दिल्ली की खबर है कि केन्द्रीय विद्यालय की एक शिक्षिका, अन्विता शर्मा ने खुदकुशी कर ली। इसके पहले उसने परिवार को भेजे गए आखिरी वॉट्सऐप मैसेज में लिखा कि उसका पति किस तरह उसे बरसों से परेशान कर रहा है। उसने लिखा कि पति ने उससे नहीं, उसकी नौकरी से शादी की थी, और वे बाहर कामकाज करने वाली एक घरेलू नौकरानी भी चाहते थे। उसने लिखा कि किस तरह एक बंधुआ मजदूर की तरह रह गई थी, और पति उसके हर काम में खामियां निकालते रहता था। उसने एक आखिरी संदेश अपने पति को भी लिखा कि उसके लिए खाना पका दिया है, खा लेना। और उसने अपने मां-बाप को लिखा है कि उसके चार बरस के बेटे को वे ही पालकर बड़ा करे, क्योंकि वह नहीं चाहती कि वह अपने बाप की तरह बने।
खुदकुशी चाहे कहीं भी हो, किसी की भी हो, वह बहुत तकलीफदेह रहती हैं, क्योंकि उससे अधिक निराशा का दौर और कुछ नहीं रहता। लोगों के पास जब जिंदा रहने की कोई वजह नहीं रह जाती, और मौत जिंदगी के मुकाबले आसान लगती है, तो वे खुदकुशी की तरफ बढ़ते हैं। हम इस महिला की आत्महत्या को देखकर सोचते हैं कि केन्द्रीय विद्यालय की ठीकठाक तनख्वाह वाली नौकरी के बाद भी उसे घर पर नौकरानी की तरह काम करना पड़ता था, और बदसलूकी भी झेलनी पड़ती थी। क्या यह हालत कमोबेश हिन्दुस्तान की अधिकतर महिलाओं की नहीं है जो कि घर के बाहर भी काम करती हैं, और घर पर तो काम करना ही है। जो महिलाएं बाहर कोई काम नहीं करतीं, उन पर भी परिवार का इतना बोझ रहता है कि अगर भुगतान करके उतनी मजदूरी करवानी होती, तो परिवार का दीवाला ही निकल जाता। दिन भर घरेलू मजदूरी, और रात को पति की हसरतों को पूरा करने के लिए बदन को पेश कर देने की मजबूरी। हिन्दुस्तानी महिला की जिंदगी तब तक आसान नहीं है, जब तक वह अच्छा-खासा नहीं कमाती है, और वह घर छोडक़र बाहर निकलने का हौसला नहीं रखती है। ये दो बातें अगर रहें, तो ही पति और ससुराल के बाकी लोग उसके अस्तित्व को मानते हैं, इससे कम में उसे इंसान की तरह कोई-कोई परिवार मान भी सकते हैं, और अधिकतर परिवार उसे एक बंधुआ मजदूर की तरह देखना चाहते हैं।
भारत में जिस तरह से लड़कियां शादी के झांसे में आकर किसी के भी हाथ अपना बदन दे देती हैं, वह भी एक बड़ा खतरनाक सिलसिला है, और उनके बीच भी इस बात की जागरूकता जरूरी है कि शादी ही सब कुछ नहीं होती। दुनिया में बहुत सारे ऐसे देश हैं जहां पर महिलाएं बिना शादी किए भी पूरी जिंदगी गुजार लेती हैं, और अपनी जिंदगी की वे खुद मालकिन रहती हैं। यह बात भारत के उन बहुत से लोगों को खतरनाक लग सकती है जो कि शादी नाम की संस्था को अनिवार्य मानते हुए यह कोशिश करते हैं कि परिवार में एक बंधुआ मजदूर बढ़ जाना सहूलियत की बात होगी। यह सिलसिला टूटना जरूरी है। भारत में लड़कियों के मन में यह आत्मविश्वास लाना जरूरी है कि शादी कुछ भी नहीं है, पढ़ाई-लिखाई, और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना, आत्मविश्वास की ताकत हासिल करना, सब कुछ है। लड़कियों को यह बात अच्छी तरह समझ आना चाहिए कि बिना आर्थिक आत्मनिर्भरता के ससुराल में उनके साथ जुल्म का बहुत बड़ा खतरा हमेशा ही बने रहेगा। और जब कोई लडक़ी कमाने वाली रहती है, तो उसके साथ पति और ससुरालियों का बर्ताव भी बदल जाता है।
