संपादकीय
दिल्ली में शहरी बेघरों के लिए सिर पर छत की मांग करने वाली एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के जज, जस्टिस बी.आर.गवई ने सवाल किया कि क्या चुनावों के पहले जिन रेवडिय़ों की घोषणा की जाती है, क्या उनकी बजाय बेघरों को समाज की मूलधारा में लाने की बात नहीं करनी चाहिए ताकि वे भी राष्ट्र की मूलधारा में योगदान कर सकें? जज ने सरकार की तरफ से दाखिल जवाब में इस बात के जिक्र पर भी अफसोस किया कि उसमें बेघरों को दी जाने वाली सुविधाओं का जिक्र है बजाय इसके कि उन्हें किसी काम से लगाया जाए। जज ने पूछा कि क्या हम परजीवियों के एक तबके का निर्माण नहीं कर रहे हैं? उन्होंने कहा कि इन्हीं चुनावी-रेवडिय़ों की वजह से लोग अब काम करना नहीं चाहते हैं। उन्हें मुफ्त का राशन मिल रहा है जो कि बिना काम किए दिया जा रहा है। उन्होंने अपने निजी अनुभव गिनाते हुए कहा कि उनके किसान परिवार में अब महाराष्ट्र में इन्हीं चुनावी फ्रीबीज की वजह से खेतों में मजदूर नहीं मिल रहे हैं क्योंकि सबको घर बैठे बहुत कुछ मुफ्त मिल रहा है। जनहित याचिका की तरफ से नामी वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि दिल्ली सरकार के चलाए जा रहे शेल्टरों की हालत इतनी खराब है कि उस वजह से भी बेघर लोग वहां जाना नहीं चाहते हैं। इस पर जज ने पूछा कि क्या ऐसे शेल्टर की हालत सडक़ पर सोने से भी ज्यादा खराब है, लोग इन दोनों में से किसे पसंद करेंगे? जस्टिस गवई ने अपना विचार रखा कि लोगों को मुफ्त में चीजें मिलती हैं तो वे अलाल होते जा रहे हैं लेकिन उन्होंने साथ-साथ यह भी माना कि सिर छुपाने का हक लोगों का बुनियादी हक है, और जनहित याचिका में उठाए गए मुद्दे पर तो विचार करना ही है।
चुनावों में किस तरह की लुभावनी घोषणाएं की जाएं, और कैसी न की जाएं इस पर कुछ जनहित याचिकाएं पहले से सुप्रीम कोर्ट में चली आ रही हैं, और पिछले मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ की अगुवाई में एक बेंच इसकी सुनवाई कर रही थी लेकिन यह मामला उनके रिटायर होने तक पूरा नहीं हो पाया था इसलिए इसे अगले मुख्य न्यायाधीश के आने के बाद किसी नई बेंच के सामने पेश करने की बात कहते हुए जस्टिस चन्द्रचूड़ ने इसे रोक दिया था। लेकिन लोकसभा का आम चुनाव निपट जाने की वजह से इसे अधिक प्राथमिकता नहीं मिल पाई, और सुप्रीम कोर्ट में दर्जनों मामले दस-दस, बीस-बीस बरस से चले आ रहे हैं, और कई मामले व्यापक और तात्कालिक महत्व के रहते हैं, इसलिए मुख्य न्यायाधीश की निजी पसंद-नापसंद पर भी यह रहता है कि वे किन मामलों को पहले देखें। फिलहाल चुनावों में फ्रीबीज का मामला अभी तक किसी किनारे पहुंचा नहीं है, और जस्टिस गवई ने एक दूसरी जनहित याचिका के दौरान वकीलों से चर्चा में यह मौखिक विचार सामने रखा था कि चुनावी तोहफों के बजाय लोगों को स्थाई रूप से देश के कामकाज की मूलधारा में लाया जाना बेहतर होगा।
हम इसी पहलू पर चर्चा करना चाहते हैं कि मध्यप्रदेश से शुरू हुई लाड़ली बहना, छत्तीसगढ़ में चाउर वाले बाबा रमन सिंह की भारी कामयाब पीडीएस प्रणाली, तमिलनाडु में शुरू स्कूलों में सुबह का नाश्ता, और एक-एक करके देश के दर्जन भर राज्यों में अब चल निकली उन राज्यों की महतारियों के लिए सीधे नगदी की योजना का कोई अंत नहीं है। केन्द्र सरकार 80 करोड़ लोगों को हर महीने 5-5 किलो अनाज दे रही है, जिन ग्रामीण इलाकों में रोजगार नहीं रहता, वहां पर मनरेगा जैसी रोजगार योजना ने लोगों को भूखों मरने से बचाया है। इसके अलावा गरीब जोड़ों की शादियां, मुफ्त बिजली, मुफ्त पढ़ाई, मुफ्त इलाज जैसी बहुत सी योजनाएं हैं जिनके मुफ्त शब्द पर कई लोगों को आपत्ति भी होती है कि ये जनता के अपने पैसों पर चल रही हैं, और इन्हें मुफ्त कहना एक गलत शब्दावली है। हम भाषा की बारीकी पर गए बिना यह जरूर सोचते हैं कि वोट पाने के लिए चुनावी तोहफों की शक्ल में राजनीतिक दल जितने वायदे करते हैं, उनके बाद सरकार के बजट में अधिक लचीलापन नहीं बचता है। और जब एक-एक योजना एक-एक राज्य में करोड़ों लोगों को फायदा देने वाली रहती है, तो यह बात तो जाहिर रहती ही है कि इसमें लोगों की बारीक शिनाख्त नहीं हो पाती, और इनमें एक पर्याप्त बड़ा हिस्सा अपात्र लोगों का भी रहता है। अब एक तरफ सरकारें लोगों को रोजगार देने, या किसी उत्पादक और मुनाफे वाले कामकाज में लगाने से कतराती हैं, और उन्हें सीधे फायदा पहुंचाकर उनसे वोट पाकर किसी तरह पांच साल की सरकार बना लेना चाहती हैं। अर्थशास्त्र के हिसाब से इसमें दो खराबियां हैं। एक तो यह जब इतने व्यापक तबके को किसी योजना में हितग्राही बनाया जाता है, तो उसमें अपात्र लोगों की शिनाख्त मुमकिन नहीं हो पाती। दूसरी बात यह रहती है कि बजट का इतना बड़ा हिस्सा गैररोजगारोन्मूलक कामों में चले जाता है कि देश को इन रेवडिय़ों के एवज में आर्थिक उत्पादकता कुछ नहीं मिलती। अधिक से अधिक गरीब तबकों का पेट भर जाता है, उन्हें दारू पीने को हजार-दो हजार रूपए महीने मिल जाते हैं, राजनीतिक दलों को इसके एवज में वोट मिल जाते हैं, लेकिन यह कीमत खासी महंगी पड़ती है। सरकार बनाने के कुछ अधिक गंभीर तरीके होने चाहिए, बजाय महज लुभावनी योजनाओं से वोटरों को फांसने के, और फिर बजट का बहुत बड़ा हिस्सा उन वायदों को पूरा करने में खर्च करने के।
लोकतंत्र में सरकारों को अपनी कमाई अपनी मर्जी से खर्च करने की तकरीबन पूरी छूट है। और अब तो देश में योजना आयोग भी नहीं रह गया है जहां राज्यों को कमाई और खर्च के अपने आंकड़ों को पेश करना होता था। अब सब कुछ अधिक मनमर्जी से अधिक दूर तक चलने वाला सिलसिला हो गया है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट में भी इस मामले को आगे बढऩा चाहिए, चुनाव आयोग में तो एक किस्म से अपने हाथ झाड़ लिए हैं, लेकिन मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों, और सरकारों को जवाब देना चाहिए कि क्या रेवडिय़ों की बोलियों के बीच मेहनत से कमाने-खाने की चर्चा की कोई गुंजाइश रहनी चाहिए, या फिर देश की जनता को निकम्मा बनाने की कुछ और योजनाओं के बारे में कुछ सोचा जाए? अगर देश की एक बहुत बड़ी आबादी सिर्फ सरकारी मदद और रियायतों की वजह से सामाजिक-मानवीय पैमानों पर एक ठीकठाक जिंदगी जी रही है, तो क्या इसे उस समाज की आर्थिक उत्पादकता भी माना जा सकता है? ये सवाल बड़े अलोकप्रिय, गरीब-विरोधी, और पूंजीवादी लग सकते हैं, लेकिन देश की पूरी अर्थव्यवस्था पूंजीवादी होने के साथ-साथ चुनावी रेवडिय़ों पर आधारित अर्थव्यवस्था भी हो गई है। इस नौबत को सुधारने के रास्ते सुप्रीम कोर्ट में इस बहस के दौरान सामने आ सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश में वन नेशन-वन इलेक्शन लागू करने की केन्द्र सरकार की पूरी तैयारी है, लेकिन संसद और अलग-अलग विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ करवाने में कई तरह की संवैधानिक दिक्कतें आएंगी, कुछ विधानसभाओं का कार्यकाल कम करना पड़ेगा, कुछ का कार्यकाल पूरा हो जाने पर या तो वही सरकार जारी रखनी होगी, या फिर कुछ महीनों का राष्ट्रपति शासन लगाना होगा, ऐसे कई संवैधानिक फेरबदल जरूरी होंगे। हमने बड़े लंबे समय से चुनावों को एक साथ करवाने की वकालत की है। इसके पीछे चुनावी खर्च में कमी का तर्क नहीं है, बल्कि बड़ा मुद्दा यह है कि अलग-अलग चुनाव होते रहने से देश-प्रदेश की सरकारें हर कुछ बरस में तनाव में रहती हैं कि मतदाताओं को कैसे खुश रखा जाए, कौन से ऐसे जरूरी सरकारी कदम न उठाए जाएं जिनसे लोग नाराज हो सकते हैं। अब छत्तीसगढ़ इसकी एक मिसाल है जहां पर विधानसभा चुनावों के छह महीने बाद लोकसभा के चुनाव होते हैं, और उनके करीब छह महीने बाद पंचायत और म्युनिसिपल के। ये तीनों चुनाव सवा साल से अधिक समय तक चलते रहते हैं, और इनमें आधे समय तो आचार संहिता ही लगी रहती है जिससे काम और कारोबार दोनों ही बहुत बुरी तरह प्रभावित होते हैं। लोगों को यह अंदाज नहीं है कि ढाई महीने तक चली लोकसभा चुनाव की आचार संहिता के दौरान जब राजनीतिक दलों और राजनेताओं वाले, सरकारी या राजकीय कार्यक्रमों के न होने पर कितने किस्म के कारोबार बहुत बुरी तरह प्रभावित होते हैं। खुद अखबारों में सरकार के और राजनीतिक कार्यक्रमों के इश्तहार छपना बंद हो जाता है, और जो अखबार पार्टियों और उम्मीदवारों से वसूली-उगाही नहीं करते हैं, वे और अधिक मुसीबत में आ जाते हैं। ऐसे में अब जब छत्तीसगढ़ इन तीनों चुनावों को निपटाने के करीब है, और सरकार के सवा साल हो चुके हैं, तब चुनाव मुक्त आगे के कार्यकाल की जमकर तैयारी करनी चाहिए। आखिरी का एक साल फिर चुनावी दबावों का रहता है कि उस वक्त कोई कड़ाई नहीं बरती जा सकती, इसलिए सरकार को ये चुनावमुक्त करीब ढाई बरस जमकर इस्तेमाल करने चाहिए।
जैसे किसी खेल के मैदान पर होता है, सामने के खिलाडिय़ों के बीच से रास्ता निकालकर गेंद आगे बढ़ाई जाती है, उसी तरह राज्य सरकारों को यह चुनावमुक्त गलियारा तेजी से आगे बढऩे के लिए इस्तेमाल करना चाहिए, और इसके लिए तुरंत भिडऩा चाहिए। मुख्यमंत्री की तमाम घोषणाओं के बावजूद सडक़ सुरक्षा के लिए कुछ नहीं हो पा रहा है, पुलिस के पास चुनावों का एक बहाना भी रहता है कि पुलिस बल उसमें उलझ जाता है इसलिए ट्रैफिक सुधारने की गुंजाइश नहीं रहती। अब चुनावों से आजादी है, और प्रदेश में एक काबिल डीजीपी भी काम संभाल चुके हैं। अरूणदेव गौतम इस कुर्सी पर आने के पहले भी सडक़ सुरक्षा के मामले में राज्य सरकार की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में पेश होते आए हैं, या वहां जवाब दाखिल करने के जिम्मेदार रहे हैं, इसलिए वे इस बात को बेहतर समझेंगे कि सुप्रीम कोर्ट सडक़ सुरक्षा को लेकर कितना गंभीर है। अगर सरकार एक ईमानदार इच्छाशक्ति दिखाए तो इतनी ही पुलिस से वह हर महीने करोड़ों रूपए का जुर्माना वसूल सकती है, और हर बरस सैकड़ों जिंदगियां बचा सकती है। सरकार को बंधी-बंधाई लीक से हटकर यह इंतजाम करना चाहिए कि ट्रैफिक जुर्माने लायक सूचना अगर जनता देती है, तो जुर्माना वसूली के बाद उसका एक हिस्सा उसे भी मिलना चाहिए, और इस जुर्माने की पूरी रकम सीधे-सीधे ट्रैफिक सुधार के लिए दे देनी चाहिए। वोटरों के नाराज हो जाने के खौफ से सत्तारूढ़ नेता कभी सडक़ों पर कड़ाई बरतना नहीं चाहते, लेकिन अब उन्हें यह हिम्मत दिखाना चाहिए कि अगले ढाई-तीन बरस वोटरों को नाराजगी दिखाने का कोई मौका नहीं आने वाला है, और ऐसे में अगर ट्रैफिक को सुधारकर जिंदगियां बचाना दिखाया जा सकेगा, तो अगले विधानसभा चुनाव तक राज्य सरकार की वैसे भी बड़ी वाहवाही होगी।
एक दूसरा मुद्दा जो कि ऐसे ही लंबे चुनावमुक्त दौर में हो सकता है, वह शहरों को सुधारने का है। लोगों को अब याद नहीं होगा कि कुछ दशक पहले महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर में चन्द्रशेखर नाम के एक आईएएस अफसर म्युनिसिपल कमिश्नर बने, और उन्होंने बिना किसी भेदभाव के एक साथ पूरे शहर के सडक़ किनारे के कब्जे और अवैध निर्माण हटा दिए, और चौड़ी सडक़ों के किनारे फुटपाथ बन गए, बीच में डिवाइडर बन गए, और नागपुर कुछ महीनों के भीतर ही एक बहुत अधिक सहूलियत वाला, और खूबसूरत शहर हो गया। छत्तीसगढ़ में भी हमने कई दशक पहले एक एडीएम और एक सीएसपी को मिलकर शहर के अवैध कब्जे आसानी से हटाते हुए देखा है। आज पूरे प्रदेश में शहरों में अवैध कब्जे और अवैध निर्माण मिलकर सडक़ों को खत्म कर चुके हैं। जहां-जहां सरकार करोड़ों रूपए लगाकर सडक़ चौड़ी भी करती है, वह भी पूरी की पूरी कारोबारी पार्किंग में खत्म हो जाती है, उससे सरकार को कुछ नहीं मिलता। अब सरकार को दिल कड़ा करके शहरों को सुधारना चाहिए क्योंकि अगर वोटरों को उसके इस कार्यकाल में शहरी सहूलियतें और सुंदरता दिखने लगेंगी, तो उसे अगला चुनाव जीतने से कोई नहीं रोक पाएंगे। शहरों के अलावा कस्बों में, और गांवों में भी अवैध कब्जों से जहां-जहां जनजीवन में दिक्कत आती है, उसे बिना भेदभाव अगर हटाया जाए, तो जनता भी सरकार का साथ देगी। इसी राजधानी रायपुर में जब आर.पी.मंडल पीडब्ल्यूडी सचिव थे, और बिना इस्तेमाल वाली नहर को पाटकर केनाल रोड बनाना था, तो उन्होंने जाकर मुख्य सचिव से अनुरोध करके उनके बंगले का एक हिस्सा तोडक़र सडक़ की चौड़ाई जारी रखी थी। जब कोई भेदभाव नहीं किया जाता, तो जनता भी साथ देने लगती है, और सरकार के भीतर से भी कोई विरोध नहीं होता।
हम अभी सिर्फ उन्हीं व्यापक मुद्दों की चर्चा कर रहे हैं जिनसे जनता बड़े पैमाने पर प्रभावित होने जा रही है, शुरू में कुछ लोग नाराज होंगे, लेकिन फिर सार्वजनिक सहूलियत देखकर उनकी भी नाराजगी जाती रहेगी। सत्तारूढ़ पार्टी को अपने लोगों को भी इस बात के लिए तैयार करना चाहिए कि वे ट्रैफिक, सडक़, और शहरी सुधार में हाथ बंटाएं, न कि अड़ंगा डालें। पंचायत और म्युनिसिपल चुनावों में जो नए जनप्रतिनिधि जीतकर आएंगे, उन्हें भी शुरू से ही समझ आना चाहिए कि उनका काम गैरकानूनी चीजों को बढ़ावा देने का नहीं है, बल्कि स्थानीय सुधार, विकास, और सडक़ सुरक्षा जैसे व्यापक महत्व के काम उनकी जिम्मेदारी है। राज्य सरकार को कड़ाई से सुधार करने के लिए बड़ी तैयारी करनी चाहिए, और मतदाताओं की फिक्र किए बिना काम करने का यह एक बड़ा मौका है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
तिरुपति के लड्डुओं के लिए मिलावटी घी सप्लाई करने वाली तीन डेयरी कंपनियों के मालिकों को सीबीआई ने गिरफ्तार किया है। कुछ महीने पहले जब गुजरात की एक डेयरी प्रयोगशाला से यह रिपोर्ट आई थी कि तिरुपति के लड्डुओं में गाय और सुअर की चर्बी मिला हुआ घी इस्तेमाल हो रहा है, तब बड़ा हंगामा हुआ था। हर बरस करोड़ों लोग तिरुपति के दर्शन को जाते हैं, और कई करोड़ लड्डू का प्रसाद पाकर, या अधिक प्रसाद खरीदकर लौटते हैं। तिरुपति की मान्यता इतनी अधिक है कि दक्षिण भारत में अनगिनत कारोबारी तिरुपति के भगवान को अपने कारोबार में भागीदार बनाते हैं, और कमाई में उनका हिस्सा दान में भेज देते हैं। यह प्रचलित चर्चा है कि वे अपने इंकम टैक्स रिकॉर्ड में भी यह भागीदारी दिखाते हैं, अब यह पता नहीं कितनी सच बात है। अभी जिन तीन कंपनियों के मालिकों को मिलावटी घी सप्लाई के जुर्म में गिरफ्तार किया गया है, उनमें एक वैष्णवी डेयरी, एक भोले बाबा डेयरी, और एक ए.आर.डेयरी के नाम आए हैं, और गिरफ्तार होने वाले लोगों में विपिन जैन, पोमिल जैन, अपूर्व चावड़ा, और राजू राजशेखरन हैं। इनकी कंपनी, और इनके खुद के नामों का एक महत्व है कि ये सारे के सारे जैन और हिन्दू नाम हैं जिनके बारे में यह माना जा सकता था कि दुनिया के सबसे लोकप्रिय और हिन्दू आस्था के सबसे बड़े केन्द्र में प्रसाद के लिए घी सप्लाई करते हुए वे चर्बी सप्लाई करने के पहले मर जाना पसंद करेंगे। लेकिन उन्होंने धड़ल्ले से ऐसा घी सप्लाई किया, यह एक अलग बात है कि अब केन्द्र के सत्तारूढ़ गठबंधन के बड़े भागीदार चन्द्रबाबू नायडू के राज वाले आन्ध्र में तिरुपति मंदिर के नाम पर अप्रिय चर्चा खत्म करने के लिए अब उस घी को सिर्फ मिलावटी घी कहा जा रहा है, और चर्बी और जानवरों के नाम की चर्चा खत्म हो गई है। आखिर तिरुपति आन्ध्र की पर्यटन अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा है, और साथ-साथ हर बरस शायद इस मंदिर में डेढ़ हजार करोड़ का चढ़ावा आता है जिससे क्षेत्रीय विकास भी होता है।
किसी किस्म के अच्छे या बुरे कारोबार से किसी धर्म का कोई खास लेना-देना होता हो ऐसा हमें नहीं लगता। पाकिस्तान में ईदी फाउंडेशन के संस्थापक एक मुस्लिम बुजुर्ग दुनिया का सबसे बड़ा एम्बुलेंस नेटवर्क चलाते हैं, और हिन्दुस्तानियों को याद रखना चाहिए कि कई बरस पहले भारत से भटककर पाकिस्तान चली गई एक लडक़ी को भी अपने परिवार में उन्होंने रखा था। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान से बीफ निर्यात करने वाली कंपनियों के मालिकों में तकरीबन तमाम नाम हिन्दुओं के हैं, जिन्होंने अपनी कंपनियों के नाम मुस्लिम किस्म के रख लिए हैं। इसलिए तिरुपति के सालाना करोड़ों श्रद्धालुओं को चर्बी वाले लड्डू देने का जुर्म करने वाले हिन्दू और जैन निकले हैं, तो यह देश में आज के तनाव के माहौल में एक राहत की बात है।
लेकिन कुछ नास्तिकों के मन में इस पूरे सिलसिले से यह सवाल भी उठेगा कि जब ईश्वर के अपने घर में, तिरुपति के भगवान को चढ़ाए जाने वाले प्रसाद में इस तरह की मिलावट हो रही थी, तो ऐसे मुजरिमों पर कोई दैवीय मार क्यों नहीं पड़ी? करोड़ों श्रद्धालुओं की शाकाहारी आस्था को खत्म करने वाले लोग अब तक गिरफ्तार होने के लिए जिंदा क्यों हैं? ईश्वर खुद तो पत्थर की प्रतिमा की शक्ल में वहां पर हैं, और उन्हें चढ़ाया जाने वाला प्रसाद वे खुद तो खाते नहीं होंगे, उन्हें परोस देना मानकर, उसके बाद उसे श्रद्धालुओं में बांटा जाता होगा। ऐसे में ईश्वर का तो कोई नुकसान नहीं हुआ, लेकिन शाकाहारी श्रद्धालुओं की जिंदगी भर की कड़ाई अनजाने में खत्म हो गई। यह बात भी कुछ अजीब लगती है कि जिसे अंतर्यामी माना जाता है, जिसे सर्वज्ञ, सर्वत्र, कण-कण में माना जाता है, उसकी नजरों से यह मिलावट कैसे बच गई? जिस जगह की आस्था इतनी है कि लोग वहां सिर मुंडाकर दर्शन के बाद लौटते हैं, प्रसाद का लड्डू पाते हैं, और बाकी परिचितों के लिए भी और प्रसाद खरीदकर लाते हैं, अपनी क्षमता से आगे बढक़र वहां की दान-थैली में रकम और गहने डालते हैं, उन सबकी आस्था के लिए यह एक बड़ी चुनौती हो गई होगी कि वहां के ईश्वर ने प्रसाद में ऐसी भयानक, हिंसक और मांसाहारी मिलावट कैसे हो जाने दी? जिस ईश्वर को सर्वशक्तिमान माना जाता है, उसका चक्र हाथ की उंगली से निकलकर जाकर ऐसे डेयरी मालिकों के गले क्यों नहीं काट पाया? ऐसे ईश्वर के हाथ से बिजली कडक़कर क्यों नहीं निकली, और उसने जाकर इन लोगों को भस्म क्यों नहीं कर दिया? ऐसे कई सवाल लोगों के मन में उठ सकते हैं, यह एक अलग बात है कि आस्था के बाजार में सवालों को फुटपाथ पर भी कारोबार करने को जगह नहीं मिलती, धार्मिक पुलिस तुरंत ही तमाम प्रश्नवाचक चिन्हों को खदेडक़र बाहर कर देती है।
दूसरी तरफ हम यह भी देखते हैं कि मठों और मंदिरों के जमीन-जायदाद में घपला करने वाले लोगों का कुछ नहीं बिगड़ता। बल्कि बहुत से धार्मिक केन्द्रों को संभालने वाले धार्मिक मुखिया उन जगहों पर आर्थिक और नैतिक सभी किस्म का घोटाला करते रहते हैं, और यह सब तो उसी छत के नीचे होता है जिस छत के नीचे ईश्वर खुद बसते हैं। लोग बूढ़ी गायों के नाम पर, अनाथ बच्चों के नाम पर घोटाले करते रहते हैं, और उनका बाल भी बांका नहीं होता। इन सबसे मन में यह सवाल उठता है कि क्या सचमुच ही धर्म कहीं किसी जुर्म के आड़े आता है? अभी लोगों ने देखा होगा कि राष्ट्रपति बनते ही डोनल्ड ट्रम्प अमरीका की परंपरा के मुताबिक एक चर्च गए थे, और वहां पर महिला बिशप ने प्रार्थना सभा में प्रवचन करते हुए ट्रम्प से सीधे-सीधे कहा कि उन्हें ट्रांसजेंडरों, आप्रवासियों पर रहम करनी चाहिए, उन्हें दयालु रहना चाहिए। उन्होंने बहुत सारी बातें कहीं, और ये बातें अमरीका में धर्म की राजनीति करने वाले, पक्के ईसाई डोनल्ड ट्रम्प के एक कान से घुसीं, और दूसरे कान से निकल गईं। उनके भीतर अगर धर्म कहीं था भी, तो उसे ये बातें छू भी नहीं पाईं।
यह पूरा सिलसिला ईश्वर की सत्ता, उसके जनकल्याणकारी होने, या उसके होने पर ही सवाल खड़े करता है। आपका क्या ख्याल है?
