संपादकीय
जब दो दिन बाद ही पांच राज्यों के चुनावी नतीजे आने जा रहे हैं, तब कल आए हुए एक्जिट पोल के नतीजों के आधार पर अधिक अटकल लगाना ठीक नहीं है। जिस सर्वे एजेंसी या जिस मीडिया-संस्थान के सर्वे सही निकलेंगे, वे भी चुनावी इतिहास में ठीक से दर्ज हो जाएंगे, जिनके गलत निकलेंगे, उनको भी अगले किसी चुनाव में उनके सर्वे-नतीजों पर चर्चा के दौरान याद रखा जाएगा। आज भी किसी एजेंसी या संस्था के निष्कर्ष पर विचार करते हुए समझदार लोग उनके पहले के अनुमानों की कामयाबी को भी देख लेते हैं। कुछ के अनुमान सचमुच ही सही निकले हुए हैं, और कुछ के तीर निशाने से इतने परे जाकर गिरे थे कि उन्हें कायदे से तो अगले कुछ चुनावों के लिए अपने आपको सर्वे से दूर कर लेना चाहिए। लेकिन ऐसा होता नहीं है। नाकामयाबी के बाद भी लोग अपने पापी पेट के लिए धंधे में तो बने ही रहते हैं। कई उम्मीदवार चुनाव दो-तीन बार हारने के बाद भी चौथी बार लडऩे की हिम्मत भी रखते हैं, और पार्टी की टिकट भी जुटा लेते हैं।
लेकिन हम एक्जिट पोल की बात पर लौटें, तो ऐसे तमाम चुनावी सर्वे पारदर्शी होने चाहिए। उनमें सैम्पल साईज का साफ-साफ जिक्र होना चाहिए, और अगर वे मतदान के पहले के ओपिनियन पोल हैं, तो यह भी जिक्र होना चाहिए कि वे किन तारीखों के बीच किए गए हैं। यह भी जिक्र होना चाहिए कि किसी पार्टी की किसी बड़ी घोषणा के पहले किए गए हैं, या बाद में। हमारा यह भी ख्याल है कि किसी अध्ययन संस्थान को हर बड़े चुनाव के बाद उस पर किए गए ओपिनियन पोल और एक्जिट पोल की कामयाबी या नाकामयाबी पर भी विश्लेषण करना चाहिए, और उसे लोगों के सामने रखना चाहिए। देश में आज कुछ ऐसे जनसंस्थान हैं जो कि चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों का विश्लेषण करके आंकड़े सामने रखते हैं कि किस पार्टी के कितने उम्मीदवार किस-किस किस्म के जुर्म में फंसे हुए हैं, किसकी कितनी दौलत है, किसकी कितनी पढ़ाई-लिखाई है, उन पर कर्ज कितना है। ऐसी एक संस्था चुनाव के बाद यह विश्लेषण भी लोगों के सामने रखती है कि नई बनी संसद या विधानसभा के कितने सदस्य किस उम्र-वर्ग के हैं, कितनों की दौलत कितनी है, महिला और पुरूष का अनुपात क्या है।
हमारा ख्याल है कि मीडिया संस्थानों और सर्वे एजेंसियों के दावों की एक साफ-सुथरी पड़ताल होनी चाहिए कि बीते कई चुनावों में उनके अनुमानों में कितने सही निकले कितने गलत। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि वोटरों को प्रभावित करने के लिए कई किस्म के प्रायोजित ओपिनियन पोल भी होते हैं, कई मीडिया संस्थान अपने पेशे से बिल्कुल परे जाकर राज्यों और मुख्यमंत्रियों की कई तरह की तथाकथित रैंकिंग भी करते हैं, और उन्हें झूठी शोहरत हासिल करने के मौके बेचते हैं। यह सारा सिलसिला उजागर होना चाहिए। सत्ता के हाथों में खेल रहे मीडिया संस्थानों से परे जनता को हकीकत पता लगना चाहिए। और इसके लिए एक स्वतंत्र जनसंगठन की जरूरत है, या किसी प्रतिष्ठित अध्ययन और शोध संस्थान की, जो कि न मीडिया के कारोबार में हो, और न ही सर्वे के कारोबार में।
अगर जनता का रूझान जानने का कोई जरिया हो सकता है, तो उसका इस्तेमाल एक लोकतांत्रिक औजार की तरह तो ठीक है, लेकिन भाड़े के हत्यारे किराए पर लेने की ताकत रखने वाले उम्मीदवार, या ऐसी ताकतवर पार्टी के लिए हथियार की तरह अगर इनका इस्तेमाल होने लगेगा, लंबे समय से हो भी रहा है, तो फिर इन धंधों की साजिशों का भांडाफोड़ होना भी जरूरी है। आज भी जब हम ओपिनियन पोल या एक्जिट पोल को एक नजर में देखते हैं तो कम से कम कुछ मीडिया संस्थानों के पेश किए गए आंकड़े साफ-साफ उस संस्थान के पूर्वाग्रहों से दबे-कुचले दिखते हैं। कुछ ऐसे टीवी चैनल या प्रकाशन समूह हैं जो कि जिस राजनीतिक प्रतिबद्धता के साथ रोज जहर उगलते हैं, उसी प्रतिबद्धता के साथ उनके सर्वे के आंकड़े भी सामने आते हैं। उन्हें देखकर लगता है कि सर्वे एजेंसी भी अपने साथ काम करने वाले मीडिया संस्थान के प्रति प्रतिबद्धता अधिक दिखाती हैं, सच के प्रति कम। इसलिए इस पूरे धंधे की जवाबदेही तय होनी चाहिए। एक ऐसा अध्ययन हर चुनाव के पहले सामने आना चाहिए कि उस प्रदेश या पूरे देश के पिछले कई चुनावों में किसके सर्वे के आंकड़े निशाने पर थे, या निशाने से कितने दूर थे। जब लोगों के सामने इस धंधे की शोहरत की हकीकत उजागर होगी, तो फिर लोग विश्वसनीयता का अपना पैमाना बनाकर ही किसी के आंकड़े देखेंगे।
इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के ओपिनियन पोल, और एक्जिट पोल को नतीजों के साथ जोडक़र उसका एक विश्लेषण करने की कोशिश हम भी करेंगे, लेकिन इसके लिए एक बड़ी रिसर्च टीम की जरूरत होगी जो कि कोई बड़ा जनसंगठन, या कोई शोध संस्थान आसानी से जुटा सकते हैं। हमारा तो यह भी मानना है कि आईआईएम जैसे देश के प्रतिष्ठित मैनेजमेंट शिक्षण संस्थान को लोकतंत्र के चुनाव, जनमत, और तरह-तरह के पोल का प्रबंधन भी पढ़ाना चाहिए, और इन संस्थानों को इन पर लगातार शोध करके अपनी रिपोर्ट लोगों के सामने रखना चाहिए। जब देश में इतने काबिल संस्थान हैं जहां से निकले हुए लोग पूरी दुनिया के कारोबार-जगत पर राज करते हैं, तो क्षमता का इस्तेमाल भारत के लोकतंत्र को अधिक पारदर्शी बनाने के लिए भी करना चाहिए। हम तो यह भी चाहेंगे कि अलग-अलग पार्टियों के चुनावी वायदों और उनके आर्थिक पहलुओं पर भी मैनेजमेंट संस्थानों को रिसर्च-रिपोर्ट बनानी चाहिए। और इस पर भी रिसर्च करना चाहिए कि चुनाव जीतने की राजनीतिक लागत से परे सरकारी लागत कितनी आती है ताकि यह साफ हो कि महज चुनाव जीतने के लिए विकास की संभावनाओं को किस हद तक गिरवी रख दिया जाता है, या बेच दिया जाता है। लोकतंत्र में चुनाव और शासन, संसद-विधानसभा, मीडिया, जनमत, इन सारे पहलुओं पर अधिक विस्तार से, अधिक गहराई से, गंभीर पारदर्शी रिसर्च होनी चाहिए, और उसके नतीजों को जनता के सामने रखना चाहिए। ऐसे राजनीतिक शिक्षण से ही लोगों की लोकतांत्रिक-चेतना बेहतर हो सकती है।
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मोर्चे पर भारत के लिए एक नई दिक्कत आ खड़ी हुई है। कुछ महीने पहले कनाडा ने भारत पर यह आरोप लगाया था कि उसने कनाडा की जमीन पर, एक कनाडाई नागरिक का कत्ल करवाया जो कि खालिस्तानी आंदोलनकारी था। इसके बाद से कनाडा और भारत के कूटनीतिक संबंध शायद इतिहास में सबसे नीचे गिर गए हैं। जबकि भारत के लाखों लोग कनाडा में काम करते हैं, और उनके भेजे हुए अरबों रूपए हर महीने भारत में उनके परिवारों तक आते हैं, और भारत को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा मिलती है। इसके अलावा कनाडा को जिस बड़ पैमाने पर छात्रों और कामगारों की जरूरत है, वह भी भारत से पूरी होती है। लेकिन इतने जटिल अंतरसंबंधों के बावजूद खालिस्तान समर्थक नेता की कनाडा में हत्या में भारत का हाथ होने का संदेह कनाडा के लिए बहुत बड़ा था, जहां पर कि मानवाधिकारों का एक अलग पैमाना है। दूसरी तरफ भारत का हाल यह है कि यहां पर एक बड़ा तबका इस बात को लेकर खुश है कि भारत ने अपने एक अलगाववादी को अगर विदेश में कहीं मरवा भी दिया है, तो भी उसमें गलत क्या है, और इससे भारत की ताकत ही साबित होती है। जब अमरीका ने इस मामले में फिक्र जताई थी, तो भारत के लोगों ने अमरीका के खिलाफ यह लिखा था कि वह भी तो दुनिया भर में अपने दुश्मनों का कत्ल करवाते ही रहता है, और ताजा मिसाल की शक्ल में लोगों ने अमरीकी फौज के पाकिस्तान में घुसकर ओसामा-बिन-लादेन को मारने की बात भी गिनाई थी। इसके बाद से पाकिस्तान मेें एक-एक करके ऐसे कई लोगों का एक ही अंदाज में मोटरसाइकिल से पहुंचे हत्यारों ने कत्ल किया जिन्हें भारत ने आतंकी घोषित किया हुआ है। कोई सुबूत न होने से, और कोई आरोप न लगने से भारत शक के किसी कटघरे में अभी नहीं है, लेकिन लोगों ने ऐसे सिलसिले को इससे जोडक़र जरूर देखा है कि भारत के विरोधी करार दिए गए ऐसे आतंकी सिलसिलेवार ढंग से, एक ही तरीके से मारे जा रहे हैं।
लेकिन आज सामने आया अमरीका का एक मामला भारत के लिए अब तक का इस किस्म का सबसे फिक्र का मामला है क्योंकि अमरीका की एक अदालत में पब्लिक प्रॉसिक्यूटर ने यह मामला पेश किया है कि निखिल गुप्ता नाम के एक भारतीय नागरिक ने अमरीका में एक खालिस्तान-समर्थक सिक्ख को कत्ल करने के लिए वहां एक लाख डॉलर का ठेका दिया था। अदालत में पब्लिक प्रॉसिक्यूटर ने यह कहा है कि इस भारतीय नागरिक ने अमरीका में जिसे कत्ल का यह ठेका दिया था, वह अमरीकी सरकार का जासूस ही था। ऐसा कहा जा रहा है कि भारत में बैठे सरकार के एक अफसर ने अमरीका में एक भारतीय नागरिक के माध्यम से हत्या का यह ठेका दिया था, और अमरीकी सरकार ने समय पर इस साजिश को पकड़ लिया क्योंकि जिसे हत्यारा मानकर ठेका दिया गया था, वह एक खुफिया अमरीकी जासूस या खबरी ही था। अमरीका के पब्लिक प्रॉसिक्यूटर ने कहा है कि अमरीकी जमीन पर किसी अमरीकी नागरिक के खिलाफ ऐसी साजिश बर्दाश्त नहीं की जाएगी, और अमरीकी सरकार ने निखिल गुप्ता नाम के इस भारतीय को भारत में बैठे जिस अफसर से यह काम दिया गया था, उस अफसर का नाम फिलहाल अमरीका के पब्लिक प्रॉसिक्यूटर ने अदालत में उजागर नहीं किया है।
अब कुछ महीनों के भीतर कनाडा से लेकर पाकिस्तान और अमरीका तक अगर ऐसी घटनाएं हो रही हैं, और खासकर दो पश्चिमी देशों कनाडा और अमरीका में इन्हें लेकर जांच चल रही है, और अमरीका में तो मुकदमा शुरू हो गया है, तो यह बात भारत के एक तबके के राष्ट्रोन्माद को तो ठीक लग सकती है कि मोदी है तो मुमकिन है, लेकिन यह अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भारत की स्थिति को कमजोर करती है, कनाडा और अमरीका जैसे बड़े देशों के साथ उसके रिश्तों पर इससे बड़ी आंच आ सकती है। अमरीका एक ऐसा देश है जहां पर पब्लिक प्रॉसिक्यूटर सरकार से अलग रहते हैं, और वे अपनी मर्जी से काम करते हैं। वे भारत के सरकारी वकीलों की तरह नहीं रहते, बल्कि एक स्वतंत्र संस्था रहते हैं। वहां की लोकतांत्रिक-साख के मुताबिक वहां की सरकार न तो देश के वकील को, और न ही अदालतों को प्रभावित कर सकती। ऐसे में यह मामला भारत के लिए कनाडा के मामले के मुकाबले बहुत अधिक खतरे का हो सकता है, क्योंकि कनाडा में तो अभी जांच रिपोर्ट भी उजागर नहीं हुई है, और अमरीका में तो मुकदमा शुरू हो चुका है।
हो सकता है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकारें अपने देश के दुश्मन करार दिए गए लोगों की ऐसी सुपारी-हत्याएं करवाती रहती हों, लेकिन ये तभी तक चल पाती हैं जब तक कि कोई सरकार उसमें फंसती नहीं हैं। या तो फिर अमरीका की तरह इतने दम-खम वाला देश रहे जो कि पाकिस्तान के भीतर घुसकर एक फौजी कार्रवाई में ओसामा-बिन-लादेन का कत्ल कर सके, और उसकी लाश को भी दुनिया के सामने पेश करने से इंकार कर दे। भारत के सामने अमरीकी अदालत में आया यह ताजा मामला बताया जाता है कि कुछ महीने पहले से भारत की जानकारी में लाया गया था। आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत और अमरीका एक-दूसरे पर कई किस्म से निर्भर देश हैं। और ऐसे में हो सकता है कि सरकारों के स्तर पर इस मामले को अधिक न कुरेदा जाए, लेकिन अमरीका में पब्लिक प्रॉसिक्यूटर, सरकार के न होकर जनता के वकील रहते हैं, और ऐसे पब्लिक प्रॉसिक्यूटर सरकार के काबू के बाहर भी रहते हैं। इसलिए यह मामला कहां तक आगे बढ़ेगा यह समझना मुश्किल है। दूसरी बात यह भी है कि कनाडा और अमरीका के अलावा ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन जैसे कई और पश्चिमी देश हैं जहां पर खालिस्तान-समर्थक आंदोलनकारी सक्रिय हैं, और इन तमाम देशों के लिए यह एक कूटनीतिक-समस्या रहेगी कि वे भारत पर लगी इन तोहमतों को किस तरह से देखें, और कनाडा और अमरीका के मामलों में उन देशों के साथ खड़े रहें, या कि भारत पर लगी तोहमतों को अनदेखा करें?
उत्तराखंड में सुरंग में फंसे हुए मजदूरों का जिंदा निकल पाना एक करिश्मे जैसा था। उनके साथ धंसी हुई, और धसक रही सुरंग के कई किस्म के और खतरे हो सकते थे। हिमालय पर्वतमाला की बहुत नाजुक और कमजोर पहाडिय़ों पर तरह-तरह के दुस्साहसी सरकारी और कारोबारी प्रयोग किए जा रहे हैं, जिनमें अरबों रूपए का खेल हो रहा होगा। ऐसी बहुत सी सुरंगें बन रही हैं, और अब ऐसे पहले बड़े हादसे के बाद सवाल यह उठ रहा है कि कई किलोमीटर की बन रही इस सुरंग से किसी हादसे की हालत में निकलने की कोई भी तैयारी क्यों नहीं रखी गई थी। तैयारी तो दूर इसका इंतजाम भी नहीं था। लेकिन भीतर जो 41 मजदूर कैद थे, उन्होंने शायद जिंदगी भर ईमानदार का पसीना बहाकर जिंदगी चलाई थी, और कुदरत ने उन्हें वह जिंदगी वापिस कर दी, वे इतने विकराल खतरे के बीच से भी निकलकर आ गए।
जब दुनिया भर की बड़ी-बड़ी मशीनों ने, और दुनिया भर से आए विशेषज्ञों ने एक किस्म से हाथ खड़े कर दिए, और प्रयोग की तरह कई जगह छेद किए जा रहे थे जिनका बड़ा खतरा भी था, तो वैसे में हिन्दुस्तान में गैरकानूनी करार दी जा चुकी ‘रैट-होल माइनिंग तकनीक’ का इस्तेमाल किया गया, और चूहों के बिल की तरह जमीन में हाथों के औजारों से सुरंग खोदते हुए पेशेवर मजदूर भीतर फंसे 41 मजदूरों तक पहुंचे, और उन्हें लेकर बाहर आए। 17 दिनों से मशीनों ने जो काम पूरा नहीं किया था, उसका आखिरी एक बड़ा हिस्सा छेनी-हथौड़ी से काम कर रहे इन मजदूरों ने कर दिखाया। ये मजदूर दिल्ली में बड़ी नालियों और गटर के पाईप साफ करने वाली कंपनी में काम करते हैं, और वहां से आए लोगों में मुन्ना कुरैशी भी थे जो कि सबसे पहले मजदूरों तक पहुंचे, और उन्हें हौसला देकर बाहर निकालना शुरू किया। उनके अलावा ऐसे ही चूहे के बिल की खुदाई के एक और जानकार फिरोज भी थे, और उन्हें भी फंसे हुए मजदूरों ने खूब दुआएं दीं। मौके पर बहुत से और अफसरों के साथ-साथ इस अभियान की इंचार्ज एजेंसी, एनडीआरएफ के एक मेम्बर, रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल सैय्यद अता हसनैन भी वहां तैनात थे, और उन्होंने बताया कि 24 घंटे से भी कम समय में रैट होल माइनर्स ने 10 मीटर सुरंग बना दी, और फंसे हुए मजदूरों तक पहुंच गए। इन कुछ नामों का जिक्र हम इसलिए कर रहे हैं कि वहां मिट्टी और मलबे से लथपथ, हेलमेट पहने लोगों की पोशाक से शायद उनके धर्म का पता न चल सका हो। मीडिया के काफी लोग चूंकि नामों को लिखने से बच रहे हैं इसलिए कुछ नामों का जिक्र जरूरी है ताकि अगली बार जब देश के कुछ लोगों की हसरत देश के एक तबके को पाकिस्तान भेजने की हो, तो वे इस बात को याद रखें कि पाकिस्तान से तो मुन्ना कुरैशी और फिरोज मजदूरों की जान बचाने यहां आ नहीं सकते थे। इसलिए किसी और वजह से न सही, कम से कम आड़े वक्त पर महानगरों के नाले-गटर साफ करने के लिए, सुरंगों में फंसे मजदूरों को निकालने के लिए तो ऐसे लोगों को यहां रखा जाए। अभी हम नाम देख रहे हैं, तो इन 41 मजदूरों में सिर्फ एक, सबाह अहमद ही मुस्लिम दिख रहा है, बाकी सारे के सारे मजदूर गैरमुस्लिम दिख रहे हैं। इनमें से कुछ तो महादेव, गणपति, राममिलन, रामसुंदर, भगवान, रामप्रसाद भी थे। मजदूरों की पोशाक से न सही उनके नाम से ही कुछ तो समझ पड़ता है। तकरीबन सारे के सारे, 40 मजदूर हिन्दू ही दिखते हैं। सोशल मीडिया पर कुछ और लोगों ने चूहे के बिल की तरह की सुरंग खोदकर लोगों को बचाने वाले मजदूरों में मोहम्मद नसीम, वकील, मुन्ना, फिरोज, मोनू, इरशाद, अंकुर, राशिद, जतिन, नासीर, सौरव, और देवेन्द्र के नाम लिखे हैं। इनके कपड़ों से कीचड़ मिट्टी धुल जाए तो फिर इन्हें अलग-अलग करने की कोशिश आगे बढ़ाई जा सकती है।
देश में लोगों को अलग-अलग बांटने की कोशिशें आम लोग ही नाकाम कर सकते हैं, अगर वे नफरत के जहर के असर से बर्बाद न हो चुके हों। कहीं क्रिकेट के मैदान पर, तो कहीं बेदिमागी से बनाई जा रही सरकारी सुरंगों के बीच, जिस तरह लोग उनके मजहब के कपड़ों की उड़ाई गई खिल्ली को अनदेखा करके देश के लिए लगे हुए हैं, वह फख्र की बात है। कायदे से तो जब किसी पूरे तबके को रात-दिन धिक्कारा जा रहा हो, नफरत का सामान बना दिया गया हो, तब यह नौबत फिक्र की होनी चाहिए थी, लेकिन घटिया नेताओं के बावजूद बेहतर इंसान बने हुए आम लोग हैं कि वे फिक्र की नौबत को फख्र में तब्दील करते हैं। जिस अंदाज में सुरंग का आखिरी का दस मीटर का यह हिस्सा एक दिन में इन मजदूरों ने हाथों से बना दिया, उसने नफरत के साथ-साथ मशीनों को भी एक चुनौती दी है कि इंसान की जरूरत अभी तक पूरी खत्म नहीं हुई है, और कई ऐसी नौबतें आएंगी जहां पर मशीनें इंसानों के मुकाबले कुछ फीकी और कमजोर भी साबित हो सकती हैं। फंसे हुए मजदूरों और बाहर काम कर रहे मजदूरों ने आज एक सवाल भी खड़ा किया है कि हिमालय पर्वतमाला के इस सबसे ही नाजुक, भूकम्प और भूस्खलन के खतरे वाले इलाके में बनाई जा रही ऐसी सुरंगों से हिफाजत कैसे की जा सकेगी?
