विचार / लेख

आज बिस्मिल्लाह खां की याद आ रही है
21-Aug-2025 8:17 PM
आज बिस्मिल्लाह खां की याद आ रही है

-द्वारिकाप्रसाद अग्रवाल

मैंने बिस्मिल्लाह खाँ के घर का पता पूछा तो मालूम पड़ा कि बगल से दाल मंडी को रास्ता जाता है, कुछ दूर पर उनका घर है॰ बनारस की गलियों में पूछते-ढूँढते पंद्रह मिनट में मैं सराय हरहा के एक पुराने से मकान के सामने जा पहुंचा जहाँ एक छोटी सी नामपट्टिका में अंग्रेजी में लिखा हुआ था- 'भारतरत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां'. घर के अन्दर से शहनाई वादन की मीठी आवाज़ आ रही थी॰ सिर झुकाकर मैंने घर के अंदर प्रवेश किया॰ एक वयोवृद्ध सज्जन क़ुरान पढ़ रहे थे, कुछ देर में उन्होंने पुस्तक बन्द की, मेरी ओर देखा और पूछा- 'फरमाइए जनाब॰'

'मैं छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से आया हूँ.' मैंने अपना परिचय दिया.

'कैसे तकलीफ़ की आपने?'

'खां साहब तो रहे नहीं, उनके घर को सलाम करने आया हूँ.'

'वाह, क्या बात है, मैं उनका बेटा नय्यर हुसैन खां हूँ. आप आए, बहुत अच्छा लगा. मेरे अब्बाहुज़ूर गज़ब के फनकार थे और वादा निभाने वाले इंसान थे. एक क़िस्सा बताऊँ आपको?'

'जी, ज़रूर.'

'सायराबानो की माँ नसीमबानो को एक बार अब्बा ने वादा किया था कि सायरा की शादी में वे ज़रूर शहनाई बजाएँगे. बात आई-गई हो गई. कई साल बाद की बात है, एक दिन दिलीपकुमार अब्बा के पास आए और अपने घुटनों के बल उनके सामने बैठ गए. अब्बा ने पूछा- ''बोलो यूसुफ, कैसे आए?''

''सायरा के साथ मेरा निकाह होने वाला है, आपको शहनाई बजानी है॰'' दिलीपकुमार ने गुजारिश की॰

''वाह, कमाल है अल्लाह का, सायरा की माँ को किया गया वादा निभाने का मौका अपने-आप मेरे पास आ गया! मैं आऊँगा, ज़रूर आऊँगा.'' अब्बा ने कहा और दिलीप-सायरा की शादी के जश्न में उन्होंने खूब शहनाई बजाई'.

उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ के बेटे नय्यर हुसैन खां अब पचहत्तर साल के हैं॰ अकेले हो गए हैं, दिन भर उसी घर में अपना समय कुरान पढ़कर बिताते हैं॰ रोज़ाना शाम ५ बजे अब्बा की मज़ार पर जाते हैं, दो-ढाई घंटे चुपचाप वहीं बैठते हैं, उसी चुप्पी में शायद अब्बा से बातें करते हैं और 8 बजे रात को सीधे घर वापस आ जाते हैं. उनकी बहू जो देती है, चुपचाप खा लेते हैं और खुदा की याद करते हुए सुबह तीन बजे जागने के लिए सो जाते हैं. मैंने उनसे पूछा- 'शहनाई बजाने में जो महारत आपके अब्बा को हासिल थी, क्या आपने कोशिश की?'

'बहुत कोशिश की, उनकी सोहबत में बहुत रहा और देश-विदेश जाकर उनके साथ संगत भी की. शहनाई तो कोई भी बजा सकता है लेकिन अब्बा की शहनाई जैसा दर्द पैदा करना सबके बूते की बात नहीं. मैं उतना समय नहीं दे पाता था क्योंकि अब्बा बीस-पच्चीस साल बम्बई में रहे तो घर-गृहस्थी देखने की ज़िम्मेदारी मुझपर थी, हम लोग पाँच भाई थे. बम्बई से जब वे वापस आए तब भी घर में नहीं रहते थे, पास में बालाजी मंदिर है, वहीं रहते और संगीत साधना करते. सच्ची बात यह है कि वे बम्बई की फिल्मी दुनियाँ में शहनाई बजाया करते थे, उनकी वहाँ बहुत इज्ज़त थी लेकिन 'उस्ताद' वे तब बने जब उस दुनियाँ को छोड़कर बनारस वापस आए और सुरों की साधना की. बालाजी मंदिर में एक रात उनको लगा कि जैसे खुशबू का एक झोंका आया, कोई उनके सामने खड़ा हुआ दिखा और कहा- "जा, मज़ा कर." तुरन्त वह छाया गायब हो गई, अब्बा उसे खोजने कमरे के बाहर दौड़े, बहुत खोजे लेकिन रात के सन्नाटे के सिवाय वहाँ कुछ न था.' उन्होंने बताया.

