विचार / लेख
-दिनेश श्रीनेत
इन दिनों मैं स्वाभाविक रूप से सादगी की तरफ आकर्षित होता जा रहा हूँ। इसकी एक वजह तो शायद सूचनाओं का अतिरेक है। साथ ही बाजार से लेकर राजनीति और साहित्य से लेकर सोशल मीडिया में हो रहे मैनिपुलेशन से आक्रांत मन भी है। ऐसा लगता है कि कुछ भी स्वाभाविक नहीं रह गया है।
किंतु इसके बीज कम उम्र से मन में पड़ चुके थे।
बाल्यकाल में रीडर्स डाइजेस्ट का हिंदी संस्करण पहली बार घर में आया। पत्रिका का मूल्य अन्य के मुकाबले काफी ज्यादा था। जब बाकी पत्रिकाएं दो रुपये या डेढ़ की मिलाकर थीं उसकी कीमत शायद 10 रुपये थी। जब आई तो मैंने उसे खूब पढ़ा। यानी बार-बार पढ़ा। उसी अंक में एलेक्स हेली के उपन्यास ‘गुलाम’ का पहला हिस्सा भी प्रकाशित हुआ था। उसी पत्रिका में एक निबंध सादगी पर था। उसका आशय यह था कि सादगी का अर्थ बहुत थोड़े से संसाधनों के साथ जीवन-यापन करना नहीं बल्कि जीवन की जटिलताओं का स्वीकार और उनके प्रति सहजता भी है।
बहरहाल यह तो पता नहीं कि वह बात मेरी समझ में कितनी आई मगर जब मैं किशोरवय में आया तो तमाम विरोधाभासों के साथ अपने भीतर एक और विरोधाभास पाया कि मुझे सादगी और उपभोक्तावाद दोनों ही समान रूप से आकर्षित करता था। मैंने उन दिनों अपनी डायरी में इस प्रश्न का सामना करते हुए लिखा था कि शायद इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि दोनों जीवनशैली वस्तुओं के मोह से हमें मुक्त रखती हैं।
पर उस बात को तो बरसों बीत गए। मैंने जीवन उसी तरह जिया जैसे कि सभी जीते हैं। बीते कुछ बरसों में यह लगने लगा कि जरूरतें कम होनी चाहिए और जीवन सरल। एक बड़ा असर तो लॉकडाउन के दौरान लारा ब्लैंकली के व्लॉग देखकर भी हुआ। उसने मिनिमलिस्टिक लाइफ अपनाने और उसे छोड़ऩे पर भी वीडियो बनाए है। स्टॉकहोम में उसका एकांत जीवन आकर्षित करता है।
सरलता के प्रति इस आग्रह से मेरा रुझान ज़़ेन दर्शन के प्रति भी बढ़ा। बुनियादी अध्ययन से लगा कि यहां सिर्फ बातों की बजाय जीवन में छोटे परिवर्तन पर जोर है। यह बात मुझे पसंद आई। अभी हम विचारों और ओपनियन से आक्रांत हैं। हमें जीवन में परिवर्तन की जरूरत है।
तीसरी जो बात अक्सर मुझे प्रेरित करती है, सन् 1950 से पहले का सिनेमा देखना। उसमें मैं देखता हूँ कि एक भारतीय मध्यवर्गीय जीवन अस्सी के दशक तक कितना सरल और सादा था। इसमें मेरी सत्तर के दशक वाली बचपन की स्मृतियां भी जुड़ी हुई हैं। जब पिता के पास साइकिल होती थी और परिवार के पास रेडियो। हमारे पास जीवन को संचालित करने की अपनी अंत:प्रेरणाएं थीं।
अंतिम बात, जिसने मुझे प्रेरित किया, वह है नई पीढ़ी। बिल्कुल अभी की जनरेशन। हमारे आपके मध्यवर्गीय जीवन से निकले हुए युवा जिनकी उम्र इन दिनों 15 से 25 के बीच है। वे जीवन के प्रति, रिश्तों के प्रति बहुत सहज हैं और दिखावे से उनको चिढ़ है। वे ब्रांडेड वस्तुओं के चक्कर में नहीं पड़ते। उनको बेहतर पता है कि कैसे बाजार एक मायाजाल रचता है और किस तरह उससे दूर रहा जा सकता है।
