विचार / लेख

भैंस से रेड कारपेट तक हीरा देवी
11-Nov-2024 12:11 PM
भैंस से रेड कारपेट तक हीरा देवी

-अशोक पांडे

पैंसठ पार की हीरा देवी विनोद कापड़ी की नई फिल्म ‘पायर’ की हीरोइन हैं। उत्तराखण्ड के सुदूर कस्बे बेरीनाग से कोई दस किलोमीटर दूर एक छोटे से गाँव गढ़तिर की रहने वाली हीरा देवी ने फिल्म के लिए चुने जाने से पहले अपना ज़्यादातर जीवन पहाड़ की अधिकतर निर्धन महिलाओं की तरह अपने परिवार और मवेशियों की देखरेख करते हुए बिताया था। सिनेमा और कैमरा छोडिय़े, बड़ी स्क्रीन वाले फोन जैसी चीजें भी उनके लिए किसी दूसरे संसार की चीजें थीं।

दो बेटों और एक बेटी की शादी-परिवार वगैरह निबटा चुकीं हीरा देवी कुछ वर्ष पहले पति के न रहने के बाद से एकाकी जीवन बिता रही थीं जब नजदीक के ही गाँव उखड़ से वास्ता रखने वाले पत्रकार-फिल्म निर्देशक विनोद कापड़ी ने उनके जीवन में दस्तक दी और अपनी फिल्म में काम करने का प्रस्ताव दिया।

घर में अकेली हीरा देवी का साथ देने को एक पालतू भैंस थी जो इत्तफाक से उन्हीं दिनों ब्याई थी। सो सारी दिनचर्या भैंस और उसके नवजात के लिए घास वगैरह का इंतजाम करने के इर्द-गिर्द घूमा करती। जब फिल्म में काम करने की बात चली तो पहला सरोकार भी वही था। दूसरी चिंता यह हुई कि अड़ोसी-पड़ोसी क्या कहेंगे। कुछ परिचितों ने उन्हें चेताया भी कि पिक्चर वालों का कोई भरोसा नहीं होता, कब कौन सी चीज की फिल्म खींच लें!

बहरहाल सारी परेशानियों का तोड़ निकाला गया और शूटिंग शुरू हो गई। हीरादेवी का घर मुख्य लोकेशन से कोई 6 किलोमीटर दूर था। शूटिंग सुबह साढ़े छ: पर शुरू होती और अक्सर रात के आठ बजे तक चलती। प्रोडक्शन वाले हीरादेवी को वैसी ही इज्जत बख्शते जैसी बॉलीवुड की किसी ऐक्ट्रेस को मिलती होगी। उन्हें अभिनय सिखाने के लिए बाकायदा एक प्रशिक्षक तैनात थे। हर रोज लाने-छोडऩे जाने को एक गाड़ी हमेशा खड़ी रहती। वे तडक़े उठकर ही जंगल जाकर गाड़ी के आने से पहले भैंस के लिए दिन भर की घास की व्यवस्था कर लेतीं।

शूटिंग का एक बेहद दिलचस्प वाकया है।

एक सीन में उन्हें घास का गठ्ठर उठाए नायक के साथ कहीं जाते हुए दिखाया जाना था। सुबह का सीन था। हीरा देवी के आने से पहले ही प्रोडक्शन की टीम ने कहीं से एक गठ्ठर घास का इंतजाम किया हुआ था। सेट पर पहुँचते ही हीरा देवी की निगाह सबसे पहले उसी पर पड़ी। उनकी आँखों में चमक आई।

सीन शुरू हुआ लेकिन उस दिन हीरादेवी के अभिनय में कोई जान नहीं आ रही थी। उनकी निगाह बार-बार उसी गठ्ठर की तरफ चली जाती। डायरेक्टर झुंझलाने लगता उसके पहले ही सीन रुकवा कर उन्होंने विनोद से पूछा-

‘इस घास का क्या करोगे?’ ‘यहीं फेंक देंगे। और क्या!’

उनके मन में टीस जैसी उठी। उन्होंने देर तक विनोद से बात की और यह बात सुनिश्चित करवाई कि शूटिंग खत्म होने पर फेंकने के बजाय घास उन्हें घर ले जाने को दे दी जाएगी। इस निश्छलता से अन्दर तक भीग गए विनोद ने प्रोडक्शन टीम को एक और गठ्ठर की व्यवस्था कर लाने को कहा। उसके बाद सब कुछ अच्छी तरह हुआ। उस शाम घर जाते हुए उनकी जीप में दो गठ्ठर घास भी भरी हुई थी। हीरादेवी के चेहरे पर उस दिन कैसा संतोष रहा होगा इसकी कल्पना वही कर सकता है जिसने हर सुबह जान की बाजी लगाकर चारे-लकड़ी की खोज में पहाड़ की महिलाओं को बाघों से भरे जंगलों में जाते हुए देखा है।


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