उत्तरप्रदेश में चल रहे महाकुंभ की खबरों को देखें तो हैरानी होती है कि आस्था लोगों से कैसी-कैसी तकलीफें उठवा लेती है। न सिर्फ प्रयागराज के आसपास, बल्कि उत्तरप्रदेश से लगे हुए पड़ोसी प्रदेशों तक हाल यह है कि वहां से ही ट्रैफिक रोक देना पड़ रहा है। एक खबर बताती है कि प्रयागराज से ढाई सौ किलोमीटर पहले ही मध्यप्रदेश में पुलिस ने आगे बढऩा रोक दिया है, और बताया है कि प्रयागराज के चारों तरफ सातों सडक़ों पर कई किलोमीटर का जाम है, और इसमें अगले कई दिन तक कोई कमी नहीं आनी है। एमपी पुलिस ने बताया कि दो सौ-तीन सौ किलोमीटर का जाम लगा है, आगे बढऩा नामुमकिन है। कुछ दूसरी खबरें बताती हैं कि शहर के लोग अपने घरों से निकल नहीं पा रहे हैं, स्कूल-कॉलेज के इम्तिहान ऑनलाईन लेने पर विचार चल रहा है क्योंकि छात्र-छात्राओं का स्कूल-कॉलेज पहुंचना मुमकिन नहीं है। एमपी के रीवां में प्रयागराज हाईवे पर 72 घंटे से जाम है, और जाम में फंसे हुए श्रद्धालुओं का हौसला टूटने पर भी वे वापिस नहीं मुड़ सकते। कुछ लोगों ने बताया कि चार-चार लेन पर इंच-इंच पर गाडिय़ां जाम हैं, और महिलाओं के लिए सडक़ किनारे शौच के लिए जाना भी नहीं हो पा रहा है। स्टेशन पर भयानक भीड़ है, डिब्बों में किसी भी तरह से लोग घुस रहे हैं, और किसी रिजर्वेशन का कोई मतलब नहीं रह गया है। एमपी के सीएम मोहन यादव ने ट्विटर पर लिखा है कि कुंभ जा रहे मध्यप्रदेश व अन्य जगहों के श्रद्धालुओं का रीवां से लेकर जबलपुर, कटनी, सिवनी जिलों तक रास्ता रूक गया है, और वाहनों में ज्यादातर बुजुर्ग महिलाएं, और बच्चे शामिल हैं। उन्होंने सरकारी अमले के साथ-साथ श्रद्धालुओं और जनप्रतिनिधियों से भी सहयोग करने की अपील की है। लोगों का कहना है कि प्रयागराज के आसपास कई तरफ लोग 24 घंटे से लेकर 48 घंटे तक सिर्फ अपनी गाडिय़ों में फंसे हुए हैं।
इस महाकुंभ में हुई एक भगदड़ में करीब 30 लोगों के मरने की खबरें थीं, लेकिन यूपी की योगी सरकार ने कुछ रहस्यमय कारणों से मौतों की खबर ही जारी नहीं होने दी थी। जिस तरह दसियों हजार करोड़ रूपए लगाकर इस महाकुंभ का आयोजन किया जा रहा है, वह कई सवाल खड़े करता है। जिस यूपी में पैसों की कमी से हजारों स्कूलें बंद हो चुकी हैं, वहां पर एक धार्मिक आयोजन के लिए, तीर्थयात्रियों की संख्या का रिकॉर्ड कायम करने के लिए योगी ने पैसा बहा दिया है। अब क्या सचमुच इतने खर्च की जरूरत थी, या आस्था के बीच ऐसे किसी भी लोकतांत्रिक सवाल को उठाना आज जुर्म कहा जाएगा, यह सोचना कुछ मुश्किल है। यह बात बहुत साफ है कि महाकुंभ में करोड़ों आस्थावान खुद होकर पहुंचे रहते, लेकिन इस बार योगी सरकार ने जिस तरह सैकड़ों या हजारों करोड़ खर्च करके इसका प्रचार किया, उसकी वजह से आने वाले लोग भी बढ़े, और जो लोग इसके पहले अयोध्या के राम मंदिर नहीं जा पाए होंगे, उनके लिए यह दो तीरथ एक साथ करने का मौका भी था। लेकिन जितने लोगों के आने का अंदाज था, उनके हिसाब से भी तैयारी करना मुमकिन नहीं था, और सुरक्षित तो बिल्कुल भी नहीं था। एक दिन, एक वक्त, एक जगह पर करोड़ों लोगों का इकट्ठा होना एक बहुत बड़ी चुनौती थी, और न्यौता भेज-भेजकर इस चुनौती को और बड़ा किया गया था। वैसे तो आस्था का समझ से अधिक रिश्ता रहता नहीं है, फिर भी यह सवाल उठता है कि क्या किसी जिम्मेदार सरकार को इतनी भीड़ के खतरों को इस हद तक और बढ़ाना था?
सभी धर्मों में कुछ खास दिनों पर किसी तीर्थस्थान पर भीड़ जुटती ही है। नागपुर में हर बरस दीक्षा भूमि में 10 लाख से भी अधिक लोग एक जगह आते हैं। हज यात्रा में भी मक्का में एक वक्त 18-20 लाख लोग इकट्ठा होते हैं, और उनके बीच भगदड़ में कई बार बहुत लोग मारे गए हैं। कुछ बरस पहले एक ही दिन में 24 सौ लोग मरे थे। लेकिन कुंभ की भीड़ तो मानवीय क्षमता से मुमकिन इंतजाम के मुकाबले भी बहुत अधिक बड़ी रहती है। और जब ऐसी भीड़ निजी कारों में भी आने दी जा रही है, तो जाहिर है कि वह सडक़ और पार्किंग सबको अधिक घेरेगी। यह बात हमारी समझ से परे है कि सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देने का यह दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा मौका था, और कुंभ के चारों तरफ सौ-दो सौ किलोमीटर से सिर्फ बसों में आवाजाही अगर की गई होती, तो पैसा, पर्यावरण, ट्रैफिक जाम, प्रदूषण, समय सब कुछ बचा होता। एक बस के लायक मुसाफिर 15-20 कारों में पहुंच रहे हैं, और सरकार यहां पर एक कल्पनाशीलता दिखा सकती थी।
अच्छा हो कि कुंभ का यह आखिरी हफ्ता बिना किसी हादसे के निपट जाए, लेकिन सरकार के भीतर इस बात पर विचार जरूर होना चाहिए कि ऐसी अपार भीड़ के क्या-क्या खतरे हो सकते थे, और किसी भी जिम्मेदार सरकार को ऐसी बेहिसाब भीड़ से बचना चाहिए जिसमें कोई भी अप्रिय नौबत आने पर पुलिस कुछ न कर सके। आस्था के साथ न बहस हो सकती, न तर्क-वितर्क हो सकता, इसलिए हम यह नहीं कहेंगे कि लोगों को कुंभ के गिने-चुने दिनों में गंदे हो चुके पानी में डुबकी लगाने के बजाय बाद में इत्मिनान से परिवार सहित वहां जाना चाहिए था, ताकि वे चैन से कुछ वक्त गुजार सकते, लेकिन आस्था के साथ यह सब बात नहीं हो सकती। सरकार को लोगों को उनकी आस्था तक सीमित रखना था, उसे महंगे प्रचार से लोगों की भीड़ को और नहीं बढ़ाना था। इतने बड़े पैमाने पर कोई सुरक्षा इंतजाम हो नहीं सकता था, आज भी यह माना जाना चाहिए कि बहुत बड़े हादसे के बिना अगर यह निपटा है, निपट रहा है, तो वह लोगों की मेहनत के साथ-साथ एक संयोग की बात भी है। पूरी दुनिया में इससे बड़ा कोई धार्मिक जमावड़ा होता नहीं है, और यह भी कहा जा रहा है कि 144 बरस बाद आया हुआ महाकुंभ था। ऐसे में महाकुंभ के इस आयोजन से अलग-अलग प्रदेशों की सरकारों को बहुत कुछ सीखने मिला होगा, हमने कुंभ शुरू होने के पहले ही यह सलाह दी थी कि सरकारों को, और आईआईएम जैसे मैनेजमेंट संस्थानों को अपने लोगों को यहां सीखने के लिए भेजना चाहिए था। हो सकता है कि उन्होंने इस मौके का फायदा भी उठाया हो। फिलहाल चाहे जायज खर्च से, चाहे नाजायज फिजूलखर्ची से, इतने बड़े इंतजाम को करने के लिए योगी सरकार और उनके अमले को तारीफ तो मिलनी ही चाहिए, और इसमें जितना और सुधार हो सकता था, उसका सबक भी लेना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु की राज्य सरकार और वहां के राज्यपाल के बीच चल रहे एक टकराव पर हैरानी जाहिर की है कि और कहा है कि अगर राज्यपाल विधानसभा से पारित विधेयकों पर सरकार को कोई सूचना दिए बिना उन्हें अंतहीन रोककर रखते हैं, तो इस गतिरोध का क्या समाधान होगा। सुप्रीम कोर्ट के दो जजों के बेंच ने कहा कि राज्यपाल किसी विधेयक से असहमति के आधार पर सरकार को अपनी राय बताए बिना उसे इस तरह रोक नहीं सकते। जजों ने कहा कि राज्यपाल को तुरंत ही सरकार को अपनी असहमति या आपत्ति बतानी चाहिए क्योंकि सरकार को खुद होकर कैसे पता लगेगा कि राज्यपाल उसे क्यों रोककर बैठे हैं। अदालत ने याद दिलाया कि संविधान के अनुच्छेद 200 के पहले ही प्रावधान के मुताबिक राज्यपाल को असहमत होने पर विधेयक विधानसभा को जल्द से जल्द वापिस करना चाहिए। उल्लेखनीय है कि 2023 में तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका दायर की थी कि राज्यपाल के पास एक दर्जन विधेयक पड़े हुए हैं जिन्हें वे मंजूरी नहीं दे रहे, इनमें से एक विधेयक तो जनवरी 2020 से पड़ा हुआ है। कई बरस तक विधायकों को रोकने के बाद राज्यपाल ने घोषणा की कि वे 10 विधेयकों को मंजूरी नहीं दे रहे, और रोक रहे हैं। इसके बाद राज्य सरकार ने विधानसभा में इन्हीं विधेयकों को फिर से पारित किया, और इनमें से कुछ विधेयक सीधे राष्ट्रपति को भेजे गए।
यह राष्ट्रपति और राज्यपाल को संविधान में मिले हुए अधिकारों का साफ-साफ बेजा इस्तेमाल है। और ऐसा बहुत से दूसरे राज्यों में भी हुआ है, पंजाब में भी अभी कुछ महीने पहले ही राज्यपाल को अदालती फटकार लगी थी। देश के कई राज्यों में अलग-अलग समय पर सरकारों को राज्यपाल के खिलाफ अदालत तक जाना पड़ा है। अधिकतर मामलों में यह देखा गया है कि जब केन्द्र और राज्य में अलग-अलग पार्टियों या गठबंधनों की सरकारें रहती हैं, तब यह टकराव खड़ा होता है। किसी राज्यपाल का विवेक उस वक्त नहीं जागता जब उसे मनोनीत करने वाले गठबंधन या पार्टी की ही सरकार राज्य में भी रहती है। यह सिलसिला भारत के संविधान में की गई एक निहायत गैरजरूरी व्यवस्था की वजह से चल रहा है जिसे राज्यपाल कहते हैं। दुनिया के बहुत सारे लोकतंत्रों को देखें तो वहां संविधान प्रमुख नाम की कोई चीज नहीं है। न राष्ट्रपति हैं, और न राज्यपाल। वहां सिर्फ शासन प्रमुख हैं जिन्हें कहीं राष्ट्रपति कहा जाता है, और कहीं प्रधानमंत्री। जब भारतीय लोकतंत्र में कार्यपालिका, न्यायपालिका, और विधायिका के बीच शक्तियों और संतुलन का एक पर्याप्त कारगर ढांचा बना हुआ है, उस वक्त केन्द्र पर सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन की राजनीतिक साजिशों को चलाने के लिए राज्यपाल की व्यवस्था और उसका इस्तेमाल लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है, और इसे संवैधानिक व्यवस्था कहा जाता है। दुनिया के बाकी बहुत से सभ्य लोकतंत्रों में इस व्यवस्था के बिना मुख्य न्यायाधीश शपथ दिलाने का काम कर देते हैं, जो कि हिन्दुस्तान में भी जारी व्यवस्था है, यहां भी राष्ट्रपति या राज्यपाल को देश और प्रदेश के मुख्य न्यायाधीश ही शपथ दिलाते हैं। अब जो राष्ट्रपति और राज्यपाल को शपथ दिलाते हैं, वे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को शपथ क्यों नहीं दिला सकते?
फिर जहां तक किसी पार्टी या गठबंधन को सरकार बनाने का न्यौता देने की बात है, तो हमने देखा है कि न सिर्फ राज्यपाल, बल्कि जिसे तटस्थ रहना चाहिए, वह विधानसभा अध्यक्ष भी राजनीतिक साजिशों में खिलाड़ी की तरह शामिल हो जाते हैं। महाराष्ट्र के राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष दोनों के बारे में अभी पिछले ही बरस सुप्रीम कोर्ट को क्या-क्या नहीं कहना पड़ा था। हो सकता है कि अंग्रेजों को इस तरह की व्यवस्था ठीक लगी हो क्योंकि उन्हें दूर बैठकर इस देश पर सरकार चलाना था, लेकिन भारतीय संविधान बनाने वाले लोगों को इस बात का शायद अंदाज नहीं था कि संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोग भी घटिया दर्जे की राजनीति के खिलाड़ी बनकर अगला कार्यकाल और गर्व दोनों पाने लगेंगे।
राष्ट्रपति और राज्यपाल अगर सरकारों पर हावी हो जाते हैं, तो यह जनता की चुनी गई सरकारों की हेठी भी है। हमने मणिपुर की हिंसा के दौरा में बार-बार इस बात को उठाया था कि एक आदिवासी महिला के राष्ट्रपति रहते हुए भी मणिपुर में आदिवासियों के बड़े पैमाने पर कत्लेआम पर भी उनका मुंह नहीं खुला था, उन्होंने सरकार से जवाब-तलब नहीं किया था, वहां जाने की जहमत भी नहीं उठाई थी। ऐसे राष्ट्रपति पद की देश में जरूरत क्या है? कहने के लिए यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति सरकार, अदालत, और संसद से परे हैं, लेकिन राष्ट्रपति के अधिकारों को देखें तो वह एक किस्म से केन्द्र सरकार के रबर स्टैम्प से अधिक कुछ नहीं है। इसके अलावा जितने किस्म के मनोनयन के अधिकार राष्ट्रपति के पास रहते हैं, उन सबका इस्तेमाल केन्द्र सरकार ही करती है। इसी तरह राज्यों में विश्वविद्यालयों के कुलपति बनाने का जो अधिकार राज्यपाल के पास है, वह केन्द्र की सत्तारूढ़ सरकार की मर्जी से किए जाने वाले मनोनयन का रहता है, और जो राज्य सरकार से टकराव के साथ चलता है। लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार पर संवैधानिक लगाम के नाम पर देश और प्रदेश के संवैधानिक प्रमुख का यह सिलसिला निहायत बोगस है। इसे खत्म करने के लिए हमारी सरीखी सोच वाले कुछ ऐसे लोगों की जरूरत है जो अंग्रेजों की गुलाम मानसिकता से परे यह सोच सकें कि हर तरह का फेरबदल हो सकता है। बिना राष्ट्रपति और राज्यपाल के दुनिया का सबसे ताकतवर देश अमरीका चलते आया है, और वहां इन दोनों दफ्तरों पर कानूनी लगाम लगाने के लिए अदालतें अपना काम करती रहती हैं, वहां की संसद अपना काम करती है।
अलग-अलग लोकतंत्रों में व्यवस्थाएं अलग-अलग रहती हैं, लेकिन निर्वाचित सरकार के हाथ-पैर बांध देने वाला राजभवन सबसे ही बोगस व्यवस्था है, और इसे बिना देर किए खत्म किया जाना चाहिए। पिछले दशकों में अलग-अलग केन्द्र सरकारों ने एक से बढक़र एक रद्दी लोगों को राज्यपाल बनाने का काम किया है, और अगर लोग घटिया नहीं भी थे तो भी उन्होंने राजभवन के सुख को पाने के लिए, या उससे बड़े राजभवन में जाने के लिए केन्द्र सरकारों के तलुए सहलाते हुए लोकतंत्र विरोधी काम करके दिखाया है। राज्यपालों के शर्मनाक काम इतने अधिक हो चुके हैं कि किसी इज्जतदार व्यक्ति को राज्यपाल बनना भी नहीं चाहिए। चूंकि राजनीतिक दलों को अपने ढाई दर्जन लोगों को खपाने के लिए राजभवन एक अच्छा डेरा है, इसलिए कोई राजनीतिक दल इस व्यवस्था को खत्म करना नहीं चाहते, लेकिन लोकतंत्र में जनता की तरफ से यह आवाज उठनी चाहिए कि उसने जिस सरकार को चुना है उसके सिर पर ऐसा मनोनयन क्यों थोपा जा रहा है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
राज्यसभा में कल इस बात पर बड़ी फिक्र जाहिर की गई कि देश में जंकफूड की खपत बढ़ते चल रही है, और इससे सेहत का बड़ा नुकसान हो रहा है, इससे देश में गैरसंक्रामक रोग बढ़ते चल रहा है। सदन में यह कहा गया कि खाने-पीने के विज्ञापन बच्चों को निशाना बनाते चलते हैं, और उन्हें जंकफूड की लत लगती जा रही है। संसद में यह एक अच्छी बात रही कि हल्ले-गुल्ले और एक-दूसरे के खिलाफ जहर उगलने से परे कुछ समझदारी की बात भी हुई, और भाजपा सांसद सुजीत कुमार ने डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट के हवाले से कहा कि 2006 से 2019 के बीच डिब्बा या पैकेटबंद जंकफूड की खपत 40 गुना बढ़ी है। भारत की स्वास्थ्य शोध संस्थान आईसीएमआर के मुताबिक गैरसंचारी रोगों (गैरसंक्रामक) से होने वाली मौतें 1990 में 37.9 फीसदी थीं, जो बढक़र 2016 में 61.8 फीसदी हो गई है।
भारत में खानपान का हाल यह है कि जो पैकेटबंद मीठे-नमकीन सामान पहले शहरों तक सीमित रहते थे, वे हाल के बरसों में गांव-गांव तक पहुंच गए हैं, और जाने-अनजाने सभी किस्म के ब्राँड सडक़ किनारे की दुकानों से लेकर बस्तियों के बीच फुटपाथी दुकानदारों तक बिखरे दिखते हैं। अब मजदूरों के लिए भी यह आसान हो जाता है कि काम के बीच रोते हुए बच्चों को शांत करने के लिए कोई पैकेट खरीदकर दे दिया जाए। नतीजा यह हो रहा है कि अधिक नमक, अधिक शक्कर, और अधिक तेल-घी बच्चों, बड़ों सबके पेट में पहले से कई गुना अधिक जा रहा है, और उनकी आगे की जिंदगी को खराब करने की गारंटी कर रहा है। दूसरी तरफ देश में परंपरागत पान-सुपारी का शौक अब गुटखा-तम्बाकू की तरफ खिसक चुका है, और वह कैंसर में अंधाधुंध बढ़ोत्तरी कर रहा है।
जब हम जंकफूड या फास्टफूड पर किसी तरह की लगाम की बात करते हैं, तो पहली नजर सरकार की तरफ उठती है कि उसे कुछ नियम बनाकर सामानों की पैकिंग पर नमक, शक्कर, और फैट की मात्रा साफ-साफ लिखवानी चाहिए। सरकार से यह उम्मीद भी की जाती है कि वह समाज में जागरूकता लाने की कोशिश करे कि फैक्ट्रियों में बने हुए, और डिब्बा, पैकेट, और बोतल में बंद खाने-पीने के तकरीबन तमाम सामान सेहत के लिए अच्छे नहीं रहते हैं। इसके साथ-साथ सरकार से यह उम्मीद भी की जाती है कि वह रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट, बस अड्डों, स्कूल-कॉलेज के कैंटीन-कैफेटेरिया में जंक का बेहतर विकल्प, अधिक सेहतमंद खान-पान उपलब्ध कराए। आज इनमें से अधिकतर जगहों को ठेकों पर दे दिया गया है, और ठेकेदार कंपनियों के कारोबारी हित में रहता है कि वे जंकफूड, और खासकर महंगा सामान ही वहां पर रखें। आज हालत यह हो गई है कि इन जगहों पर गरीब भी नहीं खा पाते, और जिन्हें सेहत की फिक्र रखनी है, वे भी नहीं खा पाते। और सरकार ने खानपान के कारोबारियों को सब कुछ ऐसे ठेके पर दे दिया है कि उसका मानो कोई बस ही नहीं बचा है।
इससे परे जब हम समाज को देखते हैं, तो खाते-पीते घरों के बच्चों को इसी तरह के खानपान की आदत लग रही है, वे जिन जन्मदिन की पार्टियों में जाते हैं, वहां जंक के अलावा और कोई खानपान नहीं रहता, और घर पर भी इन बच्चों की पहुंच बाजारू डिब्बा-पैकेटबंद चीजों तक पूरे वक्त रहती है। परिवार के अधिकतर लोग काम करने वाले रहते हैं, या फिर टीवी और मोबाइल के साथ जुटे रहते हैं, उनके लिए भी बच्चों को अलग से व्यस्त रखने के लिए इस किस्म का खानपान सहूलियत का सामान रहता है। कोई हैरानी नहीं है कि भारत दुनिया में बच्चों के डायबिटीज की राजधानी बन चुका है। जैसी कि कल संसद में फिक्र जाहिर की गई है, खानपान के इश्तहार बच्चों को निशाना बनाकर बनाए जाते हैं, जो कि दुनिया के बहुत से विकसित देशों में पूरी तरह प्रतिबंधित बात है।
अब बच्चों से परे बड़ों की बात करें, तो हॉस्टल में रहने वाले, दूसरे शहरों में जाकर काम करने वाले, या किसी दाखिला इम्तिहान, नौकरी के मुकाबले की तैयारी करने वाले नौजवानों के लिए भारत के तमाम शहरों में मोबाइल फोन पर ऑर्डर देते ही 15-20 मिनट में मनचाहा खाना पहुंच जाता है, और यह अलग-अलग जगहों से बुलाया जा सकता है, और बाजारू स्वाद की वजह से लोगों को बेहतर लग सकता है। फिर यह भी है कि ऐसे खाने को खत्म करने का भी एक मानसिक दबाव रहता है, और लोग भूख से कुछ अधिक बुलाते हैं, और कुछ या काफी अधिक खाते हैं। नतीजा हर बरस उनके कपड़ों का साईज बढऩे की शक्ल में दिखता है। चूंकि ऐसे लोग आमतौर पर घरेलू रसोई से दूर रहते हैं, इसलिए मनचाहा खाना बुलाना उनके लिए सहूलियत की बात भी रहती है, और मजबूरी की भी।
आज निजी या सरकारी, जितने किस्म के बाजार हैं, उनमें खानपान की विविधता पर कोई काबू नहीं रहता। अब समय आ गया है जब देश और प्रदेश की सरकारों को, और स्थानीय म्युनिसिपलों को भी यह देखना होगा कि हर कुछ दूरी पर सेहतमंद खानपान किस तरह मुहैया कराया जा सकता है? आज तो चाहकर भी लोग सादा खानपान ढूंढ नहीं पाते, कटे हुए फल और सब्जियों के सलाद ढूंढे नहीं मिलते। अब सरकारों को ही खानपान की जागरूकता फैलाने के साथ ही इस तरह के सेहतमंद सामानों की दुकानों के लिए जगह तय करनी चाहिए, और इनकी उपलब्धता की गारंटी करनी चाहिए। इन दोनों तरीकों को एक साथ इस्तेमाल किए बिना बात बन नहीं पाएगी। महज जागरूकता आ जाए, और खरीदकर खाने के लिए सेहतमंद सामान न रहे, तो शायद ही कोई घर पर अपने अकेले के लिए फल-सब्जी काट सकें, या बाहर बिना खाए-पिए रह सकें। लोगों में जागरूकता एक बड़ा धीमा काम है, वह बहुत मेहनत भी मांगता है, और बाजार की चटपटी चीजों के मुकाबले किसी को अंकुरित खाने को कहना, सब्जियों का रस पीने को कहना आसान भी नहीं है। इसलिए लोगों को बाजारू खानपान के, जंकफूड और फास्टफूड के नुकसान अच्छी तरह समझाने होंगे, और सरकार अपने खुद के तमाम अड्डों पर सेहतमंद खानपान की बिक्री का पर्याप्त इंतजाम रखे। शुरूआत के लिए कम से कम इतना तो करना जरूरी है ही। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अब जब अमरीका से अवैध घुसे हुए, या बसे हुए हिन्दुस्तानियों का वापिस आना तय हो चुका है, जब दोनों सरकारें इस पर सहमत हो गई हैं कि अमरीका जितने भारतीय नागरिकों को भेजेगा, भारत उन्हें रखेगा, तब कुछ और बातों पर अभी मतभेद और विवाद बाकी है। भारत की संसद में विपक्ष ने इस बात पर नाराजगी जाहिर की है कि वहां से निकाले जा रहे भारतीयों को हथकड़ी-बेड़ी लगाकर मालवाहक फौजी विमानों में पहुंचाया जा रहा है, और उनके साथ सामान्य मानवीय बर्ताव भी नहीं किया जा रहा है। इस पर विदेश मंत्री जयशंकर ने अमरीकी सरकार से बातचीत करने का भरोसा दिलाया है। कांग्रेस ने यह भी मांग की है कि जिस तरह एक दूसरे देश, कोलंबिया ने, अपने विमान भेजकर अपने लोगों को वापिस लाने का काम किया है, भारत ने क्यों नहीं किया? कांग्रेस ने यह भी गिनाया है कि जब ये विमान कोलंबियाई नागरिकों को अमरीका से लेकर अपने देश लौटे, तो वहां के शासन प्रमुख, राष्ट्रपति विमान में जाकर उनसे मिले, और उन्हें भरोसा दिलाया। लेकिन हथकड़ी-बेड़ी, और बदसलूकी से परे और कोई मुद्दा चर्चा के लायक नहीं बचा है। अमरीका वहां पहुंचे या बसे हुए, या घुसपैठ करते हुए सरहद पर पकड़ाए हुए लोगों को वापिस भेजने का हक रखता है। किसी भी देश को दूसरे देशों के अवैध आए लोगों को वापिस भेजने का हक रहता है, और इसी के तहत पिछले कई बरस से भारत में पीढिय़ों से बसे हुए लोगों से भी उनके कागज मांगे जा रहे हैं।
अब सवाल यह उठता है कि हिन्दुस्तान से लाखों लोग जाकर अमरीका में गैरकानूनी तरीके से क्यों बसे हुए हैं? वहां एक बेहतर जिंदगी की उम्मीद के लिए, या कारोबारी कामयाबी के लिए? अलग-अलग लोगों की अलग-अलग वजहें हो सकती हैं, लेकिन जिन लोगों को अमरीका निकाल रहा है, उनके बारे में भावनाओं से परे भी समझने की जरूरत है। पहली बात तो यह है कि इनमें से हर किसी को यह अच्छी तरह मालूम था कि न तो उन्हें तस्करों को 50 लाख से एक करोड़ रूपए तक देकर गैरकानूनी तरीके से अमरीका में घुसने का कोई हक है, और न ही उन्हें वहां कानूनी तरीके से जाकर समय सीमा के बाद रहने का हक है। इनमें से हर किसी को यह मालूम था कि वे अमरीकी कानून के खिलाफ एक गैरकानूनी काम कर रहे थे। किसी भी देश के लिए बिना दस्तावेजों वाले, बिना नागरिकता और कामकाज के इंतजाम वाले लोग एक समस्या रहते हैं। हर देश ऐसे लोगों की जांच करते रहता है क्योंकि किसी जुर्म या हादसे की हालत में ऐसे लोगों की शिनाख्त आसान नहीं रहती, और कई किस्म के कानूनी मामलों में इन्हें लेकर दिक्कत आती है। आज भी अमरीका के अलग-अलग प्रदेशों के कानून वहां देश की सरकार के फैसलों के खिलाफ हैं, और प्रदेश सरकारें राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प के हर फैसले से सहमत भी नहीं हैं। अब भला कौन सा देश यह चाहेगा कि दूसरे देश के अवैध नागरिकों की वजह से उसके अपने देश में केन्द्र और राज्य में टकराव हो, सरकार और अदालत में टकराव हो? ये बातें निकाले जाने वाले लोगों को बहुत कड़वी लग सकती हैं, लेकिन हकीकत यही है। किसी भी देश में पकड़े गए ऐसे अवैध बसे हुए लोगों का बोझ वहां की सरकार पर रहता है, वहां की जेलों में उन्हें रखने का खर्च भी लगता है। और अभी-अभी एक सेंट्रल अमरीकी देश अल सल्वाडोर ने तो अमरीकी विदेश मंत्री के प्रवास के दौरान यह कहा है कि वह अमरीका की जेलों में बंद किसी भी तरह के कैदी को अपनी जेलों में रखने के लिए तैयार है, और यह बात अल सल्वाडोर के लिए कमाई की होगी, और अमरीका के लिए अपनी जेलों में अभी किए जा रहे खर्च में बचत की भी होगी। न सिर्फ अमरीका बल्कि किसी भी देश को यह तय करने का हक है कि दूसरे देशों के किन नागरिकों को वह अपने देश में शरण देना चाहता है, कामकाज का परमिट देना चाहता है, या नागरिकता देना चाहता है।
