संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने में औरंगजेब अड़ंगा है?
18-Mar-2025 4:53 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने में औरंगजेब अड़ंगा है?

महाराष्ट्र की उप-राजधानी नागपुर हिंसा की लपटों में झुलस रही है। कल वहां औरंगजेब की कब्र के खिलाफ, महाराष्ट्र के एक दूसरे हिस्से में उसे तोडऩे के लिए जुलूस निकाला जा रहा था, और हिंदू संगठनों के उस जुलूस पर कुछ पथराव होने की खबरें हैं। इसके तुरंत बाद नागपुर में यह अफवाह फैली कि एक धार्मिक किताब को जलाया गया है। दंगा करवाने के लिए हिंदुस्तान में और लगता क्या है? चारों तरफ पथराव होने लगा, गाडिय़ों में आग लगाई गई, और आंसू गैस, लाठीचार्ज के बाद वहां कर्फ्यू  लगाया गया है। दरअसल पिछले कुछ हफ्तों से महाराष्ट्र में औरंगजेब के नाम पर एक विवाद चल रहा है, और वहां के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कल ही यह बयान दिया था कि औरंगजेब को महिमामंडित करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा। उनकी यह बात इस तनाव के बीच भडक़ाने वाली लग रही थी कि औरंगजेब की कब्र को हटाया जाए। यह मांग चल ही रही थी, और मुख्यमंत्री ने ऐसा बयान दिया, तो उससे भी लोगों का उत्तेजित होना स्वाभाविक था। सीएम ने यह बयान दिया कि उन्हें अप्रिय जिम्मेदारी को निभाने का बड़ा अफसोस है कि सरकार को ऐसे औरंगजेब की कब्र की भी हिफाजत करनी पड़ रही है। जाहिर है कि हिंदू संगठनों को सरकार का रुख साफ दिखाई दे गया, और उन्होंने जगह-जगह औरंगजेब की कब्र हटाने के लिए प्रदर्शन शुरू कर दिए। फडणवीस के अपने गृहनगर नागपुर में महाराष्ट्र की सबसे बड़ी ताजा हिंसा हुई, और ये जख्म लंबे समय तक रिसते रहेंगे।

यह देश एक अजीब से दौर से गुजर रहा है, यह चांद और मंगल पर जाने की बातें करता है, पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की हसरत रखता है, लेकिन दूसरी तरफ यह इतिहास में पीछे, और इतना पीछे जाकर हिसाब चुकता करना चाहता है कि कल के दिन इस देश में किसी शहर में दो चकमक पत्थरों को लेकर दो समुदायों के बीच जानलेवा दंगे हो जाएं कि वे पत्थर किसके पुरखों के थे, तो हैरान नहीं होना चाहिए। लोग अभी कुछ सौ बरस पहले के इतिहास को लेकर झगड़ा कर रहे थे, अब वे हजार बरस पहले तक जा रहे हैं। बाबरी मस्जिद से और पीछे जाकर मामला सोमनाथ मंदिर तक पहुंच गया है, यह देश और कितना पीछे जाएगा? और कितना पुराना हिसाब चुकता करेगा? हम पहले भी कई बार इस बात को लिख चुके हैं कि जिनको आगे बढऩा होता है वे लगातार गाड़ी के बैक व्यू मिरर में पीछे का नजारा देखते हुए रफ्तार से आगे नहीं बढ़ सकते। और गाडिय़ों में बैक व्यू मिरर कुछ सौ मीटर तक पीछे का ही दिखा पाता है, आज हिंदुस्तानी तो हजार बरस पहले झांकते हुए चौथाई सदी बाद कहां पहुंचेंगे इसका दंभ भर रहे हैं। आज आजादी की पौन सदी का अमृत महोत्सव निपटा है, और 2047 में आजादी की स्वर्ण जयंती का लक्ष्य तय किया जा रहा है। यह करते हुए भी लोगों को इतिहास की अपनी दीवानगी पर वक्त खर्च करना जरुरी लग रहा है, अपना भी और पूरे देश का भी।

