विचार / लेख
-अभिनव गोयल
हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों ने ज्यादातर चुनावी विश्लेषकों को गलत साबित कर दिया है।
दस साल सत्ता में रहने के बाद लगातार तीसरी बार भारतीय जनता पार्टी राज्य में सरकार बनाने जा रही है।
बीजेपी ने राज्य की कुल 90 विधानसभा सीटों में 48 पर जीत दर्ज की है।
हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में 10 में से 5 सीटें हाथ से खोने वाली सत्तारूढ़ बीजेपी के लिए कहा जा रहा था कि ये चुनाव आसान नहीं होंगे।
यहां तक की चुनाव के बाद हुए हर एग्जिट पोल में भी पूर्ण बहुमत से कांग्रेस की सरकार बनने का दावा किया गया था।
नतीजों से पहले सोशल मीडिया से लेकर टीवी चैनलों तक पर किसान, जवान और पहलवान के मुद्दे को बीजेपी की हार के लिए जि़म्मेदार ठहराया जा रहा था। लेकिन जब मतदान की पेटियां खुलीं तो नतीजों को एक बड़े उलटफेर की तरह देखा गया।
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि बीजेपी ने हरियाणा में दस साल की कथित एंटी इंकम्बेंसी के बावजूद सत्ता कैसे हासिल की?
वो कौन से समीकरण थे, जिसने न सिर्फ कांग्रेस बल्कि राज्य की पूरी राजनीति को बदलकर रख दिया?
बीजेपी के लिए कितना मुश्किल था चुनाव
विधानसभा चुनावों से करीब छह महीने पहले बीजेपी ने हरियाणा में मनोहर लाल की जगह नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाया।
उनके जरिए पार्टी ने राज्य के ओबीसी समाज को लामबंद करने की कोशिश की। हालांकि उस वक्त अधिकतर राजनीतिक विश्लेषकों का दावा था कि यह प्रयोग सफल नहीं होगा।
भले बीजेपी ने राज्य में जीत का आंकड़ा पार कर लिया है लेकिन मुख्यमंत्री नायब सैनी कैबिनेट के कुल 12 में से 9 मंत्री अपना चुनाव हार गए हैं।
यहां तक की नायब सैनी और अनिल विज जैसे बड़े नेताओं की जीत का अंतर भी कुछ खास बड़ा नहीं है।
इतना ही नहीं राज्य में 10 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां बीजेपी की जीत का अंतर 5 हजार से भी कम है।
इन सीटों में उचाना कलां, दादरी, पूंडरी, असंध, होडल, महेंद्रगढ़, अटेली, सफीदों, घरौंडा और राई विधानसभा शामिल है।
अटेली और पूंडरी विधानसभा को छोडक़र बाकि की आठ सीटों पर हारने वाले उम्मीदवार कांग्रेस पार्टी के हैं। यही वजह है कि मतगणना के दिन देर शाम तक भी कांग्रेस अपनी जीत को लेकर उम्मीद लगाए बैठी थी।
गैर जाटों की लामबंदी
साल 2014 में भारतीय जनता पार्टी ने हरियाणा में पहली बार सरकार बनाई। पार्टी ने गैर जाट यानी पंजाबी खत्री समुदाय से आने वाले मनोहर लाल को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया।
इसी के साथ पार्टी ने राज्य में गैर जाट समाज को लामबंद करना शुरू कर दिया। बीजेपी ने 2019 का विधानसभा चुनाव भी उनके ही चेहरे पर लड़ा।
2024 के विधानसभा चुनाव में भी पार्टी ने ओबीसी समाज से आने वाले नायब सैनी को चुना।
वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस की बागडोर जाट समुदाय से आने वाले भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने संभाली। हालांकि कांग्रेस ने उन्हें आधिकारिक तौर पर मुख्यमंत्री का चेहरा चुनाव में घोषित नहीं किया था।
वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं, ‘चुनावों में जाटों को लेकर एक नैरेटिव बन गया था कि अगर कांग्रेस सरकार आई तो भूपेंद्र सिंह हुड्डा मुख्यमंत्री होंगे। इसके खिलाफ बीजेपी ने गैर जाट समाज को एकजुट करने की कोशिश की और इस कोशिश में ओबीसी के साथ-साथ दलित वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा भी पार्टी के खाते में गया।’
कांग्रेस के 10 उम्मीदवार ऐसे हैं जिनकी हार का अंतर पांच हजार वोटों से भी कम का है।
