विचार / लेख
-अंशुल सिंह
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की एक तस्वीर पूरे ब्रिक्स समिट के दौरान चर्चा में रही।
तस्वीर में पुतिन बीच में हैं और उनके अगल-बगल पीएम मोदी और शी जिनपिंग हैं। इस दौरान पुतिन कैमरे की तरफ़ मुस्कुराते हुए ‘थम्स अप’ का इशारा कर रहे हैं।
पांच साल बाद ब्रिक्स समिट में मोदी-जिनपिंग की मुलाकात हुई। दोनों नेता आखिरी बार साल 2019 में मिले थे तब शी जिनपिंग भारत के दौरे पर आए थे।
ब्रिक्स जैसे मंच पर दो सबसे बड़े आबादी वाले देशों के नेताओं की मुलाकात हुई और रूस ने इसे दुनिया भर में अपनी रणनीतिक सफलता के रूप में दिखाने की कोशिश की।
कजान में ब्रिक्स सम्मेलन ऐसे समय में हो रहा था जब एक तरफ तो यूक्रेन में युद्ध हो रहा है और दूसरी तरफ व्यापार के क्षेत्र में रूस पश्चिमी देशों के दबदबे को चुनौती देने में लगा हुआ है।
स्तंभकार सुधींद्र कुलकर्णी ने रूस के कजान में हुई इस ब्रिक्स समिट को इतिहास की सबसे सफल ब्रिक्स समिट बताया है और पुतिन को इसका हीरो।
लेकिन कज़ान में 20 से अधिक नेताओं की मेजबानी करने वाले पुतिन क्या सच में ऐसे साबित हुए हैं?
ब्रिक्स की स्थापना 2006 में ब्राजील, रूस, इंडिया और चीन ने की थी। साल 2011 में इस गुट में दक्षिण अफ्रीका शामिल हुआ था।
यह संगठन दुनिया की 44 फीसदी जनसंख्या और एक तिहाई से अधिक अर्थव्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता है।
पश्चिम को चुनौती देने में कितने सफल पुतिन?
अमेरिका समेत बाकी पश्चिमी देशों ने रूस के खिलाफ कड़े से कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं और इन देशों के साथ रूस के संबंध भी नाजुक दौर में हैं।
बात इतनी आगे बढ़ चुकी है कि पिछले साल इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट यानी आईसीसी ने यूक्रेन में कथित युद्धापराधों के मामले में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी कर दिया था।
लेकिन इस गिरफ्तारी वारंट के बावजूद पुतिन इसी साल सितंबर में इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट के सदस्य देश मंगोलिया पहुंचे थे। वारंट जारी होने के बाद किसी भी सदस्य देश की उनकी यह पहली यात्रा थी।
अगर गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया है तो आईसीसी सदस्यों से संदिग्धों को हिरासत में लेने की उम्मीद की जाती है लेकिन इसके लिए तय नियम नहीं हैं।
ब्रिक्स में जो घोषणापत्र जारी किया गया है उसमें भी अप्रत्यक्ष तौर पर पश्चिम द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों का जि़क्र है।
घोषणापत्र के मुताबिक़, ‘हम विश्व अर्थव्यवस्था, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति पर अवैध प्रतिबंधों सहित गैर-कानूनी एकतरफा उपायों के बांटने वाले प्रभाव के बारे में गहराई से चिंतित हैं। ये संयुक्त राष्ट्र चार्टर, बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली, सतत विकास और पर्यावरण समझौतों को कमजोर करते हैं। वे आर्थिक विकास, ऊर्जा, स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा पर भी नकारात्मक प्रभाव डालते हैं जिससे गरीबी और पर्यावरणीय चुनौतियाँ बढ़ती हैं।’
अजय पटनायक जेएनयू में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में प्रोफेसर और रूस मामलों के जानकार हैं।
