छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक पत्रकार मुकेश चंद्राकर का कत्ल राज्य के मीडिया को हिला गया है। मुकेश नौजवान और बहुत सक्रिय पत्रकार थे, वे एनडीटीवी से भी जुड़े हुए थे, और उनका अपना यूट्यूब चैनल भी खासा लोकप्रिय था। इसके अलावा बस्तर के कुछ दूसरे पत्रकारों की तरह वे पत्रकारिता से परे भी सक्रिय रहते थे, और एक वक्त सरकारी कर्मचारी के नक्सल अपहरण के बाद उसकी रिहाई में भी उनका योगदान था। उनका कत्ल एक ठेकेदार के अहाते में ठेकेदार के भाई के हाथों हुआ बताया जा रहा है, और आज कुछ घंटों बाद पुलिस इसका खुलासा करने जा रही है। इस बीच जो जानकारी सामने आई है वह बस्तर में पत्रकारिता को लेकर कई बुनियादी सवाल खड़े करती है जिन पर सोचना-विचारना चाहिए।
जिस ठेेकेदार से यह मामला जुड़ा हुआ है, वह ठेकेदार सौ-पचास करोड़ के सडक़ ठेके वाला है, और बस्तर में ऐसे कई बड़े ठेकेदार अपनी कल तक की आर्थिक क्षमता से एकदम आगे बढक़र अचानक बड़े-बड़े काम करने लगते हैं, और इनमें से कुछ के बारे में यह जानकारी आम रहती है कि उनके नाम से पुलिस के कौन से बड़े अफसर ठेके लेते हैं। बस्तर में नक्सल हिंसा और खतरे के चलते कोई निर्माण ठेका ले लेने के बाद भी उसे पूरा करना तब तक नहीं हो सकता, जब तक पुलिस की खास मेहरबानी और हिफाजत उसे हासिल न हो। एक वक्त तो ऐसा था कि बस्तर के एक बड़े आईजी के बंगले पर ही पड़ोसी राज्य से आए हुए बड़े ठेकेदार रहते थे, और वहीं पर सारे ठेके तय कर दिए जाते थे। ऐसे सरकारी और कारोबारी माहौल में जो पत्रकार काम करते हैं, वे एक तरफ तो नक्सल खतरा झेलते हैं, और दूसरी तरफ अपने मीडिया-दफ्तर के दबाव भी झेलते हैं कि वहां से विज्ञापन वसूल करके भेजे जाएं, या सीधे-सीधे उगाही की जाए। छोटी जगहों पर काम करने वाले किसी भी दर्जे के संवाददाता तकरीबन बिना तनख्वाह के ही काम करते हैं, उन्हें कोई विज्ञापन कमीशन मिल जाता है, या फिर उनका संस्थान यह मान लेता है कि एक परिचय पत्र या एक माइक्रोफोन-आईडी के बाद संवाददाता खुद सारा इंतजाम कर सकते हैं, और अपने मुख्यालय को भी इश्तहार या उगाही भेज सकते हैं। ऐसे खतरनाक कारोबारी इंतजाम के साथ-साथ नक्सल खतरे के बीच बस्तर के अधिकतर पत्रकार काम करते हैं, और धीरे-धीरे वहां पत्रकारिता का वातावरण कारोबारी दबाव तले दम तोडऩे लगता है। फिर भी बहुत विपरीत परिस्थितियों में कुछ अच्छे पत्रकार लगातार हथियारबंद संघर्ष वाले इलाकों में काम करते हैं, और उन्हीं की वजह से जमीनी हकीकत सामने आती है। अभी मुकेश चंद्राकर के गुजर जाने पर कुछ लोगों ने इस बात को उठाया भी है कि किस तरह राजधानियों से बस्तर पहुंचने वाले पत्रकार वहां के स्थानीय पत्रकारों का इस्तेमाल करके अपनी रिपोर्ट तैयार करते हैं, और स्थानीय पत्रकार हर तरह के दबाव, और खतरे झेलते हुए भी एक अच्छे आदिवासी मेजबान की तरह बाहरी प्रवासी पत्रकारों का साथ देने के लिए अपनी कई-कई दिन झोंक देते हैं।
