संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ताकत की हिंसा खत्म करने के बजाय उस हिंसा के सुबूत खत्म करने में लगती सत्ता...
25-Jan-2025 6:47 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : ताकत की हिंसा खत्म करने के बजाय उस हिंसा के सुबूत खत्म करने में लगती सत्ता...

कल की दो घटनाएं यह सोचने पर मजबूर कर रही हैं कि समाज में पैसों की ताकत इतनी बढ़ गई है कि कानून और सरकार भी बेबस हो गए हैं। भिलाई के एक रिहायशी अहाते में एक कार से पहुंचे आधा दर्जन रईसजादों से जब गार्ड ने रजिस्टर पर नाम लिखने कहा तो उन्होंने कार से उसे कुचल डाला। एक दूसरा वीडियो सामने आया है जिसमें किसी और जगह छत्तीसगढ़ में ही कुछ दूसरे रईसजादे एक कार दौड़ाते हुए शहरी इलाके में घूम रही बाघिन का पीछा कर रहे हैं, बुरी तरह से रात में कार की रौशनी में उसे दौड़ा रहे हैं, और जब कार बहुत पास पहुंच जाती है, तो उसे कूदकर एक दीवार पर चढऩा पड़ता है, और उसे समझ नहीं पड़ रहा है, दूसरी तरफ कार से पीछा करते हुए भी जो लोग वीडियो बना रहे थे, वे कार से निकलकर कूद-कूदकर तस्वीरें खींच रहे हैं, और वीडियो बना रहे हैं। और राष्ट्रीय पशु को यह समझ नहीं पड़ रहा है कि वह क्या करे?

भिलाई में गार्ड को जिन लोगों ने कुचला, वे, कम से कम गाड़ी चलाने वाला एक व्यक्ति किसी ट्रांसपोर्टर परिवार का बताया जा रहा है। ऐसे में साथ में घूम रहे युवक-युवतियों की बददिमागी का अंदाज लगाया जा सकता है। हम अलग-अलग शहरों में आए दिन इस तरह के वीडियो देखते हैं जब देर रात तक गैरकानूनी तरीके से चलते हुए शराबखानों से निकलते पैसेवाले लडक़े-लड़कियों की किसी और टोली से मारपीट होती है, और पुलिस और प्रशासन का मानो वहां कोई असर ही नहीं रहता। तमाम सडक़ों पर यह देखने में आता है कि जितनी बड़ी गाड़ी में लोग चलते हैं, उनकी बददिमागी उसी अनुपात में रहती है। इंसान की ताकत के साथ मानो गाड़ी का हॉर्सपॉवर जुडक़र उन्हें और अहंकारी बना देता है। ऐसे ही लोग बड़ी-बड़ी गाडिय़ों में आड़ी-तिरछी नंबर प्लेट लगवाते हैं, ऊपर बड़ी-बड़ी लाईटें लगवाते हैं, सायरन और हूटर लगवाते हैं, और अंधाधुंध रफ्तार से गाडिय़ों को दौड़ाते हैं। सार्वजनिक जीवन में ऐसा लगता है कि ओहदे और दौलत की जितनी ताकत जिसके पास है, उसके उतने ही अधिक विशेषाधिकार इस लोकतंत्र में हो गए हैं। ऐसे लोग दारू या दूसरे किस्म के नशे में दूसरों को कुचलने के लिए तैयार रहते हैं, और साथ-साथ अपने से कमजोर लोगों को भुनगों जैसा समझते हैं, जैसा कि कल भिलाई में एक कॉलोनी के गार्ड को समझ लिया गया, उसे सबक सिखाने के लिए गाड़ी से कुचल दिया गया, और आज अभी कुछ मिनट पहले उसके वेंटिलेटर पर रहने की खबर भी है, और मर जाने की भी।

