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जब राजस्थान में बंदी रखे गए थे चीनी मूल के तीन हज़ार लोग...!
06-Sep-2020 9:11 AM
जब राजस्थान में बंदी रखे गए थे चीनी मूल के तीन हज़ार लोग...!

देवली में बना बैरक जहां चीनी मूल के लोगों को रखा गया था


- रेहान फ़ज़ल

बात 19 नवंबर, 1962 की है. अचानक दोपहर में शिलॉन्ग के डॉन बॉस्को स्कूल में भारतीय सैनिकों का एक दस्ता पहुंचा और उसने वहाँ पढ़ रहे चीनी मूल के छात्रों को एक जगह जमा करना शुरू कर दिया. उनमें से एक थे- सोलह साल के यिंग शैंग वॉन्ग.

अगले दिन शाम को साढ़े चार बजे भारतीय सिपाहियों के एक दस्ते ने शिंग के घर के दरवाज़े पर दस्तक दी. उन्होंने परिवार को अपने साथ चलने को कहा. सिपाहियों ने शिंग के पिता से कहा कि आप अपने साथ कुछ सामान और पैसे रख लीजिए.

उस दिन यिंग शैंग वॉन्ग के पूरे परिवार को, जिसमें उनके माता-पिता, चार भाई और जुड़वां बहनें थीं, हिरासत में ले लिया गया. उन्हें शिलॉन्ग जेल ले जाया गया.

इतिहास की इस घटना पर 'द देवली वालाज़' नाम के किताब के लेखक दिलीप डिसूज़ा बताते हैं, "1962 में भारत और चीन के बीच लड़ाई हुई थी. तब भारत में रह रहे चीनी मूल के लोगों को शक़ की निगाह से देखा जाने लगा था. इनमें से अधिकतर वो लोग थे जो भारत में पीढ़ियों से रहे थे और सिर्फ़ भारतीय भाषा बोलते थे."

"भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने 'डिफ़ेंस ऑफ़ इंडिया एक्ट' पर हस्ताक्षर किए थे जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को दुश्मन देश के मूल का होने के संदेह पर गिरफ़्तार किया जा सकता था."

"इससे पहले 1942 में अमरीका ने भी पर्ल हार्बर हमले के बाद वहाँ रह रहे क़रीब एक लाख जापानियों को इसी तरह हिरासत में ले लिया गया था."

दिलीप डिसूज़ा

गिरफ़्तार लोगों को एक विशेष ट्रेन में चढ़ाया गया

वॉन्ग परिवार को चार दिन शिलॉन्ग जेल में रखने के बाद गुवाहाटी जेल भेज दिया गया था. वहाँ पाँच दिन बिताने के बाद उन्हें रेलवे स्टेशन ले जाया गया.

वहाँ एक ट्रेन उनका इंतज़ार कर रही थी. ये ट्रेन माकुम स्टेशन से शुरू हुई थी. उस ट्रेन में हिरासत में लिए गए सैकड़ों चीनी मूल के लोगों में 'द देवली वाला' पुस्तक की सह-लेखिका जॉय मा की माँ एफ़ा मा भी थीं.

एफ़ा मा बताती हैं, "इस यात्रा के दौरान हर यात्री को ढाई रुपए प्रति व्यक्ति प्रतिदिन के हिसाब से भत्ता दिया गया था. बच्चों को सवा रुपए प्रतिदिन के हिसाब से पैसे मिलते थे. दोपहर के आसपास ट्रेन रवाना हुई थी और तीन दिनों का सफ़र तय करती हुई राजस्थान में कोटा ज़िले के पास देवली पहुंची थी."

"हमारे साथ सिलिगुड़ी पुलिस के आठ जवान भी चल रहे थे. उन्होंने हमें आगाह किया कि हम न तो डिब्बे के दरवाज़े के पास जाएं और न ही प्लेटफ़ॉर्म पर उतरें. कुछ ही समय में हमें इसका कारण समझ में आ गया. कुछ स्टेशनों पर जैसे ही ट्रेन रुकती, हमारे ऊपर गोबर फेंका जाता."

जॉय मा

ट्रेन पर लिखा गया एनिमी ट्रेन

यिंग शैंग वॉन्ग बताते हैं, "एक स्टेशन पर करीब डेढ़ सौ से दो सौ ग्रामीण जमा हो गए. उनके हाथों में चप्पलें थीं और वो 'चीनी वापस जाओ' के नारे लगा रहे थे. उन्होंने हमारी ट्रेन पर चप्पलों के साथ पत्थर फेंकने शुरू कर दिए."