अब भारत लौटाए गए इन लोगों के सामने दिक्कत यह है कि एक सुनहरे भविष्य के सपने लेकर जाने के लिए इन्होंने 50 लाख से एक करोड़ तक तस्करों को दिए, ताकि उन्हें किसी तरह अमरीकी सरहद में घुसा दिया जाए। इस रकम के लिए पंजाब और गुजरात सरीखे कुछ राज्यों के नौजवानों ने पारिवारिक खेत-जमीन बेचकर, कई तरह के कर्ज जुटाकर बोझ खड़ा कर लिया था कि वे अमरीका में कमाकर इसे चुका देंगे, लेकिन अब अमरीका से निकाले जाने पर उनके लिए दुनिया के किसी भी विकसित देश में दुबारा जाने के रास्ते भी बंद हो चुके हैं। ऐसे लोगों की निराशा समझ में आती है क्योंकि उनके सामने पहाड़ सी जिंदगी, और उससे भी बड़े पहाड़ सा कर्ज बाकी है, और कोई काम उनके पास है नहीं। लेकिन भारत जैसे देश को अपनी हकीकत के बारे में सोचना चाहिए कि उसे छोडक़र सवा सात लाख लोग आज अमरीका में गैरकानूनी तरीके से क्यों बसे हुए हैं? वहां एक बेहतर भविष्य की संभावनाएं अधिक दिख रही होंगी, इसलिए वे जेलों में रहकर भी संभावना ढूंढ रहे हैं। इनके बारे में भारत के पैमानों से अगर देखा जाए तो ये लोग भारत में भी कोई रोजगार पा सकते थे, लेकिन हे सकता है कि वह रोजगार मजदूरी का हो, या किसी कारोबार के अदना से कर्मचारी का हो। हो सकता है कि वहां जाने वाले लोगों की उम्मीदें इसके मुकाबले कई गुना अधिक रही हों, और उन्हें भारत में उन्हें हासिल संभावनाएं पसंद नहीं आ रही हों।
आज भारत में बेरोजगारी कितनी भी हो, आर्थिक असमानताएं पहाड़ और खाई सरीखी क्यों न हों, कोई नागरिक भूखे नहीं मर रहे हैं, और सरकारी राशन के इंतजाम की वजह से लोग जिंदा हैं। अब यह विकल्प तो हर किसी के सामने था कि वे भारत में ही बाकी लोगों की तरह संघर्ष करते रहते, लेकिन उन्होंने एक जुर्म का रास्ता इस्तेमाल किया, और कई देशों का कानून तोड़ते हुए, वे अमरीका में गैरकानूनी तरीके से दाखिल हुए। ऐसे में उनके साथ हमदर्दी तो हो सकती है, लेकिन क्या भारत में उनको कोई मुआवजा भी दिया जा सकता है जिसकी कि मांग ऐसे कुछ परिवार कर रहे हैं? अगर कोई गैरकानूनी काम करते हुए उसके लिए, और उसकी वजह से किसी का नुकसान होता है, तो ऐसे लोग किसी मुआवजे के हकदार कैसे हो सकते हैं? न सिर्फ भारत बल्कि किसी भी देश के सामने उन लोगों की प्राथमिकता रहनी चाहिए जो कि देश में ही रहकर संघर्ष कर रहे हैं, काम पाने, या कोई कारोबार करने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे लोग आज देश और दुनिया का कोई कानून भी नहीं तोड़ रहे हैं, और अपने ही देश से उन्हें उम्मीदें हैं। इस देश में जिंदा रहने की गुंजाइश न रहे, तब तो लोग किसी भी तरह से किसी भी देश में जाकर भूख से मौत से बचें, वह समझ आता है। लेकिन अधिक कमाई, बेहतर जिंदगी, और सुनहरे सपने लेकर अगर लोग दुनिया के दूसरे देशों का कानून तोड़ते हैं, तो उनके साथ तो वे देश अपने कानून के मुताबिक कार्रवाई करेंगे ही।
आज अमरीका से लौटे हुए लोग बता रहे हैं कि वहां की जेलों में उनके साथ अच्छा सुलूक नहीं हुआ, और उनसे 50 लाख से एक करोड़ रूपए लेकर उनकी तस्करी करने वाले गिरोहों ने भी उनसे बुरा सुलूक किया, तो इसमें भी कोई बहुत अटपटी बात नहीं है। हिन्दुस्तान के भीतर भी कई प्रदेशों की पुलिस अपनी ही बेकसूर जनता से सौ किस्म की बदसलूकी करती है, वह तो अमरीका में गैरकानूनी घुसपैठियों के साथ, मुजरिमों के साथ वहां की पुलिस का बर्ताव था, उसकी शिकायत का आज कोई औचित्य नहीं है। भारत की सरकार भारत के ही प्रदेशों में जेल में कैदियों से, और बाहर आम नागरिकों से राज्य की पुलिस के बर्ताव पर कोई काबू नहीं रख सकती, वह अमरीका से एक औपचारिक विरोध भी कर पाएगी, ऐसा सोचना मुश्किल है। भारत के भीतर जो सीमित संभावनाएं सभी लोगों के लिए हैं, उनसे परे जिनके सपने जुर्म की दुनिया तक पहुंच जाते हैं, उन्हें उसकी सजा के लिए तैयार रहना चाहिए। भारत एक देश की तरह अपने नागरिकों के सामने है, और यह उनका अपना फैसला है कि उन्हें कानूनी रूप से यहां रहना है, या गैरकानूनी रूप से दूसरे देशों में जाना है, पहली बात की संभावनाएं, और दूसरी बात की आशंकाएं सबके सामने है।
अमरीकी वोटरों ने एक सनकी तानाशाह को राष्ट्रपति बनाकर पूरी दुनिया को इतने बड़े खतरे में डाल दिया है कि डोनल्ड ट्रम्प का चार बरस का कार्यकाल पूरा होते-होते अमरीकी अपने चुनावी फैसले पर अफसोस करते रह सकते हैं, या फिर यह भी हो सकता है कि वे ट्रम्प के हिंसक तौर-तरीकों के प्रशंसक बनकर आगे फिर इसी किस्म के तानाशाह को चुन सकते हैं जो कि तमाम अंतरराष्ट्रीय नियम-कानून के खिलाफ जाकर दुनिया में अमरीका को एक माफिया के अंदाज में सबसे ताकतवर बना सके, और बाकी पूरी दुनिया पर अमरीकी मनमानी कर सके। पिछले दो दिनों से ट्रम्प ने दुनिया के अधिकतर देशों को असहज कर रखा है जब उन्होंने फिलीस्तीन के गाजा पर पूरा कब्जा करने की घोषणा की है, और वहां पर एक पर्यटन केन्द्र बनाने का इरादा जाहिर किया है। इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के साथ बातचीत के बाद ट्रम्प ने इस सदी का दुनिया का सबसे हिंसक इरादा जाहिर किया है कि फिलीस्तीनियों को उनके ही घर से बेदखल किया जाएगा, उन्हें बगल के मिस्र और जॉर्डन जैसे देशों में बसाया जाएगा। 23 लाख लोगों को अपने देश और अपने घर से बेदखल करने का ट्रम्प का यह इरादा और उनकी मुनादी एक भूमाफिया का तौर-तरीका है जिसमें गरीबों की बस्ती को उनके हक की जमीन से हटाकर कोई बिल्डर अपनी इमारत खड़ी करता है। ट्रम्प ने राष्ट्रपति चुनाव जीतने के पहले से यह फतवा देना चालू किया था कि कनाडा अमरीका का राज्य बन जाए। वे ग्रीनलैंड को कब्जा करना चाहते हैं, और पनामा नहर को कब्जा करने के लिए फौजी कार्रवाई तक का इरादा जाहिर कर चुके हैं। इजराइल का साथ देने के लिए, और मध्य-पूर्व में अपनी फौजी गुंडागर्दी कायम करने के लिए ट्रम्प ने जो हमलावर तेवर दिखाए हैं, वे अंतरराष्ट्रीय कानून के खिलाफ हैं, संयुक्त राष्ट्र संघ के नियमों के खिलाफ हैं, और मध्य-पूर्व के देशों ने इसका विरोध करना भी शुरू कर दिया है।
ट्रम्प ने जिस अंदाज में जलवायु के पेरिस समझौते को तोड़ा, जिस तरह विश्व स्वास्थ्य संगठन को मदद खत्म की, जिस तरह अमरीकी सरकार से दुनिया भर के कार्यक्रमों को मिलने वाली मदद खत्म की, कनाडा, मैक्सिको, और चीन से अमरीका आने वाले सामानों पर टैरिफ लगाया, जिस तरह यूरोपीय संघ को टैरिफ लगाने की धमकी दी, वह सब कुछ बहुत ही भयानक है। इससे विश्व स्वास्थ्य संगठन का दुनिया भर में चलने वाला कार्यक्रम ठप्प हो जाएगा। जलवायु बचाने की कोशिशों को ट्रम्प दुनिया का सबसे बड़ा ग्रीनफ्रॉड कहता है, और योरप के देशों के साथ नाटो संगठन को तरह-तरह की धमकी दे रहा है। जिस अंदाज में ट्रम्प ने वहां भारत के अवैध बसे हुए लोगों को हथकड़ी-बेड़ी लगाकर फौजी विमान से लाकर हिन्दुस्तान में पटका है, और लाखों बकाया हिन्दुस्तानियों पर तलवार टंगी हुई है, इन सबसे हिन्दुस्तान के उन हवनबाजों की आंखें खुलनी चाहिए जो कि ट्रम्प की जीत के लिए हवन करने में जुट जाते हैं, या गोली से उसका कान जख्मी होने पर हिन्दुस्तानी सडक़ किनारे मंदिरों में हवन-पूजन करने लगते हैं। हिन्दुस्तान के लोग अगर अमरीका में अवैध बसे हुए थे, तो उन्हें वापिस भेजना तो जायज था, लेकिन क्या हथकड़ी-बेड़ी में जकडक़र उन्हें पेशेवर खतरनाक मुजरिम की तरह पेश करना भी जरूरी था?
कुछ दिनों में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अमरीका जाने का कार्यक्रम है, और उसका अकेला मकसद नए राष्ट्रपति ट्रम्प के इस दूसरे कार्यकाल में उनसे मुलाकात है। हम यह उम्मीद ही कर सकते हैं कि हिन्दुस्तानियों के साथ ट्रम्प के सुलूक के बारे में मोदी जरूर ही विरोध दर्ज करेंगे, और फिलीस्तीन पर फिलीस्तीनियों के कब्जे के बारे में अटल बिहारी वाजपेयी का आमसभा का भाषण वे अच्छी तरह सुनकर जाएंगे जिसमें उन्होंने दो देशों के सिद्धांत और अपनी जमीन पर फिलीस्तीनियों के कब्जे की बात खुलकर कही थी, जोर देकर उन्होंने कहा था कि किसी की जमीन पर कब्जा कर लेने वाले को उसका हक नहीं दिया जा सकता, और जब भारत को ऐसी बात अपने बारे में मंजूर नहीं है, तो फिर वह फिलीस्तीनियों, और इजराइलियों के बारे में कैसे मंजूर होगी। अटलजी ने उन्हीं बातों को दोहराया था जो आजादी के पहले से गांधी अपने अखबार में लिखते आ रहे थे, और जो नेहरू से लेकर इंदिरा तक तमाम प्रधानमंत्रियों ने दुहराया भी था। खुद वाजपेयी ने अपने भाषण में मोरारजी देसाई के इसी रूख का हवाला देते हुए फिलीस्तीनियों का समर्थन किया था। हमें पूरी उम्मीद है कि मोदी भारत की विदेश नीति के इतिहास को देखते हुए दुनिया के इस सबसे बड़े मवाली के साथ अपनी मुलाकात में इंसाफ का साथ देंगे, और फिलीस्तीनियों को भगाकर वहां कोई ट्रम्प टॉवर बनाने की हिंसक योजना का विरोध करेंगे। लोगों को याद रखना चाहिए कि दक्षिण अफ्रीका जैसे कई देश हैं जिन्होंने इजराइल के खिलाफ जमकर कहा, और गाजा पर उसके हमले का विरोध किया। लोग अंतरराष्ट्रीय क्रिमिनल कोर्ट तक गए, और इजराइल के खिलाफ वहां से हुक्म करवाया। इन बहुत से देशों का फिलीस्तीन से कोई सीधा लेना-देना नहीं था, और न ही इजराइल से उनकी कोई सीधी दुश्मनी थी। लेकिन यह बात याद रखनी चाहिए कि दुनिया के इतिहास में उन्हीं देशों और नेताओं को दर्ज किया जाता है जो कि स्वार्थ से परे जाकर इंसानियत और इंसाफ के साथ खड़े रहते हैं। मोदी के सामने यह एक बड़ा मौका रहेगा कि वे एक कारोबारी-प्रधानमंत्री बनकर ट्रम्प से मिलें, या फिर दुनिया के एक इंसाफपसंद इतिहास वाले महान हिन्दुस्तान के उस प्रधानमंत्री की हैसियत से जिससे भविष्य इंसाफ की उम्मीद भी करेगा। आज अगर फिलीस्तीन को गरीब की जमीन के टुकड़े की तरह ट्रम्प नाम का भूमाफिया अपने इजराइली गुंडों के साथ मिलकर कब्जा कर लेता है, और मालिक को ही बेदखल कर देता है, तो दुनिया के बाकी देशों को याद रखना चाहिए कि ट्रम्प के हमलावर तेवर सिर्फ गाजा पर नहीं थमेंगे, वे आगे चारों तरफ बढ़ेंगे, और दुनिया के कोई मुल्क महफूज नहीं रह जाएंगे।
हिन्दुस्तान को तो इंदिरा गांधी का इतिहास भी याद है जिसने अमरीकी सरकार के सारे दबाव के खिलाफ जाकर पाकिस्तान को तोडक़र दो टुकड़े कर दिए थे, और बांग्लादेश बनवा दिया था। उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं ने भी संसद के भीतर और बाहर इस बात के लिए इंदिरा की जमकर तारीफ की थी। उस वक्त भी अमरीका ने भारत को धमकाने के लिए अपनी नौसेना का सातवां बेड़ा भेज दिया था जिसने आकर लंगर डाला था। लेकिन इंदिरा गांधी ने फौलादी तेवर दिखाए थे। गांधी, नेहरू, इंदिरा, वाजपेयी, इन सबने फिलीस्तीन के बारे में बहुत साफ-साफ नजरिया रखा था, और साफ जुबान सार्वजनिक रूप से बोली थी। दुनिया का इतिहास साफगोई से लिखा जाता है, और लोगों को चुनावी कामयाबी से परे इंसाफ की फिक्र भी करनी चाहिए, और दुनिया के इतिहास में बेहतर तरीके से अपने जिक्र की भी।
फिलहाल ट्रम्प अपने अपनी ही किस्म के सनकी और तानाशाह बेदिमाग और बददिमाग साथियों के साथ पूरी दुनिया पर हमला कर रहा है, और यह हमला जाने कब थम पाएगा। अमरीका में ट्रम्प की रिपब्लिकन पार्टी पता नहीं आज फिक्रमंद होगी या नहीं, लेकिन पूरी दुनिया में ट्रम्प ने जो उथल-पुथल मचा रखी है, उसी की कल्पना करके किसी ने बहुत पहले यह लाईन लिखी होगी कि चीनी मिट्टी के बर्तनों की दुकान में बिफरे हुए सांड की की गई तोडफ़ोड़। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका के नए राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प की बरसों से चली आ रही घोषणा के मुताबिक उन्होंने अमरीका में रह रहे दूसरे देशों के अवैध घुसपैठियों, और आप्रवासियों को निकालना शुरू किया है। इसके तहत कुछ दूसरे देशों में भी वहां के नागरिकों को ले जाकर छोड़ा गया है, और अब से कुछ देर बाद भारत के सौ से अधिक लोगों को अमृतसर में उतारा जाएगा। पहली बार दूसरे देशों के लोगों को अमरीकी वायुसेना का विमान छोडऩे जा रहा है, और भारत लाए जा रहे लोगों की तस्वीरें बताती हैं कि उन्हें हथकडिय़ों और बेडिय़ों से बांधकर लाया जा रहा है। भारत सरकार ने अमरीकी राष्ट्रपति के इस फैसले से सहमति जताई है कि जो भारतीय वहां गैरकानूनी तरीके से घुसे हैं, या रह रहे हैं, उन्हें भारत वापिस लेगा। यूपीए सरकार में भारत के विदेश राज्यमंत्री रहे हुए, और आज के कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने कहा है कि पिछले बरस भी पिछले अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन के फैसले से 11 सौ हिन्दुस्तानियों को अमरीका से भारत पहुंचाया गया था। शशि थरूर का कहना है कि अमरीका में बिना कानूनी कागजात के सवा सात लाख भारतीय वहां से निकाले जाने के लायक हैं। उन्होंने कल अमरीकी विमान आने की खबरों के बीच यह कहा कि पिछले चार बरस में अमरीकी अधिकारियों ने मैक्सिको और कनाडा की सरहद पर अमरीका घुसने की कोशिश करते दो लाख हिन्दुस्तानियों को गिरफ्तार किया है। शशि थरूर ने कहा कि अगर ये भारतीय नागरिक हैं, तो भारत सरकार की जिम्मेदारी है उन्हें वापिस लेना, इस बारे में कोई बहस नहीं हो सकती। यहां यह याद रखा जाना चाहिए कि शशि थरूर ने दशकों तक संयुक्त राष्ट्र संघ में काम किया है, और वे अंतरराष्ट्रीय नियमों के खासे जानकार भी हैं। साथ ही भारतीय विदेश राज्यमंत्री रहते हुए वे इस बारे में भारत की नीति से भी अच्छी तरह वाकिफ हैं। अब यह भारत के लिए कितनी राहत की बात है, या कितनी फिक्र की बात है, यह तो भारत सरकार को समझना होगा, और चूंकि अभी संसद का सत्र चल रहा है, तो उसे वहां भी बताना होगा, या कम से कम हमारी उम्मीद है कि उसे इस बारे में संसद में बयान देना चाहिए।
यह सब उस वक्त हो रहा है जब भारत में भी यहां दूसरे देशों से, खासकर पड़ोस के लगे हुए देशों से आकर बस गए अवैध घुसपैठियों या आप्रवासियों को निकालने की सरकारी मुहिम भी चल रही है, लेकिन वह बहुत काम नहीं कर पा रही है। कल ही सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर असम और केन्द्र सरकार को फटकार लगाई है कि जिन लोगों को विदेशी घोषित किया जा चुका है, उन्हें देश से निकाला क्यों नहीं जा रहा है, और उन्हें अनिश्चितकाल तक हिरासत केन्द्रों में क्यों रखा जा रहा है? अदालत ने असम सरकार से पूछा कि क्या वह इन्हें निकालने के किसी मुहूर्त का इंतजार कर रही है? सुप्रीम कोर्ट ने इस राज्य सरकार से कहा है कि इन लोगों को दो हफ्ते में निकालना शुरू किया जाए क्योंकि ऐसे कैम्पों में अनिश्चितकालीन हिरासत लोगों के बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन है। दिलचस्प बात यह सामने आई कि असम सरकार ने यह तर्क दिया है कि इनका निर्वासन संभव नहीं है क्योंकि अवैध आप्रवासियों के मूल देशों का पता नहीं है। भारत में ऐसे बसे हुए अधिकतर लोग बांग्लादेश से आए हुए हैं, जो कि कुछ पीढ़ी पहले भी आए हैं, और उसके बाद से लगातार आना जारी रहा है। इनमें पाकिस्तान से भारत आकर वापिस न लौटने वाले लोग भी हैं, म्यांमार से जान बचाकर भागे हुए रोहिंग्या भी हैं, और हो सकता है कि कम संख्या में श्रीलंका या नेपाल जैसे देशों से आए हुए लोग भी यहां पर हों। भारत में नेपाल और तिब्बत के लोगों के लिए एक खास दर्जा यहां रखा है, लेकिन भारत की शरणार्थी नीति पर अधिक चर्चा करना आज का मकसद नहीं है, आज का मुद्दा तो अमरीका ही है।
अब अमरीकी सरकार की नजर से देखें, तो उसने वहां अवैध रूप से रह रहे सभी देशों के लोगों को निकालना शुरू किया है। इनमें लाखों ऐसे लोग हैं जो अमरीकी जेलों में कैद हैं, और वहां उन पर सरकार का खर्च हो रहा है। आज ही सुबह की खबर है कि अमरीका आसपास के कुछ दूसरे देशों से यह चर्चा भी कर रहा है कि अमरीकी जेलों के कैदियों को वे देश अपने यहां रखें। इससे हो सकता है कि अमरीका का खर्च घट जाए, और उन देशों को कुछ रोजगार और कमाई मिलने लगे। एक सेंट्रल अमरीकी देश अल सल्वाडोर ने अभी अमरीकी विदेशी मंत्री से बातचीत में यह सहमति दिखाई है कि वह अमरीका में गैरकानूनी रूप से बसे अपने लोगों को तो वापिस लेगा ही इसके साथ-साथ वह दुनिया के किसी भी देश के अमरीका में बंद मुजरिमों को भी अपनी जेलों में रखने के लिए तैयार है। इसमें अमरीकी नागरिक भी हो सकते हैं जो कि खूंखार और भयानक जुर्म की सजा काट रहे हैं। यह दुनिया में पहला मौका होगा कि कोई देश दूसरे देश के वहां के मुजरिमों को अपनी जेल में रखने को इस तरह खुशी-खुशी तैयार हुआ हो। हालांकि आज का अमरीका का कानून इस बात की इजाजत नहीं देता कि वह अपने नागरिकों को किसी भी तरह देश के बाहर भेजे, चाहे वे सजा काट रहे मुजरिम ही क्यों न हों। अब अल सल्वाडोर एक भुगतान के एवज में किसी भी किस्म के अमरीकी कैदियों को अपनी जेलों में रखने को तैयार है, और वह उम्मीद करता है कि अमरीका से मिलने वाले भुगतान से उसकी जेलें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाएंगी।
डोनल्ड ट्रम्प की अंधड़ की तरह लागू की जा रही नीतियों से पूरी दुनिया के पैर उखड़े हुए हैं। दुनिया भर के शेयर बाजार औंधेमुंह पड़े हैं कि ट्रम्प किसी देश से होने वाले आयात पर टैरिफ लगा देगा। पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में भूकम्प आया हुआ है। ऐसे में जब बहुत से देशों में अमरीका से उसके नागरिक लौटेंगे, तो वे वहां पर एक अलग किस्म की समस्या भी रहेंगे। अवैध आप्रवासियों की नागरिकता वाले देश कहां से इतने लोगों के लिए रोजगार-कारोबार लाएंगे, या अमरीका में उनकी गैरकानूनी घुसपैठ या बसाहट पर उनके देशों में क्या कार्रवाई होगी? भारत के सवा सात लाख लोग अगर अमरीका से बेदखल होंगे, तो इतने कामगारों के लिए देश में कैसी जगह बन पाएगी? ऐसे बहुत से सवाल अमरीकी राष्ट्रपति के रातों-रात अमल में लाए जा रहे सनकी फैसलों से उठ रहे हैं, और सच तो यह है कि कल तक अमरीका के दोस्त रहे देशों के पास भी इस बात का कोई जवाब नहीं है कि ट्रम्प की सनक इन दोस्त-देशों को किस तरह प्रभावित या बर्बाद करेगी। आगे-आगे देखें, होता है क्या।
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने राजधानी रायपुर में सडक़ पर जन्मदिन मनाते हुए दोनों तरफ ट्रैफिक जाम की नौबत खड़ी करने पर भारी नाराजगी जाहिर की है, और इस पर सिर्फ तीन सौ रूपए जुर्माना लगाने वाले अफसर को सस्पेंड करने, और उस पर विभागीय कार्रवाई करने को कहा है। इस घटना में शहर के व्यस्त इलाके में एक नौजवान का जन्मदिन बीच सडक़ कार पर केक रखकर, आतिशबाजी के साथ मनाया जा रहा था, और लंबे ट्रैफिक जाम के बाद कुल तीन सौ रूपए जुर्माना किया गया। सरकार की तरफ से अदालत को बताया गया कि इस मामले में मोटर व्हीकल एक्ट के तहत कार्रवाई की गई है, और तीन सौ रूपए का चालान काटा गया है। हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पुलिस की इस गैरगंभीर कार्रवाई पर हक्का-बक्का हैं। इसके साथ ही हमें कुछ दूसरी खबरें भी इसी शहर की मिल रही हैं जिनमें सडक़ पर लंबे फेरे से बचने के लिए सौ मीटर का हिस्सा रांग साईड से जाने पर दुपहिया चालकों को दो-दो हजार रूपए जुर्माने के चालान उनके फोन नंबर पर पहुंचे हैं। ऐसा लगता है कि जब किसी मवाली की ताकत सडक़ को अपने बाप की साबित करने की हो जाए, तो उस पर हाथ डालने के पहले पुलिस सौ बार सोचती है। मामूली दुपहिया चालकों को इससे पांच-दस गुना जुर्माने के नोटिस मिल रहे हैं, और ऐसी गुंडागर्दी करने वाले से हो सकता है कि पुलिस केक खाकर लौटी हो।
यह अकेला मामला नहीं है, इसी राजधानी रायपुर में हाईकोर्ट की दर्जनों बार की लताड़ के बाद भी गाडिय़ों पर लदे हुए लाउडस्पीकरों को बजाते हुए निकलने वाले जुलूस पर भी अफसर ऐसी ही मामूली सी कार्रवाई करते हैं, और आज भी पूरी गुंडागर्दी के साथ न सिर्फ धार्मिक और राजनीतिक जुलूस, बल्कि निजी शादियों के जुलूस भी सडक़ों पर ट्रैफिक जाम करते हुए, कान फाड़ते हुए, और दूर-दूर तक रौशनी की अंधाधुंध मार करते हुए निकलते हैं, और रास्ते में पडऩे वाली पुलिस को मानो ये न दिखते हैं, न सुनाई पड़ते हैं। हाईकोर्ट कई बार यह कह चुका है कि अफसर कोई कार्रवाई करना ही नहीं चाहते। होना तो यह चाहिए कि इस तरह की तमाम गाडिय़ों को राजसात किया जाए, ऐसे लोगों पर जनजीवन तहस-नहस करने, लोगों की जिंदगी के लिए खतरा खड़ा करने जैसी धाराएं लगानी चाहिए, ताकि बाकी लोगों को कुछ सबक मिले। लेकिन अफसरों की हमदर्दी मुजरिमों के साथ रहती है, और शांति से जीने की चाहत रखने वाले आम लोग ऐसी सावर्जनिक गुंडागर्दी को बर्दाश्त करने के अलावा कुछ नहीं कर पाते। हमारा मानना है कि जब हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की बार-बार की फटकार भी पूरी तरह बेअसर हो जाती है, तो फिर लोगों को उम्मीद छोड़ देनी चाहिए। राजधानी में राजभवन, मुख्यमंत्री के बंगलों के इर्द-गिर्द का हिस्सा प्रशासन के एक अलग आदेश से कोलाहलमुक्त घोषित कर दिया जाता है, और शहर के, प्रदेश के, सडक़ किनारे बसे और काम करने वाले लोगों के तो मानो कान ही नहीं हैं। ध्वनि प्रदूषण से इसी प्रदेश में कुछ लोगों की जान जा चुकी है, लेकिन पुलिस और प्रशासन मौजूदा कानूनों पर भी अमल करना नहीं चाहते। एक पुरानी बात चली आ रही है कि हर सफल पुरूष के पीछे किसी महिला का हाथ होता है, उसी तरह कानून तोडऩे वाले हर मुजरिम की पीठ पर किसी न किसी नेता का हाथ होता है। जब शासन और प्रशासन कानून तोडऩे को एक नियमित बात मान लेते हैं, तो फिर वह जनता की नियति ही बन जाती है।
