विचार / लेख
उसके बिना दवा कहां से लाएगा भारत ?
नितिन श्रीवास्तव बीबीसी संवाददाता
क्या आपको डायबिटीज़, ब्लड-प्रेशर, थाइरॉइड या गठिया जैसे किसी बीमारी के लिए दवा खानी पड़ती है?
क्या आपके किसी जानने वाले का कोलेस्ट्रोल बढ़ने पर डॉक्टर ने उसे चंद हफ़्तों की दवा का कोर्स कराया है क्योंकि इसका बढ़ना हार्ट के लिए अच्छा नहीं होता.
आपमें बहुतों ने सर्दी, खाँसी या बुखार के दौरान पैरासिटामोल वाली कोई न कोई दवा ज़रूर खाई होगी. ज़्यादा दिन वायरल या इंफ़ेक्शन रहने पर डॉक्टर ने आपको एंटिबायोटिक का कोर्स कराया होगा.
हो सकता है आपके घर, रिशेतदारी, पड़ोस या दफ़्तर में किसी को कैंसर हुआ हो और उनके इलाज में कीमोथेरेपी का सहारा लिया गया हो.
अगर किसी में भी हाँ, है तो इस बात की संभावना ज़्यादा है कि इनमें से कई दवाओं में भारत के पड़ोसी चीन का भी गहरा योगदान हो.
भारत-चीन विवाद
ये पड़ताल इसलिए हो रही है क्योंकि एक-दूसरे से गहरे व्यापारिक संबंध रखने वाले इन दोनों पड़ोसियों में इन दिनों अप्रत्याशित तनाव चल रहा है.
पिछले कई हफ़्तों से लद्दाख क्षेत्र में दोनों देशों की सीमा- वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी), पर जारी तनाव बढ़ता गया और आख़िरकार गलवान घाटी में भारत-चीन सैनिकों के बीच 'घंटों चली हाथापाई और झड़प में 20 भारतीय सैनिकों की मौत हुई और 76 अन्य घायल हुए.
चीन की तरफ़ से अभी तक हताहतों या घायलों पर कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है.
मामला गर्म इसलिए भी हुआ कि पूरे 45 साल बाद एलएसी पर दूसरे देश की फ़ौज के हाथों किसी भारतीय सैनिक की जान गई.
भारत में घटना की निंदा होने के साथ ही चीन से आयात होने वाली वस्तुओं के बहिष्कार और बैन की मांग बढ़ने लगी जबकि केंद्र सरकार ने अभी इस तरह के किसी फ़ैसले की बात नहीं कही है.
भारत के रेल और टेलिकॉम मंत्रालयों ने भविष्य में होने कुछ आयात पर रोक लगाने की ओर इशारा ज़रूर किया है.
इस बीच कन्फ़ेडरेशन ऑफ़ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (सीएआईटी) ने बहिष्कार किए जाने वाले 500 से अधिक चीनी उत्पादों की सूची भी जारी की है.
भारत के कई शहरों में चीनी सामान का बहिष्कार करने वाले विरोध-प्रदर्शन भी हुए.
चीन की दवाई भारत में
पिछले दो दशकों में भारत और चीन के बीच का व्यापार 30 गुना बढ़ा है. यानी जहाँ 2001 में कुल व्यापार तीन अरब डॉलर का था तो 2019 आते-आते ये 90 अरब डॉलर छू रहा था.
इस व्यापार में जिन चीज़ों की मात्रा तेज़ी से बढ़ी है उनमें दवाइयाँ शामिल हैं. ख़ासतौर से पिछले एक दशक के दौरान जब दवाइयों के आयात में 28% का उछाल दर्ज किया गया.
भारतीय वाणिज्य मंत्रालय के आँकड़े बताते हैं कि 2019-20 के दौरान भारत ने चीन से 1,150 करोड़ रुपए के फ़ार्मा प्रॉडक्ट्स आयात किए जबकि इसी दौरान चीन से भारत आने वाले कुल आयात क़रीब 15,000 करोड़ रुपए के थे.
बात दवाओं की हो तो जेनेरिक दवाएं बनाने और उनके निर्यात में भारत अव्वल है. साल 2019 में भारत ने 201 देशों से जेनेरिक दवाई बेची और अरबों रुपए की कमाई की.
