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तमाम कोशिशों के बावजूद बाज़ार के हालात सुधर क्यों नहीं रहे?
31-Aug-2020 9:31 AM
तमाम कोशिशों के बावजूद बाज़ार के हालात सुधर क्यों नहीं रहे?

- तारेंद्र किशोर

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल ही में बयान दिया है कि अर्थव्यवस्था कोविड-19 के रूप में एक दैवीय घटना (एक्ट ऑफ गॉड) की वजह से प्रभावित हुई है. इससे चालू वित्त वर्ष में इसमें संकुचन आएगा.

जीएसटी काउंसिल की बैठक के बाद मीडिया से मुख़ातिब होते हुए वित्त मंत्री ने ये बात कही थी.

सोमवार को सरकार अप्रैल से जून 2020 तिमाही के लिए जीडीपी ग्रोथ के आंकड़े जारी करने वाली है.

इसके ठीक पहले वित्त मंत्री का यह बयान संकेत देता है कि इस तिमाही में जीडीपी ग्रोथ शायद कम रहने वाली है.

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के इस बयान पर अब पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम ने निशाना साधते हुए ट्वीट किया है.

उन्होंने ट्वीट में लिखा है, "अगर ये महामारी ईश्वर की क़रतूत है तो हम महामारी के पहले 2017-18, 2018-19 और 2019-2020 के दौरान हुए अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन का वर्णन कैसे करेंगे? क्या ईश्वर के दूत के रूप में वित्त मंत्री जवाब देंगी."

नहीं संभल पा रही है अर्थव्यवस्था

कोरोना की वजह से लगे लॉकडाउन से आर्थिक गतिविधियाँ पूरी तरह से ठप पड़ गई थीं जिसकी वजह से भारत समेत दुनिया के कई देशों की अर्थव्यवस्था बुरी तरह से प्रभावित हुई है.

समाचार एजेंसी रॉयटर्स के एक पोल के मुताबिक़, भारत की अब तक दर्ज सबसे गहरी आर्थिक मंदी इस पूरे साल बरक़रार रहने वाली है.

इस पोल के मुताबिक़ कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों की वजह से अब भी खपत में बढ़ोतरी नहीं दिख रही है और आर्थिक गतिविधियों पर लगाम लगी हुई है.

इस पोल के मुताबिक़ चालू तिमाही में अर्थव्यवस्था के 8.1 प्रतिशत और अगली तिमाही में 1.0 प्रतिशत सिकुड़ने का अनुमान है. यह स्थिति 29 जुलाई को किए गए पिछले पोल से भी ख़राब है.

उसमें चालू तिमाही में अर्थव्यवस्था में 6.0 फ़ीसदी और अगली तिमाही में 0.3 प्रतिशत की कमी आने का अनुमान था.

भारत सरकार ने लॉकडाउन से प्रभावित अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए मई में 20 लाख करोड़ के आर्थिक राहत पैकेज की घोषणा की थी. इस पैकेज के तहत 5.94 लाख करोड़ रुपये की रकम मुख्य तौर पर छोटे व्यवसायों को क़र्ज़ देने और ग़ैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों और बिजली वितरण कंपनियों की मदद के नाम पर आवंटित करने की घोषणा की गई थी.

इसके अलावा 3.10 लाख करोड़ रुपये प्रवासी मज़दूरों को दो महीने तक मुफ़्त में अनाज देने और किसानों को क़र्ज़ देने में इस्तेमाल करने के लिए देने की घोषणा की गई. 1.5 लाख करोड़ रुपये खेती के बुनियादी ढाँचे को ठीक करने और कृषि से जुड़े संबंधित क्षेत्रों पर ख़र्च करने के लिए आवंटित करने की घोषणा की गई.

इस पैकेज के ऐलान को भी अब तीन महीने बीत चुके हैं. बाज़ार भी अधिकांश जगहों पर खुल चुके हैं. भारतीय रिज़र्व बैंक भी मार्च से ब्याज़ दरों में 115 बेसिस पॉइंट्स की कमी कर चुका है. लॉकडाउन के दौरान लोगों को बैंक से लिए कर्ज़ पर राहत देने की भी बात कही गई.

सरकार की कोशिशें नाकामयाब क्यों?

लेकिन इन तमाम प्रयासों के बावजूद अर्थव्यवस्था संभलती नहीं दिख रही है तो क्यों. केंद्र सरकार ने चालू वित्त वर्ष में जीएसटी राजस्व प्राप्ति में 2.35 लाख करोड़ रुपये की कमी का अनुमान लगाया है.

जानकार मानते हैं कि बाज़ार खुलने के बाद भी चूंकि डिमांड में कमी है इसलिए अभी बाज़ार के हालत सुधरते नहीं दिख रहे हैं. सरकार की ओर से उठाए गए क़दमों का बाज़ार पर कोई असर क्यों नहीं दिख रहा है?

योजना आयोग के पूर्व सदस्य अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा का मानना है कि सबसे बड़ी ग़लती सरकार ने ये की है कि उसने लॉकडाउन के क़रीब पौने दो महीने बाद आर्थिक राहत पैकेज की घोषणा की.

