विचार / लेख
मनीष सिंह
आखिरकार 1906 में ब्रिटेन रानी और रूस राजा ने तिब्बत पर चीन राजा की सुजेर्निटी मान ली। सुजेर्निटी का मतलब सरल भाषा में ‘तुम जानो -तुम्हारा काम जाने’ होता है।
1912 चीन मे राजतंत्र खत्म हुआ, नेशनलिस्ट सरकार बनी। तो राजा की फौजों ने अपने आपको नेशनलिस्ट सरकार के अंडर मे मान लिया। 1949 तक यही व्यवस्था चली, जब तक कि माओ ने यहां सीधा नियंत्रण न ले लिया।
संघी इतिहास के अनुसार यह भारत की अक्ष्म्य गलती थी। उनके अनुसार एक स्वत्रंत देश पर चीन ने कब्जा कर लिया और नेहरू चुपचाप बैठे रहे ।
तिब्बत क्या है? मेरा मतलब, नेहरू की गलती के अलावे और क्या है ...
आठवीं के बाद भूगोल और इतिहास कभी न पढऩे वाले ज्यादातर लोग इस बात को नहीं जानते कि नेहरू की अनगिनत गलतियों में से एक तिब्बत दरअसल एक पठार भी है। न जानने वालों के लिए, पठार का मतलब एक टेबल टॉप की तरह की जमीन है, जो आसपास की धरती से बेहद ऊंचा होता है। नीचे से देखने पर वह पहाड़ की तरह लगता है, मगर टॉप पर मैदान होता है।
तिब्बत का पठार दुनिया की छत है। छत, याने ऐसी जगह से जहां से बारिश का पानी नीचे आता है। ठीक वैसे ही तिब्बत के पठार से जो नदियां निकलती हैं, वह दुनिया की एक तिहाई आबादी का पोषण करती हैं।
दुनिया का पोषण करने वाला पठार को प्रकृति ने बड़ा कुपोषित रखा है। एवरेज चार हजार मीटर की हाइट पर साल के आठ महीने बर्फ, बेहद ठंड और साल भर सूखी सर्द हवा होती हैं। दुनिया के सबसे कम आबादी के घनत्व का यह पठार चीन के मध्य तक घुसा हुआ है। तीन ओर चीन है और चौथी ओर हिमालय.. हिमालय के नीचे हम।
जी हां, आप तिब्बत को हिमालय पर बसा देश समझते हैं। ऐसा नहीं है, जहां से हिमालय खत्म होता है, वहां से तिब्बत का पठार शुरू होता है। मगर भूमि की संरचना इस प्रकार मिलीजुली है कि यह बताना कठिन है कि कहां से हिमालय खत्म होता है, कहां तिब्बत शुरू होता है। ऐसे में आपका कन्फयूज होना लाजिमी हैै।
मगर कन्फयूजन पर बात करने के पहले हिस्टी-जियोग्राफी जान लेना अच्छा है। तिब्बत का पठार एक तरफ मध्य एशिया के दूसरे ऊंचे पठारों से जुडा़ है, और दूसरी ओर चीन से। भारत और इस पठार के बीच की लक्ष्मण रेखा हिमालय है, इसलिए हमारा इससे ज्यादा वास्ता नहीं रहा। इसके इतिहास के सफहे, बीजिंग के राजघरानों और मध्य एशिया के चंगेज खान टाइप के लोगों के बीच डोलता रहा है।
बेहद कम आबादी के इस क्षेत्र में सातवीं-आठवीं शताब्दी के दौरान, यह इलाका कबीलों में बंटा, एक होता, फिर बंटता रहा। 1244 में मध्य एशिया से आए मंगोलों ने इस इलाके को जीता। मगर उनका शासन ढीला-ढाला था। तिब्बत के लोग उनके अंडर थे, मगर इन्टर्नल ऑटोनमी थी। इस इलाके में शासन करना दुरूह था। मंगोलों ने बढिय़ा युक्ति निकाली।
