संपादकीय

देश के मौजूदा वक्फ कानून में संशोधन के लिए जो नया विधेयक लाया गया है, उस पर चर्चा के लिए सांसदों की एक संयुक्त समिति बनी है। दो दिन पहले जब इसकी सुनवाई चल रही थी, और वर्तमान और प्रस्तावित कानूनों की बारीकियों पर एक गंभीर बातचीत या बहस होनी थी तभी समिति के एक सदस्य तृणमूल कांग्रेस के सांसद कल्याण बैनर्जी ने कांच की एक बोतल तोड़ दी, और उसे समिति के अध्यक्ष जगदम्बिका पाल पर फेंक दिया। अध्यक्ष तो बच गए लेकिन यह हरकत करने वाले कल्याण बैनर्जी का ही हाथ कुछ जगह नुकीले कांच से कट गया जिसकी मलहम पट्टी करनी पड़ी। इस बर्ताव के लिए इस सांसद को इस समिति की सुनवाई से एक दिन के लिए निलंबित कर दिया गया है जो कि तृणमूल सांसदों के लिए कोई नई बात नहीं है। वे लोकसभा और राज्यसभा की कार्रवाई से भी कई बार निलंबित होते रहते हैं, और अगर लोगों को कल्याण बैनर्जी नाम से याद न पड़ता हो, तो हम संसद भवन के अहाते में इस सांसद की एक मिमिक्री याद दिलाना चाहेंगे जिसमें वे मौजूदा सांसदों के बीच उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की सदन की कार्रवाई की नकल करके दिखा रहे थे। बाद में जब इस पर बड़ा बवाल हुआ तो उन्होंने सफाई दी कि मिमिक्री एक किस्म की कला है, और वे मिमिक्री ही कर रहे थे। साथ ही कल्याण बैनर्जी और उनके समर्थकों ने संसद के भीतर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के किसी भाषण का कुछ हिस्सा निकालकर उसका वीडियो जारी किया था कि मोदी ने तो सदन के भीतर मिमिक्री की थी। मोदी इस वीडियो में राहुल गांधी की मिमिक्री कर रहे थे। हालांकि मोदी ने कल्याण बैनर्जी की इस ‘कला’ पर बड़ी आपत्ति की थी, और भाजपा ने संसद-परिसर की इस मिमिक्री का वीडियो अपने फोन पर बनाने के लिए राहुल गांधी को भी घेरा था। इस मिमिक्री पर देश की राष्ट्रपति ने भी उपराष्ट्रपति के साथ हमदर्दी जताते हुए टीएमसी सांसद के इस बर्ताव पर अफसोस जाहिर किया था, और ट्विटर पर अपने उपराष्ट्रपति का साथ दिया था।
खैर, उस पुरानी घटना पर अभी बहुत अधिक समय बर्बाद करने की जरूरत नहीं है, लेकिन यह याद रखने की जरूरत है कि तृणमूल कांग्रेस सांसद कल्याण बैनर्जी का नाटक का पुराना इतिहास रहा है, जो कि अब बढ़ते-बढ़ते संसदीय समिति की बैठक में कांच की बोतल फोडक़र अध्यक्ष पर फेंकने तक पहुंच गया, यह अलग बात है कि अध्यक्ष बच गए, और हमलावर बैनर्जी जख्मी हो गए। इस ताजा घटना के एक और पहलू पर चर्चा की जरूरत है। वक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक पर चर्चा के दौरान यह बहस मोटेतौर पर कल्याण बैनर्जी और भाजपा सांसद अभिजीत गंगोपाध्याय के बीच हुई थी। अब जिन लोगों को इस नए सांसद के नाम से कुछ याद नहीं पड़ता है, उन्हें यह बताना जरूरी है कि वे कलकत्ता हाईकोर्ट से रिटायरमेंट लेने वाले एक ऐसे जज हैं जिन्होंने तुरंत ही भाजपा में दाखिल होकर लोकसभा चुनाव लड़ा, और कोर्ट की अपनी कुर्सी के कुछ महीनों के भीतर ही वे लोकसभा की कुर्सी पर नजर आने लगे। जब तक अभिजीत गंगोपाध्याय जज रहे, उनके बहुत से फैसले और आदेश ऐसे रहे जो कि राज्य की तृणमूल सरकार के हितों के खिलाफ रहे, उसे परेशान और नुकसान करने वाले रहे। एक वक्त तो ऐसा भी आया था जब