संपादकीय
भारत के पड़ोस में बसे हुए म्यांमार में आज सुबह हुई सैनिक बगावत के बाद वहां की सबसे बड़ी निर्वाचित नेता आंग सान सू की सहित बहुत से निर्वाचित नेताओं को सेना ने कैद कर लिया है और देश में एक बरस के लिए इमरजेंसी लागू करके सरकार संभाल ली है। दस बरस पहले म्यांमार के चुनावों में आंग सान सू की जीतकर आई थीं और उनकी पार्टी ने सरकार बनाई थी। वैसे तो लंबे समय तक नजरबंद रहते हुए आंग सान सू की को नोबल शांति पुरस्कार भी मिला था, लेकिन पिछले कई बरसों से उनकी अंतरराष्ट्रीय साख खत्म हो चुकी थी क्योंकि उनकी सरकार ने रोहिंग्या मुस्लिम अल्पसंख्यकों का जिस बुरी तरह मानव संहार करके उन्हें देश से निकाला था, उसकी उम्मीद उनसे और उनकी सरकार से किसी ने नहीं की थी। म्यांमार पांच देशों के बीच बसा हुआ देश है। बांग्लादेश, भारत, चीन, लाओ, और थाईलैंड से उसकी सरहद जुड़ी है, और इन देशों में से रोहिंग्या मुस्लिमों को बांग्लादेश ही शरण पाने के लिए ठीक लगा था, और वे समंदर के रास्ते वहां पहुंचे। अभी बांग्लादेश म्यांमार से रोहिंग्या शरणार्थियों की वापिसी के लिए बातचीत कर ही रहा था कि म्यांमार सरकार चली गई, और वहां जो फौजी तानाशाह आज काबिज हुआ है, वह रोहिंग्या शरणार्थियों के व्यापक मानव संहार का मुजरिम माना जाता है।
करीब साढ़े 5 करोड़ आबादी का यह देश वैसे तो भारत के एक औसत राज्य जितना बड़ा ही है, लेकिन चीन से लगी हुई लंबी सरहद के चलते म्यांमार भारत की विदेश और फौजी नीतियों में बड़ी नाजुक जगह रखता है। चीन की तरह ही म्यांमार बौद्ध बहुल देश है, और वहां सत्तारूढ़ बौद्ध ताकतों ने धार्मिक अल्पसंख्यकों को कुचलकर भी रखा है। म्यांमार में 85-90 फीसदी बौद्ध हैं, और उनकी मार के आगे 4 फीसदी के करीब मुस्लिमों के बचने की गुंजाइश कम ही थी। नतीजा यह हुआ कि लाखों रोहिंग्या शरणार्थी उनके गांव जला दिए जाने के बाद, व्यापक हत्या और बलात्कार के बाद देश छोडऩे को मजबूर हुए थे।
अंग्रेजों के वक्त से बर्मा कहे जाने वाले इस देश के साथ भारत के मजबूत रिश्ते रहे, लेकिन सांस्कृतिक रूप से आज का म्यांमार अपने बाकी बौद्ध बहुल देशों, चीन, लाओ, और थाईलैंड के अधिक करीब रहा। वैसे भी भारत और बांग्लादेश की सरहद से जुड़े म्यांमार में चीन की दिलचस्पी स्वाभाविक ही है, और नक्शे को देखें तो एक और वजह समझ आती है कि भारत और बांग्लादेश की करीब समुद्री सीमा भी म्यांमार से लगी हुई है, और वह चीन के लिए रणनीतिक रूप से जरूरी भी है। ऐसे में भारत के इस पड़ोसी देश का कमजोर लोकतंत्र जब घोषित रूप से फौजी तानाशाही बन रहा है, तो भारत के लिए यह एक बड़ी फिक्र की बात भी है। चीन के साथ कई मोर्चों पर भारत की तनातनी, और टकराहट जारी है। चीन और भारत के बीच एक दूसरे देश नेपाल को लेकर भी इन दोनों देशों में खींचतान है, और नेपाल से भी भारत के लिए कोई राहत की बात नहीं आ रही है, घूम-फिरकर नेपाल चीन के करीब ही दिखाई पड़ता है।
म्यांमार में 2011 में चुनाव जीतकर सत्ता में आई शांति की प्रतीक दिखती आंग सान सू की म्यांमार के पिछले चुनावों में बड़े पैमाने पर धांधली की फौजी तोहमत भी झेल रही थीं। सरकार और सेना के बीच तनातनी चल रही थी, और आंग सान सू की की पार्टी की चुनावी जीत की आंधी को फौज ने धोखाधड़ी और धांधली करार दिया था। म्यांमार के पिछले दशकों को देखें तो यह जाहिर है कि वहां लोकतंत्र बहुत मजबूत नहीं था, और फौज जरूरत से अधिक बड़ा किरदार निभाते आ रहा था। 2011 के चुनाव के पहले 15 बरस आंग सान सू की नजरबंदी में थी, लेकिन इस पूरे लोकतांत्रिक संघर्ष की उनकी साख रोहिंग्या मुस्लिमों के जनसंहार से खत्म हो गई थी।
भारत के पास आज म्यांमार को लेकर सार्वजनिक रूप से करने को कुछ नहीं है। भारत काफी पहले वह नैतिक ताकत खो चुका है जिससे वह दुनिया भर में दूसरे देशों के मामलों में भी खुलकर बोल पाता था। इसलिए आज जब दूर बैठा अमरीका म्यांमार के आज के फौजी सत्ता पलट पर भारी नाराजगी जाहिर करते हुए नेताओं की रिहाई की मांग कर रहा, और फौजी ताकतों को चेतावनी दे रहा है, तब भारत के करने का कुछ नहीं दिखता। भारत अपनी जमीन पर शरण पाए हुए रोहिंग्या मुस्लिमों को लेकर भी छुटकारा पाने की कोशिशों में लगा हुआ है, और बीते बरसों में इन मुस्लिमों का भारत में कुछ तबकों ने खुलकर विरोध भी किया था। आने वाला वक्त यह साफ करेगा कि म्यांमार की नई फौजी हुकूमत कितने वक्त तक चलती है, उसका रूख क्या रहता है, वहां पर चीन का दखल क्या रहता है, और इस फौजी हुकूमत का भारत के लिए क्या रूख रहता है। फिलहाल हम भारत के किसी भी पड़ोसी देश में लोकतंत्र के कमजोर होने को भारत के लिए एक बड़ी परेशानी मानते हैं, और उसे भारत के लिए एक खतरा मानते हैं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
गणतंत्र दिवस पर देश में महीनों से चल रहे किसान आंदोलन का तनाव तो दोपहर बाद शुरू हुआ, लेकिन इसके पहले के एक-दो दिनों से देश आजादी और देशभक्ति के गानों में डूबा हुआ था। इन दिनों टीवी के अनगिनत चैनलों पर दर्जनों रियलिटी शो चलते हैं, जो कैलेंडर के मौसम को देखकर लोगों की भावनाओं पर अपनी उंगलियां धरते हैं। टीवी के कई कार्यक्रम रिटायर्ड फौजियों से भरे हुए थे, जिनकी जंग की हसरत पंचतत्वों में विलीन हो जाने के बाद भी कायम रहेगी। दूसरी तरफ गणतंत्र दिवस पर सम्मान के नाम पर मौजूदा फौजियों को स्टूडियो में बिठाकर सम्मान किया गया, और उनकी बहादुरी या शहदत की कहानियां दोहराकर टीवी के दर्शकों को खासा रूलाया भी गया। यह मौका गणतंत्र दिवस का था, जिस दिन देश का संविधान लागू हुआ था, न कि जिस दिन देश आजाद हुआ था। लेकिन किसी भी राष्ट्रीय पर्व को युद्धोन्माद, देशभक्ति, और समर्पण से जोडऩे की जो संस्कृति पैर मजबूत जमा चुकी है, वहां हर मौके पर फौज और शहादत का महिमामंडन करने में लग जाती है। इसमें कोई दिक्कत नहीं है सिवाय इसके कि बहादुरी की कहानियों और आंसुओं के बीच एक रूखा-सूखा शब्द, संविधान, खो जाता है।
अगर निशाना टीआरपी न होता, दर्शक संख्या बढ़ाने की अर्नबी फिक्र न होती, तो शायद गणतंत्र दिवस पर अमल किए गए संविधान पर भी कुछ चर्चा हो सकती थी। लेकिन देश में आज न सिर्फ टीवी-मीडिया, बल्कि सत्ता के कब्जे की कमाल और संस्थाओं की नीयत संविधान को फर्श पर पड़े बाकी कचरे के साथ बुहारकर पड़ोसी के घर के सामने फेंक देने की रहे, तो फिर संविधान पर चर्चा ही क्यों छेड़ी जाए? फिर यह तो बहुत खतरनाक बवाल की बात है कि संविधान पर चर्चा होगी तो फिर यह भी बात होगी कि इस देश में वह किस कदर नाकामयाब हो चुका है, ताकतों ने उसे किस हद तक खारिज कर दिया है। नाकामयाबी की बातों से भी भला कहीं टीआरपी बढ़ती है? न चैनल की बढ़ती, न ही मुल्क की सरकार की। इसलिए यह कोई मासूम चूक नहीं थी कि संविधान लागू होने के दिन फिर तो झंडे से जोड़ा गया, डंडे से तोड़ा गया, सरहदों पर दुश्मन से खतरे से जोड़ा गया, लेकिन संविधान से नहीं जोड़ा गया। इस दिन को किसानों को बदनाम करने के लिए तो इस्तेमाल किया गया, लेकिन संविधान को श्रद्धांजलि देने के लिए नहीं किया गया। वोटों की मंडी में तिजारत करने वाले बड़े धूर्त होते हैं, और वे जानते हैं कि जलते-सुलगते मुद्दों को किस तरह किनारे धकेला जा सकता है। वे देशभक्ति के नाच-गाने से लेकर, बदन का कोई हिस्सा खो चुके किसी फौजी की बहादुरी तक का इस्तेमाल कर लेते हैं, लेकिन देश में कहां-कहां संविधान को कुचला जा रहा है, किन तबकों के संवैधानिक अधिकार छीने जा रहे हैं, उस तक कल्पना को नहीं आने दिया जाता।
जिन तबकों को संविधान ने कुचलने के सिवाय और कुछ नहीं किया है, उन तबकोंं को यह दिन नजरों से उसी तरह दूर रखना चाहता है जिस तरह अहमदाबाद के फुटपाथी बेघरों को दीवार बनाकर ट्रंप की नजरों से दूर रखा गया था, या जिस तरह देश के सबसे साफ शहर एमपी के इंदौर में बेघर-बेसहारा बुजुर्गों को म्युनिसिपल ने कचरा गाड़ी में लादकर शहर के बाहर फेंककर साफ शहर के बाशिंदों की नजरों से दूर कर दिया गया था। कुछ लोगों ने इंदौर में बेघर-बुजुर्ग नाम की गंदगी को हटाने के वीडियो बनाए, और जिन्हें देखकर देश के लोग हिल गए। लेकिन देश के लोगों के संवैधानिक अधिकारों की अनदेखी इस तरह कुछ मिनटों के वीडियो पर कैद नहीं हो सकती, इसलिए देशभक्ति के वीडियो का सैलाब स्टूडियो से शुरू होकर लालकिले तक बहता रहा।
लोकतंत्र में जब कुछ खास दिनों की अहमियत को पूरी तरह अनदेखा करके उनसे ठीक अलग किस्म के गैरमुद्दों की ओर लोगों को ध्यान खींच लिया जाए, तो वह उस दिन को कुचलने की साजिश की कामयाबी होती है। संविधान पर चर्चा आज भला कौन चाहते हैं? सत्ता पर बैठे लोग तो नहीं चाहते, और इसलिए देश में जनमत और जनधारणा बनाने की ताकत रखने वाली अधिकतर संस्थाएं भी नहीं चाहतीं, ताकतवर मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी नहीं चाहता। जब लोग चुनावों के ठीक पहले के बरसों में मुगलों की जुल्म की कहानियां बताने वाले टीवी सीरियल का वक्त मासूम समझते हैं, वे गणतंत्र दिवस पर देशभक्ति के सैलाब को भी मासूम समझ सकते हैं, या बता सकते हैं। गणतंत्र दिवस तो एक आजाद देश को आजाद हुए बरसों हो जाने के बाद उसके संविधान के लागू होने का दिन है, और आज उस संविधान की हत्या करते हुए भी इस दिन का जश्न महज आजादी पर फोकस रखना कोई मासूम काम नहीं है।
हिन्दुस्तान में एक भी टीवी चैनल ऐसा रहा हो तो हम उसके बारे में जरूर जानना चाहेंगे जिसने गणतंत्र दिवस पर अपनी बहस इस देश में संविधान की कामयाबी या नाकामयाबी पर केन्द्रित रखी हो। स्कूल-कॉलेज या किसी और दफ्तर में जहां कहीं झंडे के सामने भाषण हुए हों, क्या वहां पर कोई भी चर्चा देश के कमजोर तबकों के संवैधानिक अधिकारों पर हुई होगी? सच तो यह है कि संविधान लागू होने की सालगिरह के तुरंत बाद गांधी की हत्या का दिन आता है, और अब तो लोग यह भी भूल चले हैं कि गांधी की हत्या संविधान के तहत बने कानूनों के खिलाफ थी। अब तो देश में खुलेआम एक तबका इतना मुखर है कि उसे गांधी को कोसने और गोडसे को पूजने को छुपाने की जरूरत भी नहीं लगती है। ऐसा क्या गणतंत्र दिवस मनाना जो गोडसे की पूजा पर फिक्र के बिना पार हो जाए? किसी भी मौके की सालगिरह अगर उस मौके और वजह की अनदेखी करते हुए हो, तो उससे अच्छा है कि वह न ही हो। धूमिल ने शायद दशकों पहले इस नौबत का अंदाज लगा लिया था और लिखा था- क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है जिन्हें एक पहिया ढोता है, या इसका कोई खास मतलब होता है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान का एक सबसे बड़ा पाखंड कल शुरू होने के पहले ही खत्म हो गया। एक किस्म से अन्ना हजारे का किसानों के पक्ष में अनशन शुरू न होना किसानों के लिए अच्छा ही रहा। इस अनशन को समर्थन जुटता, उसे साथ मिलती, उसके बाद अन्ना हजारे इस साख को बेचकर निकल पड़ते तो किसानों के मुद्दे का बड़ा नुकसान होता। खादी की खाल ओढ़े हुए यह स्वघोषित गांधीवादी कल खुद ही उजागर हो गया जब उसने अपने कई हफ्तों पहले के घोषित कृषि कानूनों के खिलाफ अनशन को खुद होकर रद्द कर दिया। उन्होंने मोदी सरकार के तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ शनिवार से भूख हड़ताल की घोषणा की थी, लेकिन महाराष्ट्र के भूतपूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता देवेन्द्र फडनवीस की मौजूदगी में उन्होंने इसे रद्द करने की घोषणा की। उन्होंने कहा कि केन्द्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य को 50 फीसदी तक बढ़ाने का फैसला लिया है इसलिए वे अपना अनशन वापिस ले रहे हैं।
देश को अच्छी तरह याद है कि कोई एक दशक पहले दिल्ली में अन्ना हजारे ने जन लोकपाल बनाने का एक आंदोलन छेड़ा था। उस वक्त केन्द्र में मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार का राज था। वह आंदोलन बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ाया गया, उसमें अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, और बाबा रामदेव सरीखे लोग शामिल हुए, और इस आंदोलन का कोई नतीजा निकले इसके पहले केजरीवाल राजनीति में आ गए, और दिल्ली में कांग्रेस सरकार के खिलाफ उन्होंने चुनाव लड़ा, और अपनी सरकार बनाई। बाबा रामदेव ने योग और आयुर्वेद का कारोबार बढ़ाते हुए साबुन तेल और टूथपेस्ट तक उसका विस्तार किया और विदेश के एक सबसे बड़े नवोदित कारोबारी बन गए। इसी आंदोलन में हाथ बंटाने के लिए कर्नाटक से निकलकर स्वघोषित श्रीश्री रविशंकर भी पहुंचे जो कि कर्नाटक में भाजपा के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के भयानक भ्रष्टाचार पर आंखें बंद किए हुए बैठे थे, लेकिन दिल्ली में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन में वे लगातार जुटे रहे। यूपीए सरकार को भ्रष्ट साबित करते हुए अन्ना हजारे और उनकी टोली ने जो आंदोलन चलाया था, वह यूपीए के विसर्जन के साथ पूरा हो गया, और सत्ता पर आई मोदी सरकार ने पांच बरस तक उस लोकपाल का गठन नहीं किया जिसके बिना अन्ना हजारे सांस नहीं ले पा रहे थे। लेकिन अन्ना हजारे ने ऊफ भी नहीं किया।
हिन्दुस्तान में खादी एक सबसे बड़ा धोखा है। कहावतों में जिस तरह भेडिय़ा भेड़ की खाल ओढक़र हमले करता है और लोगों को शक नहीं होता, उसी तरह इस देश में सबसे बड़े जुर्म खादी पहनकर किए जाते हैं, और लोग ऐसे लोगों को गांधीवादी मानते हुए उनके जुर्म की कोई साजिश भी नहीं समझ पाते। अन्ना हजारे ऐसे ही एक धूर्त हैं जिन्हें चुनिंदा पार्टियों और नेताओं के भ्रष्टाचार पर हमला तो देश का सबसे जरूरी मुद्दा लगता है, लेकिन दूसरे लोगों के भ्रष्टाचार, दूसरी पार्टियों के भ्रष्टाचार, गैरआर्थिक भ्रष्टाचार और जुर्म से अन्ना हजारे को कोई शिकायत नहीं रहती। अपने आपको गांधीवादी कहते हुए यह आदमी जिस तरह खादी और गांधी टोपी के नकाब के पीछे से अपनी नीयत के काम करता है, उसकी शिनाख्त करने की ताकत हिन्दुस्तान की जनता में नहीं रह जाती। क्योंकि वह गांधी से परे आमतौर पर नहीं देख पाती। यही वजह है कि हिन्दुस्तान की राजनीति में कई किस्म की पार्टियां हैं, गांधी के कत्ल से सहमत पार्टियां भी हैं, लेकिन खादी पहनना इनमें से अधिकतर की मजबूरी हो जाती है क्योंकि हिन्दुस्तानी चेतना में खादी से परे कोई और पोशाक जनसेवक की हो नहीं सकती।
आज किसानों के मुद्दे गणतंत्र दिवस के पहले के मुकाबले अधिक मुखर हैं, केन्द्र सरकार के साथ किसानों का टकराव और बढ़ा हुआ है, अब आंदोलनकारी किसानों को मुल्क का गद्दार साबित करने की खुली कोशिश हो रही है, किसानों ने राजधानी के आसपास सडक़ों पर तमाम सर्द मौसम के महीने गुजारते हुए दर्जनों साथियों को खोया भी है, लेकिन ऐसे नाजुक मोड़ पर पहुंचे हुए किसानों का मुद्दा अगर इस पाखंडी अन्ना हजारे को सुलझा हुआ दिख रहा है, तो यह बहुत अच्छा हुआ कि इसका पाखंड इतनी जल्द खत्म हो गया। अगर यह किसानों का हमदर्द होकर कुछ और दूर तक उनके साथ चला होता, तो यह उन साख को चौपट कर जाता। लेकिन किसानों ने भी जिंदगी में बहुत से अच्छे काम किए होंगे जो इस बहुरूपिए से उनका छुटकारा पहले ही दिन हो गया।
हिन्दुस्तान में, और बाहर भी, एक कहावत चलती है कि हर चमकती हुई चीज सोना नहीं होती, हिन्दुस्तानी जनता को यह याद रखना चाहिए कि खादी की हर खाल के पीछे गांधीवाद समाजसेवक नहीं होते, इसके पीछे अन्ना हजारे जैसे भाड़े पर काम करने वाले लोगों की तरह के लोग भी होते हैं, जिनको भाड़ा पता नहीं किस शक्ल में दिया जाता है, लेकिन जो सरकार गिराने या किसी नेता को हराने की सुपारी लेते हैं। अब जैसा कि अन्ना हजारे ने खुद ही घोषणा की थी, यह उनके जीवन का आखिरी अनशन होने वाला था, अपनी जिंदगी के इस आखिरी नाटक का अन्ना हजारे पर्दा ही नहीं उठा पाए। लोगों को यह मनाना चाहिए कि यह खादी की खाल में जनआंदोलनों के नाम की साजिशों का एक अंत हो। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
यह तो अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने बाम्बे हाईकोर्ट के एक फैसले को रोक दिया है जिसमें वहां की एक महिला जज, जस्टिस पुष्पा गनेडीवाला ने एक बच्ची के साथ सेक्स की कोशिश कर रहे एक अधेड़-बुजुर्ग की सजा घटा दी थी कि जब तक सेक्स की नीयत से चमड़ी का चमड़ी से संपर्क न हो तब तक कपड़ों के ऊपर से बच्ची के सीने को दबोचना यौन शोषण के दर्जे में नहीं आता। खबर आने के कुछ घंटों के भीतर ही इसी जगह पर हमने लिखा था कि यह आदेश सुप्रीम कोर्ट को तुरंत खारिज करना चाहिए वरना इसकी मिसाल देश भर में बलात्कारी देने लगेंगे। यह तो अच्छा हुआ कि दो-चार दिन के भीतर ही सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर रोक लगा दी। लेकिन कुछ हफ्ते पहले का मध्यप्रदेश हाईकोर्ट का एक दूसरा आदेश इसी तरह खबरों में आया था जिसमें जेल में बंद बलात्कार के एक आरोपी की जमानत के लिए जज ने शर्त रखी थी कि वह जाकर शिकायतकर्ता बलात्कार की शिकार से राखी बंधवाकर आए तब उसे जमानत मिलेगी। जजों का यह पूरा का पूरा सिलसिला ही इसलिए खतरनाक है कि यह हाईकोर्ट या उससे भी ऊपर की जजों को तानाशाह किस्म के अधिकार देता है, और जज बनने के लिए सामाजिक सरोकार, सामाजिक समझ इसकी अनिवार्यता नहीं रखता है।