लेकिन आज भी भारत इन दवाओं को बनाने के लिए चीन पर निर्भर है और दवाओं के प्रोडक्शन के लिए चीन से एक्टिव फ़ार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट्स (API) आयात करता है. इसे दवाइयां बनाने का कच्चा माल या बल्क ड्रग्स के नाम से जाना जाता है.
इंडस्ट्री के जानकार बताते हैं कि भारत में दवा बनाने के लिए आयात होने वाली कुल बल्क ड्रग्स या कच्चे माल में से 70% तक चीन से ही आता है.
चीन की निर्यात स्ट्रैटिजी पर "कम्पिटिटिव स्टडीज़: लेसन्स फ़्रोम चाइना" नाम की किताब के लेखक और गुजरात फ़ार्मा एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉक्टर जयमन वासा का मानना है, "इस तथ्य को स्वीकार कर लेना चाहिए कि चीन से आयात किए बिना हमें दिक्क़त हो सकती है."
उन्होंने बताया, "भारत सरकार जब तक ज़्यादा से ज़्यादा फ़ार्मा पार्क या ज़ोन नहीं बनाएगी तब तक चीन की बराबरी करना मुश्किल है क्योंकि उनका शोध बेहद ठोस है. इस बराबरी तक पहुँचने में हमें कई साल लग जाएंगे."
हक़ीक़त यही है कि भारत में एपीआई (API) का उत्पादन बहुत कम है और जो एपीआई भारत में बनाया जाता है उसके फ़ाइनल प्रोडक्ट बनने के लिए भी कुछ चीज़ें चीन से आयात की जाती हैं.
यानी भारतीय कंपनियां एपीआई या बल्क ड्रग्स प्रोडक्शन के लिए भी चीन पर निर्भर हैं.
अंतरराष्ट्रीय फ़ार्मा एलायंस के सलाहकार और जायडस कैडिला ड्रग कंपनी के पूर्व मैन्यूफ़ैकचरिंग प्रमुख एसजी बेलापुर के मुताबिक़, "चीन से बल्क ड्रग (API) आयात करने की प्रमुख वजह कम क़ीमत है. वहाँ से आने वाली बल्क ड्रग की क़ीमत दूसरे देशों को तुलना में 30 से 35% कम होती है (इसमें भारत भी शामिल है) और ऐंटिबयोटिक या कैंसर के इलाज की दवाओं के मामले में तो भारत चीन पर ज़्यादा निर्भर है".
तो डायबिटीज़, ब्लड-प्रेशर, थाइरॉड, गठिया, वायरल इंफ़ेक्शंस के लिए कच्चा माल या फिर कई प्रकार के सर्जिकल औजार और मेडिकल मशीनें, चीन से भारत आयात होने वाले फ़ार्मा उत्पादों की फ़ेहरिस्त लंबी है.
विशेषज्ञों की मानें तो भारत में पेनसिलिन और ऐजिथ्रोमायसीन जैसी एंटिबायोटिक्स के उत्पादन में इस्तेमाल होने वाली 80 फ़ीसदी बल्क ड्रग या कच्चे माल का आयात चीन से होता है.
बिजली की भूमिका
चीन में दवाओं के निर्माताओं से लगातार मिलने वाले और ड्रग रिसर्च मैन्युफ़ैक्चरिंग के विशेषज्ञ डॉक्टर अनुराग हितकारी का कहना है कि, "चीन से बल्क ड्रग्स या कच्चे माल के आयात की बड़ी वजह दवा के दामों को प्रतिस्पर्धी बनाए रखना है."
उन्होंने कहा, "एपीआइ या बल्क ड्रग्स के उत्पादन में बिजली का बड़ा योगदान रहता है. हाल कुछ समय पहले तक चीन में बिजली की क़ीमत भारत की तुलना में बहुत कम थी जिससे पूरी लागत कम आती थी. दूसरे, चीन की फ़ार्मा इंडस्ट्री देश की यूनिवर्सिटीज में होने वाले निरंतर शोध से जुड़ी रहती हैं जो दवा बनाने की रीढ़ की हड्डी माना जाता रहा है. किसी नई रिसर्च के होते ही उसे उत्पादन के उपयोग में लाने में उन्हें महारथ है."
ज़ेज़ियांग, गुआंगडांग, शंघाई, जियांगसू, हेबेयी, निंगशिया, हारबिन जैसे कुछ चीनी प्रांत है जहाँ से दवाओं को बनाने वाली बल्क ड्रग्स भारत आयात करता है.