कलकत्ता हाईकोर्ट के बार एसोसिएशन ने गंगोपाध्याय की अदालत के बहिष्कार का प्रस्ताव पारित किया था, और तृणमूल समर्थक वकीलों के एक संगठन ने उनकी अदालत के बाहर प्रदर्शन किया था। कलकत्ता का यह टकराव दिल्ली पहुंचकर संसदीय समिति में कांच की टूटी बोतल के टुकड़ों की शक्ल में सामने आया है। तृणमूल सांसद के लिए यह भूलना आसान नहीं था कि जस्टिस गंगोपाध्याय ने इस्तीफे के दो दिन बाद ही भाजपा की सदस्यता ले ली थी, और फिर कुछ महीनों के भीतर ही लोकसभा का चुनाव भाजपा टिकट पर लड़ा। इस अभियान के दौरान गंगोपाध्याय ने ममता बैनर्जी के खिलाफ कुछ अपमानजनक बातें भी कही थीं, और हालत यह थी कि चार दिन पहले के हाईकोर्ट जज को चुनाव आयोग का नोटिस मिला, आयोग ने उनके बयान रोके, और घटिया-निजी आरोप लगाने की वजह से चौबीस घंटे चुनाव प्रचार पर रोक लगाई। गंगोपाध्याय की इसी बयान की वजह से चुनाव आयोग ने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नड्डा को यह सलाह जारी की थी कि वे चुनाव प्रचार में इस तरह की हरकत से बचने के लिए अपने नेताओं को कहें। हाईकोर्ट जज रहे गंगोपाध्याय के बयान पर चुनाव आयोग को यह लिखना पड़ा था कि यह गरिमा की किसी भी परिभाषा के खिलाफ बयान था, और बहुत ही निचले दर्जे का निजी हमला था। चुनाव आयोग ने अफसोस भी जाहिर किया था कि गंगोपाध्याय के हाईकोर्ट के पिछले ओहदे को देखते हुए वे किसी संदेह के लाभ के हकदार भी नहीं है।
बंगाल की राजनीति इन दो सांसदों की संसदीय समिति की बहस से परे भी लगातार हमलावर रहती है। देश में दो ऐसे राज्य हैं जहां राजनीतिक हमले बड़ी आसानी से हत्या में तब्दील हो जाते हैं। बंगाल, और केरल, इन दोनों जगह राजनीतिक-हिंसा का कोई अंत नहीं दिखता है। और जहां पर हथियारों की हिंसा आम बात हो, विरोधी होने पर मार डालना बहुत बड़ा मुद्दा न हो, वहां से आए दो सांसदों के बीच राज्य की कड़वाहट संसद और उसकी समिति तक पहुंच जाना बड़ी बात नहीं है। हमारा मानना है कि पार्टियों का टकराव, या व्यक्तियों का टकराव इतना धारदार नहीं होना चाहिए कि वह संसद को बनाने के कुल जमा मकसद को ही हरा दे। वक्फ कानून में फेरबदल एक गंभीर मसला था, और उसमें इस तरह के टकराव की गुंजाइश होनी नहीं चाहिए थी, लेकिन राज्य की स्थानीय राजनीति बाकी तमाम चीजों पर बुरी तरह हावी हो जाती है। बंगाल के संदर्भ में तो हम इस बात को कुछ अधिक ही देखते हैं। देश की बहुत सी पार्टियों का एक-दूसरे के प्रति हिकारत और नफरत का ऐसा नजरिया है कि वे एक नाव पर सवार रहते हुए भी दूसरे के डूब मरने की कामना कर सकते हैं। ऐसी नौबत देश में संसदीय जरूरत और महत्व को हरा दे रही है। एक बार संसद में कानूनों में खामियां रह जाती हैं, या बेइंसाफी को बढ़ाने वाले कानून बन जाते हैं, तो फिर देश कभी-कभी तो पीढिय़ों तक उनके नुकसान झेलता है। संसदीय प्रक्रिया और संसदीय प्रणाली ओछे टकरावों में उलझे, और पूर्वाग्रहों से लदे हुए लोगों के भरोसे नहीं चल सकती। लोकतंत्र का एक बड़ा नुकसान करते हुए ही पार्टियां और सांसद एक-दूसरे से नफरत की ऐसी नुमाइश कर सकती हैं। हमारा मानना है कि जनता के बीच से ऐसा दबाव सामने आना चाहिए कि वह पार्टियों और नेताओं को अपने आपको काबू में रखने पर मजबूर करे।