यह एक मौका है जब देश को धरती से दुस्साहस खिलवाड़ की कोशिशों को रोककर एक बार फिर दुनिया के जानकार लोगों से राय लेनी चाहिए। न सिर्फ सुरंगों के मामले में, बल्कि पहाड़ों पर बांधों के बारे में, पहाड़ी इलाकों में अंधाधुंध चौड़ी सडक़ें बनाकर ट्रैफिक को अंधाधुंध बढ़ाने के मामले में, ऐसे कई मामलों में सरकारों को अपने फैसलों पर फिर से गौर करना चाहिए। इस बार तो ये मजदूर बच गए हैं, लेकिन हर बार इन इलाकों के ऐसे हादसों में सब लोग शायद न बच पाएं। इंसानों को धरती को समझने की रफ्तार से सौ गुना अधिक रफ्तार से इसके साथ एक दुस्साहसी छेडख़ानी करना बंद करना चाहिए। हर इलाका हर किस्म के विकास के लायक नहीं होता है। इसलिए इस किस्म की जो बाकी सुरंगें बन रही हैं, उनके बारे में सरकारी असर के बाहर के अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों से राय लेनी चाहिए। और इसके साथ-साथ देश में पोशाकों से लोगों को पहचानना बंद भी करना चाहिए।
बिहार में स्कूल-छुट्टियों की अगले बरस की जो लिस्ट आई है उसमें मकर संक्रांति, रक्षाबंधन, भाईदूज, और (हरतालिका) तीज की छुट्टियां रद्द कर दी गई हैं। सरकार का कहना है कि साल में कम से कम 220 दिन स्कूल खुलें इस हिसाब से छुट्टियां घटाई गई हैं। बिहार से केन्द्र सरकार में मंत्री गिरिराज सिंह ने इसे एक तुगलकी फरमान ठहराया है, और कहा है कि हिन्दुओं के महापर्व शिवरात्रि, जन्माष्टमी पर छुट्टियां काट दी गई हैं, और ईद और बकरीद जैसे मुसलमानों के त्यौहारों पर छुट्टियां बढ़ा दी गई हैं। अपने मिजाज और अपनी सोच के मुताबिक गिरिराज सिंह का कहना है कि बिहार सरकार इस्लामिक आधार पर काम कर रही है, इसी वजह से अररिया, पूर्णिया और कटिहार की स्कूलों में शुक्रवार की छुट्टी दी जा रही है। उन्होंने कहा कि ये सरकार शुक्रवार को इस्लामिक छुट्टी बनाने की योजना बना रही है। यही आरोप बिहार के एक दूसरे बीजेपी सांसद सुशील मोदी ने लगाया है कि हिन्दुओं के पर्वों पर छुट्टियां रद्द कर दी गई हैं, और मुसलमानों के त्यौहारों पर छुट्टियां बढ़ा दी गई हैं। बिहार बीजेपी ने इसे इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ बिहार बताकर ट्विटर पर पोस्ट किया है। बिहार में सत्तारूढ़ जेडीयू का कहना है कि शिवरात्रि की छुट्टी रद्द नहीं हुई है, यह आरोप गलता है, बल्कि दशहरे की छुट्टी एक दिन बढ़ा दी गई है। उन्होंने कहा कि यह भी सही है कि अल्पसंख्यकों की छुट्टी बढ़ा दी गई है, हालांकि एक मुस्लिम छुट्टी घटा दी गई है। बिहार में पिछले बरस भी छुट्टियों में बदलाव को लेकर विवाद हुआ था।
हम सिर्फ बिहार के मुद्दे पर अधिक खुलासे में जाना नहीं चाहते, किस धर्म की कितनी छुट्टियां रहें, और किस त्यौहार पर कितने दिन रहें, कितनी छुट्टियां सबके लिए रहें, और कितनी छुट्टियां मर्जी से लेने की रहें, इसे लेकर कई तरह की तरकीबें निकाली जा सकती हैं। लेकिन हमारा सबसे ऊपर यह मानना है कि चाहे सरकारी दफ्तर रहें, चाहे स्कूल-कॉलेज रहें, सबसे पहले तो कामकाज और पढ़ाई-लिखाई के न्यूनतम दिन तय होने चाहिए। उसके बाद ही किसी तरह की छुट्टी के बारे में सोचा जाना चाहिए। आज हिन्दुस्तान की संस्कृति कामकाज से ऊपर उठ गई है, और अब महज छुट्टियों की बात होती है। काम या पढ़ाई की जिम्मेदारी की बात नहीं रहती, सिर्फ अधिकारों की बात होती है। यह सिलसिला देश को गड्ढे में ले जा रहा है क्योंकि लोगों की जिंदगी के दिन सीमित रहते हैं, उनके पढ़ाई के दिन और कामकाजी दिनों की भी सीमा रहती है, और सरकारी नौकरी से रिटायर होने के बाद उन्हें पुरानी पेंशन योजना के तहत अधिक भुगतान होना चाहिए, यह देश में आज एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है।
हम इन तमाम मुद्दों को एक साथ लेकर इसे सुलझाए न जा सकने वाले ऊन के उलझे हुए गोले जैसा नहीं बनाना चाहते। इसलिए एक सीधी सरल बात यह है कि छुट्टियां कितनी हों, और कब-कब हों, इन्हें तय करते हुए यह भी देखना चाहिए कि छुट्टियों से परे कर्मचारियों या छात्र-छात्राओं का जो बुनियादी काम है उसके लिए कितना वक्त तय किया जा रहा है? कहने के लिए दर्जनों धार्मिक त्यौहारों पर, और दर्जनों जयंती या पुण्यतिथि पर लोगों को छुट्टियां मिलती हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि उनमें से बहुत कम से उनका ऐसा लेना-देना रहता है कि उन्हें अपने बुनियादी काम से परे इस छुट्टी से जुड़ी बातों को पूरा करना पड़े। किसी महान व्यक्ति की जन्मतिथि या पुण्यतिथि पर मिली छुट्टी उनके प्रति सम्मान के प्रदर्शन के अलावा क्या होती है? क्यों गांधी जयंती पर, या नेहरू के जन्मदिन पर छुट्टी होनी चाहिए? क्यों किसी शहादत के दिन छुट्टी होनी चाहिए? लोगों को अगर सचमुच किसी का सम्मान करना है, तो उस दिन लोग एक-दो घंटे अधिक काम कर लें, छात्र-छात्राएं दो-चार घंटे अधिक पढ़ लें। और अगर इतने से भी सम्मान पूरा नहीं होता है तो फिर लोग अपने दफ्तर या स्कूल-कॉलेज के बाद कुछ घंटे की समाजसेवा कर लें, गांधी या नेहरू या किसी और की स्मृति के लिए यह बेहतर तरीका होगा। लोग सफाई कर लें, पेड़ लगा लें, अस्पताल जाकर गरीब मरीजों की मदद कर दें, खुद सेहतमंद हों तो रक्तदान कर दें, सडक़ किनारे कोई बीमार और भूखे दिखें, तो उन्हें कुछ खिला दें, फुटपाथी बच्चों को कोई कपड़े दिलवा दें। किसी त्यौहार या खास दिन को मनाने के हजार ऐसे तरीके हो सकते हैं जो कि छुट्टियों से परे के हों। और इसके बाद सरकार चाहे तो हर किसी को यह छूट दे सकती है कि वे साल में कितने दिन छुट्टी ले सकते हैं, ताकि वे अपनी मर्जी से, अपनी जरूरत के मुताबिक छुट्टी लें, और उसका इस्तेमाल भी कर सकें। वैसे भी छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में, और पूरी की पूरी केन्द्र सरकार में पांच दिन का ही हफ्ता होता है, और लोग साल में 104 दिन तो सप्ताहांत की छुट्टी ही मनाते हैं। इससे परे बहुत से और त्यौहार हैं, दिवस हैं, और बीच में पडऩे वाले इक्का-दुक्का कामकाजी-दिनों पर लोग और छुट्टियां ले लेते हैं ताकि उन्हें एक साथ कई दिन की छुट्टी मिल जाए। ऐसा लगता है कि छुट्टियों का इंतजाम करना, और बाकी वक्त उनका इंतजार करना ही हिन्दुस्तान का वर्क-कल्चर हो गया है। देश-प्रदेश में कहीं भी लोग कामकाज या पढ़ाई के लिए आंदोलन करते नहीं दिखते। जिन छात्र-छात्राओं की आगे की जिंदगी स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई पर है, वे भी पढ़ाई की मांग नहीं करते। कुछ गिने-चुने मामलों में स्कूली बच्चे जरूर हड़ताल पर दिखते हैं, जहां उन्हें पढ़ाने के लिए कोई शिक्षक नहीं हैं, या 6-8 कक्षाओं को पढ़ाने के लिए एक ही शिक्षक है। इन बच्चों को छोडक़र कहीं कोई पढ़ाई के लिए हड़ताल करते नहीं दिखते। फिर चाहे आगे जाकर उनकी बाकी जिंदगी पढ़ाई की कमी से बर्बाद ही क्यों न हो जाए। ठीक ऐसा ही हाल सरकारी कर्मचारियों का रहता है जो कि काम की जवाबदेही की बात भी करना नहीं चाहते, और महज छुट्टियों और सहूलियतों को लेकर हंगामा करते हैं।
हम बिहार के इस हिन्दू-मुस्लिम छुट्टी-विवाद में पड़े बिना सिर्फ यह कह रहे हैं कि देश में सभी तरह की छुट्टियां खत्म कर देना चाहिए, और एक गिनती जारी कर देनी चाहिए कि कौन लोग कितने दिन की छुट्टियां ले सकते हैं, एक साथ अधिकतम कितने दिन की ले सकते हैं ताकि पढ़ाई और काम बर्बाद न हों। 15 अगस्त और 26 जनवरी की छुट्टी भी कौन लोगों में देश के लिए कोई परवाह पैदा कर पाती हैं। अगर परवाह ही पैदा हुई रहती तो लोग देश के लिए अधिक काम करने की बात करते, अधिक छुट्टियां जुटाने के लिए संघर्ष नहीं करते। महान व्यक्तियों के स्मृति दिवसों पर, या त्यौहारों पर छुट्टी को लोगों की मर्जी पर छोडऩा चाहिए, जिनका उनसे लेना-देना न हो, वे क्यों काम या पढ़ाई न करें? छुट्टियों का जिंदगी में राजनीति से अधिक इस्तेमाल होना चाहिए। देश या प्रदेश के स्तर पर कोई भी छुट्टी तय नहीं होनी चाहिए, और गिनी-चुनी छुट्टियां जिला या शहर स्तर पर तय हों, और बाकी छुट्टियां लोगों को मर्जी से लेने दी जाएं।
चीन के कुछ हिस्सों में अचानक बच्चे सांस की बीमारी से जूझ रहे हैं। उनके फेंफड़ों में जलन हो रही है, तेज बुखार और फ्लू जैसे लक्षण हैं। उत्तरीय चीन में इसे फैलने से रोकने के लिए स्कूलें बंद कर दी गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने फिक्रमंद होकर चीन से इस बारे में जानकारी मांगी है क्योंकि जब कोरोना का विस्फोट चीन में हुआ था, तो उसने बड़े संदिग्ध तरीके से जानकारी बाकी दुनिया से छुपाई थी। इस बार चीन के अफसरों का कहना है कि अभी बच्चों में जो संक्रमण फैला है वह मार्च तक जारी रह सकता है, और उसके अलावा कोरोना का संक्रमण फिर से होने की चेतावनी भी दी गई है। वहां से आई खबरें बताती हैं कि अस्पताल भर गए हैं, और डॉक्टर को दिखाने में ही लोगों को घंटों इंतजार करना पड़ रहा है। कोरोना प्रतिबंध हटाने के बाद यह ठंड का पहला मौसम है, और इसमें मौसमी सर्दी-बुखार के साथ-साथ एक बार फिर कोरोना का संक्रमण फैलने का खतरा माना जा रहा है। चीन की सरकार ने लोगों को मास्क पहनने कहा है, और यह भी कहा है कि स्कूलों और नर्सिंग होम जैसी भीड़भाड़ वाली जगहों पर बीमारी फैलने का खतरा है इसलिए लोग इससे बचें। भारत सरकार ने चीन के इस ताजा संक्रमण को देखते हुए देश के सभी प्रदेशों को सावधान किया है, और कहा है कि सांस से संबंधित बीमारियों से निपटने की अपनी तैयारी आंक लें, और बच्चों और किशोर उम्र लोगों की बीमारी पर बारीकी से नजर रखें। राज्यों को याद दिलाया गया है कि ऑक्सीजन, वेंटिलेटर जैसे उपकरणों की उपलब्धता और क्षमता को भी तौल लिया जाए।
हिन्दुस्तान किसी भी नसीहत और सदमे से बड़ी तेजी से उबर जाता है। कई बरस पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक झाड़ू थाम लिया था, और पूरे देश को साफ-सफाई करने और रखने के लिए कहा था। नतीजा यह हुआ कि देश में जितने कैमरे थे उतने झाड़़ू सामने आ गए, और बहुत सी जगहों पर तो नेताओं के साफ करने के लिए साफ-सुथरा ‘कचरा’ बिखेर दिया जाता था जिन्हें लोग कैमरों के सामने साफ करते दिखते थे। लेकिन लोग उससे बड़ी तेजी से उबर गए। कुछ महीनों के भीतर लोग फिर चारों तरफ गंदगी फैलाने लगे, और मोदी के आव्हान के बाद की एक दीवाली छोड़ बाद की किसी दीवाली पर लोगों ने पटाखों का कचरा भी नहीं हटाया। इसी तरह जब कोरोना का हमला हुआ, तो लोग अचानक मास्क लगाकर रहने लगे, हाथ साफ रखने लगे, लापरवाही से खाना-पीना बंद कर दिया, और साल-दो साल के भीतर ही आज हालत यह है कि लोग पुराने ढर्रे पर लौट गए हैं, और देश में साफ-सफाई की तहजीब पूरी तरह गायब हो चुकी है। लोगों का बस चले तो अब पखाने के बाद भी हाथ न धोएं।
इसी तरह देश-प्रदेश की सरकारों ने जिस युद्धस्तर पर कोरोना से लडऩे के लिए अस्पतालों को तैयार किया था, मशीनें खरीदी थीं, वह सब कुछ शायद ही दुबारा इस्तेमाल के लायक बचा हो। वेंटिलेटर जैसे नाजुक सामान चलाने के लिए उस वक्त भी स्वास्थ्य कर्मचारियों की ट्रेनिंग नहीं थी, और उसके बाद से तो अब ऐसा कुछ सुना भी नहीं गया। देश-प्रदेश की सरकारों में स्वास्थ्य कर्मचारी तो करोड़ों की संख्या में होंगे, लेकिन कोरोना के जाने के बाद से किसी और संक्रामक महामारी के लिए इन कर्मचारियों की ट्रेनिंग हुई हों ऐसा कभी सुना भी नहीं गया। सरकारों में नौकरी पाने तक लोगों की दिलचस्पी रहती है, और नौकरी में आ जाने के बाद उनकी अगली दिलचस्पी ओल्ड पेंशन स्कीम लागू होने, और महंगाई भत्ता मिलने तक सीमित रह जाती है। नेताओं की दिलचस्पी उम्मीदवारी पाने, चुनाव जीतकर मंत्री बनने, और उसके बाद कमाऊ विभाग पाने तक सीमित रहती है। इसके बाद कमाने का रास्ता तो उन्हें पेशेवर आला अफसर दिखा ही देते हैं जिनमें वे भागीदार भी रहते हैं। ऐसे देश में किसी खतरे के लिए तैयारी की जागरूकता किसी में नहीं रहती।
अभी उत्तराखंड में जिस बन रही सुरंग में फंसे मजदूरों को एक पखवाड़ा होने को है, उस सुरंग से ऐसे किसी हादसे से निकलने का कोई रास्ता ही नहीं रखा गया था। मजदूरों की जान की हिफाजत शायद सत्ता की आखिरी प्राथमिकता रहती है। और अभी देश में करीब दर्जन भर और ऐसी सुरंगें बन रही हैं, और यह हादसा होने के बाद अब जाकर सरकार इस बात के लिए तैयार हो रही है कि बाकी सुरंगों का भी सुरक्षा ऑडिट करवाया जाए। जब हजारों करोड़ की ऐसी विनाशकारी योजनाएं नाजुक पहाड़ों के नीचे से बनाई जा रही हैं, तब किसी सुरक्षा ऑडिट की बात इसलिए नहीं की गई होगी कि इसमें हजारों करोड़ का ठेका रहा होगा, और इतना बड़ा केक कटने पर सबको उसका एक-एक टुकड़ा तो मिलता ही है। पिछले कोरोना के दौर में वेंटिलेटर जैसी जान बचाने वाली मशीन को बनाने के लिए कई तरह के कारखानों का इस्तेमाल किया गया था, और पीएम केयर्स नाम के बनाए गए एक फंड से जो वेंटिलेटर खरीदे गए थे, उसमें बड़ी संख्या में खराब भी निकलने की खबरें थीं। ऐसी तमाम बातों को देखें तो लगता है कि यह भ्रष्ट, बेईमान, लापरवाह, और इन सबके बावजूद आत्ममुग्ध और गौरव में डूबा देश किसी भी बड़ी मुसीबत को झेलने लायक नहीं है।
चीन के बारे में जितने किस्म की खबरें आती हैं, उनसे साजिश की ऐसी कहानी भी बनते दिखती है कि चीन तरह-तरह की संक्रामक बीमारियां फैलाने वाले वायरस के प्रयोग करते ही रहता है, और हो सकता है कि वह किसी घोषित या अघोषित युद्ध में दुश्मन देश पर इनसे हमला भी करे। भारत जैसे देश के साथ एक दिक्कत यह है कि अगर किसी अपराधकथा की तरह उस पर ऐसा बायोलॉजिकल हमला होता है, तो उससे इलाज की मशीनें भी उसे चीन से ही खरीदनी पड़ेंगी, अधिकतर दवाओं का कच्चामाल भी चीन से ही आता है। यह कुछ उस किस्म का मामला हो सकता है कि कम्प्यूटर वायरस से हिफाजत के सॉफ्टवेयर बनाने वाली कंपनियां ही पहले कम्प्यूटरों पर वायरस-हमला करवाएं, और फिर परेशान ग्राहकों के बीच आसानी से अपना सामान बेचें। भारत जैसे भ्रष्ट देश में न तो सरहद पार से आने वाली ऐसी किसी बीमारी से बचाव की तरकीबें हैं, और न ही इस देश के लोगों को साफ-सुथरा रहने की आदत है। इन सबसे ऊपर, देश की सरकारें भ्रष्टाचार में डूबी हुई हैं, और कोरोना जैसी किसी भी बीमारी का हमला भ्रष्ट सरकारी मशीनरी के लिए दशकों का सबसे बड़ा त्यौहार भी साबित हुआ था। इसलिए यह कहना मुश्किल है कि सरकारें ऐसी किसी बीमारी के खतरे से बचना चाहेंगी, हो सकता है कि वे इंतजार कर रही हों कि ऐसी कोई दूसरी बीमारी आए, और वे अपने पसंदीदा सप्लायरों से सैकड़ों करोड़ के सामान और खरीद लें।
जनता अपने स्तर पर अपनी जिंदगी को साफ-सुथरा रखने का काम ही कर सकती है, और वह यह भी कर सकती है कि वे अपनी सेहत को ठीक रखे। सरकारों पर भरोसा करके खुद लापरवाह रहना जनता को कहीं नहीं पहुंचाएगा।
बीबीसी में अभी दुनिया की सौ प्रमुख महिलाओं की एक फेहरिस्त जारी की है जिसमें उसने अलग-अलग वजहों से उन्हें छांटना बताया गया है। उनमें से एक इराक से अमरीका पहुंचकर वहां बसी हुई, और अब सौंदर्य प्रसाधन उद्योग की एक जानी-मानी नाम बन चुकी हुडा काटन भी हैं, जिनके कॉस्मेटिक की बड़ी शोहरत है। अभी उन्होंने सौ प्रेरणादायी और असरदार महिलाओं की लिस्ट में शामिल होने के बाद सौंदर्य प्रसाधन उद्योग और सोशल मीडिया, दोनों की कड़ी आलोचना की है, और कहा है कि उन्हें कई बार यह लगता है कि कॉस्मेटिक इंडस्ट्री लिंगभेदी है, और यहां कई बार महिलाओं को वस्तुओं की तरह पेश किया जाता है। इस इंडस्ट्री और लोगों की सोच की वजह से महिलाओं को सिर्फ उनके रूप-रंग से आंका जाता है। जब किसी के रूप-रंग से उनके बारे में सामूहिक धारणा बना ली जाती है, तो फिर यह उन महिलाओं के लिए दिल तोडऩे वाली बात हो सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि जब उन्होंने यह कारोबार शुरू किया तो लोग बैठकों में उनसे बात करने के बजाय उनके पति से बात करते थे, उन्हें महिला होने की वजह से गंभीरता से नहीं लिया जाता था। इसके अलावा उनका यह भी तजुर्बा रहा कि कॉस्मेटिक इंडस्ट्री में गोरे लोगों से परे बाकी रंगों के लोगों की परवाह नहीं रहती थी। उनका यह भी कहना है कि समाज महिलाओं को लेकर हमेशा ही सख्त रहा है, लेकिन अब तो सोशल मीडिया ने उन पैमानों को और कड़ा कर दिया है, और उन्हें खुद यह लगता है कि वे कभी भी पर्याप्त सुंदर नहीं हो सकतीं। उनका कहना है कि लोग महिलाओं से उनके नाखूनों से लेकर बाल और चमड़ी के रंग तक कुछ खास पैमानों पर परफेक्ट देखना चाहते हैं।
उनकी ये बातें इसलिए दिलचस्प हैं कि क्योंकि उनकी रोजी-रोटी और कमाई इसी कारोबार से चल रही है। फिर भी अगर वे ऐसा कह पा रही हैं तो उसकी एक वजह शायद यह होगी कि वे अपनी ग्राहक महिलाओं के बीच थोड़े से कॉस्मेटिक और बहुत सा आत्मविश्वास बेचना चाहती हैं। उनके तमाम कॉस्मेटिक के इस्तेमाल के बावजूद हर लडक़ी या महिला को समाज के प्रचलित पैमानों पर खूबसूरत साबित नहीं हो सकतीं, इसलिए कहीं न कहीं सौंदर्य प्रसाधनों की सीमा खत्म होनी चाहिए, और रूप-रंग से परे के आत्मविश्वास की सीमा शुरू होनी चाहिए। हम इस अखबार में, और अपने सोशल मीडिया पर लगातार इस बात को लिखते हैं कि सौंदर्य और फैशन के मर्दों के बनाए हुए पैमानों ने महिलाओं की उत्पादकता को बहुत सीमित कर रखा है, और उनके आत्मविश्वास को कुचलकर रखा है। दरअसल जब समाज किसी महिला के अपने बस के बाहर के उसके रूप-रंग को खूबसूरती के तथाकथित पैमानों पर खरा साबित करने का बोझ उसी महिला पर डाल देता है, तो उसका एक असर अनगिनत महिलाओं के आत्मविश्वास को तोड़ देना होता है। दूसरी तरफ बहुत थोड़ी सी गिनती में जो महिलाएं हर नजरिए से खूबसूरत रूप-रंग वाली मानी जाती हैं, उन्हें अपनी असल क्षमताओं और संभावनाओं से बहुत अधिक महत्व भी मिलता है, और यह बात समाज में एक अलग किस्म की रूप-रंग-आधारित गैरबराबरी कायम करती है।