दुनिया के सामने अदालतों और जजों को लेकर लोकतांत्रिक देशों में कई किस्म की मिसालें हैं, और देशों को एक-दूसरे से सीखना चाहिए। अमरीकी न्यायपालिका में सबसे बड़ी अदालत में अगर किसी जज की तैनाती होनी है, तो उससे वहां की संसद की कमेटी, या कमेटियां, लंबी पूछताछ करती हैं। यह सुनवाई सार्वजनिक होती है, और इसे बाकी लोग भी देख सकते हैं। जज बनने की कगार पर खड़े हुए लोगों से सांसद उनकी धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक सोच के बारे में लंबे सवाल-जवाब करते हैं, और उनकी जिंदगी के बारे में पता लगी किसी विवादास्पद बात के बारे में भी। जज बनने के पहले लोगों को अपना दिल-दिमाग सांसदों के सामने खोलकर रखना पड़ता है, वे गर्भपात जैसे विवादास्पद अमरीकी मुद्दे पर क्या सोचते हैं यह भी सामने रखना पड़ता है।
भारत में किसी का हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का जज बनना एक बड़ा रहस्यमय सिलसिला है। इस देश के सुप्रीम कोर्ट ने अपनी खुद की कॉलेजियम नाम की एक संस्था बना ली है जो निचली अदालतों के जजों, और बड़ी अदालतों के वकीलों में से हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज बनाने लायक नाम छांटती है। जिसके बाद ये नाम सरकार को भेजे जाते हैं, और सरकार इन नामों की छानबीन करके इनमें से कुछ को मंजूरी देती है, और कुछ नामों को ठोस आधार पर रोकती है। यह सिलसिला गोपनीय रहता है, और इसी नाते रहस्यमय भी रहता है। बीती कई सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट के इस तानाशाह-एकाधिकार को तोडऩे की कोशिश भी की कि जज खुद ही जज नियुक्त न करें, और उसमें सरकार या संसद की भी भूमिका रहे। हम इसमें सरकार के दखल के तो हिमायती नहीं हैं क्योंकि भारत में आम समझ यह कहती है कि सरकार अदालत से अधिक भ्रष्ट है। लेकिन जजों की नियुक्ति न्यायपालिका का एकाधिकार रहे, यह बात भी ठीक नहीं है।
जिन दो फैसलों को लेकर हम आज इस मुद्दे पर लिख रहे हैं, वे दो फैसले महज नमूना हैं। वैसे और भी बहुत से मनमाने फैसले हैं, या जजों की कही गई ऐसी बातें हैं जो कि सामाजिक न्याय की उनकी बहुत कमजोर समझ का सुबूत भी हैं। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज बनाए जाने के पहले संसद की कमेटियां इनकी औपचारिक सुनवाई करें, और उनसे पूछे गए सवाल, उनके दिए गए जवाब रिकॉर्ड में लाए जाएं, उसके बाद ये दस्तावेज एक बार कॉलेजियम को भेजे जाएं, ताकि वह अपनी सिफारिशों पर फिर से गौर कर सके, और उसके बाद ही वे नाम सरकार को कमेटी की कार्रवाई के दस्तावेज सहित भेजे जाएं ताकि सरकार भी उन पर गौर करते हुए कमेटी की कार्रवाई को देख सके।
ऐसे किसी भी फेरबदल या सुधार के खिलाफ एक बड़ा तर्क खड़ा कर दिया जाता है कि देश के हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों के सैकड़ों पद खाली पड़े हुए हैं, और उन्हें भरने में देर होने से मामलों के गट्ठे और बढ़ते चल रहे हैं। जजों की ये खाली कुर्सियां रातोंरात तो खाली हुई नहीं है, यह बरसों की लापरवाही और अनदेखी का नतीजा है। इन्हें भरते हुए कमजोर सामाजिक समझ के लोगों को जज बना देना कोई बहुत अच्छी बात भी नहीं रहेगी क्योंकि वैसे जज रिटायर होने तक बेइंसाफी करते रहेंगे। हमारी सलाह से यह पूरा सिलसिला कुछ महीने और लेट हो सकता है, लेकिन उससे बेहतर जज तैनात होंगे और देश में बेहतर इंसाफ होगा।
दिल्ली के लालकिले पर कुछ लोगों द्वारा किया गया हंगामा अब साफ होते चल रहा है, और गणतंत्र दिवस की शाम देश भर में फैलाई गई यह खबर पूरी तरह झूठी साबित हो चुकी है कि लालकिले पर तिरंगे झंडे को हटाकर उसकी जगह खालिस्तानी झंडा फहराया गया था, और यह काम किसानों ने किया था। अब यह जाहिर हो चुका है कि लालकिले पर सिक्ख पंथ का झंडा फहराने का फतवा भाजपा के प्रचारक रहे हुए एक पंजाबी फिल्म अभिनेता दीप सिद्धू ने दिया था, और तिरंगे झंडे को छुआ भी नहीं गया था। लेकिन इस साजिश के पीछे चाहे जिसकी बदनीयत रही हो, इसे अपना असर दिखा दिया, और किसान आंदोलन में फूट पड़ गई, वह कमजोर हो गया, कुछ संगठनों ने डेरा उठा लिया, और मौके की कमजोरी को भांपकर कुछ जगहों पर भाजपा की राज्य सरकारों ने आंदोलन खत्म करवाने के हिसाब से कार्रवाई शुरू कर दी। किसानों के एक मोर्चे पर बीती आधी रात से बिजली काट दी गई, और कुछ दूसरी जगहों पर दूसरी असुविधा खड़ी की गई। आज किसानों के बीच आपस में तू-तू-मैं-मैं शुरू हो गई कि लालकिले पर हुए हंगामे के बाद अब आंदोलन कैसे चलाया जाए?
हिन्दुस्तान में लंबे चलने वाले आंदोलनों को कमजोर करना सत्ता की पहली नीयत होती है। और यह बात किसी एक पार्टी की नहीं होती, बल्कि यहां जिसकी सरकार रहे, वहां उसकी यही नीयत होती है। पार्टियां तो आती-जाती रहती हैं लेकिन किसी भी सरकार में जो हमेशा बने रहते हैं वो अफसर रहते हैं। अफसरों का लोकतंत्र से वैसे भी बहुत कम लेना-देना होता है, और आमतौर पर वे सत्तारूढ़ पार्टी के वफादार बने रहते हैं, और इस नाते भी वे सरकार के लिए दिक्कत बने हुए किसी भी आंदोलन के खिलाफ रहते हैं। नेताओं के मुकाबले अफसरों को यह हुनर कुछ अधिक हासिल रहता है कि आंदोलन को कैसे तोड़ा जाए। सत्ता पर बैठे नेता अपनी खूबियों का इस्तेमाल करते हुए, और अफसर अपने तजुर्बे का इस्तेमाल करते हुए आंदोलन तुड़वाने में लगे रहते हैं, और आमतौर पर कामयाब भी होते हैं। फिर इस बार तो आंदोलनकारी किसानों के इतने सारे अलग-अलग संगठन एक ढीला-ढाला ढांचा बनाकर चल रहे थे जो कि अपने आपमेें बहुत मजबूत नहीं था। इन किसानों का आंदोलनों का लंबा इतिहास भी नहीं था, और न ही ये किसी संगठित मजदूर संगठन या राजनीतिक दल के मातहत थे। इनके बीच सिक्ख पंथ को सब कुछ मानने वाले कट्टर धार्मिक लोग भी थे, और लाल झंडे वाले कम्युनिस्ट नेता भी थे। परस्पर वैचारिक असहमति के बावजूद ये महीनों से कामयाबी सहित आंदोलन को चला रहे थे कि गणतंत्र दिवस पर टै्रक्टर रैली राह से भटक गई, या भटका दी गई, और लालकिले पर झंडे-डंडे लेकर एक फतवेबाज नेता की अगुवाई में यह आंदोलन, या इसके नाम पर साजिश कर रहे कुछ लोग टूट पड़े, और लालकिले को खबरों में ले आए। यह एक और बात है कि लालकिले पर हंगामे का जो सबसे बड़ा खलनायक रहा वह भाजपा के फिल्मी, और गैरफिल्मी नायकों के साथ अपनी तस्वीरें फैलने का मजा ले रहा है, और किसान नेताओं को सार्वजनिक रूप से धमका रहा है, लालकिले पर हमले या हंगामे का लीडर खुद होने का दावा भी खुद ही कर रहा है।
किसान आंदोलन को हिंसक और मुल्क का गद्दार साबित करने की जो मीडिया-मुहिम गणतंत्र दिवस के नाजुक मौके पर शुरू हुई, तो वह अब तक जारी है, और वे तमाम लोग जो अपनी हर किस्म की कमीनगी के साथ भागकर तिरंगे झंडे के पीछे छुपते आए हैं, आज तिरंगे झंडे के सबसे बड़े हमदर्द हो गए हैं, और उनकी भावनाएं इस तरह उबल रही है कि लालकिले के पत्थर गारे से नहीं जोड़े गए, इन्हीं लोगों के लहू से जोड़े गए थे। ऐसा करते हुए देश के झंडे के झूठे अपमान से लेकर सिक्ख पंथ के झंडे को खालिस्तानी झंडा बताने के सच्चे अपमान तक सब कुछ किया जा रहा है। यह सिलसिला एक आंदोलन को ऐसे बूटों से कुचलने का है जो कि दिख भी नहीं रहे हैं।
सैकड़ों मील के इलाकों में बिखरे हुए इस आंदोलन को राजधानी में बैठी सत्ता ने घेरकर मारा दिखता है। राजधानी उनका अपना इलाका है, वहां की पुलिस केन्द्र सरकार की अपनी है, और संगीनों के साए में रहने वाला लालकिला भी उनकी ही अपनी हिफाजत में था। ट्रैक्टरों को कहां रोका गया, और कहां से आगे बढऩे दिया गया, यह सब भी दिल्ली की पुलिस के हाथ था। इसलिए किसानों की इस तोहमत की जांच भी जरूरी है कि रैली के लिए जो सडक़ें तय की गई थीं, उन पर बैरियर लगे थे, और जिन सडक़ों पर नहीं जाना था, उन सडक़ों को खोलकर रखा गया था। अगर सच में ही ऐसा हुआ है, तो इसमें कुछ भी अविश्वसनीय नहीं है क्योंकि सत्ता का मिजाज किसी भी देश-प्रदेश में ऐसा ही होता है। नेताओं का भी, और अफसरों का भी।
हाल ही के बरसों में इस देश में जेएनयू से लेकर जामिया मिलिया तक, और शाहीन बाग तक बहुत से आंदोलनों की ऐसी भ्रूण हत्या देखी है। केन्द्र सरकार के खिलाफ यह एक सबसे मजबूत आंदोलन खड़ा हुआ था, और किसानों की दर्जनों शहादत के बाद भी डटा हुआ था। इसे खत्म करवाने के लिए लालकिले और तिरंगे झंडे का गणतंत्र दिवस पर जैसा इस्तेमाल किया गया है, वह बहुत ही खतरनाक तरीका रहा है, उसने देश के अमन-पसंद लोगों के हौसले को तोड़ दिया है। दिक्कत यह है कि लालकिले पर ऐसे हमले या हंगामे का खलनायक आज भी पूरे किसान आंदोलन को खुली सार्वजनिक धमकी देते हुए खुला घूम रहा है, और यह जाहिर भी है कि उसके ऐसा करने के पीछे ठोस वजहें हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दिल्ली में कल गणतंत्र दिवस के मौके पर लाल किले पर जो अभूतपूर्व बल प्रदर्शन हुआ है उसने देश के एक सबसे मजबूत आंदोलन, किसान आंदोलन को कमजोर करने का काम किया है। यह समझने की जरूरत है कि सिख पंथ के झंडे को लाल किले के एक खंबे या किसी गुंबद पर फहरा कर किसका भला किया गया है? यह बहुत मासूम बल प्रदर्शन नहीं था। किसान तो महीनों से सबसे सर्द मौसम को खुले में झेलते हुए अपना आंदोलन चलाए हुए थे। गणतंत्र दिवस के मौके पर वह देश की राजधानी में एक ट्रैक्टर रैली निकालकर किसानों की ताकत का प्रदर्शन करना चाहते थे जो कि किसी भी लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण आंदोलन के प्रतीकात्मक तरीकों जैसा ही एक तरीका था। लेकिन ऐसे में किसानों के मोटे तौर पर शांत रहते हुए भी उनके बीच के कुछ लोग एक गैर किसान नेता की अगुवाई में जिस तरह लाल किले पर पहुंचे और वहां उन्होंने सिख पंथ का झंडा फहराया उससे देशभर में किसानों को धिक्कारने का दौर शुरू हो गया। यह समझने की जरूरत है कि बिना किसी हिंसा के जो किसान महीनों से सडक़ों पर बैठे हुए हैं और जिनमें से दर्जनों किसानों की शहादत इस आंदोलन में अब तक हो चुकी है, कल उनमें से कुछ लोग एकाएक ऐसे बल प्रदर्शन पर क्यों उतारू हो गए?
यह एक खुला तथ्य है कि कल लाल किले पर जो बल प्रदर्शन किया गया वह भाजपा से जुड़े हुए पंजाबी फिल्मों के एक अभिनेता की अगुवाई में हुआ और उसने कल शाम फेसबुक पर एक वीडियो पोस्ट करके लाल किले की कार्रवाई का जिम्मा भी लिया। दीप सिद्धू नाम का यह पंजाबी अभिनेता भाजपा के नेताओं से जुड़ा हुआ है, वह पिछले महीनों में कई बार ऐसी कोशिश कर चुका है कि उसे किसान आंदोलन में घुसपैठ करने मिले। किसानों ने औपचारिक रूप से दीप सिद्धू के दाखिले को रोका, उसे बार-बार कहा कि किसान आंदोलन में उसकी कोई जगह नहीं है। कल ट्रैक्टर रैली के चलते हुए वह एक पीछे के दरवाजे से इस आंदोलन में दाखिल हुआ, लाल किले पर हुई कार्रवाई की अगुवाई की, अपने खुद के वीडियो बनाए, सेल्फी ली, और उन्हें पोस्ट किया।
किसानों का जो आंदोलन महीनों से शांतिपूर्ण चल रहा था उसके बारे में कल मीडिया के एक हिस्से से लेकर सोशल मीडिया तक फर्जी तस्वीरों के साथ ऐसी जानकारी फैलाई गई कि किसानों ने लाल किले से तिरंगा झंडा निकालकर फेंक दिया और खालिस्तानी झंडा फहरा दिया। यह बात गणतंत्र दिवस के दिन लोगों को भडक़ाने के लिए काफी थी। दिक्कत यह थी कि अफवाहों की कुछ घंटों की जिंदगी के बाद यह सच सामने आना ही था कि तिरंगे झंडे को किसी ने छुआ नहीं था, और ना ही कोई खालिस्तानी झंडा लाल किले पर फहराया गया था। आंदोलनकारी किसानों के बीच कम्युनिस्टों के लाल झंडे से लेकर सिख पंथ के निशान साहब वाले झंडों की जगह बनी हुई थी, और उनमें से ही निशान साहब वाले सिख पंथ के कुछ झंडे कल लाल किले के कुछ खंभों पर, और कुछ गुंबद ऊपर फहराए गए। यह बात जब तक साफ हो पाती कि तिरंगे झंडे का किसी ने अपमान नहीं किया, और ना ही कोई खालिस्तानी झंडा फहराया गया, तब तक तो देश के लोगों ने किसान आंदोलन को ही धिक्कारना शुरू कर दिया था।
यह बात समझने की दिमागी हालत देश के लोगों की बची नहीं है कि जो आंदोलनकारी लाल किले तक पहुंचे भी थे उनमें से भी बहुत से लोग देश का तिरंगा झंडा न सिर्फ लहरा रहे थे बल्कि वे अपने बदन पर भी तिरंगे झंडे को लपेट कर रखे हुए थे। हिंदुस्तान में शक्ति प्रदर्शन का इतिहास नया नहीं है। 1996 में जब बाबरी मस्जिद को गिराया गया तब वह सोची-समझी साजिश थी, और उसके नेता सामने एक मंच पर इक_े होकर खुशियां मनाते हुए यह काम कर रहे थे। इसके बाद कई ऐसे मौके आए जब लोगों ने इस किस्म का बल प्रदर्शन किया। राजस्थान में एक मुस्लिम मजदूर को जिंदा जलाने वाले एक घोर सांप्रदायिक हत्यारे हिंदू को बचाने के लिए उदयपुर की जिला अदालत पर हिंसक लोगों की भीड़ ने हमला किया था और अदालत पर भगवा झंडा फहरा दिया था। देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं को, कानून को चुनौती देते हुए जब भी कानून के राज को चुनौती दी जाती है तो वह कई दूसरी शक्लों में, कई दूसरी जगहों पर भी सामने आती है। लेकिन किसानों के महीनों से चले आ रहे शांतिपूर्ण आंदोलन को बदनाम करने के लिए उसे हिंसक, देशद्रोही बताने के लिए जो अभियान कल दोपहर शाम से ही शुरू हो गया है, वह भयानक है। देश के तिरंगे झंडे को निकालकर फेंक देने की अफवाह को जिस तरीके से फैलाया गया उससे यह जाहिर है कि यह हमला, यह शक्ति प्रदर्शन बहुत मासूम नहीं था। इसके पीछे इस आंदोलन को खत्म करने की एक साजिश भी थी। जिस दीप सिद्धू नाम के पंजाबी अभिनेता ने कल के इस हमले की अगुवाई की और दावा भी किया वह दीप सिद्धू लोकसभा चुनाव में भाजपा उम्मीदवार सनी देओल का चुनाव एजेंट था और सनी देओल के साथ प्रधानमंत्री से उसकी मुलाकात की तस्वीरें कल से सामने आई है। इन तमाम बातों को अलग करके देखना मुमकिन नहीं है। किसानों के इस आंदोलन को हरियाणा सरकार के मंत्री कभी पाकिस्तानी बता रहे थे तो कभी चीनी, और खालिस्तानी तो बताया ही जा रहा था। यह सिलसिला भी जब किसानों को नहीं तोड़ पाया तो कल के उनके प्रतीकात्मक आंदोलन, ट्रैक्टर रैली बदनाम करने के लिए लाल किले पर यह हमला हुआ, और उसे देश के गौरव के प्रतीक तिरंगे झंडे से जोडक़र किसानों को बदनाम करने की एक और कोशिश हुई। आज केंद्र सरकार पर दिल्ली पुलिस की जिम्मेदारी भी है, वह केंद्र सरकार के मातहत ही काम करती है कम ऐसे में भाजपा से जुड़े एक नेता ने जब कल लाल किले पर हमले की जिम्मेदारी ली है, तो यह केंद्र सरकार का जिम्मा बनता है कि वह इस पर कार्रवाई करें। किसानों का यह आंदोलन ऐतिहासिक है, और इसे शांतिपूर्ण तरीके से जारी रहने देना चाहिए।
बाम्बे हाईकोर्ट का एक बहुत ही गलत फैसला आज सामने आया है जिसमें जिला अदालत द्वारा एक 12 बरस की नाबालिग के यौन शोषण के आरोपी की सजा को हाईकोर्ट ने पलट दिया है। हाईकोर्ट का तर्क है कि किसी लडक़ी के सीने को जबर्दस्ती छू लेने को ही यौन उत्पीडऩ नहीं कहा जा सकता। बाम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच की जज पुष्पा गनेडीवाला ने लिखा है- सिर्फ वक्ष स्थल को जबरन छूना मात्र यौन उत्पीडऩ नहीं माना जाएगा इसके लिए यौन मंशा के साथ स्किन टू स्किन संपर्क होना जरूरी है। जिला अदालत ने इस आदमी को लालच देकर 12 बरस की लडक़ी को अपने घर बुलाने, और जबरन उसके सीने को छूने और उसके कपड़े उतारने की कोशिश का गुनहगार माना था और उसे धारा 354 के तहत एक साल की, और पॉस्को एक्ट के तहत तीन साल की कैद की सजा सुनाई थी, लेकिन हाईकोर्ट के फैसले के बाद तीन साल की सजा बेअसर हो गई है।
हाईकोर्ट का यह फैसला अगर कानून के पॉस्को एक्ट के शब्दों की सीमाओं में कैद है, तो यह शब्दों का गलत मतलब निकालना है। जितने खुलासे से इस मामले के यौन शोषण की जानकारी लिखी गई है, वह मंशा भी दिखाने के लिए काफी है, और बच्ची तो नाबालिग है ही इसलिए पॉस्को एक्ट भी लागू होता है। एक महिला जज का यह फैसला और हैरान करता है कि क्या यह कानून सचमुच ही इतना खराब लिखा गया है? और अगर कानून इतना खराब है तो उसे बदलने और खारिज करने की जरूरत है। फिलहाल तो कानून के जानकार लोग हाईकोर्ट के इस फैसले को पूरी तरह से गलत मान रहे हैं, और सुझा रहे हैं कि इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जानी चाहिए। कानून के एक जानकार ने कहा है कि पॉस्को एक्ट में कहीं भी कपड़े उतारने पर ही जुर्म मानने जैसी बात नहीं लिखी गई है, यह हाईकोर्ट ने अपनी तरफ से तर्क दिया है।
अब सवाल यह है कि कई बरस मुकदमेबाजी के बाद तो जिला अदालत से सजा मिलती है, वह अगर कई बरस चलने के बाद हाईकोर्ट से इस तरह खारिज हो जाए तो सुप्रीम कोर्ट में जाने और कितने बरस लगेंगे। ऐसी ही अदालती बेरूखी, और उसके भी पहले पुलिस की गैरजिम्मेदारी रहती है जिसके चलते शोषण की शिकार लड़कियां और महिलाएं कोई कार्रवाई न होने पर खुदकुशी करती हैं। बाम्बे हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सोशल मीडिया पर आज खूब जमकर लिखा जा रहा है, और लिखा भी जाना चाहिए। एक विकसित राज्य के हाईकोर्ट की महिला जज अगर यौन शोषण की शिकार एक लडक़ी के हक के बारे में सोचने के बजाय ऐसे दकियानूसी तरीके से बलात्कारी या यौन शोषण करने वाले के पक्ष में कानूनी प्रावधान की गलत व्याख्या कर रही है, तो निचली अदालत के जजों से क्या उम्मीद की जा सकती है?
