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संगठन में जाना या छोडऩा निजी स्वतंत्रता
12-Nov-2024 3:21 PM
संगठन में जाना या छोडऩा निजी स्वतंत्रता

-जगदीश्वर चतुर्वेदी

असगर वजाहत (जनवादी लेखक संघ )और नरेश सक्सेना (प्रगति लेखक संघ)ने अपने अपने कारणों से इन संगठनों के पद त्याग दिए। इस पर फेसबुक पर काफी प्रतिक्रियाएं आई हैं।

सवाल यह है इन इस्तीफों को कैसे देखें? इस्तीफा देना व्यक्तिगत फैसला है और उसका सम्मान करना चाहिए।इन दोनों संगठनों में लेखकों की कोई वैचारिक घेरेबंदी नहीं है। लेखक अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्र हैं। यही वजह है कि लेखकों का इन संगठनों में आना जाना बना रहता है।

अधिकांश विवाद लेखकों के व्यक्तिगत वैचारिक और भावुक टकरावों से पैदा हुए हैं। इन टकराव या पंगों के कारण संगठन के चरित्र का निर्धारण नहीं करना चाहिए। इन दोनों ही संगठनों की बुनियाद है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लेखक की स्वतंत्रता। जब कोई लेखक सदस्य बनता है तो वह अपनी स्वतंत्रता को गिरवी नहीं रखता बल्कि उसे समृद्ध करने या संरक्षित करने के लिए संगठन में आता है। ये दोनों संगठन उसकी वैचारिक स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं।

अनेक बार एक ही संगठन के सदस्यों में किसी मसले पर वैचारिक टकराव भी होता है। यह स्वाभाविक चीज है। ये संगठन वैचारिक वैविध्य को मानते हैं। इस वैविध्य और लेखक के व्यक्तिगत नजरिए का सम्मान किया जाना चाहिए। उसकी वैचारिक प्राइवेसी का सम्मान करना चाहिए। संगठन जब किसी विषय पर वैचारिक आदेश देने लगे या लेखक को उसे मानने को मजबूर करे तो यह बात समझनी चाहिए कि लेखक और संगठन के पदाधिकारियों में वैचारिक अंतराल है, इस अंतराल को जबरदस्ती राजनीतिक आदेश के जरिए भरना संभव नहीं है। इसके अलावा लेखक की स्वतंत्र पहलकदमी और चयन की स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए।

ये दोनों संगठन लेखकों को एक ही वैचारिक दिशा में सोचने को बाध्य नहीं करते। यह करना संभव भी नहीं है। लेखक किसके कार्यक्रम में जाए और किस नजरिए से लिखे, यह फैसला संगठन की राजनीति के अनुसार करना संभव नहीं है। मसलन, असगर वजाहत ने गोडसे पर उसके पक्ष में लिखा, यह सब मीडिया की मांग पूर्ति के नियम के आधार पर लिखा। इससे उनके सर्जनात्मक लेखन और लेखकीय व्यक्तित्व को खारिज नहीं कर सकते। सैंकड़ों लेखक -कलाकार हैं जो बाजार या मीडिया की मांग पूर्ति के नियम के आधार पर लिखते हैं। इनमें अधिकांश बुर्जुआ नजरिए को व्यक्त करते हैं। यह परंपरा बहुत बड़ी है। इसमें सत्यजित राय से लेकर ऋत्विक घटक, सलिल चौधरी से लेकर कैफी आजमी तक सब आते हैं। सवाल यह है क्या लेखक मांग पूर्ति के नियमों से परे है ? क्या लेखक-कलाकार से हर समय किसी विशिष्ट विचारधारा में बंधकर लेखन करने की उम्मीद करना सही है?

लोकतंत्र की धुरी है व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। हर लेखक या व्यक्ति इसका पालन करने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन ज्यों ही वह स्वतंत्रता की दिशा में कदम बढाता है टकराव पैदा होते हैं। हम इनका स्वागत करें, लेखक या संगठन पर हमले न करें। इन टकरावों में सब्जेक्टिव या राजनीतिक लाइन के आधार पर फैसला करने से बचना चाहिए। नरेश सक्सेना कहां और किसके आयोजन में जाएंगे यह उनका निजी मसला है इस पर प्रलेसं के लोगों को अपनी राय व्यक्त नहीं करनी थी। उसी तरह असगर वजाहत ने जलेसं छोडा तो यह उनका निजी फैसला है उसका सम्मान किया जाए, असगर और जलेसं का मूल्य निर्णय न किया जाय।

लोकतंत्र आचरण की चीज है वह मात्र कागजी विचार नहीं है। प्रलेसं और जलेसं में सैकड़ों लेखक हैं उनके बीच में सृजन के स्तर पर वैचारिक वैविध्य है।


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