विचार / लेख
-दीपाली जगताप
पिछले पांच वर्षों में महाराष्ट्र की राजनीति में अप्रत्याशित उथल-पुथल हुई है। राज्य की जनता ने एक के बाद एक कई सियासी झटके देखे।
लेकिन क्या जनता इन झटकों को पचा पाई, यह आने वाले हफ़्तों में साफ हो जाएगा। मंगलवार को चुनावों की घोषणा के साथ राज्य में छह प्रमुख राजनीतिक दलों की परीक्षा 16 अक्तूबर से शुरू होगी।
महाराष्ट्र में 288 सीटों पर विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। 2019 से 2024 तक पांच साल का कार्यकाल महाराष्ट्र की राजनीति में अप्रत्याशित घटनाओं का दौर रहा है।
सवाल ये है कि आखऱि बीते पांच वर्षों में महाराष्ट्र में सियासी तस्वीर कैसे बदल गई है? आने वाले चुनाव राजनीति और मतदाताओं के लिए मुख्य रूप से क्या बदलाव लेकर आए हैं?
इस लेख में इन्हीं सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे।
अब किस पार्टी के कितने विधायक?
सबसे पहले तो इस बार चुनावों में दो नई पार्टियां नजर आएंगीं। दरअसल, ये दोनों नई पार्टियां पिछली बार चुनाव लड़ चुकी दो पार्टियों से अलग होकर बनी हैं। पिछले पांच वर्षों की राजनीतिक घटनाओं की वजह से इन पार्टियों का गठन हुआ है।
महाराष्ट्र विधानसभा में शिवसेना शिंदे गुट के पास 40 विधायक हैं। बीजेपी के पास 103 विधायक और एनसीपी के अजित पवार गुट के पास 40 विधायक हैं।
दूसरी ओर, महाविकास अघाड़ी में एनसीपी के शरद पवार गुट के पास 13 विधायक, शिवसेना के उद्धव ठाकरे गुट के साथ 15 विधायक और कांग्रेस के 43 विधायक हैं।
इसके अलावा राज्य में बहुजन विकास अघाड़ी के तीन 3, समाजवादी पार्टी के 2, ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिम के 2, प्रहार जनशक्ति 2, एमएनएस के 1, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) - 1, शेकांप 1, स्वाभिमानी पार्टी 1, राष्ट्रीय समाज पार्टी 1, महाराष्ट्र जनसुराज्य शक्ति पार्टी के 1, क्रांतिकारी शेतकारी पार्टी के 1 और निर्दलीय 13 विधायक हैं।
बदलते मुख्यमंत्री और अनोखे राजनीतिक प्रयोग
2019 का विधानसभा चुनाव शिवसेना और बीजेपी के गठबंधन ने मिलकर लड़ा था। दूसरी ओर कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन ने भी साथ मिलकर चुनाव लड़ा था।
बीजेपी और शिवसेना के गठबंधन को बहुमत तो मिल गया, लेकिन मुख्यमंत्री पद को लेकर गठबंधन टूट गया।
इसके बाद लगातार कुछ दिनों तक महाराष्ट्र में राजनीतिक प्रयोग शुरू हो गए। इन्हीं दिनों में से एक है 23 नवंबर 2019।
उस दिन सुबह-सुबह बीजेपी ने अजित पवार के साथ मिलकर सरकार बनाने की कोशिश की।
23 नवंबर 2019 की सुबह देवेंद्र फडणवीस और अजीत पवार राजभवन पहुंचे। उन्होंने क्रमश: मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
हालाँकि अगले कुछ घंटों में ही यह स्पष्ट हो गया कि प्रयोग विफल हो गया है क्योंकि एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार और पार्टी विधायकों ने बाद में स्पष्ट किया कि वे बीजेपी के साथ नहीं जाएंगे।