अजय पटनायक कहते हैं, ‘पश्चिम ने जो प्रतिबंध लगाए थे उन्हें कई देश पहले से ही नहीं मानते थे। हां, ब्रिक्स एक आधिकारिक मंच हैं जहां पर सभी देश इस मुद्दे पर रूस के साथ खड़े दिखे। मुझे लगता है कि पहले भी अलग-अलग तरीकों से कई देश रूस का समर्थन कर रहे थे।’
ब्रिक्स में पुतिन ने डॉलर के बजाय स्थानीय करेंसी में लेन-देन पर ज़ोर दिया है और इसका जिक्र ब्रिक्स के घोषणापत्र में भी किया गया है।
घोषणापत्र में लिखा गया, ‘हम लोकल करेंसी में वित्तीय लेनदेन के निरंतर विस्तार में न्यू डेवेलपमेंट बैंक (पूर्व में ब्रिक्स बैंक) की इस पहल का समर्थन करते हैं। हम ब्रिक्स देशों के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंक गवर्नरों को यह काम सौंपते हैं कि लोकल करेंसी में भुगतान संबंधी मामलों को महत्व दें और अगले साल वापस हमें रिपोर्ट करें।’
2014 में ब्रिक्स ने न्यू डेवलपमेंट बैंक को शुरू किया था जिसे विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का एक विकल्प बताया जाता रहा है।
डॉलर को लेकर पुतिन ने कहा, ‘वैश्विक अर्थव्यवस्था में डॉलर अभी भी एक महत्वपूर्ण टूल है और इसको राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने से मुद्रा में विश्वास कम हो जाता है। हम डॉलर को अस्वीकार नहीं कर रहे हैं या उससे लड़ नहीं रहे हैं, लेकिन अगर वे हमें डॉलर के साथ काम नहीं करने देंगे तो हम अन्य विकल्प तलाशेंगे और हम बिल्कुल यही कर रहे हैं।’
उन्होंने कहा कि रूस और चीन के बीच लगभग 95 फीसदी व्यापार अब रूबल और युआन में होता है।
लेकिन क्या इस रणनीति से पश्चिमी देशों का मुकाबला किया जा सकता है?
स्वस्ति राव, अंतरराष्ट्रीय संबंधों की विशेषज्ञ हैं और मनोहर पर्रिकर इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज से जुड़ी हैं।
स्वस्ति कहती हैं, ‘दुनिया में बड़े देशों का एक समूह है जो रूस के पश्चिम के नहीं बल्कि अपने नजरिए से देखता है। जब वो इस नजरिए से देखता है तो उसे समझ में आता है कि एक ऐसी जगह भी है जहां न्यू डेवलपमेंट बैंक जैसी जगह है। कंटिंजेंट रिजर्व अरेंजमेंट जैसी व्यवस्था है जिसके तहत विकासशील देशों को वित्तीय मदद देता है। ज़ाहिर हैं ऐसी चीजें अपील करती हैं लोगों को। अगर आप इस लिहाज से देखेंगे तो पाएंगे कि रूस अकेला नहीं है।’
हालांकि लेन-देन और लोकल करेंसी से जुड़ी योजनाओं के बारे में विस्तार से कोई जानकारी नहीं दी गई है।
स्वस्ति कहती हैं, ‘लोकल करेंसी में व्यापार की जो बात है वो स्वागत योग्य है क्योंकि ये आपके आर्थिक संबंधों को सुरक्षित और स्थाई बनाती हैं। लेकिन भारत कभी ब्रिक्स करेंसी जैसी चीज़ का समर्थन नहीं करेगा क्योंकि असल में ये चीन के प्रभुत्व वाली करेंसी होगी।’
पश्चिमी देशों ने यह दिखाने की पूरी कोशिश की कि रूस अलग-थलग पड़ गया है और रूस ने ब्रिक्स के बहाने यह बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि पश्चिम को छोडक़र कई देश उनके साथ हैं।
तुर्की को ब्रिक्स में लाना
कजान में हिस्सा लेने के लिए तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन भी पहुंचे थे। अर्दोआन अपने पश्चिम के पारंपिक सहयोगियों से आगे बढक़र ब्रिक्स देशों से नज़दीकी बनाने में जुटे हैं।
पिछले कुछ समय से वो लगातार ब्रिक्स रूस, चीन और भारत वाले ब्लॉक ब्रिक्स में शामिल होने के लिए दिलचस्पी दिखा चुके हैं। ब्रिक्स ने तुर्की को पार्टनर देश का दर्जा दिया है।
इस साल अगस्त के महीने अर्दोआन के कहा था कि तुर्की सिर्फ पश्चिम के भरोसे नहीं रह सकता है।
