विचार / लेख

धर्म और जाति संविधान पर भारी
24-Jul-2024 2:44 PM
धर्म और जाति संविधान पर भारी

-डॉ. आर.के. पालीवाल

हमारा संविधान धर्म और जाति के नाम पर किसी भी तरह के भेदभाव की इजाजत नहीं देता। सरकार और प्रशासनिक मशीनरी का भी यह संवैधानिक दायित्व है कि वे कोई ऐसा कार्य नहीं करेंगे जिससे किसी धर्म या जाति विशेष को लाभ या हानि पहुंचती है। संविधान के स्पष्ट प्रावधानों के बावजूद काफी राजनीतिक दल और इन दलों के बड़े नेता धर्म और जाति का उपयोग अपनी अपनी तरह से अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए करते हैं।

कोई दल बहुसंख्यकों को अपने बाड़े में बांधकर रखना चाहता है और कोई अल्प संख्यक समुदायों को अपनी मिल्कियत बनाना चाहता है। उदाहरण के तौर पर मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार हिंदुओं के मंदिरों के आसपास महालोक निर्मित करना सडक़, बिजली, शिक्षा और स्वास्थ्य से भी अधिक महत्त्वपूर्ण मानती है तो कांग्रेस और इंडिया गठबन्धन के समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसे घटक जाति आधारित जनगणना की मांग कर रहे हैं। यह मामला राजनीतिक दलों तक ही नहीं रुकता।

अब प्रशासनिक अधिकारियों में भी धीरे धीरे एक बड़ा वर्ग अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए जनहित के नाम पर ऐसे ही प्रशासनिक फैसले करने लगा है जिनसे उनके आकाओं की कृपा दृष्टि बढ़े। ऐसे सेवारत अधिकारियों और कर्मचारियों  की संख्या भी दिनोदिन बढ़ रही है जिनके सोशल मीडिया अकाउंट्स की पोस्ट से यह साफ झलकता है कि वे जन सेवकों की आचरण नियमावली से इतर किसी विशेष राजनीतिक दल के कार्यकर्ता के रूप में काम कर रहे हैं। राजनीतिक दलों के संगठन पदाधिकारी भी इन जन सेवकों को अपने दल के कार्यकर्ता की तरह ही मानते हैं और उनके ट्रांसफर पोस्टिंग में खूब दखलंदाजी करते हैं।

    पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कांवड़ यात्रा कई दशकों से विशुद्ध धार्मिक आस्था की यात्रा रही है। इसमें सरकार की तरफ से न कभी कोई ख़ास रियायत रहती थी और न कोई प्रतिबंध। जिन गांवों, कस्बों और शहरों से यह यात्रा निकलती थी वहां के स्थानीय निवासी धार्मिक यात्रियों की वैसी ही साधारण सी सेवा करते थे जैसे मध्य प्रदेश में नर्मदा परिक्रमा के दौरान होती है। इधर हाल के वर्षों में इस यात्रा को खुलेआम राजनीतिक सरंक्षण मिलने लगा है और प्रशासनिक अधिकारी कांवड़ यात्रियों के ऊपर पुष्प वर्षा तक करने लगे हैं। हाल ही में कांवड़ यात्रा पथ पर पडऩे वाली दुकानों को यह निर्देश दिए गए हैं कि वे दुकान के मालिक और वहां काम करने वाले सभी कर्मचारियों के नाम सार्वजनिक करें। विपक्षी दल इसे सांप्रदायिक सौहार्द नष्ट करने का उपक्रम बता रहे हैं जबकि पुलिस प्रशासन इसे एक सामान्य प्रशासनिक व्यवस्था बता रहा है। एक तर्क यह भी दिया जा सकता है कि कांवड़ यात्रियों की सुरक्षा के लिए ऐसा आदेश जारी किया गया है। यदि यह निर्देश सुरक्षा कारणों से दिया गया है तब कावडिय़ों को भी अपनी पहचान सार्वजनिक करने के लिए कहा जाना चाहिए ताकि कोई असामाजिक तत्व कावडिय़ों के वेश में कोई दुर्घटना न कर सके। विगत में सैनिकों, पुलिस, सुरक्षाकर्मियों आदि के वेश में बदमाशों ने काफी वारदातों को अंजाम दिया है।

संसद का बजट सत्र शुरू होने जा रहा है। सत्र से पूर्व होने वाली सर्वदलीय बैठक में भी इस मुद्दे पर चर्चा हुई है इसलिए उम्मीद है कि संसद सत्र में इस मुद्दे को लेकर पक्ष विपक्ष में तनातनी हो सकती है। जिस तरह से लोकसभा के शुरुआती शपथ सत्र में हंगामा हुआ था यह सत्र भी हंगामे की भेंट चढ़ सकता है। जिस संसद से देश के नीति निर्धारण और नागरिकों के कल्याण कार्यों की उम्मीद की जाती है उसका समय गैर जरुरी मुद्दों पर जाया होना राष्ट्रीय क्षति है। हम आशा ही कर सकते हैं कि हमारे जन प्रतिनिधि और सरकार धर्म और जाति की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर संविधान का मान रखते हुए जन कल्याण के कार्यों पर ध्यान केंद्रित करें।


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