विचार / लेख
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ या ‘एक देश, एक चुनाव’ से जुड़ा विधेयक सरकार लोकसभा में पेश कर सकती है।
न्यूज एजेंसी पीटीआई की रिपोर्ट के मुताबिक़, कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल संविधान का 129वां संशोधन विधेयक और केंद्र शासित प्रदेश कानून (संशोधन) विधेयक को सदन में पेश करेंगे।
12 दिसंबर को प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस विधेयक को मंजूरी दी थी।
अब लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ की सोच को आगे बढ़ाने के लिए कदम उठाए जा रहे हैं।
बता दें कि संविधान संशोधन विधेयक पास करने के लिए संसद में दो-तिहाई बहुमत की ज़रूरत होगी, जबकि दूसरे विधेयक को सामान्य बहुमत से ही पास किया जा सकता है।
इस लेख में जानते हैं कि अब तक ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ पर क्या-क्या हुआ है और इसे लेकर क्या विवाद रहे हैं।
एक देश एक चुनाव से होगा चुनाव सुधार?
केंद्र सरकार लंबे समय से यह दावा करती आ रही है कि ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ चुनाव सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम है।
इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए, सितंबर 2023 में प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ की संभावनाएं तलाशने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया।
इस समिति ने मार्च 2024 में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से मुलाकात कर अपनी रिपोर्ट सौंपी थी।
समिति में शामिल प्रमुख सदस्यों में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, कांग्रेस के पूर्व नेता ग़ुलाम नबी आजाद, 15वें वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एनके सिंह, लोकसभा के पूर्व महासचिव डॉ. सुभाष कश्यप, वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे और चीफ विजिलेंस कमिश्नर संजय कोठारी थे। इसके अलावा, विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में कानून राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) अर्जुन राम मेघवाल और डॉ. नितेन चंद्र भी समिति का हिस्सा थे।
191 दिनों की रिसर्च के बाद इस समिति ने 18,626 पन्नों की विस्तृत रिपोर्ट तैयार की। सितंबर 2024 में प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने समिति की सिफारिशों को मंजूरी दी। इसके बाद 12 दिसंबर को ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ से जुड़े विधेयक को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अपनी मंजूरी दे दी है, जो इसे कानून बनाने की दिशा में कदम है।
सिफारिशें क्या है?
पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली इस समिति का कहना है कि सभी पक्षों, जानकारों और शोधकर्ताओं से बातचीत के बाद ये रिपोर्ट तैयार की गई है।
रिपोर्ट के मुताबिक, 47 राजनीतिक दलों ने अपने विचार समिति के साथ साझा किए, जिनमें से 32 दल ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के समर्थन में थे।
रिपोर्ट में कहा गया, ‘15 दलों को छोडक़र बाकी 32 दलों ने साथ-साथ चुनाव कराने का समर्थन किया और कहा कि ये तरीका संसाधनों की बचत, सामाजिक तालमेल बनाए रखने और आर्थिक विकास को तेजी देने में मदद करेगा।’
रु 1951 से 1967 तक एक साथ चुनाव हुए थे: उस वक्त लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाते थे।
रु 1999 में विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट : इस रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि हर पांच साल में लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं।
रु 2015 में संसदीय समिति की 79वीं रिपोर्ट : इस रिपोर्ट में चुनाव एक साथ कराने के लिए इसे दो चरणों में करने का तरीका बताया गया।
रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में उच्चस्तरीय समिति: इस समिति ने राजनीतिक दलों और विशेषज्ञों सहित कई लोगों से चर्चा और सुझाव लिए।
चुनावों पर व्यापक समर्थन: बातचीत और फीडबैक से यह पता चला कि देश में एक साथ चुनाव कराने को लेकर काफी समर्थन है।
समिति की तरफ से दिए गए सुझाव
दो चरणों में लागू करना: चुनाव कराने की योजना दो चरणों में लागू हो।
पहला चरण: लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं।
दूसरा चरण: आम चुनाव के 100 दिनों के भीतर पंचायत और नगर पालिका जैसे स्थानीय चुनाव कराए जाएं।
समान मतदाता सूची: सभी चुनावों के लिए एक ही मतदाता सूची का इस्तेमाल हो।
विस्तृत चर्चा : इस मुद्दे पर देशभर में खुलकर चर्चा हो।
समूह का गठन: चुनाव प्रणाली में बदलाव को लागू करने के लिए एक खास टीम बनाई जाए।
देश में कब-कब हुए एक साथ चुनाव?
