राजपथ - जनपथ

छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : अफसर भी मुखिया की राह पर
14-Jan-2020
छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : अफसर भी मुखिया की राह पर

अफसर भी मुखिया की राह पर

छत्तीसगढ़ के मुखिया हाथ में भौंरा चलाने के कारण खूब ट्रेंड होते हैं। सड़क से लेकर मीडिया और सोशल मीडिया में उनकी यह कला सुर्खियों में रहती है। बचपन के ये खेल पचपन में भी लोगों के सिर चढ़कर बोलेगा, शायद ही किसी ने सोचा होगा। स्थिति यह है कि गांव-गलियों और शहर से निकलकर यह खेल सरकारी दफ्तरों और मंत्रालय के गलियारों तक पहुंच गया है। युवा उत्सव में शहर के एसपी-कलेक्टर भी भौंरा चलाते नजर आए। उन्होंने भी सूबे के मुखिया की तरह हाथ में भौंरा चलाकर लोगों को थोड़ा चकित किया, क्योंकि आमतौर पर ऐसे खेल गांवों में ज्यादा प्रचलित हैं, लेकिन मौजूदा दौर में तमाम पारंपरिक खेलकूद विलुप्त होते जा रहे हैं। अधिकांश गांवों में बच्चे और युवा क्रिकेट का बल्ला थामे दिखते हैं। ऐसे में राजधानी के इन दो युवा अफसरों, कलेक्टर और एसपी के भौंरा चलाने के वीडियो ने सभी का ध्यान खींचा है। इससे दूसरे जिलों के अफसरों को नया टॉस्क मिल गया है। जिन्हें भौंरा चलाना नहीं आता, वो थोड़े असहज महसूस करने लगे हैं। कुछ अफसरों ने तो बकायदा भौंरा चलाना, गेड़ी चढऩे की प्रैक्टिस शुरू कर दी है। संभव है कि अलग-अलग जिलों के अफसरों की भी भौंरा चलाते तस्वीर वायरल हो। वैसे अफसरों की तासीर होती है कि वे मुखिया को तेजी से फॉलो करते हैं। कुछ अफसरों को यह भी लगता है कि मुखिया की पसंद नापसंद के हिसाब से चलने में असुविधाजनक स्थिति की आशंका नहीं रहती। यह बात तो तय है कि मुखिया को खुश करने के चक्कर में छत्तीसगढ़ के स्थानीय खेलकूद और लोक पर्व की पूछपरख तो बढ़ गई है, लेकिन समस्या यह है अफसर भी भौंरा-गेड़ी में मग्न हो जाएंगे तो प्रशासनिक कामकाज का क्या होगा। कहा तो यह भी जाता है कि अफसरों के लिए सियासतदारों की नकल कभी भी भारी पड़ सकती है। 

लेकिन समाजशास्त्रियों का यह अनुभव है कि नौकरशाही अगर स्थानीय बोली, स्थानीय संस्कृति, स्थानीय पोशाक से जुड़कर चलती है, तो उसे जनता का विश्वास तेजी से मिल जाता है। देश के बहुत से सबसे कामयाब आलाअफसर ऐसे ही रहे हैं जिन्होंने स्थानीयता के साथ काम किया। अब अगर भौंरा चलाने, या गेड़ी पर चलने से सत्ता और जनता के बीच की दूरी घटती है, तो उस पर थोड़ा वक्त लगाना प्रशासन के लिए अच्छा ही है। और यह भी है कि इन अफसरों के बहाने इनके बच्चे भी देसी खेल सीख पाएंगे जिससे उनके आसपास के दूसरे बच्चों के बीच भी एक दिलचस्पी पैदा होगी।

फिल्मों के सियासी-पब्लिक मायने
देशभर में फिल्म को लेकर सियासत मची हुई है। छत्तीसगढ़ में भी इसका असर देखने को मिला। राज्य के मुखिया लाव लश्कर के साथ सिनेमा देखने पहुंचे। इसके तुरंत बाद पूर्व मुखिया ने भी पत्नी और पार्टी के नेताओं के साथ सिनेमा का आनंद उठाया। आमतौर पर लोग फिल्म मनोरंजन के लिए देखते हैं, लेकिन राजनीति में मनोरंजन से ज्यादा सियासी मयाने होते हैं। दोनों नेताओं ने अलग-अलग फिल्में देखकर पार्टी लाइन और विचारधारा का भी संदेश दे दिया। यहां पसंद-नापसंद से ज्यादा महत्व संदेश का होता है। इसी आधार पर दोनों सियासतदारों ने फिल्मों का सलेक्शन किया, लेकिन लोगों का क्या है, उनका काम तो बोलना है। लोगों ने चर्चा शुरू हो गई है कि डॉक्टर साहब कहीं तन्हा महसूस तो नहीं कर रहे हैं, जिसकी वजह से तानाजी देखने पहुंचे गए। अब लोगों को कौन समझाए कि तन्हा हो भी जाएं तो भी राजनीति में जाहिर नहीं किया जाता।

दूसरी बात यह है कि कांगे्रस-गैरभाजपाई पार्टियों की ताजा पसंद दीपिका की फिल्म आज के एक सामाजिक मुद्दे को लेकर है, हिंदुस्तानियों लड़कियों पर तेजाबी हमले पर। और उसके मुकाबले जिस दूसरी फिल्म को भाजपाई-बढ़ावा मिल रहा है वह एक ऐतिहासिक विषय पर बनी हुई है। ये दोनों ही किस्म की पसंदें इन दोनों राजनीतिक खेमों की अच्छी तरह स्थापित सोच के मुताबिक ही है। लेकिन जब भाजपा के कुछ लोगों ने यह तुलना शुरू की कि तानाजी की कमाई छपाक से बहुत अधिक है, तो एक गुटनिरपेक्ष आदमी ने कहा कि तानाजी की कमाई की तुलना करना है तो दूसरे ऐतिहासिक मुद्दों पर बनी हुई फिल्मों की कमाई से करें, जलते-सुलगते तेजाबी सामाजिक हकीकत पर बनी फिल्म की कमाई से तुलना तो नाजायज है।

तजुर्बा अनिवार्य नहीं होता...
राज्य सरकार में 3-3 भूतपूर्व पत्रकार सलाहकार के पद पर काम कर रहे हैं, उसका असर है, या फिर जनसंपर्क विभाग के खुद के कामकाज का, पिछली सरकार के मुकाबले तस्वीरों और खबरों के मामले में यह सरकारी अमला अब अचानक बेहतर काम करते दिख रहा है। आदिवासी नृत्य महोत्सव, और अब युवा उत्सव, इन दो बड़े आयोजनों में जनसंपर्क विभाग ने एक अभूतपूर्व चुस्ती दिखाई है, और शायद वह भी एक वजह है कि इन कार्यक्रमों का मीडिया में कवरेज बेहतर हो रहा है। रमन सिंह सरकार के समय तस्वीरों और खबरों के लिए चौकन्ने अखबारों को लगातार जनसंपर्क के अफसरों से संघर्ष करना पड़ता था, और अखबारों के संस्करण छपने जाते रहते थे, खबरों का ठिकाना नहीं रहता था। उस वक्त जनसंपर्क में कुछ भूतपूर्व पत्रकार थे, और अब तो विभाग में भूतपूर्व पत्रकार नहीं हैं, फिर भी अखबारी जरूरत बेहतर तरीके से पूरी हो रही है। मतलब यह कि किसी काम को अच्छा करने के लिए उस पेशे का तजुर्बा अनिवार्य नहीं होता, और उसके बिना भी बेहतर काम हो सकता है। ([email protected])

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