अमरीका के एक प्रतिष्ठित शोध संस्थान, प्यू रिसर्च सेंटर ने 2024 में 36 देशों में असमानता के ऊपर एक रिपोर्ट तैयार की जिसमें अलग-अलग देशों के अलग-अलग पहलू सामने आए। भारत में जो सर्वे किया गया उसमें 81 फीसदी लोगों ने आर्थिक असमानता पर फिक्र जाहिर की, और 64 फीसदी लोगों ने इसे बहुत बड़ी समस्या बताया। लोगों ने असमानता के कई तरह के कारण बताए। 79 फीसदी लोगों ने कहा कि संपन्न तबके के पास बहुत अधिक राजनीतिक ताकत है जिससे असमानता उपजती है। 72 फीसदी ने देश की शिक्षा व्यवस्था को नाकाफी बताया। 56 फीसदी लोगों ने धर्म, नस्ल, या संप्रदाय के भेदभाव को असमानता बढऩे के लिए जिम्मेदार ठहराया। सर्वे में हिस्सा लेने वाले आधे-पौन हिस्से ने मशीनीकरण और कम्प्यूटरीकरण को जिम्मेदार ठहराया, और समान अवसर न मिलने को भी। लेकिन दूसरी तरफ भारत में हुए इस सर्वे में तीन चौथाई लोगों का यह मानना है कि उनके बच्चों की स्थिति उनके मुकाबले बेहतर रहेगी। 44 फीसदी लोगों ने यह माना है कि लैंगिक (कुछ लोग इस शब्द को भी पुरूषवादी मानकर इसके इस्तेमाल के खिलाफ खड़े हो रहे हैं, फिर भी हम अभी प्रचलन में जारी इस शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं-संपादक) असमानता को बहुत बड़ी समस्या मान रहे हैं। 71 फीसदी भारतीयों ने यह माना है कि धार्मिक भेदभाव बड़ी समस्या है, और 57 फीसदी लोगों ने इसे बहुत बड़ी समस्या माना है। 69 फीसदी भारतीय मानते हैं कि जाति या समुदाय के आधार पर भेदभाव एक बड़ी समस्या है।
2024 में किया गया यह सर्वे अभी पांच हफ्ते पहले सामने आया था, और अलग-अलग देशों में इसका अलग-अलग विश्लेषण जारी है। भारत को लेकर बहुत सी विदेशी और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के सर्वे या दीगर विश्लेषण भारत सरकार को पसंद नहीं आते हैं, और सरकार कई बार इन्हें ऐसे पैमानों पर किया गया बताती है जो कि भारत पर लागू नहीं होते हैं। सरकारों की अपनी कई तरह की मजबूरी रहती है क्योंकि निर्वाचित लोकतंत्र में सरकारें, जनता की राजनीतिक भावना से परे कम सोच पाती हैं। लेकिन भारत में आज जिस तरह का धार्मिक और सांप्रदायिक भावनाओं का माहौल बना हुआ है, उसमें प्यू रिसर्च सेंटर का यह सर्वे कुछ हैरान करता है। यह बताता है कि 70 फीसदी भारतीय धार्मिक और जातिगत भेदभाव को एक बड़ी समस्या मानते हैं। जबकि भारत में बहुसंख्यक हिन्दू तबका ही 80 फीसदी से अधिक आबादी है, और बची हुई 20 फीसदी आबादी में मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, जैन, सिक्ख, और दूसरे धर्मों के लोग हैं। ऐसे में 70 फीसदी हिन्दुस्तानी अगर धार्मिक और जातिगत भेदभाव को बड़ी समस्या मान रहे हैं, तो जाहिर है कि इनमें हिन्दुओं का भी बहुत बड़ा हिस्सा शामिल है। बाकी धर्मों के सारे के सारे लोग भी इस सोच का समर्थन कर रहे हों, तब भी हिन्दुओं की आधी से अधिक आबादी इस सोच के साथ है। यह राहत की एक बात इसलिए है कि हिन्दू आबादी का बड़ा हिस्सा इसे समस्या मान रहा है। सर्वे का दूसरा एक नतीजा बताता है कि 80 फीसदी भारतीय संपन्न तबके के बढ़ते हुए राजनीतिक प्रभाव को आर्थिक असमानता बढ़ाने का सबसे बड़ा कारण मान रहे हैं। देश में पूंजीवादी व्यवस्था की वजह से असमानता बढऩा सभी जानते हैं, और काफी लोग मानते हैं। लेकिन सर्वे में अगर तकरीबन तमाम हिन्दुस्तानी इस बात को मान रहे हैं, तो उसका मतलब है कि वे जमीनी हकीकत जान रहे हैं। अब सवाल यह है कि ऐसे भेदभाव के लिए जिम्मेदार पार्टियां या गठबंधन अगर इसके बावजूद चुनावों में जीत हासिल करते हैं, तो उसका एक मतलब यह है कि मतदाता के सामने कोई विश्वसनीय-विकल्प मौजूद नहीं है, और उसे असमानता बढ़ाने वाली ताकतों को चुनने की मजबूरी दिखती है।
अब इस तरह के अंतरराष्ट्रीय सर्वे को खारिज कर देना तो बड़ा आसान है, लेकिन ऐसे सर्वे से सीख और नसीहत लेना अधिक काम की बात हो सकती है। यह एक अलग बात है कि भारत की चुनावी व्यवस्था कुछ ऐसी हो गई है कि जाति या धर्म की, संप्रदाय या क्षेत्र की भावनाएं जमीनी हकीकत के साथ मिलकर एक चुनावी विकल्प पेश करती हैं, और उनमें आर्थिक हकीकत पर धार्मिक हसरत हावी हो जाती है। इसलिए चुनावी नतीजों को सामाजिक स्थिति का सीधा-सीधा प्रतिबिंब मानना ठीक नहीं होगा। दुनिया के अलग-अलग बहुत से सर्वे ऐसे आंकड़े बीच-बीच में सामने रखते हैं कि भारत में आर्थिक असमानता कितनी अधिक है, और किस तरह अतिसंपन्न तबका और अधिक संपन्न हुए जा रहा है, और नीचे के सबसे गरीब लोग गरीब ही बने हुए हैं। हालांकि भारत सरकार के कुछ आंकड़े यह दिखाते हैं कि दसियों करोड़ लोग पिछले दस बरस में गरीबी की रेखा के ऊपर लाए जा चुके हैं, लेकिन भारत सरकार कुछ रहस्यमय वजहों से देश के भीतर के केन्द्र सरकार के कराए हुए कई आर्थिक सर्वेक्षणों के आंकड़े जारी नहीं करती है, और उसने कई पैमानों और परिभाषाओं को बदल भी दिया है, इसलिए उसकी पेश की हुई तस्वीर को लोग अधिक भरोसेमंद नहीं मानते हैं।
फिलहाल हम इस बात को लेकर राहत की सांस लेते हैं कि अगर प्यू रिसर्च सेंटर का सर्वे सही है, और आम हिन्दुस्तानियों का 70 फीसदी यह बात मानता है कि धर्म और जाति का भेदभाव देश में आर्थिक असमानता की बड़ी वजह है, और 80 फीसदी लोग अमीरों के राजनीतिक प्रभाव को इस असमानता का गुनहगार मानते हैं, तो ऐसा लगता है कि लोग चुनावों में वोट कई वजहों से किसी को देते होंगे, लेकिन ऐसे सर्वे में उन्होंने अपनी सही समझ उजागर की है। हम यह तो नहीं जानते कि भारत के राजनीतिक दल इन तथ्यों को अपने किसी चुनावी इस्तेमाल का मानेंगे या नहीं, लेकिन जनता के बीच ऐसे नतीजे पहुंचने से उसे चीजों को समझने में आसानी होगी, हालांकि ये नतीजे उसी से की गई बातचीत के आधार, उसी के जवाबों के आधार पर निकाले गए हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)