राजपथ - जनपथ

राजपथ-जनपथ : श्रद्धा धरी रही
30-Oct-2024 3:59 PM
राजपथ-जनपथ : श्रद्धा धरी रही

श्रद्धा धरी रही

कुछ लोगों को इस बात का बड़ा मलाल है कि चुनाव की घोषणा दीवाली के पहले हो गई। अब जिस सीट पर चुनाव है, वहां के दो बड़े उम्मीदवारों पर ही दीवाली का सालाना शिष्टाचार निभाने की जिम्मेदारी आकर टिक गई है। अगर उम्मीदवारों के नाम दीवाली के बाद घोषित होते, तो इन दो के मुकाबले दर्जन भर उम्मीद लगाए संभावित उम्मीदवारों को शिष्टाचार निभाना पड़ता। लेकिन अब दीवाली में असरदार लोगों तक पहुंचने वाले तोहफों की गिनती गिर गई है। 

एक बड़े अखबारनवीस इस मलाल में जी रहे हैं कि एक पार्टी के उम्मीद लगाए एक नेता उनसे अपने बड़े नेताओं तक यह सिफारिश करवाना चाहते थे कि वे सबसे काबिल उम्मीदवार रहेंगे। लेकिन जब उम्मीदवार किसी और को बना दिया गया, तो उन्होंने मिठाई का एक छोटा सा डिब्बा पहुंचाने का शिष्टाचार भी नहीं निभाया। वक्त निकल जाए तो कौन किसे गिनते हैं? और समय रहे तो लोग किसी का हाथ अपने सिर पर रखकर श्रद्धा जताते हैं। 

इस बार तस्वीर अलग 

रायपुर दक्षिण विधानसभा उपचुनाव पिछले कई चुनावों से अलग है। सांसद बृजमोहन अग्रवाल यहां का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं, और अब पहली बार उनकी गैरमौजूदगी में चुनाव हो रहा है। वैसे तो बृजमोहन अग्रवाल, भाजपा प्रत्याशी सुनील सोनी को जिताने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। लेकिन कांग्रेस से अब तक वैसा सहयोग नहीं मिल पा रहा है, जो उन्हें खुद के चुनाव में मिलता रहा है। 

बृजमोहन के चुनाव में कई कांग्रेस पार्षद औपचारिकता निभाते रहे हैं, लेकिन इस बार वो वार्ड में ही मेहनत करते दिख रहे हैं। इसकी वजह यह है कि एक महीने के भीतर उन्हें खुद चुनाव लडऩा है। यदि उनके अपने वार्ड में प्रदर्शन खराब रहता है, तो कांग्रेस उन्हें प्रत्याशी बनाने पर पुनर्विचार कर सकती है। ऐसे में पार्षदों के लिए खुद की परीक्षा की घड़ी भी है। खास बात यह है कि प्रदेश अध्यक्ष दीपक बैज लगातार बूथ कमेटियों की बैठक में खुद जा रहे हैं। इससे कांग्रेस कार्यकर्ताओं में उत्साह दिख रहा है। यह पहला मौका है जब पहली बार बृजमोहन की गैर मौजूदगी में भाजपा को कड़ी टक्कर देते दिख रही है। 

मगर मुश्किलें बरकरार 

एस आई भर्ती के 975 अभ्यर्थी बाल-बाल बचे। 28 की सुबह दो घंटे की देरी होती तो सुप्रीम कोर्ट में याचिका लग चुकी होती कि यह कहकर आगामी आदेश तक प्रक्रिया रोकी जाए। रायपुर से चार अभ्यर्थी अपनी याचिका लेकर दिल्ली जा/भेजे जा चुके थे। इस बात कि सरकार को पिछले शुक्रवार को भनक लग चुकी थी। सो मंत्रालय से पीएचक्यू तक आसमान-जमीन एक कर आदेश की नस्तियां लाल- पीली बत्तियां इतनी तेजी से दौड़ाई गई। और सुबह 10.30 बजे चयन सूची जारी करने की खबर वायरल कर दी गई। सारी चयन प्रक्रिया पूरी होने के बाद जो काम छह वर्ष से रुका पड़ा था। 

हाईकोर्ट ने आदेश जारी करने दिए अल्टीमेटम के बाद भी सरकार ने दीपावली बाद का समय देने की अपील की थी। सुप्रीम कोर्ट की याचिका में चयनित नामों पर उंगली उठाते हुए याचिका तैयार कर ली गई थी। यह सूची भी बघेल सरकार की पीएससी सूची की ही तरह होने के आरोपों और तथ्य लिए हुए है। कोई किसी, कार्यरत और रिटायर्ड पुलिस अफसर का बेटा बेटी, भांजा भतीजा आदि आदि बताए गए हैं। इन्हें चुनौती देने के लिए पांच लाख की एडवांस फीस देकर कुछ अभ्यार्थी भेजे गए। वकालतनामा भी तैयार था। इससे पहले कि याचिका लिस्ट होती यहां सूची जारी कर दी गई। इस तरह से मोदी की एक और चुनावी गारंटी पूरी हो गई। खतरा अभी टला नहीं है। 

