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उमर अब्दुल्लाह:लोकसभा चुनावों में हार के बाद जबरदस्त वापसी, क्या हैं चुनौतियां?
09-Oct-2024 3:05 PM
उमर अब्दुल्लाह:लोकसभा चुनावों में हार के बाद जबरदस्त वापसी, क्या हैं चुनौतियां?

-दिलनवाज पाशा
जम्मू-कश्मीर विधानसभा के नतीजे स्पष्ट होते ही जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्लाह ने कहा कि उमर अब्दुल्लाह ही जम्मू-कश्मीर के नए मुख्यमंत्री होंगे।

जम्मू-कश्मीर के प्रमुख राजनीतिक परिवार से आने वाले 54 साल के उमर अब्दुल्लाह दूसरी बार जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। पहली बार वे साल 2009 में मुख्यमंत्री बने थे। जम्मू-कश्मीर में दस साल के अंतराल के बाद चुनाव हुए हैं और इसके विशेष राज्य का दर्जा समाप्त हुए भी पांच साल हो चुके हैं।

जीत के बाद पत्रकारों से बात करते हुए उमर अब्दुल्लाह ने कहा, ‘2018 के बाद एक लोकतांत्रिक सेट-अप जम्मू-कश्मीर का चार्ज लेगा। बीजेपी ने कश्मीर की पार्टियों को निशाने पर लिया, ख़ासतौर पर नेशनल

कॉन्फ्रेंस को। हमें कमज़ोर करने की कोशिश की गई। हमारे ख़िलाफ़ पार्टियों को खड़ा करने का भी प्रयास हुआ लेकिन इन चुनावों ने उन सब कोशिशों को मिटा दिया है।’

उमर अब्दुल्लाह इस साल हुए लोकसभा चुनावों में बारामुला से उम्मीदवार थे लेकिन वो उस समय तिहाड़ जेल से चुनाव लड़ रहे इंजीनियर रशीद से चुनाव हार गए थे।

राज्य को संविधान के तहत विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को भारतीय जनता पार्टी सरकार ने पांच अगस्त 2019 को समाप्त कर दिया था। जम्मू-कश्मीर अब पूर्ण राज्य नहीं है बल्कि केंद्र शासित प्रदेश है और लद्दाख इस क्षेत्र से अलग हो चुका है।

जम्मू-कश्मीर की सरकार भी अब बहुत हद तक उपराज्यपाल के ज़रिए केंद्र सरकार के नियंत्रण में होगी और मुख्यमंत्री के रूप में उमर अब्दुल्लाह के पास करने के लिए बहुत कुछ नहीं होगा।
हालांकि विश्लेषक ये मान रहे हैं कि उमर अब्दुल्लाह ये संदेश देने में कामयाब रहे हैं कि कश्मीर के लोग अब भी उन पर विश्वास कर रहे हैं।

लेकिन इस साल जुलाई तक अब्दुल्लाह कह रहे थे कि वो चुनाव नहीं लड़ेंगे क्योंकि जम्मू-कश्मीर अब एक केंद्र शासित प्रदेश है। उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस से कहा था, ‘मैं एक पूर्ण राज्य का मुख्यमंत्री रहा हूं। मैं खुद को ऐसी स्थिति में नहीं देख सकता जहां मुझे उपराज्यपाल से चपरासी चुनने के लिए कहना पड़े या बाहर बैठकर फाइल पर उनके हस्ताक्षर करने का इंतजार करना पड़े।’

क्या कह रहे हैं विश्लेषक?
 

शोधकर्ता और लेखक मोहम्मद यूसुफ टेंग मानते हैं कि ये कश्मीर के लिए अहम पड़ाव है और इन चुनावों ने ये संदेश दिया है कि कश्मीर की पहचान से समझौता नहीं किया जा सकता है और यही कश्मीर के लोगों के लिए सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा है।

टेंग कहते हैं, ‘उमर अब्दुल्लाह ने नेशनल कांफ्रेंस के चुनाव अभियान का नेतृत्व किया और वो अपनी ये बात समझाने में कामयाब रहे कि दिल्ली ने किस तरह से कश्मीरियत का नुकसान किया और कश्मीर के लोगों की उम्मीदों को किस तरह से कुचला।’

उनके मुताबिक उमर उब्दुल्लाह लोगों को अपने साथ जोडऩे में कामयाब रहे और कश्मीर के लोगों ने उन्हें अपना नेता मान लिया है।

टेंग कहते हैं कि कश्मीर के लोगों ने ये बताया है कि उनके पास जो मताधिकार है, वो उसका अपनी मर्जी से इस्तेमाल करेंगे।

हालांकि कश्मीर के बदले राजनीतिक हालात में,अब जो मुख्यमंत्री होगा उसके पास बहुत सीमित राजनीतिक ताकत ही होगी।

उमर अब्दुल्लाह की जीत अहम क्यों?
 