उनका कहना था, ‘तुर्की सिर्फ पश्चिमी देशों के सहारे अपने लक्ष्यों को हासिल नहीं कर सकता है। तुर्की तभी एक मज़बूत, समृद्ध और प्रभावशाली देश बन सकता है जब वो पश्चिम और पूर्व के साथ अपने संबंधों को एक साथ आगे बढ़ाए।’
पुतिन ने इस साल तुर्की को ब्रिक्स सम्मेलन के लिए न्योता भेजा और न्योते को स्वीकार करने से पहले सितंबर में अर्दोआन ने आधिकारिक रूप से ब्रिक्स में शामिल होने के लिए आवेदन किया था।
तुर्की नेटो का सदस्य देश है। नेटो यानी नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन। पुतिन नेटो का विरोध करते आए हैं और यही नेटो रूस-यूक्रेन युद्ध की प्रमुख वजहों में से एक है।तुर्की पहला ऐसा नेटो देश है, जो ब्रिक्स में शामिल होना चाहता है। तुर्की के इस कदम के पश्चिम के साथ टकराव के रूप में देखा जा रहा है।
अजय पटनायक इस बारे में कहते हैं, ‘नेटो के सदस्यों पर काफी दबाव है कि रूस के साथ कोई डील न करें और न ही नज़दीकी बढ़ाएं। ऐसे में नेटो सदस्य तुर्की को ब्रिक्स के मंच तक लाना पुतिन के लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं है। हालांकि इससे पहले भी तुर्की और रूस के संबंध बेहतर हो रहे थे। अभी तुर्की को यूरोप के अंदर उस तरह की स्वीकार्यता भी नहीं मिल रही है। तुर्की नाराज है क्योंकि यूरोपीय संघ के मेंबर कई साल से उसकी सदस्यता को टाल रहे हैं और उसने देखा कि भूराजनीति की दृष्टि से भी रूस के नजदीक रहना उसके लिए फायदेमंद है।’
जनवरी 2024 में मिस्र, ईरान, इथियोपिया और यूएई को ब्रिक्स का सदस्य बनाया गया। हालांकि सऊदी अरब को भी शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था, लेकिन अभी हो नहीं पाया है।
सऊदी को भी अगर ब्रिक्स देशों में शामिल कर लिया जाए तो यह संगठन दुनिया भर में कच्चे तेल का कुल 44 फीसदी उत्पादन करता है।
तुर्की को लेकर स्वस्ति राव कहती हैं, ‘तुर्की ब्रिक्स के करीब आ रहा है लेकिन अर्दोआन कभी भी नेटो को नहीं छोड़ेंगे। लेकिन तुर्की के पास यूरोपीय संघ की सदस्यता नहीं है इसलिए वो ब्रिक्स में शामिल होने की कोशिश कर रहा है। तुर्की के अलावा कई और मध्य पूर्व के देश हैं जो ब्रिक्स के साथ जुडऩा चाहते हैं क्योंकि ब्रिक्स बार-बार कहता है कि तेल व्यापार में हम एक अलग की व्यवस्था शुरू कर रहे हैं। ब्रिक्स की ये बातें इन देशों के हित में हैं।’
मोदी-शी की मुलाकात पुतिन की कामयाबी?
आधे दशक बाद पीएम मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच कोई द्विपक्षीय बातचीत हुई। भारत की इस मुलाकात की घोषणा ब्रिक्स समिट से ठीक पहले की थी और पट्रोलिंग को लेकर जारी विवाद पर समझौते की बात कही थी। इसके अगले ही दिन चीन ने भी मुलाकात की पुष्टि की थी।
इस मुलाकात को पुतिन की कामयाबी बताया जा रहा है और इसे पुतिन के लिए एक बड़े मौके के रूप में देखा गया। कहा गया कि पुतिन पश्चिम को दिखाना चाहते हैं कि जो पश्चिमी देश पांच सालों में नहीं कर पाए वो उन्होंने कर दिखाया।
बातचीत में दोनों ही नेताओं ने ‘सीमा पर शांति’ बनाए रखने की प्राथमिकता को रेखांकित किया और ‘आपसी विश्वास, ‘आपसी सम्मान’ और ‘आपसी संवेदनशीलता’ को रिश्तों की बुनियाद बताया।’
शी जिनपिंग ने और अधिक ‘आपसी संवाद और सहयोग’ पर जोर देते हुए कहा, ‘दोनों देशों के लोग और अंतरराष्ट्रीय जगत हमारी मुलाकात को बहुत ग़ौर से देख रहा है।’
क्या मोदी और शी जिनपिंग के बीच हुई इस मुलाकात को पुतिन की कामयाबी माना जाना चाहिए?