सौंदर्य प्रसाधन, फैशन, और फिटनेस के कारोबार लोगों में एक हीनभावना पैदा करके ही चलते हैं। लोगों को उनकी सहूलियत के मुकाबले मौजूदा नई फैशन के कपड़े और दीगर सामान इस्तेमाल करने की मजबूरी लगती है क्योंकि उसके बिना वे पर्याप्त फैशनेबुल नहीं माने जाएंगे। लड़कियों पर बार्बी डॉल की तरह का छरहरा बदन बनाए रखने का एक मानसिक दबाव हमेशा बने रहता है, और कई जगहों पर यह बात मान ली जाती है कि जिनका बदन भरा हुआ है, या जो लड़कियां चश्मा लगाती हैं, उन्हें आसानी से साथी नहीं मिलते। मतलब यह हुआ कि उनका दिल-दिमाग, उनकी बाकी किस्म की क्षमताएं धरी रह जाती हैं, और उनका मूल्यांकन सिर्फ रूप-रंग, और कद-काठी के आधार पर तय होने लगता है। हालत यह है कि लड़कियों की हड्डियों को चोट पहुंचाने की हद तक ऊंची एडिय़ों के सैंडिल पहनना उनकी मजबूरी हो जाती है क्योंकि न सिर्फ समाज में, बल्कि अब तो बहुत से देशों की बहुत सी कंपनियों में भी लड़कियों को ऊंची एड़ी पहनना जरूरी कर दिया गया है। ऊंची एड़ी, खुले टखने, और इस किस्म के कई दूसरे पैमानों को लड़कियों पर ही लादा जाता है।
ये तमाम बातें पुरूषप्रधान समाजों की साजिश का हिस्सा हैं जिनमें एक वक्त महिलाओं को घुंघरू वाले गहने पहनाए जाते थे ताकि उनकी आवाजाही पर नजर रखे बिना भी कानों से उसकी खबर हो सके। बहुत से मुस्लिम देशों में बुर्का प्रथा लागू करके, और हिन्दुस्तान के राजस्थान या हरियाणा जैसे प्रदेशों में हिन्दू समाज में भी महिलाओं के लिए घूंघट निकालना जरूरी था ताकि कोई उनका चेहरा न देख ले। दूसरी तरफ भारत के केरल की उस प्रथा के खिलाफ हम कई बार लिख चुके हैं जिसके तहत एक वक्त एक राज में दलित महिलाओं को सीना ढांकने की मनाही थी, और कोई कपड़ा पहनने के लिए उन्हें टैक्स देना पड़ता था। महिला का बदन चाहे किसी पौराणिक कहानी में जुएं में दांव पर लगाया जाता रहा हो, कहीं किसी पारिवारिक दुश्मनी को निकालने के लिए महिलाओं के साथ बलात्कार किए जाते रहे हों, तमाम चीजें महिलाओं के बदन पर ही केन्द्रित रहते आई है। सजावट की उम्मीद उसी से, और बदले की आग से जलाना भी उसी को। समाज की सोच की हालत यह है कि अगर किसी लडक़ी या महिला से बलात्कार होता है तो उसके लिए प्रचलित भाषा यही है कि उसकी इज्जत लुट गई। मानो बलात्कारी की इज्जत किसी भी तरह से कम नहीं हो सकती, और उसके हिंसक हमले की शिकार महिला की देह भी जख्म पाती है, और उसी की इज्जत भी लुटती है। यह सब इसलिए कि औरत को महज एक देह मान लिया गया है, और उसकी देह को चाहे मर्द जख्मी करे, उसी देह के जख्म को उसकी बेइज्जती करार दिया जाता है।
आज की यह चर्चा चाहे फैशन उद्योग की एक कारोबारी महिला की बातों से ही क्यों न शुरू हुई हो, यह बहस पहले से चली आ रही है, और आगे भी जारी रहना चाहिए कि देह के रखरखाव, रूप-रंग, कद-काठी, और फैशन के तमाम पैमाने बनाने का हक मर्द का, और ढोने का जिम्मा औरत का क्यों होना चाहिए? यह सिलसिला लैंगिक असमानता का है, हिंसक है, और बुनियादी मानवाधिकार के खिलाफ है।
भारत में अभी पांच राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनाव में ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की चर्चा सुनाई नहीं पड़ी, लेकिन ऐसा हो नहीं सकता कि बड़ी पार्टियों या बड़े उम्मीदवारों ने इसकी कोशिश न की हो। यह भी हो सकता है कि इन्होंने खुद होकर सीधे-सीधे ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस मुहैया कराने वाली किसी एजेंसी को भाड़े पर न लिया हो, लेकिन फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया का अध्ययन, विश्लेषण करने, और फिर उनका राजनीतिक और चुनावी इस्तेमाल करने का काम किया हो। यह काम फेसबुक भाड़े पर करता ही है, और फेसबुक का अपना खुद का सारा कामकाज ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर आधारित है। अब जैसे अभी हमने अपने फेसबुक पेज से सैकड़ों लोगों की पोस्ट देखना 30 दिन के लिए हटा दिया। नतीजा यह निकला कि पेज पर आने वाली पोस्ट घट गईं, और ऐसे में फेसबुक ने सैकड़ों नए लोगों के पेज सुझाने शुरू कर दिए, और उन पर यह लिखा हुआ भी आने लगा कि ये नाम या ये पेज फेसबुक सुझा रहा है। इनको जब बारीकी से देखें, तो इनमें से बहुत से लोग या पेज एक खास किस्म की राजनीतिक विचारधारा की तरफ रूझान रखने वाले दिख रहे हैं। अब पार्टियों को सिर्फ यही करना है कि वे अपने विश्लेषकों से सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों की राजनीतिक सोच दर्ज कर लें, जो कि बड़ा आसान काम है, और उसके बाद उन लोगों तक, या वैसे तबके तक अपने पेज की पहुंच करने के लिए फेसबुक को भुगतान करें। भुगतान के एवज में फेसबुक किसी इलाके के, किसी उम्र के, या किसी खास तबके के लोगों तक आपकी पहुंच बढ़ा देता है। इस तरह जैसे ही (हमारी तरह के) कोई लोग अपने पेज से अधिक संख्या में लोगों को 30 दिन के लिए हटाते हैं, या कि उन्हें अनफॉलो करते हैं, वैसे ही फेसबुक आक्रामक अंदाज में नए लोग और नए पेज सुझाना शुरू कर देता है। यह पूरा ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर आधारित कारोबार है।
आज दुनिया के सबसे बड़े टेक्नालॉजी कारोबारी यह मांग कर रहे हैं कि ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर आगे की रिसर्च को रोका जाए। उनका मानना है कि बाकी खतरों के साथ-साथ एक खतरा यह भी है कि यह लोगों की सामाजिक और राजनीतिक सोच को प्रभावित करके किसी भी लोकतंत्र में चुनावी नतीजों को भी प्रभावित कर सकता है। दुनिया का कारोबार बड़ी आसानी से सोशल मीडिया और दूसरे किस्म के इंटरनेट पेज देखकर वहां ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मदद से ऐसी दखल पैदा कर सकता है जिससे कि लोगों का सोचना-विचारना प्रभावित हो सके। ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस लोगों के राजनीतिक रूझान को पहचान कर, उनके आसपास उसी किस्म के रूझान वाले दूसरे लोगों को पहचान कर, उनकी पसंद के मुद्दों की शिनाख्त करके, एक अलग राजनीतिक विचारधारा को वहां पर रोप सकता है जो कि धीरे-धीरे पौधे की शक्ल में बढ़ सके, और लहलहा सके। इस तरह आज दुनिया में जो लोकतांत्रिक सोच दशकों या सदियों में विकसित हुई है, वह कुछ घंटों में ही प्रभावित होना शुरू हो सकती है। हिन्दुस्तान का लोकतंत्र पौन सदी पुराना है, और अमरीका जरा से वक्त में अपने लोकतंत्र के ढाई सौ बरस पूरे होने का जलसा मनाने जा रहा है। दुनिया के तमाम लोकतंत्रों में वहां के लोगों की विचारधारा, उनकी पसंद-नापसंदगी विकसित होने में लंबा अरसा लगता है, लेकिन अब सोशल मीडिया पर पिछले कुछ बरसों से हम ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के बिना भी यह देख रहे थे कि किस तरह भाड़े के साइबर-सैनिक या साइबर-मजदूर किसी विचारधारा को बढ़ाने, और किसी को खारिज करवाने के काम में लगे हुए थे, लगे हुए हैं। अब ऐसी ताकतों के हाथ ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस नाम का एक असाधारण और अभूतपूर्व हथियार भी लग चुका है, और अब वे हजार किस्म के दूसरे विश्लेषण करके अपने जहर को एकदम निशाने पर छोड़ सकते हैं ताकि उसका अधिकतम असर हो।
अमरीका या हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र बहुत धीमी रफ्तार से अपने लोगों की राजनीतिक परिपक्वता तक पहुंचे थे, और हिन्दुस्तान में तो हकीकत यह है कि लोग ठीक से परिपक्व हुए भी नहीं हैं, और पिछले एक दशक में लोगों की आधी सदी में पाई परिपक्वता काफी हद तक खत्म भी हो चुकी है, ऐसे लोकतंत्र दुनिया के कारोबारियों का निशाना बन सकते हैं। और महज कारोबार की बात क्यों करें, ये लोकतंत्र किसी धार्मिक या आतंकी सोच का निशाना भी बन सकते हैं, लोगों को धर्म और हिंसक आतंक की तरफ खींच सकते हैं। वैसे भी आज महज सोशल मीडिया के इस्तेमाल से धार्मिक और राजनीतिक नफरत फैलाना बड़ा आसान हो चुका है, और हिन्दुस्तानी लोकतंत्र उसका एक सबसे लहूलुहान शिकार दिख रहा है। अब जब ऐसी कोशिशें ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से लैस होकर हमला करेंगी, तो लोगों को पता ही नहीं चलेगा कि कब और कैसे उनका हृदय परिवर्तन हो गया है, कैसे उन्हें एक खास साम्प्रदायिक या राजनीतिक बुलबुले में ला दिया गया है, और इस बुलबुले की दीवारें ही उन्हें दुनिया लगने लगेंगी। यह पूरा सिलसिला कितना खतरनाक होगा, इसकी कल्पना भी हमारे लिए मुश्किल है, और हम इसके तमाम किस्म के खतरों, और उनकी ऊंचाईयों का अंदाज भी नहीं लगा पा रहे हैं। जिस तरह लोगों का कोरोना के हमले से बचना तकरीबन नामुमकिन था, उसी तरह लोगों का ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के हमले से बचना नामुमकिन रहेगा क्योंकि भाड़े के हत्यारों को किराए पर लेने की ताकत रखने वाले लोग और संगठन न सिर्फ सोशल मीडिया बल्कि हर किस्म का मीडिया भी इस तरह प्रभावित करेंगे कि अधिक से अधिक लोगों का ब्रेनवॉश होते चले। हिन्दुस्तान में आज नफरत के जहर को देखकर ऐसा लगता है कि वह ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की पीठ पर सवार होकर तेजी से चारों तरफ दौड़ रहा है, और पौराणिक कहानियों के किसी झंडे लगे घोड़े की तरह चारों तरफ पहुंचकर वहां तक अपना साम्राज्य कायम कर रहा है। क्या पता इसे पढऩे वाले लोग भी अपने आपको ऐसे हमले से बचा सकेंगे या नहीं, हम आज इस पर महज चर्चा कर रहे हैं, और लोग अपने-अपने स्तर पर बारीकी से ऐसे खतरों के पहुंचने पर नजर रखें। आप कुछ कर चाहे न सकें, अपनी जिंदगी का दायरा बदलना तो कम से कम आपकी नजरों में दर्ज हो जाए।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में जहर घोलने के अभी कुछ और दिन बाकी हैं। प्रचार तो चार दिन बाद आखिरी राज्य तेलंगाना में खत्म हो जाएगा, लेकिन मीडिया के मार्फत जहर घोलना तो राज्य की सरहद के बाहर से भी हो सकेगा, होता ही है। लोगों को यह उम्मीद करनी चाहिए, या आशंका रखनी चाहिए कि जब किसी प्रदेश में चुनाव के डेढ़-दो दिन पहले प्रचार खत्म हो जाता है, उस वक्त देश या विदेश में कोई ऐसी घटना हो सकती है, कोई ऐसा शिगूफा छोड़ा जा सकता है कि तमाम खबरें उस तरफ मुड़ जाएं, और मतदान के पहले उस राज्य के लोगों के दिमाग में भी वही बात घूमती रहें। आज देश भर में नफरत और गंदगी का जहर इस बुरी तरह फैलाया जा रहा है कि फिर यह लगने लगा है कि पांच बरस में एक बार पूरे देश में चुनाव एक साथ होने लगते, तो हर कुछ महीनों में किसी न किसी राज्य के चुनाव को लेकर यह गंदगी नहीं बिखरती रहती। आखिर कोई इंसान अपने घर पर अखबारों को बच्चों से कब तक छुपाकर रखे? कहीं न कहीं चुनाव हो रहे हैं, और चुनावों के बीच भी किसी घटना के होने पर, या किसी खास मौके पर जहर फैलाने के लिए मानो एक स्प्रे से कुछ बार छिडक़ाव और कर दिया जाता है। मीडिया अपने मिजाज के मुताबिक नफरती जहर को केक के ऊपर की आइसिंग के ऊपर की चेरी की तरह सबसे ऊपर पेश करता है। अब बहुत से लोग थककर टीवी समाचार चैनलों को देखना कम कर रहे हैं कि उनसे जहर काफी गाढ़ा निकलता है, और कई लोग कई दिनों के अखबारों को भी बच्चों से दूर रखने लगे हैं कि वे स्याही से नहीं, जहर से छपने लगे हैं।
भारतीय राजनीति में सद्भावना पूरी तरह खत्म हो चुकी है, और नेता और राजनीतिक दल एक-दूसरे के बारे में जो कहते हैं, उसे देखना भी भले इंसानों की मानसिक सेहत के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। जिन लोगों ने ड्रैकुला फिल्म देखी होगी वे जानते हैं कि एक अच्छा भला, जेंटलमैन दिखने वाला रईस जब अपनी असली ड्रैकुला शक्ल में आकर किसी शिकार के गले में अपने लंबे हो रहे दांतों को धंसाकर उसका खून पीना शुरू करता है, तो पल भर में उसका किरदार जेंटलमैन से रक्तपिशाच जैसा कैसे हो जाता है। ठीक वैसे ही जो महान बनते हुए नेता चुनिंदा मौकों पर बड़प्पन की बातें करते हुए इतिहास में नाम दर्ज कराने की कोशिश करते हैं, वे चुनावों के मौकों पर पल भर में ड्रैकुला हो जाते हैं, और भारतीय लोकतंत्र के गले में अपने लंबे दांत घुसाकर उसका लहू पीने लगते हैं। यह बात इतनी आम हो गई है कि अब धीरे-धीरे ड्रैकुला बड़ी-बड़ी आमसभाओं में जनता के सामने, दर्जनों वीडियो-कैमरों के बीच मंच पर यह करने लगे हैं, और लोगों की जुबान पर लहू इतना लग चुका है कि वे इस पर वाहवाही करते हुए और-और की मांग करने लगते हैं।
हर चुनाव पर गंदगी और हिंसा की एक नई सुनामी की गारंटी सी रहती हैं कि वह आएगी, और सार्वजनिक जीवन के रहे-सहे शिष्टाचार को भी बहाकर ले जाएगी। वही चल रहा है। इस सुनामी में अच्छे, भले लोगों के पांव भी इस तरह उखड़ जा रहे हैं कि वे भी ऐसी ही जुबान में बहस करने लगे हैं जिस पर काउंट ड्रैकुला का एकाधिकार होना चाहिए था। अब सवाल यह उठता है कि केन्द्र सरकार के चुनाव विभाग से जब कोई उम्मीद नहीं बचती है, तो फिर किधर देखा जा सकता है? एक चुनाव आयोग नाम की एक संवैधानिक संस्था बनने के बाद सुप्रीम कोर्ट भी अपने आपको कुछ संवैधानिक जिम्मेदारियों से बरी कर लेता है, और आयोग उन जिम्मेदारियों को चुनिंदा तरीके से छूता है, तो फिर ऐसे में केन्द्र सरकार के चुनाव विभाग के खिलाफ रोजाना तो सुप्रीम कोर्ट जाया नहीं जा सकता। एक संवैधानिक संस्था के सरकारी विभाग में तब्दील हो जाने के खतरे अब आम लोगों को भी साफ-साफ दिखने लगे हैं, ऐसे में लोकतंत्र की रही-सही रीढ़ की हड्डी भी टूटती चल रही है। ऐसी संवैधानिक संस्थाओं का होना खतरनाक होता है जो कि अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को तो पूरी नहीं करतीं, लेकिन संवैधानिक अधिकारों का भरपूर इस्तेमाल करती हैं। जब ऐसे औजार सत्ता के हाथ लग जाते हैं, तो फिर वे हथियार में तब्दील होने में अधिक वक्त नहीं लेते। जिसे एक हथौड़ा या घन होना चाहिए था, उस लोहे ने अपने को एके-47 में ढाल लिया, और अपने को मनोनीत करने वाले हाथों में अपने को दे दिया। टी.एन.शेषन नाम के मुख्य चुनाव आयुक्त ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी के वक्त इस संस्था को जो साख दिलाई थी, वह अब सरकारी औजार और हथियार की शक्ल में तब्दील हो गई है। ऐसे में देश में चुनावों के वक्त तबाह होने वाले लोकतंत्र को बचाने की और कोई गुंजाइश नहीं बचती है।
कायदे की बात तो यह होती कि चुनाव आयोग प्रेमचंद की एक छोटी सी कहानी पर अमल करता कि बिगाड़ के डर से क्या इंसाफ की बात नहीं करोगे? लेकिन चुनाव आयोग नाम का यह पंच अब परमेश्वर नहीं रह गया, और वह सत्ता का पंच (अंग्रेजी का घूंसा) बन गया है, विपक्ष के चेहरे पर। यही वजह है कि विपक्ष के करेले को नोटिस जारी हो रहे हैं, और सत्ता का सल्फास लोगों के कानों में घुलते चले जा रहा है। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में कुछ जुमले राज करते हैं जो कि अखबारों ने फर्जी सुर्खियों की शक्ल में बरसों से चलाए हुए हैं। ये तो पब्लिक है, ये सब जानती है, या जनता का हथौड़ा जब चलता है तो तानाशाही पलट जाती है, ऐसे बहुत से हैडिंग या रिपोर्टिंग के जुमले इस्तेमाल होते हैं, और जनता की सामूहिक समझ को लेकर बड़ी इज्जत गढ़ते हैं। हकीकत तो यह है कि जब चुनाव जीतने के लिए लोकतंत्र से 8वीं पीढ़ी की रिश्तेदारी भी जरूरी नहीं रह जाती, किसी तरह की शराफत भी जरूरी नहीं रह जाती, तो फिर सामूहिक समझ नाम के झांसे पर तरस आता है। यह सिलसिला ऊंचाई से ढलान की ओर लुढक़ते हुए इतनी गहराई तक पहुंच चुका है कि इसे फिर कभी लोकतंत्र की ऊंचाई पर ले जाया जा सकेगा इसकी उम्मीद बड़ी कम लगती है। लेकिन यह बात तो अपनी जगह सच है ही कि जनता को वही, और वैसी ही सरकार मिलती है जिसकी वह हकदार होती है।
क्रिकेट वर्ल्ड कप के फाइनल मैच में अपने नाम के स्टेडियम पहुंचने वाले नरेन्द्र मोदी को हार के लिए जिम्मेदार अपशकुनी करार देते हुए कांग्रेस के बाकी लोगों के साथ-साथ राहुल गांधी भी जुट गए हैं। उन्होंने बिना नाम लिए कहा कि वहां अच्छा-भला हमारे लडक़े वर्ल्ड कप जीत जाते, लेकिन पनौती ने हरवा दिया। कांग्रेस समर्थक और मोदी विरोधी लगातार इस कम प्रचलित शब्द पनौती को लेकर मोदी पर टूटे पड़े हैं। राजनीति में यह सबसे ओछी जुबान नहीं है, और अपनी अनगिनत चुनावी सभाओं में भाषा को पाताललोक तक ले जाने वाले मोदी को कई लोग ऐसे शब्दों का ही हकदार करार दे सकते हैं। लेकिन हमारा सोचना है कि किसी की ओछी जुबान के जवाब में ओछी जुबान का इस्तेमाल ही अकेला विकल्प नहीं होता है। किसी की घटिया और गंदी जुबान का जवाब अगर साफ-सुथरी भाषा में तर्क और तथ्यों के साथ दिया जाए, तो लोग उससे प्रभावित भी होते हैं, और इस फर्क को महसूस भी करते हैं कि गंदी जुबान के जवाब में भी किसने अपने पर, अपनी जुबान पर काबू बना रखा। और जहां तक ओछी जुबान के मुकाबले की बात है, तो हिन्दुस्तान में हर चुनाव इसका वर्ल्ड कप होता है, और चुनावी सभाओं का घटियापन लोगों को पहले की तरह हक्का-बक्का तो नहीं करता है, लेकिन नए रिकॉर्ड जरूर कायम करता है।
मोदी ने घटिया जुबान और घटिया मिसालों के ऐसे रिकॉर्ड बनाए हुए हैं कि उनके खिलाफ जब ओछी जुबान बोली जाती है, तो लोग उसे भी ठीक करार देते हैं। लेकिन जैसा कि गांधी ने कहा था आंख के बदले आंख का मतलब पूरी दुनिया का अंधा हो जाना होगा, उसी तरह जुबानी गंदगी के मुकाबले जुबानी गंदगी का मतलब चारों तरफ गंदगी फैला देने के अलावा और कुछ नहीं होगा। और जब गंदगी के मैच में दोनों तरफ से गेंदों से छेडख़ानी होती है, तो फिर किसी पर तोहमत नहीं लग सकती, और गंदगी नवसामान्य हो जाती है। हिन्दुस्तान के चुनाव में यही हो रहा है। आज जब हमारे सरीखे लोग कांग्रेस जैसी पार्टी के नेताओं की भाषा में पनौती जैसे अपशकुन बताने वाले शब्दों का विरोध कर रहे हैं, तो कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता भी टूट पड़ रहे हैं कि जब मोदी ने और भाजपा के दूसरे नेताओं ने इससे हजार गुना गंदी जुबान इस्तेमाल की थी, तब पत्रकार कहां थे? जो लोग गंदगी फेंकने के मुकाबले का मजा ले रहे हैं, उनसे तो हम कुछ नहीं कह सकते, लेकिन जो कांग्रेस के इतिहासकार रहेंगे, वे तो इस बात को दर्ज करेंगे कि नेहरू जैसी वैज्ञानिक सोच वाले देश के एक महानतम नेता की पार्टी आज पनौती जैसे शब्द का इस्तेमाल करके देश में अंधविश्वास को भी बढ़ा रही है। अपशकुनी अपने आपमें कांग्रेस की विधवा, जर्सी नस्ल के बछड़े, सौ करोड़ की गर्लफ्रेंड जितना ओछा शब्द नहीं है, लेकिन यह शब्द देश की उस वैज्ञानिक सोच के खिलाफ हैं जिसे नेहरू ने बहुत मेहनत से अपनी पूरी जिंदगी लगाकर हिन्दुस्तान में फैलाने की कोशिश की थी, और काफी हद तक कामयाबी भी पाई थी। आज सोशल मीडिया में प्रचलित और आम घटिया और ओछी जुबान को नवसामान्य मानकर अगर कांग्रेस के राहुल जितने बड़े नेता भी उसका इस्तेमाल करेंगे, देश में अंधविश्वास फैलाएंगे, तो फिर उनकी पार्टी मोदी की किसी जुबान के लिए उन पर क्या तोहमत लगा सकेगी?
