विचार / लेख

डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट-
ओडिशा में कथित यौन उत्पीड़न के कारण एक छात्रा के आत्मदाह की घटना ने कानून और समाज को तो कटघरे में खड़ा कर ही दिया है, शैक्षणिक परिसरों में सुरक्षा के मुद्दे को फिर से हवा दी है.
ओडिशा में अपने विभाग प्रमुख के कथित यौन शोषण के कारण आत्मदाह करने वाली 22 साल की एक बीएड की छात्रा ने दम तोड़ दिया. राजधानी भुवनेश्वर स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में महिला का इलाज चल रहा था. डॉक्टरों का कहना है कि साठ फीसदी जल जाने की स्थिति में ही मरीज को बचाना मुश्किल होता है और ये छात्रा तो 95 फीसदी तक जल गई थी.
इस घटना से ठीक पहले पड़ोसी पश्चिम बंगाल में एक लॉ कॉलेज में छात्रा के साथ बलात्कार और कोलकाता के प्रतिष्ठित भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) के ब्वायज हास्टल में एक महिला के साथ बलात्कार की घटनाओं ने शैक्षणिक परिसरों में महिला सुरक्षा के सवाल को पहले ही सुर्खियों में ला दिया था. अब ओडिशा की घटना ने इस मुद्दे पर गंभीर सवाल उठा दिया है.
कहां सुरक्षित हैं महिलाएं
यह दिलचस्प है कि इन दोनों राज्यों में परस्पर विरोधी राजनीतिक दल सत्ता में हैं. बंगाल में जहां तृणमूल कांग्रेस सत्ता में है वहीं ओडिशा में बीजेपी की सरकार है. लेकिन इन घटनाओं से साफ है कि सरकार चाहे किसी की भी हो, महिलाओं की सुरक्षा के सवाल पर उनमें कोई खास अंतर नहीं है. इससे पहले ओडिशा में हाल में ही बलात्कार की दो-दो घटनाएं हो चुकी हैं. उनमें से एक घटना तो राज्य के मशहूर पर्यटन केंद्र में हुई थी.
ताजा घटना ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. इनमें शैक्षणिक परिसरों में सुरक्षा का मुद्दा तो है ही, इस घटना से साफ है कि अपराधियों के मन में न तो समाज का कोई डर है और न ही कानून की कोई परवाह. उस छात्रा ने करीब 11 दिन पहले अपने विभागाध्यक्ष के यौन उत्पीड़न के बारे में कॉलेज के प्रिंसिपल से लिखित शिकायत की थी. उसने अपने पत्र में विस्तार से इस मामले का जिक्र करते हुए आरोपों की जांच के लिए एक अनुशासनात्मक समिति के गठन की मांग की थी.
पत्र में चेतावनी दी गई थी कि अगर कॉलेज प्रबंधन ने कोई कार्रवाई नहीं की तो वो आत्महत्या कर लेगी और इसके लिए प्रबंधन जिम्मेदार होगा. लेकिन कॉलेज प्रबंधन ने इस मामले को गंभीरता से लेने की बजाय इसकी लीपापोती शुरू कर दी. इससे हताश और नाराज होकर छात्रा ने शरीर पर पेट्रोल छिड़क कर आग लगा ली थी. आखिर दो दिनों तक अस्पताल में जीवन और मौत से जूझने के बाद उसने आग दम तोड़ दिया.
ज्यादातर मामले तो सामने ही नहीं आते
यह घटना राज्य ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर भी काफी सुर्खियां बटोर रही है. मुख्यमंत्री मोहन चरण माझी के अलावा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भी अस्पताल में उस छात्रा और उसके परिजनों से मुलाकात की. अब कालेज के प्रिंसिपल के अलावा उस विभागाध्यक्ष को भी गिरफ्तार कर लिया गया है. लेकिन सवाल उठ रहा है कि क्या छात्रा की शिकायत पर पहले ही ठोस कार्रवाई नहीं की जा सकती थी? वैसी स्थिति में उसे अपनी जान नहीं गंवानी पड़ती. लेकिन कार्रवाई के नाम पर दोषी प्रोफेसर को क्लीन चिट देने के साथ ही छात्रा का मानसिक उत्पीड़न तेज हो गया.
यह भी पूछा जा रहा है कि युवा पीढ़ी और समाज को सही दिशा दिखाने की जिम्मेदारी जिन शिक्षकों पर है वही उसे पतन की राह पर क्यों ले जा रहे हैं? यह सही है कि हाल के वर्षों में राज्य में पहली बार ऐसी घटना सामने आई है. लेकिन सामाजिक संगठनों का कहना है कि यह घटना तो छात्रा के आत्मदाह की वजह से सामने आई है. ऐसी घटनाएं तो शैक्षणिक परिसरों में आम हैं. लेकिन ज्यादातर मामले विभिन्न वजहों से सामने नहीं आ पाते.
