विचार / लेख
-दिनेश श्रीनेत
लेखक होना अलग है, लिक्खाड़ होना अलग। हर कोई इसलिए लेखक नहीं हो जाता कि उसने कुछ किताबें लिख दी हैं। हम किसी को इसलिए नहीं पढ़ते कि उसने बहुत सारा लिख दिया है। खराब लेखक ही संख्या का आतंक पैदा करते हैं। मसलन हमारी अब तक 20 किताबें आ चुकी हैं। अवार्ड का आतंक दिखाते हैं, हमें फलां-फलां-फलां स्मृति सम्मान मिल चुका है। वे मंचों पर माइक पकडक़र बैठ जाते हैं। वे किताबें पकडक़र तस्वीर खिंचवाते हैं। ऐसी मुद्रा अपनाते हैं, ऐसी पोशाक पहनते हैं कि उन्हें देखते लगे कि वे रचनाकार हैं। विचारधारा की लाठी कंधे पर लेकर विजय मुद्रा में तनकर चलते हैं।
यानी बेहतर रचना लिखने के अतिरिक्त हर वह प्रयास करते हैं, जिससे उनको रचनाकार मान लिया जाए।
जबकि हम किसी को इसलिए नहीं पढ़ते कि वह बहुत सारे विषयों पर कलम चला सकता है। किस्सागोई तो एक हुनर है। लेखनी सिर्फ एक माध्यम है, अपने विचारों को दूसरों तक ले जाने का। उन तक ले जाने का जिन्हें हम जानते भी नहीं। अपनी भौतिक सीमाओं के परे, अपने शहर से परे, अपने देश से परे ले जाने का एक जरिया है लेखन।
लिखना इसलिए जरूरी है क्योंकि अभी कही गई बात नष्ट हो जाएगी।
लिखी बात समय की सीमाओं को तोड़ते-फोड़ते समय की रेल के साथ भागेगी। खुद के एकांत में जो लिखा-रचा गया है, वह अचानक किसी और के एकांत का हिस्सा बन जाएगा। खुद के सपने किसी और की आँखों में उसके सपनों की शक्ल में उतर आएंगे। लिखना इसीलिए जरूरी है क्योंकि हमारे पास कहने के लिए कोई बात है। और उतना ही सच यह भी है कि हमारे पास एक जीवन में कहने के लिए बहुत सारी बातें नहीं हैं।
अच्छे लेखन में विस्तार नहीं गहराई होती है। जैसे पत्ते पर टिकी पानी की एक बूंद में इंद्रधनुष समा जाता है। हम किसी का लिखा इसीलिए पढ़ते हैं कि उसके पास कहने के लिए कोई अलग बात होती है। यह अलग बात ही उसे 'लेखक' बनाती है। नहीं तो लिखते तो बहुत से लोग हैं। एक खबरनवीस रोज हजारों शब्द लिखता है, लेकिन वो तात्कालिक होता है और भुला दिया जाता है।
जो बात भूलने के विरुद्ध खड़ी हो, वही लेखनी है।
एक लेखक की अपनी विकास यात्रा होती है। उसके पास दुनिया भर के विषय नहीं होते हैं। वह बिना पेंदी के लोटे की तरह इधर से उधर लुढक़ता नहीं रहता है। यदि वह स्वयं को ख़ारिज भी करता है तो उसकी भी तार्किक कडिय़ां होती हैं। एक अच्छा लेखक अंतत: चुक भी जाता है। बेहतर लेखक-मनुष्य ज्यादा होता है, लेखक कम। जबकि खराब लेखक-ज्यादा लेखक होता है, मनुष्य कम। ज्यादा गंभीरता ओढ़े हुए लोगों की विश्वसनीयता भी संदिग्ध होती है।
अपने ही महिमामंडन और अहंकार के बोझ से दबे हुए लोगों के पास दूसरों को कुछ देने के लिए नहीं होता। उनके भीतर कोई बेचैनी या तलाश नहीं होती। लेखक अपने अकेलेपन में खुद पर हँस सकता है और आपके साथ भी। उसके पास अपने सत्य पर यकीन करने और उसके पीछे-पीछे चलने के सिवा कोई चारा नहीं होता। वह कोई एक राह पकडक़र इसी उम्मीद में चलता जाता है कि उसे अपनी मंजि़ल एक दिन मिल ही जाएगी।
उसका यह भोला मगर अटूट विश्वास ही दरअसल उसे एक पाठक के लिए खास बनाता है। उनसे जोड़ता है। यदि उसे अपनी मंजिल मिल ही जाए तो वह लेखक कहां रह जाएगा, दार्शनिक, समाजसुधारक राजनेता बन जाएगा। हर लेखक अपने कुछ स्वप्नों का पीछा करने में सारी जि़ंदगी गुजार देता है। हम हर बार जब किताब उठाते हैं तो हम भी धुंध में लेखक की परछाईं के पीछे-पीछे भागते हैं। उसकी धडक़न हमारी धडक़न बन जाती है। उसकी उम्मीद हमारी उम्मीद।
इसलिए लेखक होना अलग है, बहुत अलग। (फेसबुक)


