुख्यमंत्री डी.के.शिवकुमार कई वजहों से शांत बैठे हैं, उनकी महत्वाकांक्षाएं भी ऐसे में खुलकर सामने आ सकती हैं। इसलिए आज अगर ऐसे में सीएम सिद्धारमैय्या कर्नाटक की क्षेत्रीय कन्नड़ अस्मिता को हवा देने के लिए सामानों पर लेबल कन्नड़ में भी अनिवार्य कर रहे हैं, तो यह बात समझ आती है। वैसे ऐसी किसी नीयत से परे भी यह कोई बुरा फैसला नहीं है कि सामानों पर जानकारी क्षेत्रीय भाषा में भी हो। दक्षिण भारत के कई राज्यों से उत्तर भारत में भी आकर बिकने वाली आयुर्वेदिक दवाइयों पर तीन-तीन भाषाओं में लेबल रहते हैं जो कि ग्राहकों की सहूलियत के लिए रहते हैं।
अब हम कर्नाटक से बाहर निकलें, और दूसरे प्रदेशों की बात करें, तो जो राज्य समझदार हैं, वे स्थानीय लोगों को समझ आने वाली भाषा के अलावा बाहर से आने वाले लोगों को समझ आने वाली भाषा में भी सार्वजनिक सूचनाओं को लिखते हैं। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में यह देखकर हैरानी होती है कि यहां जगहों के नाम वाले बोर्ड सिर्फ हिन्दी में रहते हैं, और बोर्ड की खाली जगह पर, सारे जहां से अच्छा, किस्म की लाईनें लिखी रहती हैं। देश की गौरवगाथा को उन जगहों पर लिखा जा रहा है जहां उनकी जगह पर जगहों के नाम हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी में भी लिखे जा सकते थे, और गैरहिन्दीभाषी लोगों को सहूलियत हो सकती थी। जो सरकारें पर्यटन को बढ़ावा देने की बात करती हैं, उनमें से भी कुछ सरकारों को सार्वजनिक सूचनाओं और जगहों के नाम को अंग्रेजी में भी लिखना नहीं सूझता, जो कि भारत के भीतर भी एक संपर्क भाषा है, और भारत के बाहर भी।
हम कर्नाटक की राजनीतिक मजबूरियों से परे सिर्फ भाषा की बात करें, तो देश भर में सामानों के नाम और उन पर जरूरी सूचनाएं अंग्रेजी के अलावा कम से कम एक क्षेत्रीय भाषा, या संपर्क भाषा हिन्दी में भी होनी चाहिए। भाषा को राजनीतिक हथियार और आत्मरक्षा की ढाल बनाए बिना भी भाषा को आम सहूलियत का औजार बनाए रखना चाहिए, और किसी भी इलाके को भाषाओं को लेकर लचीला रहना चाहिए, जब, जहां, जैसी जरूरत हो, वैसा इस्तेमाल खुले दिल से करना चाहिए। न किसी भाषा से परहेज करना चाहिए, और न किसी भाषा को थोपना चाहिए। जिन लोगों को अपनी भाषा से मोहब्बत की नुमाइश करनी होती है, उन्हें यह बात समझ लेना चाहिए कि भाषा अपने आपमें सिर्फ एक औजार है, और जनता में जब तक फतवेबाजी से उसे लेकर मोहब्बत या नफरत नहीं फैलाई जाती, तब तक हर भाषा महफूज भी रहती है। यह तो उसके राजनीतिक हथियारीकरण से वह खतरनाक बनती है। किसी भाषा को हथियार बनाने के पहले उस भाषा में साहित्य और ज्ञान, तकनीकी जानकारी और शिक्षा, साथ ही उस भाषा से रोजगार और कारोबार की बढ़ती संभावनाओं की गारंटी भी करना चाहिए, वरना भाषाई फतवे अपने ही लोगों को गड्ढे में डालने वाले भी साबित होते हैं। आज यह खबर तो कर्नाटक की है, लेकिन देश के बाकी राज्यों को भी अपनी भाषा नीति, और अपनी भाषा की हकीकत इन दोनों के बारे में सोचना-विचारना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज जब उत्तर भारत पूरा का पूरा दीवाली मनाने की तैयारी कर रहा है, तब कुछ घर ऐसे होंगे जहां अंधेरा छाया होगा। परिवार के भीतर तरह-तरह की हिंसा और जुर्म के शिकार होने वाले लोग भला क्या त्यौहार