हमारा ख्याल है कि चुनावी मंच से भाषण हों, संसद के भीतर कही गई बात हो, या सोशल मीडिया पर लिखी गई पोस्ट हो, अगर आप गालियों या घटिया भाषा पर उतर आते हैं, तो उसका यही मतलब होता है कि आपके पास तथ्य और तर्क चुक गए हैं। जब लोगों के पास वजनदार बातें नहीं बचतीं, तो वे हल्की गालियों पर उतर आते हैं। लेकिन याद रखना चाहिए कि ऐसी जुबान का निशाना जिस पर रहता है, उनको चोट पहुंचे या न पहुंचे, ऐसी भाषा बोलने और लिखने वाले की साख को पहले ही चोट पहुंच जाती है। सोशल मीडिया ऐसे लोगों से भरा हुआ है जो घटिया जुबान बोलते हैं, घटिया बातें बोलते हैं, लेकिन यह याद रखना चाहिए कि वे भीड़ की वाहवाही तो पा सकते हैं, लोगों के विचारों को प्रभावित नहीं कर सकते। ऐसी भाषा चुनावी सभाओं के काम की हो सकती है जहां पर जनता फूड पैकेट की गंदगी, और नेता जुबान की गंदगी छोडक़र चले जाते हैं, लेकिन जिन नेताओं को अपनी साख की फिक्र हो, उन्हें अपनी भाषा और अपनी बातें न्यायसंगत और तर्कसंगत रखनी चाहिए। हम किसी भी हिंसक और अश्लील मुकाबले में भरोसा नहीं रखते। गैरजिम्मेदार लोगों के बीच गालियों के जो मुकाबले चलते हैं, उनमें सबसे हिंसक और सबसे अश्लील लोग विजेता रहते हैं, लेकिन वे साख का मैडल नहीं पाते। यह तो भारतीय लोकतंत्र और राजनीति में पार्टियों और उनके नेताओं को तय करना है कि वे अधिक भारी-भरकम गाली देने के लिए महिलाओं की मिसालें दें, गरीबों को गाली बकें, अवैज्ञानिक और अन्यायपूर्ण बातें करें, या फिर अपनी साख कायम रखकर राजनीति की लंबी पारी खेलें। यह लोगों को खुद ही तय करना होगा। हमने अपने इस अखबार में और इससे जुड़े हुए दूसरे माध्यमों में हिंसा और अश्लीलता का इस्तेमाल नहीं किया, और जो चाहा वह लिखने और कहने में कभी शब्दों की कमी भी नहीं पड़ी। जिनका भाषा ज्ञान कमजोर होता है, जिनके सामाजिक सरोकार कम रहते हैं, जिनके राजनीति या सार्वजनिक जीवन में कोई आदर्श नहीं रहते हैं, वे लोग कई किस्म की घटिया जुबान बोलते हैं, घटिया सोच सामने रखते हैं। उनसे मुकाबले की हसरत रखने वालों के लिए हमारे पास कोई सलाह नहीं है, लेकिन हमारे पास देश के बच्चों और नौजवान पीढ़ी के लिए यह सलाह जरूर है कि भाषा अपने शिक्षकों से ही सीखें, इस देश के नेताओं से नहीं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट ने देश के सबसे चर्चित दवा कारोबारी, स्वघोषित बाबा, रामदेव की कंपनी पतंजलि को चेतावनी दी है कि अगर उसने झांसा देने वाले दावों का इश्तहार देना बंद नहीं किया तो उस पर मोटा जुर्माना लगाया जाएगा। रामदेव आधुनिक चिकित्सा पद्धति के खिलाफ कई किस्म का झूठा प्रचार करते हुए अपनी दवाईयों के करिश्माई असर की बात करते ही रहता है। अभी जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्ला और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की बेंच ने इस कंपनी को तुरंत ही ऐसे झूठे और बरगलाने वाले इश्तहार बंद करने को कहा है। उसने कहा है कि किसी बीमारी के इलाज का झूठा दावा करने वाले ऐसे हर प्रोडक्ट पर अदालत एक-एक करोड़ रूपए जुर्माना लगाने की सोचेगी। इस पर पतंजलि के वकील ने अदालत में वायदा किया कि वे भविष्य में ऐसे कोई भी विज्ञापन नहीं छापेंगे, और प्रेस में लापरवाही से कोई भी बयान नहीं देंगे। अदालत ने इस वायदे को अपने ऑर्डर में दर्ज किया है। अदालत ने यह भी कहा कि वह एलोपैथी और आयुर्वेद के बीच किसी बहस में उलझना नहीं चाहती, लेकिन झूठे मेडिकल इश्तहारों के खतरों से निपटना जरूरी है। अदालत ने केन्द्र सरकार के वकील से भी कहा कि वह सरकार से बात करके इस खतरे से निपटने का रास्ता तय करे, और अदालत को बताए। पिछले बरस इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की एक पिटीशन पर अदालत ने रामदेव को एलोपैथी जैसी आधुनिक चिकित्सा के खिलाफ बेबुनियाद बयानबाजी करने पर चेतावनी दी थी। उस वक्त के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन.वी.रमना ने कहा था कि उन्हें (रामदेव) को दूसरी चिकित्सा पद्धतियों के बारे में गैरजिम्मेदार बातें नहीं करनी चाहिए। आईएएम ने रामदेव की बयानबाजी को लगातार, योजनाबद्ध और बेकाबू झूठ फैलाने वाली कहा था।
आज हिन्दुस्तान के सोशल मीडिया पर गैरजिम्मेदार लोग बिना किसी नाम के हजार किस्म के मेडिकल दावे करते हैं, और तरह-तरह के इलाज भी बताते हैं। इनमें से बहुत से तो लोगों को खतरे में डालने वाले भी रहते हैं, लेकिन देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा ठलहा बैठे रहता है, और वह इसे अपनी जिम्मेदारी मान लेता है कि उसे हर किस्म के मेडिकल दावे को चारों तरफ फैलाना है। ऐसे में जब इस तबके को रामदेव सरीखे फर्जी और झूठे दावे करने वाले एक तथाकथित योगी के भगवा कपड़ों के भीतर से निकलने वाले नाटकीय दावे और मिल जाते हैं, तो फिर ठलहों के हाथ एक बड़ा औजार लग जाता है। कोरोना के पूरे दौर में रामदेव ने तबाही फैलाने का इतना बड़ा काम किया, और आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था की साख को खत्म करने के लिए धर्म, भारत के इतिहास, संस्कृति, इन सबको हथियार बनाकर इस्तेमाल किया, और असाधारण और अभूतपूर्व खतरे के बीच उसने अकेली असरदार चिकित्सा पद्धति की विश्वसनीयता खत्म करने का एक अभियान चला रखा था। हिन्दुस्तान में धर्म का चोला ओढक़र कई किस्म गैरजिम्मेदारी के काम किए जा सकते हैं, और कई किस्म के जुर्म किए जा सकते हैं, और रामदेव यही सब करते रहा। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बेकाबू सुनामी पर रोक लगाने में बरसों लगा दिए, और इन बरसों में रामदेव ने अपने कारोबार को आगे बढ़ाने के लिए राष्ट्रीयता की आड़ ले ली, दूसरी कंपनियों को बहुराष्ट्रीय साजिश करार दे दिया, और मालामाल हो गया।
आज ही हिन्दुस्तान के एक बड़े प्रेस-संस्थान रिपोर्ट्र्स कलेक्टिव ने एक बड़ी रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसमें उसने यह स्थापित किया है कि पतंजलि समूह ने किस तरह से संदिग्ध मुखौटा कंपनियां बनाकर, अरावली की जंगल-जमीन खरीदने का फंड खड़ा किया, और फिर इसे जमीन-जायदाद की तरह बेचा। कहने के लिए रामदेव ने योग गुरू के रूप में कारोबार शुरू किया था, और उसकी दवा कंपनी से जुड़ी हुई बहुत सी मुखौटा कंपनियां, और संदिग्ध कंपनियां उसके लिए हरियाणा में जमीनें खरीद रही हैं, और वे भारी मुनाफे पर इन जमीनों की बिक्री का कारोबार कर रहे हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इसी बरस फरवरी में सरकार ने संसद को बताया था कि उसने तीन बरस में करीब सवा लाख मुखौटा कंपनियों को बंद किया है। अब समझ पड़ता है कि पतंजलि से जुड़ी हुई इन मुखौटा कंपनियों पर केन्द्र सरकार ने कुछ नहीं किया। जमीनों की ऐसी बिक्री से ये कंपनियां जो मुनाफा कमा रही हैं, वह पतंजलि साम्राज्य की दूसरी कंपनियों में डाला जा रहा है, और वहां से अरावली पर्वतमाला के हिस्सों में और जमीनें खरीदी जा रही हैं। इस समाचार-संस्थान के रिपोर्टरों ने ऐसे एक बड़े मकडज़ाल के सुबूत जुटाए हैं जिनसे यह पूरा कारोबार किया जा रहा है। इस रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि 2014 के बाद की सरकारों ने पतंजलि के इस जमीन-जायदाद के मुखौटा-कारोबार को मदद करने वाले नियम-कायदे बनाए।
हिन्दुस्तान में अंधविश्वास रखने वाले लोगों के बारे में जब भी अंदाज लगाना हो तो जस्टिस मार्केण्डेय काटजू की इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि 90 फीसदी हिन्दुस्तानी बेवकूफ हैं। यह बात बहुत से लोगों को अपमानजनक लग सकती है, और हमारी तरह के कुछ तर्कवादी लोग 90 फीसदी के आंकड़ों को भी कम-ज्यादा मान कर सकते हैं, लेकिन यह बात अपनी जगह बनी हुई है कि जब अंधविश्वास की बात आती है तो हिन्दुस्तान का एक बहुमत जिंदा इंसानों से लेकर, कभी न रहे इतिहास तक पर अंधविश्वास कर लेता है, और अपनी धर्मान्धता या राष्ट्रीयता में जान देने पर भी उतारू हो जाता है। इस सिलसिले का ताजा नमूना रामदेव है जो कि अपनी दाढ़ी, अपने भगवा कपड़े, और धर्म-योग की बातों को लेकर देश का बहुत बड़ा फर्जीवाड़ा खड़ा कर चुका है, और अब जाकर वह सुप्रीम कोर्ट के कटघरे में आया है। देश के लोगों को अपनी अंधश्रद्धा पर काबू रखना चाहिए क्योंकि इससे वे आने वाले भविष्य के पीढिय़ों को भी खत्म कर रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट में अभी एक दिलचस्प मामला सामने आया जिसमें एक याचिका लगाई गई थी कि हाईवे पर जो लोग पैदल टहलने जाते हैं, उनकी सुरक्षा का इंतजाम ठीक से करना चाहिए। अदालत ने इसमें एकदम ही आलोचनात्मक रवैया अपनाते हुए यह साफ कर दिया कि लोगों को राजमार्ग पर घूमना नहीं चाहिए। यह मामला गुजरात हाईकोर्ट के एक फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर अपील का था जिसमें हाईकोर्ट ने कहा था कि हाईवे पर पैदल चलने वालों की हिफाजत पर वह सरकार को कोई आदेश नहीं दे सकता, और लोगों को केन्द्र सरकार के राजमार्ग मंत्रालय से संपर्क करना चाहिए। हाईकोर्ट के खिलाफ याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुंचे तो सुप्रीम कोर्ट ने वकील से सवाल किया कि पैदल लोग हाईवे पर कैसे आते हैं? जजों ने यह भी कहा कि ये सडक़ हादसे तब तक होते रहेंगे जब तक पैदल चलने वाले लोग उन जगहों पर मिलेंगे जहां उन्हें नहीं होना चाहिए। अदालत ने कहा कि हाईवे का मतलब यही होता है कि वह साधारण रास्ते से अलग है, और लोगों को वहां नहीं घूमना चाहिए। अदालत ने कहा कि अगर लोग ऐसे नियम तोड़ते हैं तो अदालत कैसे कह सकती है कि वे नियम तोड़ सकते हैं। दो जजों की बेंच ने कहा कि दुनिया में कहीं भी लोग हाईवे पर ऐसे पैदल नहीं घूमते। जजों का रूख था कि यह पूरी तर्कहीन पिटीशन है, और इसे जुर्माने के साथ खारिज करना चाहिए था। अदालत ने वकील को याद दिलाया कि अभी इस पर जुर्माना लगा नहीं है।
हम इस मामले को एक नमूना मानकर हिन्दुस्तान के लोगों की सोच और यहां की जिंदगी में रग-रग में बसी हुई अराजकता की बात करना चाहते हैं। लोग ट्रैफिक के नियम मानना नहीं चाहते, जबकि उनकी अराजकता से दूसरों की जिंदगी खतरे में पड़ती है। वे अगर सिर्फ अपनी जिंदगी किसी निजी जगह पर खतरे में डालें, तो आत्महत्या की कोशिश अब अपराध नहीं रह गई है, उनकी खुदकुशी की हसरत हो तो वो किसी निजी जगह पर इसे पूरा करें, लेकिन सार्वजनिक जगहों पर, ट्रैफिक की जगहों पर दूसरों की जिंदगी को खतरे में डालने का हक किसी को भी नहीं है। इसलिए गुजरात हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के इस रूख से हम सहमत हैं। अदालत की यह बात भी सही है कि दुनिया में कहीं भी लोगों को इस तरह की छूट नहीं मिलती है कि वे हाईवे पर पैदल चलें। अब हिन्दुस्तान के साथ एक दिक्कत यह आ सकती है कि यहां कई किस्म की तीर्थयात्राओं में लोग पैदल चलते हैं, और यह सवाल उठ सकता है कि ऐसे लोगों का क्या होगा? लेकिन दूसरा सवाल यह भी उठता है कि जब जानवरों को बचाते हुए गाडिय़ां पैदल लोगों को कुचल देती हैं, तो पैदल लोगों को बचाते हुए गाडिय़ों के और भी किस्म के एक्सीडेंट हो सकते हैं। यह बात भी पूरी तरह साफ है कि हिन्दुस्तान में धर्म के नाम पर, या राजनीतिक प्रदर्शन के नाम पर, किसी और किस्म के हिंसक आंदोलन के तहत सडक़ों पर कई तरह के उत्पात होते हैं, और इनमें बहुत सी मौतें भी होती हैं। इसलिए जहां सार्वजनिक सुरक्षा की बात आती है, वहां पर निजी या किसी गिरोहबंदी की अराजकता को खत्म किया ही जाना चाहिए।
कल के दिन अगर लोग ट्रेन की पटरियों पर पखाना करने को अपना हक मान लेंगे, और ट्रेन से कटने पर मुआवजा मांगेंगे, तो क्या उस मांग को सही माना जाए? जो लोग सडक़ों के डिवाइडर फलांगकर आर-पार आते-जाते हैं, वे किस तरह की सुरक्षा के हकदार बनाए जा सकते हैं? न सिर्फ लोकतंत्र में बल्कि किसी भी तरह के तंत्र में सार्वजनिक सहूलियतें कहीं न कहीं निजी मनमानी को काबू करके ही दी जा सकती हैं। कल को लोग ट्रेन और बसों में थूकने या मूतने को लेकर अदालत तक दौड़ लगाएं, और यह साबित करने की कोशिश करें कि उनके लिए उस पल यह बात उसी जगह जरूरी थी, तो फिर बाकी लोगों के हक का क्या होगा? क्या बाकी लोग किसी की पीक या पेशाब पर बैठकर सफर करेंगे? सुप्रीम कोर्ट को इस पिटीशन पर जुर्माना लगाना ही था क्योंकि यह नियमोंं को तोडऩे और अराजकता को बढ़ाने की नीयत रखती है। इसमें किसी की जिंदगी में आ रही दिक्कत को कम करने की कोशिश नहीं थी।
भारत वैसे भी सार्वजनिक जगहों पर निजी लोगों के हक को दूसरों के प्रति जिम्मेदारी से अलग करके चलने वाला देश है। यहां पर अपने हक का दावा किसी भी दूसरे के हक के ऊपर रखा जाता है, और सार्वजनिक जीवन की तमीज यहां लोगों को छू भी नहीं गई है। यह देश बहुत ही असभ्य समाज है, और लोगों का हर तरफ थूकना, हर कोने पर मूतना इस देश को बाकी दुनिया के सभ्य देशों के मुकाबले बहुत ही कमजोर ठहराता है। हिन्दुस्तानियों में सामूहिक और सार्वजनिक जिम्मेदारी की भावना छू भी नहीं गई है। लोग सडक़ों सहित तमाम किस्म की सार्वजनिक जगहों का पूरी तरह नाजायज इस्तेमाल करने को अपना हक मानते हैं, और प्रदेशों में शासन या शहर-कस्बे में प्रशासन की भी इतनी हिम्मत नहीं पड़ती कि ऐसे आदतन अराजक लोगों पर कोई कार्रवाई की जा सके। आज सिर और कंधे के बीच मोबाइल दबाए हुए तिरछे सिर सहित दुपहिया चलाने वाले लोग खतरा बने रहते हैं, लेकिन उन्हें रोकने की कोई कोशिश नहीं होती। यह सारा सिलसिला खत्म किया जाना चाहिए। और हिन्दुस्तानी लोग जब दुनिया के सभ्य देशों में जाते हैं तो वहां महंगा जुर्माना देते ही एकदम से तमीज वाले बन जाते हैं। हिन्दुस्तान में भी जुर्माना इतना बढ़ाना चाहिए कि उसे पटा देने का आज का अहंकार खत्म किया जाना चाहिए। और चूंकि सुप्रीम कोर्ट हर छोटी-छोटी बात में फैसले नहीं दे सकता, इसलिए सरकार और समाज को ही जिम्मेदारी दिखानी चाहिए।
विधानसभा चुनावों के चलते हुए राजनीति को जीना और उस पर लिखना पिछले महीने भर में अनुपात से कुछ अधिक ही हुआ है। अभी भी पॉलीटिक्स के अलावा क्रिकेट ही खबरों में है, और लिखने के लिए कोई दूसरा मुद्दा ढूंढना कुछ मुश्किल होता है। लेकिन जिंदगी राजनीति और क्रिकेट तक सीमित नहीं है, उसके दूसरे छोटे-छोटे बहुत से ऐसे पहलू हैं जो कि बहुत मायने रखते हैं, फिर चाहे वे खबरों में उतने बड़े न दिखते हों। अब जैसे यूपी के बदायूं की खबर है कि कल वहां एक बेटा बाप पर जमीन अपने नाम कराने का दबाव डाल रहा था। वह 9 साल से बाप से अलग रह रहा था, और कल उसने अपने साथियों सहित बाप के खेत पहुंचकर उसे दौड़ा-दौड़ाकर गोलियां मारी, और कत्ल कर दिया। जिस वक्त यह हमला हुआ, आसपास और भी किसान थे, लेकिन कोई बचा नहीं पाए। इसी के साथ ही अभी चार दिन पहले की एक और खबर याद पड़ती है जिसमें देश के एक बड़े उद्योगपति रेमंड ब्रांड के मालिक गौतम सिंघानिया की बीवी उनके बंगले के फाटक के बाहर बैठी दिख रही है, और उसे भीतर घुसने नहीं दिया जा रहा है। इसके कुछ घंटे बाद गौतम सिंघानिया ने 32 साल के संबंधों और 24 साल की शादी के बाद अपनी बीवी नवाज मोदी से तलाक की घोषणा की है। बंगले की दीवाली पार्टी के दौरान बीवी को फाटक के बाहर ही रोक रखा गया था। लोगों को इस घटना से कुछ अरसा पहले का वह वाकया भी याद पड़ा जब इसी गौतम सिंघानिया ने पूरा कारोबार खड़ा करने वाले अपने बाप, विजयपथ सिंघानिया को कारोबार और घरबार, सबसे बेदखल कर दिया था। पद्मभूषण से सम्मानित देश के एक चर्चित उद्योगपति, और विमान और गुब्बारे उड़ाने के कुछ रिकॉर्ड बनाने वाले विजयपथ सिंघानिया को आखिरी वक्त बदहाली में गुजारना पड़ा था क्योंकि उन्होंने सब कुछ बेटे के हवाले कर दिया था।
ऐसे मामलों से लोगों को कुछ सबक लेने चाहिए। वैसे तो अधिकतर आबादी गरीब रहती है, जो कि कर्ज के अलावा आल-औलाद पर कुछ छोड़ नहीं जाती। लेकिन जो लोग आल-औलाद को कुछ दौलत दे जाते हैं, उन्हें ऐसा करते हुए कुछ चीजों का ध्यान रखना चाहिए। पहली बात तो यह कि जायदाद मिलने के पहले औलाद का बर्ताव जितना अच्छा रहता है, जरूरी नहीं कि सब कुछ उनके नाम हो जाने के बाद भी वे उतने भले बने रहें। बहुत से मामलों में मालिकाना हक मिलते ही आल-औलाद का बर्ताव बदल जाता है। और एक बार सब कुछ दे देने के बाद बूढ़े मां-बाप सिर्फ एक गुजारे के इंतजाम के लिए अदालत तक जा सकते हैं जो कि अदालत की आम दिक्कतों के साथ ही उन्हें मिल पाता है। ऐसी नौबत से बचना ठीक है। लोगों को अपनी आगे की लंबी, पहाड़ सी, बीमार जिंदगी का ख्याल रखते हुए अपना इंतजाम पहले करना चाहिए, उसके लिए पर्याप्त जमीन-जायदाद रखनी चाहिए, और उसके बाद ही आल-औलाद की मदद करनी चाहिए। इसके बिना सरकारी या किसी समाजसेवी संस्थान के वृद्धाश्रम के अलावा दूसरी जगह बचती नहीं है। फिर पुराने लोगों ने समझदारी की एक बात की हुई है कि पूत कपूत तो का धन संचय, पूत सपूत तो का धन संचय। मतलब यह कि अगर औलाद काबिल है तो उसके लिए धन छोडक़र जाने की जरूरत नहीं है, और अगर औलाद नालायक है तो भी वह अपने लिए छोड़ी गई दौलत को बर्बाद कर ही देगी। मां-बाप को संतानमोह से बाहर निकलना चाहिए, और आल-औलाद को जिंदा रहने से अधिक मदद नहीं करनी चाहिए। खासकर यह मदद तो कभी नहीं करनी चाहिए कि अपने बुढ़ापे को दांव पर लगाकर वे सब कुछ बच्चों को दे दें।
