पुलिस के रोज के प्रेसनोट हत्या या बलात्कार के जुर्म में पकड़े गए लोगों से लेकर मामूली उठाईगिरी तक के मामलों में पकड़ाए आरोपियों की तस्वीरों सहित रहते हैं। कुछ मामले तो सुबूतों सहित पकड़ाते हैं, और पहली नजर में आरोपियों के गुनहगार होने की बात सही लगती है, लेकिन बहुत से ऐसे मामले रहते हैं जो सिर्फ किसी के लगाए गए आरोपों पर टिके रहते हैं। और कई मामलों में तो यह भी सामने आता है कि बलात्कार का आरोप लगाने वाली लडक़ी या महिला ने बाद में आरोप वापिस ले लिए, और ब्लैकमेल करने की कोशिश भी की। अभी-अभी ऐसी ही एक महिला को उसके तीन-चार साथियों सहित गिरफ्तार किया गया है जो कि एक कारोबारी पर बलात्कार का आरोप लगाने के बाद, उसके जेल जाने के बाद शिकायत वापिस लेने के लिए मोटी वसूली कर रही थी। ऐसे में क्या पहली शिकायत के बाद ही आरोपियों की तस्वीर जारी करना ठीक है? भारत की अदालतों में हाईकोर्ट तक पहुंचते हुए शायद आधे से अधिक मामलों में लोग बरी हो जाते हैं। ऐसे में उनकी तस्वीर, या उनकी शिनाख्त की खबर से उन्हें हुए नुकसान की कोई भरपाई हो सकती है क्या? और भारतीय कानून क्या अदालती सजा से परे सामाजिक प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने की किसी और सजा सुझाता है?
अभी उत्तरप्रदेश के झांसी में पुलिस ने गश्त के दौरान एक ऐसे आदमी को पकड़ा जिसकी बिहार में 17 बरस पहले हत्या दर्ज हो चुकी है, और उसका कत्ल करने के आरोप में चार लोगों को जेल भी हो चुकी है जिनमें से तीन अभी जमानत पर छूटे हुए हैं, और एक व्यक्ति कत्ल की तोहमत झेलते हुए मर भी चुका है। जब इसने झांसी पुलिस को अपनी शिनाख्त बताई, तो उसने बिहार पुलिस को बुलाकर इस आदमी को उनके हवाले किया, और तब पूरा मामला पता लगा कि वह 2008 से बिहार के अपने गांव से निकल गया था, और फिर कभी गांव लौटा नहीं। इसके बाद जिन लोगों के खिलाफ शक के आधार पर अपहरण और हत्या की रिपोर्ट लिखाई गई, उन्हें गिरफ्तार करके उनके खिलाफ मुकदमा चलाया गया, और 8-8 महीने जेल में रहने के बाद वे जमानत पर छूटे, और हिन्दुस्तानी अदालती रफ्तार की मेहरबानी से 17 बरस बाद भी जो रिश्तेदार हत्या की तोहमत झेल रहे थे, उन्हें कोई सजा नहीं हो पाई थी, वरना पता लगता कि कुछ लोग फांसी पर टंग चुके रहते। पारिवारिक रिश्तेदारी में ही 17 बरस से कत्ल की तोहमत झेल रहे इन लोगों पर क्या गुजर रही होगी, उसे वे ही जानते हैं।
अब अगर आज की तरह ही उस वक्त पुलिस ने प्रेसनोट में इन चारों आरोपियों की तस्वीरें जारी की होंगी, तो उनके चेहरों के साथ उनकी बदनामी कदमताल करते हुए चलती होगी। वैसे भी नाम तो उनका जारी हो ही चुका होगा। अब अगर अखबारों से इस बारे में पूछा जाए तो वे तो बिना ऐसे चेहरे और ऐसी तस्वीरों के खबर ही नहीं बना सकते। उन्हें लगेगा कि मामले का फैसला सुप्रीम कोर्ट से होने के पहले तक तो कोई भी व्यक्ति अंतिम रूप से मुजरिम साबित नहीं होता, तो फिर क्या सुप्रीम कोर्ट के फैसले, या वहां पर अपील करने का वक्त निकल जाने के बाद ही समाचार बनाया जाए? खबरों के पेशे के लिए तो यह सवाल जायज है, लेकिन जब कानून किसी को मुजरिम नहीं मानता, और महज आरोपी या अभियुक्त मानता है, और मुकदमा चलाते रहता है जो कि 25-30 बरस तक चलना भी हो सकता है, तो फिर बेकसूर साबित होने पर ऐसी बदनामी की क्या भरपाई हो सकती है?
