संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : विधानसभाओं के विधेयकों पर राष्ट्रपति की भी अंतहीन रोक के सुप्रीम कोर्ट खिलाफ
13-Apr-2025 7:13 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : विधानसभाओं के विधेयकों पर राष्ट्रपति की भी अंतहीन रोक के सुप्रीम कोर्ट खिलाफ

राज्यपालों द्वारा विधानसभा से पारित विधेयकों को रोकने की राजनीति के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के मामले में 414 पेज का जो फैसला दिया है, वह केन्द्र-राज्य संबंधों, और राज्यपाल-राष्ट्रपति के संवैधानिक अधिकारों पर एक नया-ताजा दस्तावेज भी है। हमने इसके राज्यपाल वाले हिस्से पर इसी जगह दो दिन पहले संपादकीय लिखा था, लेकिन उसका एक हिस्सा राष्ट्रपति से संबंधित है, जो कि बाद में सामने आया है। राज्यपालों द्वारा विधानसभा में पारित विधेयकों को रोकने को लेकर हमने लिखा था कि राज्यपाल उन्हें मनोनीत करने वाले केन्द्र के सत्तारूढ़ गठबंधन के राजनीतिक एजेंटों की तरह काम करते हैं, और राज्य की निर्वाचित सरकार और निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के लोकतांत्रिक महत्व को खारिज करते हैं। हमने बीते कई बरसों में बार-बार राज्यपाल नाम की संस्था को खत्म करने की भी वकालत की है। अब सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले में राज्यपाल के लिए यह बंदिश लगाई गई है कि वे विधेयक मिलने के बाद एक महीने में या तो उसे पारित करें, या राष्ट्रपति को भेजें, या विधानसभा को वापिस लौटा दें। इसके बाद अगर विधानसभा उस विधेयक को ज्यों का त्यों दुबारा भेज दे, तो राज्यपाल को उसे मंजूरी देनी ही होगी। अब इस फैसले में राष्ट्रपति के विचार पर भी एक समय सीमा तय की गई है कि राज्यपाल से उन्हें विधेयक मिलने पर तीन महीने के भीतर तय करना होगा कि वे इसे मंजूरी देना चाहते (चाहती) हैं या नहीं। सुप्रीम कोर्ट के दो जजों के इस फैसले में यह दिलचस्प बात भी लिखी गई है कि राज्यपालों द्वारा भेजे गए विधेयकों पर राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट की भी सलाह लेनी चाहिए, क्योंकि राज्यपालों के कार्यक्षेत्र में संवैधानिक अदालतों से सलाह लेने का कोई विकल्प नहीं रखा गया है। अदालत ने इस फैसले में साफ किया कि सुप्रीम कोर्ट की सलाह लेना संविधान के मुताबिक अनिवार्य नहीं है, लेकिन ऐसा किया जाना चाहिए, क्योंकि इससे विधेयकों में अगर कोई असंवैधानिक बात होगी, तो उस पर राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट की राय मिल सकेगी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले में श्रीलंका की संवैधानिक स्थिति का जिक्र किया है जहां राष्ट्रपति उन्हें मिले विधेयकों को सुप्रीम कोर्ट का विचार जानने के लिए भेजते हैं। इस फैसले में भारतीय जजों ने कहा कि अगर राज्यपाल को लगता है कि विधानसभा से आया विधेयक संविधान के खिलाफ है, तो उन्हें इसे राष्ट्रपति को भेजना चाहिए, और वे सुप्रीम कोर्ट से इस पर राय जान सकते/सकती है।

लोकतंत्र में संवैधानिक संस्थाओं और पदों के अधिकारों और जिम्मेदारियों पर विचार-विमर्श चलते रहना चाहिए। लोकतंत्र किसी झील की तरह घिरा हुआ पानी नहीं रहता, वह बहती हुई नदी की तरह लंबा सफर करता है, अलग-अलग किस्म के इलाकों से गुजरता है, और लोगों को प्रभावित करता है, लोगों से प्रभावित होता है। लोकतंत्र एक गतिमान व्यवस्था है, और देश, साल, और परिस्थितियों के मुताबिक इसमें फेरबदल आते हैं, और आते रहने चाहिए। राज्यपालों और राष्ट्रपति की भूमिका पर सुप्रीम कोर्ट की यह व्याख्या हो सकता है कि जजों की किसी बड़ी बेंच के सामने एक बार फिर से हो, और हो सकता है कि अधिक बड़ी बेंच इस फैसले को बहुमत से पलट भी दे, लेकिन उससे विचार-विमर्श तो खत्म नहीं हो जाएगा। हो सकता है कि आगे एक ऐसा वक्त आए जब आज की बहस पर किसी और विचारधारा के बहुमत वाली संसद गौर करे, और संविधान में ही संशोधन कर दे। इसलिए दो जजों की बेंच के इस फैसले को आज कुछ लोग जिस तरह से सार्वजनिक रूप से खारिज कर रहे हैं, वे भी इस बहस को ही आगे बढ़ा रहे हैं कि लोकतंत्र में निर्वाचित सरकारों पर राज्यपाल और राष्ट्रपति का कितना अधिकार रहना चाहिए? खासकर राज्यों के मामले में यह बात इसलिए अधिक संवेदनशील हो जाती है क्योंकि राज्यपाल केन्द्र सरकार के मनोनीत व्यक्ति रहते हैं, और खुद को राजभवन भेजने वाले गठबंधन की सेवा करने में लगे रहते हैं। राष्ट्रपति के सामने ऐसी दुविधा कम रहती है क्योंकि न तो उनका कहीं तबादला किया जाता, और न ही उन्हें दूसरा कार्यकाल देने की कोई परंपरा देश में है। यह एक अलग बात है कि जिस तरह राज्यपाल राज्य मंत्रिमंडल की सलाह से काम करने वाले रहते हैं, उसी तरह राष्ट्रपति भी केन्द्रीय मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करते हैं। ऐसे में राज्य विधानसभाओं के फैसलों, यानी विधेयकों को राज्यपाल, और राष्ट्रपति के रहमोकरम पर अंतहीन छोड़ा जाना लोकतंत्र नहीं हो सकता। सुप्रीम कोर्ट का फैसला इसलिए महत्वपूर्ण है कि वह निर्वाचित लोगों से बनी विधानसभा को मनोनीत राष्ट्रपति-राज्यपाल के मुकाबले अधिक महत्व दे रहा है, और लोकतंत्र में ऐसा ही होना भी चाहिए।

हमारा पूरा अंदाज है कि सुप्रीम कोर्ट के दो जजों के इस फैसले के खिलाफ किसी राज्यपाल की ओर से, या केन्द्र सरकार की ओर से एक अपील की जा सकती है, और इस मामले को अदालत की पूरी संवैधानिक पीठ के गौर करने लायक माना जा सकता है। उसमें भी कुछ अटपटा नहीं होगा, और हो सकता है कि संवैधानिक अधिकारों, और जिम्मेदारियों की कुछ नई व्याख्याएं निकलकर सामने आएं।   (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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