विचार / लेख
गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ उपासना स्थल कानून (प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट) की संवैधानिकता से जुड़ी याचिकाओं की सुनवाई करेगी। कोर्ट के समक्ष कम से कम 6 याचिकाएं लंबित हैं।
इन मामलों में अब तक बहस शुरू नहीं हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में सरकार को नोटिस जारी किया था।
भारतीय जनता पार्टी के सदस्य और अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने 2020 में एक याचिका दायर की थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि यह कानून संविधान के धर्मनिरपेक्षता और बराबरी जैसे मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। उनके अनुसार, इस कानून से हिंदुओं को अधिक नुकसान पहुंचता है।
इस याचिका का विरोध करते हुए जमियत उलेमा-ए-हिंद, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्कि्सस्ट) और कई एक्टिविस्ट्स ने भी अपनी याचिकाएं दाखिल की हैं।
ऐसे में इस लेख में हम उपासना स्थल क़ानून- 1991 के इतिहास, विवाद और इससे जुड़े अहम मामलों के बारे में बड़ी बातें जानेंगे।
साल 1991 का उपासना स्थल कानून क्या है?
उपासना स्थल क़ानून कहता है कि भारत में 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस स्वरूप में था, उसकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता है।
इस कानून के अलग-अलग सेक्शन में ये अहम बातें शामिल हैं:
सेक्शन 3:
इस कानून के तहत, कोई भी व्यक्ति किसी धार्मिक स्थल या किसी समुदाय के पूजास्थल के स्वरूप को बदलने की कोशिश नहीं कर सकता।
सेक्शन 4 (1):
इसमें यह साफ लिखा गया है कि 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस स्वरूप में था, वह उसी स्वरूप में बना रहेगा।
सेक्शन 4 (2):
अगर किसी धार्मिक स्थल के स्वरूप में बदलाव को लेकर कोई केस, अपील, या अन्य कार्रवाई 15 अगस्त 1947 के बाद किसी कोर्ट, ट्रिब्यूनल, या प्राधिकरण में लंबित है, तो वह केस रद्द कर दिया जाएगा। इसके अलावा, ऐसे किसी मामले में दोबारा केस या अपील दायर नहीं की जा सकती।
सेक्शन 5:
इस कानून में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को शामिल नहीं किया गया, क्योंकि यह मामला आजादी से पहले ही अदालत में लंबित था।
एक और अपवाद उन धार्मिक स्थलों का है, जो पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग (्रस्ढ्ढ) के अधीन आते हैं। इन स्थलों के रखरखाव और संरक्षण के काम पर कोई रोक नहीं है।
ये कानून ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा की शाही ईदगाह समेत देश के सभी धार्मिक स्थलों पर लागू होता है।
उपासना स्थल कानून किन परिस्थितियों में लाया गया था?
साल 1990 में, बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण आंदोलन के समर्थन में रथयात्रा शुरू की थी।
बिहार में उनकी गिरफ्तारी और उसी साल कार सेवकों पर गोलीबारी की घटनाओं ने पूरे देश, खासकर उत्तर प्रदेश में, साम्प्रदायिक तनाव को चरम पर पहुंचा दिया था।
इसी माहौल में, 1991 में अयोध्या आंदोलन और उससे जुड़े विवाद अपने चरम पर थे। ऐसे समय में, 18 सितंबर 1991 को, केंद्र में नरसिम्हा राव सरकार ने उपासना स्थल कानून संसद से पारित कराया।
उस वक्त उमा भारती सहित बीजेपी के कई नेताओं ने इस नए कानून का जमकर विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि इस तरह का कानून बनाकर हम ऐसे दूसरे विवादित मामलों की अनदेखी नहीं कर सकते।
उपासना स्थल से जुड़े विवाद कई राज्यों में कोर्ट में हैं
मौजूदा समय में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक जैसे राज्यों के 10 से ज़्यादा धार्मिक स्थलों और स्मारकों के मामले कोर्ट में लंबित हैं। इनमें उपासना स्थल कानून 1991 की भूमिका अहम हो जाती है।
इन मामलों में मौजूदा मस्जिदों, दरगाहों और स्मारकों को लेकर दावा किया जा रहा है कि इन्हें मंदिर तोडक़र बनाया गया था और इन्हें हिंदू समुदाय को सौंपा जाना चाहिए। दूसरी ओर, मुस्लिम पक्ष का कहना है कि ऐसे मुकदमे उपासना स्थल कानून के खिलाफ हैं।
अहम मामले
ज्ञानवामी मस्जिद : वाराणसी, उत्तरप्रदेश
वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद पर 1991 से मुकदमे चल रहे हैं पर 2021 में एक नए मुकदमे के बाद मामला तेजी से आगे बढ़ रहा है। कई मायनों में सारे लंबित मंदिर-मस्जिद के मामलों में ये केस सबसे आगे बढ़ा हुआ है।
