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गीतकार शैलेन्द्र के जन्मदिवस पर विशेष : होंगे राजे राजकुंवर हम बिगड़े दिल शहज़ादे
31-Aug-2025 10:50 PM
गीतकार शैलेन्द्र के जन्मदिवस पर विशेष :  होंगे राजे राजकुंवर हम बिगड़े दिल शहज़ादे

-संध्या त्रिपाठी

“होंगे राजे राजकुंवर हम बिगड़े दिल शहज़ादे 
हम सिंहासन पर जा बैठे जब जब करें इरादे”
“आवारा हूँ या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ”
“किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार, जीना इसी का नाम है”

फुटपाथ पर सोने वाले बेघर, बेसहारा इंसान से लेकर दौलत के दरबान तक सब जिसके दीवाने थे उस शब्दों के जादूगर, गीतों के राजकुमार का नाम था शंकर दास केसरीलाल “शैलेन्द्र”.तीस अगस्त सन उन्नीस सौ तेईस को इनका जन्म रावलपिंडी में हुआ. पिता फौज में थे, सब ठीक चल रहा था किन्तु वक़्त ने कुछ ऐसी चाल चली कि पूरा परिवार आर्थिक बदहाली का शिकार हो गया. और शैलेन्द्र अपने परिवार सहित मथुरा में आ बसे. मथुरा में इनके बड़े भाई रेलवे में नौकरी करते थे. शंकरदास ने मथुरा के राजकीय इंटर कालेज से हाईस्कूल की परीक्षा में उत्तर प्रदेश में तीसरा  स्थान प्राप्त किया. जिस शैलेन्द्र को हम जानते हैं वो बृजमाधुरी का ही बेटा था. हॉकी के शौक़ीन शंकरदास इतने स्वाभिमानी थे कि एक बार हॉकी खेलते समय एक जातिवादी कटाक्ष सुनते ही उन्होंने हॉकी स्टिक तोड़ कर हमेशा के लिए हॉकी को अलविदा कर दिया था. 

शैलेन्द्र उन दिनों शचीपति के नाम से ‘साधना’, ‘हंस’, ‘नया पथ’ और ‘जनयुग’ में कविता लेखन करते रहे. कविताओं में वामपंथी रुझान स्पष्ट था. मथुरा से उनकी अगली यात्रा माटुंगा तक की रही जहाँ मैकेनिकल इंजीनियर ट्रेनी की नौकरी ज्वाइन की किन्तु कवि सम्मलेन/ मुशायरों में उनकी धूम मचती रही. कविता को क्रांति का जरिया बनाया. “तू जिंदा है तो ज़िन्दगी की जीत पर यकीन कर, अगर कहीं है स्वर्ग तो उतर ला ज़मीन पर” बहुत प्रसिद्ध कविता है उनकी. शायद बहुत कम लोग जानते हैं कि हर संघर्ष में इस्तेमाल किया जाने वाला नारा “हर जोर ज़ुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है” शैलेन्द्र द्वारा लिखा गया है. “जलता है पंजाब हमारा” कविता सुनकर राजकपूर ने उसको फिल्म आग में  लेने की बात कही थी किन्तु शैलेन्द्र ने अपनी कविता बेचने से साफ़ इंकार कर दिया था,  किन्तु कुछ समय बाद पैसे की आवश्यकता उन्हें फिर राजकपूर के पास ले गई और वहां से शुरू हुआ फिल्म में गीत लिखने का सफ़र. फिल्म बरसात का शीर्षक गीत “ बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम” और “पतली कमर है तिरछी नज़र है” जैसे गीतों से उनकी फ़िल्मी दुनिया में पदार्पण हुआ.  और फिर शुरू हुआ शुद्ध चौबीस कैरट के एक से एक सुन्दर गीतों का एक अद्भुत सिलसिला. 