'और किसी दूसरे भाई ने शहनाई में कोशिश नहीं की ?'

'की, तीसरे नंबर के भाई में वह कशिश थी, वो मक़बूल भी हुआ. उसका चेहरा बिलकुल अब्बा जैसा था लेकिन खुदा को कुछ और मंजूर था, सन 2009 में उसका इंतकाल हो गया.

'मैंने खाँ साहब को बिलासपुर में सन 1965 में सुना था, मुझे अच्छी तौर से याद है, उस दिन शहनाईवादन में वे बहुत देर बिना रुके लगातार बजाते रहे, बजाते ही रहे॰ अचानक उनकी नज़रें मुझसे मिली, हम दोनों की नज़रें एक दूसरे पर टिकी रह गई॰ मुझे ऐसा लगा जैसे उस 'हाल' में केवल हम दोनों रह गए हैं॰ उस घटना को मैं कभी नहीं भूल सकता॰ मुझे यह समझ नहीं आया कि बिना साँस तोड़े उतनी देर तक वे कैसे बजा लेते थे?' मैंने पूछा.

'अब्बा रोजाना साँस का अभ्यास करते थे, प्राणायाम॰ वे घड़ी देखकर ढाई मिनट के लिए अपनी साँस रोक लिया करते थे॰' उन्होंने बताया.

'एक बात मैंने गौर की, आपका घर खोजते समय मैंने जिससे भी घर का पता पूछा, सबने बड़ी मुहब्बत से मुझे रास्ता बताया॰'

'लोग बिस्मिल्लाहखां को इस शहर की पहचान मानते हैं॰ उनके इंतकाल के बाद उनकी इज्ज़त में और इजाफा हुआ है॰ वे जब तक जिन्दा थे, चाहे जहां भी रहे हों, मोहर्रम के जुलूस में शामिल होने के लिए बनारस ज़रूर आ जाते और जुलूस के सामने शहनाई बजाते हुए निकलते थे॰ बनारस के लोग उन्हें सड़क पर शहनाई बजाते देख ठिठककर खड़े हो जाते और बड़ी अक़ीदत से उन्हें देखते॰ गंगाजी के सामने बैठकर शहनाई बजाना उनके लिए इबादत करने जैसा था॰'

'क्या उनकी शहनाई आप मुझे दिखा सकते हैं ?'

'नहीं, वह मँझले भाई की बीमारी के दौरान किसी ने चुरा ली॰ मँझले भाई अब्बा की शहनाई के सही वारिस थे॰ उन्होंने हमसे कहा- "मुझे अपने हिस्से का कुछ और नहीं चाहिए, शहनाई दे दी जाए", इसलिए उन्हें दी गई और वे उसी को बजाया करते थे॰' नय्यर हुसैन जी ने बताया॰

'उनके बारे में कुछ और बताइये॰' माधुरी जी ने पूछा॰

'उनका जनम बिहार के डुमराव में 21 मार्च 1916 को हुआ था॰ उनका बचपन का नाम कमरुद्दीन था॰ उन्होंने अपने चाचा अलीबख्श 'विलायती' से शहनाई सीखी थी॰ हमारे खानदान में शहनाई बजाने का काम कई पीढ़ियों से चला आ रहा है॰ राजे-रजवाड़े खत्म होने के बाद बनारस आए तब से यहीं घर बना लिया और एक शानदार ज़िंदगी जीने के बाद वे 21 अगस्त 2006 को इस दुनियाँ से कूच कर गए॰ उन्हें 1968 में 'पद्मभूषण' मिला और 2001 में 'भारत रत्न'॰ वे कभी पैसे के पीछे नहीं भागे॰ कहते थे- "सरस्वती की साधना करो, लक्ष्मी पीछे-पीछे चली आती है॰''

बनारस केवल वाराणसी नहीं है या रिहायशी घरों में रहने वाले इन्सानों का घर नहीं है बल्कि भारत की गंगा-जमुनी तहजीब का एक नायाब नमूना है, उम्दा साहित्यकारों और कलाकारों की कर्मस्थली है॰ उस्ताद बिस्मिल्लाहखां की शहनाई उनके जाने के बाद सदा के लिए चुप हो गई लेकिन उसकी सदा अभी भी बनारस की फिज़ा में गूंज रही है॰ उस आवाज को अब कान नहीं सुन सकते, हाँ, दिल से सुना जा सकता है॰

(यात्रा वृतांत 'मुसाफिर....जाएगा कहाँ' का एक अंश)


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