राजनीति के जानकारों का ऐसा मानना है कि हरियाणा में जाटों की आबादी करीब 25 प्रतिशत और ओबीसी आबादी करीब 40 प्रतिशत है।
वरिष्ठ पत्रकार आदेश रावल भी जाट बनाम गैर जाट के नाम पर चुनाव के पोलराइज्ड होने की बात करते हैं।
वे कहते हैं, ‘हाल के लोकसभा चुनावों में संविधान के मुद्दे पर कांग्रेस को दलितों का वोट मिला, लेकिन इस बार राज्य में दलितों के एक हिस्से ने खुद को गैर जाटों के साथ शामिल कर लिया। लोगों को डर हो गया कि कांग्रेस आई तो जाट मुख्यमंत्री बन जाएगा।’
दलितों में इसी डर का जिक्र करते हुए बुधवार को इंडियन एक्सप्रेस में वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी ने एक लेख लिखा। उन्होंने लिखा कि हरियाणा में ‘जाटशाही’ के डर ने दलितों को कांग्रेस से दूर करने का काम किया।
सिरसा से कांग्रेस सांसद कुमारी शैलजा की नाराजग़ी ने भी इस डर को बढ़ाने का काम किया। विजय त्रिवेदी कहते हैं, ‘समय रहते कुमारी शैलजी की नाराजगी को दूर नहीं किया गया और उनके साथ जो बर्ताव हुआ उससे राज्य में दलित वोट बैंक पर उसका सीधा प्रभाव पड़ा।’
वहीं दूसरी तरफ भिवानी के वरिष्ठ पत्रकार इन्द्रवेश दुहन कहते हैं कि कांग्रेस का मतदाता भूपेंद्र सिंह हुड्डा के पीछे लामबंद होने को तैयार नहीं था।
वे कहते हैं, ‘बीजेपी ने 3 अक्टूबर को अखबारों में पूरे पेज का विज्ञापन दिया था, जिसकी खूब चर्चा हुई। उसका शीर्षक था-भूलना मत इन्हें। इसमें काले रंग में भूपेंद्र सिंह हुड्डा का चेहरा और दलितों के साथ उत्पीडऩ की खबरों को लगाया गया था।’
इन्द्रवेश कहते हैं, ‘इस विज्ञापन का एक ही मतलब था कि पार्टी बार-बार गैर जाट और दलितों को यह याद दिलाना चाह रही थी कि अगर कांग्रेस आई तो फिर से जाट सत्ता में होंगे और उत्पीडऩ का दौर शुरू हो जाएगा।’
एंटी इंकम्बेंसी से मुकाबला
विधानसभा चुनावों से ठीक पहले मनोहर लाल को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाकर बीजेपी ने एंटी इंकम्बेंसी को कम करने की कोशिश की।
साढ़े नौ साल तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे मनोहर लाल को चुनावी रैलियों से भी दूर रखा गया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्य में चार रैलियां कीं, जिसमें सिर्फ एक रैली में मनोहर लाल दिखाई दिए। उनका चेहरा चुनावी पोस्टरों पर भी दिखाई नहीं दिया।
वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं, ‘मनोहर लाल से नाराजग़ी न सिर्फ सरकार बल्कि संगठन को भी थी। वे कार्यकर्ताओं की सुनवाई नहीं करते थे। हरियाणा में नेता को एक ऐसे सामाजिक व्यक्ति के तौर पर देखा जाता है जो बैठकी करते हैं, लोगों से मिलते हैं, लेकिन वो ऐसा नहीं करते थे। उनकी जगह नायब सैनी विनम्र व्यक्ति हैं, जो प्यार से बात करना जानते हैं।’
दूसरी तरफ बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र के ज़रिए जनता की नाराजग़ी को दूर करने की कोशिश की।
पार्टी ने जनता से अपने संकल्प पत्र में 20 वादे किए, जिसमें बिना ‘खर्ची पर्ची’ के 2 लाख नौकरियां और 24 फसलों को एमएसपी पर खरीदना शामिल था।
एंटी इंकम्बेंसी को कम करने की कोशिश में बीजेपी ने करीब 35 फीसदी मौजूदा विधायकों के टिकट काट दिए, जिसमें कई मंत्री भी शामिल थे।
यहां तक की मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी और डिप्टी स्पीकर रणबीर सिंह गंगवा की सीटों को भी बदल दिया गया।
नौकरी के सवाल पर कांग्रेस को घेरा
कांग्रेस ने अपने मेनिफेस्टो में 500 रुपये में गैस सिलेंडर, बुज़ुर्गों को 6 हज़ार रुपये पेंशन के साथ-साथ 2 लाख सरकारी नौकरियों का वादा किया।