यहां ज्यादातर लोग बुद्धिष्ट थे। सो एक लामा को दलाई लामा घोषित किया, जो तिब्बत का लीडर होगा। सारे कबीले वाले दलाई लामा के अंडर में होंगे, और दलाई लामा मंगोलों के अन्डर में। इस अनोखी व्यवस्था में, अलग-अलग क्षेत्र के प्रमुख तो वहीं के कबीले वाले थे, मगर सारे अपने आप को बाबाजी की स्प्रिचुअल कमांड में मानते। न मानते तो मंगोल आकर सजा देते। मगर फिर मंगोल कमजोर हुए और चीन के राजा लोग मजबूत तब यही व्यवस्था चीन के अंडर में चलने लगी।
मंगोलों के अंडर दलाई लामा, याने कि उनके अंडर के कबीले वालों को काफी स्वायत्ता थी। मगर चीन राजा के अंडर वैसी स्वायत्ता नहीं थी। वे अपनी फौज भी गाहे-बगाहे भेजते। 1717 मंगोलों का फिर से अटैक हुआ, उन्होंने दलाई लामा को हटा दिया। चीनी सम्राट ने अपनी फौज लगाकर उन्हें भगाया। फिर से दलाई लामा को बिठाया। लेकिन साथ में अपनी स्थाई फौज तथा रेजीडेंट कमिश्नर भी बिठा दिया।
चीनी कमिश्नर की दखलंदाजी ज्यादा थी। तिब्बत पठार के कुछ इलाके चीन राजा ने डायरेक्ट अपने शासन में ले लिया। 1750 के आते आते, चीन राजा के विरूद्ध कबीलों ने विद्रोह कर दिया। चीन ने विद्रोह दबाया। अब तक नीचे भारत में अंग्रेज आ चुके थे। उन्होंने हिमालयी दर्रों के रास्ते व्यापार के प्रपोजल भेजे। चीन राजा न माने, तो आतंकी गतिविधियां शुरू कर दी गई।
जी हां, ये टैक्टिक उस जमाने में भी थी। नेपाली घुसपैठियों की मदद से तिब्बती कबीलों मे असंतोष भडक़ाया गया। चीन ने स्थाई फौज रख दी। एक और काम किया। दलाई लामा का पद वंशानुगत नहीं होता, उसे तो वर्तमान दलाई लामा चुनता है। चीन ने चुनने की इस व्यवस्था को अपने रेजिडेंट और फौज के सुपरविजन में रख दिया। विदेशियों का आना बैन कर दिया।
आखिरकार 1906 में ब्रिटेन रानी और रूस राजा ने तिब्बत पर चीन राजा की सुजेर्निटी मान ली। सुजेर्निटी का मतलब सरल भाषा में ‘तुम जानो-तुम्हारा काम जाने’ होता है।
1912 चीन मे राजतंत्र खत्म हुआ, नेशनलिस्ट सरकार बनी। तो राजा की फौजों ने अपने आपको नेशनलिस्ट सरकार के अंडर मे मान लिया। 1949 तक यही व्यवस्था चली, जब तक कि माओ ने यहां सीधा नियंत्रण न ले लिया।
संघी इतिहास के अनुसार यह भारत की अक्ष्म्य गलती थी। उनके अनुसार एक स्वत्रंत देश पर चीन ने कब्जा कर लिया और नेहरू चुपचाप बैठे रहे ।
रात की न उतरने पर अलसुबह हैंगओवर में आये ख्बाबो के अनुसार, जुम्मा-जुम्मा दो साल पहले पैदा हुए भारत के प्रधानमंत्री नेहरू को चाहिए था कि तिब्बत में फौज घुसाकर उसे चीन के पंजों से निकाल लेते। दलाई लामा को वापस गद्दी पर बिठाकर जयकारा लगवाते। दलाई लामा की सुरक्षा के लिए दो-चार लाख की फौज वहां छोड़ देते।
ऐसा अगर हो जाता तो भारत की सीमा चीन से कभी मिलती ही नहीं। मुझे लगता है कि भाजपा के इतिहास के कुछ दिग्गज तब के पीएम होते तो ऐसा पक्के तौर पर हो जाता।
इनके पास तीन दिन में तैयार होने वाली सेना जो थी।
(इन सबके बाद भी भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा न माना। अटल बिहारी ने पहली बार तिब्बत को चीन का हिस्सा माना।)