डॉक्टर अनुराग ने बताया, "इस कच्चे माल को इन प्रांतों से बीजिंग, शंघाई या हॉन्ग कॉन्ग के बंदरगाहों से ज़रिए भारत लाया जाता है".
रहा सवाल चीन से आने वाली 'सस्ती बल्क ड्रग्स' और उनकी क्वालिटी का, तो जायडस कैडिला ड्रग कम्पनी के पूर्व मैन्यूफ़ैकचरिंग प्रमुख एसजी बेलापुर ने कहा, "पहले तो कोई दिक्क़त नहीं होती थी लेकिन अब भारतीय ख़रीदारों को इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता है कि वेंडर्स कौन हैं".
उनके मुताबिक़, "ऐहतियात न बरतने पर कभी-कभी कच्चे माल की गुणवत्ता बेहद ख़राब भी हो सकती है."
ऐसा नहीं है कि सीमा पर तनाव के चलते भारत में चीन से आयात होने वाली चीज़ों पर निर्भरता कम करने की मांग पहली बार उठ रही है.
2017 में भी दोनों देशों के सैनिकों के बीच डोकलाम में अच्छी-ख़ासी हाथापाई होने के बाद सीमा पर तनाव फैल गया था. तब भी चीन पर इस तरह की पाबंदी लगाने की बात होने लगी थी.
भारत के फ़ार्मा उद्योग से भी इस तरह के स्वर सुनाई दिए थे जिनमें कहा गया था कि देश में एक्टिव फ़ार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट्स (API) आत्म-निर्भरता लाने की ज़रूरत है लेकिन आँकड़े इशारा करते हैं कि आयात में कोई कमी नही आई.
2019 में जब चीन के वुहान प्रांत से कोरोना वायरस के संक्रमण और फिर लॉकडाउन की ख़बरें आनी शुरू हुईं तो भारतीय फ़ार्मा क्षेत्र में भी हड़कंप मच गया था क्योंकि बिना बल्क ड्रग्स या कच्चे माल के आयात के जेनेरिक दवाओं का उत्पादन भी संभव नहीं.
गुजरात फ़ार्मा एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉक्टर जयमन वासा की राय साफ़ है, "अगर मैं कहूँ कि कोविड-19 की चुनौती मुश्किल समय में भारतीय फ़ार्मा सेक्टर के लिए एक बड़ा मौक़ा है तो ग़लत नहीं होगा. दवाओं के मामले में हमें चीन पर निर्भरता काम करनी है और इसके लिए सरकार की मदद भी ज़रूरी है."
एक सवाल ये भी उठता है कि अगर भारत को बल्क ड्रग्स आत्म-निर्भर बनने में एक लंबा समय लगता है तो क्या तब तक चीन के अलावा दूसरे विकल्प मौजूद हैं?
अंतरराष्ट्रीय फ़ार्मा एलायंस के सलाहकार एसजी बेलापुर की राय है कि, "अगर भारत को दवाई के क्षेत्र में चीन से आयात कम करना है तो स्पेन, इटली, स्विटज़रलैंड और कुछ दक्षिण अमरीकी देशों से इन ही आयात करना पड़ेगा. अब क्योंकि वो महँगे हैं तो दवाओं की क़ीमत भी बढ़ेगी."
आख़िरकार, भारत में एक्टिव फ़ार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट्स (API) यानी बल्क ड्रग्स के भूत और भविष्य पर बात करते हुए ड्रग रिसर्च मैन्युफ़ैक्चरिंग विशेषज्ञ डॉक्टर अनुराग हितकारी ने कहा, "भारत में प्रदूषण संबंधी क्लियेरेंस कई स्तर पर लेने पड़ते थे जिसमें राज्य, केंद्र सरकार, पर्यावरण मंत्रलाय सभी के पास जाना पड़ता था".
उन्होंने आगे बताया, "कच्चा माल या बल्क ड्रग बनाने की सोचने वाले छोटे और लघु उद्योग इस जटिल प्रक्रिया से बचते रहे. अब चीज़ें बेहतर हो रहीं हैं क्योंकि प्रदूषण क्लियेरेंस लेने की प्रक्रिया में ज़रूरी संशोधन हुए हैं". (www.bbc.com)