"हमने दौड़कर अपने डिब्बों की खिड़कियाँ बंद कीं. हम सोच रहे थे कि भीड़ को कैसे पता चला कि इस ट्रेन में चीनी लोग हैं? बाद में मालूम हुआ कि इस ट्रेन के बाहर 'एनिमी ट्रेन' लिखा हुआ था."

इस घटना के बाद से ट्रेन स्टेशन से थोड़ा पहले रुकने लगी ताकि ट्रेन में सफ़र कर रहे लोगों के लिए खाना बनाया जा सके.

इस घटना पर एक और किताब 'डुइंग टाइम विद नेहरू' लिखने वाली यिन मार्श लिखती है, "मेरे पिता का मानना था कि हर स्टेशन पर ट्रेन के रुकने की वजह थी कि भारत सरकार अपने नागरिकों को दिखा सके कि वो चीनियों को भारत पर हमला करने की सज़ा देकर उन्हें जेल में भेज रही है."

मार्श आगे लिखती हैं, "शाम को मेरे पिता ट्रेन अटेंडेंट से कुछ परांठे ले आए. हम और परांठे खाना चाहते थे लेकिन उन पर राशन था और हम सबके हिस्से में सिर्फ़ एक-एक परांठा ही आया. फिर हमें चाय दी गई लेकिन उसका स्वाद इतना ख़राब था कि हमने उसे बिना पिए ही छोड़ दिया."

कड़ी ठंड में बिना गर्म कपड़ों के रात बिताई

तीन दिन चलकर रात में ट्रेन देवली पहुंची. प्रशासन ने कैंप के बाहर एक मेज़ लगा रखी थी जहाँ हर व्यक्ति का विवरण लिखा जा रहा था कि उनके पास कितनी नकद राशि या सोना है.

सब कैदियों को संख्या और आइडेंटिटी कार्ड दिए गए. उनको पीने के लिए चाय और ब्रेड दी गई लेकिन ब्रेड इतनी सख्त थी कि उसे चाय में डुबोकर ही खाया जा सकता था.

दिलीप डिसूज़ा बताते हैं कि "वहाँ सैनिक टेंट लगाए गए थे. वो नवंबर का महीना था. वहाँ रहने वाले कैदी जाड़े में काँप रहे थे. उनके पास कोई गर्म कपड़े नहीं थे."

"चलते समय उनसे कहा कहा गया था कि वो अपने साथ सिर्फ़ एक जोड़ा कपड़ा ही ले कर चलें. वो बुरी तरह थके हुए थे इसलिए सर्दी के बावजूद उनकी आँख लग गई. तभी आधी रात के क़रीब औरतों की आवाज़ सुनाई दी- 'साँप ! साँप !' सारे लोग जागकर बैठ गए." 

देवली कैम्प में बनाए गए किऊ पाओ चेन और उनकी मां अन्तेरी के पहचान पत्र. दोनों पहचान पत्रों में नाम की स्पेलिंग ग़लत लिखी गई है. 

अधपका चावल और जली सब्ज़ियाँ

इस कैंप में खाना बनाने का ठेका बाहरी लोगों को दिया गया था. उन्हें इतने लोगों का खाना बनाने को कोई अनुभव नहीं था. शुरू में कैदियों को आधा पका चावल और जली हुई सब्ज़ियाँ परोसी गईं.

ये सिलसिला करीब दो महीनों तक चला. बाद में जब लोग नाराज़ होने लगे तो कमांडेंट ने हर परिवार को राशन देने की व्यवस्था शुरू की और उनसे कहा गया कि वो अपना खाना खुद बनाएं.

साप्ताहिक राशन में कभी-कभी अंडे, मछली और माँस भी दिया जाता था. 'द देवली वालाज़' पुस्तक की सह-लेखिका जॉय मा बताती हैं, "हर व्यक्ति को हर माह पाँच रुपए दिए जाते थे जिन्हें वो साबुन, टूथपेस्ट और निजी सामान लेने के लिए ख़र्च कर सकते थे. कुछ परिवार वो पैसा भी बचाते थे क्योंकि उन्हें पता नहीं था कि भविष्य में उनके साथ क्या होने वाला है."