इसमें भगवान विश्वेशर के भक्तों ने 1991 में एक केस दायर किया था। फिर 2021 में पाँच महिलाओं ने एक और याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने मस्जिद में पूजा करने की अनुमति मांगी और ये भी कहा कि मस्जिद में माँ श्रृंगार गौरी, भगवान गणेश और भगवान हनुमान जैसे कई और देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं जिन्हें सुरक्षित किया जाए।
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि मुगल शासक औरंगजेब ने मंदिर को तोडक़र ये मस्जिद बनाई थी।
वाराणसी की जिला अदालत के फैसले के बाद फरवरी 2024 से मस्जिद के एक तहखाने में इस साल से पूजा भी शुरू हो चुकी है। 2023 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने ये कहा कि ये याचिकाएं उपासना स्थल क़ानून के खिलाफ नहीं हैं। अब भी ये सारे मुकदमे अदालतों में लंबित हैं।
शाही ईदगाह मस्जिद- मथुरा, उत्तर प्रदेश
कुछ लोगों का दावा है कि मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद, भगवान कृष्ण के जन्मस्थल पर बनाई गई है। 2020 में छह भक्तों ने अधिवक्ता रंजना अग्निहोत्री की तरफ से एक याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने मस्जिद को हटाने की माँग की। अब इस मामले में 18 याचिकाएं हैं।
अगस्त 2024 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि ये याचिकाएँ भी उपासना स्थल कानून 1991 के खिलाफ नहीं जाती हैं।
2023 में हाई कोर्ट ने एक कोर्ट कमिश्नर को नियुक्त किया था जो मस्जिद का सर्वे कर सके पर जनवरी 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अंतरिम रोक लगा दी थी, जो अब तक लागू है।
अजमेर शरीफ दरगाह, राजस्थान
राजस्थान के अजमेर शहर में सूफी संत ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर इस साल हिंदू सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ने अजमेर की स्थानीय अदालत में एक याचिका दायर की है।
उनका दावा है कि दरगाह के नीचे एक शिव मंदिर है। अपनी याचिका में विष्णु गुप्ता ने वहाँ पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से सर्वे की माँग की है और कहा है कि दरगाह की जगह पर मंदिर फिर से बनना चाहिए।
अजमेर वेस्ट के सिविल जज मनमोहन चंदेल की बेंच ने याचिका पर सुनवाई करते हुए 27 नवंबर को अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय, दरगाह कमिटी और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को नोटिस जारी किया है। इसकी अगली सुनवाई 20 दिसंबर को है।
जामा मस्जिद- संभल, उत्तर प्रदेश
हाल के कुछ दिनों में ये मुकदमा बहुत चर्चा में रहा है। अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन ने नवंबर 2024 में एक याचिका में कहा कि संभल की जामा मस्जिद श्री हरिहर मंदिर को तोडक़र बनाई गई है।
इसके बाद कोर्ट ने एक कमिश्नर नियुक्त कर सर्वे करवाया। सर्वे की रिपोर्ट निचली अदालत में जमा हो चुकी है।
सुप्रीम कोर्ट में भी इसकी अपील अभी लंबित है। 29 नवंबर की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सर्वे के बाद की रिपोर्ट को सीलबंद रखा जाए और हाई कोर्ट की अनुमति के बिना इस केस में आगे कुछ नहीं किया जाए।
इन मामलों के अलावा, जुम्मा मस्जिद (मेंगलुरु, कर्नाटक), बाबा बुदनगिरी दरगाह (चिकमंगलूर, कर्नाटक), कमल मौला मस्जिद (धार, मध्य प्रदेश), टीले वाली मस्जिद (लखनऊ, उत्तर प्रदेश), शम्सी जामा मस्जिद (बदायूं, उत्तर प्रदेश), अटाला मस्जिद (जौनपुर, उत्तर प्रदेश), जामा मस्जिद और शेख़ सलीम चिश्ती की दरगाह (फतेहपुर सीकरी, उत्तर प्रदेश) जैसे मामले भी कोर्ट में हैं।
क्यों बढ़ रहे हैं ऐसे मामले?
ज्ञानवापी मामले की सुनवाई के दौरान तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने एक मौखिक टिप्पणी की थी।
इस टिप्पणी के बाद मस्जिदों के नीचे मंदिरों के अस्तित्व की जांच के लिए सर्वे कराए जाने की मांग की झड़ी सी लग गई है।
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा था कि प्लेसेस ऑफ़ वर्शिप एक्ट 1991 (उपासना स्थल कानून) 15 अगस्त 1947 की स्थिति के अनुसार, किसी भी संरचना के धार्मिक चरित्र की ‘जांच करने’ पर रोक नहीं लगाता है। तत्कालीन सीजेआई की इस मौखिक टिप्पणी को ट्रायल कोर्ट और बाद में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कानूनी अधिकार के तौर पर लिया।
इन अदालतों ने कहा कि पूजा स्थल अधिनियम के तहत इस तरह के मामलों पर रोक नहीं है। इसके बाद मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह मामले में भी सुनवाई को जारी रखने की मंजूरी मिली। (bbc.com/hindi)