विचार / लेख

आपको ओलंपिक में गोल्ड क्यों चाहिये?
04-Aug-2024 7:49 PM
आपको ओलंपिक में गोल्ड क्यों चाहिये?

-दिनेश चौधरी

ओलम्पिक खेलों के कवरेज का ठेका उनके पास है, जो सिनेमा के कारोबार में भी हैं और जिनका मकसद मूलत: एंटरटेनमेंट का है। इनकी हिंदी कॉमेंट्री भी बड़ी मनोरंजक है, जिन्हें मैं अक्सर बंद करके खेल देखता हूँ। एक का तकियाकलाम ‘प्रभु’ है। कल हॉकी में आस्ट्रेलिया से जीत के बाद उनका गला फटते-फटते बचा। टेलीविजन में कमेंट्री करने वालों को ज्यादा बोलने से बचना चाहिए। मुझे लगता है कि सेठ के चैनल के लिए कर रहे हैं तो सोचते होंगे कि कम बोले तो पेमेंट कट जाएगी।

मुद्दे की बात यह है कि सात दिनों पहले तक मनु भाकर को कितने लोग जानते थे? मेडल लाने से पहले अभिनव बिंद्रा को? कौन अभिनव बिंद्रा?अच्छा भूल गए! वहीं जो पहली बार भारत के लिए ओलंपिक में गोल्ड लेकर आए थे। अब तो कोई याद भी नहीं करता। सात-आठ दिनों में लोग मनु को भी भूल जायेंगे और शायद नीरज चोपड़ा को भी। अपुन का राष्ट्रीय खेल क्रिकेट है! हम बस वही खेलते, देखते, सुनते, ओढ़ते, बिछाते, खाते, पीते हैं। ये दस-बारह दिन उपवास के हैं।

तो खवातीनों-हजरात! जब आपको पूरे चार साल तक किसी और खेल से कोई मतलब नहीं होता तो आपको मेडल की उम्मीद क्यों होती है? अभी कुछ दिनों में रोना लेकर बैठ जाएंगे कि फलां देश की इतनी-सी आबादी है, पिद्दी सा मुल्क है, उसने इत्ते गोल्ड ले लिए और हम 130 करोड़ की आबादी में लुटे-पिटे से लौटते हैं। खेलों को लेकर जैसा अपना नजरिया और रवैया है, कायदे से हम इतना भी डिजर्व नहीं करते। यह तो उन खेलने वालों की अपनी लगन, प्रतिभा और समर्पण है, जो इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी दम लगाकर खेल रहे हैं। अच्छा खेल रहे हैं। आपको कोई हक नहीं बनता कि आप उनसे मैडल की उम्मीद रखें।

खेल देखना अच्छा लगता है। कभी-कभी तनाव भी हो जाता है। अर्जेंटीना और आयरलैंड वाले हॉकी मैच में मैंने आखिरी क्षणों में टीवी बंद कर दिया था। ऑस्ट्रेलिया वाला मैच अलबत्ता पूरा देखा। अच्छा खेल रही थी अपनी टीम। आगे भी ऐसे ही खेले तो हम जीत सकते हैं, पर हम चीख-चीख कर नहीं कहेंगे कि ‘इंडिया लाओ गोल्ड।’ हम आपके सिर पर मैडल का बोझ नहीं लादेंगे। आप तनावमुक्त होकर खेलें, अच्छा खेलें। आपके स्टिक-वर्क में जादुई कला है और हम बस उसी के मुरीद हैं।

अपने पड़ोस में एक सिंग चच्चा रहते थे। उनका बेटा अपनी ही क्लास में पढ़ता था और फिर फेल होकर बिछड़ गया। औरों से भी बिछड़ता और पिछड़ता रहा। सिंग चच्चा को साल भर बेटे की पढ़ाई-लिखाई से कोई मतलब नहीं होता था पर जब वह फेल होकर आता था तो वे उसकी पिटाई बड़ी श्रद्धा के साथ और समारोह-पूर्वक करते थे।

अपने मुल्क के खेल-प्रेमी भी सिंग चच्चा की तरह हैं।


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