अब इसी राजधानी की कल की खबर है कि पुलिस ने मोटरसाइकिलों के लिए गैरकानूनी साइलेंसर बेचने वाले दुकानदारों की एक बैठक लेकर उन्हें बताया है कि ऐसे साइलेंसर बेचने पर छह महीने की कैद हो सकती है, और जुर्माना हो सकता है। अफसरों ने बैठक में यह भी कहा कि पहले भी कई बार वे इस पर बैठक कर चुके हैं। पुलिस की तरफ से कहा गया कि कारोबारियों को समझाईश दी गई है। अब सवाल यह उठता है कि जो जुर्म है, और जिस पर छह महीने की कैद हो सकती है, उस पर क्या पुलिस का काम पूरी जिंदगी बैठक ले-लेकर हिदायत देना है कि ऐसे मुजरिमों को जेल भेजना है? जो कारोबारी सोच-समझकर गैरकानूनी सामान बेच रहे हैं, और रईसों की जो बिगड़ैल औलाद सोच-समझकर हजारों रूपए खर्च करके कानून तोड़ रही है, लोगों का जीना हराम कर रही है, वे जेल जाने के हकदार हैं, या हिदायत पाने के? क्या कानून पुलिस को इस बात की छूट देता है कि वे मुजरिमों को हिदायत दे-देकर छोड़ते रहें? हर कुछ महीनों में पुलिस अलग-अलग किस्म की हिदायत देती है, और फिर उसे बहुत संगठित, और रहस्यमय तरीके से इजाजत भी देती है। यह हाल उस राजधानी का है जहां कि हर सडक़ से हर कुछ घंटों में मंत्रियों और बड़े अफसरों की आवाजाही चलती ही रहती है, इसलिए बाकी प्रदेश में हालत इससे बेहतर हो, ऐसी कोई वजह नहीं हो सकती।
यह देखना भी हैरान करता है कि अफसरों से ऊपर जो राज्य सरकार है वह हर दिन अखबारों मेें सार्वजनिक गुंडागर्दी की खबरें पढ़ती है, सरकारी वकील हर हफ्ते किसी न किसी ऐसे सार्वजनिक मामले पर हाईकोर्ट की फटकार झेलते हैं, और इसके बाद भी सरकार अगर कोई सुधार नहीं करती है, तो उससे ऐसी तस्वीर बनती है कि वह भी सार्वजनिक मुजरिमों के सामने बेबस है। हकीकत तो यह है कि ऐसी गुंडागर्दी को रोकने के लिए एक छोटा सा अफसर काफी हो सकता है, लेकिन सडक़ों पर अराजकता और गुंडागर्दी की छूट देने के पीछे संबंधित अफसरों की एक संगठित व्यवस्था काम करती है। बिना पुलिस की छूट के यह तो मुमकिन हो नहीं सकता, कि हर ऑटोरिक्शा ड्राइवर अपने दाएं-बाएं एक-एक और सवारी बिठाकर चलता है, तमाम ई-रिक्शा बैटरी बचाने के लिए बिना लाईट जलाए चलते हैं, स्कूली बच्चों को ले जाने वाली गाडिय़ां नियमों के खिलाफ चलती हैं, और ओवरलोड चलती हैं, और इनमें से किसी के खिलाफ भी जब कोई कार्रवाई नहीं होती है, तो यह जाहिर है कि यह संगठित-संरक्षण सडक़ों के मुजरिमों के लिए बिक्री पर उपलब्ध सामान है।
किसी भी प्रदेश में कानून का सम्मान कितना है यह वहां की ट्रैफिक को देखकर कुछ देर में ही समझ आ जाता है। हम बार-बार यह बात भी लिखते हैं कि लोग अपनी जिंदगी का पहला जुर्म ट्रैफिक नियम तोडऩे का करते हैं, और उस पर कोई कार्रवाई न होने पर वे धीरे-धीरे और गंभीर जुर्म की तरफ बढ़ते हैं। आज छत्तीसगढ़ के हर बड़े शहर में आए दिन चाकूबाजी दिखाई पड़ती है, और नाबालिग या नौजवान गुंडों का यह हौसला सडक़ों पर ट्रैफिक नियम तोडऩे से शुरू होकर बढ़ते-बढ़ते यहां तक पहुंचा हुआ रहता है। राज्य के मुख्यमंत्री एक से अधिक बार प्रदेश स्तर की बैठकों में ट्रैफिक को सुधारने के लिए कड़ाई बरतने की बात कह चुके हैं, मुख्य सचिव सरकारी अफसर-कर्मचारियों के लिए भी हेलमेट और सीट बेल्ट अनिवार्य करने को कह चुके हैं। इसके बाद भी अगर इस राजधानी में गुंडे-मवाली सडक़-चौराहों पर ट्रैफिक रोककर अपना जन्मदिन मनाते हैं, तो सरकार को अपनी जिम्मेदारी और अपने असर के बारे में सोचना चाहिए, हाईकोर्ट तो सोच-सोचकर थक चुका है, निराश हो चुका है, और हथियार डाल चुका है।
तलाक के एक मामले में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने अभी पति के पक्ष में फैसला दिया है, और कहा है कि जिन मां-बाप ने बेटे को पाल-पोसकर बड़ा किया, और पढ़ाया, उसका नैतिक और कानूनी दायित्व है कि मां-बाप के बूढ़े होने पर उनकी देखभाल करे, और उनका इंतजाम करे। दो जजों की बेंच ने पत्नी के बारे में भी भारतीय सामाजिक मूल्यों के मुताबिक कहा है कि उससे भी पति के परिवार का हिस्सा बनने की उम्मीद की जाती है। ऐसे में अगर वह अलग रहने की जिद करती है, तो बेटे पर अपने मां-बाप की जिम्मेदारी भी रहती है, और यह तलाक का एक आधार बन सकता है। हम उस मामले पर अधिक लिखना नहीं चाहते जिसे लेकर अदालत का यह फैसला सामने आया है, और तलाक के लिए पहुंचे हुए पति को अदालत ने राहत दी है। हम यहां पर महिला की किसी गलती रहने या न रहने पर टिप्पणी नहीं कर रहे, क्योंकि बहुत से मामले ऐसे भी रहते हैं जिनमें पत्नी की प्रताडऩा होती है, और अभी पिछले एक हफ्ते में ही अपने आसपास हमें दो-तीन ऐसे मामले दिखे हैं। लेकिन मां-बाप के साथ बच्चों का कैसा रिश्ता रहना चाहिए, इस मुद्दे पर हम यहां चर्चा करना चाहते हैं।
इससे बिल्कुल ही अलग एक दूसरा समाचार मध्यप्रदेश का आज ही छपा है जिसमें टीकमगढ़ में एक व्यक्ति की मौत के बाद उसके बेटों में इस बात को लेकर झगड़ा हुआ कि पिता का अंतिम संस्कार कौन करे। और जब बातचीत से यह नहीं सुलझा तो पिता की लाश घर के बाहर पड़ी रही, और बेटे झगड़ते हुए इस सहमति पर पहुंचे कि लाश के दो टुकड़े कर लेते हैं, और आधे-आधे टुकड़े का अंतिम संस्कार दोनों बेटे कर लेंगे। इस पर समाज के लोगों ने उन्हें समझाया लेकिन उनकी जिद को देखते हुए लोगों ने पुलिस को खबर की, और पुलिस ने आकर रिश्तेदारों-घरवालों को समझाईश देकर छोटे बेटे से अंतिम संस्कार करवाया, और बड़ा बेटा लाश के टुकड़े करके एक टुकड़े का अंतिम संस्कार करने की हसरत के साथ वहां रह गया। लोगों को याद होगा कि इसी मध्यप्रदेश में अभी कुछ हफ्ते पहले ही दो भाईयों ने मिलकर बूढ़ी और बीमार मां को गला घोंटकर मार डाला था, क्योंकि उसकी देखभाल करनी होती थी। एक दूसरे मामले में एक आदमी बूढ़ी और बीमार मां को बिना दवा-खाने के घर में बंद करके पत्नी और बच्चे सहित उज्जैन चले गया था, और पीछे से मां के मर जाने के बाद जब लाश की बदबू फैली तब पड़ोसियों ने पुलिस को बुलाया, और यह मामला खुला। ऐसे बहुत से मामले होते हैं जिनमें कोई ईमानदार और वफादार औलाद बूढ़े मां-बाप की जिंदगी भर देखरेख करने के लिए अपनी जिंदगी का सुख-चैन भूल जाती हैं, वहीं दूसरी ओर मां-बाप को मार डालने वाले लोग भी कम नहीं रहते हैं।
देश के कानून में यह तो साफ कर दिया है कि मां-बाप की देखरेख करना औलाद की जिम्मेदारी है, और अगर वे इसे पूरा नहीं करेंगी तो अदालत उनसे मां-बाप को गुजारा भत्ता दिलवा सकती है। बिना किसी अपवाद के, सारे ही मां-बाप अपने बच्चों को बड़ा करते हैं, और उनके जवान होने तक उन पर खर्च करते हैं, पढ़ाते-लिखाते हैं, और उनकी शादी करने से लेकर उनके बच्चों तक की देखभाल करते हैं। मां-बाप की इस पूरी लागत में से अगर सिर्फ आर्थिक हिस्से का हिसाब लगाया जाए, तो भी कमाऊ होने के बाद आल-औलाद को मां-बाप की बकाया जिंदगी उनका ख्याल रखना चाहिए, तभी वे मातृ-पितृ ऋण से उऋण हो सकेंगे। लेकिन हर औलाद अच्छी इंसान हो, यह जरूरी तो है नहीं, हम अपने आसपास ऐसी बहुत सी औलादें देखते हैं जो कि मां-बाप को मारपीट कर उनके पैसे छीनकर नशा करती हैं, और बूढ़े मां-बाप इस आस में मजदूरी करके ऐसी नालायक और हरामखोर औलाद को पालते हैं कि कम से कम वह जिंदा तो रहे।
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने बेटे पर मां-बाप की देखरेख की जो जिम्मेदारी गिनाई है, वह कानून की तंग परिभाषा से परे भी इंसानियत की बात है, और समाज को भी जवान लोगों पर मां-बाप की देखरेख का दबाव बनाकर रखना चाहिए। लेकिन इससे परे भी हमारा ऐसा ख्याल है कि मां-बाप को अपनी औलाद को बिगडऩे न देने के लिए फिक्र करनी चाहिए, और जवान बच्चों को गोद के दुधमुंहों की तरह संभालकर नहीं रखना चाहिए। उन्हें अपनी बचत में से औलादों को एक सीमा से अधिक मदद भी नहीं करनी चाहिए, उन्हें अपने दम पर अपने पैरों पर खड़े होने की राह दिखानी चाहिए। आज हिन्दुस्तानी मां-बाप आल-औलाद के मोह में अपनी पूरी दौलत गंवा बैठते हैं, और दौलत जाने के साथ-साथ औलाद की जिंदगी से मां-बाप का महत्व भी चले जाता है। यह सिलसिला शुरू ही नहीं होने देना चाहिए। संतानमोह, और खासकर पुत्रमोह में मां-बाप उसे खूब निकम्मा हो जाने देते हैं, और अपना सब कुछ गंवा बैठते हैं। हमारा मानना है कि सरकार को एक कानून बनाकर बूढ़े मां-बाप की दौलत औलाद तक जाने के नियम तय करने चाहिए। बूढ़े मां-बाप की बकाया उम्र का हिसाब लगाकर जमीन-जायदाद या दौलत का एक पर्याप्त हिस्सा उन्हीं के नाम पर आखिर तक रखना चाहिए, और आल-औलाद के नाम इस पर्याप्त हिस्से का ट्रांसफर नहीं होने देना चाहिए। यह किसी भी जनकल्याणकारी सरकार की जिम्मेदारी है कि वह बूढ़े, बीमार, या असहाय लोगों को भावना में बहकर, या पारिवारिक दबावतले पिसकर आत्मघाती बंटवारा न करने दे, या दौलत न गंवाने दे। हमने पहले भी इस मुद्दे पर लिखते हुए इस बात का जिक्र किया था कि बुजुर्ग लोग अपनी जायदाद पर बैंकों से एक रिवर्स लोन ले सकते हैं, जिसके तहत बैंक एक हिसाब लगाकर बुजुर्गों को हर महीने गुजारे के लिए रकम देती है, और उनके गुजर जाने के बाद इस दी गई रकम और ब्याज का हिसाब लगाकर उनकी आल-औलाद को उस दाम पर जमीन-जायदाद दे देती है, या बेचकर अपनी रकम निकालकर बाकी रकम वसीयत के मुताबिक उनके बच्चों को दे देती है।
परिवार और समाज का दबाव बूढ़े मां-बाप झेल नहीं पाते, इसलिए सरकार को ही ऐसा कानून बनाना चाहिए ताकि लोग मौत आने तक गरिमामय तरीके से जी सकें। कल ही हमने सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के आधार पर केरल और कर्नाटक सरकारों के बनाए हुए नियम पर इसी जगह लिखा था कि वहां लाइलाज मरीजों को गरिमामय तरीके से मरने देने की कैसी कानूनी छूट दी जा रही है। आज उसी से मिलती-जुलती बात हम गरिमामय तरीके से बुढ़ापा गुजारने के बारे में कह रहे हैं कि आल-औलाद के रहमोकरम पर जीने के बजाय लोगों को अपने खुद के बुढ़ापे के लिए बचत करके रखनी चाहिए, और अपने इंतजाम के बाद ही अगर कुछ बचे तो उसे आल-औलाद को देना चाहिए, या उन पर खर्च करना चाहिए। भावनाओं में बहकर बच्चों के लिए कुछ भी करना उन्हें भी बर्बाद करने से कम नहीं रहता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आरटीआई हिन्दुस्तान में बहुत सी गड़बडिय़ों को उजागर करने का अपने किस्म का अनोखा जरिया बन गया है। सरकारी जानकारी के साथ-साथ बहुत किस्म की दूसरी संस्थाओं की जानकारी भी इसके तहत आती है, और लोग आरटीआई के तहत जानकारी निकालकर भ्रष्टाचार, गड़बड़ी, और कई दूसरे किस्म के भेदभाव उजागर करते हैं। अभी रेलवे से एक आरटीआई एक्टिविस्ट ने जानकारी निकाली है कि 2021 से 2023 के बीच पौने दो करोड़ से अधिक सीटें/बर्थ वीआईपी/इमरजेंसी कोटे में आबंटित की गईं, और दूसरी तरफ इसी दौरान सवा चार करोड़ से अधिक मुसाफिर टिकट कन्फर्म न होने से यात्रा नहीं कर सके। इसमें और गजब की बात यह है कि बारह साल पहले रेल मंत्रालय ने यह प्रस्ताव रखा था कि वीआईपी कोटे की सीटों पर रेलवे के तत्काल दर्जे जितना किराया लिया जाए, लेकिन सरकार ने उसे मंजूरी नहीं दी। इस प्रस्ताव से सरकार को 27 सौ करोड़ रूपए अधिक मिल सकते थे। मतलब यह कि वीआईपी दर्जे के नाम पर इन मुसाफिरों से कोई अतिरिक्त शुल्क भी नहीं लिया जाता, और तत्काल टिकट खरीदने वालों को इनके मुकाबले बहुत अधिक भाड़ा चुकाना पड़ता है। आम जनता के हक छीनकर कुछ खास जनता को दिया जाए, और फिर उस देने को भी रियायती रेट पर दिया जाए, इसे क्या ही कहा जाए!
दरअसल हिन्दुस्तान आजाद तो हो गया, उसकी पौन सदी भी मना रहा है, लेकिन उसके दिमाग से अब तक सामंती सोच हटी नहीं है। हम बार-बार देश में वीआईपी संस्कृति के खिलाफ लिखते हैं। लेकिन सत्ता का मिजाज विशेषाधिकार की इस संस्कृति से परे सोच नहीं पाता है। एक वक्त था जब हिन्दुस्तान में टेलीफोन की कमी रहती थी, और उस वक्त हमारे सरीखे लोगों के घर-दफ्तर में केन्द्रीय संचार मंत्री के कोटे से टेलीफोन लगे थे। अभी हाल के बरसों तक केन्द्रीय विद्यालय में दाखिले के लिए केन्द्रीय मंत्री या सांसद का कोई कोटा होता था, अब वह है या नहीं, पता नहीं। ट्रेन में सफर के लिए जब अंधाधुंध अधिक भाड़े वाला एक तत्काल नाम का दर्जा बनाया गया है, और जिससे सरकार को मोटी कमाई होती है, उसे भी अनदेखा करके नेताओं और अफसरों की मर्जी से, जजों और पत्रकारों सरीखे लोगों को वीआईपी दर्जे के नाम पर ट्रेन में जगह दी जाती है, और आम मुसाफिर कतार में लगे-लगे घर लौटने को मजबूर रहते हैं। सुना है कि ऐसे ही किसी वीआईपी इंतजाम के चक्कर में कुम्भ में सरकार ने आम लोगों के लिए सीमित जगह रखी थी, जहां भगदड़ मची क्योंकि सरकारी अमला वीआईपी इंतजाम पर अधिक ध्यान दे रहा था।
यह तो भला हो यूपीए सरकार के समय बने आरटीआई सरीखे कानून का जिसकी वजह से बहुत किस्म की चीजें सामने आती हैं, वरना सत्ता तो हर नाजुक फाइल को अपनी कुर्सी की गद्दी के नीचे दबाकर रखने की आदी रहती है। जहां जनता के खजाने को नुकसान पहुंचता है, उस कीमत पर भी इस देश में अपने को वीआईपी दर्जा देने वाले लोग मुफ्तखोरी करते हैं। संसद की कैंटीन में अविश्वसनीय सस्ते दामों पर मिलने वाला खाना अक्सर ही सांसदों और दूसरे नेताओं के खिलाफ जनता में नाराजगी और नफरत पैदा करते आया है। एक वक्त तो ऐसा भी था जब सांसदों और विधायकों को भारतीय सेना की सेकेंडहैंड जीप और मोटरसाइकिल रियायती दाम पर मिलती थीं, और उनका कोटा रहता था। आज भी रायपुर सरीखे एयरपोर्ट पर कारों के जाकर रूकने की जगह पर एक बहुत बड़ा हिस्सा सिर्फ नेताओं और अफसरों के लिए रखा जाता है, जिसकी वजह से बाकी तमाम जनता के लिए बड़ा छोटा सा हिस्सा बचता है। देश में लोकतंत्र की पौन सदी मनाई जा रही है, लेकिन लोगों की सोच ताकत पाने के साथ-साथ और अधिक सामंती होते चलती है।
दरअसल इस देश की बड़ी अदालतें बड़ी सहूलियत पाने वाली हैं, इसलिए वहां भी वीआईपी दर्जे खत्म करने की अधिक सुनवाई नहीं होती है। कुछ अरसा पहले हाईकोर्ट के एक जज ने ट्रेन में उन्हें पर्याप्त सुविधा न मिलने को लेकर रेलवे को नोटिस जारी कर दिए थे, बाद में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने इस बारे में लिखा था कि जजों को ऐसे किसी प्रोटोकॉल का कोई हक नहीं है, और न ही उन्हें ऐसे नोटिस जारी करने चाहिए। जब संविधान की व्याख्या करने और लोकतंत्र के मूल्यों का सम्मान करने के लिए जिम्मेदार बड़े जजों में नाजायज सहूलियतों की चाह इतनी अधिक रहती है, तो वे भला खास और आम जनता का फर्क कैसे कर सकेंगे, वे तो खुद ही खास के दर्जे की सहूलियत चाहते हैं।
जिस मीडिया पर खास और आम के ऐसे भेदभाव को उजागर करने की जिम्मेदारी रहती है, वह खुद भी खास बनने, और खास दर्जे की सहूलियतें पाने की कोशिश में लगे रहता है। ऐसा लगता है कि लोकतंत्र के स्थापित स्तंभ सुविधाभोगी होते चले गए हैं, और ऐसे में एक वक्त जनसंगठन और जनआंदोलन के लोग भेदभाव उजागर कर सकते थे, अब वह काम आरटीआई एक्टिविस्ट कर रहे हैं, और जब वे महीनों और सालों की मेहनत से जानकारी पाते हैं, तो फिर मीडिया उसका नगदीकरण कर लेता है, उससे खबरें बना लेता है। हमारा ख्याल है कि सुप्रीम कोर्ट को तमाम सरकारी इंतजाम से वीआईपी शब्द हटाने की पहल करनी चाहिए। अदालत कम से कम यह तो कर ही सकता है कि तमाम जजों को ऐसे किसी भी प्रोटोकॉल से परे कर दे जो कि उन्हें आम लोगों से अलग करते हैं। इसके साथ ही जनहित याचिकाओं का संघर्ष चलते रहना चाहिए, न जाने कब कौन मुख्य न्यायाधीश आम जनता के हक का हिमायती निकल आए, और इस देश में सामंती संस्कृति खत्म हो। वैसे तो जनता ही अगर अधिक जागरूक हो जाए, और सडक़ों पर, स्टेशन और एयरपोर्ट पर, और नेताओं की मौजूदगी वाले दूसरे मौकों पर घेराबंदी करके सवाल करने लगे, तब भी नौबत सुधर सकती है। फिलहाल इस अश्लील और हिंसक, अलोकतांत्रिक और अमानवीय वीआईपी संस्कृति का मजा भोगने वाले लोगों को हमारा धिक्कार।
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार के वक्त मनोनीत अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों को भाजपा सरकार आने पर बर्खास्त कर देने का फैसला छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के कानूनी अधिकार के तहत ठहराया है। भाजपा सरकार ने आने के बाद तुरंत ही एक आदेश जारी करके सभी राजनीतिक नियुक्तियों को खत्म करने का निर्देश दिया था। इसी के तहत छत्तीसगढ़ राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों को भी हटा दिया गया था। इसके खिलाफ वे हाईकोर्ट गए थे, और अदालत ने यह माना है कि इनकी नियुक्ति में ही लिखा हुआ था कि वे राज्य सरकार के इच्छा के अधीन पद पर रहेंगे, और इस हिसाब से सरकार को इन्हें हटा देने का अधिकार था, और इसमें कुछ गलत नहीं हुआ है। अदालत ने कहा है कि इन लोगों को पद पर बने रहने का संवैधानिक अधिकार नहीं था। अदालत ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ताओं की नियुक्ति पिछली सरकार की इच्छा पर हुई थी, और उनकी विचारधारा वर्तमान सरकार की नीतियों के अनुरूप नहीं है, इसलिए उनकी बर्खास्तगी को उनके कार्य या चरित्र पर कलंक नहीं माना जा सकता।
देश-प्रदेश में बहुत से ऐसे पद हैं जो संवैधानिक रहते हैं, और उन पर नियुक्त किए गए लोगों को कोई सरकार साधारण आदेश से नहीं हटा सकती। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जज, यूपीएससी या पीएससी के चेयरमैन, मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग, बाल संरक्षण आयोग जैसी बहुत सी संस्थाएं हैं जिनमें एक निश्चित कार्यकाल के लिए, या एक उम्रसीमा तक के लिए लोगों की नियुक्ति होती है, और वहां से उन्हें हटाने के लिए सरकार को महाभियोग जैसी बड़ी गंभीर प्रक्रिया अपनानी होती है। सरकारें आती-जाती रहती हैं, सत्तारूढ़ विचारधारा भी बदलती रहती है, लेकिन संवैधानिक पदों पर निरंतरता बनी रहती है। इससे परे जो राजनीतिक मनोनयन होते हैं, उनसे उम्मीद की जाती है कि वे सरकार बदलते ही अपनी कुर्सियां छोड़ दें, खुद होकर छोड़ दें, इसके पहले कि सरकार उन्हें बर्खास्त करे। लेकिन बहुत से ऐसे लोग रहते हैं जो यह उम्मीद करते हैं कि विपरीत विचारधारा की सरकार आने पर भी उन्हें जारी रखा जाएगा, और वे इस्तीफा देने के बजाय बर्खास्तगी तक एक-एक पल ओहदे का मजा लेते रहना चाहते हैं।
लोकतंत्र दरअसल कानूनों में जकड़ी हुई व्यवस्था नहीं है, यह एक ऐसी लचीली व्यवस्था है जिसमें लोगों को एक गरिमामय व्यवहार करना चाहिए, और लोकतंत्र की उदार, पारदर्शी, और गौरवशाली परंपराओं को निभाना चाहिए। इसी के तहत किसी सत्तारूढ़ पार्टी के हार जाने पर अगली सरकार बनने तक प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को अपने पद पर बने रहने को कहा जाता है, लेकिन यह अलिखित परंपरा रहती है कि इन गिने-चुने दिनों में वे कोई बड़े फैसले नहीं लेंगे, और सिर्फ पद की निरंतरता के लिए अगले व्यक्ति के आने तक वहां रहेंगे। इसी तरह लोकतांत्रिक परंपरा का तकाजा रहता है कि सत्तारूढ़ विचारधारा के बदलने पर मनोनीत लोग इस्तीफे दे दें। ऐसे में विश्वविद्यालयों के कुलपति, या ऐसे दूसरे लोगों को इस्तीफे देने की जरूरत नहीं रहती है जिन्हें कि किसी चयन प्रक्रिया के तहत छांटकर नियुक्त किया गया था, और जिनका कार्यकाल तय था, या जो कि निर्धारित कार्यकाल या आयु सीमा वाले संवैधानिक पदों पर बिठाए गए थे। लेकिन निगम, मंडल, या बिना संवैधानिक दर्जे वाले आयोगों के लोगों को पल भर में हट जाना चाहिए, ऐसा न करना एक बड़े ही लीचड़पन की बात रहती है कि वे कुर्सी से चिपके रहना चाहते हैं।
छत्तीसगढ़ में जैसे ही पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी सत्ता से बाहर हुए थे, उनके सचिव रहे सुनिल कुमार ने चुनावी नतीजे आते ही मुख्यमंत्री सचिवालय का अपना कमरा खाली कर दिया था, और सचिवालय में एक दूसरे साधारण कमरे में बैठने लगे थे। ऐसा माना जाता है कि हर नए मुख्यमंत्री को अपने सचिव और निजी सहयोगी अधिकारियों को चुनने का अधिकार रहता है, और इसी को ध्यान में रखकर सुनिल कुमार ने अगला मुख्यमंत्री भी तय होने के पहले सीएम सचिवालय छोड़ दिया था। दूसरी तरफ राज्य में कुछ ऐसे भी अफसर रहे जो कि रिटायर होने के बाद भी सरकार के मनोनीत किसी पद पर सत्ता बदलने के बाद भी बने रहे, और जब तक उन्हें बर्खास्त करने की खबर नहीं दी गई, उन्होंने कुर्सी नहीं छोड़ी। लोकतंत्र अदालती स्थगन आदेश लेकर किसी मनोनीत कुर्सी से चिपके रहने का नाम नहीं रहता। लोगों को अपनी खुद की इज्जत का भी ख्याल रखना चाहिए, और नई सरकार आते ही इस्तीफा देने के लिए तैयार रहना चाहिए।
हर सरकार को अपनी पसंद और विचारधारा के मुताबिक लोगों को मनोनीत करने का अधिकार रहना चाहिए। और चूंकि इस देश में संवैधानिक या इस दर्जे से परे के ओहदों पर राजनेताओं और रिटायर्ड जज-अफसरों को मनोनीत करने की परंपरा है, और इसके लिए कोई विचार-विमर्श नहीं होता है, इसलिए यह पूरा मामला अपने मकसद को ही शिकस्त देते रहता है। हम पहले भी बहुत बार इस पर लिख चुके हैं कि किसी राज्य से रिटायर होने वाले जजों और अफसरों को उसी राज्य में किसी नाजुक ओहदे पर मनोनीत नहीं करना चाहिए। धीरे-धीरे यह सिलसिला मजबूत हो जाता है कि रिटायरमेंट के बाद वृद्धावस्था-पुनर्वास के लिए सत्ता को खुश रखते हुए जज और अफसर अपने कई फैसले देने लगते हैं। इससे अपने अदालती या सरकारी ओहदों पर रहते हुए भी लोग भविष्य की अपनी संभावनाओं को मजबूत करते रहते हैं। इसके साथ-साथ कई ओहदों पर सत्तारूढ़ पार्टी अपने संगठन या अपनी विचारधारा के लोगों को मनोनीत करती है, और नतीजा यह होता है कि जब देश-प्रदेश में ऐसे आयोगों या दूसरे पदों से संवैधानिक जिम्मेदारी निभाने की उम्मीद की जाती है, तो ये लोग अपने को बनाने वाली सरकार को बचाने में लग जाते हैं, जनता के संवैधानिक अधिकारों को बचाने के बजाय। ऐसी नौबत से बचने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक टैलेंटपूल बनाना चाहिए जिसमें रिटायर्ड जज और अफसर अपनी दिलचस्पी से अपने नाम भेज सकें, और उनमें से अलग-अलग प्रदेशों के अलग-अलग ओहदों के लिए राज्य की जरूरत के मुताबिक उस राज्य में कभी काम न किए हुए लोगों में से यूपीएससी जैसी कोई स्वतंत्र संस्था लोगों को छांटे, और उन राज्यों में भेजे। जब तक राज्य की राजनीतिक ताकतों की पसंद से ऐसी नियुक्तियां होंगी, वे नियुक्तियां या तो रिटायरमेंट के करीब जजों और अफसरों के फैसलों और कामकाज को प्रभावित करेंगी, या ऐसे नेताओं और समविचारकों की होंगी जो कि संवैधानिक दायित्व पूरा नहीं कर सकेंगे।
