विचार / लेख

-कनुप्रिया
इन्हीं दिनों एक मेनस्ट्रीम हॉलीवुड मूवी देखी जिसमें कहानी में आदिवासियों का पिछड़ापन गुँथा हुआ था। ऐसे सिनेमा का असर इतना बारीक होता है कि दर्शकों को पता ही नहीं चलता कि वो अपने भीतर किन धारणाओं को पक्का कर रहे हैं।
पॉपुलर हॉलीवुड और बॉलीवुड सिनेमा ने आदिवासी समाज की कुछ ऐसी ही खराब छवि बनाई है हमारे दिमागों में कि हम न सच्चाई जानते हैं, न जानना चाहते हैं। यहाँ तक कि कुछ लोग तो आदिवासी का जिक्र करते ही झिंगालाला हुर्र हुर्र करने लगते हैं।
पिछली सदी से जब आधुनिक समाज ने अपनी ये गत कर ली है कि वो विकास की स्वार्थसिद्धि के लिए प्रकृति पर शासन की जुगत में उससे विरोध लिये बैठा है, और न सिर्फ खुद के लिये बल्कि दूसरे जीव जगत के लिये भस्मासुर बन गया है। और कहीं न कहीं धर्म जाति द्वेष से इंसानों की आँखों पर पट्टी बाँधने का काम कर रहा है ताकि उन्हें अपना विनाश दिख ही न सके। ऐसे में जब आदिवासी समाज से जंगल और जमीन बचाने की आवाजें सुनाई देती हैं और ये उन्हें ही अपराधी घोषित कर देता है, तब लगता है कि आधुनिकता का भरम कितना खोखला और आत्महंता है। जिन आदिवासियों को पॉपुलर माइंडसेट में पिछड़ा, अंधविश्वासी, असभ्य घोषित किया जा चुका है, वो प्रकृति से सामंजस्य स्थापित करके ऐसा जीवन जीना जानते हैं जिनके ऊपर करोड़ों-अरबों खर्च करके विश्व मंचों पर सेमिनार सभाएँ होती हैं और तमाम तरह के ढकोसले होते हैं।
अब जब हमारे लौटने के रास्ते बंद हो गए हैं, तब आदिवासी जिस प्राकृतिक सामंजस्य के साथ जीना जानते हैं और उसका संरक्षण करते हैं वो सिर्फ अपने लिये ही नहीं, कहीं न कहीं हमारे लिये भी जरूरी है।
आज 9 अगस्त नागासाकी दिवस है, नहीं जानती कि आज ही विश्व आदिवासी दिवस क्यों घोषित किया गया, इसके पीछे विश्व की ताकतों की क्या मंशा होगी, मगर एक समाज का मॉडल वो है जिसने हिरोशिमा जैसी तबाही को अंजाम दिया और एक मॉडल आदिवासियों का है। कम से कम दूसरे मॉडल को सम्मान और संरक्षण देने की बात शुरू हुई है, कहीं न कहीं इसका फर्क सरकारों और जनता के आदिवासियों के प्रति रवैये पर भी पड़ेगा, आज पहले विश्व आदिवासी दिवस पर यही उम्मीद लगती है। और डर ये है कि कहीं उनके विकास के नाम पर उन्हें भी उसी विध्वंसक रास्ते पर न डाल दिया जाए जिस पर हम चल पड़े हैं।