आज़ादी के बाद शैलेन्द्र ने सिर्फ बीस बसंत देखे, किन्तु इतना काम कर गए कि सैकड़ो सालों तक हम उन्हें सुनते रहेंगे. ये वो कोहिनूर है जिसकी चमक उनके जाने के बाद और बढ़ी. जीवन का वो कौन सा रंग है जिस पर शैलेन्द्र जी ने अपनी कलम न चलाई हो. इश्क हो, दीवानगी हो, तड़प हो, मिलन हो, विछोह हो, गरीबी हो, गरीबी का विद्रोह हो, मानवता का प्रश्न हो,  जीवन का फलसफा हो या फिर अध्यात्म हो, शैलेन्द्र के गीत आपके लिए हाज़िर हैं. जीवन दर्शन में उनका कोई जोड़ नहीं, दूर-दूर तक कोई उनके समकक्ष आ नहीं पाता,-

“अपनी कहानी छोड़ जा, कुछ तो निशानी छोड़ जा, 
कौन कहे इस ओर तू फिर आये न आये मौसम बीता जाये”
“सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है न हाथी है न घोड़ा है वहां पैदल ही जाना है”
“वहां कौन है तेरा मुसाफिर जायेगा कहाँ”
“सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी
सच है दुनिया वालों के हम हैं अनाड़ी”
“जाने चले जाते हैं कहाँ दुनिया से जाने वाले”
“ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना”

एक से बढ़ कर एक न जाने कितने हीरे जैसे गीत. और ऐसा नहीं कि इश्क/ मुहब्बत पर उनके गीतों का जादू लोगों के सर चढ़ कर न बोला हो, -

“जोगी जब से तू आया मेरे द्वारे मेरे रंग गए सांझ सकारे
तू तो अंखियों से जाने जी की बतियाँ तोसे मिलना ही जुलुम भया रे”
“प्यार हुआ इकरार हुआ है प्यार से फिर क्यों डरता है दिल”
“दिन ढल जाए हाय रात न जाये, तू तो न आये तेरी याद सताए”
“ये रात भीगी भीगी ये मस्त फिजायें उठा धीरे धीरे वो चाँद प्यारा प्यारा”
“चढ़ गयो पापी बिछुआ”
सभी में प्रणय भाव पूरी गरिमा के साथ मौजूद है.

प्रकृति चित्रण में भी शैलेन्द्र का कोई जोड़ नहीं. फिल्म मधुमती के लिए जब प्रकृति की ख़ूबसूरती पर गीत लिखने की बात आई तो ये गीत रचा गया “सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं” पर इसके अंतरे के बोल के लिए शैलेन्द्र जी अपनी गाड़ी लेकर दूर कहीं प्रकृति की गोद में चले गए, वहां किसी नदी के तेज बहाव ने उनसे ये सुन्दर पंक्तियाँ लिखवाईं, -

 “ये गोरी नदियों का चलना उछलकर के जैसे अल्हड़ चले पी से मिलकर”
बेघर, बेसहारा वर्ग के लिए लिखे इन गीतों को कौन भूल सकता है, -
“दिल का हाल सुने दिलवाला
 सीधी सी बात न मिर्च मसाला
 कह के रहेगा कहने वाला”
“अजब तोरी दुनिया ओ मोरे रामा
 कोई कहे जग झूठा सपना पानी की बुलबुलिया
 हर किताब में अलग अलग है इस दुनिया की हुलिया
 सच मानो या इसकी झूठी मानो बेढब तोरी दुनिया”

बच्चों के लिए शैलेन्द्र के मन में अपार स्नेह रहा. उनके लिए भी उनकी कलम से ये सुन्दर रचनाएँ जन्मी, -
“नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए
 बाकी जो बचा था काले चोर ले गए” 
 “जूही की कली मेरी लाडली
  नाजों की पली मेरी लाडली”

वामपंथी विचारधारा रखने वाले शैलेन्द्र संस्कृति से भी हमेशा नज़दीक रहे, आज भी सम्पूर्ण उत्तर भारत में रक्षाबंधन का त्यौहार शैलेन्द्र के इस गीत के बिना अधूरा रहता है, -

“भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना”
और शायद ही कोई हो जिसकी  फिल्म बंदिनी के इस गीत को सुनकर आँख नम न होती हो, -
“अबके बरस भेज भैया को बाबुल सावन में लीजो बुलाय”

