विचार / लेख
मनीष सिंह
कोविड के विकराल होते स्वरूप के बीच स्कूलों के खुलने की संभावनाएं धूमिल होती जा रही है। मौजूदा हालात में स्कूलों का खुलना बेहद रिस्की है, और इस सत्र में स्कूलों का शुरू होना असंभव दिखता है। मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा कि अगले बरस का सत्र भी विलंबित हो।
तमाम प्रयास के बावजूद ऑनलाइन पढ़ाई का असर सीमित ही होगा। इसलिए कि इससे अकादमिक हिस्सा ही पूरा किया जा सकता है। मगर कक्षा का माहौल, खेलकूद, शिक्षक की आमने-सामने की निगहबानी को क्युरिकुलर तथा एक्स्ट्रा क्युरिकुलर एक्टिविटीज का पूरा असर, ऑनलाइन शिक्षण नहीं दे सकता।
बच्चों पर अलग किस्म का दबाव है। घंटों मोबाइल स्क्रीन पर ताकते रहना, एकाग्रता बनाए रखना बेहद कठिन है। नजर की कमजोरी और सरदर्द जैसी शिकायतों के साथ ऊब और मानसिक थकान की समस्याएं भी दिख रही होंगी।
दरअसल इस तरीके में डिलीवरी और रिसीविंग में तिगुनी मेहनत लगती है। किशोरावस्था की ओर आ रहे बच्चे, जिनमें सेंस ऑफ रिस्पांसिबिलिटी पनप गई है, वह तो मैनेज कर सकते हैं। मगर छोटी क्लासों के बच्चों के लिए बेहद कठिन दौर है।
मां-बाप की जिम्मेदारी बेहद बढ़ गई है। बच्चों को मोबाइल या टैब दिला देने से काम नहीं चलेगा। उनके साथ समय बिताना, स्टडी पर निगाह रखना उंसके शिक्षकों से नियमित सम्पर्क रखना और बताए अनुसार फॉलो करवाना फिलहाल आपके हिस्से में है।
दिक्कत यह है कि ज्यादातर लोग गलत पेरेंटिंग में बड़े हुए हैं। स्कूल ट्यूशन की फीस, लाने-ले जाने और ‘कंट्रोल’ में रखने तक पेरेंटिंग सीमित रही है। अभी इन रोल्स को री-डिफाइन करना होगा। किताब-कॉपियों में घुसना होगा। दो-चार सवाल करने होंगे। टीचर से बतियाना होगा। और उसकी सलाह से जो भी मानसिक और शारीरिक विकास की गतिविधियां संभव हो, उसे घर पर करवाने की जरूरत है। याद रखिये, इस वक्त आपका घर, बच्चे की जेल है।
पेरेंटिंग से जुड़े हुए वीडियो, यू ट्यूब पर बहुतेरे उपलब्ध है। सपत्नीक देखिये। संबित और रिया को देखने से बेहतर नतीजे आएंगे, इसकी मैं गारंटी लेता हूँ।
पुनश्च यह कहना जरूरी है कि एक डिस्टेंस भी रखें। बच्चा एक इंडिविजुअल है। उसकी प्राइवेसी है, उसकी अपनी होशियारियाँ हैं। सब कुछ आपको पता होना जरूरी नहीं है। अगर पता है, तो यह बताना जरूरी नहीं कि आपको पता है। समझ गए? नहीं समझे?
वो नहीं समझने वाले ही गड़बड़ पेरेंटिंग के प्रोडक्ट है!