इसके बाद शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी साथ आए और महाविकास अघाड़ी का गठन किया।
इन दलों ने एक ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ बनाया। 28 नवंबर, 2019 को शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इसके बाद करीब ढाई साल तक राज्य में महाविकास अघाड़ी की सरकार रही।
इस बीच मार्च 2020 से 2022 तक पूरी दुनिया में कोरोना संकट रहा। उस समय तत्कालीन ठाकरे सरकार के प्रशासनिक कौशल की परीक्षा हुई थी।
कोविड की लहर कम हुई और एक बार फिर महाराष्ट्र में तीसरा राजनीतिक प्रयोग किया गया।
20 जून 2022 को, एकनाथ शिंदे, जो महाविकास अघाड़ी में शहरी विकास मंत्री थे, कुछ शिवसेना विधायकों के साथ ग़ायब हो गए और सीधे सूरत के लिए रवाना हो गए।
जाहिर तौर पर शिवसेना के 40 विधायकों और लगभग 10 निर्दलीय विधायकों ने एकनाथ शिंदे का समर्थन किया था।
इसी बीच तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
30 जून 2022 को राज्य में फिर से शिवसेना और बीजेपी की गठबंधन सरकार बनी और एकनाथ शिंदे ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
इस तारीख तक राज्य में तीन सरकारें बन चुकी थी। लेकिन सियासी 'सर्कस' यहीं नहीं रुका, बल्कि इसके बाद शिवसेना में बागी गुट ने पार्टी के चुनाव चिह्न पर दावा ठोक दिया। चुनाव आयोग ने एकनाथ शिंदे की शिवसेना को पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह दे दिया।
दूसरी ओर, विधायकों की अयोग्यता का मामला अभी भी सुप्रीम कोर्ट, विधानसभा अध्यक्ष और फिर सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।
लेकिन ये सियासी खेल यहीं नहीं रुका।
2 जुलाई 2023 को एनसीपी नेता और शरद पवार के भतीजे अजित पवार पार्टी के नौ सदस्यों के साथ राजभवन पहुंचे और गठबंधन सरकार में उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
इसके बाद अजित पवार ने भी एकनाथ शिंदे के नक्शेकदम पर चलते हुए एनसीपी पार्टी पर दावा किया और घोषणा की कि वह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। चुनाव आयोग ने शिवसेना की तरह अजित पवार को भी पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न दे दिया।
किन वजहों से अहम है ये चुनाव?
महाराष्ट्र में अब तक दो प्रमुख विचारधाराओं या गठबंधनों, के बीच वोटिंग होती रही है। इसमें जातीय गणित हमेशा महत्वपूर्ण रहा।
इस बारे में बात करते हुए वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक अभय देशपांडे कहते हैं, ‘2019 में चार प्रमुख पार्टियाँ थीं। अब छह पार्टियां हैं। अब तक धर्मनिरपेक्षता और दक्षिणपंथी विचारधारा के बीच चुनाव होता रहा है लेकिन अब ये लड़ाई बीजेपी के साथ या बीजेपी के विरोध में बंट गई है। इसकी वजह से विचारधारा का ध्रुवीकरण अब पहले जैसा नहीं रहा।’’