और अब ज़िक्र उस दर्द का जिसके बिना शैलेन्द्र पर कोई भी बात अधूरी रहेगी. बहुत साल पहले फिल्म ‘मुसाफ़िर’ में शैलेन्द्र का लिखा एक गीत जिस पर उन्होंने अभिनय भी किया था, लगता है उसके बोल उन्ही  पर एक दिन लागू हो जायेंगे. गीत के बोल थे, - 

“टेढ़ी-टेढ़ी हमसे फिरे सारी दुनिया”
 हर कोई नज़र बचा के चला जाए देखो 
 जाने काहे हमसे कटे सारी दुनिया”

लोक संस्कृति के सबसे बड़े चितेरे शैलेन्द्र के मन में एक इच्छा जाग्रत हुई कि फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ की कहानी “मारे गए गुलफाम” पर एक फिल्म बनाने की. उन्होंने रेणु को चिट्ठी लिखकर इस विषय पर उनकी सहमति मांगी, और सहमति मिल जाने पर जोर-शोर से यह कार्यक्रम आगे बढ़ने लगा.  

 

तीसरी कसम नामक इस फिल्म में नायक की भूमिका के लिए राजकपूर और नायिका के लिए वहीदा रहमान का चुनाव किया गया तथा निर्देशन का  भार बासु भट्टाचार्य को सौंपा गया. साहित्यिक कृतियों पर अनेक फिल्मे बनी हैं पर सबकी किस्मत “मारे गए गुलफाम” जैसी नहीं होती. एक छोटी कहानी पर इतनी खूबसूरत फिल्म कि सदियाँ कर्ज़दार रहेंगी शैलेन्द्र की. लेकिन जो फिल्म एक साल में बन जाती वह पैसों के अभाव / वितरकों के असहयोग के कारण उसमे पांच वर्ष लग गए . शुद्धतम लोकगीतों से सजी फिल्म को हम शैलेन्द्र का आखिरी गीत भी कह सकते हैं. एक से एक मोती जड़े हुए गीतों की लड़ी, - 

“चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया”
“लाली-लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया”
“पान खाए सैय्याँ हमार” और
“लो शुरू होता है किस्सा लैला मजनू”

वितरकों के अभाव में फिल्म मात्र एक-दो बड़े शहरों में ही प्रदर्शित हो पाई और गंभीर रूप से बीमार शैलेन्द्र उसे देख भी नहीं सके. फिल्म पर भयंकर फ्लॉप का ठप्पा और शैलेन्द्र को एक और आघात लगा.

सारे दोस्त पहले ही दूर हो गए थे, राजकपूर से फिल्म के अंत को लेकर पहले ही अनबोला चल रहा था. दरअसल राजकपूर चाहते थे फिल्म का सुखांत हो, किन्तु शैलेन्द्र कहानी से बिलकुल भी छेड़-छाड़ नहीं चाह रहे थे, -
“दोस्त दोस्त न रहा”
“सजनवा बैरी हो गए हमार”

टूटा हुआ मन और टूटती हुई देह लिए शैलेन्द्र आखिरकार चौदह दिसंबर  उन्नीस सौ छाछठ को इस दुनिया   से विदा ले गए, -
“वहां कौन है तेरा मुसाफिर जायेगा कहाँ”

हमारे बीच से शैलेन्द्र को गए पचास से अधिक वर्ष बीत चुके हैं पर एक एक गीत इतना ताज़ा और सामयिक लगता है कि लगता है अभी अभी लिखा गया है. एक बार जावेद अख्तर ने कहा था ये वो गीत हैं जिन्हें किसी सार्वजानिक स्थान पर गाने लगिए तो नए-पुराने सभी लोग आकर साथ देना शुरू कर देंगे, जैसे –
“रमैया वस्ता वैय्या, मैंने दिल तुझको दिया”
“मेरा जूता है जापानी “
“होंठों पे सचाई रहती है जहाँ दिल में सफाई रहती है
 हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है


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