विचार / लेख

मन उदास, दिल को पत्थर बना लिया...
19-Oct-2025 9:32 PM
मन उदास, दिल को  पत्थर बना लिया...

-द्वारिका प्रसाद अग्रवाल

कुन्तल के आश्रम चले जाने के बाद जो सूनापन हमारे परिवार में पसरा उसे किन शब्दों में बाँधा जाए! कुन्तल की माँ टूट सी गई. हर समय चुप रहने लगी, वे कई रात आंसुओं से भीगती हुई जागती रहती. उनकी बेचैनी को मैं भला कैसे समझ पाता? मैंने कुंतल को अपनी कोख में रखा नहीं था, मैंने उन्हें अपना दूध पिलाया नहीं था, मैंने उनकी तरह ‘होने वाली बहू’ की पायल की छम-छम सुनने की आशा नहीं की थी, मैंने पोते-पोतियों की उनके जैसी कल्पना और आनंदानुभूति नहीं की थी।

वे मुझसे नाराज़ भी रहने लगी- उन्हें बहुत लंबे समय तक मुझसे शिकायत बनी रही कि कुन्तल को विदा करने का निर्णय अचानक मैंने खुद क्यों ले लिया, उनको विश्वास में क्यों नहीं लिया ? उन्हें लगता था कि कुन्तल यदि कुछ दिन और रोक लिए जाते तो शायद रुक जाते. उन्नीस दिनों के प्रवास में कुन्तल से हम सबका जो भी वार्तालाप हुआ और मुझे उनकी जो भाव-भंगिमा दिखी-मुझे उनको शीघ्र मुक्त कर देना उचित लगा क्योकि वे वैराग्य के भावातिरेक से परिपूर्ण थे, उन्हें और अधिक रोकना उनके साथ अन्याय हो जाता और जैसे-जैसे समय बीतता, हम दोनों और अधिक तनावग्रस्त होते जाते। यद्यपि मैं उस निर्णय के पक्ष में नहीं था, बहुत क्षुब्ध था, लेकिन यह मैं जानता था कि इस दुर्धर्ष निर्णय को मुझे ही लेना होगा, उनकी माँ उतना कठिन निर्णय नहीं ले पाएगी इसीलिए अचानक ही मैंने उनका विदाई कार्यक्रम बनाया और सहज विधि से विदा कर दिया।

कुंतल का इस तरह परिवार से विमुख हो जाना हम सबको अखर गया। उन्होंने अपने जीवन की नई राह इतनी विचित्र चुनी थी कि हमारा भरोसा नहीं बन पा रहा था- वे आश्रम की कठिन डगर पर चल पाएंगे या नहीं! कहीं बीच राह से वापस लौट आए तो न यहाँ का रहेंगे, न वहाँ के ! प्रतिदिन मेरा मन ऐसे उपायों की तलाश में लगा रहता जिसके माध्यम से उन्हें घर-परिवार में वापस बुलाया जा सके।

सच पूछिए तो मेरा हाल भी बेहाल था। मुश्किल यह है कि हम पुरुष चाहकर भी रो नहीं पाते। सूने में भले ही मेरी आँखें भर आती थी लेकिन सबके सामने संयत रहना पड़ता है। मैं रोता तो कुंतल की माँ को कैसे समझाता ? दिल को पत्थर बना लिया, मन उदास हो गया लेकिन मुझे यह भलीभांति समझ में आ गया कि परिवार की जिम्मेदारी निभाने और अपनी शाही बीमारी से लडऩे का मेरा कार्यकाल बढ़ गया है। मैंने स्वयं को और अधिक मजबूत बनाने का निर्णय लिया और उसकी आंतरिक तैयारी में भिड़ गया। मेरा दिल तो मजबूत था लेकिन 57 वर्ष के कैन्सरग्रस्त मनुष्य की शारीरिक ऊर्जा कम होती जा रही थी।

(आत्मकथा का एक अंश है यह)

(यह हालिया चित्र आश्रम में विचरण करती मां और उनके सन्यासी पुत्र का)


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