संपादकीय
चुनाव के वक्त आसमान पर हेलीकॉप्टर मंडराते हैं, और जमीन पर बाबा। और अगर बाबा अधिक शोहरत वाले होते हैं, उनका डंका-मंका कुछ अधिक होता है, तो वे हेलीकॉप्टर से भी मंडराते हैं, और जमीन पर भी। इन दिनों छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश में धीरेन्द्र शास्त्री नाम के एक नौजवान बाबा लगातार खबरों में बने हुए हैं। वे लोगों के मन की बात पढ़ लेने, उनका इतिहास और भविष्य बता देने की वजह से आकर्षण का केन्द्र रहते हैं, और वे हिन्दुत्व की राजनीति के झंडाबरदार भी हैं, और इस नाते वे भाजपा नेताओं के अधिक करीब रहते हैं। दूसरी तरफ ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद किसी चमत्कार का काम नहीं करते, लेकिन वे धर्म से परे भी देश के राजनीतिक मामलों पर भी धार्मिक नजरिए की टिप्पणी करने की वजह से खबरों में रहते हैं, लेकिन रामलला की प्रतिमा के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में चूंकि किसी शंकराचार्य को नहीं बुलाया गया था, और अकेले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही वहां आकर्षण का केन्द्र थे, इसलिए शंकराचार्यों का आज का असर कुछ घटा हुआ है। यह तो वक्त-वक्त की बात है कि सनातन-हिन्दू धर्म के तहत शंकराचार्यों की जो व्यवस्था सबसे ऊपर है, वह देश के राजा की हेठी के चलते अब हाशिए पर है। और किसी वक्त कांग्रेस की सरकार के रहते हुए रावतपुरा सरकार नाम के एक बाबा का डंका-मंका इतना चलता था कि सरकारी अफसर और उनका पूरा अमला बाबा की खिदमत में लगे रहता था। अब अलग पार्टी या अलग सत्ता के पसंदीदा बाबा फैशन में हैं, और रावतपुरा सरकार को किनारे धकेलकर बागेश्वर सरकार शोहरत की नदी के बीच चल रहे हैं।
यह तो बाजार व्यवस्था का एक हिस्सा है कि कभी किसी कपड़े या रंग का चलन रहता है, और कभी किसी और का। धर्म से अधिक बड़ा बाजार कोई नहीं, और ईश्वर की धारणा या बाबाओं पर अंधविश्वास से बड़ा कोई प्रोडक्ट बाजार में नहीं है। ऐसे में राजनीतिक दल उन बाबाओं को अधिक पसंद करते हैं जो उनकी राजनीति को सुहाने वाली बातें करें। अब जैसे कम से कम दो शंकराचार्य राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के वक्त से लगातार मोदी के खिलाफ कभी नाम लेकर, तो कभी बिना नाम लिए कुछ न कुछ कहते हैं, तो वे कांग्रेस की आंखों का तारा हैं। दूसरी तरफ लोकसभा के आम चुनाव के वक्त कमजोर पड़ती भाजपा उम्मीदवार सरोज पांडेय के पक्ष में हवा चलाने के लिए इसी बागेश्वर सरकार नाम के नौजवान बाबा को उस संसदीय क्षेत्र में ले जाकर कार्यक्रम करवाया गया था। बाबाओं को अपना राजनीतिक इस्तेमाल बड़ा सुहाता है क्योंकि जब बलात्कारी आसाराम के चरणों पर नरेन्द्र मोदी से लेकर दिग्विजय सिंह तक सभी बिछे रहते थे, तो उससे आसाराम को इतनी ताकत मिलती थी कि उसने नाबालिग से बलात्कार को अपना राजकीय और अलौकिक, दोनों किस्म का हक मान लिया था। इन दिनों सत्ता की नजरों में वे ही बाबा ऊपर चढ़ते हैं जिनके प्रवचन में, या जिनके आश्रम में अधिक भीड़ जुटती है। चुनाव से परे भी राजनीति का चलन यही रहता है कि बलात्कारी बाबा राम-रहीम सरीखों को जेल से पैरोल पर बाहर निकालकर उसके अंधभक्तों को राजनीति और चुनाव में प्रभावित किया जाए। चुनावी भीड़ को जुटाने के लिए उत्तर भारत के कुछ हिन्दीभाषी इलाकों में बित्ते भर के कपड़े पहनी हुई डांसरों को भी भाषण के पहले तक मंच पर पेश कर दिया जाता है ताकि भीड़ बंधी रहे। कुछ ऐसा ही राजनीतिक इस्तेमाल बाबाओं का भी होता है, और आज सुबह छत्तीसगढ़ के अखबारों की यह सुर्खी है कि बागेश्वर सरकार ने भाजपा विधानसभा उपचुनाव उम्मीदवार को जीत का आशीर्वाद दिया। यह अलग बात है कि डांसर और बाबा को एक साथ पेश नहीं किया जाता है, क्योंकि एक कोई पौराणिक कहानी विश्वामित्र का तप भंग करने वाली मेनका की कोशिश बताती है। इसलिए समझदार नेता इन दोनों ताकतों का अलग-अलग इस्तेमाल करते हैं।