विश्लेषक मान रहे हैं कि राजनीतिक रूप से भले ही उमर अब्दुल्ला बहुत ताक़तवर न रहें लेकिन फिर भी प्रतीकात्मक रूप से उनकी पार्टी की ये जीत बहुत अहम है।

अब केंद्र शासित प्रदेश के रूप में जम्मू-कश्मीर में उप-राज्यपाल का पद बहुत ताकतवर है, मुख्यमंत्री को उसके मातहत ही काम करना होगा, लेकिन बावजूद इसके, उमर अब्दुल्ला ये संदेश देने में तो कामयाब ही रहे हैं कि कश्मीर की जनता की पसंद वो ही हैं।

टेंग कहते हैं, ‘उमर अब्दुल्ला के अपने हाथ में क्या होगा, वो एक क्षेत्रीय नेता हैं, लेकिन कश्मीर में सरकार दिल्ली से चल रही है। अगर जम्मू-कश्मीर में एक मामूली ट्रांसफर भी करना होगा,उमर अब्दुल्लाह नहीं कर पाएंगे। बावजूद इसके, वो कश्मीर के लोगों के नेता हैं और यहां की जनता की उम्मीदों का बोझ उन पर ही होगा।’

चुनाव अभियान के दौरान जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कई वादे किए थे। इनमें सबसे अहम वादा कश्मीर के लोगों के अधिकारों के लिए लडऩा और रोजगार के बेहतर मौक़े पैदा करना है।

पिछले पांच साल से उपराज्यपाल के दफ्तर से कश्मीर में प्रशासन चल रहा है। आम लोगों ने अपने आप को सत्ता से दूर महसूस किया।

टेंग कहते हैं, ‘ के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी कि वो लोगों को ये अहसास करा पाएं कि अब सत्ता और शासन उनके करीब है।’

नेशनल कॉन्फ्रेंस ने लोगों के अधिकारों की रक्षा करने और कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दोबारा दिलाने के लिए जद्दोजहद करने का वादा भी किया है। इन वादों को पूरा करने का बोझ भी उमर अब्दुल्लाह के कंधों पर ही होगा।

कैसा रहा है उमर अब्दुल्लाह का सियासी सफर
 

उमर अब्दुल्लाह का जन्म 10 मार्च 1970 को न्यूयॉर्क के रोचेस्टर में हुआ था। उनके परिवार के पास जम्मू-कश्मीर में लंबी राजनीतिक विरासत है।

उमर के दादा शेख अब्दुल्लाह प्रमुख कश्मीरी नेता और राज्य के पहले प्रधानमंत्री थे।

उमर अब्दुल्लाह ने श्रीनगर के बर्न हॉल स्कूल से शुरुआती शिक्षा ली और फिर मुंबई की सिडेनहैम कॉलेज से कॉमर्स में स्नातक की डिग्री हासिल की।

परिवार के राजनीतिक इतिहास को देखते हुए राजनीति में उमर का आना स्वभाविक ही था।

उमर अब्दुल्लाह ने साल 1998 में श्रीनगर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और 28 साल की उम्र में संसद पहुंच गए। उमर अब्दुल्लाह देश के सबसे युवा सांसदों में से एक थे। वो अटल बिहारी वाजयेपी की सरकार में राज्यमंत्री भी रहे।

इसके अगले साल ही वो नेशनल कॉन्फ्रेंस की यूथ विंग के अध्यक्ष बन गए और उन्हें सिर्फ अपनी पार्टी के भीतर ही नहीं बल्कि देश में भी पहचान मिली।

इसके ठीक दस साल बाद, साल 2009 में जब नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार आई तब युवा उमर अब्दुल्लाह मुख्यमंत्री बने।

अपने पहले मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान उमर अब्दुल्लाह ने शिक्षा, ढांचागत विकास और स्वास्थ्य सेवाएं विकसित करने पर जोर दिया। उन्होंने कश्मीर में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए भी कदम उठाए।
लेकिन आसान नहीं थी राह

लेकिन उमर अब्दुल्लाह के लिए सबकुछ आसान नहीं था। भारतीय संसद पर हमल के अभियुक्त अफजल गुरु को फांसी दिए जाने और साल 2010 में जम्मू-कश्मीर में पैदा हुए तनावपूर्ण हालात ने उनके सामने मुश्किल चुनौतियां पेश की।

2010 में कश्मीर में फिर से उठे अलगाववाद से निपटने में भी वो बहुत कामयाब नहीं रहे और इसका खमियाजा उन्हें अगले चुनावों में भुगतने को मिला।

2014 विधानसभा चुनावों में पार्टी की बुरी हार के बावजूद वो नेशनल कांफ्ऱेंस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने रहे।

2019 में जब केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा समाप्त किया और अनुच्छेद 370 को हटा दिया तो वो सरकार के इस फैसले के खिलाफ एक मजबूत राजनीतिक आवाज बनकर उभरे।

उमर अब्दुल्लाह लंबे समय तक नजरबंद भी रहे। बावजूद इसके, वो ये संदेश देते रहे कि कश्मीर के लोग विशेष राज्य का दर्जा समाप्त किए जाने के केंद्र सरकार के फ़ैसले को कभी स्वीकार नहीं करेंगे और इसका विरोध जारी रखेंगे।

अब एक बार फिर सत्ता की कमान उनके हाथ में होगी, लेकिन इस बार उनके सामने सिर्फ हालात ही अलग नहीं होंगे बल्कि चुनौतियां भी नई होंगीं।   (bbc.com/hindi)


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