हमने यह तमाम बातें नक्सल प्रभावित इलाकों में जर्नलिज्म का माहौल बताने के लिए लिखी हैं, और अब इनमें यूट्यूब जैसे प्लेटफार्म की वजह से शुरू हुई एक स्वतंत्र पत्रकारिता और जुड़ गई है, जिसमें मुकेश चंद्राकर और ऐसे कुछ नौजवानों ने खासा नाम कमाया है। लेकिन लगातार संघर्ष के इलाके में भारी भ्रष्टाचार के बीच काम करते हुए पत्रकार कई दूसरे तरह के प्रभावों से भी प्रभावित होते हैं। ऐसे में कब नक्सली, कब कारोबारी, कब पुलिस, कब नेता, और कब मीडिया का मैनेजमेंट उनका इस्तेमाल करते हैं, इसका कोई ठिकाना नहीं रहता है। फिर किसी भी ऐसे पेशे में जहां पर नियमित आय की कोई गारंटी नहीं रहती है, लोगों को अपनी जिंदगी चलाने के लिए कई किस्म के जायज और नाजायज इंतजाम करने पड़ते हैं, और ऐसे में बस्तर के कई पत्रकार बड़े ठेकेदार भी बन जाते हैं, या ठेकेदारों के आपसी मुकाबलों में मोहरे बन जाते हैं। जब कभी बस्तर में रिपोर्टर किसी भी तरह फंसते हैं, या ठेकेदार, नेता, और अफसर अकेले या मिलकर उन्हें फंसा देते हैं, तो उनके संस्थान उनसे सबसे पहले हाथ धो लेते हैं, वे यह मानने से भी इंकार कर देते हैं कि ये संवाददाता कभी उनके लिए काम करते थे, या कर रहे हैं।
मुकेश चंद्राकर का कत्ल जिस बड़े ताकतवर और खाकी-मेहरबानी से लैस ठेकेदार के परिवार का किया गया बताया जा रहा है, उसके खिलाफ हाल ही में एक टीवी चैनल पर एक रिपोर्ट आई थी, और सौ-पचास करोड़ के इस ठेके की गड़बड़ी पर सरकार ने जांच के आदेश दिए थे। इस रिपोर्ट में मुकेश चंद्राकर का भी योगदान बताया जा रहा है, और पारिवारिक संबंधों के बावजूद ऐसी रिपोर्ट पर ठेकेदार की निराशा थी, और वही कत्ल तक पहुंची दिख रही है। अब अगर इतने बड़े-बड़े ठेकों में गड़बड़ी की रिपोर्ट पर रिपोर्टर का कत्ल होने लगे, तो बड़े भ्रष्टाचार को भला कौन उजागर कर सकेंगे? और बस्तर जैसे इलाके में तो बड़े ठेकेदारों का ऐसा भ्रष्ट कारोबार आम है, और इसमें नेताओं और अफसरों की मेहरबानी और भागीदारी भी आम है। एक पत्रकार की हत्या को लेकर राज्य में लोकतंत्र के सभी पहलू विचलित हैं, और सरकार के पास भी अपने-आपको साफ साबित करने का एक मौका है क्योंकि हत्यारोपी परिवार कांग्रेस का करीबी, और पदाधिकारी बताया जा रहा है। बस्तर के पत्रकारों पर खतरा आज के इन कातिलों को सजा से खत्म नहीं होगा, और यह प्रकाशन और प्रसारण कारोबार की बाजारू रणनीतियों और तौर-तरीकों की वजह से पैदा चुनौती और खतरा भी है। मीडिया के लोगों को इस व्यापक मुद्दे पर सोचना-विचारना चाहिए, और सरकार को भी देखना चाहिए कि नक्सल इलाकों में उसके अफसर संविधानेतर सत्ता की तरह काम तो नहीं कर रहे हंै। इसके अलावा राजनीतिक दलों को भी कारोबारियों से कम से कम सार्वजनिक रूप से तो एक दूरी बनाकर रखना चाहिए। मुकेश चंद्राकर अच्छी टीवी रिपोर्टिंग करने वाले नौजवान थे, और उनके इस कत्ल के बाद इसे महज एक जुर्म की तरह जांच-परखकर और मामले को अदालत से फैसले तक पहुंचाने से परे भी सभी पहलुओं को सोचना चाहिए कि स्थितियों को कैसे सुधारा जा सकता है, और एक अच्छी पत्रकारिता को बस्तर में मौका कैसे दिया जा सकता है।