इसके अलावा वो आर्थिक पैकेज के नाकाफ़ी होने और उसकी कमियों की भी बात करते हैं. वो कहते हैं, "आर्थिक पैकेज में कहा गया है कि सूक्ष्म, लुघ और मध्यम उद्योगों का जो बकाया पैसा है वो वापस करेंगे. ये तो उन्हीं का पैसा है तो यह तो करना ही था. इसे आर्थिक पैकेज में शामिल करने का क्या मतलब है. इसके अलावा इनकम टैक्स के अंतर्गत जो अतिरिक्त पैसा चला जाता है, उसे भी आर्थिक पैकेज में शामिल करने की बात कही गई. ये तो जनता का पैसा ही जनता को लौटाना हुआ. ये किस तरह का अर्थिक पैकेज था."

बाज़ार में मांग की कमी क्यों?

बाज़ार में डिमांड की कमी पर संतोष मेहरोत्रा कहते हैं कि डिमांड तब होगी जब लोगों के पास पैसा होगा और ये पैसा आज की तारीख़ में कॉरपोरेट्स को छोड़कर किसी के पास नहीं है. सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स घटाकर 30 प्रतिशत से 25 प्रतिशत कर दिया. इससे सीधे एक लाख करोड़ का नुक़सान तो सबसे पहले सरकार के राजस्व का हुआ और दूसरा इसके एवज़ में ना कॉरपोरेट ने अपना खर्च बढ़ाया और ना ही अपना निवेश. तो सरकार ने इस कदम से अपनी बदतर होती राजस्व की स्थिति को और नुक़सान में डाल दिया.

जब जीडीपी के आंकड़े कमज़ोर होते हैं तो हर कोई अपने पैसे बचाने में लग जाता है. लोग कम पैसा खर्च करते हैं और कम निवेश करते हैं इससे आर्थिक ग्रोथ और सुस्त हो जाती है.

ऐसे में सरकार से ज़्यादा पैसे खर्च करने की उम्मीद की जाती है. सरकार कारोबार और लोगों को अलग-अलग स्कीमों के ज़रिए ज़्यादा पैसे देती है ताकि वे इसके बदले में पैसे खर्च करें और इस तरह से आर्थिक ग्रोथ को बढ़ावा मिल सके. सरकार की ओर से इस तरह की मदद अक्सर आर्थिक पैकेज के तौर पर की जाती है.

संतोष मेहरोत्रा बताते हैं कि आर्थिक प्रोत्साहन का मतलब होता है टैक्स काटना और खर्च बढ़ाना. सरकार ने पर्सनल इनकम टैक्स और कॉरपोरेट टैक्स दोनों ही घटा दिया. पर्सनल इनकम टैक्स 2019 के चुनाव से पहले ही सरकार ने ढाई लाख से पांच लाख कर दिया था. इससे हुआ यह कि इनकम टैक्स देने वालों की संख्या छह करोड़ से घटकर डेढ़ करोड़ रह गई.

बाज़ार मांग की चुनौती से कैसे उबर पाएगा?

अर्थव्यवस्था अभी जिस दुश्चक्र में फंस गई है उससे कैस उबर पाएगी?

अर्थशास्त्री मानते हैं कि लोग बाज़ार में खरीदारी करने को प्रोत्साहित हो और बाज़ार में डिमांड में बढ़े, इन्हीं तरीक़ों से बाज़ार को फिर से पटरी पर लाया जा सकता है.

इसके लिए संतोष मेहरोत्रा सरकार को और कर्ज़ लेने और उसे सीधे लोगों के हाथ में पुहँचाने की सलाह देते हैं. वो कहते हैं, "सरकार को अर्बन मनरेगा इन हालात से निपटने के लिए शुरू करना पड़ेगा. इससे कुछ कामगार शहर वापस लौटे आएंगे. दूसरी ओर इससे मनरेगा पर पड़ने वाला भार कुछ कम होगा. इसके अलावा सरकार पीएम किसान योजना जैसी कोई न्यूनतम आय गारंटी योजना ला सकती है. इसमें मेरे सुझाव में 70 प्रतिशत ग्रामीण और 40 प्रतिशत शहरी इलाक़ों के परिवार को शामिल किया जा सकता है. इन्हें एक न्यूनतम राशि सीधे कैश ट्रांसफर के तौर पर दिया जाए ताकि लोगों को खर्च करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके. उनकी जेब में पैसे आएंगे तो वो खर्च करेंगे और फिर बाज़ार में डिमांड बढ़ेगी."

इसके अलावा वो स्वास्थ्य सेवाओं को और सुदृढ़ बनाए जाने पर ज़ोर देने की बात करते हैं क्योंकि आने वाले वक़्त में लगता है कि कोरोना की चुनौती बढ़ने वाली है. इसलिए उस मोर्च पर भी मजबूत रहना ज़रूरी है, नहीं तो अर्थव्यवस्था को होने वाले नुकसान को रोका नहीं जा सकेगा.

संतोष मेहरोत्रा कहते हैं कि इन उपायों पर उतना ज़्यादा खर्च भी नहीं आने वाला है और दूसरी बात यह कि सरकार को कर्ज़ तो लेना ही होगा. इसमें हिचकने की ज़रूरत नहीं है.

वो कहते हैं कि मैक्रो इकॉनॉमिक्स का एक चक्र होता है. अगर अर्थव्यवस्था चल पड़ी तो आपका कर राजस्व फिर से पटरी पर आ जाएगा.(bbc)


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