समाजशास्त्री प्रोफेसर गणेश नायक डीडब्ल्यू से कहते हैं, "लोकलाज और समाज के डर की वजह से महिलाएं ऐसी घटनाओं की शिकायत करने से बचती हैं. वह चाहे शैक्षणिक परिसर में यौन और मानसिक उत्पीड़न के मामले हों या फिर कामकाज की जगहों पर. आम धारणा यह है कि ऐसे मामलों में हमारा समाज महिला को भी या उसे ही दोषी करार देता है. उसके चरित्र पर एक ऐसा धब्बा लग जाता है जिसके साथ उसे अपनी पूरी जिंदगी बितानी पड़ती है."
शैक्षणिक परिसरों में ऐसी घटनाएं क्यों
लेकिन क्या अब प्रोफेसर जैसे पद पर काम करने वाले लोगों में समाज और कानून का डर नहीं रहा? प्रोफेसर नायक कहते हैं, "शिक्षा का इससे कोई संबंध नहीं है. अहम पदों पर होने की वजह से ऐसे लोगों को लगता है कि कोई उनके खिलाफ शिकायत की हिम्मत नहीं जुटा सकता. इसकी वजह यह है कि इन शिक्षकों पर ही संबंधित छात्रा का भविष्य टिका होता है. ज्दादातार मामलों में महिलाएं करियर के लिए मजबूरन समझौते कर लेती हैं. लेकिन कभी-कभार जब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगता है तो इस छात्रा की तरह कोई इक्का-दुक्का महिला बगावत कर देती है."
उनका कहना था कि इस मामले में शायद आरोपियों को इस बगावत की कल्पना नहीं की होगी. इस घटना से साफ है कि प्रबंधन भी दोषी शिक्षक को बचाने के लिए मामले की लीपापोती करने में जुटा था. अगर पहले ही त्वरित कार्रवाई की गई होती तो छात्रा की जान बचाई जा सकती थी. लेकिन कालेज प्रबंधन को लगा होगा कि इस मामले में कार्रवाई की स्थिति में इसके खुलासे से कालेज की छवि पर एक अमिट धब्बा लग जाएगा.
वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक शिखा मुखर्जी डीडब्ल्यू से कहती हैं, "शैक्षणिक परिसरों में ऐसी बढ़ती घटनाएं समाज के लिए बेहद चिंताजनक हैं. इनसे साफ है कि लोगों में न तो कानून का डर रहा है और न ही समाज का. उनको अपने रसूख पर इतना भरोसा होता है कि वो सोचते हैं कि उन पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता. ज्यादातर मामलों में यही सच भी है. लेकिन यह मामला अलग है."
वो कहती हैं कि राजनीतिक दल विरोधी दलों के शासन वाले राज्यों में तो ऐसी घटनाओं पर काफी हाय-तौबा मचाते हैं. लेकिन अपने राज्य में इन पर चुप्पी साध लेते हैं. ओडिशा के एक विश्वविद्यालय में नेपाल के छात्र-छात्राओं के साथ दुर्व्यवहार के मामले ने भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरी थी.
शैक्षणिक परिसरों के बाहर कितनी सुरक्षित हैं महिलाएं
कोलकाता में महिला मानवाधिकार कार्यकर्ता श्यामली मुखर्जी डीडब्ल्यू से कहती हैं, "बंगाल हो या ओडिशा या फिर कोई और राज्य, महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं. वो चाहे कालेज हो या फिर दफ्तर. ऐसे मामलों में बहुत कम महिलाएं ही मुंह खोलती हैं."
उनका कहना था कि इस घटना ने कई ऐसे सवालों को जन्म दिया है जिनका ठोस जवाब तलाशे बिना यह सिलसिला जारी रहेगा. ऐसी किसी घटना के बाद प्रशासन से सरकार तक तमाम तंत्र अति सक्रिय हो जाते हैं. लेकिन कुछ दिनों बाद फिर सब कुछ जस का तस हो जाता है. पीड़िता के परिवार के अलावा बाकी लोग इनको भूल जाते हैं.
शिखा मुखर्जी छात्रा के पिता के हवाले बताती हैं, "जांच समिति ने प्रोफेसर को क्लीन चिट देते हुए अपनी जांच रिपोर्ट में यौन शोषण का जिक्र तक नहीं किया था. इसके उलट परिवार पर इस मामले में शिकायत वापस लेने के लिए दबाव बनाया गया और छात्रा पर मानसिक दबाव बढ़ाने के लिए उसे कुछ विषयों में फेल कर दिया गया और कुछ में परीक्षा में बैठने तक नहीं दिया गया."
समाजशास्त्रियों का कहना है कि ऐसे मामलों पर अंकुश लगाने में समाज और कानून दोनों को अहम भूमिका निभानी होगी. कानून के जरिए जहां अपराधियों को शीघ्र ऐसी सजा देनी चाहिए जो मिसाल बन सके. दूसरी ओर, समाज को भी ऐसे अपराधियों का सामाजिक बायकाट करना होगा ताकि दूसरा कोई ऐसा कुछ करने से पहले सौ बार सोचे. लेकिन ऐसा नहीं हो पाता. यही वजह है कि अपराधियों का मनोबल बढ़ता रहता है.