आज दुनिया के विकसित देश जिस तरह किसी भी इतिहास से उबरकर आगे बढ़ते चले जा रहे हैं, उन्हें देखकर भी हिंदुस्तान कुछ नहीं सीख पा रहा है। हिटलर की जर्मनी ने अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के दाएं हाथ एलन मस्क की नाजी सलामी को देखकर उसकी टेस्ला कारों का बहिष्कार कर दिया है। आज सुबह ही हमने एलन मस्क के पेश किए हुए ग्रोक नाम के एआई औजार से पूछा कि जर्मन लोग टेस्ला कार के बारे में क्या सोच रहे हैं, तो उसने एक सर्वे के हवाले से कहा कि एक लाख जर्मन लोगों से पूछा गया तो उनमें से 94त्न ने कहा कि वे कभी टेस्ला कार नहीं खरीदेंगे। जर्मन खुद हिटलर के वक्त के अपने इतिहास से उबर जाना चाहते हैं। ठीक वैसे ही जैसे गांधी हत्या के बाद उसके शक में घिरे हुए लोगों से इस देश को उबरना पड़ा, बाबरी मस्जिद गिराने वालों से, चौरासी के सिक्ख दंगों को करने वाले लोगों से, 2002 के गुजरात दंगों वाले लोगों से देश को उबरना पड़ा। लोकतंत्र में यह लचीलापन रहता है कि वह कई चीजों को माफ चाहे न करें उनसे उबरकर आगे बढऩा जानता है। अब ऐसे में इतिहास को खोदकर औरंगजेब को निकालना, और आज उसके नाम पर अपने शहरों को जलाना, क्या यह मंगल पर पहुंचने का रास्ता है, या यह पांच ट्रिलियन डॉलर की इकॉनॉमी बनने की राह है?

इतिहास की जो बहुत पुरानी किताबें रहती हैं, जिनके पन्ने पीले पड़-पडक़र टूटने लगते हैं, उन पन्नों से दुबारा लुग्दी भी नहीं बन पाती, उनसे दुबारा कागज भी नहीं बनाया जा सकता, उनसे न तो आज का वर्तमान लिखा जा सकता, और न ही उनसे भविष्य की कोई कहानी लिखी जा सकती। दुनिया में जिन पीले पड़े हुए पन्नों को इतिहास के दस्तावेज की तरह अकादमिक महत्व का माना जाता है, न कि इक्कीसवीं सदी को सुलगाने वाला चकमक पत्थर, उन पीले पन्नों को धार लगाकर आज हिंदुस्तान में हथियार बनाए जा रहे हैं, और उनसे हिंसा की जा रही है। यह सिलसिला बताता है कि आजादी की पौन सदी बाद भी यह देश किस तरह असभ्य बना हुआ है, और इसे न तो अपने आज की फिक्र है, और न ही अपनी अगली पीढ़ी के कल की कोई फिक्र है, इसे महज इतिहास को लेकर एक बखेड़ा करने की फिक्र है। इससे चुनावी रिकॉर्ड तो बनाया जा सकता है, किसी देश को महान नहीं बनाया जा सकता, किसी लोकतंत्र को कामयाब नहीं बनाया जा सकता, और ऐसे स्पीड ब्रेकरों को बना-बनाकर यह देश आजादी की स्वर्ण जयंती तक के अपने सफर को खुद ही बुरी तरह धीमा कर रहा है। हो सकता है कि औरंगजेब की कब्र खोदने से उसकी लाश के साथ दफ्न कोई ऐसा खजाना मिल जाए कि देश पांच ट्रिलियन डॉलर तक पलभर में पहुंच जाए! लाशों को खाकर जिंदा रहने वाला एक जानवर, कबरबिज्जू किसी सवारी करने के लायक नहीं रहता।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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