अगर लोकतंत्र को पारदर्शी, पूर्वाग्रहमुक्त, और गैरपक्षपाती बनाना है, तो ऐसे तमाम संवैधानिक-गैरसंवैधानिक मनोनयन अनिवार्य रूप से राज्य के बाहर के लोगों के ही होने चाहिए, और नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार, विपक्ष, और न्यायपालिका जैसे अलग-अलग तबकों के लोगों को भी जोडऩा चाहिए ताकि राजनीतिक पसंद-नापसंद से संवैधानिक जिम्मेदारियां तय न हों। ऐसा होने पर ऐसी तमाम नियुक्तियों को एक निर्धारित कार्यकाल तक रखा जा सकेगा, और महाभियोग जैसी किसी गंभीर प्रक्रिया से ही उन्हें हटाया जा सकेगा। लोकतंत्र को गरिमामय और पारदर्शी रहना चाहिए, जो कि सिर्फ सरकार द्वारा राज्य के भीतर के लोगों की नियुक्ति से संभव नहीं है।
उत्तरप्रदेश में चल रहे कुंभ में मौनी अमावस्या की सुबह धार्मिक मान्यताओं के चलते करोड़ों की भीड़ इकट्ठी बताई गई, और उस बीच हुई एक भगदड़ में करीब 30 लोगों की मौत हुई। वहां जैसी भीड़ थी, उसके मुकाबले मौतों का आंकड़ा कुछ भी नहीं था, और पिछले ही बरस इसी यूपी के हाथरस में एक किसी बाबा के प्रवचन में उनके पांवों की धूल लेने के चक्कर में टूट पड़ी भीड़ में कुचलकर करीब सवा सौ लोग मरे थे, इसलिए करोड़ों के भीड़ के बीच भगदड़ का यह आंकड़ा कुछ भी नहीं था। लेकिन इस पर यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने जिस तरह की चुप्पी साध रखी, और मौतों को अपनी जुबान से मंजूर ही नहीं किया, बल्कि बार-बार ये सिर्फ ये कहते रहे कि अफवाहें न फैलाएं, अफवाहों पर भरोसा न करें, उनसे प्रदेश के मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी तबाह हो गई। यह तो ठीक है कि देश भर के टीवी चैनल और अखबार यूपी सरकार के कुंभ-इश्तिहार के बोझतले दबे हुए हैं, और इसलिए जब सबको मौतों के आंकड़े सामने रखने थे, उनमें से अधिकतर लोग इसमें उलझे हुए थे कि मोदी ने योगी से कितने बजे बात की, फिर कितने बजे दुबारा बात की, फिर कितने बजे एक बार फिर बात की, और फिर बाकी नेताओं का भी कि किसने किससे कब-कब फिक्र जाहिर की। मानो मौतों के आंकड़े मायने नहीं रखते थे, महज फिक्र मायने रखती थी। ऐसे माहौल में जब अफवाहें जोर पकड़ती हैं, तो जिम्मेदार लोगों को सामने आकर नैतिक जिम्मेदारी लेनी होती है, और अफवाहों का मुंह बंद करना पड़ता है। यहां तो अफवाहें फैली ही नहीं, और सत्ता का मुंह खुला नहीं। शायद अगले दिन पुलिस के किसी एक अफसर ने 30 मौतों की बात मंजूर की, और बात आई-गई हो गई। कुंभ से उपकृत मीडिया के पास आंकड़े यही रहे कि कितने बजे तक कितने लोगों ने अमृत स्नान किया।
सार्वजनिक जीवन में जनता के ओहदों पर बैठे हुए लोगों में लोगों के गुस्से का सामना करने का हौसला होना चाहिए। और कुंभ में तो किसी भीड़ की पहुंच योगी आदित्यनाथ तक थी भी नहीं, वे किसी भीड़ से घिरे हुए भी नहीं थे, ऐसे में उनका मौत शब्द को भी मुंह पर न आने देना बड़ा अटपटा रहा, और इसने उन्हें एक कमजोर नेता की तरह दिखाया है। दुनिया में धार्मिक भीड़ का इतिहास हादसों से भरा हुआ है, और ऐसे में करोड़ों की भीड़ में कुछ दर्जन मौतें उतना बड़ा कलंक भी नहीं थीं, जितना शायद योगी ने इसे मान लिया, और मौत शब्द को अपनी डिक्शनरी से ही बाहर कर दिया। फिर जब यूपी सीएम मौत के आंकड़े देने तैयार न हों, अफसर चौबीस घंटे बाद मुंंह खोलें, तो केंद्र सरकार के तो कुछ कहने की जिम्मेदारी भी नहीं बनती थी। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या कुंभ में खुद होकर पहुंचने वाले करोड़ों लोगों के बाद अरबों रुपयों के इश्तिहार देकर देश भर से और लोगों को न्यौता देना क्या सचमुच कोई समझदारी का काम था? जिनकी आस्था थी वे तो अपने हिसाब से पहुंचने ही वाले थे, और तीर्थयात्रियों के आने का देश में एक ऐतिहासिक रिकॉर्ड, और एक विश्व रिकॉर्ड बनाना क्या इतना जरूरी था? आज भी हमें लगता है कि करोड़ों लोगों की ऐसी भीड़ सुरक्षित नहीं है। किसी भी एक जगह, एक धार्मिक आस्था से इतने लोगों का पहुंचना, और सीमित जगह पर असीमित भक्ति-भाव से कुछ पारंपरिक रीति-रिवाज निभाना क्या किसी भी सरकार के लिए मानवीय रूप से संभव इंतजाम है? आती हुई जनता को न रोकना एक बात है, लेकिन असंभव किस्म के इंतजाम में भीड़ को और बढ़ाने के लिए रात-दिन इश्तिहार दिखाना, एक खतरनाक राजनीतिक फैसला था, और है। इससे खतरा था, कुछ नुकसान हुआ, और अभी खतरे का एक पूरा पखवाड़ा बाकी है।
भारत की प्रशासनिक व्यवस्था में आमतौर पर जिला प्रशासन किसी भी भीड़ को झेलने के लिए, उसका इंतजाम करने के लिए कानूनी रूप से जिम्मेदार रहता है। लेकिन करोड़ों की ऐसी भीड़ के लिए तो कई जिला मजिस्टे्रट ड्यूटी पर लगाए गए थे, आसपास के कई जिले भी इस भीड़ की आवाजाही से प्रभावित थे, और क्या सचमुच ही इस पूरे आयोजन के लिए किसी जिला प्रशासन को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? जैसा कि राष्ट्र और प्रदेश स्तर के इस आयोजन को राज्य सरकार के फैसले के मुताबिक किया जा रहा था, क्या प्रयागराज के जिला कलेक्टर इस किस्म की भीड़ के इंतजाम में अपने किसी दिमाग का इस्तेमाल कर सकते थे, या उन्हें राज्य सरकार के फैसलों पर ही मुहर लगानी थी? ऐसे में किसी भी हादसे की जवाबदेही कैसे तय हो सकती है? क्या सचमुच ही कोई जिला कलेक्टर अपने इलाके में एक दिन एक वक्त दस करोड़ लोगों के जुटने की इजाजत दे सकते हैं? क्या कोई अफसर इसे न्यायोचित ठहरा सकते हैं कि ऐसी दस करोड़ की भीड़ के लिए उनके पास पर्याप्त सुरक्षा इंतजाम थे?
यह आयोजन बिना किसी बड़े हादसे के पूरा हो जाए, इसके लिए हमारी शुभकामनाएं हैं। लेकिन सच तो यह है कि ऐसी भीड़ के बावजूद अगर कोई अनहोनी नहीं होती है, तो वह किसी योजना की वजह से न हुई हो, ऐसा नहीं लगता, ऐसा लगता है कि और कोई बड़ा हादसा न होना बस अपने-आप टल गया हो। हमारा तो यह मानना है कि राज्य शासन और स्थानीय प्रशासन इन दोनों के नजरिए से इतनी बड़ी भीड़ को और बढ़ाने का काम नहीं करना चाहिए था। दुनिया का सबसे अच्छा इंतजाम भी लोगों की इतनी बड़ी गिनती के सामने बेअसर हो सकता है। अपनी आस्था से जो लोग वहां पहुंचते, वे अपने-आपमें एक बड़ी चुनौती थे, उन पर, और उनकी वजह से औरों पर होने वाले खतरे को पूरी तरह अनदेखा करना ठीक फैसला नहीं रहा। यह पूरा आयोजन बिना किसी और बड़े हादसे के निपट जाए, उससे भी भीड़ को बढ़ाने को सही कहना समझदारी नहीं होगा। लोकतंत्र में सत्ता को ऐसे फैसले लेने की ताकत तो रहती है, लेकिन इनसे बचना ही बेहतर रहता।
चलते-चलते अभी शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती का यह बयान देखने मिल रहा है जिसमें उन्होंने कहा है-मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हमें धोखे में रखा कि घटना में कोई मौत नहीं हुई है। आज हमारी सबसे बड़ी पीड़ा है कि हमारा सीएम झूठा है। हमारी जो मृत आत्माएं हैं, उनके प्रति संवेदना व्यक्त करने और उपवास करने के लिए भी सीएम ने मौका नहीं दिया। मौतों के बाद सीएम का बयान आया कि कुछ लोग घायल हुए हैं, उन्होंने किसी मौत का जिक्र नहीं किया। हिंदू धर्म में ये नियम है कि जब परिवार में किसी की मौत हो जाती है, विशेष रूप से इस तरह की परिस्थितियों में तो कोई भोजन नहीं करते। शंकराचार्य ने कहा कि सीएम ने ऐसा आभास करा दिया कि सिर्फ अफवाह चल रही है, और कोई मौत नहीं हुई है। उन्होंने इसे संतों, और सनातनियों के साथ बहुत बड़ा धोखा कहा है और तकलीफ जाहिर की है कि मौतों के बाद का भोजन पूरी जिंदगी पीड़ा देगा। उन्होंने कहा कि समय रहते मौतों का पता लग रहता तो वे एक दिन का उपवास करते, लेकिन इस सच्चाई को योगी आदित्यनाथ ने छुपाकर रखा।
अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प का पहला हफ्ता अपने नाटकीय फैसलोंं का तो रहा, इसके साथ-साथ चीन की एक ऐसी कारोबारी कामयाबी का भी रहा जिसने अमरीका की सबसे कामयाब कम्प्यूटर कंपनियों को पल भर में धूल चटा दी। चीन की एक कंपनी ने इतनी कम लागत में ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का एक ऐसा प्लेटफॉर्म तैयार किया है जिसकी लागत, और कामयाबी ने अमरीका को हक्का-बक्का कर दिया है। अमरीका की एक सबसे बड़ी कंपनी ने शेयर मार्केट में एक दिन में 52 लाख करोड़ रूपए खो दिए क्योंकि अमरीकी कंपनियों ने ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस विकसित करने में इस चीनी कंपनी के मुकाबले 25-50 गुना अधिक खर्च किए हैं। और डीपसीक नाम के इस प्लेटफॉर्म ने हफ्ते भर में ही दुनिया का दिल जीत लिया है। एक तरफ अमरीका की हफ्ते भर पहले तक की सबसे कामयाब और लोकप्रिय चैट-जीपीटी की सेवा भुगतान करके ली जा सकती थी, और चीनी डीपसीक न सिर्फ इससे तेज साबित हुआ है, बल्कि मुफ्त भी है। अब अमरीकी शेयर होल्डर यह सोच रहे हैं कि उनसे जुटाए गए पैसों से अमरीकी कंपनियां किस हद तक खर्च कर रही थीं, और क्या वह पूरा खर्च बर्बादी था जो कि ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस बनाने के नाम पर किया जा रहा था। ट्रम्प के लिए यह एक शर्मिंदगी की बात इसलिए भी है कि उन्होंने अपने पहले ही हफ्ते में लाखों करोड़ डॉलर का एक नया प्रोजेक्ट लाँच किया था, जिसका अधिकतर हिस्सा उस कंपनी को मिलना था जिसे चीनी कंपनी की धोबीपछाड़ ने शेयर मार्केट में पल भर में चारों खाने चित्त कर दिया है।
ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को लेकर दुनिया में अभी यह साफ नहीं है कि वह इंसानों और कारोबारों का क्या करेगा। यह भी तय नहीं है कि दुनिया के कौन से देश ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और उस पर आधारित प्रोडक्ट बनाने में सबसे आगे रहेंगे, और उस नाते वे दुनिया पर अपना दबदबा बनाकर रखेंगे। अब पिछले एक हफ्ते ने यह साबित किया है कि कम से कम एक प्लेटफॉर्म चीन ने ऐसा बना लिया है जिसका अमरीका के पास कोई जवाब नहीं है। इससे अमरीकी कंपनियों की साख भी चौपट हो रही है, और नई बन रही विश्व व्यवस्था में चीन ने एकाएक एक नई साख पा ली है। दुनिया के अलग-अलग देशों के दसियों लाख लोगों को अमरीका से निकाले जाने की घोषणा हुई है, और ऐसे में चीन से ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की यह नई कारोबारी कामयाबी सामने आई है, इन दोनों बातों को मिलाकर पता नहीं किस तरह देखा जाना चाहिए।
एक चीनी कंपनी ने इतने सस्ते में यह काम कर दिखाया है जिसके लिए अमरीकी कंपनियां अपने इतिहास का सबसे बड़ा खर्च कर रही हैं। असंभव सा लगने वाला बजट ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के लिए दिया जा रहा है, और मानो एक नया ईश्वर ही गढ़ा जा रहा है। दुनिया में सबसे सस्ते सामान बनाने के लिए बदनाम या मशहूर चीन ने इन सब अमरीकी कंपनियों को पछाडक़र जिस तरह यह प्लेटफॉर्म तैयार किया है, उससे अमरीकी सपने चकनाचूर हो गए हैं। और शर्मिंदगी झेलते हुए भी अमरीकी राष्ट्रपति को यह कहना पड़ा है कि अमरीकी कंपनियों को चीनी डीपसीक प्लेटफॉर्म के इस तरह अचानक आ जाने से जाग जाने की जरूरत है क्योंकि यह सस्ता, और तेज भी है। आज दुनिया के हजारों किस्म के कारोबार ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की तरफ देख रहे हैं, कैंसर के हर मरीज के लिए अलग-अलग दवा बनाना भी मुमकिन लग रहा है, और हर इंसान के लिए कैंसर की आशंका होते ही उससे बचाने का टीका भी ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से बन सकेगा ऐसा लग रहा है। ऐसे में जो कंपनी, देश, या सरकार दुनिया में अव्वल रहेगी, वह सौ किस्म के कारोबारों में सबसे आगे रह सकती है, और दुनिया पर राज कर सकती है। ऐसी नौबत में एकाएक चीन से जो सूरज निकला है, उसने काला चश्मा पहनने वाले अमरीकी कारोबारियों की आंखें भी चकाचौंध कर दी हैं।
लेकिन आज इस मुद्दे पर आज यहां लिखने का हमारा मकसद न तो ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर लिखने का है, और न ही अमरीकी-चीनी कारोबारी मुकाबले पर। हम तो महज यह याद दिलाना चाहते हैं कि बाकी देशों, और बाकी धंधों को भी यह समझ लेना चाहिए कि किस तरह कोई नया कारोबार एकाएक पूरे बाजार को इतना उथल-पुथल कर सकता है कि दुनिया के जमे-जमाए कारोबार तहस-नहस हो जाएं। आज जिस कामयाबी पर किसी उद्योग-व्यापार, या सरकार को फख्र होता है, कल को हो सकता है कि कोई नया स्टार्टअप उनके एकाधिकार को खत्म कर दे, और उन्हें बेरोजगार कर दे। अमरीकी कंपनी को इस चीनी स्टार्टअप ने एक दिन में जो झटका दिया है, वह भारत की एक सबसे बड़ी कंपनी टाटा की आधी दौलत से अधिक है। इससे छोटे-छोटे कारोबारियों को भी यह सबक लेना चाहिए कि किस तरह उनके इलाके में कोई बड़ी दुकान खुलने से उनका छोटा-छोटा धंधा खत्म हो सकता है। अब तो देश के खरबपति भी सब्जी-भाजी बेचने लगे हैं, और घर तक किराना पहुंचाने लगे हैं। अब दुनिया में धंधों के तौर-तरीके, उनकी संभावनाएं, इस तरह के भूकम्प का सामना कर सकते हैं कि रातोंरात कारोबार की चमकती इमारत खंडहर बन जाए। इसलिए लोगों को दूसरे देशों की ऐसी मिसालों से अपनी-अपनी जिंदगी में एक सबक लेना चाहिए। जो लोग किसी छोटे से कारोबार की आज की कमाई को देखकर कोई बड़ा पूंजीनिवेश कर दें, और कल को वह कारोबार ही बंद हो जाए, तो क्या होगा? लोगों को यह मानकर चलना चाहिए कि कारोबार में तमाम वक्त एक सा नहीं रहता, और कोई कारोबार जाने कब खत्म या बंद हो जाए। लोगों को याद रहना चाहिए कि 25-30 बरस पहले हिन्दुस्तान में किस तरह पेजर का चलन शुरू हुआ था, और उस पर आने वाले एसएमएस को लोग चमत्कार की तरह देखते थे, वह धंधा साल भर भी नहीं चला कि मोबाइल ने आकर उसे मटियामेट कर दिया। ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस में दुनिया में सबसे आगे चल रहे अमरीका को जिस तरह अचानक सदमा लगा है, वह पूरी दुनिया के लिए एक बड़ा सबक है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सयाने-समझदार लोग यह कहते हैं कि ताकत जिम्मेदारी के साथ ही आनी चाहिए। इन दिनों अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प को देखें तो उनके दूसरे कार्यकाल के पहले हफ्ते में ही उन्होंने दुनिया को हक्का-बक्का कर दिया है। ऐसा भी नहीं कि वे अपने पहले कार्यकाल में बहुत समझदारी के फैसले लिए हों, लेकिन वे जितनी बददिमागी के फैसले लेते थे, उससे अधिक बेदिमागी के बयान देते थे। पिछला चुनाव हारने के बाद भी उनका यही सिलसिला जारी रहा, और नतीजा यह हुआ था कि 6 जनवरी 2020 को उनके समर्थकों ने अमरीकी संसद पर हमला कर दिया था, और इस बार उनके राष्ट्रपति बनते ही पहले ही दिन उन सारे हिंसक हमलावरों को राष्ट्रपति के विशेषाधिकार से आम माफी दे दी गई। ऐसा शायद ही दुनिया के किसी लोकतंत्र में होता हो कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी संस्था, संसद पर हिंसक हमला हो, और गुनहगार बख्श दिए जाएं। लेकिन ट्रम्प का दुनिया को चौंकाना पिछले हफ्ते भर में रोज जारी है, हर कुछ घंटों में वे और उनके सहायक दुनिया पर एक किस्म से हमला कर रहे हैं, और अमरीका की विदेश नीति के पूरे इतिहास को तहस-नहस कर दे रहे हैं।
अमरीका ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से अपने आपको पूरी दुनिया का रहनुमा बनाने के लिए बड़ी मेहनत की थी, खूब खर्च किया था, और फौजी ताकत से परे भी उसने पूरी दुनिया में रणनीतिक महत्व के रिश्ते और समझौते किए थे, और ठोस कूटनीति से परे जाकर भी दुनिया का मददगार बनकर लोगों का दिल जीता था, या संयुक्त राष्ट्र में उनके वोट जीते थे, या कई फौजी मोर्चे जीते थे। ट्रम्प ने देश के बाहर और देश के भीतर जरूरतमंदों की मदद की लंबी परंपरा को एक झटके में खत्म कर दिया है। दुनिया के देशों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों को अमरीका से जो मदद मिलती थी, वह तो खत्म की ही जा रही है, उसके साथ-साथ खुद अमरीका के भीतर हजार किस्म के अलग-अलग सामाजिक कार्यक्रमों के लिए जिन संगठनों को मदद मिलती थी, उन सबको भी कम्युनिस्ट कहकर उसे एक साथ खत्म कर दिया जा रहा है। अमरीका ने पेरिस जलवायु समझौता तोड़ दिया है, उसने विश्व स्वास्थ्य संगठन को हजारों करोड़ डॉलर हर बरस की मदद को खत्म कर दिया है, उसने विश्व व्यापार संगठन के समझौते को तोडक़र दुनिया के अलग-अलग देशों पर अलग-अलग प्रतिबंध लगाने की घोषणा की है, उसने इजराइल को वे भारी-भरकम बम सप्लाई करना फिर शुरू कर दिया है जो पिछले अमरीकी राष्ट्रपति ने रोक रखा था, और ट्रम्प ने फिलीस्तीनियों के अपने देश के हक को भी एक किस्म खारिज करने वाला बयान दिया है, और इजराइल के प्रधानमंत्री को सबसे पहले विदेशी नेता के रूप में अमरीका आमंत्रित भी किया है।
एक किस्म से ट्रम्प की घोषणाओं, उनके फैसलों, और उनके राष्ट्रपति की हैसियत वाले आदेशों की वजह से दुनिया की लंबे समय से चली आ रही व्यवस्था में भूकम्प की लहरें दौड़ पड़ी हैं, और अभी कांपती हुई धरती पूरी तरह से समझ और संभल नहीं पा रही है कि ट्रम्प नाम के इस सुनामी और भूकम्प की मिलीजुली मतदाता-निर्मित आपदा से वह कैसे निपटेगी। किसी एक देश के वोटरों का फैसला बाकी पूरी दुनिया को भी किस हद तक प्रभावित कर सकता है, इसकी एक मिसाल तो हिटलर था, और उसकी एक मिसाल आज के इस वक्त में ट्रम्प है। बेहिसाब ताकत, और शून्य जवाबदेही ने मिलकर ट्रम्प को एक ऐसा तानाशाह बना दिया है जो तय करता है कि कोई अमरीकी नागरिक ट्रांसजेंडर नहीं हैं, वे सिर्फ औरत या मर्द हैं। वह तय करता है कि देश में सरकारी मदद से किनको खाना मिलना है, किनको नहीं, वह तय करता है कि दसियों लाख सरकारी कामगार किस दिन से काम पर आना बंद कर दें, वह तय करता है कि दुनिया का सबसे रईस कारोबारी न सिर्फ अमरीकी सरकार में किफायत लाने का काम करे, बल्कि वह किस तरह दुनिया के बहुत से दूसरे देशों की घरेलू राजनीति को भी तय करे। एक नजर में ट्रम्प अमरीकी जनता का चुना गया, चीनी मिट्टी के बर्तनों की अमरीकी दुकान में जनता का अपना ऐसा बिफरा हुआ पालतू सांड है जो चारों तरफ सब कुछ चकनाचूर कर रहा है। हम दुनिया के बुरे से बुरे सांड को भी ट्रम्प की मिसाल से नवाजना नहीं चाहते, लेकिन बोलचाल की भाषा के इस्तेमाल में इस मुहावरे को यहां पर लिख रहे हैं।
ट्रम्प ने पनामा नहर को फौजी कार्रवाई से भी कब्जे में लेने की घोषणा की है, डेनमार्क से उसके एक हिस्से ग्रीनलैंड को खरीदने की पेशकश की है, और कनाडा को प्रस्ताव रखा है कि वह अमरीका का राज्य बन जाए। इसके अलावा ट्रम्प ने अमरीकी बाहुबल दिखाते हुए दुनिया के और बहुत से देशों की बांह मरोडऩे का सिलसिला शुरू कर दिया है। दुनिया भर से वहां कानूनी और गैरकानूनी तरीकों से पहुंचे, और बसे हुए लोगों को निकालने की उसकी घोषणा दुनिया के दर्जनों देशों में फिक्र खड़ी कर रही है, और जिन देशों को यह लग रहा है कि उनकी सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा, उन्हें इस पर भी गौर करना चाहिए कि अमरीका में अवैध प्रवासियों पर कार्रवाई करते हुए धर्मस्थलों को अलग रखने की परंपरा कायम रखी थी, अभी ट्रम्प सरकार के अफसरों ने दो दिन पहले ही कई जगह गुरुद्वारों की जांच की है, और वे अवैध रूप से वहां रह रहे लोगों को ढूंढ रहे हैं। सरकार ने अप्रवासियों की जांच करने के लिए अफसरों को खुली छूट दी है। अमरीका में बसे सिक्खों ने ऐसी कार्रवाई पर बड़ी फिक्र जताई है, और इसका विरोध किया है, इसे अपने धर्म पर हमला बताया है। जितना हमला यह अमरीका के सिक्ख गुरुद्वारों पर है, उससे अधिक खतरनाक यह मिसाल दुनिया के कई देशों में वहां की सरकारों द्वारा इस्तेमाल की जाएगी।
ट्रम्प की घोषणा के मुताबिक अगर दसियों लाख लोगों को गिरफ्तार करके उनके देशों में वापिस भेजा जाएगा, तो उनके रोजगार और कारोबार दोनों किस हद तक बर्बाद होंगे, इस पर अभी उनके देश कुछ कह नहीं रहे हैं। बिफरे हुए सांड की ताकत आज दुनिया के किसी देश में नहीं है, और तमाम देश ट्रम्प के अगले हमले की आशंका में सो रहे हैं, जो कि महज फौजी ताकत से नहीं हो रहा है, कई शक्लों में हो रहा है। अमरीकी जनता देश के भीतर ही जिस दर्जे की उथल-पुथल झेल रही है, वह उसके लिए ही अकल्पनीय थी। लेकिन ट्रम्प अपने दूसरे कार्यकाल में एक बात के लिए बेफिक्र है कि उसके किसी जुर्म के बिना उसे कोई भी हटा नहीं सकते, और महाभियोग से परे उसका कार्यकाल बना रहेगा। दूसरी जिस बात के लिए वह बेफिक्र है वह यह कि अमरीकी राष्ट्रपति महज दो कार्यकाल पूरा कर सकते हैं, और इसके बाद ट्रम्प का वैसे भी कोई चुनावी भविष्य नहीं है। ऐसे में जबकि ट्रम्प का दांव पर कुछ भी नहीं लगा है, उसने अमरीका की तमाम बेहतर चीजों को दांव पर लगा दिया है, इससे अमरीकी इतिहास भी तबाह हो रहा है, और अमरीकी भविष्य का पता नहीं क्या होगा। लेकिन जैसी कि दुनिया की आशंका है, ट्रम्प दुनिया को इतना तबाह करके जा सकता है कि वह एक बार फिर चीन, रूस, या ईरान की तरफ देखने लगे।
भारत में इन दिनों चल रहा पूर्ण कुम्भ दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक जलसा है। इस मेले में दसियों करोड़ लोगों के पहुंचने का आसार है, और हिन्दू मान्यताओं के मुताबिक इस बार का कुम्भ 144 बरस में एक बार होता है, इसलिए भी केन्द्र और राज्य सरकार ने इस धार्मिक आयोजन पर हर किस्म का खर्च करना तय किया है। यहां दसियों करोड़ लोग पहुंचेंगे, इसलिए कुछ गिने-चुने लोगों के बर्ताव से इसकी सफलता या असफलता, इसके अच्छे या बुरे होने का फैसला नहीं करना चाहिए, लेकिन यहां की जो घटनाएं सामने आ रही हैं, उनसे कुछ लोगों के चाल-चलन पर तो रौशनी पड़ती ही है। वहां से जितने किस्म के वीडियो निकलकर बाहर आ रहे हैं, वे पूरी तरह गढ़े हुए नहीं हैं, और अब तक ऐसी कोई शिकायतें भी सामने नहीं आई हैं कि लोगों ने कोई नाटक रचकर कुम्भ को बदनाम करने की कोशिश की हो। हर दिन दस-बीस ऐसे नए वीडियो देखने मिल रहे हैं जिनमें साधू दिखने वाले लोग कुम्भ की सार्वजनिक जगहों पर, और लोगों के बीच खुलकर गालियां बक रहे हैं। वे कैमरों के सामने गालियां दे रहे हैं, अपने चिमटे लेकर लोगों को दौड़ाते हुए गालियां दे रहे हैं, किसी मुस्लिम फेरीवाले को कई साधू लात मार-मारकर भगा रहे हैं कि मुस्लिम यहां पर आया कैसे?
