विचार / लेख
-अशोक पांडेय
हफ़्ते-दस दिन से पहाड़ों की सडकों पर यात्रा कर रहा हूँ। बढ़ा-चढ़ा कर नहीं कह रहा, कम से कम दो-ढाई सौ जगहों पर पहाड़ों से मलबा टूट कर गिरा-बिखरा देखा।
चार जगह राजमार्ग बंद मिले, वापस लौट कर संकरे-अधपक्के-कच्चे रास्तों का सहारा लेना पड़ा - पहाड़ी गाँवों की जीवनरेखा माने जाने वाले इन रास्तों की दुर्दशा देखी।
अल्मोड़ा से हल्द्वानी जाने वाला रास्ता पिछले दो बरसों से स्थानीय अखबारों की सुखिऱ्यों में है - हर हफ्ते उस पर इतना मलबा आ जाता है कि यातायात बंद करना पड़ता है। बहुत दिक्कत होती है। बरसातों में यह दिक्कत आपदा की सूरत ले लेती है जब अमूमन दो-ढाई घंटे का हल्द्वानी-अल्मोड़ा का सफऱ छ: से दस घंटे तक ले लेता है। शुक्र मनाइए हमारे देश में लोगों के पास खूब समय है वरना पता नहीं जीवन कैसे चलता।
जनता को कम असुविधा हो इसके लिए सरकार ने जगह-जगह जेसीबी और पोकलैंड नाम के दैत्य तैनात किये हुए हैं – मलबा आते ही वे खडख़ड़ाते हुए मौक़े पर पहुँचते हैं और सौ मनुष्यों का काम अकेले करते हुए बड़ी-बड़ी चट्टानों को रास्ते से चुटकियों में हटा कर ट्रैफिक को सुचारु बना देते हैं। अवाक जनता हाथ बांधे उनके इस कारनामे को देखती रहती है – विज्ञान की तरक्की पर मुग्ध होती रहती है। एक जगह का मलबा हटता है तो दो जगह और आ जाता है। इन दैत्यों के लिए रोजगार ही रोजगार है!
यात्रा के दौरान मुझे ऐसी सैकड़ों मशीनें काम करती नजऱ आईं। जब बरसात नहीं होती, मौसम ठीक रहता है तो इन मशीनों को पहाड़ काटने, चट्टानों को भेदने और जवान पेड़ों को नेस्तनाबूद करने के काम में लगा दिया जाता है। सडकों पर पर्याप्त मलबा बिखेर देने के बाद इन मशीनों ने उसे निकटतम नदी-धारे के हवाले कर देना होता है – सारी सडक़ें इतनी चौड़ी की जानी हैं कि उन पर से एक साथ दो-दो टैंक गुजऱ सकें। आज के नीति-निर्धारकों ने पहाड़ों की उन्नति की यही परिभाषा गढ़ दी है।
जिन जगहों पर अब भी पुरानी सडक़ें बची रह गई हैं, उनके किनारों पर काटे गए पहाड़ों की सतह पर मजदूरों के सब्बल-गैंतियों के बनाए मानवीय निशान देखे जा सकते हैं। सडक़ के उन हिस्सों के आसपास मलबा नहीं के बराबर दीखता है। पचास मजदूर जितना पहाड़ एक हफ्ते में काटते थे, एक जेसीबी उतना पहाड़ आधे घंटे में काट देती है। सब्बल-गैंतियों की चोटों से उतना ही पहाड़ टूटता था जितनी ज़रूरत होती थी। इसके बरअक्स जेसीबी का लौह-पंजा जिस बेरहमी से पहाड़ की सतह को उधेड़ता है या पोकलैंड जिस क्रूरता के साथ साबुत चट्टान को तोड़ती है उसका असर कई मीटर आगे तक की चट्टानों पर पड़ता है।
परतदार चट्टानों से बना यह निचला हिमालयी इलाका है जिसमें कुमाऊँ-गढ़वाल की तमाम बस्तियां बसी हैं। एक चट्टान के कांपने का असर कितने किलोमीटर दूर तक जाता होगा, भूवैज्ञानिक बेहतर बता सकेंगे।
जल्दबाजी और लापरवाही के साथ पहाड़ में नई बनी या बन रहीं या चौड़ी की जा रही सडक़ों पर जगह-जगह दिखाई देने वाला बिखरा हुआ मलबा बताता है कि जो कुछ हो रहा है ठीक तो नहीं है।
साथ में लगा फोटो मैंने कोई बारह बरस पहले कौसानी में खींचा था – इसमें मलबा है, सडक़ है, मशीन है और एक अदद माँ-बेटे की मानवीय उपस्थिति है। एक उपस्थिति हिमालय की भी है जिसे कुछ ही बरसों में हमने इतना नुकसान पहुंचाया है जितना कई शताब्दियों में नहीं पहुंचा था। इसी हिमालय में केदारनाथ घटता है, इसी में धराली। कोई कहता है बादल फटा, कोई कहता है झील टूट गयी। कोई दैवीय आपदा बताता है। दैत्य-मशीनें अनवरत अपनी तोडफ़ोड़ में लगी रहती हैं।
चूंकि हमें हर चीज़ का उत्सव मनाने का शौक है कुछ बरस पहले चुनिन्दा महानुभावों ने आज यानी 9 सितम्बर के दिन को हिमालय दिवस के रूप में मनाना शुरू किया था। हिमालय दिवस ने भी पिछले कुछ सालों में इतनी तरक्की कर ली है कि अब उसे विश्व हिमालय दिवस कहा जाने लगा है। हैपी वर्ल्ड हिमालया डे टू यू!