राजपथ - जनपथ

पेसा कानून की ताकत को लेकर जिज्ञासा
पंचायत एक्सटेंशन ऑफ शेल्ड्यूल्ड एरिया (पेसा) एक्ट राज्य बनने के बाद से ही छत्तीसगढ़ में लागू है। पर इसे कानून का रूप देने के लिये नियमों का बनाया जाना जरूरी था। 22वें साल में अब यह तैयार है और केबिनेट की अगली बैठक में इस पर प्रस्ताव लाये जाने की घोषणा मुख्यमंत्री ने कर दी है। इसे बनाने के लिए आदिवासी संगठनों, समितियों, जनप्रतिनिधियों से बातचीत की एक लंबी प्रक्रिया चली थी।
कांग्रेस का सीधा आरोप है कि अपने 15 सालों के कार्यकाल में भाजपा ने इसके नियम नहीं बनाये, क्योंकि वह आदिवासियों को अधिकार नहीं देना चाहती थी। अब कांग्रेस अपना चुनावी वादा पूरा करने जा रही है। दावा है कि नये कानून से आदिवासी इलाकों के रहने वालों को अधिक मजबूत और अधिकार संपन्न बनाया जा सकेगा।
अभी स्थिति यह है कि अलग-अलग सवालों को लेकर आदिवासियों का सरकार के साथ संघर्ष चल रहा है, आंदोलन हो रहे हैं। बस्तर में निर्दोषों की फायरिंग से मौत और फोर्स की कैंप के खिलाफ लंबा आंदोलन हो रहा है, तो सरगुजा के हसदेव अरण्य में कोल ब्लॉक आवंटन का विरोध प्रदर्शन लंबा खिंचता जा रहा है। जशपुर में नए आ रहे उद्योगों के विरोध में प्रदर्शन हो चुका है।
इन सवालों से बचने का एक रास्ता सरकार के पास हमेशा रहता है कि आंदोलन करने वालों को पूरे समुदाय का समर्थन नहीं है। अधिकारी कहते हैं कि बहुत से लोग खदान खुलते हुए भी देखना चाहते हैं, कुछ लोगों को फोर्स के कैंप से कोई दिक्कत नहीं और जशपुर जैसे इलाकों में भी लोग उद्योगों की स्थापना चाहते हैं, ताकि पढ़े-लिखे प्रशिक्षित नौजवानों को रोजगार मिले।
पेसा कानून का स्वरूप कैसा है यह अभी सामने नहीं आया है। पर यह संभावना है कि इस कानून के अंतर्गत बनने वाली समितियों के अधिकार मौजूदा ग्राम पंचायतों, सभाओं से कहीं अधिक होंगे। उनके प्रस्ताव अधिकारिक भी होंगे। सरकार को निर्णय लेने में आसानी होगी कि वास्तव में स्थानीय निवासी क्या चाहते हैं।
इधर आदिवासी समाज और उनके अधिकारों की लड़ाई लडऩे वाले संगठनों को पेसा कानून के नियमों के उजागर होने की बड़ी प्रतीक्षा है। उनका कहना है कि ग्राम सभाओं के पास पहले से ही काफी अधिकार हैं, पर वही होता है जो सरकार या उनके लाइवलीहुड में हस्तक्षेप करने वाले उद्योगपति चाहते हैं। क्या पेसा कानून की नियमावली बनाते समय इस बात पर गौर किया गया है? या फिर कोई सुराख छोड़ दी गई है?
बिन मांगे कर्ज!
लगातार बढ़ती जा रही साइबर ठगी के इस दौर में कर्ज की अर्जी बिना भी कर्ज मंजूर हो जाने के ऐसे संदेश आते रहते हैं जिनमें किसी वेबसाइट का एक लिंक भी दिया रहता है। अब ऐसे लिंक पर जाने का क्या नतीजा होगा, यह तो पता नहीं, क्योंकि समझदारी इसी में है कि ऐसे लिंक क्लिक न किए जाएं। लेकिन आज जब लोग बहुत बुरे हाल से गुजर रहे हैं, तो तीन लाख रूपए मिलने की एक संभावना उन्हें जाल में फंसाने की ताकत तो रखती है।
गांवों का दर्जा वापस करेगी सरकार?
सामान्य क्षेत्रों में ही यदि किसी ग्राम पंचायत को नगर पंचायत का दर्जा दे दिया जाता है तो कई सुविधाओं से उन्हें वंचित होना पड़ जाता है। विकास और रोजगार के लिए केंद्र राज्य से मिलने वाले फंड में बड़ा अंतर आ आता है। नागरिकों की सुविधाएं बढ़े न बढ़े, टैक्स जरूर बढ़ जाता है। पांचवी अनुसूची वाले क्षेत्रों में ग्राम पंचायतों को नगर पंचायत का दर्जा देने का विषय विवादों में रहा है। इसे लेकर लोग कोर्ट भी गए हैं। राज्यपाल अनुसुईया उइके भी इसके विरोध में हैं। उनके पास प्रभावित लोगों ने शिकायतें भी की हैं। एक बार फिर उन्होंने सरकार से कहा है कि प्रेमनगर (सरगुजा), नरहरपुर (कांकेर), दोरनापाल (सुकमा) और बस्तर को दुबारा ग्राम पंचायत बनाने के बारे में वहां के लोगों की मांग के अनुरूप विचार करें। सरकार के पास अपना तर्क है कि एक निश्चित जनसंख्या होने के बाद ग्राम पंचायतों को नगर पंचायत का दर्जा दिया जाता है। पर अनुसूचित क्षेत्र के लोगों का कहना है कि यह नियम उन पर लागू नहीं होता। देखना है कि राज्यपाल द्वारा दुबारा ध्यान दिलाये जाने के बाद सरकार पीछे लौटती है या नहीं?
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