बाम्बे हाईकोर्ट का यह फैसला इस मायने में भी बहुत खराब है कि जज उस आदमी का पॉस्को एक्ट के तहत गुनाह नहीं देख रही है जो कि एक नाबालिग बच्ची को बरगला कर घर ले गया, और कपड़ों के ऊपर से उसका सीना थाम रहा है, उसके कपड़े उतारने की कोशिश कर रहा है। अगर यह सब कुछ यौन उत्पीडऩ की श्रेणी में नहीं आता, तो फिर यौन उत्पीडऩ और होता क्या है? हाईकोर्ट की महिला जज ने इस एक्ट के तहत शरीर से शरीर के सीधे संपर्क की जो अनिवार्यता बताई है, उसे कानून के जानकारों ने खारिज किया है कि पॉस्को एक्ट में ऐसी कोई शर्त नहीं है। हमारा तो यह मानना है कि अगर एक्ट में ऐसी कोई नाजायज शर्त होती भी, तो भी हाईकोर्ट जज को उसकी व्याख्या करके उसके खिलाफ लिखने का हक हासिल है, लेकिन इस जज ने ऐसा कुछ भी नहीं किया।
हिन्दुस्तान में एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि लड़कियों और महिलाओं की शिकायत को, बच्चों की शिकायत को भरोसेमंद नहीं माना जाता, और उन्हें आसानी से खारिज कर दिया जाता है। हाईकोर्ट के इस फैसले के तहत अगर किसी बच्चे का यौन शोषण कपड़ों के ऊपर से हो रहा है, तो उसके खिलाफ कानून लागू ही नहीं होता। यह बच्चों का यौन शोषण करने वालों का हौसला बढ़ाने वाला फैसला है, और देश भर की अदालतों में जहां-जहां पॉस्को एक्ट के तहत ऐसी हालत वाले मामले रहेंगे, वहां-वहां इस फैसले का बेजा इस्तेमाल किया जाएगा। इसलिए इस फैसले के खिलाफ तुरंत ही सुप्रीम कोर्ट में अपील करनी चाहिए, और सुप्रीम कोर्ट को इसे तुरंत सुनवाई के लिए लेना चाहिए इसके पहले कि देश भर के इस किस्म की बलात्कारी अपनी सुनवाई में इसका फायदा उठा सकें।
सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में फैसला देते हुए ऐसी सोच रखने वाली महिला जज को इस किस्म के अगले मामलों से परे भी रखना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान में डीजल करीब 90 रूपए लीटर तक पहुंच रहा है, और पेट्रोल कुछ जगहों पर 95 रूपए लीटर पार चुका है। राजस्थान के एक जिले में 97.23 रूपए लीटर का रेट पेट्रोल का हो गया है। एक खबर के मुताबिक प्रीमियम पेट्रोल की कीमत 100 रूपए पार हो चुकी है। दुनिया में कच्चे तेल की कीमत जब मिट्टी में भी मिली हुई थी, तब भी मोदी सरकार ने पिछले बरसों में लगातार तरह-तरह के टैक्स और ड्यूटी लगाकर पेट्रोल-डीजल के दाम आसमान पर रखे, और उसका एक जुबानी तर्क यह है कि देश में सरकार को कई तरह के कामों के लिए रकम की जरूरत होती है, और अगर ऐसी टैक्स वसूली न हुई तो खर्च कहां से किया जा सकेगा। अब डीजल-पेट्रोल या रसोई गैस के दामों को लेकर बहुत बड़ा मुद्दा भी नहीं बनता है क्योंकि लोगों को यह मालूम है कि किसी तरह के विरोध का केन्द्र सरकार पर कोई असर नहीं होता है।
अब थोड़ी देर के लिए ईंधन की महंगाई के मुद्दे को छोड़ दें, और यह मान लें कि बीते छह बरसों की तरह अगले चार बरस भी मोदी सरकार इसी तरह पेट्रोल-डीजल से, रसोई गैस से, लोगों को निचोडऩा जारी रखेगी, तो भी सवाल यह उठता है कि इलाज क्या है?
आज हिन्दुस्तान में शहरी आबादी का एक बड़ा हिस्सा निजी गाडिय़ों पर चलता है। दोपहिए, चौपहिए सडक़ों पर पटे हुए हैं, दिन में शहर के व्यस्त इलाकों में पार्किंग की जगह नहीं रहती, और रात में रिहायशी इलाकों में एक-एक इंच पार्किंग भरी रहती है, सडक़ों के किनारे लबालब रहते हैं। फिर इस मंदी के बीच भी जो बाजार रौनक रहा, वह नई गाडिय़ों का है, और सडक़ों के किनारे पुरानी गाडिय़ों के बाजार भी लगे हुए हैं। कुल मिलाकर निजी गाडिय़ों की मोहताज रहने की लोगों की बेबसी घटना तो दूर, बढऩे में बढ़ोत्तरी भी घटती नहीं दिखती है। हर दिन राज्य सरकारों को नई गाडिय़ों के रजिस्ट्रेशन से भी खासा पैसा मिलता है, और पुरानी गाडिय़ों की दुबारा बिक्री से भी।
हिन्दुस्तान में कुछेक महानगरों को छोड़ दें, और उनसे थोड़े छोटे उपमहानगरों को छोड़ दें, तो पब्लिक ट्रांसपोर्ट का ढांचा बहुत ही कमजोर है। यह एक अलग बात है कि मुम्बई की लोकल, दिल्ली की मेट्रो, कोलकाता और दूसरे शहरों की तरह-तरह की मेट्रो न होती तो आज उन पर जो भीड़ दिख रही है, वह पता नहीं कैसे लोकल सफर करती। अब हिन्दुस्तान में बहुत से राज्यों में राज्य सरकारें अपनी बसें चलाना बंद कर चुकी हैं, और यह काम निजी बस कंपनियों के लायक मान लिया गया है। कुछ ऐसा ही हाल शहरों के भीतर भी बस चलाने को लेकर हुआ है, और सरकारों ने एक योजनाबद्ध तरीके से शहरी यातायात की दिक्कत को सुलझाने का जिम्मा छोड़ दिया है। देश के दो दर्जन शहरों में एक-दो प्रमुख रास्तों पर मेट्रो बनाई गई हैं, लेकिन जब तक शहर के बाकी हिस्सों से इन मेट्रो स्टेशनों को जोडऩे का काम नहीं हो पाएगा, तब तक लोग निजी गाडिय़ों पर आश्रित रहेंगे ही। इसलिए अकेली मेट्रो से कुछ नहीं होना है, वहां से आगे लोगों को अपने घर-दफ्तर, या काम की जगह पर जाने के लिए जब तक सुविधाजनक इंतजाम नहीं मिलेगा, तब तक तमाम लोग मेट्रो पर ही निर्भर नहीं हो सकेंगे। कुछ लोग उस पर चलेंगे, और बाकी लोग अपनी निजी गाडिय़ों से चलेंगे।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर जैसे बहुत से ऐसे शहर हैं जहां अभी मेट्रो के बारे में सोचा भी नहीं गया है। यह नया राज्य बने 20 बरस हो गए हैं, और मौजूदा सरकार को आए भी दो बरस हो चुके हैं। लेकिन इन 20 बरसों में भी राजधानी के शहरी यातायात के बारे में कुछ सोचा भी नहीं गया। राजधानी में कुछ सडक़ें तो बनी हैं, लेकिन मेट्रो या शहरी बसों का कोई इंतजाम नहीं किया गया। गिने-चुने रास्तों पर गिनी-चुनी बसें चलती हैं, जिन पर कोई निर्भर नहीं रह सकते। नतीजा यह होता है कि हिन्दुस्तान के आम शहर की तरह इस शहर में भी निजी गाडिय़ां बढ़ते चल रही हैं, और उनका इस्तेमाल भी बढ़ते चल रहा है। जब इसे पेट्रोल और डीजल की बढ़ती कीमतों से जोडक़र देखें, तो नौबत और भयानक दिखती है कि गरीब लोगों की कमाई का खासा हिस्सा पेट्रोल पर खर्च हो जा रहा है। अभी तक हमने पेट्रोल-डीजल के दाम और शहरी जिंदगी की मुश्किल को पर्यावरण के साथ जोडक़र चर्चा नहीं की है, जबकि हकीकत यह है कि निजी गाडिय़ों की भीड़ से इतना अधिक ईंधन जलता है कि वह धरती के शहरी हिस्सों का दम घोंट देता है। आज हिन्दुस्तानी शहरों को जरूरत है पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बहुत तेजी से बढ़ाने की। इसके लिए कहीं मेट्रो, कहीं फ्लाईओवर बनाना होगा, तो कहीं बसों का जाल बिछाना होगा। इस काम को सरकार या स्थानीय म्युनिसिपल के अलावा और कोई नहीं कर सकते। सडक़ों पर जिनका एकाधिकार है, जिम्मेदारी भी उन्हीं की है। जनता का पैसा और वक्त, सेहत और पर्यावरण, इन सबको इस रफ्तार से बर्बाद करना जारी रखना ठीक नहीं है। नौबत वैसे भी भयानक हो चुकी है, और अगले 25-50 बरस की जरूरतों को देखते हुए अगर अभी से योजना बनाकर अमल शुरू नहीं होगा, तो बहुत देर हो चुकी होगी। पर्यावरण के मुद्दे पर किसी की लिखी यह बात याद आती है कि इस अर्थ (धरती) की ऐसी ही अनदेखी की गई तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा। यही बात गरीबों और मध्यम वर्ग के लोगों की जेब पर भी लागू होती है, और शहरों में बसे लोगों के फेंफड़ों पर भी। यह राज्य सरकारों और स्थानीय म्युनिसिपलों का जिम्मा है कि वे अपने शहरों में सार्वजनिक परिवहन को अधिक से अधिक बढ़ाएं ताकि वहां के लोगों की जिंदगी भी बेहतर हो, और वहां पर कारोबार भी बढ़ सके। दुनिया के सभ्य और जिम्मेदार देशों में पब्लिक ट्रांसपोर्ट को लोगों की जरूरत से अधिक धरती के पर्यावरण की जरूरत मानकर खासे घाटे में चलाया जाता है, या मुफ्त में भी चलाया जाता है ताकि लोग निजी गाडिय़ों का कम से कम इस्तेमाल करें। हिन्दुस्तान में इसे सिर्फ, और सिर्फ नफे-नुकसान से जोडक़र देखा जाता है, और धरती की अपनी कोई आवाज तो है नहीं कि वह अपने नुकसान के आंकड़े भी गिना सके। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज जब देश भर में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 125वीं जयंती मनाई जा रही है, तब बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने एक नया मुद्दा उठाया है कि इतने बड़े हिन्दुस्तान में सिर्फ एक ही राजधानी क्यों होनी चाहिए? उन्होंने कहा कि अंग्रेजों ने पूरे देश पर कोलकाता से राज किया था, और आज भारत में चार राजधानियां रहनी चाहिए, सब कुछ दिल्ली में ही क्यों हो?
यह बड़ा दिलचस्प मुद्दा है, और यह बहुत मौलिक भी नहीं है। पिछले कई दशकों में कई बार यह बात उठी कि देश की एक उपराजधानी भी होनी चाहिए ताकि दिल्ली शहर पर से राजधानी होने का बोझ घट सके, और कुछ दूसरे प्रदेशों को भी देश की राजधानी के आसपास का कोई महत्व मिल सके। यह भी बात कुछ लोगों ने पहले की हुई है कि केन्द्र सरकार के सारे दफ्तर, और सारे आयोगों के दफ्तर दिल्ली में ही क्यों हों? एक वक्त जब दिल्ली में कांग्रेस की सरकार थी, और माधव राव सिंधिया इतने ताकतवर थे कि वे अपने दम पर मोतीलाल वोरा को मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनवा चुके थे, तब भी यह बात छिड़ी थी कि दिल्ली के करीब ग्वालियर को उपराजधानी बनाया जाए ताकि दिल्ली से भीड़ घट सके।
दुनिया में कुछ देश ऐसे हैं भी जहां पर देश का सरकारी और अदालती काम अलग-अलग शहरों में बंट जाता है। दक्षिण अफ्रीका में वहां की अघोषित कारोबारी राजधानी एक शहर में है, सरकारी राजधानी एक दूसरे शहर में है, और वहां की संसद एक तीसरे शहर में बैठती है। हिन्दुस्तान में अभी जब राजधानी दिल्ली में नई संसद और केन्द्र सरकार की नई इमारतें 20 हजार करोड़ की लागत से बनने जा रही हैं, तो यह मौका देश को एक संतुलित व्यवस्था देने का भी हो सकता था, लेकिन ममता बैनर्जी की यह बात कुछ देर से आई है। ऐसा भी नहीं था कि केन्द्र सरकार ममता बैनर्जी की बात का कोई बहुत अधिक सम्मान करती, और पश्चिम बंगाल या कोलकाता को कुछ दफ्तर मिल जाते।
आज दिल्ली शहर, और उसके आसपास का एनसीआर कहा जाने वाला राजधानी क्षेत्र जिस तरह के ट्रैफिक जाम और वायु प्रदूषण का शिकार है, उसमें कोई भी कल्पनाशील केन्द्र सरकार पूरे देश को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग प्रदेशों में कुछ दफ्तरों को भेज सकती थी। आज दिल्ली में केन्द्र सरकार भी है, सुप्रीम कोर्ट भी है, दुनिया के बाकी तमाम देशों के दूतावास और उच्चायोग भी वहीं पर हैं। लेकिन इसके साथ-साथ देश का हर आयोग दिल्ली में है, केन्द्र सरकार से जुड़े तमाम संगठनों के दफ्तर वहीं पर हैं, सेना के मुख्यालय, पैरामिलिट्री के मुख्यालय जैसे सैकड़ों दफ्तर दिल्ली में ही हैं। इन सबका एक साथ रहना जरूरी नहीं है। राज्यों में बहुत सी जगहों पर प्रदेश की राजधानी एक शहर में रहती हैं, और वहां का हाईकोर्ट दूसरे शहर में। राज्य सरकारों के भी बहुत से प्रदेश स्तर के दफ्तर राजधानी से परे दूसरे शहरों में रहते हैं। यह बात केन्द्र सरकार के साथ भी हो सकती है। इससे देश के दूसरे हिस्सों में भी विकास हो सकेगा, केन्द्र सरकार की तरफ से अलग-अलग राज्यों को महत्व भी मिल सकेगा, और देश की राजधानी दिल्ली में लोग जिंदा भी रह सकेंगे। एक मामूली सी लिस्ट बनाई जाए तो भी केन्द्र सरकार के सैकड़ों ऐसे दफ्तर हैं जो लाखों कर्मचारियों के साथ अलग-अलग राज्यों में भेजे जा सकते हैं, और उनसे भारत की एकता को मजबूती ही मिलेगी। पिछले एक बरस में हिन्दुस्तान की सरकारों ने ऑनलाईन काम करने से भी आगे बढक़र घरों से ऑनलाईन काम किया है, खुद सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने शायद अपने गृहनगर नागपुर से वीडियो कांफ्रेंस पर काम किया है, और लोगों का सशरीर किसी एक इमारत में बैठकर काम करना जरूरी नहीं रह गया है। ऐसे में देश के करीब ढाई दर्जन राज्यों में कई दफ्तरों को भेजा जा सकता है, और देश की राजधानी चाहे दिल्ली में बनी रहे, लेकिन राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों का महत्व अलग-अलग राज्यों को मिल सकता है।
ममता बैनर्जी ने चाहे जो बात की हो, लेकिन देश के शहरी विकास के विशेषज्ञों को इस बारे में जरूर सोचना चाहिए कि किस तरह दिल्ली पर हावी राष्ट्रीय स्तर के बोझ को घटाया जा सकता है, और बाकी राज्यों को राष्ट्रीय कामकाज के साथ जोड़ा जा सकता है। इसके लिए अधिकतर राज्य मुफ्त में जमीन देने को भी तैयार हो जाएंगे, और केन्द्र सरकार, उसके संगठन, देश के आयोग, ट्रिब्यूनल धीरे-धीरे अलग-अलग राज्यों में अपने ढांचे खड़े कर सकते हैं। अगर केन्द्र सरकार कल्पनाशीलता दिखाए तो यह भी हो सकता है कि दिल्ली में सरकार और ऐसे राष्ट्रीय स्तर के संगठनों की मौजूदा जमीन में से कुछ जमीनों को बेचकर भी अलग-अलग राज्यों में ढांचे खड़े करने का काम किया जा सके।
आज भी हिन्दुस्तान का शेयर बाजार देश की राजधानी में नहीं, बल्कि मुंबई में है। और शेयर बाजार का पूरा कामकाज देखें तो आज उसका 99 फीसदी काम तो ऑनलाईन ही होता है, और पूंजीनिवेशक या शेयर ब्रोकर किस शहर में है उससे क्या फर्क पड़ता है? सरकार से लेकर अदालतों तक, और कारोबार से लेकर आयोगों तक का काम ऑनलाईन चल रहा है, देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति राजधानी से बाहर निकले बिना महीनों से सरकार और देश चला ही रहे हैं। अलग-अलग राज्यों को भी केन्द्र सरकार के सामने अपने दावे पेश करने चाहिए कि राष्ट्रीय स्तर के कौन से संस्थान उनके प्रदेश मेंं आएं, और ऐसा होने पर उन प्रदेशों में देश भर से लोगों की आवाजाही भी बढ़ेगी। आज दिल्ली ने जिस तरह राष्ट्रीय स्तर की तकरीबन हर चीज पर अपना एकाधिकार कब्जा बना रखा है, उससे दिल्ली में जीना मुश्किल हो चुका है। यह सही वक्त है कि केन्द्र और राज्य मिलकर राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों और दफ्तरों का नया डेरा तय करें, उसके लिए जमीन जुटाएं, और आने वाले बरसों में इन तमाम राज्यों में निर्माण कार्य बढ़ सकें, हवाई आवाजाही का ढांचा विकसित हो सके, और दिल्ली एक बार फिर बेहतर शहर बन सके। यह कल्पना देश के अलग-अलग हिस्सों को एक-दूसरे से भावनात्मक और भौतिक रूप से बेहतर तरीके से अधिक दूरी तक बांधकर भी रख सकेगी, और हर राज्य में इससे दसियों हजार रोजगार खड़े हो सकेंगे। देश के शहरी नियोजकों को इस बारे में सोचना चाहिए कि दिल्ली से किस तरह केन्द्र सरकार से जुड़े संगठनों के दफ्तरों की बाकी राज्यों की तरफ रवानगी हो सकती है, उसकी लागत कैसे निकल सकती है, और कैसे ऐसे किसी योजना पर अमल के साथ-साथ उसके लिए जरूरी हवाई सेवा जैसे ढांचे विकसित हो सकते हैं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कांग्रेस की सर्वोच्च अधिकार वाली कमेटी, कांग्रेस कार्यसमिति, ने आज यह तय किया बताया जाता है कि संगठन के चुनाव मई के महीने में होंगे। अगर शाम तक इसकी औपचारिक घोषणा होती भी है तो भी यह अभी चार महीने दूर की बात है। कांग्रेस संगठन के तौर-तरीकों को लेकर करीब दो दर्जन प्रमुख नेता पिछले कुछ महीनों से पार्टी की बिसात पर घोड़े की तरह ढाई घर चल रहे थे, उनको तो अगले चार महीने शांत रखने में यह फैसला असरदार हो सकता है, लेकिन जब तक संगठन के ईमानदार और पारदर्शी चुनाव न हो जाएं, तब तक यह कहना मुश्किल है कि आज पार्टी के भीतर रहकर आवाज उठाने वाले नेता संतुष्ट हो जाएंगे, या उनकी बात का असर होगा। अपने सौ बरस के अधिक के अस्तित्व में कांग्रेस ने बहुत से ऊंचे-नीचे दौर देखे हैं, लेकिन आज जितना बुरा वक्त तो उसने इमरजेंसी के बाद अपनी हार में भी नहीं देखा था क्योंकि उस वक्त उसके पास इंदिरा गांधी सरीखी जुझारू अध्यक्ष थीं। आज कांग्रेस की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह जिस राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाए रखने, या बनाने पर आमादा है, वे अध्यक्ष बनना नहीं चाहते। पुरानी कहावत है कि घोड़े को पानी तक ले तो जा सकते हैं, लेकिन उसे पानी पिला नहीं सकते। पार्टी की अध्यक्षता के लिए राहुल को घेर-घारकर तैयार करने की कोशिश तो हो सकती है, लेकिन उससे वे एक जुझारू मुखिया बन जाएंगे यह मानना कुछ ज्यादती होगी।
भारतीय चुनावी राजनीति में पूरे देश की बात हो, या किसी प्रदेश की, किसी एक पार्टी और उसके लीडर की बात बिना दूसरी पार्टियों और उनके लीडरों को साथ रखे बिना नहीं की जा सकती। आज कांग्रेस और राहुल का मुकाबला अगर आराम की राजनीति करने वाले अखिलेश यादव, मायावती, सुखबीर बादल या उमर अब्दुल्ला जैसे लोगों से होता, तो भी चल जाता। दिक्कत यह है कि आज कांग्रेस और बाकी गैरएनडीए पार्टियों का मुकाबला नरेन्द्र मोदी से है जिन पर न परिवार का बोझ है, न जिनके कोई शौक उन्हें काम से परे ले जाते। कम से कम जनता के बीच की जानकारी तो यही बताती है कि वे साल के हर दिन काम करते हैं, दिन में दस-बारह घंटे से अधिक काम करते हैं, और पिछले बहुत बरसों में काम के अलावा उन्होंने और कुछ नहीं किया है। ऐसे में राहुल गांधी के खिलाफ वंशवाद से परे का एक बड़ा मुद्दा बार-बार उठ खड़ा होता है कि वे संघर्ष के हर मौके पर, देश में जलते-सुलगते किसी भी मुद्दे के चलते हुए भी निजी विदेशयात्रा पर चले जाते हैं। निजी यात्रा पर जाना हर किसी का अपना हक है, लेकिन जो पार्टी पिछले कुछ बरसों में कमजोर होते-होते आज खंडहर सरीखी हो चुकी है, जो उजाड़ होती दिख रही है, उस पार्टी का मुखिया क्या भारतीय राजनीति की असल जिंदगी में इतनी छुट्टियां मना सकता है?
