अहमदाबाद की एक स्कूल में 8 बरस की बच्ची को गलियारे में चलते हुए कुछ ठीक नहीं लगा तो वह किनारे बेंच पर बैठ गई। उसकी हालत देख उसे पास के अस्पताल में ले जाया गया, तो डॉक्टरों ने उसे दिल के दौरे से मृत बताया। अब 8 बरस की खेलने-खाने की उम्र में एक बच्ची अगर हार्ट अटैक से गुजर जाती है, तो तमाम लोगों को अपने बारे में सोचना चाहिए। अभी कुछ अरसा पहले छत्तीसगढ़ में भी किसी एक जिले में स्कूली बच्चों के लिए स्वास्थ्य जांच शिविर लगा, तो उसमें कई बच्चों को दिल की बीमारियों की रिपोर्ट निकली। अब अगर ऐसी जांच नहीं हुई होती, तो उन्हें पता भी नहीं लगा होता, और किसी इलाज की संभावना होती, तो वह नहीं हो पाया होता। अब कम से कम उनका इलाज हो सकेगा। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में भी पुट्टपर्थी वाले सत्य सांई बाबा की संस्था बच्चों के दिल के ऑपरेशन का एक पूरी तरह मुफ्त अस्पताल चलाती है, जहां हर महीने शायद सैकड़ों बच्चों का ऑपरेशन होता है। लेकिन समय पर जांच रहने से कई बीमारियों का इलाज अधिक हद तक, और अधिक आसानी से हो पाता है।
हम यहां लोगों की सेहत से जुड़े हुए दो अलग-अलग मुद्दों पर चर्चा करना चाहते हैं। पहली बात तो यह कि बीमारी की खबर न मिलने पर भी लोगों को अपनी जीवनशैली स्वस्थ रखना चाहिए। आज भारत की बहुत सारी बीमारियां न संक्रामक रोग हैं, और न लोगों को पुरखों से मिली हैं, ये बीमारियां आज की जीवनशैली की वजह से पैदा हुई हैं, या कम से कम पनप रही हैं। एक वक्त डायबिटीज को पैसे वालों की बीमारी माना जाता था, या शहरी जीवनशैली की वजह से यह बढ़ती थी, लेकिन अब तो गांव-गांव तक और गरीबों में भी राजरोग कहा जाने वाला डायबिटीज फैल रहा है, और हिन्दुस्तान को दुनिया का डायबिटीज कैपिटल कहा जा रहा है। दरअसल गांव-गांव तक मजदूरों को भी अब यह आसान लगने लगा है कि बच्चों को कुछ खाने देना हो, तो उन्हें किसी भी दुकान से कोई पैकेट खरीदकर दे दिया जाए, जिसके भीतर का स्वाद बच्चों को बांध लेता है, लेकिन उन्हें ढेर सा नमक, ढेर सी शक्कर, और बहुत सारा फैट दे देता है। शहरी संपन्न बच्चों के इर्द-गिर्द संपन्नता का ऐसा प्रकोप फ्रिज से लेकर अलमारियों तक में भरे रहता है, और कोई रोकटोक मुमकिन नहीं रहती। बच्चों से परे बड़ों का भी यही हाल है, टीवी ने लोगों का उठना और चलना-फिरना भी कम कर दिया है, और मोबाइल फोन से पल भर में हर किस्म के खाने का ऑर्डर करना इतना आसान हो गया है कि लोग रात-दिन अलग-अलग रेस्त्रां के मेन्यू देखकर ऑर्डर करते रहते हैं।
दूसरी तरफ सुबह-शाम सैर या कसरत करना, योग या ध्यान करना, वजन और शुगर लेवल या बीपी को काबू में रखना लोगों को याद ही नहीं रहता। तम्बाकू कई शक्लों में लोगों को कैंसर की तरफ धकेलता है, और लोग इस लत में पडऩे के बाद यह जरूरी भी नहीं समझते कि कैंसर की जांच करवाई जाए, महिलाओं में स्तन और गर्भाशय का कैंसर जिस तरह बढ़ जाने के बाद ही नजर में आता है, उसी तरह अधिकतर मर्दों में तम्बाकू से होने वाला कैंसर हो जाने के बाद ही उनका ध्यान जाता है। इस तरह हिन्दुस्तानी लोगों में न तो बचाव की जागरूकता है, और न ही जांच की। जांच हो जाने के बाद अब इलाज के लिए तो केन्द्र और राज्य सरकारों की कई तरह की बीमा योजनाएं मौजूद हैं, लेकिन वहां तक पहला कदम पहुंचते ही बहुत देर हो चुकी रहती है। चुस्त-दुरूस्त रहकर जिन बीमारियों को टाला जा सकता है, या जिनका खतरा घटाया जा सकता है, उनसे बचने की भी कोई कोशिश अधिकतर लोगों में दिखती नहीं है।
देश को सिर्फ सरकार के कार्यक्रमों से नहीं बचाया जा सकता। सरकार की दी गई सलाह की गंभीरता और विश्वसनीयता दोनों ही सीमित रहती है, और लोगों को लगता है कि उसके पीछे कोई राजनीति है या वोट पाने की कोई नीयत है। इसलिए समाज के दूसरे तबकों से जागरूकता की अधिक जरूरत है, इसे कुछ सामाजिक नेता, और कुछ मशहूर खिलाड़ी या फिल्म सितारे आगे बढ़ा सकते हैं, अपनी खुद की मिसाल दे सकते हैं, या अखबार और टीवी, या यूट्यूब और वेबसाइटें सेहत के लिए जागरूकता पर कुछ अधिक बात कर सकते हैं। एक और बात को ध्यान रखने की जरूरत है कि जिस तरह कोई संक्रामक रोग या वायरस लोगों से दूसरे लोगों तक फैलते हैं, उसी तरह सेहत के लिए जागरूकता भी कुछ सेहतमंद और फिट लोगों से दूसरे लोगों तक पहुंचती हैं। ऐसे लोगों की मिसालें भी दूसरों को चौकन्ना करने के काम आ सकती हैं जो उनके आसपास के ही लोग हैं, जिन्हें वे खुद जानते भी हैं। आज हिन्दुस्तान जैसे देश की सरकारें जनता के इलाज पर बहुत सारा खर्च करती हैं, सिर्फ इसे बचाने की नीयत से नहीं, सेहत को कुल जमा बचाने के लिए भी जागरूकता बढ़ाई जानी चाहिए ताकि समय रहते लोग सचेत हो सकें, स्वस्थ जीवनशैली अपना सकें, और फिर भी अगर कोई बीमारी हो, तो उसका वक्त रहते इलाज शुरू करवा सकें। यह चौकन्नापन बचपन से ही जरूरी है, और इसके लिए मां-बाप और परिवार के दूसरे बड़े लोगों को बच्चों के सामने खानपान से लेकर खेलकूद तक भी बेहतर मिसालें पेश करनी होंगी। लोग खुद खराब तौर-तरीके रखें, और बच्चों से बेहतर बनने की उम्मीद करें, ऐसा नहीं हो सकता। इसलिए हर किसी को सबसे पहले तो अपनी सेहत और जीवनशैली की फिक्र करनी चाहिए, और इतनी करनी चाहिए कि वे दूसरों के लिए मिसाल भी बन सकें।