मनाएंगे। लेकिन ऐसे में ही यह सोचने की जरूरत है कि बाकी जगहों पर दियों और दीगर किस्म की रौशनी पहुंच रही है, तो कई जगहों पर छाए अंधेरे को दूर करने की क्या कोशिश हो सकती है? और फिर जिन परिवारों में एक बार हिंसा का अंधेरा छा चुका है, उन्हें तो रंग-बिरंगी चीनी लडिय़ों से भी रौशन नहीं किया जा सकता। सरकार और समाज को सोचना यही है कि अंधेरा होने से कैसे रोका जा सकता है। आज की ही दो खबरें हमारे बिल्कुल आसपास की हैं जिनमें से एक में रायपुर रेलवे स्टेशन पर नशे में धुत्त सौतेले बेटे ने नशे में धुत्त बाप को चाकू से मार डाला। शाम को भीड़भरे रेलवे स्टेशन पर लाश पड़ी हुई थी, और अब ऐसे परिवार में भला क्या दीवाली हो सकती है? एक दूसरी वारदात छत्तीसगढ़ के ही कोरबा जिले की है जहां पर रोज शराब पीकर घर आकर मारपीट करने वाले बेटे से थककर बाप ने धुत्त बेटे को मार डाला। अब ये बूढ़े मां-बाप कमाने-खाने के लिए छत्तीसगढ़ से हर बरस जम्मू-कश्मीर चले जाते हैं, और अभी दीवाली मनाने के लिए वहां से लौटे ही थे कि नशेड़ी बेटे ने इतना प्रताडि़त किया, इतनी हिंसा करने लगा कि हजारों किलोमीटर के सफर से आए बूढ़े बाप ने उसे मार डालना ठीक समझा।
यह कोई आम नौबत नहीं रहती है कि औलाद बाप को मार दे, या मां-बाप औलाद को मार दें। लोगों को याद होगा कि कुछ हफ्ते पहले की ही बात है कि एक नशेड़ी बेटे की हिंसा से थककर बूढ़े मां-बाप ने मिलकर उसे पकड़ा, और मार डाला था। हर हफ्ते परिवार के भीतर नशे की हालत में कत्ल के एक से अधिक मामले आते हैं। अब छत्तीसगढ़ जैसे राज्य को यह समझने की जरूरत है कि सरकार की अलग-अलग योजनाओं से आम जनता को जितने पैसे मिलते हैं, उनकी मेहरबानी से बहुत से लोगों में शराब की खपत खासी बढ़ गई है। शराब से सरकार को टैक्स की कमाई तो होती है, लेकिन शराब की वजह से सेहत की जितनी बर्बादी होती है उसके इलाज का खर्च तो कुल मिलाकर सरकारी स्वास्थ्य-बीमा योजनाओं पर ही आता है। इसके साथ-साथ दो बातें और जुड़ी रहती हैं, एक तो जितने किस्म की हिंसा होती है, उसके निपटारे का जिम्मा सरकार की पुलिस, सरकारी खर्च पर चलने वाली अदालतों, और जेलों पर आता है। परिवार के भीतर के हिंसा का आर्थिक बोझ सरकार पर भी भारी पड़ता है। तीसरी बात, हिंसा के शिकार परिवारों की आर्थिक उत्पादकता बहुत बुरी तरह प्रभावित होती है, और देश को उसकी भरपाई किसी तरह नहीं हो पाती। ऐसे परिवार हिंसा का शिकार होकर अपने बच्चों को इसके असर से नहीं बचा पाते, और उनके बड़े होने पर उनके भी हिंसक हो जाने का एक खतरा बढ़ जाता है, और उनके बेहतर नागरिक बनने की संभावना घट जाती है। शराब या किसी दूसरे किस्म के नशे से शुरू होने वाली हिंसा का सिलसिला बहुत दूर तक नुकसान पहुंचाता है, और इसे सिर्फ नशेड़ी की सेहत तक सीमित मान लेना नासमझी होगी।
हम इस बारे में जरूरत से कुछ अधिक बार लिखते और बोलते हैं क्योंकि कानूनी शराब से परे गैरकानूनी शराब का चलन भी बढ़ते चल रहा है, जिसके कोई आंकड़े न सेहत के हिसाब से, और न ही टैक्स के हिसाब से सामने आते। फिर केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह छत्तीसगढ़ आकर यह बोल गए हैं कि इस राज्य में गांजे की खपत पूरे देश के औसत से बहुत अधिक है। और छत्तीसगढ़ की पुलिस हर दिन दर्जन भर से अधिक जिलों में गैरकानूनी दर्जे के नशे का कारोबार पकड़ती है, लोगों को गिरफ्तार करती है। आम तजुर्बा यह रहता है कि किसी अवैध कारोबार का बहुत छोटा सा हिस्सा ही सरकार पकड़ पाती है क्योंकि पूरे देश में कदम-कदम पर फौजी दर्जे की चौकसी तो हो नहीं सकती। नशे की यह बढ़ती हुई नौबत एक खतरनाक तस्वीर पेश कर रही है, और जब हम इसे परले दर्जे की पारिवारिक हिंसा से जोडक़र देखते हैं तो लगता है कि घर के भीतर की एक-एक हिंसा के पीछे शायद नशे में बर्बाद होते लाखों परिवार रहते होंगे। नशे में डूबे लोग सडक़ों पर चाकूबाजी कर रहे हैं, अपने ही बच्चों को पटककर मार डाल रहे हैं, अपने बच्चों से बलात्कार कर रहे हैं।
यह नौबत मामूली मानना गलत होगा। सरकार को पुलिस के आंकड़ों से परे इस बात का गंभीर सामाजिक अध्ययन करवाना चाहिए कि नशे के पीछे की कौन सी वजहें हैं, और नशे के बाद किस-किस किस्म की हिंसा कहां तक पहुंच रही है। यह भी सोचना चाहिए कि सरकार को नशे से कमाई कितनी होती है, और उस पर नशे से होने वाली बर्बादी का प्रत्यक्ष और परोक्ष बोझ कितना पड़ता है। हम नशे की समस्या और खतरे का कोई आसान इलाज नहीं देखते, लेकिन किसी भी जनकल्याणकारी सरकार को ऐसा गंभीर सामाजिक अध्ययन करवाना चाहिए कि नशे को घटाने का क्या कोई रास्ता निकल सकता है? या जनता में ऐसी जागरूकता लाई जा सकती है कि वे नशे के बजाय जिम्मेदार मां-बाप बनकर अपने बच्चों पर अधिक खर्च करें? सामाजिक अध्ययन को चुनावी फतवों, और सरकारी योजनाओं से परे रखना चाहिए, उसे एक स्वतंत्र रिपोर्ट की तरह हासिल करना चाहिए, फिर चाहे सरकार उसके किसी हिस्से पर अमल करे या न करे। इसके लिए सरकार को देश के विख्यात संस्थानों का इस्तेमाल करना चाहिए जिनके लिए खुद भी ऐसा अध्ययन अकादमिक महत्व का होगा।
ऐसा नहीं है कि दुनिया के किसी देश में समाज भारत से अधिक जिम्मेदार न हों। बहुत से देश हैं जहां शराबी भी अधिक जिम्मेदारी से पीते हैं, और जहां परिवार के भीतर पीने की एक परंपरा है, लेकिन जहां लोग नशे में इस तरह धुत्त नहीं होते हैं। भारत में सामाजिक बदलाव लाने, और परिवारों को अधिक सेहतमंद माहौल वाला बनाने का काम सरकार की किसी योजना से रातों-रात नहीं हो सकता, लेकिन ऐसी किसी कोशिश में समाजशास्त्रियों की भूमिका को कम नहीं आंकना चाहिए, और सरकार को लीक से हटकर काम करने का हौसला भी दिखाना चाहिए। पिछली सरकारों ने जो काम नहीं किया है, या दूसरे प्रदेशों की सरकारें जो काम नहीं कर रही हैं, उसे क्यों किया जाए, यह सोच कल्पनाशीलता की कमी बताती है। हमारा मानना है कि लोकतांत्रिक ढांचे में समाज के अलग-अलग किस्म के विशेषज्ञों का योगदान कुछ अधिक होना चाहिए। हमने आबादी के हर तबके को सामाजिक और मनोवैज्ञानिक परामर्श देने के लिए बड़े पैमाने पर परामर्शदाताओं के शिक्षण-प्रशिक्षण की बात भी बार-बार सुझाई है। हमारा मानना है कि जिस तरह स्कूलों में पढ़ाने के लिए शिक्षकों को बीएड जैसे कोर्स अनिवार्य किए गए हैं, वैसे ही, शिक्षकों के लिए एक अतिरिक्त योग्यता वाले पारिवारिक-परामर्श या मनोवैज्ञानिक परामर्श के कोर्स शुरू करने चाहिए, और जब हर गांव-कस्बे तक ऐसे परामर्शदाता मौजूद रहेंगे, तो वे समाज में एक बदलाव ला भी सकते हैं। और ऐसा ही कोई बदलाव समाज में वह रौशनी फैला सकता है जैसी रौशनी आज दीवाली के दियों से फैल रही है।
