विचार / लेख
-शिल्पा शर्मा
ये जो लोग राग अलाप रहे हैं कि पटाखे फोड़ेंगे, पटाखे फोडऩा तभी बंद करेंगे जब अलां ये बंद करे और फलां वो बंद करे। ईश्वर इन्हें सद्बुद्धि दे!
और इन्हें सचमुच हिन्दू बनाने की ताकत दे, क्योंकि इन्हें कतई पता नहीं है कि आतिशबाजी की आमद नवीं शताब्दी में चीन से हुई। वही चीन, जिसकी झालरों का बहिष्कार आप अपना राष्ट्र धर्म निभाते हुए कर रहे हैं।
फिर सन् 1400 के आसपास (जब भारत पर मुगलों का राज था) पटाखे बजाना या आतिशबाजी का खेल गली नुक्कड़ों में किया जाने लगा तो इससे एक बात तो तय हो गई कि जो परंपरा सन 1400 के आसपास शुरू हुई और मुगल काल में शुरू हुई वो हिंदुओं की परंपरा तो कतई नहीं थी।
बहरहाल, मेरी छोटी समझ कहती है कि जब पटाखे गली-नुक्कड़ों पर फोडऩा शुरू किया गया होगा, तब इससे होने वाले वायु प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण की जानकारी नहीं रही होगी और न ही भारत विश्व का सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश रहा होगा।
अब जहां तक सवाल इस तर्क का है कि दुनियाभर में पटाखे फोड़े जाते हैं तो प्रदूषण नहीं होता और हम हिंदू दिवाली पर पटाखे फोड़ते हैं तो प्रदूषण होता है। तो ध्यान दें कि दुनियाभर जब में पटाखे जब फोड़े जाते हैं तो किसी एक निर्धारित स्थान पर जाकर फोड़े जाते हैं, हर गली नुक्कड़ में नहीं!
अब आपके परिवार में किसी को या आपको न हो तो कोई बात नहीं, पर लोगों को सांस से जुड़ी समस्याएं, अस्थमा या फिर धुएं से एलर्जी होती है, गला चोक होने लगता है, सांस नहीं आती, उनका क्या?
हमारी जनसंख्या सबसे अधिक है और हर गली में पटाखे फूटने से कितना प्रदूषण होगा? बच्चों, बूढों और बीमार लोगों के बारे में कुछ सोचने की मानवता रखिएगा या उसका भी पटाखा बना के फूंक दें सब?
करवाइए assign एक जगह हर शहर में, जाइए वहां और फोडि़ए पटाखे, इतना डिसिप्लिन पैदा कर/करवा पाएंगे सब में?
वैसे कुछ अच्छे कामों की पहल ख़ुद भी तो की जा सकती है, कुछ जानलेवा परंपराओं को हम स्वयं भी तो ख़त्म करने का साहस दिखा सकते हैं कि नहीं? हमारी परवरिश और शिक्षा यदि हमें मानवता नहीं सिखाती तो व्यर्थ ही हुई समझिए।