अब सवाल यह उठता है कि अपने आपको साधू या संन्यासी कहने और दिखाने वाले लोग जो कि कहने के लिए पारिवारिक और सांसारिक जीवन की मोह माया से मुक्त हो चुके हैं, वे किस तरह नाराज होने पर पल भर में दूसरों की मां-बहन से अपना रिश्ता जोडऩे की गालियां देने लगते हैं? वैराग्य से पल भर में सेक्स तक पहुंच जाने की उनकी जुबान उन्हें क्या साबित करती है? हम यहां पर साधुओं के हुलिए में गांजा पीते दिखने वाले अनगिनत लोगों की बात नहीं करते, क्योंकि हिन्दुस्तान में गांजा चाहे जितना भी गैरकानूनी क्यों न हो, वह अनंतकाल से प्रचलन में रहा है, और हिन्दू धर्म से जुड़े हुए संन्यासी-बैरागी सार्वजनिक जगहों पर, मठ-मंदिर में, और चबूतरों पर खुलेआम गांजा पीते दिखते हैं, और इसे हिन्दू धर्म के रीति-रिवाज का एक हिस्सा मान लिया गया है। वैसे भी हम बीच-बीच में यह सवाल उठाते रहते हैं कि क्या शराब के अतिसंगठित कारोबार की पकड़ और जकड़ से बाहर निकलकर सरकार को गांजे जैसे कम नुकसानदेह और सस्ते नशे को कानूनी नहीं बनाना चाहिए?
खैर, हम कुम्भ की चर्चा को गांजे तक केन्द्रित रखना नहीं चाहते हैं क्योंकि यह ऐतिहासिक मौका ऐसे किसी एक मुद्दे के मुकाबले बहुत अधिक बड़ा है, बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि यूपी की भाजपा सरकार के हिन्दुत्व के एजेंडे से परे उत्तरप्रदेश ने कुम्भ का इस्तेमाल दुनिया भर से एक धार्मिक पर्यटन को जुटाने में भी किया है। कुछ अरसा पहले यूपी के अयोध्या में शुरू हुए राम मंदिर ने प्रदेश को करोड़ों नए पर्यटक दिए हैं, और कुम्भ दसियों करोड़ नए पर्यटक दे रहा है। यह बात तो समझना बड़ा आसान है कि अयोध्या या कुम्भ जाने वाले धर्मालु पर्यटक या सैलानी इन जगहों से परे भी कुछ दूसरी जगहों पर जाते होंगे, राज्य के बने हुए बहुत किस्म के सामान खरीदते होंगे, जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था को एकदम से छलांग लगाकर आगे बढऩे में मदद मिलेगी, मिल रही है। उत्तरप्रदेश सरकार अपने राजनीतिक और धार्मिक मकसद में बहुत हद तक कामयाब रही है कि बिना किसी बहुत बड़े हादसे के अब तक दस करोड़ या उससे अधिक लोग वहां आकर लौट चुके हैं।
ऐसे में सरकार के इंतजाम में तो लोगों को बदनामी नहीं दिलाई, जिन लोगों को कुम्भ में स्वाभाविक भागीदार माना जाता है, वैसे भगवाधारी कुछ लोगों ने वीडियो बनाने वाले लोगों की मौजूदगी में जैसी गंदी जुबान इस्तेमाल की है, जैसी साम्प्रदायिकता दिखाई है, उससे वैराग्य के पाखंड का भांडाफोड़ होता है। आज भगवा पहने किसी को भी इस देश में साधू-संन्यासी मान लिया जाता है, और उसे बाबा कहना शुरू कर दिया जाता है। उनके मुंह से जब मां-बहन की गालियां झड़ते वीडियो रिकॉर्ड होते हैं, तो समझ पड़ता है कि इनकी दाढ़ी-मूंछ, भगवा और भभूत, रूद्राक्ष और चिमटा-कमंडल के पीछे इनकी वही आदिम हिंसा कायम है, और जरा सा मौका मिलते ही वह भभूत चीरकर सतह पर आ जाती है। इसलिए किसी भी कुम्भ के मुकाबले इस बार वीडियो-कैमरे कुछ अधिक हैं, अधिक यूट्यूब चैनल हैं, और सोशल मीडिया पर बनने और फैलने वाली रील्स भी एक नई पेशकश है। इसलिए हो सकता है कि हमेशा से साधू-संन्यासियों के चोले में कई ऐसे लोग रहते आए हों, लेकिन अब वे वीडियो पर अधिक कैद हो रहे हैं, और उनके वीडियो अधिक फैल रहे हैं। यह एक किस्म से अच्छी बात इसलिए है कि लोगों की पोशाक से उनके बारे में धारणा बनाई जाती है, वह इससे टूट रही है, और सकारात्मक या नकारात्मक, किसी भी तरह के मजबूत पूर्वाग्रह रहने भी नहीं चाहिए।
फिलहाल एक सामान्य सी जिज्ञासा यह पैदा होती है कि प्रचलित धारणा के मुताबिक अगर कुम्भ के त्रिवेणी संगम में डुबकी लगाने से लोगों के पाप धुल जाते हैं, तो फिर संगम में तो अब पानी बचना ही नहीं चाहिए था, पाप ही पाप रह जाना था, और बाद में वहां पहुंचने वाले लोगों को सिर्फ पाप में ही डुबकी लगाना नसीब होना था। लेकिन धर्म पापमुक्ति को जितनी आसान बताता है, वह उतनी आसान रहती नहीं है। इसलिए किसी डुबकी लगाने से पाप धुल जाएंगे ऐसी सोच लोगों को आगे पाप करने का एक हौसला दे सकती है, कुम्भ जैसे आयोजनों के साथ जुड़ी ऐसी जनमान्यताओं से उबरने की भी जरूरत है। तमाम धर्मों में ऐसी मान्यताएं बुरा काम करने वाले लोगों को आत्मा धोने की सहूलियत देती हैं, लेकिन समझदारों को कुम्भ के ऐसे किसी संभावित इस्तेमाल पर भरोसा नहीं करना चाहिए। दुनिया का कोई भी धर्म ऐसी कोई भी सी सहूलियत नहीं दे सकता, और धर्म के नाम पर कारोबार करने वाले लोग जरूर ऐसा झांसा बनाए रखते हैं। इसलिए कुम्भ जाने वाले लोग धार्मिक आस्था से जरूर जाएं, या सैलानी की जिज्ञासा से पहुंचें, लेकिन एक डुबकी से पापमुक्ति जैसे झांसे में न आएं, अपने कर्म ही ठीकठाक रखें।
मध्यप्रदेश में सरकारी अफसरों का रूख वहां के मंत्रियों का चेहरा देख-देखकर तय होता है, और लोकतंत्र में सरकार का बहुत सारा काम तो अफसरों के रूख के मुताबिक ही होता है, या नहीं होता है। अब जैसे सरकार का रूख कांग्रेस और राहुल गांधी के खिलाफ है, तो कांग्रेस के किसी कार्यक्रम के लिए दी गई इजाजत भी उसी हिसाब से ढल जाती है। इंदौर जिले में कांग्रेस कमेटी ने राहुल गांधी की आमसभा के लिए सरकारी कॉलेज के मैदान को मांगा, और लाउडस्पीकर लगाने की इजाजत भी। इस पर एसडीएम की तरफ से जो अनुमति दी गई है, उसमें एक बड़ी दिलचस्प शर्त दिख रही है, कि कार्यक्रम के समय घोषणा करने के दौरान कोई भी राजनैतिक व धर्मविरोधी भाषण प्रतिबंधित रहेंगे। राहुल गांधी सांसद हैं, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं, और देश के एक प्रमुख नेता हैं। अब अगर उनके कार्यक्रम की इजाजत में राजनीतिक भाषण प्रतिबंधित रखा जाएगा, तो वे भाषण क्या देंगे? क्या संसद में किसी को बोलने की इजाजत देने के पहले यह कहा जा सकता है कि वे देश के मुद्दों पर नहीं बोलेंगे?
इस मध्यप्रदेश का एक दूसरा आदेश इसी के टक्कर का है। छिंदवाड़ा कलेक्टर ने अडानी कंपनी के लिए किए जा रहे जमीन अधिग्रहण को लेकर एक आदेश निकाला है जिसमें जिला दंडाधिकारी की हैसियत से हुक्म दिया गया है- जिला छिंदवाड़ा की तहसील हर्रई की समस्त राजस्व सीमाओं में किसी भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म, वॉट्सऐप, यूट्यूब, फेसबुक, ट्विटर आदि के माध्यम से बांध निर्माण से संबंधित संदेश/वीडियो पोस्ट किया जाना अथवा भ्रामक खबरें प्रसारित करना प्रतिबंधित किया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि कलेक्टर ने इस आदेश को आम जनता को संबोधित रखा है, और लिखा है- चूंकि वर्तमान में मेरे समक्ष ऐसी परिस्थितियां नहीं है, और न ही यह संभव है कि इस आदेश की पूर्व सूचना प्रत्येक व्यक्ति को दी जाए, इसलिए यह एकपक्षीय पारित किया जाता है। यह बांध सर्वे कार्य से लेकर बांध निर्माण कार्य संपन्न होने तक की अवधि तक लागू रहेगा।
ये दोनों आदेश मध्यप्रदेश सरकार के राजनीतिक रूख को बताते हैं। एक आदेश में राहुल की सभा में राजनीतिक बात न होने का हुक्म दिया गया है, तो दूसरे में अडानी के बांध के लिए जमीन अधिग्रहण के पहले से लेकर बांध निर्माण कार्य संपन्न होने तक के लिए पूरी तहसील में किसी भी तरह के मैसेज या वीडियो पर इस बारे में कुछ कहने पर रोक लगाई गई है। कलेक्टर ने इस तहसील के हर नागरिक के गले में एक-एक फंदा डालकर उसे इतना टाईट कर दिया है कि अडानी के खिलाफ कोई आवाज न निकले, बस सांस लेने जितनी जगह बनी रहे। हमारी याद में यह हिन्दुस्तान का अकेला ऐसा गला घोंटने वाला आदेश होगा जो कि भूमि अधिग्रहण के पहले से लागू हुआ है, और बांध निर्माण पूरा हो जाने तक लागू रहेगा! क्या यह किसी किस्म का लोकतंत्र कहा जा सकता है? कोई कंपनी, कोई उद्योगपति सरकार के चहेते हो सकते हैं, लेकिन क्या उनकी गुलामी करने में सरकार लोकतंत्र का ही गला घोंट दे? आज जिस वक्त हम यह संपादकीय लिख रहे हैं, उसी वक्त एमपी में कांग्रेस पार्टी ‘जय बापू, जय भीम, जय संविधान’ नाम का राष्ट्रीय कार्यक्रम डॉ.भीमराव अंबेडकर की जन्मभूमि, महू में शुरू कर रही है। पूरी पार्टी यहां मौजूद रहेगी, और कांग्रेस ने यहां एक लाख लोगों के इकट्ठा होने का अनुमान लगाया है। 2023 में विधानसभा चुनावों में करारी शिकस्त के बाद कांग्रेस का इस प्रदेश में यह पहला बड़ा कार्यक्रम है, और कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े, प्रियंका गांधी सहित कांग्रेस कार्य समिति के सारे सदस्य इसमें रहेंगे, और मंच से कोई भी राजनीतिक भाषण होने पर यह अनुमति खुद ही निरस्त हो जाएगी!
सरकारी अफसरों को किसी पार्टी के कार्यकर्ता, या इंडस्ट्री के मुलाजिम की तरह काम करने के पहले यह भी सोच लेना चाहिए कि वे इन बातों के लिए किसी हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में तलब भी किए जा सकते हैं। लेकिन अकेले इसी प्रदेश के ऐसे दो अफसर यह कर रहे हों, ऐसा भी नहीं है। बहुत से प्रदेशों में अतिउत्साही अधिकारी, अपनी न जाने किस किस्म की आत्मरक्षा के लिए खुशामदखोर होकर जनविरोधी काम करने लगते हैं, और प्रजा को दुलत्ती मारकर सत्ता की चापलूसी करने लगते हैं। अब अडानी का बांध अगर बीस बरस में बनेगा, तो इन बीस बरसों में भी उस तहसील के लोगों को बांधी की जमीन से लेकर बांध निर्माण तक कुछ कहने का कोई हक नहीं रहेगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटने का ऐसा भयानक काम शायद ही कहीं और याद पड़ता हो। इस आदेश को देखकर वैसे तो दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट की पुरानी इमारत, और संसद की नई इमारत, इन दोनों के मुंह से आह के साथ यह निकलना था कि हे धरती तू फट जा, और हमें समा ले।
लेकिन हमारा ख्याल है कि न सिर्फ ये दो अफसर, बल्कि इनकी ‘जात’ के इनके सरीखे बाकी अफसर भी किसी अदालती धिक्कार को सत्ता के प्रति अपनी निष्ठा के सुबूत की तरह सीने पर टांगकर घूमेंगे, और शहादत के अंदाज में सत्ता को यह समझाएंगे कि उसके लिए वे किसी भी तरह की कुर्बानी देने के लिए एक पैर पर खड़े हैं। उनका बस चलेगा तो अपने ऐसे आदेशों के लिए वे महीना-पन्द्रह दिन जेल भी काट आएंगे, और उसे भी अपने गोपनीय प्रतिवेदन में उपलब्धियों के कॉलम में दर्ज करवाएंगे। जब भारतीय लोकतंत्र में नीचे से ऊपर तक सत्ता पर बैठे हुए लोग संविधान की हेठी करने में जुटे हुए हों, तब किसी गरीब या कमजोर के लिए इंसाफ पाने की गुंजाइश न के बराबर रह जाती है, खासकर तब जब वह किसी ताकतवर के जुल्म के सामने कमजोर को इंसाफ मिलने की हो। अब भला एक तहसील की जनता का क्या हक बनता है कि वे अडानी के किसी बांध के बारे में मुंह भी खोलें! ऐसे तमाम मुंह कलेक्टर के आदेश वाले पन्नों से ठूंस-ठूंसकर भर दिए जाएंगे, और कलेक्टर ने आश्वासन दिया है कि जब बांध पूरा हो जाएगा, उसके बाद मुंह में ठूंसे कागज निकाले भी जा सकेंगे। सोशल मीडिया पर कुछ अरसा पहले, देख रहा है बिनोद, यह लाईन बड़ी चली थी। हम सोच रहे हैं कि, देख रहा है सुप्रीम कोर्ट, यह लाईन भी चलनी चाहिए, और उससे हो सकता है कि देश की सबसे बड़ी अदालत को भविष्य के इतिहास में दर्ज होने वाले अपने नाम की थोड़ी-बहुत फिक्र होने लगे।
कल की दो घटनाएं यह सोचने पर मजबूर कर रही हैं कि समाज में पैसों की ताकत इतनी बढ़ गई है कि कानून और सरकार भी बेबस हो गए हैं। भिलाई के एक रिहायशी अहाते में एक कार से पहुंचे आधा दर्जन रईसजादों से जब गार्ड ने रजिस्टर पर नाम लिखने कहा तो उन्होंने कार से उसे कुचल डाला। एक दूसरा वीडियो सामने आया है जिसमें किसी और जगह छत्तीसगढ़ में ही कुछ दूसरे रईसजादे एक कार दौड़ाते हुए शहरी इलाके में घूम रही बाघिन का पीछा कर रहे हैं, बुरी तरह से रात में कार की रौशनी में उसे दौड़ा रहे हैं, और जब कार बहुत पास पहुंच जाती है, तो उसे कूदकर एक दीवार पर चढऩा पड़ता है, और उसे समझ नहीं पड़ रहा है, दूसरी तरफ कार से पीछा करते हुए भी जो लोग वीडियो बना रहे थे, वे कार से निकलकर कूद-कूदकर तस्वीरें खींच रहे हैं, और वीडियो बना रहे हैं। और राष्ट्रीय पशु को यह समझ नहीं पड़ रहा है कि वह क्या करे?
भिलाई में गार्ड को जिन लोगों ने कुचला, वे, कम से कम गाड़ी चलाने वाला एक व्यक्ति किसी ट्रांसपोर्टर परिवार का बताया जा रहा है। ऐसे में साथ में घूम रहे युवक-युवतियों की बददिमागी का अंदाज लगाया जा सकता है। हम अलग-अलग शहरों में आए दिन इस तरह के वीडियो देखते हैं जब देर रात तक गैरकानूनी तरीके से चलते हुए शराबखानों से निकलते पैसेवाले लडक़े-लड़कियों की किसी और टोली से मारपीट होती है, और पुलिस और प्रशासन का मानो वहां कोई असर ही नहीं रहता। तमाम सडक़ों पर यह देखने में आता है कि जितनी बड़ी गाड़ी में लोग चलते हैं, उनकी बददिमागी उसी अनुपात में रहती है। इंसान की ताकत के साथ मानो गाड़ी का हॉर्सपॉवर जुडक़र उन्हें और अहंकारी बना देता है। ऐसे ही लोग बड़ी-बड़ी गाडिय़ों में आड़ी-तिरछी नंबर प्लेट लगवाते हैं, ऊपर बड़ी-बड़ी लाईटें लगवाते हैं, सायरन और हूटर लगवाते हैं, और अंधाधुंध रफ्तार से गाडिय़ों को दौड़ाते हैं। सार्वजनिक जीवन में ऐसा लगता है कि ओहदे और दौलत की जितनी ताकत जिसके पास है, उसके उतने ही अधिक विशेषाधिकार इस लोकतंत्र में हो गए हैं। ऐसे लोग दारू या दूसरे किस्म के नशे में दूसरों को कुचलने के लिए तैयार रहते हैं, और साथ-साथ अपने से कमजोर लोगों को भुनगों जैसा समझते हैं, जैसा कि कल भिलाई में एक कॉलोनी के गार्ड को समझ लिया गया, उसे सबक सिखाने के लिए गाड़ी से कुचल दिया गया, और आज अभी कुछ मिनट पहले उसके वेंटिलेटर पर रहने की खबर भी है, और मर जाने की भी।
दरअसल ओहदे और दौलत की ताकत इतनी अधिक रहती है कि सत्ता चलाने वाले नेता उन्हें साथ रखना पसंद करते हैं। ऐसे में छोटे अफसरों का यह हौसला भी नहीं रहता कि ताकतवर लोगों पर हाथ डालें। आज भी पुलिस तक जब किसी गुंडागर्दी या अराजकता की शिकायत पहुंचती है, तो जुर्म की गंभीरता आंकने से पहले पुलिस यह देखती है कि जुर्म की तोहमत किस पर लग रही है। अगर यह सिर्फ पैसों की ताकत वाले पर है, तो पुलिस के बहुत से लोग ऐसे मुजरिम परिवार को दुधारू गाय मानकर चलते हैं। अगर यह तोहमत किसी राजनीतिक ताकत वाले के खिलाफ रहती है, तो पुलिस का रूख यह रहता है कि मामला कैसे-कैसे नहीं बने। यह सिलसिला आम जनता को आम भी नहीं, गुठली मानकर चलता है, और आज अधिकतर मामलों में कोई कार्रवाई तभी होती है जब मुजरिम ताकतवर न हो, या उसके खिलाफ पुख्ता वीडियो-सुबूत हों जिन्हें नकार पाना आसान न हो। यह व्यवस्था समाज में पैसे और ताकत की वजह से छाई हुई एक गैरबराबरी का खतरा बताती है जिसमें गरीब और कमजोर के किसी भी तरह का इंसाफ पाने की कोई गुंजाइश नहीं रहती।
कोई भी देश-प्रदेश अगर जुर्म कम करना चाहते हैं, तो उन्हें ताकतवर तबके की बददिमागी से उपजे हुए जुर्म पर रोक लगानी ही होगी। ताकत से चाहे अफसरों पर खतरा पैदा होता हो, या उनसे कमाई की गुंजाइश हो, अगर ताकत की बददिमागी को बिना सजा जारी रखने दिया जाएगा, तो वह और लोगों पर भी निकलेगी। आज वह एक कॉलोनी के गार्ड को कुचल रही है, कल वह किसी पुलिस वाले को कुचलेगी, और इसके बाद अधिक ताकतवर लोग कम ताकतवर लोगों को कुचलेंगे। आज भी सडक़ों पर जिस तरह का आतंक ताकतवर लोग दिखाते हैं, उनकी बिगड़ैल औलादें दिखाती हैं, वह बहुत ही खतरनाक नजारा रहता है। लोग अपनी बड़ी गाड़ी की ताकत से दूसरे लोगों से यह सहज सवाल करते हैं- जानता नहीं मेरा बाप कौन है?