यह मां-बाप की भी जिम्मेदारी होती है कि वे बच्चों को जिम्मेदार बने रहने दें। उनके सामने जिंदगी की चुनौतियां आने दें, और अगर उनकी कोई मदद करनी भी है, तो वह इतनी किस्तों में होनी चाहिए कि वह उन्हें निठल्ला बनने को न उकसाए। औलाद काबिल हो, या नालायक हो, मां-बाप की दौलत पाकर मां-बाप को लात मारने का खतरा तो हमेशा ही बने रहता है। इसलिए एक ऐसे दिखावे का झांसा बने रहने देना चाहिए कि दो पीढिय़ों के बीच परस्पर प्रेम और सम्मान के अच्छे संबंध हैं, और किसी भावनात्मक वसीयत से ऐसे संबंधों को खत्म नहीं करना चाहिए। हर परिवार को यह जानकारी भी रहनी चाहिए कि किस तरह आज बहुत से बैंक मकान या दूसरी जायदाद पर एक रिवर्स-लोन भी देते हैं। जिसमें लोग अपनी ही संपत्ति में रहते हुए भी हर महीने किस्तों में कर्ज पा सकते हंै, और उनके गुजर जाने के बाद बैंक ऐसी संपत्ति को बेचकर अपने दिए गए कर्ज की वसूली करके बची हुई रकम वसीयत के मुताबिक आल-औलाद को दे सकते हैं। हमारा ख्याल है कि सरकार और सामाजिक संगठनों को बुजुर्गों की जागरूकता के कुछ ऐसे कार्यक्रम चलाने चाहिए जिन्हें उन्हें उनकी अगली पीढ़ी तो घर तोडऩे वाले और घर में आग लगाने वाले मान सकती है, लेकिन जिनसे बुजुर्गों का बुढ़ापा और उनके अंतहीन आखिरी बरस धर्मों में बताए गए नर्क की तरह न गुजरें। लोगों में एक जागरूकता लानी चाहिए, और जरूरत हो तो सरकार भी ऐसा कानून बना सकती है कि मां-बाप चाहकर भी अपनी संपत्ति के एक अनुपात से अधिक आल-औलाद को न दे सकें, और उनके पूरे जीवन तक एक हिस्सा उनके इस्तेमाल के लायक बचा रहे। ऐसा कानून नई पीढ़ी को बूढ़े मां-बाप के भावनात्मक शोषण करने से रोकेगा। हम पहले भी एक बार सुझा चुके हैं कि वसीयत में संपत्ति पूरी की पूरी दे देने का प्रावधान नहीं होना चाहिए, और मां-बाप के मरने तक उनके काम चलाने लायक इंतजाम उनके नाम पर ही रहना चाहिए। इस बारे में कानून बनाने वाले लोग भी सोचें।
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हिन्दुस्तान का चुनावी माहौल इन दिनों राजस्थान के फलौदी नाम के शहर के किसी सट्टाबाजार कहे जाने वाले कारोबार के नाम से फैलाए जा रहे पोस्टरों से भरा हुआ है। हर पार्टी अपनी-अपनी सहूलियत से फलौदी सट्टाबाजार का रूझान गढ़ रही है, और उसे सोशल मीडिया पर लोगों को पहुंचाया जा रहा है। जिन लोगों ने न कभी सट्टा लगाया होगा, न ही फलौदी गए होंगे, वे लोग भी चुनावी नतीजों को ऐसे पोस्टरों से तय कर रहे हैं, और एक-दूसरे को बता रहे हैं कि आज तक कभी भी फलौदी का सट्टाबाजार गलत साबित नहीं हुआ है। जिन पोस्टरों पर ऐसा दावा किया जाता है, उन्हें 20 मिनट में कम्प्यूटर पर कोई नौसिखिए फोटोशॉप ऑपरेटर भी बना सकते हैं, उनमें जितना चाहे उतना आंकड़ा भर सकते हैं। आज 21वीं सदी में देश के लोगों की लोकतांत्रिक परिपक्वता का हाल यह है कि बेनाम और गुमनाम गढ़े हुए सट्टाबाजार रूझान को वे देश का लोकतांत्रिक भविष्य बता रहे हैं।
एक वक्त था जब हिन्दुस्तान में किसी अफवाह को फैलाने के लिए बीबीसी के नाम का सहारा लिया जाता था। उस वक्त टीवी चैनल नहीं हुआ करते थे, और रेडियो बीबीसी भरोसेमंद खबरों के लिए जाना जाता था। लेकिन उसके बुलेटिन दिन में शायद दो-तीन बार अलग-अलग समय पर आते थे, बहुत कम लोगों के पास रेडियो-ट्रांजिस्टर रहते थे, और ऐसे में किसी अफवाह को बीबीसी का नाम लेकर फैलाना इसलिए आसान रहता था कि उसके रेडियो-समाचार बुलेटिन छपे हुए अखबार की तरह तो सामने रहते नहीं थे। ऐसे में हिन्दुस्तान की अधिकतर बड़ी अफवाहें बीबीसी के हवाले से फैलाई जाती थीं। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र की दुर्गति इतनी हो गई है कि एक वक्त यहां बीबीसी के नाम पर अफवाहें फैलती थीं, और अब सट्टाबाजार के नाम पर। और तो और देश का एक सबसे बड़ा कारोबारी अखबार, इकानॉमिक टाईम्स भी फलौदी सट्टाबाजार के हवाले से खबरें बना रहा है कि बाजार किसकी कितनी जीत-हार पर कितना रेट दे रहा है। जो हिन्दुस्तान के कुछ अखबार चुनावी सर्वे नहीं छापते हैं क्योंकि बहुत से सर्वे फर्जी रहते हैं, गढ़े हुए रहते हैं, या माना जाता है कि वे खरीदे हुए रहते हैं, लेकिन ऐसे अखबार भी सट्टाबाजार के हवाले से जीत-हार पर लगने वाले रेट छापते हैं। अब सवाल यह उठता है कि सट्टाबाजार जो कि हिन्दुस्तान में जुर्म है, उसके हवाले से खबरें बनाना जुर्म क्यों नहीं होना चाहिए? क्या कोई ऐसी खबर भी कल के दिन बना सकते हैं कि हत्यारे ने कत्ल करने के तरीके के बारे में कौन सी तरकीबें सुझाई हैं, या एटीएम की मशीन को किस तरह से काटकर नोट निकाले जा सकते हैं? आज हालत यह हो गई है कि सट्टाबाजार के बेनाम और गुमनाम पोस्टर हवा में तैर रहे हैं, और अखबार और टीवी वाले उन्हें कटी पतंग की तरह लपककर पकड़ रहे हैं, और फिर अपना धागा बांधकर आसमान पर उड़ा रहे हैं।
इस देश के लोगों की जागरूकता, उनकी वैज्ञानिक समझ, और उनकी सोच को इस हद तक बर्बाद कर दिया गया है कि कल तक क्रिकेट पर लगने वाला सट्टा, अब लोकतंत्र के भविष्य को भी तय कर रहा है। अगर फलौदी के सट्टाबाजार को ही देश-प्रदेश की सरकारें बनानी हैं, तो फिर चुनाव नाम का यह पाखंड किया ही क्यों जाए? फलौदी वाले रेट खोलें, और देश की जनता उसमें से जिस पर सबसे अधिक दांव लगाए उसी को जीता हुआ मान लिया जाए। लोकतांत्रिक समझ आधी सदी से अधिक वक्त में किसी तरह विकसित हो पाई थी कि पिछले दस बरसों में उसको खत्म करने की तमाम कोशिशें हो गईं। नतीजा यह है कि आधी सदी पहले जो देश बीबीसी के नाम पर ही अफवाहों पर भरोसा करता था, अब वह सट्टाबाजार के नाम पर भरोसा करता है, लोकतंत्र में गिरावट का यह एक बड़ा सुबूत दिखता है।
बहुत से ऐसे हादसे होते हैं जिन्हें लेकर कोई जागरूकता नहीं फैल पाती। जैसे सडक़ों पर आए दिन लोग मारे जाते हैं, लेकिन उनसे कोई सबक नहीं लेते, न ही सरकारें, और न ही सडक़ों को इस्तेमाल करने वाले बाकी लोग। ऐसे में जब कोई चर्चित हादसा होता है, तो कम से कम उसके बहाने एक ऐसी चर्चा छिडऩी चाहिए कि लोगों का ध्यान उस तरफ जाए, सरकारें भी थोड़ा संभलकर बैठें, और सबका कुछ भला हो सके। यह बात आज सुबह-सुबह राजस्थान में हुई एक सडक़ दुर्घटना से सूझ रही है जिसमें प्रधानमंत्री की सभा में सुरक्षा इंतजाम के लिए जा रहे पुलिसवालों की एक कार एक बड़े ट्रक से जा भिड़ी, और छह पुलिसवालों की मौत हो गई, दो बुरी तरह जख्मी हैं, और गंभीर हैं। चूंकि यह मामला प्रधानमंत्री की सभा के इंतजाम से जुड़ा हुआ है, शायद इसलिए इसकी चर्चा पर कुछ लोग ध्यान दें।
हिन्दुस्तान सडक़ हादसों के मामलों में दुनिया का एक सबसे खराब देश माना जाता है जहां पर सडक़ों की हिफाजत को सरकार के ही भ्रष्ट अमले खुलेआम कानून तोडऩे वाले ट्रांसपोर्ट कारोबारियों को बेचते हैं, और जो लोगों की मौत की कीमत पर भी अंधाधुंध गाडिय़ां चलवाते हैं। हम इसी एक घटना में इस तरह की जिम्मेदारी तय नहीं कर रहे हैं, लेकिन हम इतना जरूर कहना चाहते हैं कि सडक़ों के बहुत सारे हादसे आरटीओ और ट्रैफिक पुलिस जैसे भ्रष्ट विभागों की वजह से होते हैं, और देश में हर बरस डेढ़ लाख या अधिक इंसान मारे जाते हैं। भारत सरकार के 2021 के आंकड़ों के मुताबिक देश की सडक़ों पर हर दिन 422 से अधिक मौतें होती हैं, और इन मौतों में 67 फीसदी मौतें 18 से 45 बरस की उत्पादक उम्र के लोगों की रहती है जिससे कि देश में कामकाजी लोगों का एक बड़ा नुकसान भी होता है। बहुत अधिक आंकड़ों का कोई मतलब नहीं है, लेकिन आज की ही इस ताजा दुर्घटना को लेकर सबको यह सोचना चाहिए कि किस तरह सडक़ हादसों को कम किया जाए। हम अपने अखबार और यूट्यूब चैनल पर लगातार जागरूकता के लिए हेलमेट और सीटबेल्ट लगाने के अभियान चलाते रहते हैं। लेकिन जब तक ट्रैफिक और आरटीओ के अमले सरकार के अपने खुद के नियमों को ठीक से लागू नहीं करेंगे, तब तक हिन्दुस्तानियों पर किसी जागरूकता के अभियान का कोई असर नहीं होना है। जागरूकता हिन्दुस्तानियों पर उतना असर नहीं करती है जितना कि सडक़ किनारे कड़ाई बरतते पुलिसवाले कर सकते हैं। जब देश में सडक़ सुरक्षा के कानून बड़े कड़े बने हुए हैं, तो फिर किसी प्रदेश या शहर की पुलिस को उन्हें लागू न करने का हक क्यों रहना चाहिए? इस घटना से ही केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को संभलकर बैठना चाहिए, और हिन्दुस्तानी सडक़ों को अधिक सुरक्षित बनाना चाहिए। यह बात तो तय रहती है कि सडक़ों पर होने वाली मौतों के लिए जरूरी नहीं है कि मरने वाले जिम्मेदार रहते हों, बहुत से बेकसूर लोग भी जिंदगी खो सकते हैं, खोते ही हैं। इसलिए हर नागरिक का यह हक भी है कि वे सुरक्षित सडक़ पाएं, और सरकारें जब रोड टैक्स लेती हैं, तो सडक़ बनाना, मरम्मत करना, और उन पर कानून व्यवस्था बनाए रखना, यह सब जिम्मेदारी सरकार की ही रहती है।
यूपी के जौनपुर से जुर्म की एक खबर सामने आई है जिसमें एक पत्नी किसी और के साथ प्रेमसंबंध में पड़ी, और फिर प्रेमी के साथ मिलकर उसने पति की हत्या करवाई, और उसी प्रेमी ने लाश ले जाकर दूर फेंक दी। पुलिस को कत्ल की साजिश तक पहुंचने में अधिक वक्त नहीं लगा क्योंकि इन दिनों मोबाइल फोन के कॉलडिटेल्स, फोन की लोकेशन जैसी जानकारी पल भर में निकल आती है, और प्रेमसंबंध या दूसरे किस्म के अंतरंग संबंध वाले लोग जाहिर तौर पर एक-दूसरे के अधिक संपर्क में रहते हैं, और ये जानकारियां आनन-फानन साजिश को उजागर कर देती हैं। अब इसमें से यूपी और जौनपुर को हटा दिया जाए तो यह खबर हिन्दुस्तान की किसी भी छोटे-बड़े शहर से आई हुई हो सकती है, क्योंकि हिन्दुस्तान जैसे देश का शायद ही ऐसा कोई प्रदेश हो जहां साल-छह महीने में ऐसे कुछ मामले न होते हों। पति-पत्नी के बीच, प्रेमी-प्रेमिका के बीच, कत्ल में कुछ भी अनहोनी नहीं रह गई है, कुछ अटपटा नहीं रह गया है।
अब सवाल यह उठता है कि जब देश के कानून और समाज के रिवाज के मुताबिक तलाक कोई बहुत अटपटी बात नहीं है, हर दिन कुछ तलाक होते ही हैं, और शायद ही कोई तबका तलाक से अछूता रहता हो। ऐसे में लोग आए दिन कातिलों की गिरफ्तारी की खबर भी पढ़ते हैं, और कत्ल जैसे जुर्म में उलझ भी जाते हैं। लोगों से उम्मीद की जाती है कि उन्हें देश की कानून की कम से कम कुछ समझ तो रहे, और सामान्य समझबूझ से परे, अखबारों में आने वाली खबरों को ही कोई देख लें, तो भी उन्हें यह समझ आ जाएगा कि कातिल अधिक वक्त तक नहीं बच पाते। शायद एक फीसदी मामले ही ऐसे रहते होंगे जिनमें कातिलों की गिरफ्तारी में महीना-पन्द्रह दिन से अधिक का वक्त लगता हो। फिर ऐसे में लोग आसपास के लोगों का कत्ल करते हैं, तो उन्हें यह समझ तो रहनी चाहिए कि पुलिस सबसे पहले करीबी लोगों से जांच शुरू करेगी, और ऐसे में आसपास के किसी के विवाहेत्तर प्रेमसंबंध उजागर होते ही हैं, और उसके बाद अगर जुर्म उससे जुड़े हुए हैं, तो पकड़ाना महज कुछ दिनों की बात रहती है। इसलिए अगर ऐसे कातिल करीबी लोगों का कत्ल करके भी अपने आपको महफूज महसूस करते हैं, तो यह उनमें अक्ल की कमी का एक पुख्ता सुबूत रहता है।
कुछ लोग बहुत पहले से यह बात कहते आए हैं कि प्यार अंधा होता है। ऐसी घटनाओं से यह भी लगता है कि या तो प्यार लोगों की सोचने-समझने की ताकत छीन लेता है, या फिर वे सामान्य समझ भी नहीं रखते, और खतरों का अहसास नहीं होता है। लेकिन यहां पर अपराधी को बचाने की नीयत नहीं है, और इसीलिए हम मुजरिम के पकड़े जाने के खतरे, और सजा पाने की गारंटी पर अधिक बात नहीं करना चाहते। हमारी फिक्र यह है कि अगर लोगों का एक-दूसरे के साथ रहना मुमकिन नहीं रह गया है, तो फिर लोग एक-दूसरे से अलग होकर सिरे से नई जिंदगी क्यों बसाना नहीं चाहते? एक तलाक और दूसरी शादी, इसमें क्या दिक्कत रहती है? हो सकता है कि ऐसे तलाक में कुछ बरस लग जाएं, लेकिन यह तो तय है कि ये बरस उम्रकैद से कम ही होंगे। इसके साथ-साथ ऐसे किसी जुर्म के बाद कम से कम दो-तीन परिवार पूरी तरह से तबाह होते हैं, पत्नी, पति, और प्रेमी, इनमें से जो मारे जाएं, और जो जेल जाएं, सबके परिवार, बच्चे, सबके लिए तबाही का दौर आता है।
यह सिलसिला इस सामाजिक सोच की वजह से अधिक होता दिखता है कि तलाक अच्छी बात नहीं है। समाज और परिवार दोनों ही तलाक टालते रहने के हिमायती रहते हैं, जो कि एक हिसाब से ठीक भी है कि पति-पत्नी की तनातनी बहुत से मामलों में वक्त के साथ खत्म हो जाती है। लेकिन जब मामला खून-खराबे तक पहुंचने लगे, तो कातिल बनने के बजाय तलाकशुदा बनना बेहतर माना जाना चाहिए।
छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव का मतदान पूरा हो जाने पर जो आंकड़े सामने आ रहे हैं उनमें सबसे ही हैरान करने वाले आंकड़े राजधानी रायपुर के हैं। यहां की चार सीटों पर 55 से 60 फीसदी के बीच वोट डले हैं। इनमें से कुल एक विधानसभा सीट ने 60 फीसदी वोट देखे हैं। इन चारों सीटों को पिछले कुछ चुनावों से देखें, तो 2008, 2013, 2018 से भी खासे कम वोट इन सीटों पर पड़े हैं। अब सवाल यह उठता है कि जो सबसे सुविधा-संपन्न शहर है, वहां पर ऐसी दुर्गति क्यों हो रही है कि आधा किलोमीटर के भीतर मतदान केन्द्र होने पर भी वोटर घर बैठे हुए हैं। हर किसी के पास गाडिय़ां हैं, लेकिन वोट डालने नहीं जा रहे हैं। कहने के लिए इन चारों सीटों पर कहीं हिन्दू-मुस्लिम के मुद्दे थे, तो कहीं ब्राम्हण और गैरब्राम्हण के। कहीं म्युनिसिपल के मुद्दों को लेकर नाराजगी थी, तो अखबारों के दो-चार पेज हर दिन इस शहर की बदहाली से भरे रहते थे। ऐसे में लोगों को या तो सत्ता पलट के लिए, या किसी नए उम्मीदवार को जिताने के लिए अधिक संख्या में बाहर आकर वोट डालने थे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अब नक्सली हिंसा और सुरक्षाबलों की भारी मौजूदगी वाले, जंगलों में बसे बस्तर के गांवों के लोगों ने बड़ी संख्या में वोट डाले हैं। कई जगहों पर तो राजधानी रायपुर से डेढ़ गुना तक वोट डले हैं। और वोटरों की जागरूकता के लिए होने वाले तमाम कार्यक्रम इसी राजधानी रायपुर से शुरू होते हैं, लेकिन वोटर इस बार जिस हद तक उदासीन थे, उससे इस शहर के उम्मीदवारों और पार्टियों को लेकर कई तरह के सवाल खड़े होते हैं। चुनाव तो हर पांच बरस में होते ही रहते हैं, इसलिए जिन जगहों पर वोट इतने कम पड़े हैं, उनके बारे में चुनाव आयोग, सरकार, पार्टियों, और प्रेस को भी सोचना चाहिए कि आगे क्या किया जा सकता है? ऐसे सीमित वोटों का मतलब तो यह भी निकलेगा कि बहुत मामूली वोटों से लोग जीत जाएंगे। ऐसी भला क्या वजह हो सकती है कि इसी राजधानी रायपुर से लगे हुए धरसीवां में यहां से करीब डेढ़ गुना वोट डले, लगे हुए आरंग में डेढ़ गुना वोट डले, और लगे हुए अभनपुर में डेढ़ गुना से ज्यादा वोट डले, ऐसा कैसे हो सकता है? कैसे राजधानी की इन चार सीटों के मतदाता पिछले किसी भी चुनाव के मुकाबले कम दिलचस्पी रखें, और आसपास की लगी हुई और तमाम सीटों से भी कम दिलचस्पी रखें! इसकी वजहें पता लगानी चाहिए, क्योंकि इन्हीं के बारे में पैसा, मुर्गा, दारू, सब कुछ बांटने की ढेर-ढेर खबरें भी थीं। यह एक रहस्य है, और वार्ड स्तर पर किसी को इसका अध्ययन करना चाहिए कि पिछले चुनाव से इस चुनाव तक मतदान केन्द्रों पर क्या फर्क पड़ा है, और क्यों फर्क पड़ा है।
उत्तराखंड के उत्तर काशी में एक सुरंग ढह जाने से 6 दिनों से 40 मजदूर फंसे हुए हैं। उनको बचाने की कई तरह की कोशिश चल रही है जिनमें थाईलैंड और नार्वे की तजुर्बेकार टीमें भी शामिल हो गई हैं। सुरंग के मलबे में खुदाई करके बचाने की कोशिश जारी है, और तब तक के लिए खाना और ऑक्सीजन भेजने को कुछ पाईप लगाए गए हैं। उत्तराखंड में चारधाम परियोजना के नाम से बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, और यमुनोत्री के तीर्थों को जोडऩे के लिए बड़े पैमाने पर कंस्ट्रक्शन चल रहे हैं जिनमें सुरंगें भी शामिल हैं। दूसरी तरफ उत्तराखंड में ही दस बरस पहले केदारनाथ में ऐसी भयानक बाढ़ देखी थी कि जिसमें हजारों लोग मारे गए थे, और बड़े पैमाने पर तबाही हुई थी। इसके साथ-साथ आगे-पीछे इन इलाकों में कभी भूकम्प आता है, कभी बादल फटते हैं, भूस्खलन तो चलते ही रहते हैं, और तमाम सरकारें इस पूरे इलाके में अधिक से अधिक निर्माण कर लेना चाहती हैं। नेता, अफसर, ठेकेदार, इन सबके लिए बड़े-बड़े निर्माण जिंदगी का मकसद होते हैं, और कमाई का मोटा जरिया भी।
हिमालय पर्वतमाला और उसके आसपास के इलाकों को लेकर दुनिया भर के जानकार हमेशा से यह बतलाते आए हैं कि वहां की धरती बड़ी नाजुक (फ्रेजाइल) है, और वह बहुत बड़े पैमाने पर फेरबदल, प्रयोग, निर्माण, और आवाजाही के लायक नहीं हैं, लेकिन सैलानियों और तीर्थयात्रियों की भीड़ के मुताबिक शहरों मेें अधिक बसाहट बनाने के लिए अंधाधुंध निर्माण चलते रहते हैं, अधिक मुसाफिरों की तेज रफ्तार आवाजाही के लिए हर पर्यटन केन्द्र और तीर्थस्थल तक चौड़े रास्तों को बनाना जारी है, इसके लिए कहीं पुल बन रहे हैं, तो कहीं सुरंगें। और फिर सस्ती बिजली के नाम पर जो पनबिजली योजनाएं बनाई जा रही हैं, उनसे भी हिमाचल या उत्तराखंड जैसे प्रदेशों में धरती पर खतरनाक बोझ बढ़ रहा है। इन प्रदेशों की अर्थव्यवस्था के लिए पर्यटन और तीर्थयात्रा को एक बड़ा जरिया माना गया है, और सरकार और कारोबार दोनों मिलकर ऐसी हर संभावना को दुह लेना चाहते हैं, तब तक जब तक कि धरती के थन से खून न निकल जाए।
अब सवाल यह उठता है कि इतनी नई सडक़ों, इतनी सुरंगों के साथ अगर इस इलाके को और अधिक खतरनाक बनाया जा रहा है तो अगली किसी बड़ी प्राकृतिक आपदा होने पर उससे कैसे जूझा जा सकेगा? यह पूरी नौबत प्रकृति, पर्यावरण, और धरती को समझे बिना उससे एक खतरनाक छेड़छाड़ करने के अलावा कुछ नहीं है। अभी कुछ अरसा पहले ही ऐसे ही किसी भारतीय प्रदेश से एक वीडियो आया था कि किस तरह एक सुरंग के ठीक पहले की पूरी की पूरी सडक़ पानी में बह गई थी, और सुरंग तक पहुंचना मुमकिन ही नहीं रह गया था। जहां पर स्थानीय बसाहट की रोजाना की जरूरतों के लिए सुरंग और पुल जरूरी है, वहां तो ठीक हैं, लेकिन तीर्थ और पर्यटन को अंधाधुंध और अंतहीन बढ़ाते चलने के लिए जब ये प्रोजेक्ट बनाए और धरती पर उतारे जा रहे हैं, तो फिर वे आने वाले वक्त के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है। लोगों को याद रहना चाहिए कि भोपाल के एक पत्रकार राजकुमार केसवानी ने यूनियन कार्बाइड कारखाने की जहरीली गैस को लेकर अपनी रिपोर्ट में बहुत पहले से यह आशंका जताई थी कि किसी औद्योगिक हादसे की नौबत में बड़ा नुकसान हो सकता है, और बड़ी संख्या में जिंदगियां जा सकती हैं। आखिर हुआ वही था, कारखाने तक आबादी बस गई थी, और उस कारखाने में तो मिक नाम की ऐसी जहरीली गैस थी जिसने कि कई किलोमीटर दूर तक लोगों को मार डाला था, और लाखों लोगों की सेहत को बकाया जिंदगी के लिए खत्म कर दिया था। हिमालय पर्वतमाला के इलाकों के लिए ऐसी चेतावनियां बहुत से देसी-विदेशी प्रकृति वैज्ञानिक देते ही आए हैं, और सरकारों का हाल यह है कि इन सबको अनसुना और खारिज करने की उसने आदत सी डाल रखी है।