अभी इनमें से कई के कैरेक्टर पुलिस वेरिफिकेशन शेष हैं। इसमें यह आवश्यक है कि किसी पर व्यक्तिगत या सामूहिक अपराध, आंदोलन करने, लॉ एंड आर्डर के मामले दर्ज न हो। और ये सभी तो अपने चयन के लिए सीएम हाउस वाले वीआईपी सुरक्षा वाले क्षेत्र में धारा 144 लागू होने के बाद भी धरना प्रदर्शन, गिरफ्तार भी हो चुके हैं। ऐसे में क्लीन कैरेक्टर देने पर भी प्रश्न चिन्ह उठाए जाएंगे। इनमें से जिसके कैरेक्टर पर दाग होगा वो मुश्किल में पड़ जाएंगे।

सत्ता बदली और बोर्ड जख्मी

सत्ता बदलते ही नेताओं की तस्वीरों का गायब होना कोई नई बात नहीं, पर छत्तीसगढ़ के धनवंतरी मेडिकल स्टोर्स पर लगे कुछ होर्डिंग्स में यह परिवर्तन अनूठे ढंग से देखा जा सकता है। ये मेडिकल स्टोर्स पूर्व सरकार द्वारा आम जनता को सस्ते दामों पर दवाएं उपलब्ध कराने के उद्देश्य से खोले गए थे, जिन पर तत्कालीन मुख्यमंत्री और नगरीय प्रशासन मंत्री की तस्वीरें लगी थीं। लेकिन अब, सरकार बदलने के बाद भी इन होर्डिंग्स को हटाया नहीं गया, बल्कि तस्वीरों को खुरच कर मिटाने की अधूरी कोशिश जरूर हुई है।

बिलासपुर के एक धनवंतरी मेडिकल स्टोर के बाहर लगे इस बोर्ड पर नाम और उद्देश्य का हिस्सा जस का तस बना हुआ है, जबकि तस्वीरों को मिटाने के प्रयास में उसे खुरच दिया गया है। सरकारों के बदलने के साथ ही कई बार योजनाओं और चेहरे भी बदल जाते हैं, पर यहां तस्वीरों के साथ जो सलूक किया गया है उस पर विवाद हो सकता है।

लक्ष्य की होड़ में अनदेखी

मोतियाबिंद का पता चलने पर जल्द ऑपरेशन आवश्यक है, मगर सरकारी अस्पतालों के डॉक्टरों पर दबाव बनाकर लक्ष्य थोपना एक गंभीर जोखिम है। दंतेवाड़ा जिला अस्पताल में 10 अक्टूबर के बाद ऑपरेशन कराने वाले 39 मरीजों में से 17 में संक्रमण फैल गया, जिसमें से दो मरीजों की आंखों की रोशनी जा चुकी है। अब पता चल रहा है कि यहां के स्टाफ को हर सप्ताह 20 ऑपरेशन करने का लक्ष्य दिया गया था।

कुछ साल पहले तखतपुर में भी इसी तरह के लक्ष्य-निर्धारण ने नसबंदी कांड का रूप लिया था, जिसमें 16 महिलाओं की जान चली गई थी। उस समय शिविर में 200 से अधिक महिलाओं को लाकर जल्दी-जल्दी ऑपरेशन कर घर भेज दिया गया। जांच में पाया गया कि एक ऑपरेशन में मुश्किल से तीन मिनट ही लगे थे। नसबंदी कांड के बाद सरकारी स्वास्थ्य कार्यक्रमों ऐसे लक्ष्यों को जोडऩे पर रोक लगाई गई थी, मगर अब मोतियाबिंद ऑपरेशनों में वही गलती दोहराई गई।

दंतेवाड़ा अस्पताल में चार ऑपरेशन थिएटर तो हैं, मगर आई वार्ड एक भी नहीं है। अगर ऑपरेशन के बाद मरीजों को डॉक्टरों की निगरानी में कुछ दिन रुकने की सुविधा दी जाती, तो शायद संक्रमण को टाला जा सकता था। जैसे-जैसे इस मामले की जांच आगे बढ़ेगी, इसके पीछे की कई परतें खुलेंगी। फिलहाल दोषी ठहराकर सिर्फ ऑपरेशन करने वाली डॉक्टर और उनकी टीम को निलंबित कर दिया गया है। यह प्रश्न अभी भी बना हुआ है कि आखिर बिना पर्याप्त सुविधाओं के दबाव में इतनी जल्दी-जल्दी ऑपरेशन कराने का आदेश किसके द्वारा और क्यों दिया जा रहा था। 

(rajpathjanpath@gmail.com)


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