यिन शेंग वॉन्ग कहते हैं कि "दिन तो किसी तरह बीत जाता था लेकिन मुझसे रात काटे नहीं कटती थी. मैं अँधेरे में बिस्तर पर लेटे आसमान की तरफ़ देखा करता था लेकिन नींद आने का नाम ही नहीं लेती थी. मैं सिर्फ़ ये सोचा करता था कि मैं यहाँ से कब छूटकर अपने घर जाऊंगा."


अख़बारों में छेद

यिन शेंग वॉन्ग आगे बताते हैं, "गर्मी से बचने के लिए मैं और मेरे दोस्त खिड़कियों और दरवाज़ों पर बोरियों को गीला कर टाँग देते थे जिससे कमरे में अँधेरा और थोड़ी ठंडक हो जाए. वहाँ एक चीज़ की कोई कमी नहीं थी- पानी की. बोरियों को गीला कर हमें लगता था कि हम अपने जीवन को बेहतर करने के लिए कुछ तो कर रहे हैं."

कैंप में मनोरंजन का एक ही साधन हुआ करता था- हिंदी फ़िल्मों का प्रदर्शन. वहां हिंदी फ़िल्में दिखाने के लिए मैदान में स्क्रीन लगाई जाती थी और कैदी अपने कमरों से चारपाई खींच लाते थे और उन पर बैठकर फ़िल्म देखते थे.

जॉय बताती हैं, "रिक्रिएशन रूम में अख़बार तो आते थे लेकिन उनमें छेद होते थे, क्योंकि चीन से संबंधित और राजनीतिक ख़बरों को काटकर अख़बार से अलग कर दिया जाता था. हम लोग पोस्टकार्ड पर अंग्रेज़ी में पत्र लिखा करते थे. हमें पता चला था कि लिफ़ाफ़े में भेजे गए पत्र देर से पहुंचते थे क्योंकि उन्हें सेंसर करने के लिए दिल्ली भेजा जाता था."


2010 में ली गई इस तस्वीर में देवली में बने बैरक कुछ ऐसे दिखे

बूढ़े ऊँट का माँस परोसा

देवली कैंप में रहने वाले एक और बंदी स्टीवेन वैन बताते हैं, "अधिकारियों ने कैंप में रहने वाले लोगों को न तो कोई बर्तन दिए और न ही मग या चम्मच. हम लोग या तो बिस्कुट के टीन के डिब्बों में अपना खाना खाते थे या पत्तों पर."

"हमें ये देख कर बहुत धक्का पहुंचा कि रसोइए चावल को बिना धोए सीधे बोरी से पतीलों में उबालने के लिए डालते थे. चूँकि बहुत सारे लोगों के लिए खाना बनता था, इसलिए अक्सर या तो वो आधा पकता था या जल जाता था".

यिम मार्श लिखती हैं "चूंकि लोग लाइनों में खड़े होकर अपने खाने का बेसब्री से इंतज़ार करते थे, इसलिए रसोइए समय से पहले ही चूल्हे से खाना उतार लेते थे. कई बार तो हम खाना लेने के बाद दोबारा उसे उबालते थे."

"एक बार हमें राशन में मीट करी मिली. लेकिन वो माँस इतना कड़ा था कि हमें लगा कि हम पुराना चमड़ा खा रहे हैं. बाद में हमें ये जानकर बहुत धक्का लगा कि हमें बूढ़े ऊँट का माँस खिला दिया गया था. जब हमने इसका विरोध किया उसके बाद से हमें ऊँट का माँस परोसा जाना बंद हो गया."


चीनी सरकार ने कैम्प में रहने वालों की मदद के लिए जो सामान भेजा था उनमें ये मग भी था.

देवली कैंप में रहने वाले एक और शख़्स माइकेल चेंग बताते हैं, "मैं कैंप में मिलने वाले खाने का स्वाद कभी नहीं भूल सकता, क्योंकि वो लोग खाने में सरसों के तेल का इस्तेमाल करते थे. अब भी जब मैं अपने किसी दोस्त के यहाँ खाने पर जाता हूँ और उनके यहाँ सरसों के तेल के इस्तेमाल होता है तो मुझे देवली कैंप में बिताए अपने दिनों की याद आ जाती है."

"जब हम अपना खाना खुद बनाने लगे तो मैं दूर जाकर लकड़ियाँ चुनकर लाता था. लेकिन कुछ दिनों में वहाँ की सारी लकड़ियाँ ख़त्म हो गई थीं. फिर हम पेड़ों की जड़ों को ईंधन के लिए लाने लगे. हम अपनी गुलेल से कई पक्षी भी मारते थे ताकि हम उन्हें खा सकें."

