विचार / लेख
-अमिता नीरव
1871 में डार्विन की एक किताब आई Descent of man… इस किताब उन्हें पूरी दुनिया में मशहूर कर दिया। इस किताब पर एक रिव्यू में लिखा गया कि, ‘इस पुस्तक ने समाज की संरचना और संविधान को तोडक़र रख दिया।’
यह शंका जताई जाने लगी कि नस्लीय श्रेष्ठता औंधे मुँह गिर जाएगी, जब ऐसे सिद्धांत रचे जाएँगे कि सभी मनुष्य के पूर्वज किसी वानर समूह से थे। अमेरिका में दास प्रथा के विरोधी खास कर इस पुस्तक को प्रचारित करने लगे ताकि नीग्रो औऱ गोरे लोगों का भेद ही निराधार हो जाए।
उन्हीं दिनों डार्विन को माक्र्स ने अपनी किताब दास कैपिटल भेजी। प्रत्युत्तर में उन्होंने मार्क्स को एक पत्र लिखा, उन्होंने लिखा कि,
‘प्रिय कार्ल मार्क्स महोदय!
काश मैं आपके इस राजनीतिक अर्थशास्त्र पर आधारित पुस्तक प्राप्त करने लायक होता। अपनी बीमारी की वजह से मोटी किताबें पढ़ नहीं पाता और अर्थशास्त्र समझने की क्षमता भी नहीं रही। हमारे कार्यक्षेत्र अलग हैं, किंतु मेरा अंदाजा है कि हम दोनों मानव समाज में विषमता घटाने की ओर कार्य कर रहे हैं।’
बाद में जब डार्विन के न रहने पर उनकी किताबों को इक_ा किया गया तो उनके जीवनीकार लिखते हैं कि दास कैपिटल की सील भी नहीं तोड़ी गई थी।
2021-22 में हमारे देश में एनसीईआरटी की किताबों से डार्विन के विकासवाद को हटा दिया गया। एक दक्षिणपंथी मित्र से जब इस सिलसिले का सवाल किया तो उन्होंने लापरवाही से कहा कि ‘ये थ्योरी पुरानी पड़ चुकी है, इसके बाद कई नई थ्योरिज वैज्ञानिकों ने दी है।’ पूछा कि ‘कौन-कौन सी?’ तो बात को गोल कर दिया गया।
दो साल पहले पाकिस्तान की एक खबर सुनी थी कि जीव विज्ञान के एक लेक्चरर से डार्विन के विकासवाद को पढ़ाने के लिए माफी मँगवाई गई। वहाँ भी विकासवाद को पढ़ाए जाने पर प्रतिबंधध लगा दिया गया है। पाकिस्तान के बुद्धिजीवियों ने चाहे इसका विरोध किया हो, मगर ये तय था कि डार्विन के सिद्धांत धर्म नामक 'संस्था' पर प्रहार करती है।
डार्विन के जीवनकाल में ही उन्हें इस सिद्धांत के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा। ईसाईयत का भी डार्विन के विकासवाद से विरोध था। कुल मिलाकर हर ‘धर्म’ को विकासवाद के सिद्धांत से दिक्कत थी। इसके ठीक उलट डार्विन के प्राकृतिक चयन के सिद्धांत को हर जगह नजीर की तरह स्थापित किया जाता रहा।
‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’... डार्विन के प्राकृतिक चयन के सिद्धांत के लिए ब्रिटिश दार्शनिक और समाजशास्त्री हर्बर्ट स्पेंसर ने इस फ्रेज इस्तेमाल किया था। जबकि डार्विन ने अपने लेखन में इस फ्रेज का इस्तेमाल न करते हुए अपनी स्थापना को ‘नेचरल सिलेक्शन’ नाम दिया था, क्योंकि खुद डार्विन इस बात को लेकर आशंकित थे कि इस सिद्धांत का जीव विज्ञान से इतर दुरुपयोग किया जा सकता है।
