विचार / लेख
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- ज़ुबैर अहमद
आधुनिक भारत में ऐसे कम ही नेता होंगे जो पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के क़द को छू सकेंगे.
एक युवा नेता की महत्वाकांक्षा निश्चित रूप से प्रणब मुखर्जी की कामयाबियों तक पहुंचने की होगी जिन्होने एक शानदार राजनीतिक यात्रा के बाद 31 अगस्त को दिल्ली के एक सैनिक अस्पताल में आँखें मूँदीं.
वो 10 अगस्त को इस अस्पताल में मस्तिष्क की सर्जरी के लिए भर्ती हुए थे जहाँ उनका कोरोना वायरस का टेस्ट भी हुआ और वो पॉज़िटिव पाए गए. सर्जरी से पहले उन्होंने ख़ुद ही ट्वीट कर अपने कोरोना संक्रमित होने की जानकारी दी थी.
पाँच दशकों से अधिक के अपने लंबे सियासी करियर में, प्रणव मुखर्जी ने लगभग सब कुछ हासिल कर लिया.
साल 2012 से 2017 तक राष्ट्रपति रहे प्रणब मुखर्जी को किसी एक ख़ास श्रेणी में डालना मुश्किल होगा. अगर वो एक राजनयिक थे तो वो एक अर्थशास्त्री के रूप में भी देखे जाते थे.
शुरू में वो शिक्षक भी रहे और पत्रकार भी. वो रक्षा मंत्री भी रहे और विदेश और वित्त मंत्री भी. प्रणब मुखर्जी भारतीय बैंकों की समितियों से लेकर वर्ल्ड बैंक के बोर्ड के सदस्य भी रहे. उनके नाम लोकसभा की अध्यक्षता भी रही और कई सरकारी समितियों की भी.
प्रधानमंत्री न बनने का दुख
प्रणब मुखर्जी के बायोडेटा में केवल एक कमी रह गयी: प्रधानमंत्री के पद की, जिसके वो 1984 और 2004 में दावेदार माने गए थे. इंदिरा गाँधी की निगरानी में परवान चढ़ने वाले नेता शायद ख़ुद को इस पद का हक़दार भी मानते थे. लेकिन ये पद उन्हें कभी हासिल नहीं हुआ ठीक उसी तरह से जिस तरह से बीजेपी के लाल कृष्ण आडवाणी को ये पद कभी नसीब नहीं हुआ.
कांग्रेस में उनकी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी से 2015 में हुई एक बात-चीत के दौरान ये बात साफ़ निकल कर आयी कि उनके पिता को प्रधानमंत्री न बनने का अफ़सोस था लेकिन वो पार्टी के एक वरिष्ठ नेता होने के कारण इसका इज़हार खुल कर नहीं कर सके.
2012 में जब उन्हें राष्ट्रपति बनाया गया तो ज़ाहिर है उसके बाद वो इस मुद्दे पर बात करने को सही नहीं समझते थे.
कांग्रेस पार्टी के अलग-अलग ख़ेमों में प्रधानमंत्री के लिए उनके नाम पर किसी को आपत्ति नहीं थी लेकिन सियासी विश्लेषकों के अनुसार गांधी परिवार के विश्वासपात्र न होने की वजह से वो किनारे कर दिए गए.
कहा जाता है कि पिछले साल बीजेपी ने प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न देकर ये जताना चाहा था कि गाँधी परिवार के क़रीबी न होने के कारण उन्हें वो कुछ नहीं मिला जिसके वो हक़दार थे.
इसके एक साल पहले भी उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या आरएसएस के एक आयोजन में मुख्य अतिथि बनाया गया था. इस सम्मान का मतलब भी ये लगाया गया था कि जो इज़्ज़त उन्हें उनकी अपनी कांग्रेस पार्टी ने नहीं दी वो बीजेपी और आरएसएस ने दी. उस समय उनकी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी तक ने अपने पिता के फ़ैसले पर सवाल उठाया था.

आरएसएस के मंच से प्रभावशाली भाषण
लेकिन वरिष्ठ नेता को पता था वो आरएसएस के मंच से क्या पैग़ाम देना चाहते थे.
प्रणब मुखर्जी ने 7 जून 2018 को नागपुर में आरएसएस मुख्यालय में जो भाषण दिया वो कभी भुलाया नहीं जा सकता.
उन्होंने राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देश भक्ति को लेकर जो कुछ कहा, उससे ये स्पष्ट हो गया कि मंच भले ही अलग हो, उनकी सोच में कोई भी फ़र्क़ नहीं आया है.
उन्होंने ने अपने भाषण में भारत की असली राष्ट्रीयता पर बल दिया, ''भारत की राष्ट्रीयता एक भाषा और एक धर्म में नहीं है. हम वसुधैव कुटुंबकम् में भरोसा करने वाले लोग हैं. भारत के लोग 122 से ज़्यादा भाषा और 1600 से ज़्यादा बोलियां बोलते हैं. यहां सात बड़े धर्म के अनुयायी हैं और सभी एक व्यवस्था, एक झंडा और एक भारतीय पहचान के तले रहते हैं.''