दुनिया में जो अधिक संवेदनशील लोकतंत्र हैं, वहां पर भी आरोपियों के मुजरिम साबित होने के पहले भी उनकी फोटो और जानकारी छापना आम बात है। लेकिन एक बुनियादी सवाल बचे रहता है कि कानून बदनामी करने की सजा तो देता नहीं है, किसी के मुजरिम साबित होने के पहले तक तो उसे बेगुनाह साबित होने का पूरा हक रहता है, जो कि खबरों में आई बदनामी से खत्म होता है। ऐसे में किसी मामले में झूठी शिकायत, गलतफहमी, या सुबूतों की गफलत से पकड़ में आए लोगों के साथ इंसाफ कैसे हो सकता है? भारत जैसे कानून में सिर्फ कुछ लोगों को इससे छूट हासिल है, जो नाबालिग किसी भी किस्म के जुर्म के मामलों में फंसते हैं, उनका नाम, या किसी भी तरह की शिनाख्त उजागर नहीं हो सकते। इसी तरह सेक्स अपराधों की शिकार लडक़ी या महिला की पहचान उजागर नहीं की जा सकती। लेकिन इससे परे तो सभी तरह के लोग बदनामी पाने से शुरूआत करते हैं, और असल सजा होने तक तो वे सामाजिक प्रताडऩा की सजा पूरी तरह झेल चुके रहते हैं, और उनका परिवार भी इसका नुकसान पा चुका रहता है।
इसी से जुड़ा हुआ एक दूसरा मुद्दा बेकसूर लोगों का है जो कि लंबी बदनामी, और लंबी कैद, सुनवाई के बाद सब कुछ खोकर बेकसूर साबित होते हैं, और उसके बाद उनकी जिंदगी वापिस कभी पटरी पर आ भी नहीं पाती। भारत में आतंक जैसे गंभीर आरोपों में जेलों में कैद लोग 20-25 बरस बाद भी छूटे हैं, तो उसके बाद बाहर की दुनिया मानो उनके लायक रह ही नहीं जाती। यह मामला आरोपियों के मीडिया कवरेज से कुछ परे का है, लेकिन बेइंसाफी तकरीबन एक किस्म की है। एक मामले पर गौर करना जरूरी है कि हिन्दुस्तान में बच्चों से बलात्कार, उनका कत्ल, और उनकी लाश के टुकड़े पकाकर खाना जैसे भयानक आरोपों वाले सबसे चर्चित 2006 के निठारी हत्याकांड के आरोपियों को अभी 2023 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सारे जुर्मों से बरी कर दिया है। इस मामले की जांच सीबीआई ने की थी, और हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सीबीआई सुप्रीम कोर्ट भी गई है जहां अभी उस पर सुनवाई होनी है। अब सवाल यह उठता है कि इतने बरस तक जिन लोगों को हैवान और पिशाच कहा जाता रहा, और अब हाईकोर्ट अगर उनको बेकसूर मान चुका है, सुप्रीम कोर्ट अगर बेकसूर करार दे देता है, तो इतने बरस की बदनामी, या जितने भी बरस की कैद रही हो, उसकी क्या भरपाई हो सकती है?
अब हमारे सवालों के जवाब में हमारे पास कहने को कुछ भी नहीं है कि लोकतंत्र में जनता को अपने बीच के जुर्म के आरोपियों के बारे में जानने का कितना हक होना चाहिए, और उन आरोपियों को अपनी निजता का, और सामाजिक प्रतिष्ठा का कितना हक होना चाहिए? बदनामी करने का पुलिस और मीडिया का कितना हक हो, और वह कब से शुरू हो? ये मुश्किल सवाल हैं, और लाजवाब भी हैं। देखें क्या किसी के पास इस दिक्कत का कोई इलाज निकल सकता है?