ताकत की ऐसी गुंंडागर्दी पर रोक लगाने के लिए सत्ता में एक इंसाफ की समझ जरूरी होती है, और लोगों को बराबर मानकर चलने के लोकतांत्रिक मूल्य भी जरूरी होते हैं। इसके बिना ऐसे देश-प्रदेश पूरी तरह से असभ्य होते हैं, और खतरनाक भी होते चलते हैं। हम पहले भी दर्जनों बार इस बात की वकालत कर चुके हैं कि जिस जुर्म के लिए किसी गरीब को दो बरस की कैद होनी है, तो वही जुर्म अगर ताकतवर करे, तो उसे चार बरस की कैद होनी चाहिए, और अगर वह किसी कमजोर के खिलाफ करे तो छह बरस की। जब तक इंसाफ इस किस्म के एक अनुपात को लेकर नहीं चलेगा, तब तक असमानता से भरापूरा हिन्दुस्तान जैसा लोकतंत्र सबसे कमजोर को कभी इंसाफ नहीं दे सकेगा। पुलिस, गवाह, सुबूत, वकील, और अदालतें, इन तमाम जगहों पर पैसा सिर चढक़र बोलता है, और गरीब या कमजोर के खिलाफ ये तमाम ताकतें लग जाती हैं। इसलिए समाज के लोगों को भी सत्ता पर यह दबाव बनाकर रखना चाहिए कि ताकत की हिंसा को खत्म किया जाए। आमतौर पर ताकत की हिंसा के सुबूत खत्म किए जाते हैं, ताकि ताकत पर आंच न आए।
हर दिन के अखबार ऐसी खबरों से पटे रहते हैं कि जिसकी जो सरकारी जिम्मेदारी रहे, उसके ठीक खिलाफ जाकर लोग जुर्म करते दिखते हैं। आज ही की कुछ खबरों को लें, तो लोगों को ठगने के लिए, ठगी का पैसा कुछ फर्जी बैंक खातों में डालकर उसे कहीं और पहुंचा देने के लिए इस्तेमाल हो रहे सैकड़ों बैंक खाते पकड़ाए हैं, और इनमें बैंक अफसरों की मिलीभगत (वैसे मिलीमौलाना, या मिलीपादरी कहना चाहिए क्या?) सामने आई है। जिन लोगों को बैंक के काम के लिए तनख्वाह मिलती है, वे बैंक को लुटेरों के हाथ बेच रहे हैं। कल ही छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की एक सडक़ का वीडियो सामने आया जिसमें बिना वर्दी के एक पुलिस अधिकारी सडक़ के बीच मोटरसाइकिल का यूटर्न ले रहा है, और पीछे से आ रही एक दुपहिया आकर उससे टकरा जाती है। दुपहिया चला रही महिला को यह पुलिसवाला घूंसे मारता है, और गालियां देता है, इसके बाद वहां से चले जाता है। जिस पुलिस के जिम्मे कानून व्यवस्था रहती है, वह इस किस्म की असभ्य और गैरकानूनी हरकत करता है। एक और खबर बताती है कि टोल टैक्स नाके पर सरकार और नाका ठेकेदार के लिए नगद वसूली सॉफ्टवेयर बनाने वाला उसमें ऐसी गड़बड़ी करता है कि नगद वसूली की फर्जी रसीद निकलती है, और सरकार का हिस्सा उसे जाता ही नहीं, पूरा पैसा टोल नाका ठेकेदार कंपनी को चले जाता है, और यह धोखाधड़ी सौ करोड़ से अधिक की हुई है। जिस सॉफ्टवेयर बनाने वाले को सरकारी टैक्स की हिफाजत का ध्यान रखना था, उसने धोखाधड़ी और जालसाजी का पुख्ता इंतजाम रखा। ऐसे मामले हर दिन सामने आते हैं जिनमें दिखता है कि बाड़ ही खेत खाने लगी है, किसी बाहरी की जरूरत नहीं रह गई है। ऐसे लोगों का क्या किया जाना चाहिए?
जब दुश्मन घर के भीतर हो, जब चौकीदार ही चोर बन जाए, जब जनता के पैसों पर पलने वाले अधिकारी-कर्मचारी जनता के हक के साथ धोखाधड़ी, और जालसाजी करने लगें, तो क्या ऐसे लोगों को सजा देने के लिए अलग से कुछ कानून नहीं बनना चाहिए? क्या मौजूदा कानून में और अधिक कड़ाई नहीं बरतना चाहिए? क्या ऐसे लोगों की जमीन-जायदाद को जब्त करके सरकार को लगाए गए चूने की रिकवरी नहीं करनी चाहिए? ऐसे बहुत से सवाल इस देश में रोजाना हो रहे जुर्म को लेकर उठते हैं। कहीं राह चलता कोई आदमी किसी महिला से बलात्कार करे, तो उस पर जितनी सजा का इंतजाम हो, उससे कई गुना अधिक सजा ऐसे लोगों को होनी चाहिए जो कि शिक्षक होते अपनी छात्राओं से ऐसा करें, या खेल प्रशिक्षक होते हुए अपनी खिलाड़ी के साथ ऐसा करें। जिन लोगों के हवाले सरकारी कामकाज और उनसे जुड़े हुए अधिकार रहते हैं, उनके किए हुए जुर्म अधिक सजा के हकदार रहने चाहिए।
भारत में पता नहीं कैसे लोगों के मन में इस किस्म के जुर्म के लिए खौफ एकदम ही खत्म हो गया है। कहने के लिए तो देश की आबादी का तकरीबन पूरा ही हिस्सा अपने को धर्मालु मानता है, तरह-तरह के धार्मिक पाखंड भी करता है, नैतिकता की बातें कहने वाले प्रवचनकर्ताओं को सुनने के लिए घंटों बैठता भी है, धार्मिक प्रतीक पहनता है, पापमुक्ति के हर किस्म के औजारों का इस्तेमाल भी करता है, लेकिन फिर अपनी हर किस्म की ताकत को हथियार की तरह इस्तेमाल करके जुर्म भी करता है। धर्म और जुर्म का यह तालमेल गजब की संगत दिखाता है। जिस तरह संगीत में दो अलग-अलग वाद्ययंत्रों के बीच जुगलबंदी होती है, ऐसे ही हिन्दुस्तान में (और बाकी दुनिया में भी) जुर्म और धर्म की जुगलबंदी देखने लायक रहती है। गॉड फादर जैसी फिल्म देखें, तो माफिया सरगना धार्मिक भावना से लबालब दिखते हैं, चर्च जाते हैं, अपने ही किए हुए कत्ल की लाश के कफन-दफन के वक्त धार्मिक संस्कार के लिए मौजूद रहते हैं, और ईसा मसीह को याद करते हैं। छत्तीसगढ़ में दो दिन पहले एक ही दिन में दो अलग-अलग जगहों पर दो पतियों ने अपनी-अपनी पत्नियों को मार डाला, दोनों पतियों के नाम में राम का नाम था, और उनके पिताओं के नाम में भी राम का नाम था। राम के नाम ने किसी भी जुर्म से नहीं रोका। इसी तरह सरकारी नौकरी के नियम किसी को भ्रष्टाचार से नहीं रोक रहे, और रिश्वत जैसे जुर्म से बहुत आगे बढक़र जो लोग धोखाधड़ी और जालसाजी के दर्जे की साजिश तैयार करते हैं, उनके मन में भी न सरकारी नियमों का खौफ रहता, न अदालती सजा का, और न ही अपने धर्म का। बल्कि धर्म तो अधिकतर मामलों में लोगों को पाप और बुरे काम करने का हौसला देता है क्योंकि वह पापमुक्ति से लेकर प्रायश्चित तक के लिए तरह-तरह के इलाज और समाधान सुझाता है। कहीं गंगा में डुबकी लगाई जा सकती है, कहीं चर्चा में जाकर कन्फेशन चेम्बर में अपराध माना जा सकता है, और कहीं मस्तान भी हाजी बनकर जुर्म जारी रख सकता है। तकरीबन तमाम धर्म ऐसी लॉंड्री सेवा मुहैया कराते हैं। इसलिए किसी भी सरकारी कर्मचारी या अधिकारी से किसी धार्मिक सीख या नसीहत की वजह से बेहतर इंसान बनने की उम्मीद नहीं की जा सकती, और कानूनी बंदिशों को तोड़ते हुए जुर्म करने, और बच जाने की सहूलियतों पर लोगों का अपार भरोसा भी है।
ऐसे में समाज और सरकार दोनों के लिए यह जरूरी हो जाता है कि मुजरिम और पापी के लिए कुछ खास इंतजाम किया जाए। सरकार तो सिर्फ जुर्म पर सजा दे सकती है, लेकिन धर्म के ठेकेदार पापियों के लिए भी कुछ रोक-टोक तय कर सकते हैं। बहुत से मामलों में इन दोनों की जरूरत है। कानून अपना काम करे, और धर्म अपना। हम रोज ही सडक़ों पर ऐसे बहुत से लोगों को नियम-कानून तोड़ते, और जुर्म करते देखते हैं जो कि अपनी गाडिय़ों पर धर्म के निशान लगाकर चलते हैं, धार्मिक नारे लिखवाकर चलते हैं, या अपने बदन पर धार्मिक प्रतीक पहने रहते हैं। जाहिर है कि उनके हर गलत काम से उनके धर्म की भी बदनामी होती है, और देश-प्रदेश के कानून तो टूटते ही हैं। धर्म के ठेकेदारों को भी अपने लोगों के गलत काम और जुर्म पर सार्वजनिक रूप से जवाब देना चाहिए, और उन पर सार्वजनिक रोकटोक भी लगानी चाहिए। किसी धर्म और उसके ईश्वर का सम्मान भला कहां बच जाता है जब पुख्ता साबित हो चुके मुजरिमों के लिए भी उनके दरवाजे खुले रहते हैं? जिस तरह किसी भ्रष्ट को सरकारी सेवा से निकालने का कानून है, उसी तरह बुरे मुजरिमों को धर्म से बाहर करने का भी एक रिवाज होना चाहिए। इटैलियन माफिया के बारे में पोप सोच लें, इस्लामी आतंकी हत्यारों के बारे में कोई इमाम सोच ले, और पत्नी को मारकर टुकड़े करके कुकर में पकाने वाले हिन्दू के बारे में शंकराचार्य सोच ले, क्योंकि ये लोग सेवा नियमों से बंधे हुए सरकारी कर्मचारी तो हैं नहीं, धर्मालु मुजरिम जरूर हैं। सरकार और समाज दोनों ही अपने-अपने पैमाने कड़ाई से लागू न कर पाएं, तो फिर उनकी सत्ता ही क्या है, क्या ख्याल है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
चारों तरफ से आती खबरों में दो किस्म की खबरें सबसे ऊपर दिखती हैं, एक तो तरह-तरह की उम्र के लोग खुदकुशी कर रहे हैं। इनमें गरीब भी हैं, मध्यवर्गीय भी हैं, और संपन्न लोग भी हैं। दूसरी तरफ हर दिन ही अनगिनत मामले ऐसे वैध-अवैध संबंधों के आ रहे हैं जिनमें लडक़े-लडक़ी के बीच देहसंबंध बने, और फिर शादी का वायदा करके शादी न करने जैसी शिकायत हो गई, और फिर कुछ मामलों में बलात्कार का मामला दर्ज करवाया गया, और कुछ दूसरे मामलों में देहसंबंधों के दिनों में बनाए गए वीडियो दिखा-दिखाकर बलात्कार जारी रखा गया, या फिर ब्लैकमेल किया गया, और देहसंबंधियों के बीच मरने या मारने की नौबत आ गई। कई मामलों में तो प्रेमी-प्रेमिका, और पति के बीच किसी ने किसी को मार डाला, और फिर खुदकुशी कर ली। इन तमाम किस्म की निजी हिंसाओं की वजहों का कोई विश्लेषण किया जा सकता है?
गरीब के बच्चों को मां-बाप के संघर्ष पर रहम नहीं आती, उन्हें स्मार्टफोन पाने की अपनी हसरत इतनी महत्वपूर्ण लगती है कि वह फरमाईश पूरी न होने पर उन्हें खुदकुशी करने में वक्त नहीं लगता। कुछ बच्चे मां-बाप के पैसे चुराकर भी मोबाइल फोन या इस किस्म की दूसरी हसरतें पूरी करते हैं। लेकिन उन गरीब मां-बाप की दिमागी हालत के बारे में सोचा जाए कि स्मार्टफोन न दिला पाने पर बेटे या बेटी ने खुदकुशी कर ली, और उसके बाद वे पूरी जिंदगी इस मलाल में जीते रहेंगे कि कर्ज लेकर भी अगर फोन दिला दिया रहता तो भी बच्चे तो जिंदा रहते। ऐसे दुख में डूबे मां-बाप यह भी नहीं सोच पाते कि फरमाईश फोन पर नहीं थमती, वह फोन के बाद किसी बाइक पर आ जाती, और फिर तब तक फोन का अगला मॉडल आ जाता, और कुछ बरस बाद बाइक का नया मॉडल आ जाता, और इस बीच फोन के री-चार्ज और बाइक के फ्यूल टैंक का खर्च जुड़ा ही रहता। फरमाईशों का कोई अंत नहीं होता। एक-दूसरे के देखादेखी बच्चों और नौजवान पीढ़ी के मन में सामानों की हसरत पैदा होती रहती है, और एक-दूसरे से पिछड़ न जाने के दबाव में वे जायज या नाजायज तरीकों से सामान हासिल करने में लगे रहते हैं, और ऐसे में ही कई बार नाबालिग बच्चे सामानों के मोह में बालिग लोगों के साथ देहसंबंधों में उलझ जाते हैं। इनके बीच मोहब्बत शायद कम मामलों में रहती होगी, अपनी हसरत पूरी होने की हसरत अधिक रहती होगी। कुल मिलाकर लोग संघर्ष की जिंदगी के रास्ते अपनी चाहत पूरी करने, सामान और सहूलियत हासिल करने पर कम भरोसा करते हैं, वे एक ऐसा शॉर्टकट ढूंढते हैं जिससे रातों-रात उन्हें सब कुछ हासिल हो जाए। इसी चक्कर में बहुत सी लड़कियां और महिलाएं सेक्स, वीडियो, बलात्कार, ब्लैकमेल जैसी अंधेरी और अंतहीन सुरंग में फंस जाते हैं। नतीजा यह होता है कि लोग खुदकुशी करते हैं, या ब्लैकमेल करने वाले को मार भी डालते हैं।
आज बाजार जिस हमलावर तेवरों के साथ इंसानों को ग्राहक बनाने पर आमादा है, और हर इंसान अपनी ताकत और औकात से आगे बढक़र अधिक से अधिक बड़े और खर्चीले ग्राहक बनने पर आमादा हैं, उसे देखकर हैरानी होती है कि क्या इंसान महज ग्राहक बनकर ही खुश हैं? क्या उनकी जिंदगी का अकेला मकसद महज ग्राहक बन जाना है? क्या मेहनत और कामयाबी पाए बिना महज सामानों के मालिक होने की शोहरत, दिखावे की चमक-दमक, और उससे लोगों की नजरों में महत्व पाने की चाहत ही सब कुछ रह गई है? क्या जिंदगी के बाकी मूल्य कुछ भी नहीं रह गए हैं? क्या अपने ही परिवार के बड़े लोगों की संघर्ष की जिंदगी और मेहनत की मिसाल कुछ नहीं रह गई है? यह पूरा सिलसिला इतना निराश करता है कि इंसान महज एक ग्राहक और उपभोक्ता की शक्ल में संतुष्ट और खुश हैं, उन्हें बेहतर इंसान बनने की कोई हसरत नहीं है, और जिंदगी की असल कामयाबी पाने की मेहनत करने की उनकी नीयत नहीं है।
आज मध्यमवर्गीय और गरीब परिवार ऐसी दिक्कतों को सबसे अधिक झेल रहे हैं। जो संपन्न परिवार हैं वे अपने बच्चों को लाख रूपए के मोबाइल, और लाखों रूपए की बाइक लेकर देने की हालत में रहते हैं। वे अपने बच्चों को क्रेडिट कार्ड भी दे देते हैं। लेकिन समाज इतना मिलाजुला है कि ऐसे हर संपन्न बच्चे के इर्द-गिर्द उससे बहुत कम संपन्न बच्चे भी रहते हैं, और उनके सामने संपन्नता का यह वैभव प्रदर्शन चलते रहता है, जिससे उनकी आंखें चकाचौंध रहती हैं। अब आए दिन लोगों के इस्तेमाल होने वाले कपड़े, जूते, फिटनेस बैंड, ब्लूटूथ जैसे दर्जनों सामान रहते हैं जो कि सबसे संपन्न के पास आते-जाते रहते हैं, बदलते रहते हैं, और जिन्हें देख-देखकर उनसे कम संपन्न लोग लगातार एक कुंठा में जीते हैं। उनकी अपूरित हसरतें उन्हें अपने ही मां-बाप के खिलाफ बागी बना देती हैं जो कि ऐसे महंगे इंतजाम नहीं कर पाते। भ्रष्ट नेता-अफसर-ठेकेदार की औलादें अपने ईमानदार मां-बाप, या गरीब मां-बाप पर तरस खाती हैं कि न वे कमाना सीख पाए, न अपने बच्चों को ‘अच्छी’ जिंदगी दे पाए। यह सिलसिला स्कूल से कॉलेज तक, और कॉलेज के बाद भी नौजवानों के यारी-दोस्ती, और प्रेमसंबंध के दिनों तक चलते रहता है, भड़ास बढ़ती रहती है, और जाने कब इन चीजों की चाहत में नाबालिग देहसंबंध में फंस जाते हैं, और बालिग लड़कियां या महिलाएं अवांछित संबंधों में, जिनका अंत ब्लैकमेलिंग और हिंसा तक पहुंच जाता है।
हम यहां किसी प्रवचनकर्ता की तरह नैतिकता की नसीहतें देना नहीं चाहते, क्योंकि उनके कोई ग्राहक नहीं रह गए हैं। आज प्रवचन भी सिर्फ धार्मिक, धर्मान्ध, साम्प्रदायिक किस्म के चल पा रहे हैं, इन तीनों विशेषणों से दूर रहने वाले विवेकानंद जैसे व्यक्ति की बातों का भी आज कोई बाजार नहीं है, उन्हें भी सुनने वाले कोई नहीं हैं। लेकिन किया क्या जाए? जैसे-जैसे सरकार और राजनीति में भ्रष्टाचार बढ़ते चल रहा है, समाज में हर किस्म का कारोबार करने वाले लोग कालेधन का सुख पा रहे हैं, वैसे-वैसे समाज में गैरजरूरी फिजलूखर्ची, महंगे सामानों का इस्तेमाल, हिंसक होने की हद तक का दिखावा, तरह-तरह के आडंबर खूब चल रहे हैं, और इनसे दूर रह पाना, इनसे अछूता रह पाना शायद किसी के लिए भी मुमकिन नहीं रह गया है। आज लोग इस्तेमाल के सामान पाकर भी खुश नहीं हैं, जब तक कि उनके साथ ऐसा ब्रांड जुड़ा हुआ न हो जो कि आज की सामाजिक प्रतिष्ठा का एक प्रतीक बन गया है। ऐसा दिखावा खुद के खिलाफ हिंसक बन जाता है, मां-बाप पर हिंसक कर्ज थोप देता है, और ग्राहक कब कई किस्म के मुजरिम बन जाते हैं, यह पता भी नहीं लगता है। बाजार व्यवस्था ने लोगों के सपनों के साथ मिलकर खून से एक ऐसी तस्वीर बना दी है, जिसमें परंपरागत मूल्यों की कोई जगह नहीं है। आज यह सब लिखते हुए हमारे पास समाधान कुछ भी नहीं है, लेकिन हम समस्या को हिंसा की हद तक बढ़ जाने की नौबत लोगों को याद दिला रहे हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
गुजरात के सूरत की तकलीफदेह खबर है कि आठवीं क्लास की एक बच्ची को स्कूल में फीस न दे पाने की वजह से इम्तिहान में नहीं बैठने दिया गया। इसके बाद उसे क्लासरूम के बाहर दो दिन तक शौचालय के करीब खड़ा रखा गया क्योंकि उसके मां-बाप फीस का इंतजाम नहीं कर पाए थे। जब वह घौर लौटी तो बुरी तरह से रो रही थी। पिता ने कहा कि अगले महीने तक फीस का इंतजाम कर लेंगे, लेकिन वह इतनी विचलित थी कि उसने स्कूल जाने से मना कर दिया। और जब मां-बाप काम पर गए हुए थे तो उसने खुदकुशी कर ली। स्कूल ने जाहिर तौर पर आरोपों को गलत बताया है। सरकार ने मामले की जांच का कहा है। अब यह घटना देश के एक सबसे संपन्न और कारोबारी प्रदेश गुजरात की है, जो कि देश के दो सबसे ताकतवर लोगों का गृहराज्य भी है, और जहां पिछले कई कार्यकाल से भाजपा की ही सरकार चली आ रही है। यह नौबत देश में जगह-जगह सामने आती है, लेकिन गुजरात में ऐसा होना अधिक फिक्र की बात है क्योंकि यह देश की सत्ता का अपना गृहराज्य है, और मोदी-शाह की पार्टी भी इस राज्य की सत्ता पर काबिज है।
स्कूली छात्र-छात्राओं को अगर इतने तनाव से गुजरना पड़ता है, तो फिर इस देश को दुनिया के कुछ सभ्य और विकसित देशों से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। कल ही छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिले में एक सरकारी स्कूल की प्राचार्या के खिलाफ अधिक फीस वसूली करने, और शौचालय साफ करवाने के आरोप लगाते हुए छात्र-छात्राओं की बड़ी भीड़ पुलिस को धक्का देते हुए कलेक्ट्रेट में घुस गई, और भारी आक्रोश के नारे लगाने लगी। उसके वीडियो देखें तो लगता है कि तनाव इतना बढऩे के पहले क्या कोई शाला विकास समिति, स्थानीय पार्षद, स्थानीय विधायक या सांसद कोई भी इस तरफ नहीं देखते हैं? कुछ ऐसी ही नौबत प्रदेश में बहुत सी और जगहों पर स्कूलों को लेकर चली आ रही है जहां मास्टर और हेडमास्टर दारू पिए हुए पहुंच रहे हैं, छात्राओं से अश्लील बर्ताव हो रहा है, और कई जगहों पर उनके साथ बलात्कार हो रहा है। कहीं-कहीं आश्रम छात्रावास की बच्चियां गर्भवती हो रही हैं। सरकारी स्कूलों से लेकर महंगी निजी स्कूलों तक सब जगह बच्चों का ऐसा ही बुरा हाल चल रहा है। एक तरफ दिल्ली में केजरीवाल सरकार अपनी स्कूलों के मॉडल तैयार करने के लिए दुनिया में सबसे अच्छी स्कूली पढ़ाई वाले नार्वे से सीख रही है, दूसरी तरफ केरल जैसे राज्य में दक्षिण के बाकी राज्यों से भी आगे बढक़र हर दर्जे की शिक्षा को भरपूर अहमियत दी जा रही है, लेकिन हिन्दीभाषी राज्यों, और उत्तर भारत के राज्यों में पढ़ाई का हाल बहुत ही खराब चल रहा है। खुद भारत सरकार के स्कूल शिक्षा विभाग की 2023-24 की रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है कि आबादी बढऩे के बाद भी स्कूलों की दर्ज संख्या में 37 लाख से अधिक की गिरावट आई है, और यह गिरावट एसटी-एससी, ओबीसी, और लड़कियों के वर्ग में सबसे अधिक है। आज आई एक दूसरी रिपोर्ट बतलाती है कि पढ़ाई का स्तर किस कदर कमजोर चल रहा है। ऐसे में उन राज्यों को अधिक फिक्र करने की जरूरत है जहां शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं, या पश्चिम बंगाल की तरह शिक्षक भर्ती में इतना बड़ा घोटाला हुआ है कि मंत्री की प्रेमिका का फ्लैट फर्श से छत तक नोटों से भरा मिला था। जब शिक्षक भर्ती का यह हाल रहेगा, तो जाहिर है कि शिक्षा तो बदहाल रहेगी ही। दुनिया के जितने जिम्मेदार देश हैं, उनमें प्राथमिक शिक्षा को सबसे अधिक महत्व दिया जाता है, और बहुत से देश एक-दूसरे के तजुर्बे से सीखते हैं। हिन्दुस्तान में हालत यह है कि पढ़ाई में देश में सबसे आगे जो केरल है, उसी से कुछ सीखने की जरूरत किसी दूसरे प्रदेश को नहीं लगती है। राजनीतिक दलों को लगता है कि दूसरी पार्टी के राज वाले प्रदेश से कुछ कैसे सीखा जाए, और अगर दो राज्यों में सरकार एक पार्टी की ही है, तो भी उन्हें लगता है कि दूसरे प्रदेश को महत्व कैसे दिया जाए। हो सकता है कि दिल्ली को स्कूलें सुधारने के लिए नार्वे जाने की जरूरत न रही हो, और केरल से भी बहुत कुछ सीखा जाना मुमकिन रहा हो, लेकिन राजनीतिक दलों के अपने पूर्वाग्रह, और एक-दूसरे से आगे बढक़र दिखने की चाह सब कुछ रोक देती है।
हम इस नीरस चर्चा को हर कुछ महीने में जरूर छेड़ते हैं क्योंकि किसी भी देश का भविष्य उसके बच्चों पर ही टिका रहता है। ये बच्चे आज अगर बेहतर न बने, तो इस बात की गारंटी रहती है कि यह देश भी आगे जाकर बेहतर नहीं बन सकेगा। लोकतंत्र में किसी भी देश और प्रदेश को अपने बच्चों को सबसे अधिक प्राथमिकता देनी चाहिए। अभी जापान की स्कूलों की शिक्षा प्रणाली से दुनिया के बिल्कुल दूर कोनों के देश भी बहुत कुछ सीख रहे हैं। और वहां प्राथमिक शाला में औपचारिक किताबी पढ़ाई के बजाय काम का सम्मान करना, दूसरों के लिए आदर का भाव रखना जैसी बुनियादी बातों को, और कामों को सिखाया जाता है। अब जिस देश-प्रदेश में टीचर क्लास में दारू पिए हुए पड़े रहेंगे, वहां किस तरह की बुनियादी तालीम की बात हो सकती है? भारत के तमाम प्रदेशों को स्कूलों की हालत सुधारने, पढ़ाई का स्तर बेहतर करने, और बच्चों में लोकतंत्र के प्रति सम्मान विकसित करने का काम करना चाहिए, आज की हालत तो बहुत ही निराशाजनक है। इस देश के भीतर भी दक्षिण के राज्य जिस रफ्तार से आगे बढ़ रहे हैं, वह देखने लायक है, और वह इसलिए है कि वहां स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई को सबसे अधिक महत्व दिया जाता है। उच्च शिक्षा के लिए उत्तर भारत के बच्चे भी दक्षिण की तरफ जाने को मजबूर रहते हैं। नार्वे तो दूर है, दक्षिण से ही कुछ सीख लिया जाए।
छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले और लगे हुए ओडिशा राज्य के बीच की सरहद पर कल से चल रही पुलिस-नक्सल मुठभेड़ में अब तक 14 या अधिक नक्सलियों के मारे जाने की खबर है। इनमें एक ऐसा नक्सल नेता चलपति शामिल है जिस पर एक करोड़ रूपए का ईनाम था। अभी दो दिन पहले ही छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक दूसरी मुठभेड़ में 12 नक्सली मारे गए थे। कल शाम से चल रही गरियाबंद-ओडिशा सरहद का यह इलाका बस्तर से अलग है। अगर छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार आने के बाद से अब तक मारे गए नक्सलियों की गिनती की जाए तो वह तीन सौ पार दिख रही है। राज्य बनने के बाद से यह पहला ही मौका है जब 13 महीनों में सुरक्षा बलों को नक्सलियों से निपटने में इतनी कामयाबी मिली है। और ऐसे में पांच बरस की पिछली कांग्रेस सरकार से कुछ लोग यह सवाल करना चाहेंगे कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के राज में नक्सल मोर्चे पर इसी पुलिस और इसी पैरामिलिट्री को कामयाबी क्यों नहीं मिल रही थी? और ऐसा भी नहीं कि कांग्रेस सरकार ने पांच बरस में नक्सलियों से किसी शांतिवार्ता में कामयाबी पाई हो। वैसी न कोई कोशिश हुई, न सुरक्षा बलों को इतनी कामयाबी मिली। चूंकि बस्तर और लगे हुए प्रदेशों में नक्सलियों की वजह से सुरक्षा बलों और ग्रामीणों की भी लगातार मौतें होती हैं, इसलिए यह मुद्दा अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि नक्सलियों से परे भी लोग मारे जाते हैं।
एक पल के लिए कांग्रेस सरकार के आंकड़ों पर नजर डालें, तो उसके आते ही 2019 में 154 नक्सली मारे गए थे, 2020 में 134, 2021 में 128, 2022 में 66, 2023 में 57 नक्सली मारे गए। दूसरी तरफ 2024 में भाजपा सरकार आते ही एक बरस में करीब 300 नक्सली मारे गए, और 2025 के इन पहले तीन हफ्तों में ही 32 नक्सली मारे गए हैं। ये आंकड़े कम से कम सरकार का रूख और रूझान तो बताते ही हैं कि नक्सल मोर्चे पर किसकी क्या नीति थी, और क्या नीति है। हो सकता है कि कोई राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए नक्सलियों से मदद लेते हों, लेकिन आम नागरिकों की, और सुरक्षा बलों की मौत की कीमत पर ऐसी मदद लेना और बदले में रियायत देना तो नाजायज है।
नक्सलियों से बातचीत भाजपा के मुख्यमंत्री रहे डॉ.रमन सिंह ने अपने कार्यकाल में विधानसभा के भीतर और बाहर दोनों जगह खूब जमकर वजन के साथ की थी, लेकिन वह किसी किनारे नहीं पहुंंच पाई। कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने शांतिवार्ता की कोई सुगबुगाहट भी पैदा नहीं की, और वे सिर्फ यही कहते रहे कि नक्सली हथियार छोड़ेंगे तो ही उनसे बात होगी। उनका रूख न बातचीत का था, न सुरक्षा बलों की किसी बड़ी और मजबूत कार्रवाई का। भाजपा सरकार आते ही न सिर्फ राज्य के नेताओं ने, बल्कि केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह, और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी मार्च 2026 तक नक्सलियों को खत्म करने के इरादे की घोषणा की। अभी जिस रफ्तार से नक्सलियों को खत्म किया जा रहा है, और इक्का-दुक्का मामलों को छोडक़र नक्सलियों के नाम पर बेकसूरों को मार डालने की, फर्जी मुठभेड़ की शिकायतें भी नहीं हैं। तीन सौ नक्सलियों को खत्म करते हुए शायद आधा दर्जन बेकसूर लोगों को मारने के आरोप नक्सलियों ने लगाए हैं, और बाकी सारे लोगों के नक्सली होने की बात खुद उन्होंने ही मान ली है। मानवाधिकार कुचलने, और ज्यादती करने की इतनी कम शिकायतें राज्य बनने के बाद से पहले कभी नहीं रहीं। सुरक्षा बलों के इतने बड़े-बड़े ऑपरेशनों के बाद भी इतनी कम शिकायतें होना सावधान सुरक्षा कार्रवाई का ही संकेत है।
नक्सलियों के हर जत्थे के मारे जाने के बाद उनकी ताकत कमजोर होती जा रही है, और उन पर अगली कार्रवाई कुछ आसान हो रही है। हम केन्द्र सरकार द्वारा तय किए गए लक्ष्य और राज्य शासन द्वारा उसे मानी गई चुनौती की तारीख पर कुछ कहना नहीं चाहते, लेकिन नक्सली छत्तीसगढ़ में कमजोर तो बहुत तेजी से हो रहे हैं, और ऐसे में कुछ लोगों को यह भी लग सकता है कि भाजपा के गृहमंत्री विजय शर्मा ने सरकार बनते ही जिस मजबूती से शांतिवार्ता की घोषणा की थी, और उसके बाद किसी वीडियो कॉल पर भी शांतिवार्ता करने के लिए अपना उत्साह दिखाया था, अब उसकी जरूरत नहीं रह गई है। लेकिन हम शांतिवार्ता को बिल्कुल गैरजरूरी मानने के खिलाफ हैं क्योंकि लोगों ने यह भी देखा है कि अभी-अभी बस्तर में 9 सुरक्षा कर्मचारी मारे गए, 24 पिछले बरस मारे गए, और पिछले बरस 80 नागरिक भी मारे गए थे। ये आंकड़े नक्सल मौतों से कम हैं, लेकिन 13 महीनों में 110 से अधिक ग्रामीण-सुरक्षाकर्मी खत्म होना छोटी बात नहीं है। हम अभी जिंदगी की कीमत की तुलना में सुरक्षा बलों पर हो रहे बहुत बड़े खर्च को भी नहीं गिन रहे हैं, लेकिन 60 हजार से अधिक सुरक्षाकर्मी छत्तीसगढ़ के नक्सल मोर्चे पर तैनात हैं, और उन पर देश-प्रदेश का बहुत बड़ा खर्च तो हो ही रहा है। इसलिए नक्सलियों की शिकस्त के इस दौर में सरकार को सुरक्षा कार्रवाई जारी रखते हुए भी शांतिवार्ता की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि मौतें सिर्फ नक्सलियों की नहीं हो रही हैं।
ऐसा लगता है कि नक्सलि हिंसाग्रस्त इलाकों में सरकार की ढांचागत सुविधाओं, और जनकल्याण की योजनाओं के कुछ या अधिक हद तक कामयाब होने से भी जनता के बीच नक्सलियों का असर घटा होगा, और सुरक्षा बलों को पहले के मुकाबले कुछ अधिक जनसमर्थन मिल रहा होगा। इन बातों को अधिक बारीक हद तक आंकने का कोई जरिया हमारे पास नहीं है, लेकिन नक्सल इलाकों में चुनावों में जनता की भागीदारी और इन इलाकों में बढ़ी हुई आर्थिक गतिविधियों के पीछे सरकारी योजनाओं की कामयाबी जरूर रही होगी। नक्सलियों के खिलाफ मोर्चा सिर्फ बंदूकों से नहीं लड़ा जा सकता, और आम जनता का लोकतंत्र पर भरोसा दुबारा कायम करना होगा, मजबूत करना होगा, और उसे जारी रखना होगा। यहां पर राजनीतिक और प्रशासनिक तबकों की जिम्मेदारी आती है।
किसी सुरक्षा विशेषज्ञ को इस बात का विश्लेषण करना चाहिए कि पांच बरस के कांग्रेस राज में यही सुरक्षा बल इसी नक्सल मोर्चे पर इतना शांत, चुप, या असफल क्यों था? और भाजपा सरकार आने से इसकी कामयाबी में इतना इजाफा क्यों और कैसे हुआ है? हम इस जटिल मुद्दे का अतिसरलीकरण करना नहीं चाहते हैं, किसी जानकार का एक अध्ययन और विश्लेषण के बाद ऐसा करना बेहतर होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केरल हाईकोर्ट ने अभी एक मामले में कहा ही था कि किसी व्यक्ति के शरीर को लेकर मोटा, पतला, ठिंगना, ऊंचा, सांवला, बहुत काला ऐसा कुछ भी कहने से परहेज करना चाहिए क्योंकि यह लोगों में शर्मिंदगी पैदा होने का काम होता है। जिस दिन हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी की उसी दिन केरल के मलप्पुरम में एक 19 बरस की लडक़ी ने खुदकुशी कर ली जो कि अपने पति और उसके परिवार द्वारा रंग को लेकर लगातार की जा रही आलोचना से थक चुकी थी। इन दिनों अंग्रेजी बोलचाल में जिसे बॉडी-शेमिंग कहते हैं, बदन को लेकर शर्मिंदगी पैदा करने का यह काम हिन्दुस्तान में सबसे अधिक रंग को लेकर होता है। शादी के इश्तहार देखें तो हर किसी को गोरी लडक़ी चाहिए। जाति के साथ-साथ गोरे रंग की बराबरी की मांग रहती है। और गोरेपन से लेकर सांवलेपन के बीच कई शेड रहते हैं, जिन्हें लोग स्टूडियो की कलाकारी से बदलते हैं, या शब्दों में काले को सांवला, सांवले को गेहुंआ, गेहुंए को गोरा लिखने की भी कोशिश की जाती है। दुल्हन ढूंढते हुए तो काले लडक़ों के लिए भी मां-बाप गोरी दुल्हन तलाशते हैं ताकि अगली पीढ़ी का रंग कुछ ‘सुधर जाए’।
लेकिन रंगभेद महज हिन्दुस्तान में नहीं है, और कोई नई बात भी नहीं है। पूरी दुनिया में रंगभेद का भयानक इतिहास रहा है। इंसानों के बीच रंगभेद का नतीजा यह हुआ है कि लोग दुनिया भर के दूसरे कामों में भी रंगभेद करने लगे हैं, और लंबे समय से करते आए हैं। इस चर्चा को कहां से शुरू करें, और कहां खत्म करें, यह तय करना बड़ा मुश्किल है। अभी हिन्दुस्तान के दो-तीन बिल्कुल ही नौजवान खिलाडिय़ों ने शतरंज में बड़ी कामयाबी पाई है। अब शतरंज काली और सफेद गोटियों से खेला जाने वाला खेल है। यह पूरी तरह बिसात पर चली जाने वाली चालों का खेल है, लेकिन लोगों के दिमाग में काले और सफेद का फर्क ऐसा है कि काली गोटियों से खेलने वाले कुछ दबाव में रहते हैं, कि उनकी जीत की संभावना कम रहेगी। किसी जानकार ने 1851 से लेकर अब तक काली और सफेद गोटियों से खेलने वाले लोगों और उनमें से जीत पाने वाले लोगों का हिसाब लगाया है तो सफेद गोटियां काली के मुकाबले अधिक जीतती हैं। इसके साथ-साथ यह बात भी है कि खेल जैसे-जैसे ऊपर दिग्गज दर्जे पर पहुंचने लगता है, वैसे-वैसे सफेद की संभावना और बढ़ती जाती है। जिस किसी धारणा से भी सफेद गोटी वाले खिलाड़ी को अधिक आत्मविश्वास मिलता होगा, और काली गोटी वाले खिलाड़ी निराश होते होंगे, दिलचस्प बात यह है कि हिन्दुस्तान के दक्षिण भारत के सबसे सांवले या काले लोग भी शतरंज में सबसे कामयाब रहे हैं। इसी तरह एक दूसरे खेल को देखें जो कि हिन्दुस्तान में सडक़ किनारे भी खेला जाता है। कैरम की काली और सफेद गोटियों का मूल्य देखें तो काली गोटियों का मूल्य दस-दस रहता है, और सफेद गोटियों का बीस-बीस। अब रंगों को लेकर खिलाडिय़ों पर फर्क पड़ता है, या किसी रंग को नीचा दिखाने के लिए उसका दाम इस तरह रखा गया है, यह सोचने की बात है।
एक दूसरी मिसाल देखें जो कि रंगभेद की एक बड़ी ज्वलंत मिसाल है। दुनिया भर में सबसे मशहूर फैंटम और मैन्ड्रेक के कॉमिक्स देखें तो फैंटम एक गोरा व्यक्ति है जो कि अफ्रीका के जंगलों में बौने, काले लोगों को मुसीबतों से बचाने के लिए वहां जाता है, रहता है, और पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही नकाब में जीते हुए वह पूरी काली नस्ल की रक्षा करता है। उसे काले, बौने अफ्रीकी आदिवासी ईश्वर की तरह पूजते हैं, और जो पढऩे वाले लोगों के दिमाग में यह साफ-साफ तस्वीर बना देता है कि काले लोगों को बचने के लिए एक गोरे ईश्वर की जरूरत रहती है। दूसरी कॉमिक्स मैन्ड्रेक की देखें तो यह एक गोरा जादूगर है जो दुनिया के मुजरिमों और बुरे लोगों से भिड़ता है, और उसका सहयोगी लोथार नाम का एक अफ्रीकी राजकुमार है जो अपने राजपाठ को छोडक़र एक सेवक की तरह मैन्ड्रेक के साथ साये जैसा रहता है। अब एक अफ्रीकी राजकुमार को क्यों किसी अमरीकी गोरे जादूगर के अंगरक्षक-सहायक की तरह रहना चाहिए? लेकिन रंगभेद को बच्चों के मन में शुरू से ही गहरे जमा देने की यह एक गोरी चाल के अलावा और कुछ नहीं है। गोरी पश्चिमी दुनिया में ऐसी और भी बहुत सी मिसालें फिल्मों में देखने मिलती हैं। फिल्मों में यह बात कई बार मुद्दा रही कि कब कोई काला जेम्स बॉंड बनेगा? पश्चिमी दुनिया से निकली और दुनिया भर में सबसे मशहूर गुडिय़ा बार्बी 1959 में बाजार में उतारी गई, लेकिन पहली काली बार्बी 1980 में बाजार में आ पाई, और इसे लेकर इन 21 बरसों में खूब लिखा गया था।
हम हिन्दुस्तान में बच्चों के लिए लिखे गए एक गाने की चर्चा पहले भी कर चुके हैं, नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए, बाकी जो बचा काले चोर ले गए। अब यह बात बच्चों के मन में इस बात को बिठा देती है कि चोर काले रंग के होते हैं। इसका दूसरा असर यह होता है कि उनमें से कुछ बच्चे चार कदम आगे बढक़र यह भी सोच सकते हैं कि काले लोग चोर होते हैं। गोरी अंग्रेज दुनिया में काले लोगों के खिलाफ कई किस्म की भाषा चलती है, और सभ्यता के विकास के साथ-साथ उनमें से कई शब्दों के खिलाफ कानून भी बना है। लेकिन काले रंग को नकारात्मक, और प्रतिरोध या विरोध का प्रतीक जाने-अनजाने बना दिया गया है। काले झंडे दिखाए जाते हैं, काली रिबिन बांधी जाती है, काला बाजारी होती है, ब्लैक मार्केटिंग, सिनेमा टिकट ब्लैक में बिकती है, सीमेंट ब्लैक मार्केट में बिकता है, हम बचपन से जितना पढ़ते आए हैं काले रंग को लेकर नकारात्मक के अलावा और कुछ नहीं दिखा है। लोग यह लिखते हैं कि फलां का नाम इतिहास में काले अक्षरों में लिखा जाएगा। इस तरह की मिसालें अंतहीन हैं। ईसाई दुनिया में मौत काले लबादे में आती है, और हिन्दुओं में यमराज काले भैंसे पर सवार होकर आता है। यमदूत कभी गोरे नहीं दिखाए जाते, और मौत को लेकर बनने वाले लतीफों को ब्लैक ह्यूमर कहा जाता है। इस तरह हमारी पूरी सांस्कृतिक सोच काले रंग को नकारात्मक बनाने की चली आ रही है। इसलिए कोई हैरानी नहीं है कि भारत जैसे देश में किसी सांवली या काली लडक़ी को ताने मार-मारकर खत्म कर दिया जाता है, उसका आत्मविश्वास तोड़ दिया जाता है। रंगों की राजनीति को कुछ खुले दिल-दिमाग से समझने की जरूरत है, उसके बिना गांधी को उनके रंग के कारण गोरों के राज वाले अफ्रीका की ट्रेन से बाहर फेंक देना जारी रहेगा। ऐसी हो सोच के चलते केरल में इस नौजवान बहू को ससुराल में खुदकुशी करनी पड़ी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मध्यप्रदेश के एक जैन धर्मगुरू बताए गए मनोज भैय्याजी का एक वीडियो देखने मिल रहा है जिसमें वे प्रदेश में जैन मंदिरों पर हिन्दू संगठनों के हमलों पर नाराजगी और निराशा जाहिर कर रहे हैं। उन्होंने वीडियो में बहुत कुछ कहा है, लेकिन हम हफ्ते-दस दिन पहले के ऐसे हमलों में जयश्रीराम के नारे लगाते हुए हिन्दू संगठनों को जैन मंदिरों पर हमला करने की खबरें भी देखते आए हैं, और उसके वीडियो भी देखकर हक्का-बक्का हैं। अभी कल तक की तो बात थी कि जैन समाज राम मंदिर से लेकर बाकी तमाम विवादास्पद हिन्दू मुद्दों पर हिन्दुओं के साथ खड़ा दिखता था। जबकि धर्मस्थलों के मालिकाना हक के बहुत से विवाद ऐसे रहते आए हैं जिनमें ऐसे कई मंदिर रहे हैं जो कि जैनों के थे लेकिन बाद में हिन्दुओं ने उन पर कब्जा करके उन्हें हिन्दू मंदिर बना लिया था। जैन उन पर वापिस कब्जा भी नहीं मांगते, और दूसरी जगहों पर हिन्दू कब्जे में वे हिन्दुओं का साथ देते हैं। ऐसे में इतनी जल्दी जैनों पर हिन्दू हमला हो जाए यह बड़ी अटपटी बात थी, लेकिन मध्यप्रदेश में पिछले ही पखवाड़े यह हुआ है। सागर में जयश्रीराम के नारों के साथ ऐसा हमला हुआ और उसकी पुलिस रिपोर्ट भी हुई है।
दरअसल न सिर्फ भारत का, बल्कि पूरी दुनिया का इतिहास यह बताता है कि पहले तो किसी धर्म के नाम पर दूसरे धर्म के लोगों से खूनी मुठभेड़ होती है, लेकिन जैसे-जैसे दूसरे धर्म के ‘दुश्मन’ घटते जाते हैं, वैसे-वैसे लोग फिर अपने धर्म के ही लोगों में दुश्मन ढूंढने लगते हैं। दुनिया में ईसाईयों के बीच कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट समुदायों के बीच कितने खूनी संघर्ष नहीं हुए, उत्तरी आयरलैंड की राजधानी बेलफास्ट में सडक़ किनारे फुटपाथों पर ईसाई धर्म के इन दो समुदायों के निशान देखे जा सकते हैं, और एक-दूसरे के इलाके में घुसने का मतलब जान से हाथ धो बैठना भी होता है। (अब यह बात इस संपादक ने वहां 25 बरस पहले देखी थी, और हो सकता है कि अब तस्वीर कुछ बदली हो।) पाकिस्तान से आने वाली कितनी ही खबरें बताती हैं कि वहां मुस्लिमों के अलग-अलग कई सम्प्रदायों के बीच खूनी हमले होते हैं, और एक-दूसरे को थोक में मार डाला जाता है। वहां पर अहमदिया मुसलमानों को मुसलमान ही नहीं माना जाता, और उन्हें निशाना बनाकर मारा जाता है, या कई मामलों में उनको पुलिस थाने से खींचकर बाहर निकालकर उनकी भीड़त्या की जाती है। भारत में भी इतिहास हिन्दुओं के भीतर संघर्ष और टकराव से भरा हुआ है। इंटरनेट पर मामूली सी सर्च बताती है कि वैदिक और तपस्वी परंपराओं के बीच टकराव होते रहा, शैव और वैष्णवों के बीच टकराव रहा, और हिन्दुओं का बौद्ध और जैन लोगों से टकराव का लंबा इतिहास है। हिन्दू धर्म से निकली हुई शाखाओं के साथ हिन्दू धर्म का टकराव सदियों तक चला।
मध्यप्रदेश में जिस तरह से सागर में हिन्दू और जैन टकराव खड़ा हुआ है, वह बहुत भयानक है। जैन अपने आपमें सीमित रहने वाला समुदाय है, न तो वह कोई धर्मांतरण करता, न ही किसी से नाहक टकराव करता, जैन धर्म में बाकी लोगों के शामिल होने की बात भी सुनाई नहीं पड़ती, इसलिए भी हिन्दुओं के साथ उनके टकराव की कोई आशंका नहीं बनती है। फिर भी चाहे स्थानीय मुद्दों को लेकर ऐसा बखेड़ा खड़ा हुआ हो, यह निराशा की बात तो है ही। फिर लोगों को यह भी समझने की जरूरत है कि आज देश में जिन दूसरे अल्पसंख्यक धर्मों के साथ हिन्दुत्व के लोगों का टकराव चल रहा है, उसमें एक मामूली समझदारी तो यह होनी ही चाहिए थी कि जैन जैसे लोगों को साथ रखा जाता।
दरअसल दिक्कत यह खड़ी हो जाती है कि जब अपनी जाति या धर्म के नाम पर टकराव का हिंसक मिजाज खड़ा होने लगता है, तो कुछ वक्त गुजर जाए, और हिंसा करने न मिले, तो हाथ खुजाने लगते हैं। जब धर्म के नाम पर टकराव और हिंसा की गुंजाइश कम हो जाती है, तो फिर लोग एक धर्म के भीतर सम्प्रदाय के टकराव खड़े करने लगते हैं, हिन्दुओं के भीतर जातियों के टकराव खड़े होने लगते हैं। हम पिछले कुछ अरसे में अपने आसपास लगातार हिन्दुओं के भीतर अलग-अलग जातियों के लोगों के बीच हिंसा के इक्का-दुक्का मामलों को जातियों के टकराव में बदलते भी देख रहे हैं। यह सिलसिला खतरनाक है जब लोग हर वक्त किसी दुश्मन के साथ ही जीने के आदी हो जाते हैं। जाहिर तौर पर कोई असली दुश्मन सामने न रहे, तो भी लोग हवा में दुश्मन ढूंढने लगते हैं, हवा में लाठियां चलाने लगते हैं। लोग इतनी मामूली समझ भी भूल जाते हैं कि कृष्ण के प्रेम से भरे इस देश में कालीदास के तमाम श्रंगार रस को अनदेखा करके लोग नौजवान प्रेमीजोड़ों पर हमला करने के लिए घर से लाठियों पर तेल लगाकर निकलते हैं। ऐसे जोड़ों का हिन्दू-गैर हिन्दू होना जरूरी नहीं रहता, हिन्दू धर्म के भीतर के लोगों को भी प्रेम करने पर मार डाला जा रहा है, और जब अपने ही धर्म के भीतर, अपनी ही जाति के भीतर हिंसा की गुंजाइश नहीं बचती, किसी दूसरी जाति से टकराव नहीं बचता, तो लोग परिवार के भीतर ही बेटियों को मर्जी का प्रेम करने पर ऑनरकिलिंग के नाम पर मार डालते हैं।
इस तमाम सच्चाई को देखकर एक ही बात समझ में आती है कि जब लोगों के मिजाज में ही भेदभाव, नफरत, और हिंसा को कूट-कूटकर भर दिया जाता है, तो उनके दिल-दिमाग से ये ही चीजें बाहर निकलती हैं। अगर देश-दुनिया को नफरत से बचाना है, तो छांट-छांटकर किसी धर्म, किसी जाति, किसी उपजाति के खिलाफ नफरत भरना, और बाकियों के प्रति प्रेम रखना कामयाब नहीं हो सकता। जब मिजाज ही नफरती हो जाता है, तो फिर वह नफरत अपनी जुगाली के लिए, अपना शौक पूरा करने के लिए कोई न कोई काल्पनिक दुश्मन गढ़ ही लेती है। जब धर्म और जातियां भी दुश्मन गढऩे के लिए काफी नहीं होते, तो फिर लोग पहरावे और खानपान को मुद्दा बनाकर नफरत और हिंसा की गुंजाइश निकाल लेते हैं। तीन चौथाई मांसाहारी आबादी वाले इस देश में बची एक चौथाई आबादी के एक बहुत से छोटे हिस्से की जिद से खानपान की हिंसा चल रही है।
लोगों को हिंसक और नफरती सोच के खतरों को इसलिए भी समझना चाहिए कि एक बार जब दिल-दिमाग में ये दो बातें बैठ जाती हैं, तो फिर वे अगली पीढिय़ों तक भी आगे बढ़ती हैं। हिंसा को खिला-पिलाकर पालना, और उसे नफरत की पीठ पर बैठाकर तबाही के लिए रवाना करना आत्मघाती ही होता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)