विचार / लेख

ताने-बाने से परे भी बहुत कुछ बुनते हैं बुनकर
02-Oct-2020 4:45 PM
ताने-बाने से परे भी बहुत कुछ बुनते हैं बुनकर

-मिर्जा मसूद

पिछले सप्ताह सुपरिचित गायक कैलाश खेर का वक्तव्य पढ़ा-हमारे जो बुनकर हैं वे कपड़े नहीं जिंदगी बुनते हैं। इस काव्यात्मक अभिव्यक्ति पर नजर पड़ी तो एक विचार मन में आया। सोचा एक पुर्जेे पर लिखकर आपके अखबार में भिजवा दूं। लेकिन पुर्जे का आकार बढ़ता गया। 

बात जगजाहिर है कि अंग्रेजों के भारत आने से वर्षों पूर्व जहाजों में लद कर भारत के बने हुए कपड़े चीन, जापान, ईरान, कम्बोडिया आदि देशों में जाते थे जहां उनकी बहुत मांग थी। अंग्रेजी राज्य क्रांति के बाद जब मलका मेरी इंग्लिस्तान पहुंची तो भारतवर्ष के रंगीन कपड़ों का शौक उसके साथ वहां पहुंचा।

फिर ऐसा भी समय आया जब भारत अंग्रेजी कंपनी और ब्रितानी सामाज्य के अधीन हो गया। भारतीय उद्योग धंधों का सर्वनाश हो गया। अंग्रेजों की नीति ऐसी थी कि इंग्लैंड के उद्योग धंधे भारत के कच्चे माल के कारण पनपते गए। अंग्रेज अपने अर्थतंत्र को मजबूत करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने भारतीय किसानों दस्तकारों कारीगरों की फौज में भर्ती पर रोक लगा रखी थी और इस पर सख्ती से पालन होता था। भारतीय किसानों पर तरह-तरह की पाबंदियां लगा दी गई थी। उनकी रोजी-रोटी छिन गई और कलात्मकता बर्बाद हो गई। इतिहासकारों ने ढाका की मलमल को मैनचेस्टर में फांसी लगाई। 

इतिहास में रेशम की खेती और कीड़े लपेटने के पेशे से जुड़े लोगों पर बहुत अत्याचार हुए। अंग्रेजों की व्यवस्था इस प्रकार की थी कि अंग्रेजों के रखे हुए रेजिडेंट जितनी ज्यादा रेशम कंपनी के लिए एकत्र करता उतनी अधिक उसकी आमदनी होती थी। 

हिन्दुस्तानी किसान को इस बात की अनुमति नहीं थी कि वो अपने पाले हुए रेशम के कीड़े किसी हिन्दुस्तानी कास्तकार को बेच सके। उसे अंग्रेज व्यवसायी को ही बेचना होता था। नियम बहुत अमानवीय था। यदि कोई किसान इंकार करता है, तो दो अंग्रेज मुलाजिम उसके दरवाजे पर पहुंचते एक के हाथ में रजिस्टर होता और दूसरे के हाथ में रुपयों की थैली। रजिस्टर में उस किसान का नाम दर्ज कर लिया जाता और उसके दरवाजे पर एक रुपये का सिक्का फेंक दिया जाता था। इस तरह उस माल पर से किसान का अधिकार समाप्त हो जाता था।

जब भारतीय किसानों से अंग्रेजों का जुलम-=सितम सहन नहीं हुआ, तो उन्होंने अपने हाथों के अंगूठे काट दिए पर अंग्रेजों का अत्याचार स्वीकार नहीं किया।
सच है भारतीय कास्तकारों, कलाकारों, शिल्पियों की एक लंबी परंपरा रही है, जिसमें वे अपनी कला संस्कृति को बुनते, उकेरते और आकार देते है। उनके जीवन के सुख-दुख रंग-रूप सभी उसमें शामिल होते है। यही नहीं बुनावट में जो ताने-बाने होते हैं उनमें कबीर की परंपरा भी होती है। प्रतिरोध की भावना भी जिसे शायद गांधीजी ने समझा था और ब्रितानी सामाज्यवाद के आर्थिक गुब्बारे की हवा निकालने में भारतीय हस्तकला को हथियार बनाया था।  
अब भी बुनकर जब कपड़ा बुनते हैं तो साडिय़ों की किनार में डिजाइन बनाते समय तरूण शहीद खुदी राम बोस की ये पंक्तियां बुनते हैं-
एक बार बिदाई दे मां घुरे आसि
हासि-हासि पोरबो कांसी
देखबे भारतबासि।

(लेखक प्रदेश के एक सबसे वरिष्ठ रंगकर्मी हैं, और इस अखबार के लिए कभी-कभी लिखते हैं)


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