राजपथ - जनपथ
हासिल आया जीरो बटे सन्नाटा
वैसे तो ट्रांसफर-पोस्टिंग लेन-देन की शिकायत हमेशा से होती रही है। सरकार कोई भी हो, ट्रांसफर उद्योग चलाने का आरोप लगता ही है। यह भी सत्य है कि निर्माण विभागों के अलावा आबकारी व परिवहन में मलाईदार पदों में पोस्टिंग के लिए अफसर हर तरह की सेवा-सत्कार के लिए तैयार रहते हैं। इन सबके बीच निर्माण विभाग में एक ऊंचे पद के लिए ऐसी बोली लगी कि इसकी चर्चा आम लोगों में होने लगी है।
हुआ यूं कि सरकार बदलते ही पिछली सरकार के करीबी, दागी-बागी टाइप के अफसरों को हटाने का सिलसिला शुरू हुआ। इन सबके बीच निर्माण विभाग के एक बड़े अफसर को हटाने की मुहिम शुरू हुई। हटाने के लिए जरूरी भ्रष्टाचार की शिकायतों का पुलिंदा तैयार किया गया। बात नहीं बनी, तो अफसर को पिछली सरकार का बेहद करीबी बताया गया। फिर क्या था, अफसर को हटाने के लिए नोटशीट चल गई। विभागीय मंत्री के साथ-साथ एक अन्य मंत्री की भी अनुशंसा ले ली गई।
अफसर को हटाने के बाद जिस दूसरे अफसर को बिठाने का वादा किया गया था उससे काफी माल-टाल ले लिया गया। मलाईदार पद पाने के आकांक्षी अफसर ने माल-टाल जुटाने के लिए हर स्तर पर कलेक्शन किया। सब कुछ पाने के बाद इस पूरी मुहिम के अगुवा, मंत्री बंगले के अफसर ने वादा किया था कि जल्द ही बड़े अफसर को हटाकर उनकी पोस्टिंग हो जाएगी।
महीनेभर से अधिक समय गुजर गया, लेकिन पहले से जमे-जमाए बड़े अफसर को हटाया नहीं जा सका है। सुनते हैं कि इस पूरे लेन-देने की चर्चा दाऊजी तक पहुंच गई थी। दाऊजी ने नोटशीट को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। जिस अफसर ने मलाईदार पद पर बैठने के लिए इतना सब कुछ हुआ कि वे अब परेशान हो गए हैं। सबकुछ डूबने की आशंका तो है ही, इससे आगे लेन-देन की चर्चा भी इतनी आम हो गई है कि हर जानकार लोग अफसर से पूछने लगे हैं, शपथ कब होगा?
संघविरोध की तीसरी पीढ़ी, भूपेश...
संघ-भाजपा, मोदी-शाह, और गोडसे को लेकर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के बयान एक अभूतपूर्व आक्रामकता से भरे हुए हैं। उनके गुरू दिग्विजय सिंह भी आक्रामकता में कहीं कम नहीं थे, और एक वक्त के दिग्विजय के गुरू अर्जुन सिंह भी ऐसे ही थे। लेकिन अर्जुन सिंह एक अलग पीढ़ी के थे, और आरएसएस पर उनका हमला वैचारिक और सैद्धांतिक अधिक रहता था। जो लोग अर्जुन सिंह को करीब से जानते थे, उनमें से कुछ का यह मानना था कि उनके एक सबसे पसंदीदा आईएएस अफसर, सुदीप बैनर्जी, ने अर्जुन सिंह की धार को और तेज करने का काम किया था। वे संघ के खिलाफ तो थे ही, लेकिन सुदीप बैनर्जी अपनी निजी विचारधारा के चलते संघ के खिलाफ बहुत से पुराने दस्तावेज निकालकर-छांटकर, संदर्भ सहित तैयार करके अर्जुन सिंह के लिए मोर्चा तैयार करने का काम करते थे। अर्जुन सिंह के साथ काम करने वाले सुनिल कुमार, और बैजेन्द्र कुमार जैसे लोग भी वैचारिक रूप से धर्मनिरपेक्ष, और संघ के आलोचक थे, और ऐसे दायरे में अर्जुन सिंह की आक्रामकता बढ़ती गई थी। जहां तक दिग्विजय सिंह का सवाल है तो वे संघ-भाजपा के खिलाफ अपनी बुनियादी समझ के बाद दस्तावेजों पर अधिक निर्भर नहीं करते, और हमले के लिए हर वक्त तैयार रहते हैं। भूपेश बघेल में इन दोनों पीढिय़ों से ली गई कुछ-कुछ बातें दिखती हैं, और कल नेहरू जयंती पर उन्होंने कहा- संघ की वेशभूषा और उसके वाद्ययंत्र भारतीय नहीं है, ये लोग मुसोलिनी को अपना आदर्श मानते हैं, उनसे प्रेरणा लेकर काली टोपी और खाकी पेंट पहनते हैं, और ड्रम बजाते हैं जिनमें से कुछ भी भारत के नहीं हैं।