न सिर्फ सार्वजनिक जीवन, बल्कि किसी भी किस्म के महत्वपूर्ण ओहदे पर बैठे हुए लोग महत्वहीन कुर्सियों पर बैठे हुए लोगों जितनी छुट्टियां नहीं ले सकते। सरकारी कामकाज में भी कोई कर्मचारी या अधिकारी किसी हाशिए पर बैठे हों, तो वे छुट्टियां ले पाते हैं, लेकिन किसी महत्वपूर्ण जगह पर बैठकर उन्हें कुर्सी की प्राथमिकता पहले देखनी होती है। हाल के बरसों में जिन्होंने राहुल गांधी को लगातार देखा है, उन्होंने राहुल को संघर्ष की इच्छा से परे पाया है। उन्होंने राहुल को जिम्मेदारी और जवाबदेही के नाजुक मौकों पर अघोषित विदेश अवकाश पर पाया है। अब केरल के एक सांसद की हैसियत से तो वे इतनी छुट्टियों पर शायद जा भी सकें, लेकिन कांग्रेस जैसी बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के विपक्ष के दिनों में कोई भी पार्टी अपने नेता को इतनी और ऐसी छुट्टियां मंजूर नहीं कर सकती।
इन बातों को देखते हुए यह समझने की जरूरत है कि कांग्रेस पार्टी क्या आज सचमुच ही एक पार्टटाईम अध्यक्ष के मातहत गुजारा कर सकती है, या उसे सोनिया-परिवार से परे भी पार्टी की संभावनाएं देखनी चाहिए? और फिर चाहे दिल से या फिर महज जुबान से, राहुल गांधी खुद भी लोकसभा चुनाव में बुरी शिकस्त के बाद दिए इस्तीफे के साथ इसी बात पर अड़े हुए हैं कि सोनिया-परिवार से परे किसी को अध्यक्ष बनाया जाए। इसे देखते हुए यह बात साफ है कि कांग्रेस अपनी जिंदगी की सबसे बड़ी चुनौती के मौके पर अगर अपने इतिहास का सबसे अनमना अध्यक्ष एक बार फिर चुन लेती है, तो वह महज पार्टी दफ्तर की कुर्सी भर सकती है, संसद की अधिक कुर्सियां भरने की संभावना उसके हाथ से जाती रहेगी। आज भारत की राष्ट्रीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी ने तमाम पार्टटाईम नेताओं को अप्रासंगिक बना दिया है। साल के हर दिन राजनीति, चुनाव के पहले सरकार बनाने की राजनीति, और चुनाव हार जाने पर भी सरकार बनाने की राजनीति, इन सबने मोदी और उनकी पार्टी को अभूतपूर्व और बेमिसाल मेहनती बनाकर रखा है। हिन्दुस्तान की बातचीत में साम, दाम, दंड, भेद की जो बात कही जाती है, इन चारों का भरपूर इस्तेमाल नरेन्द्र मोदी और उनकी टीम सूरज उगने के पहले से आधी रात के बाद तक करते हैं। कांग्रेस पार्टी को भी एक परिवार का महत्व जारी रखने के लिए अपनी संभावनाओं को नकारना नहीं चाहिए। भारतीय लोकतंत्र में भाजपाविरोधी पार्टियां कांग्रेस की ओर देखती हैं। और अगर ऐसे में उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष किसी अनजाने विदेश में होने की बात सुनते रहना पड़े, तो वह कांग्रेस की तमाम संभावनाओं से खारिज करने की बात होगी।
कांग्रेस के लोगों को यह तय करना होगा कि वे लीडर की कुर्सी पर सोनिया-परिवार की जीत चाहते हैं, या अगले आम चुनावों में पार्टी की जीत? रामचन्द्र गुहा जैसे घोषित भाजपाविरोधी लेखक ने राहुल गांधी की आलोचना करते हुए बहुत सी बातें हाल के महीनों में ही लिखी हैं। उन पर सबसे अधिक गौर सोनिया-परिवार को ही करना चाहिए क्योंकि पार्टी के बाकी अधिकतर नेता एक गुलाम-मानसिकता के शिकार दिखते हैं जो कि अपने लीडर-परिवार के मातहत ही अपने को महफूज पाते हैं। इस पार्टी को अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका देना चाहिए। राहुल गांधी आज जिन बातों पर अड़े हुए हैं, उन्हें उनका जुबानी जमा-खर्च हम तो नहीं मानते, और हम उनके शब्दों की ईमानदारी पर भरोसा करते हैं कि वे कांग्रेस अध्यक्ष नहीं रहना चाहते। यह पहला मौका है जब यह पार्टी इतने लंबे समय तक बिना अध्यक्ष के है, और अब इसे इस परिवार से परे किसी को अध्यक्ष चुनना चाहिए। यथास्थितिवाद से पार्टी के नेताओं को लग सकता है कि वह झगड़े-झंझटों, विवादों और विभाजन से बची रहेगी, लेकिन हाशिए पर प्रसंगहीन बनी बैठी ऐसी थोपी गई एकता किस काम की रहेगी? कांग्रेस को अपने हजारों नेताओं और लाखों-करोड़ों कार्यकर्ताओं की क्षमता को कम नहीं आंकना चाहिए, और किसी नए नेता की राह साफ करना चाहिए ताकि कम से कम पार्टी प्रासंगिक बनी रह सके। वरना भविष्य का इतिहास सोनिया-परिवार को ही कांग्रेस को इतिहास बनाकर छोडऩे की तोहमत देगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका में नई सरकार के काम सम्हालने के साथ हिन्दुस्तान के लोग भी बड़ी दिलचस्पी से इस देश को देख रहे हैं क्योंकि वहां उपराष्ट्रपति बनी कमला देवी हैरिस की मां भारत से अमरीका गई थीं। इसके अलावा भी नए राष्ट्रपति जो बाइडन ने अपनी टीम में बहुत से भारतवंशियों को रखा है, हालांकि इसलिए नहीं रखा है कि वे भारत से वहां गए हैं, या उनके मां-बाप भारत से वहां गए थे, इसलिए रखा है कि वे काबिल हैं।
लेकिन अमरीकी राजनीति और सरकार की चर्चा के साथ-साथ जब लोग भारत की राजनीति और सरकार को देखते हैं, तो लगता है कि भारत के संसदीय लोकतंत्र को कई बातें सीखने की जरूरत है। इनमें से एक तो यह है कि किस तरह एक नंबर के पैसे से चुनाव जीतकर संसद में पहुंचा जाता है। अमरीकी राजनीति में सारा खर्च लोगों से बैंक खातों में मिले राजनीतिक-दान से चलता है, और राष्ट्रपति के चुनाव अभियान से लेकर सांसदों के चुनाव अभियान तक कहीं कालेधन की चर्चा सुनाई भी नहीं पड़ती है। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में विधानसभाओं से लेकर संसद तक लोगों का संसदीय जीवन झूठे हलफनामे के साथ शुरू होता है कि उन्होंने चुनाव में चुनाव आयोग की तय की गई सीमा के भीतर खर्च किया है। वामपंथी दलों को छोड़ दें, तो शायद ही कोई दल ऐसे हों जिनके उम्मीदवार चुनावी खर्च सीमा के भीतर रहकर चुनाव जीत पाते हों। जीतना तो दूर रहा, हारने वाले एक से अधिक उम्मीदवार ऐसे रहते हैं जो कि खर्च सीमा के कई गुना खर्च के बाद भी हारते हैं। लोकसभा चुनाव से लेकर विधानसभा चुनाव तक और म्युनिसिपल-पंचायत चुनावों में वार्ड से लेकर गांव तक निर्धारित सीमा से कई गुना अधिक खर्च इतनी आम बात है उम्मीदवार और पार्टियां अपने खर्च के हिसाब-किताब को छुपाए रखने के लिए टैक्स के जानकार पेशेवर लोगों की मदद लेते हैं।
जहां राजनीति कालेधन की गंदगी से शुरू होती है, जहां टैक्स चोरी के पैसों के दलदल पर नेतागिरी की इमारत खड़ी होती है, वहां पर आगे सत्ता या विपक्ष की राजनीति में, सरकार में ईमानदारी कैसे निभ सकती है? कहने के लिए कभी-कभी राजनीतिक विश्लेषक वामपंथी दलों और भाजपा, दोनों को ही कैडर-आधारित पार्टियां बता देते हैं। लेकिन एक तरफ बंगाल की एक ही लोकसभा सीट से 9-9 बार चुनाव जीतने वाले अन्नान मोल्ला कभी भी चुनावी खर्च सीमा को छू भी नहीं सके क्योंकि न तो उनके पास उतना पैसा रहा, न ही उनकी पार्टी के ढांचे को उतने पैसे की जरूरत रही। यह हाल वामपंथियों जगह-जगह रहा, और शायद ही कहीं चुनाव आयोग की सीमा को तोड़ा गया हो। दूसरी तरफ बाकी तमाम राष्ट्रीय दलों से लेकर क्षेत्रीय पार्टियों तक को कालेधन पर आधारित राजनीति करते देखा जाता है, और इन पार्टियों को अंधाधुंध कालाधन जुटाते भी देखा जाता है।
अमरीकी चुनाव से भारत को कम से कम यह तो सीखना चाहिए कि किस तरह चुनावी राजनीति को कालेधन से दूर रखा जा सकता है, और पार्टियां या उम्मीदवार अपने खर्च को किस तरह पारदर्शी रख सकते हैं। आज हालत यह है कि हिन्दुस्तान में सत्ता में आने का भरोसा दिलाकर पार्टियां और उनके उम्मीदवार लोगों से पूंजीनिवेश के अंदाज में उगाही करते हैं, और सत्ता में आने पर अपने उन दोस्तों को मुनाफे सहित कमाई के रास्ते भी जुटाकर देते हैं। नतीजा यह निकलता है कि देश के अधिकतर राज्यों में, या केन्द्र सरकार में जो भी पार्टी, या जो भी गठबंधन जीतकर सरकार बनाते हैं, वे कालेधन के अहसानों से इतने लदे रहते हैं कि लोगों के नाजायज काम, गैरकानूनी काम, सरकार को नुकसान पहुंचाकर चंदादाताओं को फायदा पहुंचाने के काम करने पर मजबूर भी रहते हैं, और ऐसा करते हुए अपनी खुद की कमाई करना भी उन्हें मजे का काम लगता है। जब पार्टी की तरफ से भ्रष्टाचार की छूट मिलती है, तो फिर किसी और से चेहरा छुपाने की नौबत नहीं रह जाती, जरूरत नहीं रह जाती।
भारतीय चुनावी राजनीति में कालेधन के पूंजीनिवेश का यह सिलसिला खत्म करना चाहिए। हम इसके कोई आसान समाधान नहीं देखते क्योंकि बरसों से लोग सरकारी खर्च पर चुनाव की बात करते आए हैं, और उस पर कोई एक मत नहीं हो पाया है। फिर भी देश की कुछ एक कंपनियां ऐसी हैं जो कि चेक से राजनीतिक चंदा देती हैं। और दोनंबर की तमाम चर्चाओं के बीच भी पिछले बरसों में जिन पार्टियों को बैंक खातों में जितना दान मिला है, वह भी हक्का-बक्का करने वाला है। इसलिए भारत की राजनीति से इस बुनियादी गंदगी को खत्म करने का रास्ता ढूंढना चाहिए। जहां पर पार्टी की टिकट के लिए करोड़ों रूपए देने की चर्चा हो, जहां एक-एक संसदीय सीट जीतने के लिए दसियों करोड़ खर्च की चर्चा हो, और जहां पर जीते हुए सांसद या विधायकों को खरीदने के लिए दर्जनों करोड़ रेट की चर्चा हो, वहां पर लोकतंत्र की कोई गुंजाइश नहीं रहती है। आज ऐसे बिकने वाले लोकतंत्र से पारदर्शी लोकतंत्र की तरफ बढऩे की जरूरत है और अमरीकी चुनाव इसकी एक अच्छी मिसाल हिन्दुस्तान के सामने है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका चार बरस की गंदगी और हिंसा के बाद आज फिर इंसानियत के एक दौर में पांव रखने जा रहा है जब डोनल्ड टं्रप नाम का कलंक वहां के राष्ट्रपति भवन से आज किसी समय हट जाएगा, और दुनिया के बाकी देशों, बाकी नस्लों, बाकी रंगों, बाकी अल्पसंख्यकों के प्रति एक उदार भाव रखने वाले जो बाइडन और कमला हैरिस राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का काम संभालेंगे। अब से कुछ घंटों बाद, भारतीय समय के मुताबिक आधी रात के पहले अमरीका अपनी नई सरकार को शपथग्रहण करते देखेेगा, और यह समारोह पच्चीस हजार से अधिक सिपाहियों-सैनिकों के घेरे में होने जा रहा है क्योंकि चुनाव हारने के बाद जाते-जाते भी ट्रंप ने अपने हिंसक और नस्लभेदी समर्थकों से संसद भवन पर हमला करवा दिया था। ऐसा राष्ट्रपति अमरीका के इतिहास में कोई दूसरा नहीं हुआ था, और उम्मीद करनी चाहिए कि दुनिया के किसी भी देश को ऐसा हिंसक और नस्लभेदी मुखिया न देखना पड़े।
हिंदुस्तान सहित दुनिया के तमाम देशों को बात-बात पर जंग के सनकी फतवे देने वाले ट्रंप से छुटकारा पाकर राहत मिलेगी। जिस हिंदुस्तान में तमाम परंपराओं को तोडक़र इस ट्रंप की चुनावी-मेहमाननवाजी की, नमस्ते ट्रंप नाम का सबसे बड़ा चुनावी जलसा अहमदाबाद में कोरोना का खतरा उठते हुए भी किया, उसी मेहमान के नमस्ते के बढ़े हुए हाथ पर मानो इस ट्रंप ने थूक दिया था। अमरीका लौटते ही उसने अपने पर फिदा नेताओं वाले हिंदुस्तान को लेकर गंदे शब्द इस्तेमाल किए। दूसरी तरफ अपने पूरे कार्यकाल में ट्रंप ने अमरीका में, और अमरीका के लिए काम करने वाले हिंदुस्तानियों के पेट पर लात ही मारी। आज खबरें उबल रही हैं कि नए राष्ट्रपति जो बाइडन अपने पहले फैसलों में ही हिंदुस्तानी कामगारों को राहत पहुंचाने जा रहे हैं।
ट्रंप नाम की जो गंदगी आज अमरीकी सरकार से हट रही है, वह इस बात की एक बड़ी मिसाल रही कि किसी देश के प्रमुख को कैसा-कैसा नहीं होना चाहिए। बुरे लोग भी इस बात की अच्छी मिसाल हो सकते हैं कि उनके बाद कोई उनकी तरह के न हों। अमरीकी राजनीति हिंदुस्तान से इस मायने में बहुत अलग है कि वहां निर्वाचित शासनप्रमुख पर उसकी पार्टी का मानो कोई काबू ही नहीं रह जाता है। ट्रंप अपनी रिपब्लिकन पार्टी के नाम खासी शर्मिंदगी लिखकर जा रहे हैं, और इस संकीर्णतावादी पार्टी में वे, और उतने ही लोग ट्रंप के इतिहास से खुश रहेंगे जो कि नफरतजीवी हैं, नस्लोन्मादी हैं, जंगखोर हैं, महिला-विरोधी हैं, और गरीबों को मिटा देना चाहते हैं। ट्रंप की पार्टी में भी जो लोग थोड़ी सी बेहतर सोच रखते हैं, वे आज भी शर्मिंदा हैं और संसद पर हमला करवाने वाले ट्रंप के खिलाफ संसद के निचले सदन में वोट दे चुके हैं।
भारत के प्रति ट्रंप का रूख कैसा रहेगा इसे लेकर कई लोगों के मन में एक फिक्र भी है। इसकी एक वजह यह है कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ट्रंप के आखिरी कई महीनों में उसके चुनाव प्रचारक सरीखा काम किया था, और भारत सरकार अबकी बार ट्रंप सरकार का इश्तहार करते दिख रही थी। लेकिन बाइडन पिछले डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति बराक ओबामा की विरासत के साथ हैं। वे ओबामा के उपराष्ट्रपति भी थे, और उनकी पार्टी की अपनी सोच भी आप्रवासियों के लिए एकदम साफ है। इसलिए ट्रंप के साथ एक निहायत गैरजरूरी घरोबा कायम करके उसके चुनाव में हाथ बंटाकर भारत के प्रधानमंत्री ने नाजुक कूटनीतिक रिश्तों को खतरे में डालने का काम किया था, लेकिन नए अमरीकी राष्ट्रपति से यह उम्मीद की जा सकती है कि वे भारत के साथ दीर्घकालीन व्यापक रिश्तों के हित में, और खुद अमरीका के हित में भारत के लोगों के साथ नरमी का रूख बरतेंगे। फिलहाल भारत के लोग इस बात को लेकर ही खुशियां मना सकते हैं कि ट्रंप की टीम में बहुत से लोग भारतवंशी हैं, और उनकी उपराष्ट्रपति कमला देवी हैरिस तो आधी भारतवंशी हैं ही। भारत को अपने तात्कालिक स्वार्थ से परे अमरीका को देखना चाहिए, और पिछले महीनों में रिश्तों की संभावनाओं पर जो आंच आई है, उसे सुधारने की कोशिश करनी चाहिए।
जिस तरह एक उन्मादी, आत्ममुग्ध, महत्वोन्मादी, नस्लवादी सिरफिरे का राज देश को बांटकर ही खत्म होता है, अमरीका आज बुरी तरह बंटा हुआ है। टं्रप के हिंसक और हथियारबंद समर्थकों की तरफ से वहां इतना बड़ा खतरा है कि आज राजधानी में शपथग्रहण के वक्त किसी हथियारबंद हमले से निपटने की भी तैयारी की गई है। नई सरकार को इस देश को फिर से एक करने पर बड़ी मेहनत करनी होगी और जैसा कि कुछ दिन पहले बराक ओबामा ने एक इंटरव्यू में कहा था कि अमरीकी समाज में इतना विभाजन कर दिया गया है कि उसे एक करना बहुत बड़ी चुनौती होगी।