प्रणब मुखर्जी ने कहा, ''हम सहमत हो सकते हैं, असहमत हो सकते हैं, लेकिन हम वैचारिक विविधता को दबा नहीं सकते. 50 सालों से ज़्यादा के सार्वजनिक जीवन बिताने के बाद मैं कह रहा हूं कि बहुलतावाद, सहिष्णुता, मिलीजुली संस्कृति, बहुभाषिकता ही हमारे देश की आत्मा है.''
पूर्व राष्ट्रपति ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि विविधता में एकता ही भारत की असली पहचान है, ''नफ़रत और असहिष्णुता से हमारी राष्ट्रीय पहचान ख़तरे में पड़ेगी. जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि भारतीय राष्ट्रवाद में हर तरह की विविधता के लिए जगह है. भारत के राष्ट्रवाद में सारे लोग समाहित हैं. इसमें जाति, मज़हब, नस्ल और भाषा के आधार पर कोई भेद नहीं है.''
सियासी करियर की शुरुआत
एक विनम्र पृष्ठभूमि से आने वाले 84 वर्ष के मुखर्जी का जन्म 11 दिसंबर 1935 को पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गाँव मिराटी में हुआ था.
उनके पिता कांग्रेस पार्टी के एक स्थानीय नेता भी थे और स्वतंत्रता सेनानी भी. उन्होंने इतिहास और राजनीति विज्ञान में मास्टर डिग्री और साथ ही साथ कोलकाता विश्वविद्यालय से क़ानून की डिग्री प्राप्त की. फिर उन्होंने अपने पेशेवर जीवन की शुरुआत कॉलेज के शिक्षक और पत्रकार के रूप में की.
1969 में प्रणब मुखर्जी का राजनीतिक कैरियर 34 साल की उम्र में राज्य सभा के सदस्य बनने से शुरू हुआ. इंदिरा गाँधी की निगरानी में उनका सियासी सफ़र तेज़ी से आगे बढ़ने लगा जिसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा.
लेकिन उनका सितारा उस समय गर्दिश में आया जब 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधान मंत्री बने जिन्होंने मुखर्जी को अपने मंत्रिमंडल में जगह नहीं दी.
वो उस वाक़या को अपनी पुस्तक "The Turbulent Years 1980-1996" ("द टर्बुलेंट इयर्स 1980-1996) में याद करते हुए कहते हैं, "मैं कॉल का इंतज़ार करता रहा. राजीव के मंत्रिमंडल से बाहर किया जाना मेरे दिमाग़ में भी नहीं था. मैंने कोई अफ़वाह भी नहीं सुनी थी... जब मैंने मंत्रिमंडल से अपने निष्कासन के बारे में जाना, तो मैं स्तब्ध रह गया और आगबबूला हो गया. मुझे यक़ीन नहीं हुआ."

बुरे दिन
प्रणब मुखर्जी का इससे भी बुरा वक़्त उस समय आया जब उन्हें पार्टी से छह साल के लिए निकाल दिया गया. ये क़दम उनके ख़िलाफ़ उस समय उठाया गया जब उन्होंने उस वक़्त के इलस्ट्रेटेड वीकली पत्रिका के संपादक प्रीतीश नंदी को एक इंटरव्यू दिया था.
पूर्व राष्ट्रपति अपनी किताब में पार्टी से निकाले जाने के बारे में लिखते हैं, "उन्होंने (राजीव गाँधी) ने ग़लतियाँ कीं और मैंने भी कीं. उन्होंने दूसरों को अपने ऊपर प्रभाव डालने दिया दूसरों ने मेरे ख़िलाफ़ कान भरे. मैं भी अपनी निराशा पर क़ाबू नहीं रख पाया."
कांग्रेस पार्टी में उनकी वापसी यूँ तो 1988 में हुई लेकिन 1991 में पार्टी की आम चुनाव में जीत और नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी क़िस्मत बदली और जब 2004 के आम चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनी और ये साफ़ हो गया कि सोनिया गाँधी प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहतीं तो प्रधानमंत्री पद के लिए उनका नाम लिया जाने लगा.
वो अपनी पुस्तक "The Coaltion Years 1995-2012 (द कोएलिशन इयर्स 1995-2012) में इस बात को स्वीकार करते हैं और कहते हैं, "प्रचलित अपेक्षा ये थी कि सोनिया गांधी के मना करने के बाद मैं प्रधानमंत्री के लिए अगली पसंद बनूंगा."
प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री न बन सके लेकिन रक्षा और वित्त मंत्री की हैसियत से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के क़रीबी सहयोगी बने रहे.
पार्टी की भी सेवा करते रहे जिससे उनकी "मिस्टर डिपेंडेबल" की छवि और मज़बूत बनी. इसका ज़िक्र उन्होंने ख़ुद अपनी पुस्तक में किया है.
राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने इस पद को गंभीरता से लिया और 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार से संबंध अच्छे रखे.
आख़िरी दिन तक प्रणब मुखर्जी एक सच्चे लोकतंत्रवादी बने रहे. आज के दौर में जहाँ नेता विचारधारा की परवाह किये बग़ैर दल बदलने में एक पल के लिए नहीं सोचते वहीं पूर्व राष्ट्रपति अपनी एक अलग पहचान बना कर, अपनी विरासत छोड़ कर गए हैं.(bbc)