जानकारों के मुताबिक युवाओं को नौकरी देने के वादे ने कांग्रेस की मुश्किलें हल करने की बजाय और बढ़ा दी।
वरिष्ठ पत्रकार आदेश रावल कहते हैं, ‘चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस के कई नेताओं ने बयान दिए कि वो 2 लाख नौकरियों में से अपने क्षेत्र में पांच से दस हज़ार नौकरियां लगाएंगे। इससे हरियाणा के गैर जाट समाज से आने वाले युवाओं में नाराजग़ी बढ़ी।’
वे कहते हैं, ‘गैर जाट समाज को लगा कि अब उनके बच्चों को मेरिट पर नौकरी नहीं मिलेगी, बल्कि कोटा सिस्टम लागू हो जाएगा और एक खास समुदाय के युवाओं को तवज्जो मिलेगी।’
कांग्रेस ने अग्निवीर योजना के ज़रिए भी युवाओं से जुडऩे की कोशिश की और चुनावी सभाओं में ज़ोर-शोर से इसे लेकर बीजेपी की आलोचना की।
भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने कहा कि राज्य में बेरोजग़ारी को अग्निवीर योजना ने बढ़ाने का काम किया है। उन्होंने कहा, ‘प्रदेश से पहले हर साल पांच हजार युवा फौज में भर्ती होते थे, लेकिन अब केवल 250 ही भर्ती होते हैं।
अग्निवीर मुद्दे पर पार्टी को मुश्किल में देख अमित शाह ने भिवानी में हुई एक रैली में यहां तक एलान कर दिया कि, ‘हरियाणा के एक भी अग्निवीर को वहां (सेना) से अगर वापस आना पड़ता है तो वह नौकरी के बिना नहीं रहेगा और इसकी जि़म्मेदारी भारतीय जनता पार्टी की है।’
उनके अलावा मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी ने भी अग्निवीर जैसे मुद्दे से निपटने के लिए कई बड़ी घोषणाएं कीं, जिसमें सिपाही, माइनिंग गार्ड, फॉरेस्ट गार्ड जैसी भर्तियों में दस प्रतिशत आरक्षण देना शामिल है।
आरएसएस की भूमिका
विधानसभा चुनाव में बीजेपी के दो और कांग्रेस के एक बागी नेता ने निर्दलीय लडक़र चुनाव जीता।
हिसार से सावित्री जिंदल और गन्नौर सीट से बीजेपी के बागी देवेंद्र कादियान ने जीत दर्ज की, वहीं कांग्रेस के बागी राजेश जून ने बहादुरगढ़ से विजय हासिल की।
कांग्रेस के मुकाबले बीजेपी ने चुनाव में अपने उम्मीदवारों का एलान करने में कम समय लिया।
विजय त्रिवेदी कहते हैं, ‘बागी उम्मीदवारों के अलावा ऐसे भी बहुत लोग होते हैं जो चुनाव में खड़े तो नहीं होते लेकिन उनकी नाराजग़ी बहुत नुकसान कर सकती है। ये मुश्किल काम हरियाणा में संघ ने किया। उसने लोगों को मनाने में बड़ी भूमिका निभाई।’
वे कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव में बीजेपी के खराब प्रदर्शन के बाद संघ को यह पता था कि विधानसभा चुनाव आसान नहीं होने वाला है। उनका ग्राउंड पर बड़ा नेटवर्क है, घर-घर तक पहुंच है। बीजेपी के कामों को लोगों तक पहुंचाने का काम उन्होंने बहुत अच्छे से किया है।’
त्रिवेदी कहते हैं, ‘संघ नाराज से नाराज व्यक्ति को भी मना लेता है, वहीं कांग्रेस में ऐसा दिखाई नहीं देता। राहुल गांधी ने अशोक गहलोत को हरियाणा कोऑर्डिनेटर बनाया था। उन्हें भूपेंद्र सिंह हुड्डा और कुमारी शैलजा के बीच की नाराजग़ी को दूर करना चाहिए था, जो इतना मुश्किल काम नहीं था, लेकिन वे नहीं कर पाए।’
एक तरफ संघ का ग्राउंड पर मज़बूत नेटवर्क दिखाई देता है तो दूसरी तरफ कांग्रेस इससे जूझती हुई नजऱ आती है।
आदेश रावल कहते हैं, ‘हरियाणा में कांग्रेस पार्टी के पास 12 साल से ब्लॉक और जि़ला अध्यक्ष नहीं हैं। आपस की राजनीति इसका एक बड़ा कारण है। संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल की ये बड़ी विफलता है कि वे कुछ कर नहीं पाए।’
वे कहते हैं, ‘अगर ब्लॉक और जिला अध्यक्ष और प्रदेश कमेटी ही नहीं होगी तो बूथ पर वोटर को कौन लेकर जाएगा? कौन होगा जो लोगों को कांग्रेस की नीतियां समझाएगा? इसकी कमी एक बड़ा कारण है कि कांग्रेस को सत्ता से बाहर होना पड़ रहा है।’ (bbc.com/hindi)


