विचार / लेख

हनुमान मंदिर के मंगौड़े
23-Dec-2024 6:12 PM
हनुमान मंदिर के मंगौड़े

-सच्चिदानंद जोशी, के साथ रिया जोशी त्रिवेदी और 4 अन्य

उस दिन इंदौर में कई साल बाद उस सडक़ से गुजरना हुआ। कई साल यानी लगभग पैंतीस साल बाद। काफी कुछ बदलने के बाद भी उसे पहचानना कठिन नहीं था। मैंने चालक से पूछा ‘ये छोटी ग्वाल टोली है न?’ चालक को आश्चर्य हुआ । उसे लगा कि मैं शायद इस सडक़ से खुश नहीं हूं। बोला ‘सॉरी सर उधर ट्रैफिक ज्यादा था इसलिए मैं यहां से ले आया। ‘उसे क्या मालूम था कि उसने अनजाने मेरी बचपन की यादें ताजा कर दी थी।

‘इधर चौराहे पर मंदिर है न वहां रोक लेना। आज शनिवार है दर्शन कर लेंगे । ‘चालक ने राहत की सांस ली। बोला ‘चौराहे पर रोकना मुश्किल है , मैं थोड़ी आगे रोकता हूं।’

मैं कार से उतर कर मंदिर की ओर बढ़ गया। दर्शन का तो बहाना था। इसलिए औपचारिकता पूरी कर मंदिर के साथ वाले ओटले की ओर बढ़ा। वह पहले से छोटा हो गया था , शायद अतिक्रमण विरोधी मुहिम के कारण। लेकिन बहुत भर गया था। समोसे, कचौड़ी, आलू बड़ा ,पोहा, और हां चाउमिन भी। एक कोने में कड़ाही में जलेबियां तली जा रही थी। कांच के एक शो कैसे में पेस्ट्री और क्रीम रोल भी था। मुझे वह सारा सामान देख कर हैरत हुई। भीड़ अभी भी वैसी ही थी।

‘अरे मंगौड़े नहीं हैं?‘मैंने वहां सामान देने वाले लडक़े से पूछा।’ हैं न वो क्या उधर रखे हैं। ‘उसने एक कोने में रखे पीतल के थाल की तरफ इशारा किया। उसमें दस पंद्रह मंगौड़े बेचारे अपने ग्राहक की प्रतीक्षा में पड़े थे। ‘गरम करवा दूं?’ लडक़े ने पूछा। उन्हें देख खाने की इच्छा नहीं हुई। फिर भी पुरानी याद ताज़ा करने जितने भी थे सब बंधवा लिए।

घोर निराशा से ग्रस्त मैं वापिस कार में बैठा। बचपन की स्मृतियां उभर आई।

एक समय के सुपर स्टार थे ये हनुमान मंदिर के मंगौड़े। हमारा ननिहाल पास ही था और घर में पंद्रह बीस लोग थे। घर में कोई भी खुशी की खबर होती तो मंगौड़े आते। खुशी की खबर में किसी की शादी तय होने से लेकर किसी का अच्छा रिजल्ट आने तक सभी शामिल था। यहां तक कि ताश के खेल में हार जीत के लिए भी मंगौड़े की शर्त होती।

हम लोग तब जौरा में होते थे। छुट्टियों में ननिहाल जाते। तो पिताजी का मां को खत आना भी मंगौड़े का कारण बनता। खुशी के आकार से मंगौड़े की मात्रा तय होती। फिर भी ज्यादा लोग थे कुछ नाना जी के घर के और कुछ नाना जी के छोटे भाई यानी छोटे नाना जी के घर के।

इसलिए कितने भी मंगवाओ, हर एक के हिस्से में दो या बहुत हुआ तो तीन, उससे ज्यादा नहीं आते थे। लेकिन उसके लिए भी जी ललचाता ही था। और तो और दोने में नीचे बचने वाले चेटा पेटी ( और भी नाम है इस पदार्थ के) को खाने के लिए लाइन या नंबर लगता था। बाकायदा हिसाब रखा जाता था कि पिछली बार किसने खाया था।