अभय देशपांडे ने कहा, ‘दो पार्टियों को सिंबल पार्टी से अलग हुए एक समूह को विरासत में मिले हैं। हालांकि चुनाव आयोग ने असली पार्टी कौन है ये तो बता दिया लेकिन जनता उनके बारे में क्या सोचती है ये इस चुनाव में साफ हो जाएगा। हमें यह भी पता चल जाएगा कि विचारधारा से समझौता कर सरकार स्थापित करने और उसके लिए पार्टी तोडक़र विधायकों की ताकत हासिल करने के राजनीतिक प्रयोग पर जनता की क्या प्रतिक्रिया है।’’
उन्होंने कहा, ‘आरक्षण का मुद्दा तेज़ हो गया है। मराठा बनाम ओबीसी, आदिवासी बनाम धनगड़ विवाद उठ खड़े हुए हैं। इसके चलते सभी राजनीतिक दलों को इसमें संतुलन बनाए रखना होगा। क्योंकि डर है कि किसी एक समुदाय का पक्ष लेने से दूसरा समुदाय नाराज हो सकता है। ’
देशपांडे कहते हैं कि ये भी देखना बाकी है क्या हरियाणा की तरह अन्य छोटे दल और तीसरा गठबंधन भी कितनी ताकत से चुनाव लड़ सकते हैं।
महाराष्ट्र में राजनीतिक दलों के पास अब तक अपना पारंपरिक वोट बैंक रहा। ये वोटर लगातार उनसे जुड़े रहे थे।
लेकिन राजनीतिक बदलाव के बाद पार्टी में फूट की तरह ही विचारों में भी फूट देखने को मिल रही है। इसका असर चुनाव सर्वे पर भी दिख सकता है।
वरिष्ठ पत्रकार दीपक भातुसे कहते हैं, ‘राज्य में 2024 का लोकसभा चुनाव भी अलग था। अब तक चुनावों में लड़ाई प्रगतिशील धड़े और हिंदुत्व के बीच थी। विकास, भ्रष्टाचार और अन्य मुद्दों के अलावा मतदाता इस विचारधारा पर भी बंटे हुए थे। 2019 के चुनाव तक, शिवसेना-भाजपा गठबंधन बनाम कांग्रेस-राष्ट्रवादी गठबंधन ने वैचारिक आधार पर मतदाताओं का विभाजन देखा।’’
उन्होंने कहा, ‘2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में प्रगतिशील मतदाताओं ने भी इसके भ्रष्टाचार और नरेंद्र मोदी के करिश्मे जैसे मुद्दे पर वोट दिए। लेकिन महाविकास अघाड़ी के गठन और शिवसेना और एनसीपी के बीच विभाजन के बाद बने महागठबंधन के कारण अब अगले चुनावों में मतदाताओं के लिए वोटिंग इतना सुलझी हुई नहीं होगी।’’
भातुसे कहते हैं कि अब वोटों का विभाजन सीधे-सीधे नहीं होगा क्योंकि पार्टियों में विभाजन की वजह का असर वोटरों पर जरूर पड़ेगा।
उनके मुताबिक एनसीपी को वोट देेने वाले प्रगतिशील वोटर अब महाविकास अघाड़ी को वोट दे सकते हैं। वहीं एकनाथ शिंदे की वजह से शिवसेना के कुछ वोटर उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना को वोट दे सकते हैं। जाहिर है मतदाताओं को सामने भ्रम की स्थिति हो सकती है। क्योंकि उन्हें विचारधारा और नए गठबंधन दोनों को देखना है।
वरिष्ठ पत्रकार सुधीर सूर्यवंशी कहते हैं कि अलग-अलग विचारधारा वाली पार्टियां अब गठबंधन में एक साथ हैं इसकी वजह से इन पार्टियों के सामने लोगों से अपनी विचारधारा मनवाने की चुनौती है।
उन्होंने बताया, ‘उदाहरण के तौर पर अजित पवार के लिए चुनौती यह है कि बीजेपी में शामिल होने के बावजूद वह धर्मनिरपेक्ष विचारधारा पर कायम रहेंगे कि नहीं। दूसरी ओर, उद्धव ठाकरे और कांग्रेस के लिए लोगों को वैचारिक समझौते के लिए मनाना चुनौतीपूर्ण है। वोट कैसे ट्रांसफर होंगे ये इस बात पर निर्भर करेगा कि कौन वोटरों को अपने पारंपरिक रुख में बदलाव के लिए किस हद तक मना पाता है।’