अब इंटरनेट पर मामूली सी सर्च बता देती है कि आरएसएस जिस बिगुल का इस्तेमाल करता है, वह पश्चिम का बना हुआ है, और सैकड़ों बरस पहले से वहां इस्तेमाल होते आया है। हिन्दुस्तान में शादियों में गाने-बजाने वाली बैंड पार्टी भी ऐसा ही बिगुल बजाती है जिसे ट्रम्पेट कहते हैं, और इसी एक वाद्ययंत्र के नाम पर बैंड पार्टी को परंपरागत रूप से ब्रास बैंड पार्टी कहा जाता है, क्योंकि यह ट्रम्पेट, ब्रास यानी पीतल का बना होता है। भूपेश की यह बात सही है कि संघ का हाफपैंट, या नया फुलपैंट हिन्दुस्तानी नहीं हैं, और बिगुल भी हिन्दुस्तानी नहीं हैं। संघ के पथ संचलन में जिस ड्रम का उपयोग होता है, वह भी हिन्दुस्तानी तो नहीं है। वैसे तो यह एक अच्छी बात है कि अपने देश की कही जाने वाली संस्कृति के लिए मर-मिटने को उतारू संस्था दूसरे देशों के प्रतीकों का भी इस्तेमाल करती है, और इसमें कोई बुराई नहीं समझी जानी चाहिए, लेकिन भूपेश का तर्क अपनी जगह है कि संघ इन विदेशी चीजों का इस्तेमाल करता है। भूपेश ने कल ही यह ट्वीट किया है कि आरएसएस हिटलर और मुसोलिनी को अपना आदर्श मानता है। यह भी कोई नया रहस्य नहीं है क्योंकि संघ के सबसे वरिष्ठ लोगों ने अपनी प्रकाशित किताबों में हिटलर की तारीफ में बहुत कुछ लिखा हुआ है। दरअसल नेहरू जयंती पर भूपेश ने याद दिलाया कि इटली का एक फासिस्ट प्रधानमंत्री बेनिटो मुसोलिनी नेहरू से मिलना चाहता था, लेकिन नेहरू ने उससे मिलने से इंकार कर दिया था। भूपेश का संघविरोध कांग्रेस और मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ की राजनीति की तीसरी पीढ़ी है, अर्जुन सिंह के बाद दिग्विजय सिंह, और दिग्विजय के बाद भूपेश बघेल। किताबों में दर्ज अपना ही कहा हुआ सच भी कोई बार-बार कुरेदे, तो वह असुविधाजनक तो हो ही जाता है।
व्यायामशाला से जिम तक
छत्तीसगढ़ में इन दिनों कई खबरें हैं जो बता रही हैं कि बड़े-बड़े महंगे जिम में किस तरह मसल्स बनाने के नाम पर नौजवानों को प्रोटीन सप्लीमेंट्स और कुछ दूसरे नशीले सामान खिलाए-पिलाए जा रहे हैं।
इस बारे में एक वक्त व्यायामशाला जाने वाले ट्रेड यूनियनबाज अपूर्व गर्ग ने फेसबुक पर लिखा है- हम सबने आज खबर पढ़ी कि रायपुर में एक बॉडीबिल्डर को स्टेरॉइड लेने की वजह से अस्पताल में भर्ती करने की नौबत आई। आज बॉडीबिल्डिंग का जबर्दस्त क्रेज है, और इससे जुड़ा कारोबारी सब कुछ बेच देना चाहता है। लेकिन लोग बॉडीबिल्डिंग तो पहले से करते आए हैं, लेकिन कभी ऐसी दवाओं का चलन यहां नहीं था। यहां से निकले हुए दिग्गज बिना प्रोटीन, बिना दवा आगे बढ़ते चले गए।
संजय शर्मा, राजीव शर्मा, एवन जैन, जवाहर सोनी, जंघेल, तन्द्रा राय चौधरी, युसूफ भाई जैसे जमीन से जुड़े लोगों ने इस शहर की मिट्टी को अपने पसीने से सींच कर बॉडी बिल्डर्स की फसल तैयार की।
ये फसलें पूरी तरह प्राकृतिक या आज की शब्दावली में कहें तो आर्गेनिक थी न कृत्रिम प्रोटीन न फर्जी विटामिन, स्टीरॉइड, की कल्पना तो सपने में भी नहीं की जा सकती थी।
इस शहर के पुराने मोहल्लों में व्यायाम शाला जरूर होती थी वो चाहे पुरानी बस्ती हो या लोधी पारा देशबंधु संघ या टिकरापारा, पुराना गॉस मेमोरियल हो या रायपुर की सबसे बड़ी, हवादार सप्रे स्कूल की ही व्यायामशाला क्यों न हो, अनुभवी पहलवानों की निगाहें नए नवेलों पर होती थीं। मजाल है कोई बिना लंगोट कसरत कर ले! मजाल है कोई कसरती नियमों का उल्लंघन कर ले!
इन गुरु हनुमानों के रहते किसी की मजाल नहीं होती थी कि उदण्डता, अश्लीलता या अनुशासनहीनता कोई कर सके। ये जितनी सख्ती से कसरत सिखाते थे उतना ही स्नेह करते और ख्याल रखते थे।
आज जब कुछ मॉडर्न हेल्थ गुरू अपने शागिर्दों को कसरत के नाम पर लूटकर मौत के मुँह में धकेल रहे हैं तो वो पुराने चेहरे बार-बार सामने आ रहे हैं जिनके लिए व्यायाम शाला मंदिर होता था, कसरत पूजा और शिष्य छोटे भाई या बच्चे की तरह होते थे।
ये छोटे भाई ही आज कृष्णा साहू, मनोज चोपड़ा, मेघेश तिवारी, बुधराम सारंग (रुस्तम के पिता) जैसे न जाने कितने हैं जो देश और दुनिया में शहर का नाम रोशन कर रहे हैं।
उम्मीद है आने वाली नस्लों, फसलों पर घातक केमिकल का प्रयोग कर उन्हें जहरीला नहीं बनाया जायेगा। उम्मीद है मुनाफे की हवस इस उर्वर भूमि को बंजर नहीं करेगी। उम्मीद है पुराने दिनों की तरह एक बार फिर व्यायाम शाला से बहता पसीना तय करेगा कौन श्रेष्ठ है, न कि हेल्थ क्लब में बिकती दवाईयां!! - अपूर्व गर्ग
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