छत्तीसगढ़ के सरगुजा में कल एक हत्याकांड के मुख्य आरोपी और उसके परिवार के अवैध निर्माण को बुलडोजर से गिरा दिया गया। अफसरों ने बताया है कि यह सरकारी जमीन पर किया गया अवैध कब्जा और अवैध निर्माण था, और चार अलग-अलग जगहों पर बड़ी कड़ी चौकसी के बीच यह तोडफ़ोड़ की गई है। जिस नौजवान मुजरिम ने पुलिस कार्रवाई से नाराज होकर एक प्रधान आरक्षक के घर घुसकर उसकी पत्नी और बेटी का कत्ल किया था, उसके ठिकानों पर बुलडोजर चलाने की मांग जनता कर रही थी। स्थानीय म्युनिसिपल ने पुराने नोटिस का हवाला देते हुए अवैध कब्जे और अवैध निर्माण को नया नोटिस दिया, और कुछ दिनों की मियाद पूरी होने पर उसे कल गिरा दिया।
कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई से जुड़े हुए, और पेशेवर मुजरिम इस नौजवान के साथ किसी की हमदर्दी नहीं है क्योंकि अपनी ड्यूटी करने के एवज में एक पुलिस कर्मचारी की बीवी और बेटी का कत्ल इसने जितने वीभत्स तरीके से किया, उसकी कल्पना करना भी मुश्किल था। इसी सरगुजा के सबसे बड़े कांग्रेस नेता टी.एस.सिंहदेव ने इसे फांसी देने की मांग की थी। इसके साथ-साथ कत्ल में मददगार, सुबूत खत्म करने में भागीदार, और फरार होने में साथ देने वाले एनएसयूआई से जुड़े कुछ और नौजवान भी गिरफ्तार हुए हैं, इसलिए कांग्रेस का कुछ अधिक कहने का मुंह नहीं बचा है। लेकिन इन्हें फांसी की मांग करने वाले सिंहदेव ने भी इस अंदाज में आरोपी के परिवार के ठिकानों पर बुलडोजर चलाने का विरोध किया है। कहने के लिए स्थानीय अफसर यह कह रहे हैं कि इसका कत्ल की वारदात से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन यह तो पहली ही नजर में जाहिर तौर पर दिख रहा है कि किसी एक व्यक्ति के अवैध कब्जों, और अवैध निर्माणों पर अगर अचानक कार्रवाई हो रही है, तो उसके पीछे वही एक वजह है।
हमने खुद ने ऐसे भयानक मुजरिम के खिलाफ पिछले दिनों बहुत कुछ कहा और लिखा था, लेकिन हम बुलडोजरी-इंसाफ के खिलाफ हैं। हम उस वक्त से इसके खिलाफ हैं जब सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर सोया हुआ था, और उसने सुनवाई भी शुरू नहीं की थी। यूपी में योगी आदित्यनाथ की सरकार ने इंसाफ का यह नया तरीका ईजाद किया था, और बरसों बाद जाकर अब सुप्रीम कोर्ट में कुछ जज जागे हैं, और उन्होंने देश के किसी भी राज्य में आरोपियों के परिवारों की संपत्ति पर बुलडोजर चलाने पर कुछ किस्म की रोक लगाई है। सुप्रीम कोर्ट के शब्द और उसकी भावना दोनों को समझने की जरूरत है। उसकी भावना को समझने से तो देश की राज्य सरकारें नासमझी जाहिर कर सकती हैं, लेकिन उसके शब्द बड़े साफ-साफ हैं जिन्हें बड़े छोटे से सरकारी वकील भी समझ सकेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में आदेश दिया है कि केवल इसीलिए कि कोई व्यक्ति आरोपी है या दोषी है, यह उसकी संपत्ति को ध्वस्त करने का आधार नहीं हो सकता। अदालत ने यह भी कहा कि ऐसी तोडफ़ोड़ की वीडियोग्राफी कराई जानी चाहिए ताकि बाद में अदालत को पता चल सके कि क्या यह कार्रवाई अवैध कब्जे या निर्माण के अनुपात में थी? उन्होंने यह भी कहा कि अदालत के इस आदेश के खिलाफ की गई कार्रवाई उसकी अवमानना होगी, और अवमानना की कार्रवाई के बाद इस पर मुआवजा भी दिलवाया जाएगा। अदालत