बाइडन-प्रशासन में भारतवंशी चेहरों को लेकर भारत को और यहां के लोगों को गैरजरूरी खुशी का शिकार नहीं होना चाहिए। वे तमाम लोग अमरीकी हैं, भारत के नहीं। और अमरीका देश ही ऐसा है कि वहां दुनिया भर से पहुंचे हुए अलग-अलग नस्लों के लोग मिलकर ही उसे एक ताकतवर और कामयाब देश बनाते हैं। हर धर्म, हर नस्ल, हर राष्ट्रीयता के लोगों को मिलकर किस तरह एक देश दुनिया का सबसे कामयाब बनता है, इसकी मिसाल अमरीका में देखकर हिंदुस्तानी उससे अगर कुछ सीखें, तो वे अपने देश को बेहतर बना सकते हैं, जो कि आज बदतर बनने की राह पर है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज दो खबरें एक साथ आईं हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन, डब्ल्यूएचओ, के प्रमुख ने कहा है कि दुनिया के गरीब देशों को अगर कोरोना वैक्सीन नहीं मिल पाएगी, तो बाकी दुनिया भी महफूज नहीं रहेगी। उन्होंने कहा है कि संपन्न और विपन्न देशों के बीच अगर वैक्सीन का जरूरत के मुताबिक बंटवारा नहीं हुआ तो यह महामारी धरती पर लंबे समय तक बनी रहेगी। उन्होंने एक महत्वपूर्ण बैठक की शुरूआत में यह चेतावनी दी है। उन्होंने कहा कि इस महामारी के जल्द खत्म होने की उम्मीदें खतरे में है क्योंकि संपन्न देश तमाम उपलब्ध टीके खरीदकर जमाखोरी कर रहे हैं, और गरीब देशों के लिए कुछ नहीं छोड़ रहे हैं। उन्होंने आंकड़े दिए हैं कि 49 संपन्न देशों में अब तक 3 करोड़ 90 लाख टीके लगाए जा चुके हैं, और एक गरीब देश ऐसा है जहां 25 हजार भी नहीं, कुल 25 टीके दिए गए हैं। उन्होंने कहा कि दुनिया एक बहुत बड़ी नैतिक नाकामयाबी के मुहाने पर खड़ी है, और संपन्न देशों के ऐसे स्वार्थ के दाम विपन्न देशों में गरीबों की जिंदगी से चुकाए जाएंगे। उनका यह मानना है कि संपन्न देशों की यह नीति खुद को शिकस्त देने की होगी कि गरीब देशों के अधिक जरूरतमंद लोगों की भी बारी टीकों के लिए बाद में आए।
दूसरी खबर भारत की है जिसमें अपने कुछ पड़ोसी देशों सहित कई दूसरे देशों को मुफ्त में टीका देने की घोषणा की है। भारत ने अफगानिस्तान, भूटान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, मालदीव और मारीशस को करीब एक करोड़ टीके तोहफे में देने की तैयारी की है जिसकी औपचारिक घोषणा अभी बाकी है। भारत अपनी इस कार्रवाई से पड़ोसी देशों और भारत से जुड़े हुए दूसरे छोटे देशों में एक सद्भावना पैदा कर सकता है, या बढ़ा सकता है। यह वक्त ऐसा है जब भारत की आधी सदी पहले की वैक्सीन-निर्माण की शुरूआत का फायदा आज इस बढ़ी हुई क्षमता की शक्ल में मिल रहा है। देश में इतने टीके बनाने की क्षमता है कि वह कई दूसरे देशों के भी काम आ सके।
लेकिन टीके की सप्लाई से जुड़ी कुछ और बातों पर भी गौर करने की जरूरत है। भारत की कम से कम एक टीका कंपनी ने यह घोषणा की है कि वह जल्द ही बाजार में भी कोरोना-वैक्सीन उपलब्ध कराएगी। ब्रिटेन में आजकल में ही निजी खरीदी के लिए दवा दुकानों में वैक्सीन पहुंच रही है। अब डब्ल्यूएचओ की चेतावनी देखें तो यह साफ है कि बहुत से देशों के गरीबों को, और बहुत से गरीब देशों को वैक्सीन खरीदना शायद नसीब न हो सके। ऐसे में दुनिया के हर किस्म के संगठनों को अपने सदस्यों के माध्यम से ऐसा अभियान छेडऩा चाहिए कि लोग अपने परिवारों के लिए जितनी वैक्सीन पा रहे हैं, सरकार से मुफ्त में या बाजार से खरीदकर पा रहे हैं, उतनी ही वैक्सीन वे गरीब लोगों को दान भी करें। कुछ विश्वसनीय अंतरराष्ट्रीय संगठनों को इस तरह के दान को बढ़ावा देने के लिए एक अभियान छेडऩा चाहिए और दान देने के भरोसेमंद अकाऊंट भी शुरू करने चाहिए। जिस हिन्दुस्तान में पांच दिनों में लोगों ने राम मंदिर के लिए सौ करोड़ रूपए दान कर दिए हैं, उस हिन्दुस्तान में टीके के लिए दान करने वाले लोग भी जुटाए जा सकते हैं, अगर दान जुटाने वाले संगठनों के तरीके पारदर्शी हों, और उनकी साख अच्छी हो। ऐसी रकम विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी संस्थाओं के रास्ते गरीब देशों तक भी जानी चाहिए। जिस तरह पोलियो के वायरस को पूरी धरती से खत्म करने के अभियान के बिना वह बेअसर था, और अब शायद एक या दो देशों में वह जरा सा बच गया है, बाकी खत्म हो चुका है, उसी तरह कोरोना को खत्म करने के लिए भी संपन्न देशों या संपन्न लोगों को विपन्न देशों और विपन्न लोगों का साथ देना होगा।
हमने पिछले एक बरस में यह देखा है कि महानगरों से घर लौटने वाले मजदूरों की मदद करने को सोनू सूद नाम के एक अभिनेता ने अकेले कितनी कोशिश की, और मजदूरों की मदद पूरी हो जाने के बाद किस तरह उसने अपनी क्षमता और ताकत का इस्तेमाल दूसरे जरूरतमंद बीमारों और बच्चों के लिए किया है। ऐसी मजबूत साख वाले लोगों को अपने-अपने दायरे में गरीबों की मदद करनी चाहिए, और गरीब देशों के अधिक जरूरतमंद स्वास्थ्य कर्मचारियों, फ्रंटलाईन वर्करों को टीके भेजने की नैतिक जिम्मेदारी भी उठानी चाहिए। भारत में अब कंपनियों को सीधे टीके बेचना शुरू होने वाला है ताकि वे अपने कर्मचारियों को पहले टीके लगवा सकें। कंपनियों को अपने सीएसआर बजट से सामाजिक सरोकार पूरा करते हुए आसपास के कुछ और लोगों को भी टीके लगवाना चाहिए ताकि सरकार पर बोझ कम हो सके। यह मौका अलग-अलग धर्मगुरूओं, आध्यात्मिक गुरूओं, सामाजिक और कारोबारी नेताओं के सामाजिक सरोकारों को तौलने का भी है कि वे अपने दायरे से परे बाकी लोगों के लिए क्या करने जा रहे हैं। यह महामारी आज तो दुनिया में कुछ काबू में आते दिख रही है, लेकिन लोगों को एक-दूसरे की मदद की आदत अगर पड़ेगी, तो वह आगे भी किसी दूसरे संक्रामक रोग या किसी प्राकृतिक विपदा के वक्त काम आएगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले दो-तीन दिनों में किसी की लिखी एक लाईन सोशल मीडिया पर सामने आई जिसमें शायद कोई संदर्भ नहीं था, लेकिन फिर भी बात सुहानी थी। लिखा था कि अपनी सेहत को ठीक रखना पूंजीवाद का एक किस्म का मुकाबला है। हो सकता है यह बात किसी और सोच के साथ लिखी गई हो, लेकिन इससे एक बात जो सूझती है, वह यह कि लोग सेहतमंद रहें, तो उन्हें पूंजीवादी इलाज और दवा कारोबार की जरूरत कम पड़ेगी। आज बहुत सी बीमारियां लोगों की अपनी लापरवाही की वजह से होती है, और इनसे बचा जा सकता है।
आज दुनिया में दवा कारोबार, मेडिकल-जांच का कारोबार, इलाज, और बदन के महंगे रखरखाव की कसरतें, ये तमाम बातें एक पूंजीवादी व्यवस्था खड़ी कर चुकी हैं। अलग-अलग देशों और समाजों में जो परंपरागत चिकित्सा पद्धति चलती थीं, वे सब कुछ तो अपने देश-प्रदेश की सरकारों की लापरवाही से खत्म होती चली गईं, और कुछ उन्हें गैरजिम्मेदार और मिलावटखोर कारोबारियों ने खत्म कर दिया। हजारों बरस पुरानी चिकित्सा पद्धतियां अपनी पकड़ और उपयोगिता खो बैठीं, और पश्चिम की एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति ने मानो एकाधिकार कायम कर लिया। इस फेरबदल का एक बड़ा शिकार हिन्दुस्तान जैसा देश भी रहा जहां हजारों बरस पुराना आयुर्वेद, और वैसा ही पुराना योग, सनसनीखेज बाबाओं के बाजारू दावों का शिकार होकर साख खो बैठे हैं। नतीजा यह है कि बीमारी से दूर रहने का जो चौकन्नापन भारतीय जीवनपद्धति में सुझाया गया था, वह धरे रह गया, और लोग अब जिंदगी के हर दिन योग करने के बजाय, पैसों की ताकत होने पर नौबत आने पर बाईपास सर्जरी को आसान विकल्प मानने लगे हैं।
कसरत से लेकर सेहत और जांच से लेकर इलाज तक का पूरा कारोबार एक बड़ी पूंजीवादी व्यवस्था है। और सावधान रहने वाले लोग बहुत हद तक इससे बचकर भी रह सकते हैं। मामूली घूमना, जरूरत के लायक धूप में रहना, सेहतमंद खानपान तक सीमित रहना, उठते-बैठते बदन का ख्याल रखना, सोते और बैठते हुए सही तरीके इस्तेमाल करना, नशे से बचना, खेलकूद, कसरत, योग-ध्यान से अपने को चुस्त-दुरूस्त रखना, ये तमाम ऐसी बातें हैं जो लोगों को बीमारी, जांच, इलाज जैसे कई खर्चों से दूर रखती हैं।
भारतीय जीवनपद्धति में ऐसी सावधानियों का हजारों बरस पुराना इतिहास है। आधुनिक जीवनशैली की वजह से, लापरवाही और गैरजिम्मेदारी की वजह से लोग अपने तन-मन तबाह कर बैठते हैं, और इसलिए उन्हें अपनी क्षमता से बाहर जाकर भी खर्च करना पड़ता है। और ऐसा भी नहीं कि हर बार खर्च करने पर गई हुई सेहत लौट भी आती है। इसलिए इस बात का ख्याल रखने की जरूरत है कि खर्च की औकात रहने पर भी हर बार गई हुई सेहत पूरी हद तक वापिस नहीं पाई जा सकती। इसलिए भी लोगों को संपन्नता रहने पर भी सावधान रहना चाहिए।
यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि सेहत को लेकर सतर्कता परिवार में एक साथ आ सके या न आ सके, लापरवाही जरूर सब पर एक साथ हावी हो जाती है। घर पर या दोस्तों की टोली में कोई एक सिगरेट-शराब पीने वाले हों, तो बाकी लोगों की धडक़ खुलने लगती है, आसपास के लोग या अगली पीढ़ी बिना हिचक, बिना झिझक इन्हें पीने लगते हैं। ऐसा ही हाल बाजार के बने हुए खतरनाक खान-पान को लेकर होता है, और घरों में बनने वाले सेहत के लिए नुकसानदेह खानपान को लेकर भी होता है। जरूरत न सिर्फ खुद सावधान रहने की होती है, बल्कि अपने आसपास भी इस सावधानी को फैलाने की रहती है। पूंजीवादी व्यवस्था को खराब सेहत, खराब बदन, मोटापा सब कुछ बहुत माकूल बैठता है। लोगों का वजन ऐसा बढ़ते चले कि उन्हें हर बरस बड़े आकार के कपड़े लगते रहें, यह बाजार की सेहत के लिए अच्छा रहता है। धीरे-धीरे कुछ बरसों में यह महंगे अस्पतालों की सेहत के लिए अच्छी बात हो जाती है। आज जिस रफ्तार से लोगों की सोशल मीडिया की जानकारी, बातचीत, और उनकी तकलीफें जिस तरह दुनिया के इंटरनेट-कारोबारी एक-दूसरे को बेच रहे हैं, उससे लोगों तक बीमारी की खबर, और उसके इलाज की बाजारू जानकारी हो सकता है कि साथ-साथ ही पहुंचने लगे।
जो लोग बहुत खतरनाक और नुकसानदेह वातावरण में जीते हैं, और काम करते हैं, उनकी बात अगर छोड़ दें तो अधिकतर आम लोग मामूली सावधानी से ही, और थोड़ी-बहुत मेहनत से ही कई किस्म की बीमारियों से बच सकते हैं, और पूंजीवादी व्यवस्था के हाथों निचुडऩे से भी।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मुम्बई में एक महीने पहले पकड़ाया एक टीआरपी घोटाला एक नए नाटकीय मोड़ पर पहुंचा है। इस घोटाले में पुलिस को ऐसे सुबूत मिले थे जो बताते थे कि कुछ टीवी समाचार चैनल दर्शक संख्या बताने वाली एक संस्था, बार्क (ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल), के साथ मिलकर साजिश करके, रिश्वत देकर अपनी दर्शक संख्या बढ़वा लेते थे, और उसी आधार पर उन्हें सरकारी-गैरसरकारी इश्तहार अधिक मिलते थे, अधिक रेट पर मिलते थे। इस मामले में एक-दो कम चर्चित चैनलों के अलावा देश में सबसे ज्यादा चीखने वाले समाचार चैनल, रिपब्लिक, को भी इस साजिश में शामिल बताया गया था, यह एक और बात है कि इसके मुखिया अर्नब गोस्वामी को जब गिरफ्तारी से बचने की जरूरत पड़ी तो सुप्रीम कोर्ट जज ने रात बंगले पर उसका केस सुना, और अगली सुबह अदालत में उसे राहत मिल गई। इसी वक्त देश के दर्जन भर जलते-सुलगते गरीब-मुद्दे अदालत का दरवाजा खटखटा रहे थे जिनमें से किसी के लिए वह नहीं खुला था। खैर, इस बारे में अधिक लिखने से आज का मुद्दा किनारे धरे रह जाएगा जो एक अलग महत्व का है।
अब मुम्बई पुलिस ने टीआरपी घोटाले में एक और चार्जशीट पेश की है जिसमें 50 से अधिक पेज अर्नब गोस्वामी की वॉट्सऐप चैट के हैं। यह बातचीत मोटेतौर पर टीवी दर्शक संख्या तय करने वाली संस्था, बार्क, के मुखिया के साथ है और यह बातचीत दर्शक संख्या तोडऩे-मरोडऩे, गढऩे से कहीं आगे जाकर देश की सुरक्षा के बारे में कुछ नाजुक बातों वाली है।
दो दिन पहले जब यह दस्तावेज सामने आया कि मुम्बई पुलिस ने अर्नब गोस्वामी की चैट अदालत में दाखिल की है, तो हमने उस पर तुरंत नहीं लिखा और इंतजार किया कि सामने आए इन दस्तावेजों का कोई खंडन तो नहीं आता है। लेकिन अब तक अर्नब गोस्वामी की तरफ से इन दस्तावेजों को झूठा नहीं कहा गया, और अर्नब को चौबीसों घंटे चीखने के लिए अपना चैनल हासिल है, सोशल मीडिया हासिल है, देश के सबसे महंगे वकील हासिल हैं, और सुप्रीम कोर्ट हासिल है, फिर भी उन्होंने अपनी इस चैट को गलत, झूठा, या गढ़ा हुआ नहीं कहा, इसलिए अब इस पर लिखने का मौका है।
अर्नब की इस बातचीत में पाकिस्तान के बालाकोट पर भारतीय वायुसेना की बहुप्रचारित एयर स्ट्राईक का जिक्र है कि भारत-पाकिस्तान पर कुछ बड़ा करने जा रहा है, और वह आम एयर स्ट्राईक से बहुत बड़ा रहेगा। इस एयर स्ट्राईक को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खुद बताया था कि किस तरह इस हमले के पहले उनके घर पर फौज के प्रमुख लोगों की बैठक हुई थी, और उसमें उन्होंने यह सुझाव दिया था कि आज बादल छाए हुए हैं, और आज यह हमला कर देना चाहिए क्योंकि बादलों के ऊपर उड़ते हिन्दुस्तानी फौजी विमानों को पाकिस्तानी रडार नहीं पकड़ पाएंगे। अब फौजी हमले की ऐसी रणनीति की जानकारी अर्नब को कुछ दिन पहले कैसे थी? और इसी चैट में अर्नब कुछ केन्द्रीय मंत्रियों के बारे में हिकारत से, कुछ की तारीफ में बात करते दिखता है, और प्रधानमंत्री कार्यालय तक अपनी पहुंच की बात करता है, शायद कहीं पर पीएम से मिलने का भी जिक्र है। तो देश का इतना बड़ा फौजी रहस्य अर्नब को एडवांस में कैसे मालूम था? और उसे यह भी कैसे मालूम था कि यह मामूली एयर स्ट्राईक से बहुत बड़ी कार्रवाई होने जा रही है?