ऐसे में सरकारों को अपना दुस्साहस घटाना चाहिए। आज जंगल का मामला हो, नदी का, पहाड़ या समंदर का, केन्द्र और राज्य सरकारों की अधिक से अधिक दिलचस्पी इसमें रहती है कि किस तरह इन तमाम जगहों से खिलवाड़ की कीमत पर भी कमाऊ प्रोजेक्ट बनाए जाएं। कमाऊ का मतलब महज सरकार के लिए कमाऊ नहीं, सत्ता हांकने वाले लोगों के लिए निजी कमाई के भी। अभी सुरंग में फंसे 40 मजदूरों की जिंदगी बचाने की प्राथमिकता है, और जब यह काम हो जाए, उसके बाद भारत सरकार को देश-विदेश के जानकार लोगों से अपनी योजनाओं की एक समीक्षा करवानी चाहिए। जब सरकारें हर किस्म के विशेषज्ञ लोगों को अपने भीतर समाने लगती हैं, या अपने घरेलू विशेषज्ञों की राय को ही सब कुछ मानने लगती हैं, तब बाहरी और तटस्थ, ईमानदार राय मिलना मुमकिन नहीं रह जाता। अंग्रेज जिन्हें रायबहादुर बनाते थे, वे भला अंग्रेजों को कितनी अच्छी राय देते रहे होंगे? इसलिए बाहरी सलाहकारों का बड़ा महत्व रहता है, मामले चाहे पारिवारिक हों, या सरकारी। कुल मिलाकर हम अपनी बात इसी मुद्दे पर खत्म कर रहे हैं कि केन्द्र और राज्य सरकारों को कुदरत से छेडख़ानी और खिलवाड़ की अपनी हरकतों पर काबू पाना चाहिए क्योंकि सरकारों की जिंदगी पांच बरस की होती है, और धरती की जिंदगी अगले लाखों बरस तक ऐसी हरकतों से बिगड़ सकती है।
कल का दिन हिन्दुस्तान में चुनाव से अधिक क्रिकेट का था। विराट कोहली ने सचिन तेंदुलकर का रिकॉर्ड तोड़ दिया, और 50वीं सेंचुरी बना ली। लेकिन जिस एक व्यक्ति की वजह से इस पूरे मैच की चर्चा हो रही है वह मोहम्मद शमी है। उसने 9.5 ओवर में 57 रन देकर 7 विकेट लिए। इसके पहले के मैचों में भी शमी का इसी तरह का शानदार प्रदर्शन था, और हम क्रिकेट की बारीकियों में गए बिना सोशल मीडिया पर फैलती हुई इन भावनाओं को लिखना चाहते हैं कि उसके पहले के कई मैचों में शमी को टीम में न रखकर उसके साथ बेइंसाफी की गई थी, जिसका नुकसान भारतीय क्रिकेट टीम को हुआ। अब क्रिकेट की इतनी बारीकियां हम नहीं जानते कि टीम के सेलेक्शन या किसी एक खिलाड़ी के प्रदर्शन को लेकर अधिक कुछ लिखें, लेकिन सोशल मीडिया पर लोगों की लिखी जा रही इस बात को भी देखना चाहिए कि किस तरह मोहम्मद शमी नाम का एक खिलाड़ी देश को जीतने में इतना काम आता है कि लोग इस मैच को सेमीफाइनल की जगह शमीफाइनल कहने लगे हैं। इसके साथ-साथ लोग यह भी याद करने लगे हैं कि किस तरह मोहम्मद शमी पत्नी से तलाक का मुकदमा जूझ रहे थे, व्यक्तिगत परेशानियों को झेल रहे थे, और टीम में सेलेक्शन में भी उपेक्षा झेल रहे थे। इन तमाम बातों को एक साथ देखें, तो लगता है कि किस तरह एक विपरीत, निराशा का, और खराब दौर झेलते हुए भी कोई देश और दुनिया के सबसे अच्छे खिलाडिय़ों में अपना नाम जोड़ सकता है।
हिन्दुस्तान की हवा किसी भी मुस्लिम का कलेजा तोडक़र रख देती है। जहां देश और कई प्रदेशों की सरकारें मुस्लिमविरोधी रवैया अपनाए हुए हैं, वहां पर जाहिर तौर पर किसी भी मुस्लिम का हौसला पस्त रहता होगा। उन्हें लगातार शक की नजरों से देखा जाता है, लगातार सोशल मीडिया पर उन्हें गद्दारी की तोहमतें झेलनी पड़ती हैं, और उन्हें पाकिस्तान भेजने के फतवे तो आते ही रहते हैं। ऐसे में एक मुस्लिम खिलाड़ी टूटे हुए मनोबल के साथ भी देश के लिए कैसा शानदार खेल सकता है, मोहम्मद शमी उसकी एक मिसाल है। यह बात याद रखनी चाहिए कि शमी के दिमाग में भी यह बात तैर रही होगी कि उसकी पोशाक से उसके जात-धरम की शिनाख्त की जा रही है। और उसके दिमाग पर यह भी तनाव रहा होगा कि अगर कोई विकेट लिए बिना उससे सिर्फ कैच छूट जाएगा, तो उसे गद्दार करार देने में अधिक वक्त नहीं लगेगा। ऐसे तनाव के बीच खेलना, और दुनिया का सबसे शानदार प्रदर्शन करना, यह याद रखते हुए कि कई मैचों में उसे नहीं लिया गया, और लिया गया होता तो वह दुनिया का रिकॉर्ड कब का तोड़ चुका होता, ऐसे तनाव में खेलना मामूली बात नहीं रहती। देश के लोगों को भी टीवी दिन भर इस मैच को देखते हुए यह सोचना चाहिए था कि क्या शमी की पोशाक से उसके जात-धरम की शिनाख्त होती है? या हिन्दुस्तानी वर्दी पहनकर हर खिलाड़ी महज हिन्दुस्तानी रहते हैं, और उन्हें महज हिन्दुस्तानी ही देखा जाना चाहिए, फिर चाहे वे मैदान में हों, चाहे सडक़ों पर, और चाहे स्कूल-कॉलेज में।
हिन्दुस्तान के लोगों को, खासकर उन लोगों को जो अपनी जात, और अपने धरम की वजह से आज दूसरों पर हमलावर हो सकते हैं, होते हैं, उन लोगों को यह सोचना चाहिए कि अल्पसंख्यक, आदिवासी, और दूसरी नीची समझी जाने वाली जातियों के लोगों के साथ हिकारत अगर उन्हें टीम से बाहर ही कर दे, तो फिर देश में जो धरम और जाति हमलावर हैं, वे अपने बूते पर कितने मैडल ले आएंगे, और कितने मैच जीत लेंगे? वे कितने अंतरिक्षयान जात-धरम के आधार पर चांद पर पहुंचा देंगे, और फौज की कितनी वर्दियां भर पाएंगे? इस देश में जो लोग जात और धरम के नाम पर नफरत फैला रहे हैं, उन्हें इन चीजों को याद रखना चाहिए कि जिस हिन्दुस्तानी टीम पर वे फख्र करते हैं, उसमें कई जातियों और धर्मों के लोग शामिल हैं। देश को गौरव दिलाने में कोई किसी दूसरे से कम नहीं हैं, और जब किसी जात और धरम के लोगों को प्रताडि़त किया जाता है, तो यह मानकर चलना चाहिए कि उन तबकों के होनहार और हुनरमंद लोग अपनी पूरी संभावनाओं को नहीं छू पाते हैं, क्योंकि पल-पल उनके दिमाग में समाज के एक सत्तारूढ़, ताकतवर, और हमलावर तबके की नफरती जुबान गूंजती रहती है।
मोहम्मद शमी की बचपन से लेकर अब तक की कहानी को देखें, तो गरीब बाप को अपने पांच बेटों को क्रिकेटर बनाने का शौक था, और जमीन बेचकर उनमें से सबसे होनहार शमी को एक क्रिकेट एकेडमी में दाखिल करने की कोशिश की। शमी का हाल यह था कि ईद के दिन भी नमाज के तुरंत बाद वे गेंदबाजी के लिए पहुंच जाते थे। लेकिन होनहार ऐसे निकले कि सिखाने वाले हक्का-बक्का रह गए। आगे की शादीशुदा जिंदगी में कई किस्म की तोहमत, मुकदमे झेलते हुए टीम से निकाले गए, बीसीसीआई ने बाहर कर दिया, और वैसे विपरीत माहौल से गुजरते हुए भी उनके बीच वह हुनर कायम रहा जिसने उन्हें आज ऐसी शोहरत तक पहुंचाया है कि जिस पर मुल्क फख्र कर रहा है।
हम महज क्रिकेट को लेकर आज की इस बात को नहीं लिख रहे हैं। हमारा मानना है कि इससे देश के नफरती लोगों को भी सबक लेने की जरूरत है। जिस अमरीकी कामयाबी से हिन्दुस्तानी बावले हो जाते हैं, उसे भी समझने की जरूरत है कि वह वहां के गोरे लोगों की कामयाबी नहीं है, बल्कि अलग-अलग धर्म और रंग के, राष्ट्रीयता और संस्कृति के लोगों की मिलीजुली कामयाबी है। अमरीका को तमाम धातुओं को पिघलाकर एक कर देने वाला मेल्टिंग पॉट कहा जाता है। हिन्दुस्तानियों को अमरीकी कामयाबी बहुत सुहाती है, लेकिन वे अपने हिन्दुस्तानी पॉट (बर्तन) को धर्म और जाति के मामले में एकदम खालिस और शुद्ध रखना चाहते हैं, शुद्धता की अपनी परिभाषा के मुताबिक। यह सिलसिला इस देश को आगे बढऩे से रोकने वाला है। इस देश को बचाने में जो शहीद सबसे बड़ा था, उसका नाम कैप्टन अब्दुल हमीद था। जो इस देश में साम्प्रदायिकता का सबसे बड़ा विरोधी नौजवान था, वह शहीद-ए-आजम भगत सिंह था। इस तरह हिन्दुस्तान की जमीन यहां के तमाम धर्मों और जातियों के लोगों के खून-पसीने से भीगी हुई है। मोहम्मद शमी की वजह से हिन्दुस्तान को आज जो गर्व हासिल है, उसे लेकर यह भी सोचने की जरूरत है कि क्या उसकी पोशाक से भी उसके धर्म का अंदाज लगाना है, क्या उसके मकान को भी बुलडोजर से गिराना है, क्या उसके कुनबे की भी भीड़त्या करनी है? देश के लोगों के बीच नफरत की ऐसी ऊंची दीवारों को खड़ा करने से न तो यह सरहद पर महफूज रहेगा, न किसी स्टेडियम के भीतर। इसलिए नफरती लोग अपनी सोच पर एक बार गौर करें।
सार्वजनिक जीवन में गलत काम करना ही नुकसानदेह नहीं होता, गलत काम का मजा लेना, या कि उस वक्त चुप बैठे रहना भी नुकसानदेह होता है। अभी कुछ अरसा पहले नीतीश कुमार ने बिहार विधानसभा में महिलाओं के बारे में एक बड़ी अश्लील और फूहड़ बात कही थी, और इसे लेकर उनकी जो फजीहत हुई है, वह तो उनकी हुई है, लेकिन इस बकवास के वीडियो में उनके ठीक पीछे बैठे हुए जो दूसरे विधायक हॅंस रहे थे, वे भी बराबरी के न सही कुछ कम जिम्मेदार तो हैं ही। लोगों को याद होगा कि कुछ अरसा पहले लोकसभा में भाजपा के एक सदस्य ने बसपा के एक सदस्य को गंदी-गंदी नफरती गालियां दी थीं, और उनके पीछे बैठे भाजपा के दो सबसे वरिष्ठ सांसद, हर्षवर्धन और रविशंकर प्रसाद हॅंसते चले जा रहे थे, और उनकी वह हॅंसी संसद के कुकर्मों के इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है। जिस तरह कातिल के साथ के लोग, या कि बलात्कारी के साथ के लोग कम या अधिक हद तक जिम्मेदार माने जाते हैं, उसी तरह किसी तरह के गलत काम के ऐसे गवाह हमेशा के लिए बदनाम हो जाते हैं, और भले लोगों की नजरों में नफरत के लायक रहते हैं।
आज इस मुद्दे पर लिखने की एक जरूरत इसलिए पड़ी कि पाकिस्तान के एक भूतपूर्व क्रिकेट खिलाड़ी अब्दुल रज्जाक ने हाल ही में पाकिस्तानी टीम के खराब खेल की आलोचना करते हुए उन्हें बेहतर बनाने की वकालत की। और एक मिसाल देते हुए उन्होंने कहा- अगर आपकी ये सोच है कि मैं ऐश्वर्या राय से शादी करूं, और वहां से सदाचारी बच्चा पैदा हो जाए, तो ये कभी नहीं हो सकता। जब अब्दुल रज्जाक यह कह रहे थे, तो उनके साथ दो और पाकिस्तानी क्रिकेटर उमर-उल और शाहिद आफरीदी भी मौजूद थे, और दोनों तालियां बजाकर हॅंस रहे थे। जब इस बयान और ऐसी हॅंसी पर चारों तरफ से हमले हुए, तो अब्दुल रज्जाक ने देर शाम एक वीडियो जारी कर माफी मांगी। उन्होंने कहा कि मुझे मिसाल कुछ और देनी थी, लेकिन जुबान फिसल गई, मैं उनसे इसके लिए माफी मांगता हूं।
अब सवाल यह उठता है कि इस माफी से परे एक बात तो बाकी रह गई है कि अब्दुल रज्जाक किसी और की मिसाल देना चाहते थे, मतलब यह कि ऐश्वर्या न सही कोई और महिला उनके गंदे मजाक का शिकार होने वाली थी। एक मर्द की सोच यह साबित कर रही थी कि औलाद के सदाचारी होने या न होने से औरत का ही लेना-देना होता है, और अगर औलाद सदाचारी नहीं है, तो उसके लिए उसकी मां ही जिम्मेदार होगी। यह सिलसिला हिंसक पुरूषप्रधान सोच का है, जो कि हिन्दुस्तान में भी भरी हुई है, लेकिन पाकिस्तान में शायद उससे कुछ अधिक ही है। यह सोच लोगों में उनके धर्म, जाति, सामाजिक संस्कार, और पारिवारिक माहौल से उपजती है, और हिंसक या गंदी सोच एक किस्म से ऐसे लोगों के मां-बाप पर भी तोहमत लाती है कि उन्होंने अपनी औलाद को महिलाओं का सम्मान करना नहीं सिखाया। दरअसल महिलाओं का सम्मान सिखाया नहीं जाता है, बल्कि परिवारों में उसकी मिसाल सामने आती रहती हैं, और वही सबक भी बनती है। इज्जत हो या हिंसा, बच्चे अपने परिवार में ही सबसे पहले सीखते हैं।
जिन दो खिलाडिय़ों ने एक गंदी बात पर तालियां बजाकर हॅंसना ठीक समझा था, उनमें से एक शाहिद आफरीदी ने बाद में सफाई दी, और कहा कि उस वक्त उन्होंने उस बात को ठीक से सुना नहीं था। यह एक बहुत ही खोखली सफाई इसलिए है कि लोग जब स्टेज पर कैमरों के सामने किसी महिला के बारे में गंदी बात सुनते हुए हॅंसते हैं और तालियां बजाते हैं, तो ऐसा तो है नहीं कि उन्हें वह बात समझ न आई हो। अब लोगों की धिक्कार के बाद सबको अपनी इज्जत दुरूस्त करने की जरूरत पड़ रही है, तो तरह-तरह की सफाई दी जा रही है। यह सफाई देते हुए भी, और माफी मांगते हुए भी यह बकवास करने वाले पाकिस्तानी क्रिकेटर का यही कहना है कि वह कोई और मिसाल देने वाले थे। मतलब यही है कि वे किसी न किसी और की मिसाल देने वाले थे, मानो ऐश्वर्या की जगह किसी और को बेइज्जत करना चल जाता।
हम पहले भी इस बात को उठाते आए हैं कि सार्वजनिक जीवन हो, या सोशल मीडिया, लोगों को अपने आसपास के दायरे को लेकर जिम्मेदार रहना ही होगा। चाहे वे संसद या विधानसभा में बैठे हों, किसी स्टेज पर या टीवी चैनल के कैमरों के सामने हों, या फिर सोशल मीडिया पर किसी पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए हों, उन्हें वहां की बातों पर अपना नजरिया साफ रखना ही होगा। चुप्पी कोई विकल्प नहीं हो सकता। जब आपके सामने नाजायज बातें हो रही हैं, तो आपकी चुप्पी आपकी भागीदारी रहती है। लोगों में इतना हौसला रहना चाहिए कि वे नाजायज बात का विरोध करें, आप वहां पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हुए गलत बात को अनदेखा नहीं कर सकते, उससे अनछुए नहीं रह सकते। एक वक्त गांव के पेड़ के नीचे चबूतरे पर कही और सुनी गई बात कहीं दर्ज नहीं होती थी, और अच्छा-बुरा सब कुछ खप जाता था। अब तो की-बोर्ड पर टाईप किया एक-एक शब्द, या किसी नाजायज और हिंसक पोस्ट को लाईक कर देना भी दर्ज होते रहता है। इसलिए आज कैमरों के सामने, माईक के सामने डिजिटल मौजूदगी अधिक दर्ज होती है। अब कुछ भी अनदेखा नहीं रहता, और आपका भला या बुरा होना इससे भी साबित हो जाता है कि आपके सामने कैसी बातें हो रही थीं, और उस वक्त आपकी क्या प्रतिक्रिया थी। इसलिए लोगों को फूहड़ लतीफों पर हॅंसने, छेडख़ानी देखकर चुप रहने, किसी ज्यादती को अनदेखा करने के पहले याद रखना चाहिए कि उनकी अपनी साख इन्हीं बातों से बनती और बिगड़ती जा रही है।
तीन दिन बाद छत्तीसगढ़ में विधानसभा की बकाया 70 सीटों पर मतदान होने जा रहा है। देश के पांच राज्यों में अलग-अलग तारीखों पर मतदान हो रहा है, और हर राज्य के अपने अलग-अलग मुद्दे हैं। कहीं पर स्थानीय मुद्दों के साथ-साथ कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के राष्ट्रीय एजेंडा, और उनके राष्ट्रीय नेताओं के चेहरे भी वोटरों के सामने रखे गए हैं। कहीं किसी पार्टी के प्रादेशिक नेता का चेहरा भी सामने है, तो कहीं कोई पार्टी बेचेहरा या अपने राष्ट्रीय नेता के नाम पर लड़ रही है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पांच बरस से कांग्रेस की सरकार चल रही है, और मध्यप्रदेश में पिछले बीस बरस में तकरीबन तमाम वक्त भाजपा की खुद की सरकार रही, और थोड़े से वक्त कांग्रेस की सरकार थी जिसमें खरीद-फरोख्त करके भाजपा फिर वहां काबिज हो गई। इस तरह कहीं पांच बरस तो कहीं पन्द्रह-बीस बरस की सत्ता से नाराजगी या संतुष्टि, जो भी हो, वह भी हवा में है।
अगर हम इन तीन हिन्दी राज्यों की बात करें, तो छत्तीसगढ़, एमपी, और राजस्थान में पिछले चुनाव में कांग्रेस सत्ता पर आई थी, और एमपी में कुछ वक्त बाद ही जिस तरह कांग्रेस में दल-बदल करवाकर भाजपा फिर वहां काबिज हो गई, उससे यह बात साफ है कि मोदी और शाह के राज में मामूली बहुमत हिफाजत की गारंटी नहीं हो सकता। इन तीनों ही राज्यों में बाद में कांग्रेस पार्टी की घरेलू हालत एकदम अलग-अलग रही, और पिछले दो-चार महीनों से इन तीनों प्रदेशों में कांग्रेस की गुटबाजी किनारे धर दी गई दिखती है, और नेता मोटेतौर पर एकजुट दिख रहे हैं। लेकिन चुनाव में मुकाबला अपनी पार्टी से परे दूसरी पार्टियों से होता है, और इस मामले में कांग्रेस, और भाजपा दोनों ही घरेलू आग से नहीं झुलस रही हैं।
अब इन राज्यों की दो बड़ी पार्टियों का यह हाल देख लेने के बाद आगे सवाल यह उठता है कि वोटर चुनाव में किन मुद्दों पर विधायक चुनेंगे? क्योंकि भारत में मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री को सीधे नहीं चुना जाता है, जनता सिर्फ विधायक या सांसद चुनती है, और उसके बाद वे बिना बिके या बिक कर किसी पीएम-सीएम को चुनते हैं। इसलिए वोटरों के सामने पहला चेहरा तो विधायक-उम्मीदवार का है, और उसके नाम के साथ-साथ किसी पार्टी का, या कोई निर्दलीय निशान भी ईवीएम मशीन पर दिखते रहेगा। इसलिए उम्मीदवार को किसी पार्टी या किसी उम्मीदवार के पक्ष में वोट डालने का मौका नहीं रहेगा, उसे किसी पार्टी और उसके उम्मीदवार, इस जोड़ी के पक्ष में ही वोट डालने का मौका रहेगा। ऐसे में उसका फैसला हो सकता है कि कुछ मुश्किल हो। हो सकता है कि उसे उम्मीदवार नापसंद हो, पर पार्टी पसंद हो, और हो सकता है कि इसका उल्टा भी हो।
दूसरा सवाल यह उठता है कि जब पांच बरस की सत्ता, चाहे वह राज्य में हो, या केन्द्र में, जब उसके काम के आधार पर वोट मांगे जा रहे हैं, तो फिर वे काम काफी क्यों नहीं होते? क्यों मोदी और उनकी पार्टी को केन्द्र के कामों, या मध्यप्रदेश के कामों से परे जाकर भावनात्मक, धार्मिक, और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करना पड़ रहा है? और क्यों प्रधानमंत्री को चुनावी सभा में पांच बरस बिना भुगतान राशन की घोषणा करनी पड़ रही है? फिर यह भी है कि इन तीनों ही प्रदेशों में सत्तारूढ़ पार्टी को क्यों अंधाधुंध नए तोहफों, नए जनकल्याणकारी कार्यक्रमों, या नई योजनाओं की घोषणा करनी पड़ रही है? सत्ता के लिए तो उसके पांच बरस के काम ही काफी होने चाहिए थे, लेकिन ऐसा लगता है कि यह चुनाव पांच बरस के कामकाज से एकदम परे जाकर बिल्कुल ही नए मुद्दों पर लड़ा जा रहा है। पांच बरस पहले जो दिया वह मानो बेअसर पेनिसिलीन हो गया, और अब उसकी जगह एक नए जनरेशन के एंटीबॉयोटिक की जरूरत है जो कि गारंटी कार्ड, संकल्प पत्र, चुनावी घोषणापत्र जैसे किसी भी नाम से सामने रखा जा रहा है। तो क्या पांच बरस का सत्ता का काम चुनाव के लिए काफी नहीं होता, और नई मुनादियां करनी पड़ती हैं? और पिछले विधानसभा चुनावों के बाद इन तीन राज्यों ने दिखा दिया था कि तीनों जगह कांग्रेस की सरकार बनाने वाले वोटरों ने छह महीने बाद के लोकसभा चुनाव में 65 में से कुल 3 सीटें कांग्रेस को दी थीं, बाकी सारी सीटें मोदी को चली गई थीं। इसलिए कांग्रेस की सारी घोषणाएं विधानसभा चुनाव में ही उसके काम की रहीं, और लोकसभा में उनका असर खत्म हो गया था। अब सवाल यह उठता है कि लोकसभा के और छह महीने बाद जो पंचायत-म्युनिसिपिल चुनाव होने हैं, उसके लिए क्या फिर से कुछ घोषणाएं होंगी?