जब मैं यह बात कह रहा हूँ तो इसका अर्थ यह नहीं कि सारे युवा ऐसे होंगे। सौभाग्य से मुझे बीते कुछ सालों में लगातार ऐसे युवा ही मिले जो यूं तो मन के उलझे हुए हैं, मगर उनका ध्यान बहुत सारे फालतू डिस्ट्रैक्शन से हटा हुआ है। वे जीवन की बुनियादी बातों पर फोकस कर रहे हैं। यह उनकी जीवन शैली में भी झलकता है। मसलन कपड़ों के चयन में एक किस्म की सॉफिस्टिकेटेड कैजुअलनेस, सिनेमा, संगीत और किताबों का बेहतरीन चयन, जीवन में क्या हासिल करना है, उससे ज्यादा क्या छोडऩा है, उसका विवेक।
यह तो हो गई उन तमाम इंस्पिरेशन की बात। मैं जब यह लिख रहा हूँ तो सोचता हूँ कि मैं अपने से क्या चाहता हूँ। सादगी का मेरे लिए भला क्या अर्थ है? बेशक, जरूरतें कम करना उनमें से एक है। इससे बड़ी बात है, जीवन में सहजता लाना। हम सबको पता है कि यह आसान नहीं है। हम सब एक जटिल दुनिया में जी रहे हैं। यहां सहजता के लिए भी संघर्ष करना पड़ेगा, और यदि संघर्ष करना होगा तो सहजता कहां। मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि हमें कुछ चुनने से पहले छोडऩा सीखना होगा।
आज की दुनिया में आपका चयन भी एक क्रांति हो सकती है। क्योंकि सारा सिस्टम आपको अपने हिसाब से चलने के लिए कह रहा है, यहां तक कि वह आपकी सोच पर भी नियंत्रण कर रहा है, ऐसे में यदि आप अपने तरीके से सोच पा रहे हैं और अपने तरीके से चुनाव कर पा रहे हैं तो यह बहुत बड़ी बात है और बहुत बड़ी सफलता ‘त्याग’ गांधी ने चुनने से पहले त्याग करना आरंभ किया। एक ऐसे समय में जिसकी सत्ता बहुत ही शक्तिशाली हाथों में थी। गांधी छोड़ते गए।
मुझे ‘गांधी’ फि़ल्म का एक प्रसंग बहुत मार्मिक लगता है। जब वे पाते हैं कि एक स्त्री के पास उसकी स्वाभाविक लज्जा के लिए भी वस्त्र नहीं हैं और वे अपनी धोती जिसे वे धुल रहे होते हैं पानी में बहने के लिए छोड़ देते हैं ताकि वह उस तक पहुँच जाए। यह पूरा दृश्य अत्यंत मार्मिक और साथ में प्रतीकात्मक भी। छोडऩा ही परिवर्तन है।
याद रखना होगा कि हमारी सादगी कभी दिखावा न बने। अच्छा तो हो उसके बारे में कोई न जाने। किसी को पूछने कूी जरूरत न पड़े। हमारे निर्णय चौंकाने वाले न हों, इतने सहज हों जैसे पेड़ों पर पत्तियां आ जाती हैं। सादगी का सफर आसान नहीं है। हमने इतना कुछ ओढ़ रखा है कि उसे उतारते-उतारते साल बीत जाएंगे।
सब लोग मेरे जैसा सोचें, ऐसा मेरा कोई जजमेंट नहीं है। सर्दियां आ रही हैं। इसकी लंबी रातें अपने ज्यादा करीब रहने का मौका देती हैं। चेखव की कहानी 'दुल्हन' में एक युवती जब सब कुछ छोडऩे का निश्चय करती है तो वह प्रसंग दु:ख की तासीर नहीं मुक्ति की ठंडी हवाएं लेकर आता है। इतनी खूबसूरत कहानी मैंने अपने जीवन में कम ही पढ़ी हैं। हर बार उतनी ही सुंदर। क्योंकि वह त्याग की कहानी है, तोलस्तोय की 'पुनरुत्थान' भी त्याग की कहानी है मगर उसका नायक ऐश्वर्य से निकलकर एक धार्मिक आडंबर ओढ़ लेता है। किंतु ‘दुल्हन’ की नायिका स्वयं में मुक्त है। मुक्त होना एक सफर है, उसके भी कितने पड़ाव हैं, जाहिर है उस नायिका का भी एक अनिश्चित भविष्य है, और अनिश्चय के स्वीकार में ही जीवन का सौंदर्य है। (फ़ेसबुक से)