इसी चैट में एक दूसरी जगह कश्मीर के पुलवामा में हुए आतंकी हमले की तारीख से पहले की बातचीत भी है जिसमें सीआरपीएफ के 40 जवान शहीद हुए थे। इस हमले को इस चैट में अर्नब गोस्वामी अपनी शानदार जीत बताता है, और भारी खुशी और कामयाबी उसके शब्दों से झलकती है। लोगों को याद होगा कि कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह सहित देश के बहुत से लोगों ने पुलवामा हमले को लेकर बहुत से सवाल और बहुत से संदेह सामने रखे थे, और पाकिस्तानी गद्दार होने की गालियां खाई थीं। अब टीआरपी घोटाले की जांच के दौरान कानूनी रूप से जो चैट हासिल की गई, और अदालत में दाखिल की गई, वह अर्नब गोस्वामी की केन्द्र सरकार तक, प्रधानमंत्री कार्यालय तक, टीआरएआई जैसी संवैधानिक संस्था तक असाधारण पहुंच और पकड़ के उसके दावे दिखाती है।
देश के कुछ जिम्मेदार मीडिया ने इन बातों को प्रकाशित करने के पहले अर्नब गोस्वामी और केन्द्र सरकार दोनों से संपर्क करके इन पर उनका पक्ष हासिल करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें कोई जवाब नहीं मिला। ऐसे में मुम्बई पुलिस की अदालत में दाखिल की गई चैट को झूठ मानने की कोई वजह नहीं है। अभी कुछ महीने पहले तक अर्नब गोस्वामी अपने चैनल पर एक अभिनेता की मौत की खबरों में उससे जुड़े हुए लोगों की कई किस्म की चैट चटखारे लेकर दिखाते आया है, इसलिए यह माना जाना चाहिए कि अदालत में दाखिल की गई चैट पर खबरें, और उन पर लिखना अर्नब के पैमानों से भी नाजायज नहीं होगा।
एक अमरीकी उपन्यासकार ने एक मीडिया मालिक की ताकत को लेकर एक रोमांचक उपन्यास लिखा था, और अर्नब गोस्वामी को देखकर, उसकी चैट पढक़र उस उपन्यास की याद आती है। इस उपन्यास में यह मीडिया-कारोबारी औरों को पछाडऩे के लिए भाड़े के हत्यारों या मुजरिमों से ऐसे बड़े-बड़े आतंकी हमले करवाता है जिनकी रिपोर्ट सबसे पहले उसी के अखबार में छपती है। मीडिया के अपने महत्व, और अपनी ताकत का मदमस्त महत्वोन्माद किस तरह सिर चढक़र बोलता है, और अपनी मिल्कियत से चीखता है, उसकी यह एक ऐसी मिसाल सामने आई है जिस पर केन्द्र सरकार को भी कुछ बोलने की जरूरत है।
पहले की घोषणा के मुताबिक हिन्दुस्तान में आज कोरोना-टीकाकरण शुरू हुआ। प्रधानमंत्री ने एक औपचारिक भाषण देकर इसकी शुरुआत की, और इस पहले दौर में करीब 3 करोड़ स्वास्थ्य कर्मचारियों, और कोरोनाग्रस्त लोगों से सामना होने वाले लोगों को ये टीके लगने जा रहे हैं। करीब महीने भर के फासले पर इन लोगों को इसी टीके का एक डोज और लगेगा, और उसके एक पखवाड़े बाद ऐसा अनुमान है कि इनके शरीर में कोरोना के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाएगी। यह मौका छोटी राहत का नहीं है, और आज दुनिया के जो हालात हैं उन्हें देखते हुए इस वैक्सीन के और अधिक बहुत लंबे नियंत्रित परीक्षणों को शायद सबसे अच्छा विकल्प मानना भी मुमकिन नहीं है। आज बीमारी के खतरे और वैक्सीन के खतरे के बीच किसी एक को अगर छांटना हो, तो मामूली समझ वैक्सीन का खतरा झेलने का सुझाव देगी क्योंकि अब तक के मानव परीक्षणों में वैक्सीन के खतरे सामने नहीं आए हैं, जबकि कोरोना से मौतें जारी ही हैं। फिर यह बात भी है कि शुरुआत के ये तीन करोड़ टीके देश के उस चुनिंदा लोगों को लगने जा रहे हैं जो कि कोरोना के मोर्चे पर डटे हुए जाने-पहचाने लोग हैं, स्वास्थ्य कर्मचारी हैं, और जिन पर टीके का कोई नकारात्मक असर हुआ, तो उसका पता लगाना आसान रहेगा। हालांकि आज ही आई एक दूसरी खबर को इसके साथ जोड़े बिना कोई अनुमान लगाना गलत होगा। योरप के एक सबसे विकसित देश नार्वे ने कहा है कि वहां अमरीका में बनी हुई फाइजर कंपनी की वैक्सीन लगवाने के बाद 23 मौतें हो चुकी हैं। ये सारे के सारे 80 बरस से ऊपर के लोग हैं, और वहां की सरकार का कहना है कि यह वैक्सीन बुजुर्गों और पहले से बीमार लोगों के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। वहां सरकार ने यह तय किया है कि गंभीर बीमार लोगों पर इस टीके का बहुत बुरा असर हो सकता है, लेकिन सरकार ने यह भी कहा है कि नौजवान और सेहतमंद लोगों को इस टीके से बचने की जरूरत नहीं है। इस देश के इस तजुर्बे को देखें तो भारत को इससे सीखने की जरूरत है और चूंकि हिन्दुस्तान की पूरी आबादी को तो अभी टीका लगने नहीं जा रहा है इसलिए नार्वे के इस तजुर्बे वाली उम्र के लोगों को हिन्दुस्तान में भी कुछ वक्त के लिए टीके से परे रखा जा सकता है।
अभी सरकार ने कोई ताजा अंदाज सामने नहीं रखा है, लेकिन कुछ हफ्ते पहले तक केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने जो कहा था उसके मुताबिक जून-जुलाई तक 25 करोड़ लोगों के टीकाकरण का अंदाज था। अभी सरकार ने जिन तबकों को इस टीके से बाहर रखा है, उनमें गर्भवती महिलाएं और बच्चे हैं। नार्वे की ताजा खबर को देखें तो 80 बरस से ऊपर के लोगों को या गंभीर बीमार लोगों को भी टीकाकरण से बाहर रख सकते हैं। इसके बाद बची आबादी के 30 करोड़ लोगों को अगर अगले 6 महीनों में टीके लगते हैं, तो आबादी का एक हिस्सा खतरे से काफी हद तक बच सकता है। भारत में अभी जिस टीके से शुरुआत की गई है, उससे शायद 70 फीसदी कामयाब होने की उम्मीद है। ऐसा होने पर भी देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा खतरे से काफी हद तक बचने जा रहा है। और जैसा कि किसी भी संक्रामक बीमारी के साथ होता है, जैसे-जैसे उससे संक्रमित लोग घटते हैं, आगे उसका संक्रमण भी घटता है।
टीकाकरण शुरू होने से देश के लोगों के बीच एक नया आत्मविश्वास देखने मिलेगा कि मानो कोरोना से जीत हो चुकी है। जबकि हिन्दुस्तान ऐसी नौबत से अभी खासे दूर भी है। कोरोना की दूसरी लहर और तीसरी लहर, और कोरोना की कोई नई किस्म, और टीके के बेअसर होने के खतरे, किसी और संक्रामक रोग के आने के खतरे, ऐसी कई बातों की आशंका अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। इसलिए कोरोना-टीकों से पैदा होने वाला आत्मविश्वास घमंड बनकर लोगों को लापरवाह न कर दे, यह भी देखना जरूरी है।
सोशल मीडिया पर इस बात को लेकर बड़ा बवाल चल रहा है कि कोरोना-वैक्सीन की विश्वसनीयता को कायम करने के लिए पहले से देश के नेताओं को लगाया जाए, ताकि आम जनता में भी भरोसा पैदा हो सके। वैक्सीन के दो पहलू हैं, एक तो उसका मेडिकल असर, जिसकी वजह से पहले उसे कोरोना-खतरा अधिक झेल रहे स्वास्थ्य कर्मचारियों और जुड़ी हुई सेवाओं के लोगों को लगाया जा रहा है। लेकिन ऐसे तीन करोड़ लोगों के साथ अगर देश के कुछ लाख नेताओं, जजों, मंत्रियों और बड़े अफसरों को भी जोड़ा जाता है, तो यह बारी से पहले उन्हें टीका मिलने के बजाय टीकाकरण की विश्वसनीयता बनाने का काम होगा। और अगर ऐसा कोई फैसला होता भी है तो हम उसे कोई वीआईपी लिस्ट मानने के बजाय विश्वसनीयता-लिस्ट मानेंगे। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने अपने सदस्य दसियों हजार डॉक्टरों से कहा है कि लोगों के बीच भरोसा पैदा करने के लिए डॉक्टर आगे आकर यह वैक्सीन लगवाएं। अब अगर इन तीन करोड़ लोगों के साथ, या इनके बाद लाख-दो लाख महत्वपूर्ण ओहदों पर बैठे लोगों को यह टीका लगाया जाता है, तो उससे लोगों की आशंकाएं कम होंगी।
फिलहाल जैसा कि प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा है कि पहले दौर में यहां तीन करोड़ लोगों को टीके लग रहे हैं, और दुनिया में सौ से ज्यादा तो ऐसे देश हैं जिनकी आबादी ही तीन करोड़ से कम हैं। उन्होंने यह भी कहा कि दूसरे चरण में 30 करोड़ लोगों को टीके लगेंगे, और दुनिया में 30 करोड़ से अधिक की आबादी के कुल तीन ही देश हैं, भारत, चीन, और अमरीका। इन आंकड़ों को देखें तो लगता है कि यह सचमुच ही दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान तो है ही, खुद हिन्दुस्तान का यह एक अनोखा प्रयोग है, और हर हिन्दुस्तानी को इसकी कामयाबी में हाथ बंटाना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कुछ वक्त पहले की हरियाणा की खबर है कि वहां पर एक निजी अस्पताल में एक महिला मरीज को ले जाया गया, लेकिन उसका आधार कार्ड न होने से इलाज नहीं हुआ, और उसकी मौत हो गई। यह बात खबर इसलिए भी बनी कि यह महिला कारगिल युद्ध के एक शहीद की पत्नी थी, और उसके बेटे ने मीडिया के सामने यह पूरा मामला उजागर किया। अस्पताल का कहना है कि आधार कार्ड औपचारिकताओं के लिए जरूरी है, और उसके बिना वे दाखिले के कागज पूरे नहीं कर सकते थे। लोगों को याद होगा कि अभी दो-तीन महीने के भीतर ही झारखंड में एक महिला की मौत हो गई थी क्योंकि आधार कार्ड न होने से उसके परिवार को राशन मिलना बंद हो गया था। भुखमरी से मौत हिन्दुस्तान में अब आम बात नहीं रह गई है, लेकिन झारखंड के इस हादसे से केन्द्र और राज्य सरकार को जो झटका लगना था, वह नहीं लगा, और बाकी देश के लिए भी, बाकी कामों के लिए भी सरकारों ने सबक नहीं लिया। देश के मुख्य सूचना आयुक्त ने यह फैसला दिया था कि आरटीआई अर्जी देने वाले के पास आधार कार्ड न होने से उसे सूचना देने से मना करना कानून के खिलाफ है, और सूचना पाने के लिए आधार कार्ड की कोई जरूरत नहीं है।
इस मुद्दे पर आज लिखने की जरूरत इसलिए है कि हिन्दुस्तान में जान बचाने के लिए जिस कोरोना वैक्सीन को लगाने का काम कल से शुरू हो रहा है, उसके लिए न सिर्फ आधार कार्ड जरूरी है, बल्कि मोबाइल फोन का भी आधार कार्ड से जुड़े रहना जरूरी है सभी रजिस्टर्ड लोगों को वैक्सीन लगाने की जानकारी उस नंबर पर आएगी। इस तरह आज अगर आधार कार्ड नहीं है, मोबाइल फोन नहीं है, दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए नहीं हैं, तो अब तक की सरकारी घोषणा के मुताबिक ऐसे लोगों के लिए वैक्सीन भी नहीं है! अब सुप्रीम कोर्ट में आधार कार्ड के खिलाफ दायर जनहित याचिका पर सुनवाई जारी ही है, और जब तक अदालत का फैसला नहीं आता तब तक तो यह संभावना या आशंका बनी ही रहेगी कि आधार कार्ड की अनिवार्यता खारिज भी हो सकती है, लेकिन आज कोरोना के टीके के लिए इसे अनिवार्य कर दिया गया है।
हमारे सरीखे अनगिनत हिन्दुस्तानी आज ऐसे हैं जिन्हें दिन में कई बार टेलीफोन पर यह घोषणा सुननी पड़ती है कि 31 मार्च के पहले अपने सिमकार्ड को आधार कार्ड से जुड़वा लें। इसी तरह की घोषणा बैंक खातों को आधार से लिंक करवाने के लिए एसएमएस पर आती रहती है। अभी सुप्रीम कोर्ट में आधार कार्ड की अनिवार्यता को लेकर एक मामले की सुनवाई जारी ही है, और वहां केन्द्र सरकार आधार कार्ड को हर बात के लिए जरूरी करने पर आमादा है, दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट लोगों के ऐसे शक को भी ध्यान से सुन रहा है जो यह मानते हैं कि हर बात के लिए आधार कार्ड को अनिवार्य करने से लोगों की निजी जिंदगी की गोपनीयता खत्म ही हो जाएगी। इस सिलसिले में यह याद रखने की जरूरत है कि यूपीए सरकार के वक्त जब आधार कार्ड पर काम शुरू हुआ तो भाजपा ने ही उसका सबसे अधिक विरोध किया था, और मोदी सरकार बनने के बाद आधार कार्ड योजना के मुखिया नंदन निलेकेणि से एक मुलाकात के बाद ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सोच बदल गई थी, और उन्होंने आधार कार्ड को बढ़ावा देने के लिए पूरी ताकत लगा दी।
हमारा मानना है कि आज सरकार और कारोबार, इन दोनों ही जगहों में आधार कार्ड की अनिवार्यता को लेकर जितने तरह की गलतफहमी फैली हुई है, उसे देखते हुए केन्द्र सरकार को ही यह खुलासा करना होगा कि किसी भी बुनियादी जरूरत के लिए, किसी भी इलाज के लिए, किसी भी सफर के लिए आधार कार्ड को मुद्दा नहीं बनाया जाएगा, और लोगों के इलाज के हक, जिंदा रहने के हक, खाने के हक के ऊपर आधार कार्ड बिल्कुल भी लागू नहीं होगा। अगर केन्द्र सरकार, और राज्य सरकारें ऐसा खुलासा नहीं करती हैं, तो इससे सबसे गरीब और सबसे बेबस जनता का सबसे बड़ा नुकसान होगा। आज तो कारगिल के एक शहीद की पत्नी की बेइलाज मौत की वजह से हम इस पर लिख रहे हैं, लेकिन पिछले महीनों में जगह-जगह से ऐसी खबरें सामने आई हैं कि कुष्ठ रोगियों की गली हुई उंगलियों की वजह से उनके निशान नहीं लिए जा सकते, उनके आधार कार्ड नहीं बन पा रहे हैं, और जगह-जगह उनको बिना राशन रहना पड़ रहा है। हमारा बड़ा साफ मानना है कि चाहे सौ लोग बिना आधार कार्ड कोई रियायत पा जाएं, लेकिन आधार कार्ड की कमी से किसी एक जरूरतमंद को भी तकलीफ नहीं होनी चाहिए। आधार कार्ड को लेकर दो बिल्कुल अलग-अलग पहलू हैं, एक तो जिंदगी की निजता और गोपनीयता की बात है, और दूसरी बात लोगों के न्यूनतम बुनियादी हक और जरूरत की है। अगर सरकारों को आधार की अनिवार्यता की ऐसी हड़बड़ी है, तो सुप्रीम कोर्ट को एक कड़ा रूख दिखाते हुए पूरे देश में एकदम बुनियादी बातों के लिए आधार को एकदम ही गैरअनिवार्य घोषित करना चाहिए। इस काम में कोई भी देरी सबसे कमजोर तबके के लोकतांत्रिक अधिकारों को छीनने से कम और कुछ नहीं होगा।
आधार कार्ड के खिलाफ जो सबसे बड़ा तर्क है वह यह कि रेलवे रिजर्वेशन से लेकर सरकारी काम तक, राशन से लेकर इलाज तक, जन्म से लेकर मौत तक सरकार जिस तरह इसे अनिवार्य कर रही है, उससे सरकार के हाथ में लोगों की निजी जिंदगी की हर जानकारी रहेगी। और आज फेसबुक और वॉट्सऐप पर निजता खत्म करने को लेकर जितने किस्म के लतीफे चल रहे हैं, उनसे कहीं अधिक हकीकत के खतरे हिन्दुस्तानी आबादी पर टंगे रहेंगे, अगर वे कोरोना से बच जाएंगे तो। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के खिलाफ संसद पर हमले के लिए लोगों को भडक़ाने और उकसाने के आरोप के साथ निचले सदन में महाभियोग प्रस्ताव खासे बहुमत से पास हो गया है। दस रिपब्लिकन सांसदों ने भी अपनी ही पार्टी के राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग के पक्ष में वोट दिया। अब संसद के उच्च सदन में अगर ट्रंप की पार्टी के 17 लोग साथ देते हैं, तो वहां से भी महाभियोग चलाने का प्रस्ताव पास हो जाएगा। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि यह कई वजहों से मुश्किल रहेगा क्योंकि वहां रिपब्लिकन पार्टी का खासा बहुमत है, और महाभियोग के लिए वहां दो तिहाई वोट लगेंगे। फिर भी ट्रंप के आलोचक उम्मीद कर रहे हैं कि 17 रिपब्लिकन आत्मा की आवाज पर वोट देंगे, और अपने कार्यकाल के आखिरी दो-चार दिनों में ट्रंप को महाभियोग का सामना करना पड़ेगा।
दरअसल अमरीकी राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग को लेकर यहां लिखने का कोई इरादा नहीं था, लेकिन वहां की इस संसदीय प्रक्रिया के एक हिस्से पर लिखना जरूरी है। ट्रंप की पार्टी के 10 सांसदों ने निचले सदन (भारत की संसद की लोकसभा की तरह) में अपनी पार्टी के राष्ट्रपति के खिलाफ वोट दिया, और उच्च सदन (भारत की संसद की राज्यसभा की तरह) में भी कुछ रिपब्लिकन सांसदों से ऐसी उम्मीद की जा रही है, लेकिन इस पूरे सिलसिले में कहीं भी पार्टी व्हिप जैसे किसी शब्द की कोई चर्चा नहीं है। भारतीय संसद में बात-बात पर पार्टियां अपने सांसदों को व्हिप जारी करती हैं जिसके मुताबिक उन्हें न केवल सदन में मौजूद रहना होता है, बल्कि अपनी पार्टी के कहे मुताबिक वोट भी देना होता है। ऐसा न करने पर उनकी सदस्यता खत्म हो सकती है। लेकिन भारतीय संसदीय व्यवस्था के तीन गुना से अधिक पुरानी अमरीकी व्यवस्था में अब तक हिन्दुस्तानी-बंदिशों की तरह सांसदों को गुलाम नहीं बनाया गया है। अपनी पार्टी के गुलाम, पार्टी की विचारधारा ही नहीं, पार्टी के मनमाने फैसलों को समर्थन करने पर मजबूर गुलाम। इससे यह तो होता है कि सांसदों की खरीदी-बिक्री का खतरा शायद कुछ घट सकता है, लेकिन बिना ऐसे किसी कानून के अमरीकी संसद में किसी सांसद की खरीद-बिक्री की कोई चर्चा कभी सुनाई नहीं पड़ती।
संसदीय लोकतंत्र में अलग-अलग देशों के नियम-कायदों में फर्क हो सकता है, रहता ही है, लेकिन हिन्दुस्तान में दलबदल विरोधी कानून के तहत जिस तरह पार्टी व्हिप के खिलाफ जाने पर भारत में संसद और विधानसभाओं में सदस्यता जा सकती है, उससे संसद विचारों के आजाद मंच की जगह गिरोहबंदी पर काम करने वाली एक जगह बन चुकी है। यह सिलसिला सदन में सदस्य के अपने विचारों को रखने की संभावनाओं को खत्म कर देता है, और सदस्यों के लिए महज अपनी पार्टी की सोच और फैसले से बंधे रहना एक मजबूरी हो जाती है। ऐसे में सदन को सदस्यों के निजी विचारों का जो फायदा मिलना चाहिए, वह संभावना पूरी तरह खत्म हो जाती है, और अलग-अलग सदस्यों वाला यह सदन खेमों में बंटकर ही काम करता है। एक पार्टी के लोग एक आवाज बोलते हैं, एक ही सोच और फैसला सामने रखते हैं, और इस तरह सदन निर्वाचित व्यक्तियों की पंचायत होने के बजाय उनकी पार्टियों के बीच बहस की सीमित संभावनाओं वाली जगह बनकर रह जाती है।
भारत की ऐसी तंग सीमाओं को देखते हुए अमरीका की आज की व्यवस्था पहली नजर में एक संसदीय आजादी की व्यवस्था लगती है, लेकिन भारत के संदर्भ में ऐसा सोचते ही तुरंत यह लगता है कि इस किस्म का समर्थन या विरोध खरीदना हिन्दुस्तान में कितना आसान हो जाएगा? यहां तो सांसद और विधायक, सरकार के मंत्री, चुनाव में खड़े होने जा रहे उम्मीदवार, किसी को भी खरीदा जा सकता है, कोई भी अपने आपको बेचने के लिए संसदीय-मंडी में खड़े हो सकते हैं। मजे की बात यह है कि चिल्हर दलबदल पर तो रोक लग गई है, लेकिन थोक में दलबदल एक बहुत आसान काम हो गया है। एक-तिहाई सांसद-विधायक अगर दलबदल को न जुट पाएं, तो कुछ विधायक-सांसद इस्तीफे देकर भी बाकी लोगों में से एक-तिहाई के दलबदल की संभावना पैदा करते हैं, या अपनी सरकार गिरा देते हैं। और यह देश दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के घमंड में डूबा ही रहता है।
अमरीका की लोकतांत्रिक सोच में, वहां की संसदीय व्यवस्था में दूसरी कई खामियां हो सकती हैं, होंगी, लेकिन पार्टी की नकेल से सांसदों और विधायकों को बांधकर रखने की व्यवस्था नहीं है, और उसके बाद भी सांसद-विधायक बिक नहीं रहे हैं, यह कुछ अटपटी बात जरूर है। पिछले कई दिनों से जब से अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव में मौजूदा राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप को बहुमत नहीं मिला, और वे हारते चले गए, तो हिन्दुस्तान में तो ऐसे लतीफे खूब चले कि ट्रंप को अपने हिन्दुस्तानी दोस्तों से सांसद खरीदने की तरकीबें पूछ लेना चाहिए, लेकिन अमरीका के भीतर ऐसे लतीफे का मतलब भी शायद कोई समझ नहीं पाए होंगे।
हर लोकतंत्र में दूसरे देश के लोकतंत्र से कुछ, या कई बातें सीखने की संभावना हमेशा रहती है। अमरीकी सांसद बिना बिके हुए अपनी अंतरात्मा की आवाज पर आज वोट किस तरह दे रहे हैं, और उनकी पार्टी उन्हें कोई चेतावनी भी जारी नहीं कर रही है, और उनके बारे में ऐसी कोई अफवाह भी नहीं है कि उन्होंने अपनी आत्मा बेच दी है, इस नजारे को देखकर हिन्दुस्तानी लोकतंत्र को कुछ सीखने की जरूरत है जो कि हाल के बरसों में लगातार बिकने वाले लोगों की खबरों से पटा हुआ है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
किसान आंदोलन को लेकर दो दिन पहले बड़ी हमदर्दी दिखाने वाला सुप्रीम कोर्ट उस शाम से ही शक के घेरे में था, कल आंदोलन पर सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम आदेश उस शक को गहरा कर गया, और शाम होते-होते यह साफ हो गया कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर एक बड़ा ही विवादास्पद आदेश दिया है। कल अदालत ने आंदोलनकारी किसानों से बात करने के लिए चार लोगों की एक कमेटी बनाई, और शाम होते-होते लोगों ने तुरंत ही इन चारों के कई बयान ढूंढकर सामने रख दिए कि किस तरह ये चारों ही सरकार समर्थक लोग हैं, उन तीनों कृषि-कानूनों का खुलकर समर्थन कर चुके लोग हैं जिन कानूनों को खारिज करने के लिए किसानों का आंदोलन चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश में यह खुलासा भी नहीं है कि आंदोलनकारी किसानों से बात करने के लिए बनाई गई कमेटी का नाम किसके सुझाए हुए हैं, या किस आधार पर ये नाम छांटे गए हैं। फिलहाल पहली नजर में ये नाम ऐसे लगते हैं कि आठ लोगों की कमेटी में चार नाम सरकार ने दिए हैं, और चार नाम आंदोलनकारियों की तरफ से आएंगे। दिक्कत बस छोटी सी है कि कमेटी में चार ‘सरकारी’ नामों से परे और कोई नाम नहीं आने वाले हैं। ये तीनों कृषक-कानून पिछले कुछ महीनों के ही हैं, इसलिए उन पर इस कमेटी के मेम्बरान की कही बातें पल भर में सामने आ रही हैं। इन सबने खुलकर इन कानूनों का साथ दिया हुआ है, और उनकी अपनी सोच ही उन्हें ऐसी किसी मध्यस्थ कमेटी में रहने का अपात्र साबित करती है। ऐसे नामों की कमेटी बनाकर सुप्रीम कोर्ट जजों ने अपने आपको एक अवांछित विवाद के कटघरे में खड़ा कर दिया है। ऐसी कमेटी न तो सरकारी ने मांगी थी जो कि किसानों के साथ बातचीत में लगी हुई है, न ही किसानों ने ऐसी कमेटी मांगी थी, बल्कि किसान तो ऐसी कमेटी के खिलाफ थे और उनके वकील ने साफ-साफ कहा है कि किसान इनसे बात नहीं करेंगे।
कमेटी के एक सदस्य कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी को मोदी सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया था, वे सरकार की कमेटियों में अध्यक्ष रह चुके हैं, हाल ही में उन्होंने एक लेख लिखकर विवादास्पद कृषि कानूनों का समर्थन का समर्थन किया था, और उनकी वकालत की थी। कमेटी के एक दूसरे सदस्य अनिल घनवत का एक इंटरव्यू आज ही सुबह सामने आया है। सुप्रीम कोर्ट ने जब उन्हें कमेटी में रख ही दिया है, तो उसके बाद तो कम से कम उन्हें अपनी निजी सोच अलग रख देनी थी, लेकिन उन्होंने एक समाचार एजेंसी से कहा किसानों को ये भरोसा दिलाया जाना जरूरी है कि जो भी हो रहा है, वो उनके हित में ही हो रहा है। उन्होंने कहा कि ये आंदोलन कहीं जाकर रूकना चाहिए। इसके पहले वे कह चुके हैं कि इन कानूनों को वापिस लेने की कोई जरूरत नहीं है जिन्होंने किसानों के लिए अवसरों के द्वार खोले हैं। कमेटी के एक और सदस्य डॉ. पी.के. जोशी कह चुके हैं कि कृषि-कानूनों में कोई भी नर्मी बरतना भारतीय कृषि को वैश्विक संभावनाओं से दूर करने का काम होगा। अशोक गुलाटी बहुत लंबी-लंबी बातों में इन कानूनों की जरूरत बता चुके हैं। कमेटी के चौथे सदस्य भूपिन्दर सिंह मान ने केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर से मुलाकात करके कृषि-कानूनों का समर्थन किया था। उन्होंने द हिन्दू अखबार से बात करते हुए कहा था कृषि क्षेत्र में प्रतियोगिता के लिए सुधार जरूरी हैं लेकिन किसानों की सुरक्षा के उपाय किए जाने चाहिए, और खामियों को दुरूस्त किया जाना चाहिए।
कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट ने उसके सामने पेश मुद्दों से परे जाकर एक ऐसे अप्रिय काम में अपने आपको उलझा लिया है कि उससे उसकी ऐसी पहल की जरूरत पर सवाल उठ रहे हैं। कृषक-कानूनों के मुद्दे पर किसानों ने सरकार के साथ बैठक के हर न्यौते पर अपने टिफिन सहित जाकर हाजिरी दी थी। सरकार के साथ बैठकों का सिलसिला खत्म नहीं हुआ था। ऐसे में उन्हीं मुद्दों पर किसानों से बात करने के लिए एक ऐसी कमेटी बनाई गई जिसके गठन के भी किसान खिलाफ थे। और फिर उसमें ऐसे नाम रख दिए गए जो कि किसानों के खिलाफ हैं। हाल के बरसों में सुप्रीम कोर्ट ने एक के बाद एक बहुत से ऐसे फैसले दिए हैं जो कि सरकार को तो जाहिर तौर पर सुहा रहे हैं, लेकिन इंसाफ की समझ रखने वाले बहुत से रिटायर्ड जज और संविधान विशेषज्ञ ऐसे फैसलों पर हक्का-बक्का हैं। जैसा कि सोशल मीडिया पर कल से बहुत से लोग लिख रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट के कल के अंतरिम आदेश से किसान आंदोलन को खत्म करने का काम होते दिख रहा है, और इससे भारत में न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर आंच आई है। कल से लेकर आज तक चारों कमेटी मेंबरों के जो बयान सामने आए हैं, वे हैरान करते हैं कि क्या मध्यस्थ ऐसे छांटे जाते हैं?