बहुत से लोगों को देश में एकमुश्त चुनाव नहीं जम रहे हैं, क्योंकि आज ऐसा होने पर उन्हें सब कुछ मोदी के चेहरे पर चले जाने का खतरा दिखता है। लेकिन उससे परे देखें तो क्या इन राज्यों में हर छह महीने में, कई दूसरे राज्यों में साल-साल भर में चुनावी घोषणापत्र का सिलसिला किसका भला करता है? जनता के पैसों का बेरहमी से अनुपातहीन और बेदिमाग खर्च करके वोट पाने का सिलसिला आखिर कहां तक ले जाएगा? और देश-प्रदेश के ढांचे को मजबूत किए बिना, मौजूदा ढांचे पर थमकर वोटरों को सीधे एक-एक करके प्रभावित करने का यह गलाकाट मुकाबला लोकतंत्र के शासन को सिर्फ एक चुनावी मशीन बनाकर छोड़ दे रहा है। ये चुनाव लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति हैं, या कि ये हितग्राहियों की जनगणना है, यह भी समझने की जरूरत है। फायदा पाने वाले लोग अगर केलकुलेटर पर हिसाब लगाते हैं कि किसी पार्टी की सरकार आने पर रूपए-पैसे का उनका भला कितना अधिक होगा, तो फिर किसी विचार, सिद्धांत, और नीतियों की जगह कहां रह जाती है, जरूरत कहां रह जाती है?
हमारी आज की यह बात किसी एक प्रदेश या किसी एक पार्टी के पक्ष या विपक्ष में नहीं है, यह भारत की लोकतांत्रिक चुनाव व्यवस्था पर फिक्र करने की एक वकालत है कि क्या वोटरों को सीधे-सीधे फायदे देकर उनके वोट खरीदने का यह तरीका लोकतंत्र की सबसे अच्छी व्यवस्था है? इसमें चुनाव आयोग कोई रोक नहीं लगा सकता, और सुप्रीम कोर्ट इस पर सुनवाई ही किए चले जा रहा है, लेकिन देश के लंबे भविष्य की फिक्र अगर किसी को है, तो उन्हें तो यह सोचना चाहिए कि जनकल्याण के अलग-अलग तरीकों से वोट खरीदने के कार्यक्रमों का क्या इलाज निकाला जा सकता है? क्या चुनाव जीतने के हथियारों से देश के लोगों के मेहनत करने की संस्कृति खत्म होती चली जाएगी? क्या सबसे गरीब की भलाई के नाम पर गैरगरीबों तक भी मदद का एक बड़ा हिस्सा पहुंचना जायज है? इस बार के चुनाव का एजेंडा तो सेट हो चुका है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई अभी बाकी है, और जनता को स्टेडियम के दर्शक की तरह बैठे रहने के बजाय अपनी सोच सोशल मीडिया और दूसरी जगहों पर सामने रखनी चाहिए।
भारत की संघीय व्यवस्था में राज्यों की सरकार अलग से चुनी जाती है, और वहां पर संवैधानिक मुखिया, यानी राज्यपाल केन्द्र सरकार की तरफ से भेजे जाते हैं। ऐसे में बहुत से मौके आते हैं जब राज्य सरकार की विचारधारा अलग रहती है, और एक अलग विचारधारा की केन्द्र सरकार अपने एजेंट की तरह काम करने वाले राज्यपाल भेजती है। नतीजा यह होता है कि कई राज्यों में निर्वाचित राज्य सरकार के साथ मनोनीत राज्यपाल के अंतहीन टकराव चलते रहते हैं। अभी सुप्रीम कोर्ट में दो राज्यों के ऐसे ही मामले सुने गए, और पंजाब के साथ-साथ तमिलनाडु के राज्यपाल के खिलाफ वहां की सरकारें गई थीं, और सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों के रूख और फैसलों पर भारी फिक्र भी जताई है, और भारी नाराजगी भी जताई है। उन्होंने राज्यपालों को, सडक़ की जुबान में कहें, तो उनकी औकात याद दिलाई, और कहा कि वे मनोनीत व्यक्ति हैं, और उन्हें निर्वाचित सरकारों से इस किस्म का टकराव नहीं लेना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब के गवर्नर बनवारी लाल पुरोहित को कहा कि वे पंजाब विधानसभा से पारित विधेयकों को तत्काल मंजूर करें जिन्हें कि उन्होंने कई महीनों से अटका रखा है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने पंजाब और तमिलनाडु दोनों के राज्यपालों के बर्ताव पर कहा कि वे लोग आग से खेल रहे हैं, और अगर ऐसा ही रहा तो फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था ही खतरे में पड़ जाएगी। अदालत ने इन्हें कहा कि वे निर्वाचित विधानसभा की ओर से मंजूर विधेयकों को दबाकर न बैठें, यह एक गंभीर मामला है, और इसे मंजूर करने में देर न करें। उन्होंने कहा कि पंजाब में जो हो रहा है उससे हम खुश नहीं हैं। पंजाब सरकार ने राज्यपाल के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दायर की थी, और कहा था कि गवर्नर जो कर रहे हैं वह असंवैधानिक है, और उसके चलते सारे प्रशासनिक काम अटक गए हैं। पंजाब सरकार की तरफ से खड़े हुए वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा था कि शिक्षा और वित्तीय मामलों के सात विधेयकों को जुलाई में गवर्नर को भेजा गया था, और जो अब तक अटके हुए हैं।
सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने जिस तरह से इन दो राज्यपालों की आलोचना की है, उसे पूरे देश के लिए देखा जाना चाहिए। छत्तीसगढ़ में भी विधानसभा से पारित आरक्षण विधेयक को राज्यपाल ने महीनों से रोक रखा है, राजभवन करीब पौन साल से इस पर बैठा हुआ है, और ऐसे ही कई मामले देश भर में जगह-जगह हैं। राज्यपाल विधानसभा के पारित विधेयकों को अंतहीन रोके रखने को अपना हक मानते हैं। और वे केन्द्र सरकार के एजेंट की तरह काम करते हैं। महाराष्ट्र जैसे राज्य में यह देखा हुआ है कि किस तरह राज्यपाल सत्तापलट में औजार बन जाते हैं, और कहीं राज्यपाल तो कहीं विधानसभा अध्यक्ष लोकतंत्र को पटरी से उतारने के लिए ओवरटाईम करने लगते हैं। पंजाब से परे तमिलनाडु में भी मोदी सरकार के मनोनीत राज्यपाल ने 12 विधेयकों पर सहमति रोककर रखी हुई है, और विधेयकों के अलावा भी कई दूसरे फैसले राज्यपाल के पास मंजूरी या सहमति के लिए पड़े हुए हैं।
हमारे पुराने पाठकों को याद होगा कि हम कई बार इस बात को उठा चुके हैं कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजभवन नाम की संस्था पूरी तरह से गैरजरूरी हो गई है, और इसे खत्म कर दिया जाना चाहिए। राज्यपाल लोकतंत्र में किसी भी तरह की संवैधानिक जरूरत नहीं रह गए हैं, और ये पूरी तरह से केन्द्र की सत्ता के हाथ के कभी औजार बने रहते हैं, तो कभी हथियार बने रहते हैं। बहुत से राज्यपालों की हालत लोहे के मोटे-मोटे टुकड़े लेकर राज्य सरकार की ट्रेन को पटरी से उतारने में लगी दिखती है। इनकी जरूरत ढेले भर की नहीं है, और ये अपने आपको निर्वाचित सरकार से ऊपर साबित करने में लगे रहते हैं। लोगों को याद होगा कि पश्चिम बंगाल में भी राज्यपाल ममता बैनर्जी की सरकार को नीचा दिखाने के लिए, उसकी फजीहत करने के लिए रात-रात जागकर काम करते थे, जबकि राज्यपाल को किसी तरह के ओवरटाईम की पात्रता नहीं रहती। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, क्योंकि राजभवन सरकार पर एक बोझ भी रहते हैं। राज्य सरकार एक तरफ तो अगर केन्द्र में विपक्षी सरकार है, तो उससे ही जूझते रहती है, और दूसरी तरफ प्रदेश की राजधानी में राजभवन में बैठे हुए राज्यपाल की साजिशों और हमलों को झेलते रहती है। सुप्रीम कोर्ट ने बहुत अच्छा किया है जो राज्यपालों को यह समझा दिया कि वे मनोनीत हैं और निर्वाचित सरकारें ही जनता की असली प्रतिनिधि रहती हैं।
बहुत साल पहले चिकित्सा विज्ञान से जुड़ी अपराध-कल्पनाओं पर उपन्यास लिखने वाले एक लेखक थे, और उन्होंने दूसरी कई कहानियों के साथ एक कहानी यह भी लिखी थी कि किस तरह एक दवा कंपनी डॉक्टरों को सैर पर एक ऑलीशान जहाज पर ले जाती है, और वहां पर उन्हें ब्रेनवॉश करके इस कंपनी की दवाओं को लिखने के लिए दिमागी रूप से तैयार किया जाता है। अब दुनिया में बैटरी कारों को बनाने वाले सबसे बड़े कारोबारी एलन मस्क की एक रिसर्च कंपनी को अमरीकी सरकार से इंसानों के दिमाग में माइक्रोचिप लगाकर उन्हें कई तरह की न्यूरो (स्नायु) बीमारियों में मदद करने की इजाजत दी है। एलन मस्क दुनिया के सबसे बड़े माइक्रो ब्लॉग प्लेटफॉर्म, ट्विटर (अब एक्स) के मालिक बनने के बाद अधिक खबरों में हैं, और इन दो कारोबारों के साथ वे अंतरिक्ष में सैलानियों को ले जाने का काम भी करते हैं, उपग्रहों से दुनिया के किसी भी हिस्से में इंटरनेट उपलब्ध करा सकते हैं, और अब वे इंसानी दिमाग तक पहुंचने की इजाजत अमरीका के सबसे कड़े समझे जाने वाले दवा-नियंत्रक से पा चुके हैं। इसके बाद उनकी प्रयोगशालाएं न्यूरालिंक नाम के इस प्रोजेक्ट के मानव-प्रयोग शुरू करेगी। जाहिर तौर पर यह चिप ऐसे लोगों के दिमाग में लगाया जाएगा जो लकवे की वजह से या किसी और वजह से बदन का उपयोग नहीं कर पाते हैं, और इस तरह के चिप से वे केवल दिमाग में सोचकर ही कम्प्यूटर पर काम कर सकेंगे। इस प्रोजेक्ट को ब्रेन-कम्प्यूटर इंटरफेस कहा गया है, और इस प्रयोग के लिए हजारों लोगों ने वालंटियर बनने का प्रस्ताव रखा है।
एलन मस्क के इस प्रोजेक्ट के साथ जोडक़र कुछ और चीजों को भी देखने की जरूरत है। अमरीका में वहां के सैनिक विभाग के कई तरह के रिसर्च निजी कंपनियों के साथ मिलकर चलते रहते हैं। ऐसी मिलिट्री रिसर्च बहुत ही खुफिया रहती है, और सरकार निजी कंपनियों को अंधाधुंध पैसा देकर ऐसे शोध काम करवाती है। ऐसे ही एक प्रोजेक्ट के बारे में कुछ अरसा पहले खबर आई थी कि इंसानों के दिमाग में एक चिप लगाकर अमरीकी फौज ऐसे फौजियों को कई तरह की हिंसा करने, और अनैतिक काम करने के लिए भी तैयार कर सकेगी जो कि कोई भी जिम्मेदार इँसान आमतौर पर नहीं करेंगे। मतलब यह कि दिमागी बीमारियों में मदद के दावे की आड़ में अमरीकी फौज अपने सैनिकों को अधिक खूंखार और बेरहम बनाने की तैयारी कर रही है, ऐसे आरोप लगते रहे हैं। फौजियों की भावनाओं पर सेना के इस किस्म से कब्जे की तैयारी के आरोप लगते रहे हैं। उल्लेखनीय है कि कई देशों में अमरीकी फौजों के जुल्म के बाद जब सैनिक वहां से लौटते हैं, तो वे बरसों तक कई तरह की मानसिक बीमारियों से घिर जाते हैं, क्योंकि उस हिंसा की तकलीफदेह यादें उनके दिमाग से निकलती ही नहीं है। अब हो सकता है कि ऐसा कोई चिप लगने से फौजी इंसानों को ऐसे हैवानों में तब्दील कर दिया जाए जिनकी भावनाएं ही न हों।
जब इस तरह की कम्प्यूटर-ब्रेन टेक्नालॉजी को आज की साइबर घुसपैठ और ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से जोडक़र देखा जाए तो इसके खतरे अकल्पनीय रूप से खतरनाक दिखते हैं। ऐसे चिप लगाकर लोगों को अगर उनकी इंसानी सोच से परे का बनाया जा सके, तो फिर उनसे कोई भी काम करवाए जा सकते हैं। यह भी हो सकता है कि लोगों का अपहरण करके, या किसी मेडिकल बेहोशी की हालत में उनमें ऐसे चिप लगा दिए जाएं, या फौजियों से लेकर आतंकियों तक, लोग अपनी मर्जी से ऐसे चिप लगवा लें ताकि वे हथियारों पर बेहतर काबू कर सकें, उन्हें मिलने वाले संदेश और निर्देश अधिक आसानी से पा सकें, और फिर उनकी सरकारें या उनके कारोबार उनसे मनमानी करवा सकें। यह पूरा सिलसिला कुछ दशक पहले तक सिर्फ अपराध कथाओं में रहता था, और अब यह मानव-परीक्षणों के लिए अमरीकी सरकार की मंजूरी पा चुका है। यह भी हो सकता है कि जिस तरह गरीब लोग मजबूरी में किडनी बेचते हैं, उसी तरह बहुत से गरीब पैसों के लिए, या किसी रोजगार के लिए इस तरह के चिप लगवाने को तैयार हो जाएं, और बाद में उन्हें पता ही न चले कि किस तरह वे कामगार से आत्मघाती दस्ते में तब्दील हो गए। लोगों को सरकार और कारोबार की जुर्म की क्षमता को कम नहीं आंकना चाहिए। ये दोनों ही इंसानों को पुर्जों की तरह, हथियारों की तरह, औजारों की तरह इस्तेमाल करने के आदी रहते हैं, और दिमाग में चिप लगा देने के बाद, उसके कम्प्यूटर से रिश्ते के बाद अब इंसान को मशीन जैसा बनाया जा सकेगा, और ऐसे इंसानों के पूरे दिमाग को किसी मशीन पर कॉपी करके उसे रोबोकॉप फिल्म के मशीनी मानव की तरह बनाया जा सकेगा। यह पूरा सिलसिला इतना भयानक है, और इस रफ्तार से आगे बढ़ रहा है, कि इन पर नई अपराध कथाएं लिखना भी आसान नहीं है। आज ऐसी कुछ अलग-अलग खबरों को देखकर, किसी उपन्यास और किसी दूसरी फिल्म को याद करके ये बातें लिखी जा रही हैं, इनका कोई असर ऐसे प्रयोगों को रोकने में तो नहीं होगा, लेकिन लोगों को सावधान करने के लिए हम इतना जरूर लिख रहे हैं।
छत्तीसगढ़ के चुनाव में अभी कुल 20 सीटों पर मतदान हुआ है, और 70 सीटों पर बाकी हैं। दो करोड़ से कुछ अधिक मतदाताओं में से 40 लाख की बारी अभी आई थी, और इन 20 सीटों पर मतदान पिछली बार के मुकाबले अधिक हुआ है, और खासकर बस्तर की 12 सीटों पर मतदान पिछले दो चुनावों से लगातार आगे बढ़ते हुए इस बार रिकॉर्ड वोटों तक पहुंचा है। बस्तर के नक्सल प्रभावित बीजापुर और कोंटा के दो सीटों को अगर छोड़ दें, जहां पर कि 40 और 50 फीसदी वोट डले हैं, तो बस्तर की बाकी सीटों पर तो बहुत अधिक वोट डाले गए हैं। पिछले चुनावों से इन पूरी 20 सीटों की तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि पिछली बार कवर्धा जिले के मतदान इनके साथ नहीं हुए थे, लेकिन कुल जमा आंकड़ों को देखें तो नक्सल प्रभावित बस्तर सबसे अधिक हौसला बंधाता है कि वहां पर राजनांदगांव और कवर्धा जैसे शहरों के मुकाबले भी खासा अधिक मतदान हुआ है। बस्तर के बाहर के दोनों जिलों से अधिक मतदान वाली सीटें बस्तर में हैं।
हम आंकड़ों के अधिक जाल में अभी उलझना नहीं चाहते, लेकिन खबरें बताती हैं कि राज्य बनने के बाद से बस्तर में इस बार सबसे अधिक मतदान हुआ है। हमने इस इलाके को बारीकी से देखा है, और इस अखबार के संपादक ने कल कुछ टीवी चैनलों पर बस्तर के मतदान पर अपनी राय रखी भी है। हमारा मानना है कि बस्तर का अधिक मतदान पिछले पांच बरस में वहां नक्सल हिंसा की कमी की वजह से भी हुआ है, और सुरक्षाबलों के बेहतर काबू की वजह से भी। फिर इसके साथ-साथ एक बड़ी बात यह भी है कि प्रशासन और चुनाव आयोग ने करीब सवा सौ गांवों में नए मतदान केन्द्र शुरू किए, जहां कि लोग आजादी के बाद पहली बार अपने गांवों में वोट डाल सके। इसके साथ ही इन आरोपों की जांच भी होना चाहिए कि कुछ इलाकों में जहां पर सीपीआई के समर्थक माने जाते हैं, वहां से मतदान केन्द्र 15-20 किलोमीटर दूर फेंक दिए गए। कुछ गांवों के लोग इसके खिलाफ प्रदर्शन करते भी दिखे हैं, और सरकार और चुनाव आयोग को अपनी साख को ध्यान में रखते हुए ऐसे आरोपों की जांच करानी चाहिए, और सच्चाई सामने रखनी चाहिए। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने मतदान के बीच ही यह आरोप लगाया था कि सीआरपीएफ के बंदूकधारी लोगों को वोट डालने जाने से रोक रहे थे, प्रदेश के मुख्यमंत्री की तरफ से इससे गंभीर आरोप भला क्या हो सकता है, और चुनाव आयोग और सीआरपीएफ दोनों को इस आरोप की जांच करनी चाहिए, और तथ्यों को पारदर्शी तरीके से जनता के सामने रखना चाहिए। चुनावों को लोकतंत्र में जितना पवित्र काम बताया जाता है, और मतदान केन्द्रों को लोकतंत्र का मंदिर बताया जाता है, तो लोकतंत्र को पूजने जाने वाले लोगों को अगर रास्ते में रोका गया है, तो यह उनकी लोकतांत्रिक भावना को ठेस पहुंचाने के बराबर बात है जिसे कि धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने से कम नहीं मानना चाहिए। चुनाव आयोग को अपनी कामयाबी के आंकड़ों के साथ-साथ ऐसे आरोपों की जांच करवानी चाहिए, ताकि प्रदेश के बाकी करीब तीन चौथाई वोटरों के मन में चुनाव प्रक्रिया को लेकर एक भरोसा कायम रहे। वैसे भी नक्सल हिंसा वाले बस्तर में जब आदिवासी खतरा उठाकर, जान पर खेलकर, और नक्सलियों के हाथों चुनावी स्याही वाली उंगली कटवाने का खतरा झेलकर वोट डालने जाते हैं, तो उनकी कोशिशों में आई किसी भी तरह की बाधा को खत्म करने की कोशिश होनी चाहिए। यह बस्तर बाकी प्रदेश और पूरे देश के सामने एक मिसाल है कि वह हर चुनाव में न सिर्फ अधिक मतदान कर रहा है, बल्कि सरकार को बनाने और बिगाडऩे की अपनी ताकत भी साबित कर रहा है। अक्सर ही पूरे बस्तर का मिजाज किसी एक पार्टी के पक्ष में पूरी तरह से झुका हुआ दिखता है, जिससे साफ होता है कि दूर-दूर बसे हुए आदिवासी भी किस तरह एक बुनियादी सामाजिक-राजनीतिक समझ से बंधे हुए हैं।