हालांकि महाविकास अघाड़ी को लोकसभा चुनावों में अच्छी सफलता मिली थी लेकिन विधानसभा में उसके लिए इस प्रदर्शन को बरकरार रखना चुनौतीपूर्ण होगा।
इसके लिए उनके पास रणनीति बनाने की जरूरत है। खासकर तब जब महायुति (शिवसेना-शिंदे गुट, बीजेपी और एनसीपी (अजित पवार) सरकार इतनी बड़ी योजनाएं लेकर आ रही हैं।
राज्य में फिलहाल गठबंधन सरकार है। लेकिन राजनीतिक गठबंधनों और पार्टियों में फूट के चलते राज्य में राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप भी तेज हो गए हैं।
साफ है कि इस विधानसभा चुनाव में अब सीधा मुकाबला महा विकास अघाड़ी और महायुति के बीच होगा।
आरक्षण का कोहरा और योजनाओं की बारिश
पिछले दो सालों में जहां तमाम राजनीतिक हलचलें चल रही थीं वहीं महाराष्ट्र में आरक्षण की बहस भी तेज हो गई है।
मराठवाड़ा से शुरू हुआ मराठा आरक्षण आंदोलन एक साल के भीतर ही राज्यव्यापी हो गया और इतना ही नहीं इससे राजनीति में भी भूचाल आ गया।
मराठों के लिए ओबीसी के तहत आरक्षण देेने की मांग ओबीसी समुदायों को नाराज कर रही है। सरकार ने मराठा समुदाय के लिए दस फीसदी आरक्षण का ऐलान किया है लेकिन कुनबी प्रमाणपत्र के लिए विवाद बना हुआ है।
ओबीसी नेताओं और समाज ने इस मांग का विरोध किया है। लक्ष्मण हाके, मंत्री छगन भुजबल समेत कई ओबीसी नेताओं के आक्रामक रुख को देखते हुए मराठा समुदाय के लोगों को अलग से आरक्षण का ऐलान किया गया।
ओबीसी समुदाय को लग रहा था कि कहीं सरकार उनके आरक्षण में मराठों को हिस्सेदारी न दे दे। लेकिन सरकार ने मराठों के लिए अलग से आरक्षण का ऐलान किया।
इसका असर हाल ही में हुए लोकसभा के नतीजों में भी देखने को मिला।
मराठा और ओबीसी समुदायों के साथ-साथ धनगर समुदाय को आदिवासी दर्जा देकर आरक्षण देने की मांग एक बार फिर उठी है। दूसरी ओर आदिवासी समुदाय ने धनगर समुदाय को एसटी वर्ग से आरक्षण देने का विरोध किया। इस मुद्दे पर डिप्टी स्पीकर नरहरि जिरवाल समेत 13 विधायकों ने मंत्रालय की तीसरी मंजिल से छलांग लगा दी थी।
दूसरी ओर मराठा आरक्षण आंदोलन को नेतृत्व देेने वाले मनोज जरांगे पाटिल ने भी अपना राजनीतिक रुख़ साफ किया है। इसका असर कई विधानसभा क्षेत्रों में दिख सकता है।
लोकसभा चुनाव में महायुति को जितनी सफलता की उम्मीद थी उतनी नहीं मिली। इसके बाद विधानसभा में महायुति आक्रामक नजर आई। पिछले कुछ दिनों में सरकार की ओर से कई बड़े ऐलान किए गए।
चाहे वह लडक़ी बहिन योजना हो या युवाओं को भत्ता देने की योजना। कई माध्यमों से लोगों के बैंक खातों में पैसा आएगा। इससे महाविकास अघाड़ी के सामने चुनौती भी बढ़ गई है।
लेकिन अब देखना यह है कि लोग पांच साल के राजनीतिक भूचाल, विचारधारा, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सूखा और राजनीति में नैतिकता के आधार पर वोट देंगे या फिर आरक्षण, जातीय समीकरण और नये गठबंधन को स्वीकार करेंगे। (bbc.com/hindi)