 
दार्जीलिंग में ली गई इस तस्वीर में किऊ पाओ चेन अपने दादा के साथ हैं.

बर्तन माँजने से त्वचा हुई ख़राब

मार्श यिन लिखती हैं, "मेरे घर वालों ने मुझे बर्तन माँजने की ज़िम्मेदारी दी थी लेकिन हमारे पास बर्तन माँजने के लिए कोई साबुन नहीं था. मैंने भारतीय फ़िल्मों में ग्रामीण औरतों को राख से बर्तन माँजते देखा था. मैंने भी वही तरीका अपनाया और मेरे बर्तन चमकने लगे."

"लेकिन जब बाद में मुझे कैंप से छोड़ा गया तो मेरे हाथ की त्वचा ख़राब हो गई. मेरे हाथों से मेरी खाल इस तरह गिरने लगी जैसे प्याज़ के छिलके गिरते हैं. कई सालों के इलाज के बाद मेरी ये बीमारी ठीक हुई."

लाल बहादुर शास्त्री का देवली कैंप दौरा

शौचालयों में कोई छत नहीं होती थी और कई बार उन्हें बरसते पानी के बीच वहाँ जाना पड़ता था. रोज़ नाश्ते के बाद उनका एक ही शगल होता था फ़ुटबॉल खेलना. दिलचस्प बात ये थी कि पूरे कैंप में सिर्फ़ एक ही फ़ुटबॉल थी.

जॉय मा बताती हैं कि उनकी माँ एफ़ा मा ने उन्हें बताया था कि 1963 में भारत के तत्कालीन गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री देवली कैंप में आए थे. जब हमारी उनसे मुलाक़ात कराई गई तो उन्होंने हम सबसे पूछा जो भारत में रहना चाहते हैं वो एक तरफ़ खड़े हो जाएं और जो चीन जाना चाहते हैं वो दूसरी तरफ़ खड़े हो जाएं.

मेरे पिता और मेरी माँ भारत में रहने वालों की तरफ़ खड़े हो गए थे लेकिन इसके बाद कुछ हुआ नहीं. कुछ महीनों बाद मेरी माँ ने कैंप के कमांडेंट आरएच राव से पूछा कि गृहमंत्री ने हमसे वादा किया था कि जो लोग भारत में रहना चाहते हैं उन्हें उनके घर भेज दिया जाएगा.

कमांडर ने थोड़ा सोचकर जवाब दिया था, "आपने कहा था आप भारत में रहना चाहती हैं. जिस ज़मीन पर आप खड़ी हैं वो भी तो भारत है."

 
दार्जीलिंग में ली गई इस तस्वीर में किऊ पाओ चेन अपनी मां अन्तेरी और बहनों के साथ

युद्धबंदियों को भी रखा गया था देवली कैंप में

इन बंदियों में से अधिकतर ने क़रीब चार साल देवली जेल में बिताए. जहाँ कुछ लोगों की मौत इसी कैंप में हुई, वहीं जॉय मा जैसे कुछ बच्चों ने यहाँ जन्म भी लिया.

न तो चीनी सरकार ने उनकी सुध ली और भारत सरकार भी उन्हें वहाँ रखने के बाद एक तरह से भूल ही गई.

रफ़ीक इलियास ने ज़रूर इस पूरे प्रकरण पर एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म बनाई 'बियॉन्ड बार्ब्ड वायर्स: अ डिस्टेंट डॉन'. साल 1931 से ही ब्रिटिश सरकार देवली कैंप का इस्तेमाल राजनीतिक बंदियों को रखने के लिए करती रही थी.

चालीस के दशक में जयप्रकाश नारायण, श्रीपद अमृत डांगे, जवाहरलाल नेहरू और बीटी रणदिवे को यहाँ कैदी के रूप में रखा गया था. दूसरे विश्व युद्ध में जर्मन, जापानी और इतालवी युद्धबंदियों को भी यहाँ रखा गया. 1947 के विभाजन के बाद पाकिस्तान से भाग कर आए दस हज़ार सिंधियों को भी कुछ दिनों के लिए यहाँ रखा गया.