अब कल का दिन ऐसा था जब शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद भी छत्तीसगढ़ में थे, और धीरेन्द्र शास्त्री भी, जो कि बागेश्वर सरकार कहलाते हैं। शंकराचार्य गाय को राष्ट्रमाता का दर्जा दिलवाने के लिए भारत भ्रमण कर रहे हैं, और छत्तीसगढ़ के कांग्रेसियों को उन्होंने बताया भी कि वे महाराष्ट्र में ऐसा करवाकर आए हैं। और उन्होंने छत्तीसगढ़ के नेता प्रतिपक्ष डॉ. चरणदास महंत सहित दूसरे नेताओं से यह वायदा भी ले लिया है कि भाजपा पूरे देश में गाय को राष्ट्रमाता का दर्जा देने का विधेयक लाएगी तो कांग्रेस उसका समर्थन करेगी। शंकराचार्य का हिन्दुत्व दूसरे धर्म के लोगों के खिलाफ नहीं है, और यह कट्टरता और धर्मान्धता से कुछ दूर चलने वाला हिन्दुत्व हैं, और वे किसी चमत्कार की आड़ लेकर शोहरत नहीं जुटाते। कल ही बागेश्वर धाम कहे जाने वाले धीरेन्द्र शास्त्री ने एक से बढक़र एक भडक़ाऊ बयान दिए हैं। उन्होंने मुस्लिम शब्द का इस्तेमाल किए बिना मुस्लिमों की तरफ इशारा करते हुए यह कहा कि कुंभ के मेले में गैरहिन्दुओं को दुकान नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि जिनका राम से काम नहीं, उनका राम के काम से क्यों कोई काम होना चाहिए। दूसरी तरफ इसी मौके का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने इन दिनों हवा में चल रहे हिन्दुत्व के एक सबसे हमलावर फतवे, बंटोगे तो कटोगे का भी समर्थन किया। और यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के उछाले इस फतवे को एकदम सही कहा। उन्होंने हिन्दू राष्ट्र की मांग की, और कहा कि वे उसके लिए यात्रा कर रहे हैं। इन दिनों शंकराचार्य के मुकाबले धीरेन्द्र शास्त्री का बोलबाला सैकड़ों गुना अधिक चल रहा है, और वे भाजपावादी हिन्दुत्व का झंडा लेकर भी चलते हैं, इसलिए भाजपा की सत्ता उनका उसी तरह स्वागत भी करती है, कर रही है।
भारत के बहुत बड़े हिस्से में राजनीति में धर्म को इस तरह घोट दिया गया है, जिस तरह ठंडाई बनाते हुए गुलकंद, खसखस, और बादाम को घोट दिया जाता है। और हिन्दू धर्म अगर अपने अस्तित्व के सबसे संगठित और ताकतवर, शंकराचार्य तक सीमित रहता, तो भी समझ पड़ता। आज चूंकि शंकराचार्यों का नजरिया भाजपा के माकूल नहीं है, इसलिए भाजपा को धार्मिक ढांचे में बहुत नीचे के, लेकिन शोहरत के पैमाने पर बहुत ऊपर के बाबाओं को लेकर चलना पड़ रहा है। कुल मिलाकर जनता को यह भी सोचना चाहिए कि सभी तरह के धार्मिक नेता मिलकर भी, और सरकार को साथ मिलाकर भी जनता का क्या भला कर सकते हैं, उसकी दिक्कतों को कहां दूर कर सकते हैं? जब तक जनता मूढ़ की तरह चमत्कार और धार्मिक फतवों में उलझी रहेगी, राजनीतिक दलों, और नेताओं को चुनावों में वोटरों को भेड़ों के रेवड़ की तरह हांककर किसी भी तरफ ले जाने की सहूलियत हासिल रहेगी। धर्म जिस राजनीतिक मकसद से बनाया गया था, आज जब न कबीले के सरदार रह गए हैं, न कोई राजा रह गए हैं, तब भी धर्म प्रजा को एक झांसे में उलझाकर रखने के काम आ ही रहा है। धर्म किसी भी सामाजिक सुधार के खिलाफ कट्टर और रूढि़वादी सत्ता को बचाने के लिए एक बड़े काबिल और मेहनती चौकीदार की तरह ड्यूटी पर तैनात है। लोगों को इस बात को समझने के लिए अपनी अंधश्रद्धा को कुछ देर किनारे करना पड़ेगा, तब जाकर वे उस झांसे को समझ पाएंगे जिसके कि वे शिकार हैं।