और इस मुद्दे पर एक आखिरी बात और। अदालत ने यह भी कहा है कि इस आंदोलन में बच्चे, बुजुर्ग, और महिलाएं शामिल न हों। क्या हिन्दुस्तान की खेती में महिलाएं शामिल नहीं हैं? सुप्रीम कोर्ट की यह सोच भारी बेइंसाफी की है, और महिला विरोधी है क्योंकि यह ऐसा जाहिर करती है कि भारत में किसानी एक गैरमहिला काम है। सुप्रीम कोर्ट की दिग्गज महिला वकीलों से लेकर देश की प्रमुख महिला आंदोलनकारियों ने भी अदालत की इस बात की जमकर आलोचना और निंदा की है। कल हमने भी इस अखबार में अदालत के इस रूख पर लिखा था। लेकिन क्या आज हिन्दुस्तान की अदालतें दीवारों पर लिक्खे हुए को भी पढ़ पा रही हैं? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट ने अपने कल के रूख के मुताबिक आज केन्द्र सरकार के तीनों कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगा दी है। इसके अलावा अदालत ने किसानों से बात करने के लिए एक कमेटी बनाई है जो उनकी मांगों पर चर्चा करेगी। कल ही इस मुद्दे पर हमने इसी जगह काफी खुलासे से लिखा था कि जजों का जुबानी रूख किसानों के लिए हमदर्दी का था। लेकिन आज का यह अंतरिम आदेश पहली नजर में केन्द्र सरकार के लाए हुए एकतरफा कानूनों पर अमल तो रोक रहा है, किसानों से बात करने की जरूरत भी बता रहा है, लेकिन देश के लोगों के मन में शक की कमी नहीं है। बहुत से लोग यह मान रहे हैं कि इस आदेश के बाद एक किस्म से किसान आंदोलन बेमतलब का दिखने लगेगा, और इससे कुल मिलाकर सरकार की नीयत और हसरत ही पूरी होते दिख रही है।
अभी तक सुप्रीम कोर्ट के आदेश, और आदेश के पहले की जुबानी चर्चा की जो जानकारी खबरों में आई है, उनके मुताबिक आंदोलन कर रहे किसान तो ऐसी कोई कमेटी बनाने के ही खिलाफ हैं, उनके वकील ने सुप्रीम कोर्ट जजों से कहा कि किसान तो ऐसी किसी कमेटी में पेश भी नहीं होंगे। इस पर अदालत का यह रूख आया है कि अगर किसान समस्या का समाधान चाहते हैं, तो हम ये नहीं सुनना चाहते कि किसान कमेटी के सामने पेश नहीं होंगे। सुप्रीम कोर्ट ने कृषि अर्थशास्त्र और कृषि से जुड़े हुए चार लोगों की एक कमेटी बनाई है, और यह भी साफ किया है कि अदालत इस कमेटी का काम चाहती है। अदालत ने यह भी कहा है कि कृषि कानूनों पर अमल पर रोक अंतहीन नहीं रहेगी।
कल सुप्रीम कोर्ट के जजों ने जिस अँदाज में केन्द्र सरकार के वकील की जुबानी खिंचाई सरीखी की थी, अदालत का वही अंदाज नए संसद भवन सहित 20 हजार करोड़ के सेंटर विस्ता निर्माण के खिलाफ बहस के दौरान भी था। लेकिन जब फैसला आया तो केन्द्र सरकार के इस फैसले के खिलाफ तमाम आपत्तियां खारिज कर दी गईं, और सरकार को निर्माण की इजाजत दे दी गई थी। अभी पिछले पखवाड़े का ही यह फैसला लोगों को भूला नहीं है, और सोशल मीडिया पर कल का अदालती रूख भारी संदेह के साथ देखा जा रहा था, और उसे सरकार की मर्जी का एक जाल माना जा रहा था। आज भी सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश लोगों के मन से शक खत्म नहीं कर पा रहा है, और कई लोगों का यह मानना है कि यह सरकार के पक्ष को मजबूत करने वाला, और किसान आंदोलन को बीच में ही बेअसर कर देने वाला आदेश है।
हम सुप्रीम कोर्ट की नीयत पर कोई शक नहीं कर रहे, और पहली नजर में उसके शब्दों को ही उसकी भावना भी मानकर चल रहे हैं। लेकिन हाल के महीनों में, बीते एक-दो बरसों में सुप्रीम कोर्ट के बहुत सारे फैसले ऐसे आए जो कि सरकार के रूख से सहमति रखने वाले थे, और खुद न्यायपालिका के मौजूदा और भूतपूर्व कई लोगों ने इन फैसलों को बड़ा कमजोर इंसाफ माना था। अभी भी सेंट्रल विस्ता पर सुप्रीम कोर्ट की इजाजत तीन में से एक जज की असहमति वाली है, और इस फैसले में शहरी विकास के बहुत से विशेषज्ञों को निराश भी किया है।
कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट के आज के आदेश को किसानों की जीत बता रहे हैं। दूसरी तरफ किसानों के वकील ऐसी किसी कमेटी के खिलाफ थे, और अब अदालत के कहे मुताबिक किसानों को कमेटी के सामने ही अपनी बात रखनी होगी। कुल मिलाकर जो किसान सरकार के साथ अपनी बातचीत से निराश और असंतुष्ट थे, आंदोलन जारी रखने की जिद पर अड़े हुए थे, आज उन्हें सरकार के सामने से हटाकर एक कमेटी के हवाले कर दिया गया है, और यह किसानों की अदालती हार ही हुई है। यह हाल के बरसों का सबसे मजबूत किसान आंदोलन हो गया था, और यह किसान आंदोलन होने के साथ-साथ सिक्खों के मान-सम्मान से भी जुड़ गया था। यह पूरी नौबत अदालत के आज के अंतरिम आदेश से एकदम फीकी पड़ गई है, और इसे किसी भी शक्ल में किसानों की जीत मानना कुछ मुश्किल है। लेकिन यह आदेश केन्द्र सरकार के लिए बड़ी राहत लेकर आया है जिसे अब किसानों सेकिसी तरह की बात करने की जरूरत नहीं रह गई है। इसे कमेटी की रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में पेश होने, और सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक राह देखनी है क्योंकि उसके बनाए हुए कानून खारिज तो हुए नहीं है, फैसले तक महज उनके अमल पर रोक लगी है जो कि बहुत बड़ी बात नहीं है।
कल सुप्रीम कोर्ट जजों ने जुबानी बातचीत में केन्द्र सरकार के वकील के मार्फत केन्द्र सरकार की काफी खिंचाई की थी, लेकिन आज यह अंतरिम आदेश आने पर यह साफ हो रहा है कि अदालत की नीयत चाहे जो हो, किसान आंदोलन की नियति अब कमजोर हो गई है। आगे देखें क्या होता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश के सुप्रीम कोर्ट में जब कुछ बुनियादी बातों पर बहस चलती है, तो फिर वह सिर्फ वकीलों के बीच नहीं चलती जज भी उसमें हिस्सेदार रहते हैं। वैसे तो अदालती कार्रवाई में वकीलों का दर्जा जजों से अलग रहता है, लेकिन जज कई बार अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए वकीलों से जिरह करते हैं, और उनका नजरिया, उनका तर्क निकलवाने की कोशिश करते हैं। कई बार वे अदालती कार्रवाई के दौरान किसी औपचारिक फैसले, या आदेश के पहले भी जुबानी अपना रूख साफ करते हैं, और उनकी बातों को सुनकर दोनों पक्षों के वकील अपनी रणनीति में फेरबदल भी करते हैं। कानून की साधारण समझ रखने वाले लोगों को भी किसी अच्छे रिपोर्टर की लिखी गई अदालती कार्रवाई को पढक़र देश के संविधान, लोगों के बुनियादी हक और जिम्मेदारी, के बारे में बहुत कुछ समझने मिलता है।
आज जब सुप्रीम कोर्ट में किसान आंदोलन को लेकर दायर की गईं कई याचिकाओं को एक साथ जोडक़र सुनवाई की जा रही थी, तो अभी-अभी केन्द्र सरकार द्वारा बनाए गए किसान कानूनों को लेकर अदालत ने अपने तेवर दिखाए, और किसान आंदोलन को लेकर केन्द्र सरकार का जो रूख है उस पर तो खासी नाराजगी जाहिर की। सुप्रीम कोर्ट बेंच ने यह साफ कर दिया कि अगर सरकार खुद होकर इन कृषि-कानूनों पर रोक नहीं लगाती है, तो अदालत रोक लगा देगी। इस पर हक्का-बक्का केन्द्र सरकार के वकील ने कहा कि भारत का अदालती इतिहास रहा है कि वह कानून पर रोक नहीं लगा सकती। उन्होंने कहा कि जब तक कोई कानून विधायी क्षमता के बिना पारित न हुआ हो, या मौलिक अधिकारों का उल्लंघन न करता हो, तब तक अदालत संसद के कानून पर रोक नहीं लगा सकती। इस पर अदालत ने साफ किया कि वह कानून पर रोक नहीं लगा रही है, लेकिन उसके अमल पर रोक लगा रही है। अब इस बारीक फर्क को लेकर देश के सबसे बड़े सरकारी वकील और जजों के बीच भी खुली बातचीत से यह खुलासा होता है कि कानून को रोकना, और उसके अमल को रोकना दो अलग-अलग बातें हैं।
लेकिन इस एक मुद्दे से परे भी अदालत ने बहुत खुलकर केन्द्र सरकार की खिंचाई की है, और इस किस्म से किसान आंदोलन के दौरान हो रही मौतों पर भारी फिक्र जाहिर की है, और यह साफ किया है कि वह ऐसी मौतों के चलते चुप नहीं रह सकती, और इन मौतों के लहू से वह चुप रहकर अपने हाथ नहीं रंग सकती। अदालत ने किसान आंदोलन के दौरान किसी हिंसा के खतरे पर भी फिक्र जाहिर की, आंदोलनरत किसानों के बीच कोरोना जैसे किसी संक्रमण के फैलने का खतरा भी अदालत ने देखा, और यह साफ किया कि सुप्रीम कोर्ट को किसानों के भोजन-पानी की फिक्र है। अदालत ने सरकार से यह भी पूछा कि जिस तरह किसान खुदकुशी कर रहे हैं, क्या इस कानून को रोका नहीं जा सकता? अदालत ने कहा कि एक भी याचिका ऐसी नहीं है जिसमें कहा गया हो कि ये कानून अच्छे हैं, किसानों के भले के हैं। महीने भर से चल रही बातचीत को लेकर भी अदालत ने खफा होकर सरकार से कहा कि उसे यही समझ नहीं आ रहा है कि सरकार समाधान का हिस्सा है, समस्या का हिस्सा है? जाहिर है कि मीडिया में, और सोशल मीडिया में जिस तरह किसानों की शहादत सामने आ रही है, उन्हें सुप्रीम कोर्ट अनदेखा नहीं कर पाया है।
अभी किसान आंदोलन पर, और किसान कानूनों पर अमल पर अदालत का फैसला बहुत दूर हो सकता है, और यह भी हो सकता है कि आज अदालत यह कड़ा रूख दिखाने के बाद अपने फैसले में सरकार के साथ दिखे, लेकिन आज अदालत का जो रूख है वह भी किसानों के लिए, और उनके हमदर्द हिन्दुस्तानियों के लिए राहत की बात है। अदालत के कहे हुए शब्दों से दो बातें साफ हैं, पहली बात तो यह कि संसद में बाहुबल से पास करवाए गए किसान विधेयकों को लागू करने की हड़बड़ी से सुप्रीम कोर्ट बिल्कुल भी सहमत नहीं है, और उसका कड़ा रूख दिख रहा है कि इनके अमल को रोक दिया जाए। दूसरी बात साफ दिख रही है कि इस आंदोलन में लोग जितनी तकलीफें उठा रहे हैं, जिस तरह बुजुर्ग और महिलाएं इसमें शामिल हैं, जिस तरह मौतें और खुदकुशी हो रही हैं, उनसे सुप्रीम कोर्ट हिला हुआ है। अदालत का ऐसा रूख भी इस देश के लोकतांत्रिक आंदोलनों के लिए मायने रखता है। ऐसा दिख रहा है कि किसानों और सरकार के बीच बेनतीजा सीधी बातचीत को देखते हुए अदालत एक कमेटी भी बना सकती है जो कि दोनों पक्षों से बात करके किसी किनारे पर पहुंच सके। कुल मिलाकर आज अदालत का रूख देश के किसानों और लोकतांत्रिक तबकों के लिए राहत का है, और पिछले कुछ समय से सुप्रीम कोर्ट को लेकर जनता में ऐसी सोच बन रही थी कि वह सरकार के साथ सहमत, या सरकार के फैसलों के प्रतिबद्ध न्यायपालिका है, यह धारणा आज के अदालती रूख से कुछ कमजोर जरूरी होगी। अदालत की जुबानी टिप्पणियों के बाद उसके आदेश, और उसके फैसले से किसानों को कितनी राहत मिलती है यह देखना अभी बाकी है, और उसमें लंबा वक्त लग सकता है। आगे-आगे देखें होता है क्या। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आन्ध्रप्रदेश में 74 साल की एक महिला ने कृत्रिम गर्भाधान तकनीक से जुड़वां बेटियों को जन्म दिया है। खुद की शादी के 57 साल हो चुके थे, लेकिन बच्चे नहीं हुए थे। अब यह महिला इन बच्चों के साथ बीबीसी की एक वीडियो रिपोर्ट में खुश दिख रही है। बच्चों के जन्म के बाद 6 महीने तक उनके साथ इस बुजुर्ग महिला को भी अस्पताल में ही रखा गया था, और अब वह खेलती-दौड़ती बेटियों संग खुश है। इस रिपोर्ट के मुताबिक इस महिला के पति को बच्चों का सुख हासिल नहीं हुआ क्योंकि वे गुजर गए। बाकी परिवार का कहना है कि विश्व रिकॉर्ड बना चुकी उनकी यह बुजुर्ग सदस्य 4-5 बरस और जी जाए, तो बच्चियों की अच्छे से परवरिश हो जाएगी।
भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है कि वह लोगों को कोई उम्र गुजर जाने के बाद मां-बाप बनने से रोके। और चिकित्सा विज्ञान की अपनी कोई समझ नहीं है, उसके पास महज तकनीक है, और खासकर आज तो चिकित्सा-कारोबार के हाथ इतनी महंगी-महंगी तकनीकें हैं कि उसका बाजारू इस्तेमाल रोक पाना मुमकिन नहीं है। चौहत्तर बरस की जिस उम्र में यह महिला डेढ़ बरस उम्र की जुड़वां बेटियों के साथ है, वह उम्र हिन्दुस्तान की औसत उम्र से खासी अधिक हो चुकी है। और इस बात की गणितीय संभावना कम है कि वह इन बच्चियों के बालिग होने तक रह सके, और रहे भी तो उनकी देखभाल करने के लायक रह सके। जिस हिन्दुस्तान में अंग-प्रत्यारोपण को लेकर एक बहुत ही कड़ा कानून है जो कि लोगों के अंगदान करने और दूसरों के उन अंगों को पाने को बरसों लंबी जटिल प्रक्रिया बना देता है। उसी हिन्दुस्तान में संतान पाने के लिए कोई कानून नहीं है। कम से कम उम्र की कोई रोक इस पर नहीं है। संविधान में जो बुनियादी हक दिए गए हैं, उन पर चिकित्सा-विज्ञान को लेकर भी कोई रोक नहीं है जबकि संविधान के मूलभूत अधिकारों के तहत किसी को अंग देने और किसी से अंग लेने के फैसलों पर चिकित्सा-विज्ञान की जटिल औपचारिकताएं लागू की गई हैं जो कि अंग देने और पाने पर रोक तो नहीं लगाती हैं, लेकिन उन्हें बरसों की थका देने वाली जटिल प्रक्रिया जरूर बना देती हैं।
ऐसे में आज की यह बात कुछ तो लोगों के निजी फैसले पर है कि वे 74 बरस की उम्र में मां बनना तय करते हैं। इस अकेली महिला ने ही नहीं, बल्कि बाकी परिवार ने भी इस फैसले में चाहे अनमने ढंग से, साथ तो दिया, और हसरत पूरी करने का बाकी काम चिकित्सा-विज्ञान ने कर दिया। लेकिन जिस कृत्रिम गर्भाधान तकनीक को चिकित्सा-विज्ञान ने विकसित किया है, वह चिकित्सा-विज्ञान न तो पौन सदी पर पहुंच रही इस बुजुर्ग महिला की उम्र बढ़ा सकता है, न ही उसे उम्र से जुड़ी, या दूसरी, बीमारियों से बचा सकता है। क्या ऐसे में गर्भाधान के लिए किसी उम्र की शर्त लगाना एक अधिक जिम्मेदारी की सामाजिक व्यवस्था होगी? जो बच्चे ऐसी तकनीक से, इस उम्र में, पैदा हुए हैं, उनका तो कोई बस अपने पैदा होने पर चल नहीं सकता था। वे तो अपनी मर्जी के बिना, अपने किसी फैसले के बिना ऐसे बुजुर्ग मां-बाप की संतान बनी हैं जिनकी अपनी जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं है। एक बहुत बड़ी आशंका यह है कि ये बच्चियां बालिग होने, और उसके बाद के भी खासे बरस तक रिश्तेदारों की मोहताज रहेंगी। महज रूपए-पैसे का इंतजाम, अगर हो तो भी, काफी नहीं होता क्योंकि बिना मां-बाप के बच्चों की हालत बहुत से मामलों में बदहाल ही रहती है।
चूंकि लोगों के निजी फैसलों पर परिवार के, या आसपास के लोगों का भी अधिक बस तो चलता नहीं है, इसलिए जब तक कोई कानून न रहे, तब तक किसी को ऐसी असाधारण बातों से रोका नहीं जा सकता। भारत में कृत्रिम गर्भाधान तकनीक से दूसरी मां की कोख से बच्चों के जन्म पर एक सरोगेसी-कानून बनाकर बहुत ही कड़ी रोक लगाई गई है। यह भी सोचने की जरूरत है कि इतनी उम्र में कृत्रिम गर्भाधान तकनीक से मां-बाप बनने पर क्या कोई रोक नहीं लगाई जानी चाहिए? यह बात ऐसे मां-बाप के अधिकारों की बात नहीं है, यह बात अजन्मे बच्चों के अधिकार की बात है, और चूंकि उनकी तरफ से कोई दूसरे लोग बुजुर्ग दम्पत्ति के ऐसे फैसले के खिलाफ अदालत जाने में दिलचस्पी नहीं रखते होंगे, इसलिए ऐसी नौबत की सोचकर सरकार को ही किसी रोक की बात सोचनी चाहिए कि बच्चों को दुनिया में लाकर मां-बाप जल्द चल बसें, तो उनकी जवाबदेही किसकी होगी, और सरकार को ऐसी नौबत को देखते हुए कैसी रोक लगानी चाहिए।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया में सबसे लोकप्रिय सोशल मीडिया फेसबुक, और सबसे अधिक इस्तेमाल होने वाला मैसेंजर वॉट्सऐप दोनों एक ही मालिक के हाथ हैं। अब वॉट्सऐप में अपनी सर्विस इस्तेमाल करने वाले लोगों से उनकी निजता-गोपनीयता में कई तरह की छूट मांगी है जिससे वह जानकारियों का इस्तेमाल कर सकें। जो लोग ऐसी छूट देने पर सहमति नहीं दे रहे हैं, उनके फोन पर वॉट्सऐप 8 फरवरी को बंद कर देने की जानकारी इस सर्विस की तरफ से दी गई है।