1957 में इसे सीआरपीएफ़ का एक कैंप बना दिया गया और यहाँ उसकी दो बटालियन तैनात कर दी गईं. 1980 में इसे सीआईएसएफ़ को दे दिया गया. 1984 से यह सीआईएसएफ़ के भर्ती प्रशिक्षण केंद्र के रूप में काम कर रहा है.

 
देवली कैम्प में रह रहे कई लोगों को वहीं नज़दीक बने कब्रिस्तान में दफनाया गया था. यिंग शेंग वॉन्ग के पिता को भी यहीं दफन किया गया था. बाद में जब सिंग शिलॉन्ग लौटे तो वो अपने पिता की अस्थियां अपने साथ ले कर गए.

कुछ बंदी मजबूरी में चीन गए

कुछ दिनों में चीन को पता चल गया कि भारत ने चीनी लोगों के मूल के लोगों को बंदी बनाकर देवली में रखा हुआ है. चीन ने प्रस्ताव दिया कि वो उन लोगों को अपने यहाँ बुलाना चाहता है.

बहुत से बंदियों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और वो चीन चले गए. बहुत से लोग चीन नहीं जाना चाहते थे क्योंकि ये अफ़वाह फैल गई थी कि चीन में सूखा पड़ गया है.

बहुत से लोग इसलिए भी चीन नहीं जाना चाहते थे, क्योंकि पहले उन्होंने कम्युनिस्ट सरकार का विरोध कर ताइवान की सरकार का समर्थन किया था. लेकिन जब उन्होंने देखा कि भारत में उनके लिए कोई भविष्य नहीं है तो उन्होंने बुझे मन से चीन जाने का फ़ैसला किया.

इन लोगों की कई पीढ़ियाँ भारत में रही थीं और वो लोग सिर्फ़ भारतीय भाषाएं हिंदी, बांग्ला या नेपाली बोलते थे. ऐसे में उनके लिए चीन उतना ही विदेशी देश था, जैसे भारत के लिए कोई अफ्रीकी देश.

 
भारत सरकार से माफ़ी की माँग

जेल से छूटने के बाद जब ये लोग अपने पुराने घर पहुंचे तो उन पर दूसरे लोगों का कब्ज़ा हो चुका था. बहुत से दूसरे लोगों ने कनाडा, अमरीका और दूसरे देशों में बसने का फ़ैसला किया. इनमें से बहुत से परिवार आज भी कनाडा के टोरंटो शहर में रहते हैं.

उन्होंने 'एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया देवली कैंप इनटर्नीज़ 1962' के नाम से एक संस्था बनाई है. वर्ष 2017 की शुरुआत में उन्होंने कनाडा में भारतीय उच्चायोग के बाहर प्रदर्शन कर भारत सरकार से उस दुर्व्यवहार के लिए माफ़ी माँगने की माँग रखी.

'द देवली वालाज़' पुस्तक के लेखक दिलीप डिसूज़ा बताते हैं कि "जब उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संबोधित एक पत्र उच्चायोग के अधिकारियों को देने की कोशिश की तो उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया. वो लोग वो पत्र उच्चायोग के गेट पर चिपका कर लौट आए. उन सब लोगों ने एक जैसी टीशर्ट पहन रखी थी जिन पर देवली कैंप के चित्र छपे हुए थे."

 
लौटते समय बस में संगठन के लोगों ने यिन शेंग वॉन्ग से एक गाना गाने की फ़रमाइश की तो लगा कि वो कोई चीनी गाना सुनाएंगे.

लेकिन तभी यिंग शिंग वॉन्ग ने 'दिल अपना और प्रीत पराई' फ़िल्म का गाना गाना शुरू किया, "अजीब दास्ताँ है ये, कहाँ शुरू कहाँ ख़तम...." ये सुनते ही कई लोगों की आँखों में आँसू आ गए.

दिलीप बताते हैं, "इसके दो कारण थे. एक ये कि एक चीनी भारतीय, जिसने कई दशक पहले दुखद परिस्तिथियों में भारत छोड़ दिया था, ओटावा से टोरंटो जाते हुए चलती बस में एक पुराना हिंदी गीत गा रहा है."

"दूसरे मुझे महसूस हुआ कि चीनियों की शक्ल और चमड़ी के रंग के बारे में मेरी धारणा कमोबेश वही थी जिसने एक बार वॉन्ग और उन सरीखे हज़ारों चीनियों को देवली के हिरासत कैंप में भेज दिया था. उनकी सिर्फ़ ये गलती थी कि वो चीनियों जैसे दिखते थे."

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