घर में मंगौड़े आए है ये किसी को बताना नहीं पड़ता था। घर में घुसते ही उसकी खुशबू से पता चल जाता था कि आज कोई खुशखबरी है। कई कई बार तो मंगौड़े खाने के लिए खुशी के मौके बना लिए जाते थे।

एक बार नानी ने मंझले मामा के साथ बाजार सौदा लाने भेज दिया। मामा जी ने उसी ट्रिप में अपना रोमांटिक दौरा भी शामिल कर लिया। अपनी प्रेमिका ( अब मामी) मिल भी लिए। रिश्वत के तौर पर उन्होंने हमें सुभाष चौक के समोसे भी खिलाए ताकि हम अपना मुंह बंद रखें।

लेकिन जैसे ही घर में घुसे मंगौड़े की सुगंध ने दिमाग खराब कर दिया। ‘मंगौड़े आए थे’ मैंने चिल्लाकर पूछा। ‘आए थे और खत्म भी हो गए’ बहना ने चिढ़ाकर बताया। मन रोने रोने को हो उठा। समोसे की रिश्वत भूल गए और इस बात को कोसते रहे कि नानी ने क्यों भेजा मामा के साथ सौदा लाने।

बाद में नानी ने बुलाया और सिर पर चपत लगाते हुए कहा ‘तेरे लिए नहीं रखूंगी ऐसा हो सकता है क्या। जा चौके में कप प्लेट में छुपा कर रखे हैं।’

चौके में नानी ने एक कप में प्लेट से ढांक कर दो मंगौड़े रखे थे। ऐसा लगा मानो स्वर्ग मिल गया हो।

फिर पूछा कि किस खुशी में आए थे मंगौड़े तो पता लगा शांति मौसी का रिजल्ट आया है। शांति मौसी कई बार फेल होने के बाद पास हुई थी। मैने शैतानी से पूछा ‘बस इतने से? और ज्यादा आने चाहिए थे।’ मां ने डपट कर चुप करा दिया।

आज हनुमान मंदिर के मंगौड़े खाए तो न वो स्वाद आया न ही वो रोमांच हुआ। शायद इसलिए कि उन्हें खाने के लिए छीना झपटी नहीं हुई और शायद इसलिए कि कोई अवसर भी नहीं बना था उन्हें खाने का। बचपन में जरूर लगता था कि जब बड़ा होऊंगा तब एक किलो मंगौड़े लूंगा और पूरे खा जाऊंगा । किसी को भी नहीं दूंगा। लेकिन आज इतने मंगौड़े लेने के बाद भी कोई थ्रिल नहीं हुआ ।

कारण शायद ये भी है कि अब किसी चीज का वो थ्रिल रहता ही नहीं।

अभी बड़े बेटे ने कार खरीदी । और बताया तब जब वो बिल्डिंग के नीचे कार लेकर आ गया। बचपन में

तो साइकिल के टायर ट्यूब बदलना या साइकिल घंटी लगवाना भी थ्रिल होता था। उसकी कई दिन पहले से घोषणा हो जाती। चर्चा के कई दौर होते। तब वो चीज घर में आती। अब वैसा नहीं है। सरप्राइस का जमाना है।

बेटा कार लेकर आया तो सबने जाकर मंदिर में कार की पूजा करवाई। फिर खुश होकर मिठाई खाई। मेरे मुंह से निकला ‘अरे वाह आज की खुशी में तो हनुमान मंदिर के मंगौड़े होने चाहिए।’ दोनों बच्चे और बहुएं मेरी ओर देखने लगे और सोचने लगे कि ये क्या अजीब बात कह दी इन्होंने। लेकिन श्रीमती जी वहां से उठ कर किचन की ओर चली गई। बड़े बेटे ने कहा भी ‘मां आज खाना नहीं बनेगा। हम सब डिनर पर जा रहे हैं। ’ लेकिन मैंने कुछ नहीं कहा क्योंकि मुझे मालूम था कि वो किचन में मंगौड़े की दाल भिगोने गई है।


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