वैसे तो हिन्दुस्तान में लोग निजता और गोपनीयता को पश्चिमी सोच मानते हैं, और किसी का कोई व्यक्तिगत जीवन भी होने की सोच भारत में नहीं है। इसलिए हिन्दुस्तान में अभी वॉट्सऐप की सहूलियत और आदत को छोडऩे का सिलसिला नहीं दिख रहा है, लेकिन एक दिलचस्प बात यह है कि सौर ऊर्जा और सोलर बैटरियों से चलने वाली कारें बनाकर दुनिया के सबसे रईस इंसान बने कारोबारी एलन मस्क ने ट्विटर पर एक दूसरी मैसेंजर सर्विस, सिग्नल, का नाम भर लिखा है, और उसे लाखों लोग देखते चल रहे हैं, आगे बढ़ाते चल रहे हैं। लोग विकसित दुनिया में वॉट्सऐप छोडऩे के पहले दूसरी सेवाओं का इस्तेमाल जोड़ते चल रहे हैं, और अभी से एक महीने बाद पता चलेगा कि दूसरी मैसेंजर सर्विसों को कितने लोगों ने इस्तेमाल करना शुरू किया है। हो सकता है कि ऐसे लोग आगे भी वॉट्सऐप को छोडऩे के बजाय उसे कुछ साधारण कामकाज के लिए बनाए रखेंगे, और सचमुच के निजी संदेशों के लिए दूसरी सर्विस इस्तेमाल करेंगे।
इस बारे में आजकल में ही लिखे गए एक लेख में एक ताजा फिल्म का एक वाक्य लिखा गया है कि अगर आप किसी प्रोडक्ट का इस्तेमाल करने के लिए पैसे नहीं चुका रहे हैं, तो आप ही वो प्रोडक्ट हैं।
बात सही है क्योंकि दुनिया में कुछ भी बिना प्राइज-टैग के नहीं आ सकता। सोशल मीडिया हो, या ऐसी मैसेंजर सर्विसेज हों, ये कोई समाजसेवा का काम तो है नहीं। इन्हें कारोबारियों ने शुरू किया, और मुफ्तखोरों ने इन्हें लपक लिया। नतीजा यह हुआ कि आज जब आदत डालकर और जरूरत बनाकर सोशल मीडिया और मैसेंजर लोगों की गोपनीयता खत्म कर रहे हैं, तो लोगों को यह भी लग रहा है कि इनके बिना जिंदगी कटेगी कैसे? लेकिन यह बात महज सोशल मीडिया या मैसेंजर के बारे में नहीं है, यह बात तो अखबारों पर भी लागू होती है जिन्हें लोग रद्दी के भाव पर चाहते हैं। अब अखबार उन्हें तकरीबन मुफ्त चाहिए, या लागत के दस फीसदी दाम पर चाहिए, और पाठक अखबार निकालने वाले लोगों से पूरी ईमानदारी की उम्मीद भी करते हैं। सस्ते की चाह का नतीजा यह होता है कि लोग प्रायोजित समाचार-विचार पाते हैं, उन्हीं पर भरोसा करने को मजबूर होते हैं, और फिर उनके असर में ऐसी सरकारें चुनते हैं जो कि उन प्रायोजकों की पसंद रहती हैं। मुफ्त के बारे में हिन्दुस्तान में बहुत पहले से एक बात चली आ रही है कि दान की बछिया के दांत नहीं गिने जाते। मुफ्त में जो मिल जाता है, उसे उसी तरह लेना पड़ता है। अब आज फेसबुक और वॉट्सऐप नाम के दान के बछिया-बछड़ा लोगों के तौलिए खींच रहे हैं, तो लोगों के पास पसंद की कोई अधिक गुंजाइश भी नहीं बची है। आज अगर अपनी गोपनीयता बनाए रखने के साथ फेसबुक और वॉट्सऐप लोगों से कुछ सौ रूपए महीने मांगने लगें, तो कितने लोग उसे देने तैयार होंगे? आज दूसरी कोई सेवाएं गोपनीयता के साथ मैसेंजर देने को खड़ी भी हों, लेकिन वे भी कोई समाजसेवी संस्थान तो है नहीं। कल जब उनका बाजार भी बढ़ जाएगा, तो वे भी यही काम करेंगी, या तो निजी जानकारियां जुटाकर उन्हें बाजार में बेचेंगी, या वे ग्राहकों से भुगतान करने को कहेंगी।
निजता को लेकर एक हल्का-फुल्का किस्सा दशकों से प्रचलन में है। हनीमून मनाने गया एक जोड़ा एक होटल में रूका, तो उससे कोई भुगतान नहीं लिया गया, कहा गया कि यह होटल की तरफ से गिफ्ट है। ऐसी गिफ्ट से खुश यह जोड़ा एक बरस बाद फिर वहीं जाकर रूका, तो निकलते समय उसे बिल थमा दिया गया। सदमे में आकर उसने याद दिलाया कि पिछली बार तो बिल नहीं दिया गया था, तो होटल ने उन्हें बताया कि पिछली बार उन्हें वीडियो कैमरे वाले कमरे में ठहराया गया था, और उनका वीडियो बाकी कमरों के लोग देख रहे थे। अब निजता को छोडक़र कुछ मुफ्त पाना, या निजता बनाए रखने के लिए भुगतान करना, यह लोगों को खुद तय करना है। दुनिया में मुफ्त में कुछ नहीं आता, लोगों को समझौता या भुगतान इन दो में से एक छांटना पड़ता है। उदार बाजार व्यवस्था में बस यही है कि आज एक सर्विस आपकी निजी जानकारी पर कब्जा चाहती है, तो कोई दूसरी सर्विस बिना ऐसी चाहत भी मुफ्त में हासिल है। लोग खुद तय करें कि उन्हें क्या पसंद है।
अमरीका में आज भारतीय मूल के एक व्यक्ति को वहां की फौज में प्रमुख प्रवक्ता बनाया गया तो परंपरानुसार मीडिया और सोशल मीडिया पर भारत के लोगों ने बड़ी खुशी जाहिर की, और गर्व किया। हिन्दुस्तानी नाम, हिन्दुस्तानी जाति-नाम, और हिन्दुस्तानी चेहरा दुनिया में जहां कहीं कामयाबी पाएं, हिन्दुस्तान के लोग खुश हो जाते हैं, और अपनी जमीन पर गर्व करने लगते हैं। आज अमरीका में अगली सरकार के लिए निर्वाचित-राष्ट्रपति ने ऐसे कई भारतवंशी चेहरों को अलग-अलग जिम्मेदारियां दी हैं। लेकिन अमरीकी सरकार से परे भी ब्रिटिश सरकार, कनाडा या ऑस्ट्रेलिया की सरकार, मॉरीशस या दूसरी कई सरकारों में भारतवंशी बड़े महत्वपूर्ण ओहदों पर हैं। अमरीका की तरफ से अंतरिक्ष में जाने वाली सुनीता विलियम्स की जड़ें हिन्दुस्तान के गुजरात में थीं।
अब छोटा सा सवाल यह उठता है कि इन लोगों की कामयाबी पर फख्र करने का हक किसे है? सरकारों से परे भी भारत से अमरीका गए हुए बहुत से बिजनेस मैनेजर दुनिया की सबसे बड़ी-बड़ी कंपनियों, गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, पेप्सी के मुखिया बने हैं और अभी भी हैं। इनमें से कई लोगों की पढ़ाई हिन्दुस्तान के आईआईटी या आईआईएम, या इन दोनों में हुई है। लेकिन इनकी सारी संभावनाएं हिन्दुस्तान के बाहर जाने के बाद एक ऐसे देश में सामने आईं जहां पर काम करने का खुला माहौल है, सरकारी दखल शून्य है, राजनीतिक दबाव नहीं हैं, टैक्स एजेंसियों और सरकारों के भ्रष्टाचार से नहीं जूझना पड़ता है। ऐसे लोग भारत से पढक़र जरूर गए हैं, इनके डीएनए में पिछड़ी पीढिय़ों का हिन्दुस्तानी डीएनए जरूर है, लेकिन इनकी कामयाबी उस देश के नियम-कायदों, वहां की सरकारी व्यवस्था, वहां के प्रतिस्पर्धी बाजार की वजह से हुई है। हिन्दुस्तान के आईआईटी और आईआईएम से पढ़े हुए लोग इस देश में भी काम करते हैं, उनमें से बहुत से लोग यहां भी कुछ या अधिक हद तक कामयाब होते हैं, लेकिन उनकी संभावनाओं को इस देश के सरकारी शिकंजों और भ्रष्टाचार का ग्रहण लग जाता है।
जब कभी कोई भारतवंशी भारत के बाहर जाकर कामयाब हो, तो उस पर गर्व करने के बजाय हिन्दुस्तानियों को यह सोचना चाहिए कि क्या भारत में उसकी ऐसी संभावनाओं को एक खुला आसमान मिल सकता था? आज अमरीका की बड़ी से बड़ी कंपनियां वहां के राष्ट्रपति से असहमति रखते हुए काम कर सकती हैं। सरकार के अगुवा का ट्विटर या फेसबुक अकाऊंट ब्लॉक कर सकती हैं, और वहां का कानून उनकी हिफाजत के लिए खड़े रहता है। अमरीका में आज मौलिक और अनोखी सोच की कारोबारी कामयाबी से वह देश आसमान पर पहुंचा है, लेकिन वहां जमीन से आसमान तक के इस सफर में इन कारोबारियों को जगह-जगह सरकारी और राजनीतिक बैरियरों पर रंगदारी टैक्स नहीं देना पड़ता। अपनी राजनीतिक सोच की वजह से उन्हें प्रताडि़त नहीं होना पड़ता। जो हिन्दुस्तानी आज दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों के मुखिया हैं, वे अगर हिन्दुस्तान में ही रह गए होते तो क्या होता? वे आसमान पर कितनी ऊंचाई तक पहुंच पाते?
इसलिए डीएनए पर गर्व कोई अच्छी बात नहीं है। कोई किस देश में पैदा हुए हैं, वह मायने नहीं रखता, किस देश ने उनकी संभावनाओं को खुलकर निखरने का मौका दिया, वह मायने रखता है। हिन्दुस्तानी खून वाली कमला हैरिस की मां अमरीका पहुंची थी, पिता किसी और देश से वहां पहुंचे थे, और वहां पर उनकी यह संतान बिना किसी पुरानी जड़ों के बराबरी के अवसर पाकर आगे बढ़ी, और आज उपराष्ट्रपति निर्वाचित हो चुकी है। अब अगर वह हिन्दुस्तान के अपने पुरखों के प्रदेश तमिलनाडू में रहती, तो क्या वह अपने दम पर इतनी आगे बढ़ सकती थी? हो सकता है कि हिन्दुस्तान में भी कुछ ऐसी मिसालें हों, लेकिन अधिकतर पार्टियों में बड़ी संख्या में ऐसे नेता हैं जो कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी नेतागिरी कर रहे हैं। ऐसी कुनबापरस्ती के बिना पश्चिम के जो विकसित और परिपक्व लोकतंत्र लोगों को बराबरी के अवसर देते हैं, वहां पर किसी की कामयाबी पर उसके जन्म के कुनबापरस्त देश को गर्व करने का कोई हक नहीं होना चाहिए।
अमरीका अपनी जिस मिलीजुली संस्कृति की वजह से विकसित हो पाया है, उस संस्कृति को कुचलने में लगे हुए देश भी अगर अमरीका में अपने डीएनए की कामयाबी का जश्न मनाते हैं, तो यह एक बड़ा पाखंड होता है। देश के भीतर उस माहौल का दम घोंट दो जिस माहौल की वजह से अमरीका में दूसरे देशों से आए लोग भी कामयाब होते हैं, और फिर उस कामयाबी पर उनके पुरखों के देश में जश्न मनाया जाए, तो शायद ऐसी ही हरकत के लिए किसी ने लिखा था- बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तानी समय के मुताबिक बीती रात से अमरीका में जो हिंसा चल रही है उसकी कल्पना सैकड़ों बरस के अमरीकी लोकतांत्रिक और संसदीय इतिहास में भी किसी ने नहीं की थी। मौजूदा राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप चुनाव में अपनी शिकस्त को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं, और वे इन नतीजों को झूठा, फर्जी, और गढ़ा हुआ करार देते आए हैं। आज उनके हिंसक समर्थक हजारों की संख्या में अमरीकी संसद भवन के भीतर घुस गए, वे नस्लवादी झंडे लिए हुए थे, हिंसक नारे लगा रहे थे, और ट्रंप को ही अपना अगला राष्ट्रपति बता रहे थे। ट्रंप ने इस मौके पर सोशल मीडिया पर जो कुछ लिखा, उसे सच से परे कहते हुए ट्विटर, फेसबुक, और इंस्टाग्राम, सभी ने अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के अकाऊंट सस्पेंड कर दिए, उनका कुछ भी पोस्ट करना ब्लॉक कर दिया। अमरीकी संसद के सामने चल रही इस हिंसा में 4 लोग मारे जा चुके हैं, प्रदर्शनकारी झंडे-डंडे लिए हुए संसद के भीतर घूम रहे हैं, और सुरक्षा दस्ते सांसदों को बचाकर सुरक्षित जगह पर ले गए हैं। अमरीकी चुनाव प्रणाली के मुताबिक कुछ इलेक्टोरल वोटों की गिनती संसद भवन में भी होनी थी, और इन वोटों को सुरक्षित हटा लिया गया है। इस हिंसक भीड़ के बारे में यह अंदाज है कि यह संसद की कार्रवाई रोक देना चाहती थी ताकि नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन को जीत का सर्टिफिकेट न मिल सके।
यह सब कुछ ऐसा अजीब सिलसिला है कि डोनल्ड ट्रंप की खुद की पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी के बारे में ऐसी खबरें आ रही हैं कि पार्टी के नेता संविधान की एक विशेष धारा का इस्तेमाल करके राष्ट्रपति को हटाने की संभावनाओं पर विचार कर रही है। अमरीकी संविधान का 25वां अनुच्छेद राष्ट्रपति को हटाने का एक प्रावधान रखता है, अगर राष्ट्रपति की दिमागी हालत ठीक नहीं रह जाती। आज की यह हिंसा तब शुरू हुई जब राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने समर्थकों को संसद भवन पर चढ़ाई करके चुनावी नतीजों को पलट देने का फतवा दिया। इसके बाद उनके हिंसक समर्थक हथियारबंद होकर संसद पर चढ़ बैठे, और खिडक़ी-दरवाजे तोडक़र भी भीतर घुसे। इस पूरे दौर में ट्रंप अपने आम सनकी और हिंसक मिजाज के मुताबिक हमलावर भीड़ को बहुत खास बताते हुए उसकी तारीफ करते रहे। उन्होंने चुनावी धांधली का आरोप लगाते हुए हिंसा को जायज ठहराया। तीनों प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने ट्रंप पर लोगों को भडक़ाने और अपने दावों से उन्हें भ्रमित करने का दोषी मानते हुए राष्ट्रपति के अधिकारिक अकाऊंट ब्लॉक कर दिए।
पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा सहित अमरीका के बहुत से दूसरे नेताओं का मानना है कि दो महीनों से इस हिंसा के लिए माहौल बनाया जा रहा था, ताकि ट्रंप के समर्थकों को सच्चाई दिखाई ही न दे। वाशिंगटन शहर में पूरी रात के लिए कफ्र्यू लगा दिया गया है, और 15 दिनों की इमरजेंसी लागू कर दी गई है। इस सिलसिले में देखने लायक बात यह भी है कि ट्रंप की बेटी इवांका ने संसद पर हमला करने वालों को देशभक्त कहते हुए ट्वीट किया, और उस पर इतनी आलोचना हुई कि उन्हें खुद ही ट्वीट डिलीट करना पड़ा।
अमरीका का संविधान दुनिया में अनोखा है, और वहां की चुनाव प्रणाली भी। अमरीकी संसदीय इतिहास में पहले भी कुछ राष्ट्रपति ऐसे हुए हैं जिन पर महाभियोग चला, लेकिन ट्रंप जैसा सनकी, बददिमाग, हिंसक, और अश्लील कोई राष्ट्रपति पहले नहीं हुआ था। ट्रंप ने अमरीकी संवैधानिक व्यवस्थाओं को पूरी तरह खारिज करते हुए अपने महत्वोन्माद को देश पर लादने की कोशिश की, और जाहिर तौर पर ट्रंप एक दिमागी मरीज है। ट्रंप ने अमरीका की लोकतांत्रिक-संवैधानिक परंपराओं को कुचलते हुए अपने आपको चुनाव प्रक्रिया और चुनावी नतीजों के ऊपर माना। उन्होंने अपने नस्लवादी, अलोकतांत्रिक समर्थकों को चुनाव के पहले से लगातार एक राष्ट्रवादी उन्माद में डुबाकर रखा।
अमरीकी लोकतंत्र के लिए आज का दिन भारी शर्मिंदगी का काला दिन है जब मौजूदा राष्ट्रपति ही फतवे देकर अपने समर्थकों से चल रही संसद पर हमला करवाता है। किसी भी सभ्य देश में क्या ऐसी कल्पना की जा सकती है कि आए दिन सोशल मीडिया राष्ट्रपति की पोस्ट को ब्लॉक करता रहे, डिलीट करता रहे, अकाऊंट को लॉक कर दे कि राष्ट्रपति झूठ बोल रहा है, या भडक़ाऊ बातें कर रहा है। अमरीका एक बहुत बड़े खतरे में इसलिए भी है कि वहां हर नागरिक को कई-कई बंदूकें और मशीनगन रखने की छूट है। ऐसे में अगर ट्रंप के राष्ट्रवादी-उन्मादी लोग देश भर में जगह-जगह हथियारों का इस्तेमाल करने लगें तो क्या होगा? जब देश के लोगों को वहां का कोई फतवेबाज नेता संविधान में आस्था से परे ले जाता है, जब संवैधानिक व्यवस्था को खारिज कर देता है, जब हिंसा के लिए फतवे देता है, और अपने आपको कानून से ऊपर साबित करता है, तो फिर उसके समर्थक अपने ही देश के लिए खतरनाक हो जाते हैं। अमरीका जैसा मजबूत-लोकतांत्रिक देश आज इतिहास का पहला ऐसा हमला झेल रहा है। यह पूरा सिलसिला बाकी दुनिया के लिए भी एक सबक है कि जब नेता अपने समर्थकों को कानून से परे ले जाते हैं, तो पूरा देश एक ऐसे खतरे में पड़ता है जिसके अंत का अंदाज मुश्किल रहता है। अमरीका के आने वाले दिन बताएंगे कि ट्रंप के मंत्रिमंडल के सदस्य उसे राष्ट्रपति के पद से हटाने के संवैधानिक प्रावधान का उपयोग करते हैं या नहीं? लेकिन एक बात तय है कि ट्रंप अपनी पार्टी के लिए एक बड़ा कलंक साबित हुआ है, और अमरीकी लोकतंत्र के लिए भी। पार्टी अपनी इज्जत कुछ हद तक बचा सकती है अगर वह ट्रंप को दिमागी-बीमार करार देकर हटा दे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)