पहुंचे हुए एक वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े ने जजों से कहा था कि जिस तरह बंदूक की नली से शक्ति प्रदर्शन किया जाता है, उसी तरह यह बुलडोजर के जरिए शक्ति प्रदर्शन है, और इस तमाशे में जाने-माने टीवी एंकर बुलडोजर के केबिन से कैमरे पर बोलते हैं। उन्होंने कहा था कि इस तरह के प्रतिशोध की बात कानून में नहीं है। एक दूसरे वकील ने कहा था कि अपराधों से निपटने के लिए म्युनिसिपल के कानूनों का बेजा इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। ऐसा करना आज एक चुनावी प्रचार का हथियार बना लिया गया है। उन्होंने अदालत में यह भी कहा था कि म्युनिसिपल के कानून स्थानीय उद्देश्यों के लिए हैं, अपराधों से लडऩे के लिए नहीं। अदालत ने अफसरों को यह एक छूट दी है कि वह सार्वजनिक भूमि, गलियों, सडक़ों, फुटपाथों पर किए गए अवैध कब्जों को बचाने का काम नहीं करेगी। लेकिन अदालत ने यह कहा कि अनाधिकृत निर्माण में भी रहने वालों को वैकल्पिक घर खोजने के लिए दस-पन्द्रह दिन का समय दिया जाना चाहिए। अदालत ने यह भी साफ किया था कि अगर दो अवैध इमारतें हैं, लेकिन उनमें से किसी आरोपी के इमारत को ही गिराया जाता है, तो भेदभाव का मुद्दा उठेगा। अदालत ने एक अक्टूबर को ही यह कहा था कि राज्य बुलडोजर से इस तरह किसी निर्माण को ध्वस्त करने के स्थानीय अधिकार को सजा की तरह इस्तेमाल करने के खिलाफ दिशा-निर्देश तैयार करें।
हमारा ख्याल है कि सरगुजा में हत्या के जुर्म में गिरफ्तार, एक पुराने और पेशेवर मुजरिम के अवैध निर्माण भी जिस तरह कुछ दिनों के भीतर छांटकर गिराए गए हैं, वह अदालत की सोच के खिलाफ है, और कम से कम हमारी सोच के खिलाफ तो है ही कि किसी आरोपी, या साबित मुजरिम के अवैध कब्जे या अवैध निर्माण को भी बाकी को छोडक़र अकेले तोडऩा गलत है। न्याय की भावना बड़ी साफ है कि एक ही किस्म के गलत काम करने वाले कई लोगों में से किसी एक को छांटकर सिर्फ उसके खिलाफ कार्रवाई करना भेदभावपूर्ण होगा क्योंकि ये दो अलग-अलग किस्म के जुर्म हैं, एक आपराधिक मामला है, और दूसरा अवैध कब्जे या अवैध निर्माण का। अदालत ने जितने खुलासे से अपनी भावना जाहिर की है, उसे देखते हुए सरगुजा में अफसरों की कार्रवाई पहली नजर में गलत लगती है क्योंकि उसने उस शहर में और तो अवैध कब्जों पर ऐसी कार्रवाई की नहीं है। जनता के बीच से किसी आरोपी के खिलाफ होने वाली फरमाईश पर कार्रवाई करना जायज नहीं लगता। अदालती कार्रवाई के बाद ऐसे आरोपियों को फांसी हो जाए वह भी ठीक है, लेकिन बड़े खुलासे से अपनी बात कहने वाले सुप्रीम कोर्ट जजों की चेतावनी को ऐसा लगता है कि सरगुजा में अनदेखा किया गया है। जैसा कि अदालती कार्रवाई में ही बहस में सामने आया था कि बुलडोजरों को चुनाव प्रचार का एक हथियार बना लिया गया है, तो क्या सूरजपुर में हत्या के आरोपी, उसके पिता, और उसके चाचा के अलग-अलग अवैध कब्जे या अवैध निर्माण को म्युनिसिपल ने गिरा दिया है। सरकार को बड़ी कानूनी राय हमेशा ही हासिल रहती है, और अभी तो प्रदेश के म्युनिसिपल-मंत्री पहले प्रदेश के डिप्टी एडवोकेट जनरल भी रह चुके हैं, इसलिए यह बुलडोजरी-कार्रवाई पूरी कानूनी व्याख्या के साथ हुई होगी। अब इस व्याख्या में कोई चूक है या नहीं, यह आने वाले दिनों में अदालत में साबित होगा।