आजादी के बाद भारत में पहली बार 1951-52 में आम चुनाव हुए थे। उस वक्त लोकसभा चुनाव के साथ-साथ 22 राज्यों की विधानसभा के चुनाव भी कराए गए थे। ये पूरी प्रक्रिया करीब 6 महीने तक चली थी।
पहले आम चुनाव में 489 लोकसभा सीटों के लिए 17 करोड़ मतदाताओं ने वोट डाला था, जबकि आज भारत में वोटरों की संख्या लगभग 100 करोड़ हो चुकी है।
रु1957, 1962 और 1967 के चुनावों में भी लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ हुए थे।
हालांकि, उस दौरान भी कुछ राज्यों में अलग से चुनाव कराए गए थे, जैसे 1955 में आंध्र राष्ट्रम (जो बाद में आंध्र प्रदेश बना), 1960-65 में केरल और 1961 में ओडिशा में विधानसभा चुनाव अलग से हुए थे।
रु1967 के बाद कुछ राज्यों की विधानसभाएं जल्दी भंग हो गईं और वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया।
इसके अलावा, 1972 में लोकसभा चुनाव समय से पहले कराए गए, जिससे लोकसभा और विधानसभा चुनावों का चक्र अलग हो गया।
रु1983 में भारतीय चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव कराने का प्रस्ताव तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार को दिया था। हालांकि, यह प्रस्ताव तब लागू नहीं हो पाया।
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ पर पक्ष-विपक्ष
केंद्र सरकार का दावा है कि ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ चुनाव सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम साबित होगा।
सरकार का मानना है कि इससे चुनावी खर्च कम होगा, विकास कार्यों में तेज़ी आएगी और सरकारी कर्मचारियों को बार-बार चुनावी ड्यूटी से छुटकारा मिलेगा।
हालांकि, विपक्षी पार्टियां इसमें कई खामियां गिना रही हैं। उनका कहना है कि ये संविधान के संघीय ढांचे के खिलाफ है।
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के समर्थन में सबसे बड़ा तर्क चुनावी खर्च को बताया जाता है। लेकिन भारत के पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एसवाई कुरैशी इससे सहमत नहीं हैं।
बीबीसी हिंदी से बातचीत में उन्होंने कहा था, ‘भारत में चुनाव कराने में करीब चार हज़ार करोड़ का खर्च होता है, जो बहुत बड़ा नहीं है। इसके अलावा, राजनीतिक दलों के करीब 60 हजार करोड़ के खर्च की बात है, तो यह अच्छा है, क्योंकि इससे नेताओं और राजनीतिक दलों के पैसे गरीबों तक पहुंचते हैं।’
एसवाई कुरैशी का मानना है कि सरकार को चुनावी खर्च घटाने के लिए दूसरे ठोस कदम उठाने चाहिए, जो वास्तव में असर डालें।
एसवाई क़ुरैशी के अनुसार, पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनी समिति को 47 राजनीतिक दलों ने अपनी प्रतिक्रिया दी थी। इनमें से 15 दलों ने इसे लोकतंत्र और संविधान के संघीय ढांचे के ख़िलाफ़ बताया था।
इसके अलावा, कई दलों ने सवाल उठाया है कि यह प्रणाली छोटे दलों के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती है और लोकतंत्र की बहुलता को नुकसान पहुंचा सकती है। (bbc.com/hindi)