यह सिलसिला मां-बाप के सिरे से शुरू होना चाहिए कि वे लडक़ी के दहेज के लिए रकम इकट्ठा करने के बजाय उसे पढ़ा-लिखाकर, हुनरमंद बनाकर किसी भी किस्म के रोजगार या स्वरोजगार से लगाएं, और उसे पूरी तरह आत्मनिर्भर बनाएं। यह आत्मनिर्भरता मां-बाप को भी बेटी के भविष्य के बोझ से मुक्त करेगी, और लडक़ी अपने मायके की मोहताज भी नहीं रह जाएगी। यह नौबत इसलिए जरूरी है कि मां-बाप के गुजर जाने के बाद भी किसी लडक़ी के मायके लौटने की नौबत आने पर भाई-भाभी का रूख भी उसके लिए बदल चुका रहता है। आर्थिक आत्मनिर्भरता खुद महिला के लिए, दोनों तरफ के परिवारों के लिए, समाज और देश की अर्थव्यवस्था के लिए, हर बात के लिए जरूरी है।
अब हमने आज की यह बात जिस घटना से शुरू की है, उसे अगर देखें तो हमारी आगे की बातचीत कुछ फिजूल लगेगी। केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षिका एक अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी रही होगी, और वहां रहते हुए भी अगर उस महिला को पति और ससुराल से कोई सम्मान और महत्व नहीं मिला, तो ऐसी नौकरी तो देश की अधिकतर महिलाओं को मिल भी नहीं सकती। लेकिन हम ऐसे परिवार को बहुत अपवाद सरीखा दुष्ट मानते हैं, और यह मानते हैं कि देश के आम और औसत परिवार इतने दुष्ट शायद नहीं होंगे। परिवार और उसके सदस्य कारखाने में ढले हुए एक सरीखे नहीं रहते, इसलिए दिल्ली की इस मिसाल को देखकर किसी को निराश नहीं होना चाहिए, और यह मानकर चलना चाहिए कि आम मामलों में कामकाजी और कमाऊ महिला अपने ससुराल में बेहतर स्थिति में रहती है, और अगर तमाम लोग जुल्मी हों, तो वह अलग होकर भी अच्छी तरह अपनी जिंदगी गुजार सकती है। दिल्ली की इस शिक्षिका ने जिस तरह से हौसला छोड़ा है, वैसी नौबत न आती तो बेहतर होता। वह इतनी आत्मनिर्भर थी कि अपने बेटे के साथ वह अलग भी रह सकती थी। हमने संघर्ष करने वाली ऐसी बहुत सी महिलाओं को देखा है जो जुल्मी और बर्बाद हो चुके पतियों को छोडक़र अपने पैरों पर खड़ी होती हैं, और कामयाबी भी हासिल करती हैं, लेकिन इसके लिए उनका आत्मनिर्भर होना एक बड़ी जरूरत रहती है।
कुल मिलाकर परिवार और समाज को, सरकार को, देश के उत्पादक कामकाज में महिलाओं की भूमिका लगातार बढ़ाना चाहिए, उनकी शिक्षा, प्रशिक्षण, और कामकाज के उनके अवसर बढऩे चाहिए, उनके रहने के सार्वजनिक इंतजाम लगातार बढऩे चाहिए ताकि वे आत्मनिर्भर हो सकें। कोई भी देश अपनी आधी आबादी की चौथाई उत्पादकता से आगे नहीं बढ़ सकता, उसे अपनी सौ फीसदी आबादी की सौ फीसदी की उत्पादकता की जरूरत पड़ती है, तभी जाकर आबादी बोझ नहीं, बल्कि संपत्ति लगने लगती है। हिन्दुस्तान के पड़ोस का चीन एक ऐसी मिसाल है जहां सरकार आज एक-एक नागरिक बढ़ाने के लिए तरस रही है, और ऐसा तभी हो पाया है जब वहां की हर महिला आत्मनिर्भर बनती ही है।