दरअसल ओहदे और दौलत की ताकत इतनी अधिक रहती है कि सत्ता चलाने वाले नेता उन्हें साथ रखना पसंद करते हैं। ऐसे में छोटे अफसरों का यह हौसला भी नहीं रहता कि ताकतवर लोगों पर हाथ डालें। आज भी पुलिस तक जब किसी गुंडागर्दी या अराजकता की शिकायत पहुंचती है, तो जुर्म की गंभीरता आंकने से पहले पुलिस यह देखती है कि जुर्म की तोहमत किस पर लग रही है। अगर यह सिर्फ पैसों की ताकत वाले पर है, तो पुलिस के बहुत से लोग ऐसे मुजरिम परिवार को दुधारू गाय मानकर चलते हैं। अगर यह तोहमत किसी राजनीतिक ताकत वाले के खिलाफ रहती है, तो पुलिस का रूख यह रहता है कि मामला कैसे-कैसे नहीं बने। यह सिलसिला आम जनता को आम भी नहीं, गुठली मानकर चलता है, और आज अधिकतर मामलों में कोई कार्रवाई तभी होती है जब मुजरिम ताकतवर न हो, या उसके खिलाफ पुख्ता वीडियो-सुबूत हों जिन्हें नकार पाना आसान न हो। यह व्यवस्था समाज में पैसे और ताकत की वजह से छाई हुई एक गैरबराबरी का खतरा बताती है जिसमें गरीब और कमजोर के किसी भी तरह का इंसाफ पाने की कोई गुंजाइश नहीं रहती।

कोई भी देश-प्रदेश अगर जुर्म कम करना चाहते हैं, तो उन्हें ताकतवर तबके की बददिमागी से उपजे हुए जुर्म पर रोक लगानी ही होगी। ताकत से चाहे अफसरों पर खतरा पैदा होता हो, या उनसे कमाई की गुंजाइश हो, अगर ताकत की बददिमागी को बिना सजा जारी रखने दिया जाएगा, तो वह और लोगों पर भी निकलेगी। आज वह एक कॉलोनी के गार्ड को कुचल रही है, कल वह किसी पुलिस वाले को कुचलेगी, और इसके बाद अधिक ताकतवर लोग कम ताकतवर लोगों को कुचलेंगे। आज भी सडक़ों पर जिस तरह का आतंक ताकतवर लोग दिखाते हैं, उनकी बिगड़ैल औलादें दिखाती हैं, वह बहुत ही खतरनाक नजारा रहता है। लोग अपनी बड़ी गाड़ी की ताकत से दूसरे लोगों से यह सहज सवाल करते हैं- जानता नहीं मेरा बाप कौन है?

ताकत की ऐसी गुंंडागर्दी पर रोक लगाने के लिए सत्ता में एक इंसाफ की समझ जरूरी होती है, और लोगों को बराबर मानकर चलने के लोकतांत्रिक मूल्य भी जरूरी होते हैं। इसके बिना ऐसे देश-प्रदेश पूरी तरह से असभ्य होते हैं, और खतरनाक भी होते चलते हैं। हम पहले भी दर्जनों बार इस बात की वकालत कर चुके हैं कि जिस जुर्म के लिए किसी गरीब को दो बरस की कैद होनी है, तो वही जुर्म अगर ताकतवर करे, तो उसे चार बरस की कैद होनी चाहिए, और अगर वह किसी कमजोर के खिलाफ करे तो छह बरस की। जब तक इंसाफ इस किस्म के एक अनुपात को लेकर नहीं चलेगा, तब तक असमानता से भरापूरा हिन्दुस्तान जैसा लोकतंत्र सबसे कमजोर को कभी इंसाफ नहीं दे सकेगा। पुलिस, गवाह, सुबूत, वकील, और अदालतें, इन तमाम जगहों पर पैसा सिर चढक़र बोलता है, और गरीब या कमजोर के खिलाफ ये तमाम ताकतें लग जाती हैं। इसलिए समाज के लोगों को भी सत्ता पर यह दबाव बनाकर रखना चाहिए कि ताकत की हिंसा को खत्म किया जाए। आमतौर पर ताकत की हिंसा के सुबूत खत्म किए जाते हैं, ताकि ताकत पर आंच न आए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)  

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