इंटर डिसिप्लीनरी स्टडीज की झोंक में इस सिद्धांत को मछली के उदाहरण से समझाया गया और इसी तरह से स्वीकृत भी हो गया। कॉलेज के दौर में सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट को छोटी मछली को बड़ी मछली खा जाती है, यही प्राकृतिक है के हवाले से समझाया गया था।
यह उदाहरण बड़ा आकर्षक और हकीकत के करीब लगा था। हकीकत में इंसानों की दुनिया में ये हो रहा है, लेकिन डार्विन ने अपने विचारों में इसे इस तरह से नहीं कहा था और वह कहा भी जीव-जंतुओं की दुनिया के लिए कहा गया था।
बाद में जब पशुओं की दुनिया का यह सच इंसानों की दुनिया में अन्याय के लिए जमीन तैयार करता लगा तो इससे असहमति होने लगी। इस असहमति को जब एवलिन के समक्ष जाहिर किया तो उन्होंने करेक्ट करते हुए कहा, ‘असल में डार्विन के सिद्धांत की यह व्याख्या उसके सिद्धांत की इंसल्ट है। डार्विन ने ये कहा था कि जो भी स्पीशीज प्रकृति से सबसे बेहतर तरीके से संतुलन स्थापित करेगी वह बची रहेगी।’
कई साल पहले किसी ने मुझसे पूछा था कि आपकी विचार प्रक्रिया क्या है? मैंने उससे पहले कभी इस पर विचार नहीं किया था। उनके पूछने के बाद न सिर्फ विचारों पर बल्कि विचार प्रक्रिया पर भी विचार करने लगी।
धीरे-धीरे अपने लिखे, सोचे और कहे गए के बीच संगति दिखाई देने लगी। मसलन पाँच या तीन साल पहले लिखी गई किसी पोस्ट का कोई सूत्र आज सोचे गए या लिखी गई किसी पोस्ट में दिखाई देने लगा। समझ आया कि विचार शृंखला ही किसी विचार को या सिद्धांत को स्थापित करती है।
तो एक तरफ धर्म इंसानों में समानता की तस्दीक करते हैं औऱ दूसरी तरफ अधकचरे धार्मिक इंसानों में भेद करते हैं तो वे धर्म से द्रोह करते हैं। मैं चकित होती हूँ, वसुधैव कुटुम्बकम की मुनादी करके अपनी सभ्यता-संस्कृति को श्रेष्ठ साबित करते लोगों को देखकर...। इस बात पर भी चकित होती हूँ कि इस पूरी धरती को एक कुटुम्ब मानने वाले लोग मूल निवासी और विदेशी के नाम पर लड़ते हैं।
ये भी समझ आया कि इंसान को समग्रता में ही देखा और समझा जाना चाहिए। जब पहली बार मतदाता का व्यवहार और उपभोक्ता का व्यवहार के बारे में जाना तो आश्चर्य हुआ। कितनी चीजें हमारे व्यवहार, निर्णयों, रूचियों, लक्ष्यों, सपनों, पसंदों आदि को प्रभावित करते हैं, हम खुद भी नहीं समझ पाते हैं। और एक खास बात कि अक्सर हम प्रभावित करने वाली घटनाओं, लोगों, विचारों को नियंत्रित भी नहीं कर पाते हैं।
तो यदि आप किसी भी सिद्धांत या विचारधारा की किसी बात पर सहमत और किसी पर घनघोर असहमत हैं तो असल में आप सुविधानुसार विचारों को चुन रहे हैं, जिससे आप कहीं नहीं पहुँच रहे हैं, बस आप खुद को भ्रम में रखे हुए हैं। जैसे दक्षिणपंथी, स्त्रीवादी नहीं हो सकते हैं, जैसे धार्मिक, कट्टर नहीं हो सकते हैं। यदि किसी ने धर्म का मर्म समझ लिया तो वह नफरत नहीं कर सकता, भेदभाव भी नहीं कर सकता है।
क्योंकि ज्ञान के प्रवाह का अनुशासन में विभाजन, अध्ययन की दृष्टि से किया गया है, जबकि असल में सब कुछ एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। जी हाँ, जीवविज्ञान से समाज और सामाजिक संरचना भी।