राजपथ - जनपथ
शराब पर सियासत और नफा-नुकसान की कहानी
लॉकडाउन पीरियड में शराब बिक्री के पीछे राजस्व को बड़ा कारण माना जा रहा है। कहा जा रहा है कि राज्य सरकारों को शराब बिक्री से करोड़ों-अरबों का राजस्व मिलता है और राजस्व नहीं मिलेगा तो राज्य की अर्थव्यवस्था गड़बड़ा जाएगी। विकास कार्य तो रुकेंगे ही साथ ही कोरोना संकट के इस दौर में उसकी रोकथाम पर होने वाले खर्च की व्यवस्था करने में दिक्कत होगी। कुछ राज्य तो केन्द्र से राजस्व की भरपाई की शर्त पर शराब बिक्री बंद करने के लिए सहमति जता रहे हैं। कांग्रेस के संचार विभाग के अध्यक्ष शैलेश नितिन त्रिवेदी ने शराब बिक्री के मामले में बचाव की मुद्रा में कहा है कि कांग्रेस ने 5 साल के भीतर शराबबंदी का वादा किया है। नोटबंदी या लॉकडाउन की तरह शराबबंदी नहीं की जा सकती। कोरोना काल में सभी राज्यों में आर्थिक गतिविधियां शून्य हो गई हैं। राज्य सरकारों पर कर्मचारियों को वेतन देने के साथ कोरोना खर्च का बोझ है। उन्होंने यह भी कहा कि शराबबंदी समुचित व्यवस्था और राज्य के राजस्व की वैकल्पिक व्यवस्था बनाने के बाद ही की जाएगी।
कुल मिलाकर उन्होंने अपनी सरकार के शराब बिक्री के फैसले को वाजिब ठहराने के लिए तमाम दलीलें पेश की। दूसरी तरफ कांग्रेस के इन तर्कों से सामाजिक संगठन और शराबबंदी आंदोलन से जुड़े लोग सहमत नहीं है। सीए और सामाजिक कार्यकर्ता निश्चय वाजपेयी का कहना है कि शराब के राजस्व का विकल्प काफी पहले तलाश लिया गया था। कामराज के प्रस्ताव पर कांग्रेस ने पहले ही ऐसा टैक्स लगाया हुआ है। कांग्रेस ने शराब से मिलने वाले राजस्व की भरपाई के लिए सेल्स टैक्स को शराबबंदी टैक्स के रूप में लागू किया था। कई हिस्सों में शराबबंदी भी की गई। बाद की सरकारों ने शराब बिक्री तो वापस शुरू कर दी मगर शराबबंदी टैक्स यानी सेल्स टैक्स बंद नही किया। उनका कहना है कि आज भी यह टैक्स जीएसटी का एक बड़ा हिस्सा है। सरकारों को इससे शराब से कहीं अधिक राजस्व मिलता है।
देखा जाए तो शराब का मुद्दा लॉकडाउन के दौर में गरमाया हुआ है। विपक्ष के साथ सामाजिक संगठन और महिलाओं ने लॉकडाउन पीरियड में भी शराब का खुलकर विरोध शुरु कर दिया है। वे घरों की बरबादी और महिलाओं पर हो रही हिंसा के लिये शराब को जिम्मेदार मान रहे हैं। उनका मानना है कि कोरोना महामारी के कारण 45 दिनों तक प्रदेश की शराब दुकानें अचानक बंद करनी पड़ीं। इतनी लंबी अवधि तक शराब नही मिलने के बावजूद प्रदेश में कोई जन हानि नही हुई। बल्कि इसके उलट शराबियों का स्वास्थ्य सुधर गया। उनकी खुराक बढ़ गई। घरेलू हिंसा बंद हो गई। गांव मे लड़ाई-झगड़े बंद हो गए और सुख-शांति का वातावरण बन गया। ऐसे में राजस्व का बहाना कर कर शराब बेचना उचित नहीं है।
वाजपेयी ने तो यह भी मांग की है कि कांग्रेस को खुलासा करना चाहिए कि छत्तीसगढ़ के एक लाख करोड़ के सालाना बजट में से शराब से मात्र चार हजार करोड़ ही आते हैं। इसमे से 1600 करोड़ की शराब खरीदी जाती है। इसके अलावा आबकारी विभाग और आठ सौ सरकारी शराब की दुकानों पर मोटी रकम खर्च करने के बाद सरकारी खजाने मे कोई विशेष आमदनी जमा नही होती। फिर ऐसा क्या कारण है कि कोरोना महामारी के बीच वो राजस्व का बहाना बनाकर शराब दुकानों पर हजारों की भीड़ इक_ा कर रही है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर शराब बिक्री का इतना मोह क्यों है। राजनीति और प्रशासन से जुड़े लोग भी मानते हैं कि शराब बिक्री से सरकार को तो भारी भरकम कमाई होती है, साथ ही इससे होने वाली अवैध कमाई भी कई सौ करोड़ में है। यह एक बड़ी वजह है जिसके कारण सरकार किसी भी पार्टी की हो, यह सिलसिला लगातार चल रहा है।
शराब से सरकारी कमाई को कम आंकने वाले थोड़ी और तफ्तीश करेंगे तो पता चलेगा कि शराब से सरकारी खजाने में 3 से साढ़े 3 हजार करोड़ का मुनाफा होता है। निश्चित तौर पर इस बरस यह आंकड़ा और बढ़ सकता है, क्योंकि शराब के दाम में 30 फीसदी की बढ़ोतरी की है। शराब बिक्री में खर्च करीब-करीब उतना ही आना है, जितना पिछले बरस आया था। जानकारी के मुताबिक पिछले साल वेतन भत्ता, बिजली-पानी, किराया, टैक्स तमाम मद में 150-200 करोड़ के बीच खर्च हुआ था। 1350 करोड़ के आसपास की दारु खरीदी गई। जबकि बिक्री पांच हजार तीन सौ करोड़ से अधिक की हुई थी। इस तरह शराब से आमदनी का मोटा अंदाजा लगाया जा सकता है। फिर भी शराब से हो रही बरबादी के आगे इस मुनाफे को न्यूनतम आंका जाना चाहिए।