इस मौके पर मतदान करवाने वाले लोगों को बधाई भी दी जानी चाहिए जो कि कई जगहों पर तो बुलेटप्रूफ जैकेट पहनकर बैठे थे, और जान का खतरा झेलकर भी यह ड्यूटी कर रहे थे। जब शहरों में लोग चौराहों पर लालबत्ती पर रूकने को भी अपनी शान में गुस्ताखी समझते हैं, तब जंगलों में लोग लोकतंत्र के लिए जान खतरे पर डालकर एक दिन पहले से कहीं हेलीकॉप्टर से, तो कहीं पैदल गांवों तक पहुंचते हैं। जिम्मेदारी की इस भावना को कम नहीं आंकना चाहिए, और शहरियों को इससे सबक लेना चाहिए, शहरी कर्मचारियों को भी, और शहरी मतदाताओं को भी। शहरों में पोलिंग बूथ आधा-एक किलोमीटर से अधिक दूर नहीं रहते, और अधिकतर लोगों के पास गाडिय़ां रहती हैं, दुपहिए रहते हैं, और बेहतर सडक़ें रहती हैं, जिनमें से बस्तर जंगलों में कुछ भी नसीब नहीं रहता। इसके बाद भी अगर शहर, जंगलों के आदिवासियों से कम वोट डालेंगे, तो वे लोकतंत्र को कमजोर करने के गुनहगार भी रहेंगे। वोट जितने अधिक डलते हैं, पार्टियों और नेताओं के दिल उतने ही अधिक दहलते हैं, और लोकतंत्र उतना ही मजबूत होता है, क्योंकि वह अधिक से अधिक वोटरों का चुना हुआ रहता है। इस जिम्मेदारी और इस हक, दोनों का ही सम्मान तमाम लोगों को करना चाहिए। आज जितने फीसदी वोटों के फासले से कोई सरकार बन जाती है, या कोई पार्टी चूक जाती है, उससे कई गुना अधिक लोग घर बैठे रहते हैं। ऐसे ही आरामतलब और गैरजिम्मेदार लोगों की वजह से कई बार गलत उम्मीदवार और गलत पार्टियां जीत जाते हैं। हम छत्तीसगढ़ के ही 2013 के चुनाव याद दिलाना चाहेंगे जब कांग्रेस और भाजपा के बीच वोटों का फासला कुल पौन फीसदी था, और उस पौन फीसदी की वजह से भाजपा की दस सीटें बढ़ गई थीं, और उसकी सरकार बन गई थी। अब अगर घर बैठे दो-चार फीसदी लोग वोट डालने और निकल गए होते, और पौन फीसदी का यह फासला मिट गया होता, तो हो सकता है कि प्रदेश में सरकार कोई और बनी होती। इसलिए घर बैठे लोगों को याद रखना चाहिए कि सिर्फ वोट डालने वाले लोग ही सरकार नहीं बनाते और बिगाड़ते हैं, बल्कि घर बैठे लोग भी अनजाने और अनचाहे ऐसा करते हैं। यह हक पांच बरस में एक बार मिलता है, और यह बेहतर जनप्रतिनिधि, और बेहतर सरकार पाने के लिए एक जिम्मेदारी लेकर आता है।
हम लगातार यह कोशिश करते हैं कि वोटर अधिक से अधिक वोट डालने आएं, और अब तो पार्टियों और उम्मीदवारों में से कोई भी पसंद न आने पर नोटा का विकल्प भी लोगों के पास है कि वे अपनी नापसंदगी भी दर्ज कर सकते हैं, और पार्टियों और उम्मीदवारों को यह समझ पड़ सकता है कि उन्हें खारिज करने वाले कितने लोग हैं। हम अपने यूट्यूब चैनल पर भी लगातार वोटरों से अपील करते रहते हैं, और अखबार के इस संपादकीय कॉलम में तो लोगों की जागरूकता की जरूरत बताते रहते हैं। कम से कम छत्तीसगढ़ को तो अपने सबसे गरीब और सबसे पिछड़े कहे जाने वाले बस्तर को देखकर सबक लेना चाहिए, और अधिक से अधिक वोट बाकी जगहों पर भी पडऩा चाहिए।
एक नई खबर से एक पुराना पूर्वाग्रह फिर जिंदा हो रहा है कि क्या उत्तर भारत और हिन्दीभाषी इलाकों में मर्दों, और खासकर नेताओं की सोच बहुत ही दकियानूसी और महिलाविरोधी है? बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अभी विधानसभा में जनसंख्या नियंत्रण पर बहुत हॅंसते हुए एक इतना घटिया बयान दिया जो कि संसद या विधानसभाओं के इतिहास में कम ही रहा होगा। उसका जो वीडियो सामने है, उसको देखना भी मुश्किल पड़ता है, लेकिन अखबारनवीसी के इस धंधे में हमारी मजबूरी है कि समाचार बनाने और विचार लिखने के लिए हमें बहुत सी बुरी बातों को देखना, सुनना, और पढऩा पड़ता है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि पुलिस को अनचाहे भी जुर्म और मुजरिमों से जूझना पड़ता है, उनसे वास्ता पड़ता ही है। इसी तरह घटिया जुबान बोलने वाले लोगों की बातों को कुछ या पूरी हद तक सामने रखना हमारी मजबूरी रहती है, लेकिन ऐसे मुश्किल पेशे के बावजूद नीतीश कुमार की न सिर्फ महिलाविरोधी, बल्कि अश्लील और फूहड़ बातों का वीडियो देखना बड़ा भारी पड़ रहा है। उन्होंने शादीशुदा लडक़ी के साथ पति के सेक्स करने के दौरान उस लडक़ी के पढ़े-लिखे होने से पडऩे वाले फर्क का जिक्र करते हुए बहुत ही गंदी जुबान में किसी वयस्क किस्से-कहानी की तरह महिला का जिक्र किया। हालत यह है कि मोदी सरकार की बनाई हुई राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा से लेकर कट्टर मोदीविरोधी लोक गायिका नेहा सिंह राठौर तक ने नीतीश कुमार को धिक्कारा है। नेहा ने लिखा है- मुझे याद है दो साल पहले मैंने बिहार सरकार से भोजपुरी फिल्मों और गीतों से अश्लीलता मिटाने की गुहार लगाई थी, सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी थी, आज वजह पता चल गई है। बाकी इनके इस घटिया लहजे की एक बड़ी वजह विधानसभाओं में महिलाओं का अल्पसंख्यक होना भी है। मुझे जानना है कि पूरे बिहार की महिलाओं को सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करने पर इनके विरुद्ध क्या एक्शन लिया जा रहा है।
अपने बयान पर बवाल खड़ा होने पर नीतीश ने विधानसभा में माफी मांगी है, और कहा है कि वे उस पर दुख व्यक्त करते हुए उसे वापिस लेते हैं। उन्होंने कहा कि इस पर मेरी निंदा की जा रही है, और मैं निंदा करने वालों का अभिनंदन करता हूं। उन्होंने लडक़े-लडक़ी के सेक्स के बयान पर माफी मांगी है। उन्होंने जनसंख्या पर काबू करने के आंकड़े गिनाते हुए उस बारे में कहा था कि लड़कियों के पढ़े-लिखे होने से प्रजनन दर घटती हैं, क्योंकि पढ़ी-लिखी लड़कियां अपने पति को समय पर रोक पाती हैं। इसी सिलसिले में उन्होंने बहुत ही गंदी जुबान से और हाथों से गंदी हरकत करते हुए कई बातें कही थी जिस पर सदन हॅंस भी रहा था। उन्होंने माफी मांगते हुए विपक्षी सदस्यों को कहा कि आप लोग कल मुझसे सहमत थे, लेकिन आज ऊपर से आदेश आया होगा कि मेरी निंदा की जाए तो निंदा कर रहे हैं।
हमने ऐसे कई बयानों पर देखा है कि जब किसी विधानसभा या संसद में कोई फूहड़ या अश्लील बात की जाती है, तो बहुत से लोग हॅंसते हैं। यह लोगों का अपना चरित्र और मिजाज रहता है जो उन्हें सरोकारमुक्त रखता है, और लोग पूरी गैरजिम्मेदारी और हिंसा से महिलाविरोधी या अश्लील बातों पर हॅंसते हैं। उत्तर भारत और हिन्दीभाषी राज्यों में चूंकि शिक्षा में कमी है, इसलिए जागरूकता में भी कमी है, और सरोकारों में भी कमी है। इसलिए गंदी बातों पर लोग हॅंसते हैं। लोगों को याद होगा कि इन्हीं नीतीश कुमार के साथी रहे एक दूसरे तथाकथित नेता शरद यादव भी अपनी तमाम अच्छी सोच के साथ-साथ महिलाओं के खिलाफ ओछी और घटिया बातें कहते रहते थे। उन्होंने राजस्थान के चुनाव में वसुंधरा राजे पर कहा था कि उन्हें अब आराम देना चाहिए, वे बहुत थक गई हैं, बहुत मोटी हो गई हैं, पहले पतली थीं। शरद यादव ने ही एक दूसरे मौके पर कहा था कि वोट की कीमत बेटी की इज्जत से बढक़र है, बेटी की इज्जत जाएगी तो गांव-मोहल्ले की इज्जत जाएगी, और अगर वोट बिक गया तो देश की इज्जत जाएगी। राज्यसभा में एक बार शरद यादव ने कहा था कि दक्षिण भारत की महिलाओं का शरीर सुंदर होता है। उनके इस बयान पर भी सदन के कई पुरूष सदस्य हॅंस पड़े थे, बाद में महिलाओं ने उनके ऐसे बयान पर आपत्ति दर्ज कराई थी। लोगों को याद होगा कि एक वक्त उन्होंने पढ़ी-लिखी महिलाओं के लिए परकटी महिला कहा था।
नीतीश का यह ताजा घटिया बयान विधानसभा के भीतर का है, इसलिए उस पर बाहर कोई कार्रवाई नहीं हो सकती। और उनके बयान पर हॅंसने वाले विपक्षी सदस्य भी अब देश भर से निंदा होने पर नीतीश के खिलाफ जाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं रखते। लेकिन महिलाओं सहित पुरूषों की भी जो प्रतिक्रिया नीतीश के खिलाफ आई है, उसे देखते हुए मर्दानगी पर फख्र करने वाले नेताओं, और महिलाओं के खिलाफ ओछी सोच रखने वाले नेताओं या दूसरे लोगों को अपने तौर-तरीके सुधार लेने चाहिए। भाजपा के एक चर्चित और ताकतवर सांसद बृजभूषण शरण सिंह ने उन पर बलात्कार के आरोप लगाने वाली, और सुबूत देने वाली लड़कियों के खिलाफ जैसी ओछी बातें कही थीं, उस बारे में भी भाजपा की स्थाई चुप्पी उनसे यह नैतिक हक छीन लेती है कि वह नीतीश के खिलाफ कुछ बोल सके।
लेकिन हम राजनीतिक दलों पर अलग-अलग चर्चा के बजाय यह बात साफ करना चाहते हैं कि लोगों को ऐसे महिलाविरोधी नेताओं के खिलाफ अदालत जाना चाहिए। लोग व्यक्तिगत रूप से कई बार अदालत तक जाने की ताकत या हौसला नहीं रखते, लेकिन जनसंगठनों को इस किस्म की बेइंसाफ सोच के खिलाफ लड़ाई लडऩी चाहिए।
देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के तहत आज से मतदान शुरू हो गया है। छत्तीसगढ़ की 20 विधानसभा सीटों पर वोट डाले जा रहे हैं। इसके ठीक पहले तक अलग-अलग पार्टियों की तरफ से तरह-तरह की धोखाधड़ी और जालसाजी पोस्ट की जा रही है, कुछ सेक्स-वीडियो भी चर्चा में आने की बात है जिसे लेकर कांग्रेस के एक विधायक पत्रकारों के बीच रोते हुए नजर आए, उन्होंने इसे गढ़ा हुआ बताया। लेकिन गढ़े हुए सेक्स-वीडियो से भी एक परिवार किस तरह तबाह किया जा सकता है, इसे छत्तीसगढ़ के इस कांग्रेस विधायक ने बहुत तकलीफ के साथ रोते-रोते बखान किया, और कहा कि उनके परिवार में भी मां-बहन, बीवी-बेटी सभी हैं, और सेक्स का उनका फर्जी वीडियो गढक़र अगर कोई चुनाव जीतना चाहते हैं तो वे जीत लें, उन्हें ऐसी जीत नहीं चाहिए। इस दर्द को समझा जा सकता है। ऐसी तकलीफ के बीच अगर ऐसे हमले के शिकार बेकसूर लोग खुदकुशी कर लें, तो उसके लिए कौन जिम्मेदार रहेंगे? चुनावों की गंदगी अगर इस हद तक पहुंच रही है, तो यह भी सोचने की बात है कि देश की टेक्नालॉजी और उससे जुड़े कानून क्या कर रहे हैं? जो विधायक न ईडी की कार्रवाई पर रोया, न अदालती कटघरे में नाम आने पर रोया, वह एक ऐसा सेक्स-वीडियो सामने आने पर टूट गया, और बिखर गया।
लोगों की निजी जिंदगी में इस हद तक आग लगाने वाली साजिशें अब और अधिक आसान और खतरनाक हो गई हैं क्योंकि अब कम्प्यूटर पर मौजूद डीपफेक टेक्नालॉजी ने यह आसान कर दिया है कि किसी के वीडियो पर किसी का चेहरा या सिर लगा देना। और इसका इस्तेमाल भी धड़ल्ले से होने लगा है। इसकी ताजा खबर अभी बनी जब बॉलीवुड की एक एक्ट्रेस का डीपफेक वीडियो सामने आया जिसमें किसी और के बदन पर इस एक्ट्रेस का चेहरा लगा दिया गया। इससे जुड़ी खबर बताती हैं कि इसी बरस अब तक करीब डेढ़ लाख डीपफेक वीडियो इंटरनेट पर डाले गए हैं, और दुनिया की कुछ कंपनियां इन्हें बनाने की तकनीक भी बना रही हैं, और कुछ बड़ी-बड़ी कंपनियां इन्हें पकडऩे की तकनीक भी। ऐसे में इस बात को भी याद रखने की जरूरत है कि डीपफेक फोटो या वीडियो बनाने की तकनीक कुछ वक्त से चलन में है, और उसके बाद अब ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस भी आ गया है, और इसकी मदद से हो सकता है कि डीपफेक वीडियो बनाना अधिक आसान हो जाए, और अधिक असली लगते हुए वीडियो बनाने का काम तेज हो जाए। वैसे ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस कंपनियां यह कोशिश भी कर रही हैं कि उनके औजारों से बनाए जाने वाले किसी भी तरह के वीडियो और फोटो पर औजारों की एक छाप दिखती रहे, ताकि उनके गढ़े होने की जानकारी लोगों को मिल सके। लेकिन इन दिनों हिन्दुस्तान जैसे चुनावी माहौल में, और यहां की राजनीति में नकली वीडियो, नकली ऑडियो बनाकर किसी की भी चुनावी और राजनीतिक संभावनाओं को खत्म करने का जो खतरनाक सिलसिला चला हुआ है, वह भयानक है।
हमारा ख्याल है कि किसी की निजी जिंदगी को इस तरह तबाह करने की हरकत, जिससे कि एक मजबूत सत्तारूढ़ विधायक सरीखा व्यक्ति फूट-फूटकर रो पड़े, और चुनाव को हार जाना बेहतर माने, ऐसी नौबत लाने वाली साजिशों के लिए एक अधिक कड़े कानून की जरूरत है। जो लोग सोच-समझकर किसी की निजी जिंदगी को इस हद तक बर्बाद करते हंै, पूरे के पूरे परिवार को खुदकुशी के कगार पर धकेल देते हैं, उनके लिए सूचना तकनीक की मामूली सजा से परे एक कड़ी सजा होनी चाहिए जो कि आत्महत्या को मजबूर करने पर होने वाली सजा जैसी रहनी चाहिए। दूसरी बात यह भी है कि पुराने परंपरागत जुर्म पर होने वाली सजा के अंदाज में अगर नई टेक्नालॉजी के जुर्म देखे जाएंगे, तो एक जुर्म पर सजा के पहले लाखों वैसे जुर्म और हो चुके रहेंगे। इसलिए हमारा यह भी ख्याल है कि कम्प्यूटर और सूचना तकनीक, इंटरनेट और दूसरे संचार साधनों से होने वाले जुर्म के लिए एक अलग अदालत होनी चाहिए। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि अधिकतर जजों को कम्प्यूटर और इससे जुड़ी तकनीक की अधिक जानकारी रहती नहीं है। यह नई पीढ़ी की ऐसी टेक्नालॉजी है जिसे इस पेशे और कारोबार से जुड़े लोग ही अधिक समझते हैं। इसलिए हमारा ख्याल है कि न्यायपालिका को जिलों के स्तर पर एक आईटी कोर्ट बनाना चाहिए जहां पर एक अलग समझ और जानकारी वाले जज रहें, और सरकारी वकीलों में भी आईटी-कम्प्यूटर के जानकार वकील रहने चाहिए, जो कि वकालत के साथ-साथ इस किस्म की पढ़ाई किए हुए हों, या बाद में इस तकनीक का अलग से प्रशिक्षण पाए हुए हों। परंपरागत जानकारी और समझ वाले जज और वकील 21वीं सदी की इस भयानक नौबत से निपटने के लायक नहीं हैं।
लोगों को लग सकता है कि बात-बात पर अलग-अलग किस्म की अदालतों सुझाने से अदालतों का रोजमर्रा का काम प्रभावित होगा। लेकिन हमारी समझ यह कहती है कि आईटी एक्ट से जुड़े हुए जितने किस्म के जुर्म न सिर्फ राजनीति और चुनाव में, बल्कि निजी ब्लैकमेलिंग में, सोशल मीडिया पर बदनाम करने में, साइबर-ठगी में, दूसरे किस्म की कम्प्यूटर जालसाजी में सामने आ रहे हैं, वे जिला स्तर पर एक अदालत के लिए काफी दिख रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार को यह सोचना चाहिए, और ऐसा ढांचा तैयार करने के लिए देश की मौजूदा लॉ-यूनिवर्सिटीज में अलग से कोर्स चलाए जा सकते हैं जिनमें चुनिंदा जजों और वकीलों को टेक्नालॉजी के विशेषज्ञ, और संबंधित कानूनों के विशेषज्ञ अलग किस्म से तैयार कर सकें। आज सूचना तकनीक और संचार तकनीक की मिलीजुली साजिशों से लोगों की जिंदगी जिस हद तक तबाह की जा रही है, उसे देखते हुए देश की न्याय व्यवस्था तय करने वाले लोगों को कुछ कल्पनाशीलता भी दिखानी चाहिए, वरना तरह-तरह के मुजरिम लोगों को लूटते रहेंगे, और उनकी निजी जिंदगी को तबाह करते रहेंगे। टेक्नालॉजी छलांगें लगाकर आगे बढ़ रही है, और उसके साथ-साथ अगर साइबर पुलिसिंग, और ऐसे जुर्मों की जांच के लिए एजेंसियां बेहतर तैयार नहीं होंगी, अदालतें बेहतर प्रशिक्षित नहीं होंगी, तो फिर जनता के महफूज रहने का हक कहीं भी मुजरिमों और ब्लैकमेलरों की रफ्तार से मेल नहीं खा सकेगा।
यह लिखते-लिखते ही खबर दिख रही है कि छत्तीसगढ़ के चर्चित महादेव ऑनलाईन सट्टा एप्लीकेशन को केन्द्र सरकार ने ब्लॉक किया है, और कुछ घंटों के भीतर ही इसके गिरोह ने नया लिंक जारी कर दिया, और यह भी कहा है कि दांव लगाने वालों के आईडी और पासवर्ड पुराने ही रहेंगे। अब क्या बिजली की रफ्तार से होने वाले संगठित अपराधों का कोई मुकाबला अंग्रेजों के वक्त के ढर्रे पर चल रही पुलिस और अदालतें कर सकती हैं? और साथ-साथ यह भी कि अब अगर लोगों के फर्जी सेक्स-वीडियो डीपफेक तकनीक से एकदम असली दिखते हुए बनने लगेंगे, तो कितने परिवार खत्म होंगे, कितने लोग खुदकुशी करेंगे?