राजपथ - जनपथ
विरोधियों की मदद
वैसे तो पूर्व विधानसभा अध्यक्ष गौरीशंकर अग्रवाल, और कांग्रेस के पूर्व विधायक राजकमल सिंघानिया एक-दूसरे के धुर विरोधी माने जाते हैं। कसडोल में दोनों एक-दूसरे को एक-एक बार पराजित भी कर चुके हैं। पिछले चुनाव में राजकमल सिंघानिया को टिकट नहीं मिली। उनकी जगह कांग्रेस ने शकुंतला साहू को टिकट दी, जिसने गौरीशंकर को रिकॉर्ड वोटों से हराया।
हार के बाद भी गौरीशंकर भाजपा संगठन में प्रभावशाली हैं। जबकि राजकमल की सक्रियता डॉ. चरणदास महंत के बंगले तक ही सीमित रह गई है। राजनीतिक रूप से विरोधी होने के बावजूद गौरीशंकर, और राजकमल में निजी संबंध बहुत अच्छे हैं। पिछले दिनों राजकमल कोरोना से जुझ रहे थे, तो उनकी मदद के लिए गौरीशंकर आगे आए।
गौरीशंकर ने ही राजकमल के बेटे को फोन कर हैदराबाद ले जाने की सलाह दी, और वहां अस्पताल में चिकित्सकीय व्यवस्था का इंतजाम भी गौरीशंकर ने किया। आखिरकार महीनेभर अस्पताल में रहने के बाद राजकमल कोरोना से उबर गए। राजकमल की तरह कई नेता कोरोना की चपेट में आ गए थे, तब कुछ की मदद तो उनके राजनीतिक विरोधियों ने की।
आईएएस आनंदिता की वह बेमिसाल कामयाबी...
सन् 2004-05 में बिलासपुर नगर-निगम के कमिश्नर के रूप में एक आईएएस करूणा राजू की पोस्टिंग हुई। तब वे प्रशिक्षु ही थे। शहर की प्रतिष्ठित स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. शिखा मित्रा की पुत्री आनंदिता से उनका परिचय हुआ। उनके मिलने-जुलने की शहर में चर्चा होने लगी। और एक दिन दोनों ने एक सूत्र में बंधने का निर्णय ले लिया। बिलासपुर में ही विवाह सूत्र में बंधने के बाद उनकी एक संतान भी हुई। तब तक प्रशासनिक सेवाओं में उन्होंने प्रशासनिक सेवा में जाने का मन बना लिया था। निश्चित रूप से पति डॉ. राजू ने उनका हौसला बढ़ाया। अपनी नन्हीं सी बिटिया की देखभाल करते हुए उन्होंने तैयारी शुरू की। जब नतीजा आया तो सब हैरान रह गये। आनंदिता का परिश्रम चमत्कृत करने वाला था। उन्होंने पहली ही बार में न केवल यूपीएससी में सफलता हासिल कर ली बल्कि पूरे देश में आठवें रैंक पर आई। महिलाओं की सूची में उनका सबसे ऊपर नाम था। बीते दो दिनों से आनंदिता मीडिया की सुर्खियों में हैं क्योंकि उन्हें देश के सबसे खूबसूरत शहर चंडीगढ़ में नगर-निगम का कमिश्नर बनाया गया है।
दागी पुलिस कर्मियों पर शामत..
विधानसभा में सवाल किया गया ऐसे पुलिस अधिकारी, कर्मचारी जिनके खिलाफ एफआईआर दर्ज है, की जानकारी मांगी गई। इसके बाद से जिलों में कप्तान सक्रिय हो गये हैं। किसी जिले में एक दर्जन तो किसी में दो दर्जन सिपाही से लेकर निरीक्षक हैं जिनके खिलाफ कोई न कोई जांच लम्बित हैं या फिर उनके विरुद्ध एफआईआर दर्ज है। थानों में यातायात और स्पेशल टास्क की टीम में उन्हें महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिली हुई थी। पर कई जिलों से ऐसे पुलिस अधिकारी, कर्मचारी एक के बाद एक वापस लाइन अटैच कर दिये गये हैं। ऐसा नहीं है कि सभी जवान उच्चाधिकारियों के कृपा पात्र रहे हों इसलिये महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा रहे थे। उनकी काबिलियत की वजह से उनके खिलाफ हुई शिकायतों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। लाइन अटैच किये गये जवानों को मालूम है कि चूंकि विधानसभा में सवाल उठा है, उन्हें हटा दिया गया, कुछ दिन बाद वे फिर लौट जायेंगे। पुलिस विभाग में जितनी जल्दी लाइन पर भेजा जाता है उतनी ही जल्दी फील्ड में वापस बुला लिया जाता है। शिकायत ज्यादा गंभीर नहीं हो तो निलम्बन के बाद जल्दी ही बहाली भी हो जाती है। स्टाफ की कमी का हवाला देकर। और फिर कुछ एक मामले तो बताते हैं कि राजधानी में बड़े पदों पर कोई बैठा हो तो शिकायतों को ठंडे बस्ते में भी डाल दिया जाता है।