स्वस्ति राव के मुताबिक मोदी और शी की मुलाकात के कई पहलू हैं।
वह कहती हैं कि स्वाभाविक तौर पर पुतिन इस मुलाकात का क्रेडिट लेंगे क्योंकि वह ग्लोबल साउथ को पश्चिमी देशों के बरअक्श रखना चाहते हैं। लेकिन भारत की शी जिनपिंग से मुलाकात और ब्रिक्स में रहने की अपनी वजहें हैं क्योंकि भारत अपने विकल्प खुले रखना चाहता है।
अजय पटनायक कहते हैं कि मैं पहले भी कई बार कह चुका हूं कि रूस बतौर माध्यम और ब्रिक्स वो जगह हैं जहां से भारत-चीन के संबंध सुधर सकते हैं।
पटनायक कहते हैं, ‘रूस जैसी शक्ति की जरूरत थी जो दोनों को एक साथ फोरम पर लाए और बातचीत के जरिए हल निकालने को कहे। इसमें रूस की भूमिका है और वो पृष्ठभूमि में रहा है। खुलकर तो कोई नहीं कहेगा कि रूस की भूमिका है लेकिन निश्चित रूप से इसमें रूस की भूमिका है।’
यूक्रेन के मुद्दे पर क्या कहा गया?
जब संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने ब्रिक्स के निमंत्रण को स्वीकार किया था तब यूक्रेन के विदेश मंत्रालय ने उनकी कड़ी आलोचना करते हुए इसे उनका ‘गलत चुनाव’ बताया था। हालांकि गुटेरेस की तरफ से इस पर अब तक कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है।
ब्रिक्स के 43 पन्नों वाले घोषणापत्र में सिफऱ् एक बार ‘यूक्रेन’ शब्द लिखा गया है।
घोषणापत्र में 134 प्वाइंट हैं और इसके 36वें प्वाइंट में लिखा है, ‘हम यूक्रेन और उसके आस-पास की स्थिति को लेकर अलग-अलग देशों के रुख़ को याद करते हैं जिसे यूएनएसी और यूएनजीए सहित उपयुक्त मंचों पर बताया गया है। हम इस बात पर जोर देते हैं कि सभी देशों को संयुक्त राष्ट्र चार्टर के उद्देश्यों पर लगातार कार्य करना चाहिए। हम बातचीत और कूटनीति के जरिए इस संघर्ष के शांति समाधान के लिए मध्यस्थता और अच्छे प्रयासों की सराहना करते हैं।’
स्वस्ति राव ब्रिक्स की इस घोषणा को रूस के लिए एक बड़ा सैटबेक मानती हैं। वो कहती हैं, ‘पूरा पश्चिम यूएन चार्टर के तहत रूस-यूक्रेन युद्ध को अवैध बताता है और ऐसे में अगर घोषणापत्र में यूएन चार्टर की बात की जा रही है तो आप इसे क्या कहेंगे? अगर ब्रिक्स भी यूएन चार्टर को मानने की बात कह रहा है तो यह रूस के लिए सोचने वाली बात है कि फिर युद्ध किया ही क्यों?। पश्चिमी देश तो इस बात से ख़ुश होंगे कि भारत ने उनकी बातचीत वाली भाषा का इस्तेमाल करवाया है।’
बुधवार को कीएव में यूक्रेन के विदेश मंत्रालय ने कहा कि रूस ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में यूक्रेन पर अपने आक्रमण के लिए समर्थन हासिल करने में विफल रहा है।
यूक्रेन के विदेश मंत्रालय ने कहा अपने बयान में कहा -
*यह घोषणापत्र दिखाता है कि ब्रिक्स का एक संगठन के तौर पर यूक्रेन के खिलाफ रूस के आक्रामक अभियान पर कोई एक रुख़ नहीं है।
*हमारा मानना है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि इन देशों में से अधिकतर यूएन चार्टर के उद्देश्यों और सिद्धांतों का समर्थन करते हैं, जिसका जिक्र घोषणापत्र में भी किया गया है।
*ब्रिक्स सम्मेलन, जिसके जरिये रूस की योजना दुनिया को बांटने की थी, उस सम्मेलन से फिर दिखाया है कि दुनिया का अधिकतर हिस्सा यूक्रेन के उस इरादे के साथ खड़ा है, जिसके तहत वह अंतरराष्ट्रीय कानूनों और यूएन चार्टर के तहत न्याय और स्थायी शांति चाहता है।
* इसमें अंतरराष्ट्रीय मान्यता पात्र सीमाओं के अधीन अपनी क्षेत्रीय अखंडता बनाए रखने का सिद्धांत भी शामिल है।
दिलचस्प यह है कि एक ओर ब्रिक्स चल रहा था तो ठीक उसी समय अमेरिका ने यूक्रेन को वित्तीय मदद देने का एलान किया। (bbc.com/hindi)


