विचार / लेख

भिलाई गोली-कांड और राजीव धवन
01-Sep-2020 9:12 PM
भिलाई गोली-कांड और राजीव धवन

-राकेश दीवान
आज से ठीक 28 साल पहले, एक जुलाई 1992 को भिलाई रेलवे स्टेशन के पास ‘छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा’ के विशाल धरने पर पुलिस ने गोली चालन किया था और उसमें 17 मजदूर साथी शहीद हुए थे। लगभग सालभर पहले, 28 सितम्बर 1991 को संगठन के वरिष्ठ साथी और ख्यात मजदूर नेता कॉमरेड शंकरगुहा नियोगी की हत्या हुई थी और ग्यारह महीने बाद संगठन को इस संकट का सामना करना पड रहा था। गोलीकांड के तुरत बाद भिलाई और उसके आसपास कर्फ्यू लगा दिया गया था और संगठन के सभी नेताओं, मित्रों, समर्थकों को गिरफ्तार करने की तैयारी हो रही थी। किसी तरह छिपते-छिपाते बाहर आए ‘छमुमो’ के अघ्यक्ष कॉमरेड जनकलाल ठाकुर ने मुझे फोन पर सारी जानकारी देकर कहा कि मैं तुरंत रायपुर पहुंचूं। तब तक देशभर में इस घटना का प्रतिकार शुरु हो गया था और दिल्ली के कुछ साथियों ने पत्रकार-स्तंभकार प्रफुल्ल बिदवई, साहित्यकार व ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव और वरिष्ठ वकील राजीव धवन की एक जांच समिति का गठन करके भिलाई रवाना किया था।

रायपुर पहुंचने के तुरंत बाद मुझे जो काम करना पड़ा वह इस जांच दल के सचिव/सहायक का था। असल में दिल्ली में लोक-चित्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता अविनाश देशपांडे को, जो ‘छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा’ और उस इलाके को ठीक जानते थे, जांच समूह के सचिव की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, लेकिन वे किसी गफलत में नहीं आ सके थे। करीब तीन दिन की जांच के दौरान बिदवई और यादव ने तो लोगों से विस्तार से जानकारियां इकट्ठी की थीं, लेकिन राजीव धवन (हाल के मानहानि प्रकरण में प्रशांत भूषण के वकील) बेहद बारीकी से घटना-स्थल से लगाकर धरना-स्थल तक की एक-एक जानकारी की विस्तृत पड़ताल करते रहे। धवन को बड़ी सहजता और तनाव-मुक्ति के साथ काम करते देखना एक अनुभव तो था, लेकिन असल संकट तो तब आया जब इस समिति की रिपोर्ट लिखना पड़ी।

दिल्ली लौटते ही राजेन्द्र यादव अपनी पत्रिका और प्रफुल्ल बिदवई अपने पूर्व-निर्धारित कामकाज में फंस गए और अंत में ‘रिपोर्ट-राइटिंग’ की जिम्मेदारी राजीव धवन के माथे पड़ी। उन दिनों लगभग रोज महारानी बाग स्थित उनके घर में घंटों यादव और बिदवई के नोट्स खंगालकर उनमें अपनी जांच को जोडक़र रिपोर्ट लिखने की मशक्कत करते हुए धवन को देखना भी एक अनुभव था। एक साथी झरना झवेरी के साथ मेरी भूमिका संगठन और उसके कार्यक्षेत्र की जानकारियां उपलब्ध करवाने की रहती थी और इसलिए लगातार उनके साथ जमकर बैठना होता था। धवन को देखकर समझ आया कि एक ठीक संपादक की तरह एक ठीक-ठाक वकील को हरेक नहीं, तो अधिकांश क्षेत्रों का जानकार होना ही पड़ता है। धवन जिस तरह से ठेठ पुलिसवाले की तरह रिपोर्ट के कठोर तथ्य लिखवाते थे, उसी तरह उसमें बेहतरीन साहित्य का पुट भी डालते थे ताकि पढऩे वाला रुचि के साथ उसे पढ़े और निष्कर्ष निकाले।

राजीव धवन ने प्रशांत के मामले में सुप्रीमकोर्ट के सामने फिर अपनी विद्वता और व्यापक समझ का प्रदर्शन किया है। एक जुलाई के ‘शहीद दिवस’ पर कुछ कमाल के सक्षम साथियों को याद करना इसीलिए जरूरी है। और हां, भिलाई की तमाम मेहनत-मशक्कत में पूंजी, अपनी अहमियत साबित करने के लिए सिर्फ टापती भर रही। यह बात हम सभी को आश्वस्त करती है कि देश में अब भी राजीव धवन सरीखे कुछ लोग मौजूद हैं।


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